दुर्ग का प्राचीन नाम द्रुग ही था

स्‍टील टि्वन सिटी के नाम से ज्ञात मेरे नगर के मुख्‍य डाकघर के पास लगे एक पत्‍थर पे मेरी नजर पिछले कई बरसों से ठहर जाती रही है. यह पत्‍थर संभवत: तत्‍कालीन ब्रिटिश शासन के द्वारा मील के पत्‍थर के रूप में जीई रोड के किनारे लगाई गई थी. इस पर नागपुर और रायपुर की दूरी लिखी गई है. इस पत्‍थर में दुर्ग का नाम द्रुग लिखा हुआ है. DURG की जगह DRUG. इस प्रश्‍न का जवाब हमने कई लोगों से पूछा संतोषप्रद उत्‍तर नहीं मिल पाया. थोडा और खोजबीन की तो पाया कि छत्‍तीसगढ के दुर्ग नगर को 'दुर्ग' कहने की परम्‍परा ज्‍यादा पुरानी नहीं है. दुर्ग नगर का क्षेत्र जब भंडारा से संलग्‍न था तदुपरांत 1857 में यह रायपुर जिले का तलसील बना तब तक इस नगर को द्रुग कहा जाता था.


दुर्ग नगर की स्‍थापना लगभग दसवीं शताब्दि में मिर्जापुर के बाघल देश से आये जगपाल नामक व्‍यक्ति नें की थी. तब जगपाल रतनपुर के राजा का खजांची का काम सेवानिष्‍ठा से निबटा रहा था जिसके एवज में रतनपुर के राजा नें दुर्ग सहित 700 गांव उसे इनाम में दिये थे. सन् 1890 के लगभग यूरोपीय यात्री लेकी के दुर्ग आगमन का उल्‍लेख मिलता है. अपनी डायरी में लेकी नें लिखा था कि हमने दुर्ग के किले के आस-पास अपना टेंट लगाया, यहां पान के बहुतायत खेत थे, आस पास के गांवों में कृषि की जाती है. दुर्ग जिले की स्‍थापना 1 जनवरी सन् 1906 में की गई थी. तब आज के कवर्धा(कबीरधाम) व राजनांदगांव जिले भी इसमें शामिल थे, साथ ही साथ धमतरी तहसील, सिमगा व मुंगेली के कुछ भाग भी इस जिले में शामिल थे. बाद में इसके अतिरिक्‍त छुई खदान की रियासत भी इस जिले में शामिल की गई. ब्रिटिश शासन काल के सभी अभिलेखों में सन् 1818 से 1947 तक दुर्ग नगर, तहसील व जिले को द्रुग ही कहा गया है.

तो ..... भिलाई की जगह टाटानगर बसा होता.

दुर्ग जिले में लौह अयस्‍क भंडार होने के संबंध में सर्वप्रथम 1887 में भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण जिल्‍द बीस के अभिलेखों में पी.एन.बोस के द्वारा एक शोध पत्र के द्वारा बतलाया गया. इसके बाद से ही तत्‍कालीन मे.टाटा संस एण्‍ड कम्‍पनी की ओर से दुर्ग जिले में दिलचस्‍पी बढ गई थी. टाटा के द्वारा दुर्ग (तब रायपुर जिले का एक तहसील) के तत्‍कालीन डौंडी लोहारा जमीदारी के विशाल क्षेत्र में सर्वेक्षण अनुज्ञप्ति प्राप्‍त किया गया था एवं टाटा के द्वारा विपुल लौह भंडारों की जांच की गई थी.


टाटा के द्वारा लायसेंस प्राप्‍त करने के बाद सर्वप्रथम सन 1905 में राजहरा पहाडी में सर्वेक्षण प्रारंभ किया था. टाटा के द्वारा लगभग दो वर्ष इन क्षेत्रों में सर्वेक्षण किया गया एवं अचानक काम समेट लिया गया, और तत्‍कालीन बिहार में टाटानगर अस्तित्‍व में आया. टाटा के द्वारा काम समेटने को लेकर भारतीय उद्योग जगत में तब काफी चर्चा हुई थी पर टाटा नें अपनी चुप्‍पी नहीं तोडी थी.

सोवियत रूस के साथ हुए समझौते के तहत् सेल नें यहां भिलाई स्‍पात संयंत्र की स्‍थापना की और भिलाई अस्तित्‍व में आ गया. 1906 में टाटा नें यहां से कैम्‍प नहीं हटाया होता तो ....... यह टाटानगर कहलाता.

आखिर क्‍या खास है देवी के आलूगुण्‍डे में .....

आफिस से निकलते ही एक मित्र का फोन आया, लगभग चार साल बाद उसने मुझे याद किया था. उसने पूछा कहां हो मैंनें कहा 'अपनी नगरी में, घर जाने के लिये निकल गया हूं. बोल बहुत दिनों बाद याद किया, तू कहां है. ' 'किस रोड से जा रहे हो.' मित्र नें मेरे प्रश्‍न का जवाब दिये बिना पूछा. मैनें कहा 'क्‍यूं बताउं भई, कोई रिवाल्‍वर लेके खडा है क्‍या, मुझे उडाने..........' बातें लम्‍बी चली. मित्र नें कहा 'नेहरू नगर चौंक आवो मै भिलाई आया हूं.'



चौंक में पहुचकर मित्र को पहले ढूंढा, उसके आदत के अनुसार वहां कतार से लगे खाने-पीने की चीजों की गुमटियों में मैनें नजर दौडाई. 'सेक्‍टर 7 का मशहूर देवी आलूगुण्‍डा' के बोर्ड को देखकर समझ गया कि दोस्‍त जरूर यहां होगा. कल्‍याण कालेज के दिनों में हम सेक्‍टर सेवन के देवी आलूगुण्‍डा के लिये देर तक खडे रहते और छीना झपटी के बाद एकाध आलूगुण्‍डा खाकर ही घर जाते थे. पर दोस्‍त वहां नहीं था. अब हमने मोबाईल लगाया. दोस्‍त नें कहा 'तुम्‍हारे सामने जो होटल दिख रही है 'ग्रॉंड ढिल्‍लन' उसके पांचवे माले में आवो, लिफ्ट के बाजू में मैं तुम्‍हारा इंतजार कर रहा हूं.' हमने कहा कि 'अबे नीचे आ, यहां आलुगुण्‍डा खाते हैं, यहीं बैठकर बातें करेंगें.' पर उसने कहा 'प्‍लीज'.

उसके प्‍लीज के कारण हम चले तो गये उपर काफी बातें हुई देर तक हमने पुरानी यादों को जिया पर देवी के गुमटी में आलूगुण्‍डा खाते हुए जो मजा आता वह यहां पांच सितारा रेस्‍टारेंट में कहा.

अपार छपास पीडा से छटपटाते साहित्‍यकार

साहित्‍यकार महोदयजनों आपने पिछले दिनों कहा था कि 'छपास पीडा का इलाज मात्र है ब्‍लाग'. ब्लागर्स और उनकी पीडा से व्यथित ‘साहित्यकार’ महानुभावो आपने अपनी अहम की तुष्टि के लिये यह मान लिया है कि ब्लागर्स ही छपास पीडा से ग्रसित हैं, आप लोग बैरागी है. क्या ‘साहित्याकार’ की पदवी से विभूषित व्यक्ति मनुष्य नहीं होते, उन्हें प्रसंशा व प्रतिष्ठा की दरकार नहीं है, क्या वे नहीं चाहते कि उनकी लिखी हुई रचनाओं को अधिकाधिक संख्या में लोग पढें. क्‍या आपकी रचनायें पत्र-पत्रिकाओं के संपादक आपके घर आकर ले जाते हैं, आप भी उन्‍हें प्रकाशन के लिये भेजते हैं, यह नहीं है छपास पीडा, आप वीतरागी हैं. आपको यह छपास पीडा यहां तक सालती है कि अपने मेहनत की कमाई से भी अपने संग्रह को पुस्तकाकार रूप में स्वयं छपवाकर मुफ्त में अपने इष्टा-मित्रों को बांटते हैं. कई बार पूरे जीवन भर साहित्यकार बने रहने के स्वप्न को साकार करने के लिये, रिटायरमेंट के बाद बच्‍चों से अरजी समझौता कर साहित्यकार अपने प्राविडेंट फंड के मिले पैसों से पुस्तक छपवाता है, धूम धाम से उसका विमोचन करवाता है. क्या‍ यह छपास पीडा नहीं है. भाई साहब, यह पीडा तो लिखना सीखने के तुरंत बाद आरंभ हो जाता है, यह मानवीय गुण है, अपने लिखे को दूसरों को पढवाने का मानवीय व्यवहार है. इसे सिर्फ ब्लांगरों के मत्थे ठेलना सर्वथा अनुचित है. (शव्‍द 'ठेलना' पर ब्‍लागरों का कापीराईट है)


अब रही विषय में शामिल शव्द ‘मात्र’ के संबंध में, तो मेरा यह मानना है कि हममें वो क्षमता है कि हम प्रकाशकों के मुंह ताकते ना बैठें रहें, अभी लिखा और तत्काल माउस को दो चार क्लिक किया और हमारी लेखनी विश्वव्यापी हो गई. और यदि हमारी नेटवर्क क्षमता दमदार रही तो हमें पाठक भी मिलने चालू हो जायेंगें. वैसे ही जैसे आप प्रकाशक की नेटवर्क क्षमता का आंकलन करते हैं और अपनी रचनायें उसी प्रकाशक से छपवाते हैं जिसकी नेटवर्क तगडी हो. तो मामला बराबर.

सवाल ब्लागर्स में से प्रेमचंद या देवकीनंदन खत्री जैसे लेखक के पैदा होने का है तो, इस पर भी हमारा मानना है कि हॉं है ये क्षमता ब्लागर्स में. अभी तो हिन्दी ब्लागिंग शुरू ही हुआ है. इन्हीं ब्लागर्स में से कुछ ऐसे ब्लागर्स भी हैं जो तथाकथित साहित्तिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगे हैं यानी आपने उन्हें अपने बिरादरी में अंगीकार करना चालू कर दिया है. हिन्दी् साहित्य से संबंधित कई ब्लाग और ब्लाग पत्रिकायें हैं जिनमें रचनाकार, हिन्द युग्म जैसे ब्लागों पर संग्रहित सामाग्रियों पर आपका ध्यान ही नहीं गया होगा. हिन्दी के सामूहिक प्रयास वाले ब्लाग साहित्य शिल्पी की पठन सामाग्री और भाषा पर कभी आपका ध्यान गया है, यह ब्लाग पत्रिका हिन्दी की सभी स्तरीय पत्रिकाओं के समकक्ष रहने का दर्जा रखती है. आवश्यकता है आपकी दृष्टि की. दरअसल आपको ज्ञात ही नहीं कि ब्लाग में क्या हो रहा है, जो इस संबंध में प्रिंट मीडिया नें छाप दिया उसी के अनुरूप आपने अपनी धारणा बना ली. अपनी दृष्टि व्यापक कीजिये संशय स्वमेव दूर हो जायेंगें.

हम पर आरोप है कि हमारी सामाग्री ऐसी होती है जैसे पान ठेले की बहस. मैं ज्यादा दूर गये बिना यहीं का एक उदाहरण देना चाहूंगा कि हमारे पित्र पुरूष बख्शी जी के जीवन परिचय या उनसे संबंधित संस्मरणों में बच्चीसों लोगों नें लिखा है कि वे खैरागढ के एक पान ठेले में खडे होकर बीडी पीते थे. और अपने मित्र मंडली से वहां घंटों बहस करते थे जो साहित्तिक या साहित्यकारों से संबंधित होते थे. मेरे ब्लागर्स भाईयों को बताना लाजमी होगा कि परम आदरणीय पदुम लाल पन्नालाल बख्शी जी हिन्दी साहित्य के बहुत बडे साहित्याकार थे और हिन्दी साहित्य की शीर्षस्थ पत्रिका ‘सरस्वती’ के संपादक थे. वहीं दूसरे पान ठेले पर चलताउ बहसें और टपोरीपन की बातें भी होती रही होगी, तो यह तो आपको सोंचना है कि आप उसी पान ठेले में उसी समय जायें जब बख्शी जी वहां बीडी पीने आते हैं.

ब्लाग की भाषा के संबंध में ब्लागरों नें लम्बी बहसें की है, अभी अभी ई स्वामी नें ‘साहित्य वो बासी चिट्ठा है जो कागज पर प्रकाशित किया जाता है’ लिखा तो इस विषय पर लगातार लिखने वाले अग्रज ब्लागर ज्ञानदत्त पाण्डेय जी नें ‘अनुशासनाचार्यों का रूदन’ लिख कर डिसिप्निनाचार्य को प्रतिपादित किया. अजीत जी नें भी ‘भाषा के मानक के सलीब’, ‘भाषाई देहातीपन शहरी भद्रलोक’ और एक दो पोस्ट लिखे. इस संबंध में प्रख्यात कवि कहानीकार एवं कोचीन विश्वाविद्यालय विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी कोचीन के प्रो. ए अरविंदाक्षन का कोई जवाब हो तो आप बतावें. अन्यथा जो हमारे ब्लागर्स अग्रजों नें कहा है वही हमारे लिये शास्त्रीयता है.

इस बहस के मूल में इस सब्जेक्ट कोटेशन के स्थान पर ब्लास बनाम साहित्य है. हिन्दी ब्लागों के अस्तित्व में आने उसके चर्चित होने के बाद से ही यह कानाफूसी चालू आहे कि क्या ब्लाग साहित्य है. यानी इसके साहित्तिक अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहे हैं. कुछ समय पूर्व रायपुर में ही सृजन सम्मान के मंच पर ब्लागर भाई संजय द्विवेदी नें स्पष्ट कहा था कि यह तकनीकि को लेकर हो रही हिचक है. तब देश के ख्यात साहित्यकार भी वहां उपस्थित थे. उन्होंनें तकनीकि को ‘निर्बल का बल’ कहा और ई-संस्कृति विकसित करने की बात की जिसे साहित्यकारों नें भी स्वीकारा था. इस महत्वपूर्ण तकनीकि को अब निबलों और सबलों नें भी अपने हथियार के तौर पर इस्ते माल करना आरंभ कर दिया है. इसलिये अब बिना विवाद जैसे बरसों पहले ‘व्यंग्य’ को आपने बडी मुस्किल से हाय तौबा करते हुए स्वीकारा था वैसे ही ब्लाग के साहित्तिक अस्तित्व को स्वीकारना होगा. इस संबंध में ई स्वामी जी नें जो कोटेशन लिखे उसका यहां उल्लेख करना चाहूंगा

‘साहित्य के साहित्य होने का क्या पैमाना है बॉस? या उसके ब्लॉग से बेहतर होने का क्या पैमाना है? कि वो पहले कागज़ पर छपा? या ये कि लिखने वाला स्वयं को लेखक कहलवाना चाहता है चिट्ठाकार नहीं? या लेखक को चिट्ठाकारी के बारे में पता ही नही था और वो पत्र-पत्रिकाओं में छप गया अत: बाई डिफ़ॉल्ट लेखक हो गया – चाहे जैसा ऊबड-खाबड लिख रहा हो! देखिये – पहले तो आप सेब की तुलना संतरे से कर रहे हैं – फ़िर सारे सेब की तुलना सारे संतरों से कर रहे हैं – एक से एक को तौलिये – कोई सडा सेब होगा कोई सडा संतरा. कोई मीठा सेब होगा कोई मीठा संतरा. चुनाव करने की निर्णय करने की भी तो कोई तमीज़ होती है! एक लेखक को एक ब्लागर से तौलिये फ़िर बोलिये.’ वो आगे कहते हैं

‘मेरे हिसाब से ब्लाग साहित्य है या नहीं ये एक नॉन-इश्यू है. जैसा की कहा –मात्र चिढा देने, या मजे लेने के लिये पूछा गया एक बडा ही बेलौस सा, एक बडी झाडू से पूरी कायनात को साथ लपेटता सा प्रश्न – इसे हमेशा के लिये दफ़्न कर देना चाहिए!'
बहुत कुछ लिखा जा चुका है, आप कम्‍पोटर आन करके पढ तो लें. 

हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति.

26 जुलाई को दुर्ग जिला हिन्‍दी साहित्‍य समिति द्वारा तुलसी जयंती पर कार्यक्रम आयोजित किया गया. छत्‍तीसगढ में हिन्‍दी के प्राध्‍यापक के रूप में अपनी दीर्धकालीन सेवायें दे चुके एवं प्रदेश के अधिकांश साहित्‍यकारों, शव्‍दशिल्पियों एवं विचारकों के प्रिय गुरू रहे वर्तमान में छतरपुर में निवासरत साहित्‍यकार डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी इस कार्यक्रम के मुख्‍य वक्‍ता के रूप में आमंत्रित थे. कार्यक्रम के अध्‍यक्ष प्रसिद्व भाषाविद एवं पं.रविवि के भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. चित्‍तरंजन कर जी थे.




डॉ.गंगापंसाद 'बरसैया' जी नें रामचरित मानस एवं तुलसी पर सारगर्भित वक्‍तव्‍य दिया. इस अवसर पर उनके कई वयोवृद्व छात्र भी उपस्थित थे जिन्‍होंनें कहा कि उन्‍हें आज ऐसा महसूस हुआ कि बरसों बाद महाविघालय के क्‍लास में सर नें लेक्‍चर दिया. डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी नें तुलसी की रचना, देश-काल और परिस्थिति, पात्रों के चरित्रचित्रण, एवं शव्‍दशिल्‍प के संबंध भे गंभीर वक्‍तव्‍य दिया. डॉ. चित्‍तरंजन कर जी नें अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में रामचरित मानस के 'महाकाव्‍य' होने एवं साहित्‍य के रूप में स्‍थापित होनें, व्‍याकरण और भाषा शिल्‍प के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला.

दुर्ग में सांस्‍कृतिक आयोजनों के लिये शासन द्वारा भव्‍य मनोरंजन कक्ष का निर्माण किया गया था जिसे गोस्‍वामी तुलसीदास जी के सम्‍मान स्‍वरूप 'मानस भवन' नाम रखा गया है. प्रत्‍येक वर्ष दुर्ग साहित्‍य समिति द्वारा इस भवन के मुख्‍य सभागार में तुलसी जयंती का कार्यक्रम सम्‍पन्‍न होता रहा है. किन्‍तु इस वर्ष इस भावन को जादू शो के लिये किराये से दे दिया गया है इस कारण मुख्‍य सभागृह में यह कार्यक्रम नहीं हो सका, किन्‍तु उसी भवन में स्थित एक हाल में यह कार्यक्रम सम्‍पन्‍न हुआ.

कार्यक्रम के कुछ चित्र

दुर्ग स्थित मानस भवन सभागार प्रवेश द्वार

पट्टिका
मुख्‍य सभागार के बाजू में कार्यक्रम संपन्‍न हुआ
'मानस भवन' प्रांगण में लगी गोस्‍वामी जी की प्रतिमा 
माल्‍यार्पण - श्री कसार जी, श्री मुकुन्‍द कौशल जी, श्री कमलाकांत शर्मा जी
डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी के साथ ब्‍लागर
श्री मुकुन्‍द कौशल श्री डॉ.चित्‍तरंजन कर जी, श्री रवि श्रीवास्‍तव जी
डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी साहित्‍यकारों के साथ
कार्यक्रम में डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी
डॉ.गंगाप्रसाद 'बरसैया' जी

मसाज पार्लर : जहां लडकियां मसाज करती हैं

मोबाईल की घंटी बजते ही मैंनें मोबाईल जेब से निकाली. उधर से थानेदार साहब का फोन था.
'क्‍या कर रहे हो'

'कुछ विशेष नहीं सर, नौकरी बजा रहा हूं, आप आदेश करें' मैनें कहा.
'एकाध घंटे की फुरसद निकालो और मेरे पास आवो' साहब नें कहा.
'ओके सर, आपके लिये बंदा हाजिर है, पर काम तो बताओ सर जी' मैंनें नाटकीय अंदाज में कहा.
'मालिस करवाना है यार' थानेदार साहब नें हंसते हुए कहा.
'क्‍या' मैं हकबका गया, एक पल में ही वो फिकरा याद आ गया कि 'पुलिस वालों से न दुश्‍मनी अच्‍छी ना दोस्‍ती' और यह भी 'पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते'.
'अरे घबरा मत मैं सचमुच की मालिस की बात कर रहा हूं, जल्‍दी आ' थानेदार नें पुन: हंसते हुए मुझे आश्‍वस्‍त किया.
साहब का आदेश था सो मैं अगले ही पल थाने के लिये निकल पडा. साहब थाने में सिविल ड्रेस में बैठे थे. दुआ-सलाम और चाय-पान के साथ इधर-उधर की बातें होने लगी. बैरक में कैद मुंह लटकाये लोगों के मुंह से कभी-कभी चीखें निकलती और संतरियों के पुलिसिया मंत्रोच्‍चारों से संपूर्ण थाना सुवासित हो उठता. मैं मानवाधिकार वालों के द्वारा थाने में चस्‍पा किए गए बडे से बंदियों के अधिकार पत्र को निहारते और बतियाते हुए चाय की चुस्कियां लेता रहा.
'यार तुम बीस साल से सेठ के यहां नौकरी कर रहे हो पर तुम्‍हारा शरीर न तो तोला भर बढा न माशा घटा' एक सब इंस्‍पेक्‍टर नें थानेदार साहब के केबिन में प्रवेश कर मुझसे हाथ मिलाते हुए कहा.




'फारएवर यंग सर' मैंनें मुस्‍कुराते हुए अपना चितपरिचित डायलाग मारा. मेरे चमक विहीन मुखमण्‍डल को देखते हुए थानेदार साहब भी हंसने लगे. हम सब देर तक हंसते रहे.
'चलो यार अब चलते हैं' बातें लम्‍बी हो चली तो थानेदार साहब नें उठते हुए कहा. मैंनें सोंचा मालिश वाली बात शायद साहब नें मजाक में ही कहा था और अब भूल गए हैं. मैं भी उनके पीछे-पीछे बाहर निकल आया, गेट में साहब की जीप खडी थी.
'तुम अपनी बाईक लाओ यार, बहुत दिन हो गए हैं चलाने का मजा लेते हैं' थानेदार साहब नें कहा. मैंनें चाबी लगाकर बाईक स्‍टार्ट की और गाडी उनके पास लाकर उन्‍हें दे दिया. उनके इशारे पर मैं पीछे बैठ गया. उन्‍होंनें बाईक शहर के पाश कहे जाने वाले इलाके में नये-नवेले खुले व्‍यूटी पार्लर के सामने ले जाकर रोक दी. अब मुझे मालिस का मतलब समझ में आ गया. इस नये पार्लर की चर्चा समाचार पत्रों एवं डिस्‍क टीवी में रोज हो रही थी, विज्ञापन पे विज्ञापन छप रहे थे और लोग दूर दूर से, राज्‍य की राजधानी से भी यहां आ रहे थे.




'अब तुम उस सेठ के मुंशी नहीं हो, वकील हो, मेरे दोस्‍त, ओके. अंदर जाने के पहले साहब नें मुझे ओके पर जोर देते हुए कहा. मैंनें भी 'ओके' कहा और हम अंदर चले गए. वहां कार्यरत सुन्‍दरी बालाओं को देखकर मेरा ग्रामीण मन चकरा गया. 'मर्दनिन कोर्स' याद आ गया. थानेदार साहब नें मसाज करवाने की इच्‍छा जाहिर की तो अटेंडेंट छत्‍तीसों तरह के मसाज का नाम गिनाने लगा. साहब नें उन्‍हीं मे से कोई एक सबसे सस्‍ती मसाज का नाम बतलाया. और हम पार्लर के अंत: कक्ष में बने गुलाबी रौशनी से नहाते एक छोटे से केबिन में लाए गए. वहां तीन मसाज टेबल, रेक में रखे रंगबिरंगी शीशियों में तेल जैसा कुछ तरल पदार्थ और चीनी मिट्टी की छोटी कटोरियों में भी वैसा ही कुछ था. केबिन की आंतरिक सजावट व माहौल कमाल कुछ ऐसे बनाया गया था जैसे वहां जाते ही नींद आ जाए. कोने में चार लडकियां एप्रन पहने भी खडी थी, उनमें से एक नें एक दरवाजे की ओर इशारा करते हुए कहा कि अंदर कपडे निकाल लेवें और मिनि पैंट पहन लेवें.
मैं चला तो आया था थनेदार महोदय के साथ पर मुझे मसाज-वसाज का कोई मन नहीं था, गांव में नाई मेरे पिता की मालिस करने रोज रात को आते थे और कभी कभी मैंने भी उससे मालिस करवाया है. अब जब बहुत थका होंउ तो मेरे बेटे की कोमल हथेलियों की थपकी से मेरा सारा दर्द काफूर हो जाता है.  यहां की तडक-भडक और लडकियों को देखकर हाथ-पांव फूल रहे थे सो मैंनें थानेदार साहब को कहा कि 'जाईये साहब मैं बाहर आपका इंतजार करता हूं' पर साहब नें मुझे जबरदस्‍ती ड्रेस चेंज रूम में घुसा दिया.




ड्रेस चेंज रूम बमुश्‍कल चार बाई चार की रही होगी, चारो तरफ फुल साईज के मिरर लगे थे और रौशनी उपर लगे ट्यूब से शरीर को तार-तार कर रही थी. मैनें कपडे उतारे और मिनी पैंट को पहना. अपने सामान्‍य कद-काठी के शरीर को आईने में देखकर एक अजीब सा डर मन में समा गया. मैं कई बार गुशलखाने में अपने अति सामान्‍य शरीर को देखकर सोंचता हूं कि जिनके पास भावनापूर्ण हृदय हो किन्‍तु फिजिकली चौडी छाती न हो या बांहों में मछलियों से मचलते मस्‍सल न हों उनके लिये भी कविता लिखी जानी चाहिये. ताकि हमारे जैसे लोगों को वह कविता बल देवे. मैनें विचार को भटकने के पहले ही कपडों के साथ खूंटी में टांगा और बाहर निकल गया. मेरे पीछे थानेदार साहब भी ड्रेस चेंज रूम में घुसे और वापस कपडे उतार कर अपने थुलथुल पेट और मलाईदार शरीर के साथ बाहर निकले. उनके शरीर को देखकर मुझे लगा कि मुझे घोडा बने रहना ही अच्‍छा है, हाथी बनना ठीक नहीं.
मसाज टेबल में लेटने के बाद, तेल से तर कमसिन हाथों का स्‍पर्श पीठ, हाथ, पांवों में होता रहा. मैनें आंखें बंद कर ली जैसे जैसे किसी चेकअप के लिये डाक्‍टर के पास आया हूं. मस्तिष्‍क को आदेश देता रहा कि स्‍पर्शों का संदेश न प्राप्‍त करे. इधर थानेदार साहब के थुलथुल देह में शायद इन सब का कोई असर ही नहीं था, वो लगातार बोल रहे थे. मसाज करने वालियों का नाम-गांव-पता-ठिकाना पूरा कुण्‍डली खंगाल रहे थे, बीच-बीच में बातों की रंगीन चुटकियां भी ले लेते थे. उन्‍होंनें मसाज के रेट के संबंध में भी डीपली डिस्‍कस किया, रेट भी लिया. 'डीप टू डीप मसाज' (मुझे याद नहीं आ रहा है एक्‍जेक्‍टली क्‍या नाम था उस मसाज का लेकिन उसका शब्‍दार्थ कुछ ऐसा ही था) के संबंध में कुछ आंखों में इशारे भी हुए और थानेदार साहब नें कहा कि वे उस मसाज को लेना चाहते हैं. मैं सोंचने लगा कि इस मसाज में तो मेरे शरीर में तेल पुते होने एवं एसी आन होने के बावजूद पसीने छलछला रहे थे तो ये डीप मसाज में क्‍या हाल होगा. मरवा डालेगा यह गैंडा थानेदार मुझको. कहीं ऐसा तो नहीं इनका बिल मुझसे लेना चाह रहा हो, अरे ऐसा है तो सीधे पैसे मांग ले यार, मुझे बख्‍श दे. 
बख्‍श दे मुझे मेरे शरीर में पीडा भरी रहे, मुझे इन लडकियों के हाथो अपने अंतरतम के परतों में जमी पीडाओं को समाप्‍त नहीं करवाना है. इन्‍हीं पीडाओं में तो हमें आनंद है .... यह सब सोंचते हुए मेरी आंख लग गई.
'ओके, फिनिश सर' जादुई रूप से नृत्‍य करती उंगलियों की थिरकन बंद हुई और उस लडकी ने कहा.
मैं जेल से छूटे कैदी की भांति ड्रेस चेंज रूम में घुस गया, कपडे पहन कर बाहर आ गया. थानेदार साहब 'थोडा यहां .... हां ... हां... एक्‍जेक्‍ट यहां ..... ओह .... ओके' करते हुए लगभग दस मिनट तक और मालिस करवाते रहे, जैसे सोंच रहे हों पूरा पैसा वसूल कर ही जायेंगें.
पुलिसिया स्‍वभाव के विपरीत साहब नें मुझे मना करते हुए हम दोनों के मसाज का बिल पटाया और अटेंडेंट से कुछ फुसफुसाया. मैं बाहर सडक पर निकल आया, पीछे से थानेदार साहब भी आ गए और बाईक खुद ही स्‍टार्ट किया. अपने घर के गेट में आकर उन्‍होंनें मुझे चालू बाईक दी और 'मजा आ गया यार' कहते हुए मुझे विदा किया.

मैं दिन भर थानेदार साहब के व्‍यक्तित्‍व, वो फुसफुसाना और डीप मसाज के संबंध में तरह तरह के कयास लगाते रहा. चिपचिपा तेल का आभास मेरे शरीर से दूसरे दिन नहानें के बाद ही गया. सुबह नहाने के बाद टी टेबल में रखे समाचार-पत्र को उठाया, पहले पन्‍ने पर ही समाचार था - 'मसाज के नाम पर चल रहे वैश्‍यावृत्ति का भण्‍डाफोड', 'स्‍थानीय थानेदार नें छापा मारा - दस लडकियां और छ: लडके आपत्तिजनक स्थिति में धरे गए'.

अंर्तकथा - संजीव तिवारी 






नागा गोंड जो जादू से शेर बन जाता था

श्री के. सी. दुबे के पुस्तक में उपरोक्त संदभो पर बिन्द्रानवागढ़ के गांव देबनाई का नागा गोंड का उदाहरण दिया है जो कि शेर के रूप में आकर 08 लोगो को नुकसान पंहुचा चुुका है। और जिसे वर्ष 38 या 39 में ब्रिटिश शासन ने गिरफ्तार किया था। जादू टोना का गहन जानकार और वेश बदलने में माहिर था । और इस बात की प्रमाण तत्कालीन ब्रिटिश शासन के रिकॉर्ड में दर्ज़ भी है। तत्कालीन जॉइंट सेक्रेटरी गृह मंत्रालय भारत शासन श्री जी. जगत्पति ने भी 27/7/1966 को इस पुस्तक मे लिखा था की भिलाई स्टील प्लांट जैसे आधुनिक तीर्थ से 15 मील के भीतर के गावो तक में लोग बुरी आत्माओ की उपस्थिति को आज भी मानते है। जानकारी यहॉं पढ़ें

हरेली, टोनही और अंधविश्‍वास : यादों के झरोखों से

आधुनिक संदर्भो में हरेली छत्‍तीसगढ में पर्यावरण जागरण के हेतु से मनाया जाने वाला त्‍यौहार है पर जडो तक फैले अंधविश्‍वास के कारण अधिसंख्‍यक जनता के लिये यह त्‍यौहार तंत्र मंत्र एवं तथाकथित अलौकिक ज्ञान के 'रिवीजन' का त्‍यौहार है. इस संबंध में राजकुमार जी नें पिछले दिनों अपने पोस्‍ट में छत्‍तीसगढ के बहुचर्चित टोनही के संबंध में लिखा. हम भी इस टोनही के संबंध में बचपन से बहुत कुछ सुनते आये हैं. टोनही के संबंध में किवदंतियों से लेकर साक्षात अनुभव के साथ ही इसके बहाने नारी प्रतारणा के किस्‍से छत्‍तीसगढ में सर्वाधिक देखने को मिलते हैं. शासन द्वारा टोनही निवारण अधिनियम बनाना एवं इसे लागू करना इस बात का सबूत है कि छत्‍तीसगढ में इस समस्‍या की पैठ गहरे तक है. टोनही के मिथक को तोडने के साथ साथ अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिये हमारे ब्‍लागर साथी एवं देश के ख्‍यात वनस्‍पति शास्‍त्री डॉ. पंकज अवधिया जी अपने मित्रों के साथ निरंतर प्रयासरत है.


गांव से जुडे प्रत्‍येक व्‍यक्ति के साथ टोनही के कुछ न कुछ अनुभव या फिर कहें अनूभूति रही है. मेरे जीवन का आधा हिस्‍सा गांवों में गुजरा है और मैं भी इससे अछूता नहीं रहा हूं. बहुत सारे व्‍यर्थ और विश्‍वास न किये जा सकने वाले बकवास के साथ ही मुझे एक घटना याद आ रही है. सन् 1984-85 की बात है हम अपने दोस्‍तों के साथ अपने गांव के किनारे से बहती शिवनाथ नदी के किनारे हरेली की रात लगभग दस बजे तक बैठे गप्‍पें लडा रहे थे, उस समय तक हमारे गांव में बिजली की किरण विकास की गाथा कहते आई नहीं थी. गांव में रात को दस बजे का समय यानी आधी रात का समय होता है. साथियों में कुछ लाठी भांजने के हुनर को और कुछ मंत्रों को 'लहुटाने' (दुहराने) हेतु नदी किनारे के कछारू मैदान और नदी तट से लगे मरघट में अपने अपने उस्‍ताद और गुरू के साथ चले गए थे. हम जिन्‍हें इन सबमें दिलचस्‍पी नहीं थी उफनते नदी के तट में बैठ कर उन दोस्‍तों पर छींटाकसी करते अपनी बातों में मशगूल थे. अंधेरा गहरा था थोडी बहुत बिजली चमक रही थी और हवा कुछ तेज चल ही थी बाशि बंद थी.

इसी समय हमारे बीच दो तीन मांत्रिक मित्र दौंडते हुए आये, उन्‍होंनें हमें नदी के उस पार हांथों के इशारे से कुछ दिखाया. नदी के उस पार तट में ही बार बार 'बंब-बंग' (तेजी से उठते-बुझते) कोई चीज थी. उसने उसे टोनही कहा. हम लोग फिर हंसने लगे पर वह लपट जब निरंतर उपस्थित रही एवं मांत्रिक मित्रों नें विश्‍वास के साथ कहा कि वो टोनही है और लाश 'जगाने' आई है. लोग कहते हैं कि टोनही जब 'झूपती' (तांत्रिक क्रिया करते हुए नृत्‍य करती) है तो अपने मुंह में जडी डाल लेती है, उसके नृत्‍य और मंत्र बुदबुदाने के कारण उसके मुंह से लार बहने लगता है वह लार ही 'बंग-बंग' 'बरती' है. यह बात सत्‍य थी कि जहां पर वह लपट जलती बुझती थी उसी जगह पर पहले दिन किसी लाश को दफनाया गया था और हम सबने उस दिन नहाने के समय नदी तट के पार से इसे देखा था. फिर भी हमें विश्‍वास ही नहीं हो रहा था और हम सब टोनही के अस्तित्‍व पर पुन: हंसने लगे और मांत्रिक मित्रों के साथ इसी बात पर तकरार कुछ बढ गई, बात हिम्‍मत पे अटक गई. इसी बीच हमारे एक नाविक मित्र नें तट पर बंधा नाव तैयार कर दिया कि चलो देखकर आते हैं. हां-नां के बाद नाविक के साथ दो मांत्रिक, मैं और मेरे दो चचेरे भाई उस पार जाने के लिये नाव में चढ गये, हम सबके पास एवरेडी टार्च थी.

हम टारगेट स्‍थल से लगभग आधा पौन किलोमीटर नदी के बहाव के विपरीत नदी में आगे बढने लगे, उफनती नदी के उस पार यदि जाना है तो जहां दूसरी ओर नांव को 'झोंकाना है' (किनारे लगाना है) उससे बहाव और नदी के वेग को देखते हुए अनुमान लगाकर नाव को पहले इसी किनारे पर विपरीत दिशा में आगे ले जाना होता है फिर नाव को धारा में डाल दिया जाता है और पैंतालीस अंश का कोण बनाते हुए नाव पतवार के जोर से दूसरे किनारे के टारगेट स्‍थल पर पार लग जाती है एकदम सटीक मीटर भर की चूक नहीं होती. जब तक हम धारा के विपरीत चलते रहे उस पार जल रही वह रौशनी इस तरह जल बुझ रही थी जैसे नाच रही हो और मांत्रिक दोस्‍त उसके हर रौशनी में चहक रहे थे. ओ देख, ये देख. और जैसे ही हमने नाव को बीच धारा में डाला रौशनी दूर होने लगी, नांव तो छूट चुकी थी, हमारे उस पार जाने में लगभग आधा घंटे लग गए होंगें तब तक रौशनी का नामों निशान नहीं था. हम सब नाव से उतर कर टार्च की रौशनी के सहारे उस जगह तक गए जहां लाश दफनाई गई थी वहां किसी भी प्रकार के ताजा पूजा के चिन्‍ह नहीं मिले, हम टार्च की रौशनी दूर दूर तक मार के देख रहे थे पर मांत्रिक दोस्‍तों के अनुसार टोनही अपना काम करके चली गई थी और हमारे अनुसार से यह कोई भ्रम था. नदी पार कर हम वापस अपने अपने घर आ गए. उस दिन के बाद गांव में एवं यहां वहां तथाकथित टोनहियों को 'झूपते' कई बार देखा गया पर हमें इस पर विश्‍वास नहीं रहा. या यूं कहें कि आत्‍मबल के सामने टोनही टिक नहीं पाई.

मेरे पिता तंत्र-मंत्र आदि में विश्‍वास रखते थे और लोगों का कहना है कि वे इस विद्या में पारंगत थे. उनके जीते जी लोगों का सोंचना था कि उन्‍होंनें अब तक अपना कोई चेला नहीं बनाया है इसलिये लोगों नें यह धारणा बना ली थी कि मेरे पिता मुझे वह तंत्र ज्ञान देने वाले हैं या दे दिया है. किशोरवय में उत्‍सुकता वश मैंनें पिता के कई ऐसे काम किये हैं जो अजीब रहे या तथकथित तंत्र साधना से जुडे हुए थे. मुझे याद है एक बार वे मुझे मेरे अम्बिकापुर प्रवास के समय अम्बिकापुर जेल के पीछे स्थित शमशान से किसी पांसी लगाई कुंवारी 'बरेठिन' (धोबिन) के टांग की हड्डी मंगा लिये थे और मैं उत्‍सुकतावश एवं दोस्‍तों में रौब गांठने के उद्देश्‍य से वहां से चार टांग की हड्डी खोद लाया था. वहां की मिट्टी रेतीली थी और नाले के कटाव के कारण हड्डियां बिखरी हुई थी मैंनें अंदाज से हड्डियां उठा लिया था. वहां मुझे एक छोटी लगभग 90 प्रतिशत साबूत खोपडी भी मिली थी जो बहुत दिनों तक मेरे पास रही फिर बाद में मेरे पिता नें उसे 'तथाकथित' पैशाचिक क्रिया के बाद शिवनाथ के हवाले किया था. इन सबके कारण लोगों को विश्‍वास हो चला था कि मैं भी इस विद्या में दक्ष हूं. मेरे नानूकूर के बावजूद गांव में आज भी यह झूठ बरकरार है. मेरे गांव में टोनही मेरे सामने 'झूप' नहीं पाती.

बढिया जोक है ना.

संजीव तिवारी

समुझई खग खगही के भाषा : मैं रामायण की आलोचना जारी रखूंगा - एम.करूणानिधि

केन्‍द्रीय कानून मंत्री एम.बीरप्‍पा  मोईली की लिखी पुस्‍तक 'रामायण पेरूथेदलै' का विमोचन करते हुए तमिलनाडु के यशश्‍वी (?) मुख्‍यमंत्री एवं पोन्नेर-शंकर के लेखक एम.करूणानिधि नें 'प्राण जाई परू वचनु न जाई' जैसे प्रण लेते हुए कहा कि 'मैं बचपन में ही रामायण का आलोचक था. मैं ऐसा करना जारी रखूंगा.'  (I will continue to be critical of Ramayana) उन्‍हें इस बात का अहसास है कि सत्‍तारूढ पार्टी उनकी बंदगी 'टेढ जानि सब बंदई काहू' को स्‍वीकारते हुए करती रहेगी और वे लोगों की भावना रूपी हरे हरे चारे को 'चरई हरित तृन बलि पशु जैसे' चरते हुए राम और रामायण को कोंसते रहेंगें.



तुलसीदास जी नें 'चलई जोंक जल वक्रगति जद्यपि सलिल समान' लिखकर खून चूसने वाले जोंक के लक्षणों को प्रतिपादित कर ही दिया था. आडे तिरछे विचारों से रामायण की आलोचना करने वाले तथाकथित नामवर के बडबोले पन का गोस्‍वामी जी को आभास था इसीलिये उन्‍होंनें कहा था 'बातुल भूत विवस मतवारे, ते मोहि बोलहि बचन सम्‍हारे.' अब तुलसीदास या बाल्‍मीकि पुन: आकर रामायण में एम. करूणानिधि के कहे अनुसार संशोधन करने से रहे. और करूणानिधि का सोंचना है कि वे केन्‍द्रीय सरकार के हर दोहा-चौंपाई में अपनी मर्जी से संशोधन करवा सकते हैं तो ये मुआ तुलसीदास या बाल्‍मीकि कौन खेत की मूली है. सहीं कह रहे हैं करूणानिधि जी आपकी बातें प्रासंगिक है ऐसे समय में जब आपके लोग राम के अस्तित्‍व को ही स्‍वीकार नहीं करते.

बाबा तुलसीदास जी मुझे माफ करें आपने बारंबार कहा है कि 'सठ सन विनय कुटिल सन प्रीति, सहज कृपा सन सुन्‍दर नीति.' इसके वावजूद भी क्‍या करूं मन नहीं मान रहा है कलजुगी करूणानिधि से विनयवत व्‍यवहार कैसे रखूं. (और मैं कांग्रेस भी नहीं हूं) क्‍योंकि एक जगह आपने ही तो कहा है कि विनय की भाषा जड नहीं जानता 'विनय न मानत जलधि जड, गए तीन दिन बीत'. बहुत ही कन्‍फूजन है बाबा करूणानिधि की इस बात को शायद 'झूठई लेना, झूठई देना, झूठई भोजन, झूठ चबेना' वालों नें प्रचारित किया है. खैर कुछ भी हो सावन का महीना है और ऐसे समय में रामायण का पाढ व मनन करना चाहिये, इसी बहाने शब्‍द भंडार बढते हैं जो ब्‍लागिंग के लिये परम आवश्‍यक है. इस पर ब्‍लागरों के विचार और संक्षिप्‍त टिप्‍पणियों के लिये यह पोस्‍ट ठेल कर मैं स्‍नान करने जा रहा हूं क्‍योंकि बाबा गोसाई जी नें ही कहा है 'खल परिहरिय स्‍नान की नाई'.

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ में लोग नक्‍सलियों के खिलाफ हैं : ब्रिगेडियर (सेवानिवृत) बसंत कुमार पोनवार

छत्‍तीसगढ में संचालित कांउटर टेररिज्‍म एण्‍ड जंगल वॉरफेयर कालेज, कांकेर के डायरेक्‍टर ब्रिगेडियर (सेवानिवृत) बसंत कुमार पोनवार का विगत दिनों बिजनेस स्‍टैंडर्ड में एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। जिसमें उन्‍होंनें कहा है कि नक्‍सलियों को खत्‍म करने और और उनके नेटवर्क को ध्‍वस्‍त करने का यह सबसे उचित अवसर है ('It's high time to destroy the Naxalites')। उन्‍होंनें आगे आशा जताया है कि केन्‍द्र शासन द्वारा नक्‍सलियों पर प्रतिबंध लागाए जाने से संपूर्ण देश में समन्‍वय के साथ काम करने का मौका मिलेगा। लश्‍कर ए तैयबा सहित अन्‍य आतंकी संगठनों से नक्‍सलियों के संबंध को देखते हुए जरूरत पडने पर सेना का सहयोग लिया जा सकेगा।


छत्‍तीसगढ एवं कुछ अन्‍य राज्‍यों के द्वारा नक्‍सल गतिविधियों पर विधिक रूप से शिकंजा कसने के बावजूद कोई खास परिणाम नहीं आ पाने के सवाल पर पोनवार नें कहा कि छत्‍तीसगढ में लागू किए गए विशेष जन सुरक्षा अधिनियम की वजह से नक्‍सलियों एवं उनके समर्थकों के विरूद्ध कार्यवाही करना सरकार के लिये अब आसान हुआ है। इसके साथ ही उन्‍होंनें इस प्रश्‍न का उत्‍तर देते हुए स्‍पष्‍ट किया कि नक्‍सल गतिविधियों को केवल सशस्‍त्र संघर्ष के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये क्‍योंकि विभिन्‍न क्षेत्रों के विशेषज्ञ नक्‍सलियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। यद्धपि वे नक्‍सलियों के साथ सीधे संघर्ष में नजर नहीं आते लेकिन वे उनका मदद करते हैं। उन्‍होंनें आगे कहा कि छत्‍तीसगढ वारदात करके दूसरे राज्‍यों में भाग जाने वाले नक्‍सलियों के विरूद्ध भी अकेले लड रहा है।

ब्रिगेडियर (सेवानिवृत) बसंत कुमार पोनवार नें नक्‍सलियों के खिलाफ बस्‍तर में चलाए जा रहे 'सलवा जूडूम' की भी प्रसंशा की। उन्‍होंनें कहा कि किसी भी युद्ध को जीतने के लिए यह आवश्‍यक है कि वहां के लोग आपके साथ हों। पश्चिम बंगाल में लोग नक्‍सलियों के साथ थे जबकि छत्‍तीसगढ में लोग नक्‍सलियों के खिलाफ हैं।

'It's high time to destroy the Naxalites'

Brigadier Basant Kumar Ponwar, the army's counter-Naxalite expert and director of Counter Terrorism and Jungle Warfare College, tells R Krishna Das that this is the right time to destroy the rebels militarily and dismantle their network.

The Union government has imposed a ban on Naxalites. How effective will this be in tackling the problem?

Very effective. Now, there will be one rule across the country that will help the states reeling under the problem to coordinate better. Now, Naxalites have been bracketed with terrorist groups, including Lashkar-e-Tayiba. This will help the army (if required) to take action against Naxalites.

Chhattisgarh and a few other states had earlier banned Naxalites and their frontal organisations. But this did not yield results.

In Chhattisgarh, the Special Public Security Act helped authorities take action against the rebels' sympathisers. The Naxalite movement cannot be seen only as an armed movement. A number of intellectuals, including experts from different fields, are associated with them. They may not be directly involved in operations but they help Naxalites one way or the other. Chhattisgarh was fighting alone as Naxalites used to slip into other states after committing crimes.

You have been insisting that the government should not fall for the Naxalites' offer of peace talks.
Yes. The offer of peace talks by Naxalites is a gimmick. They come out with such a formula when they are cordoned off or face pressure by security personnel.

By offering peace talks, the rebels buy time to re-group and get away to neighbouring states. They applied the formula in West Bengal to help their leaders cross from Lalgarh to Jharkhand once security operations slowed.

What actually went wrong in Lalgarh?
The Lalgarh episode is part of the Naxalite ideology as they want to create 'liberated' zones. Today it is Lalgarh and tomorrow it will be 'Ramgarh' if lapses on the part of the authorities continue. Naxalites are now targeting Koraput to create another 'Lalgarh'.

Do you mean more 'Lalgarhs' are in the offing?
Absolutely. More Lalgarhs are in the offing if we don't establish authority in remote and interior areas where Naxalites have established themselves. The rebels have been warning of creating more and more 'liberated' zones. We need to address the issue with strategy and seriousness.

Was the Lalgarh episode a failure of security personnel?

Had police and security personnel patrolled the area regularly, Naxalites could not have established their base in the village. Even in the operation to flush out Naxalites, no strategy was fashioned.

Security personnel could have laid siege to a 20-sq-km area to eliminate the Naxalites holed up there by launching attacks from inner and outer cordons. For this operation, only four-five companies of security personnel were required. Co-ordination by seniors was also required in the operation as the left hand was not aware what the right hand was doing.

There was also fear among police personnel. There was not a single landmine blast in the Lalgarh area but security personnel cited the excuse that the area had been dotted with landmines to avoid entering the region.

How serious is the Naxalite problem in the country?

The Prime Minister had termed the Naxalite problem the biggest internal security threat. I support the statement. In 2004, 55 districts were Naxal-infested. This has now increased to 231.

Will recent developments in Nepal have any impact on the Naxal movement in India?

It is ideology that links Naxalites of Nepal and India. Occasionally, when there is ceasefire in one region, arms are supplied to the other war zone. But Naxalites are very weak. Their entire operation is underground. A response mechanism should be put in place with 'grid deployment' and 'constant dynamic deployment' of security forces.
Should security forces now go on the offensive against Naxalites?
It is high time to destroy the Naxalites' arms and completely dismantle their terror network. Security personnel should fan out across the rebels' dens and deliver the knockout punch. The government should pump in more
forces skilled in guerrilla warfare and neutralise them forever. For this, they require better weapons and the best possible leadership.

In West Bengal, villagers are standing by Naxalites, while in Chhattisgarh, they have raised arms against them. How do you see this?

The people's movement against Naxalites in Chhattisgarh - the Salwa Judum - stands as an example in the country.

Other Naxal-infested states should follow it as Naxalites came under heavy pressure after the Salwa Judum started. The centre of gravity in any warfare is support of local population. In West Bengal, the population was with Naxalites. In Chhattisgarh, the rebels stand exposed before the people, who are now up in arms against them.

चित्र  बीबीसी से साभार
समाचार दैनिक छत्‍तीसगढ में भी प्रकाशित है.

11 वीं सदी से लुट रहा है बस्‍तर ...

प्रदेश के गठन के पूर्व परिदृश्‍य में छत्‍तीसगढ का नाम आते ही देश के अन्‍य भागों में रह रहे लोगों के मन में छत्‍तीसगढ की जो छवि प्रस्‍तुत होती थी उसमें बस्‍तर अंचल के जंगलों से भरी दुर्गम व आदिम दुनिया प्रमुख रूप से नजर आती थी। अंग्रेजों के समय से देशी-विदेशी फोटोग्राफरों नें बस्‍तर की आदिम दुनियां और घोटुल जैसे पवित्र परम्‍पराओं को कुछ इस तरह से प्रचारित किया था कि बरबस उस पर लोगों का ध्‍यान जाये। लोगों की नजर इस सुरम्‍य अंचल को लगी और अब स्थिति कुछ ऐसी है कि सर्वत्र विद्यमान संस्‍कृति व परंम्‍परांओं के संरक्षण व संवर्धन की आवश्‍यकता पड रही है।





विगत दिनों दैनिक छत्‍तीसगढ में एक समाचार पढने को मिला जिसके अनुसार बस्‍तर के बैलाडीला में 1065 ई. में चोलवंशी राजा कुलुतुन्‍द नें पहली बार यहां के लोहे को गलाकर अस्‍त्र शस्‍त्र बनाने का कारखाना बनाया था। निर्मित हथियारों को बैलगाडियों से तंजाउर भेजा जाता था, बहुत बडी मात्रा में निर्मित हथियारों के बल पर चोलवंशियों नें पूर्वी एशियाई देशों में 11 वी शताब्दि के मध्‍यकाल में अपना साम्राज्‍य स्‍थापित कर लिया था।

यानी लौह अयस्‍क खोदने के लिये नन्‍दराज पर्वत सहित समूचे बस्‍तर की खुदाई सदियों से समय समय पर की जाती रही है, बस्‍तर का लोहा, बस्‍तर का हीरा, बस्‍तर की वन सम्‍पदा सबके काम आई, लडाईयां लडे गये, अकूत धन संग्रह किये गये और की‍र्तिमान स्‍थापित किये गये। बस्‍तर का आदिवासी अपना सब कुछ लुटाता रहा. सहनशीलता की पराकाष्‍ठा पर समय समय पर रक्तिम विद्रोहों में भी शामिल होता रहा किन्‍तु उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आया।


जल पर उद्योगपतियों और एनजीओ की नजर है

जंगल नक्‍सलियों के कब्‍जे में है

जमीन का अब क्‍या करेंगें उन्‍हें रहना कैम्‍पों में है


उसके पास सिर्फ और सिर्फ उसका लंगोट है. आजकल उसने इसके भी लुट जाने के डर से उपर से लुंगी पहन लिया है.

संजीव तिवारी

आखिर ब्‍लाग क्‍या है ... ?

कल प्रकाशित मेरे पोस्‍ट जाके नख अरू जटा बिसाला, सोई तापस परसिद्ध कलि‍काला में मेरे फीड ब्‍लाग रीडर श्री सत्‍येन्‍द्र तिवारी जी नें मेल से टिप्‍पणी की है. टिप्‍पणी में उन्‍होंनें ब्‍लाग के संबंध अपनी राय प्रकट की है. आप क्‍या सोंचते हैं इस संबंध में - 








आदरणीय संजीव जी,
मैं आपके इस कथन से पूर्ण रूप से सहमत हूँ. (मेरा मानना है कि ब्ला‍ग लेखन मीडिया के समान कोई अनिवार्य प्रतिबद्धता नहीं है इस कारण हम अपने समय व सहुलियत के अनुसार ब्लालग लेखन करते हैं और अपनी मर्जी के विषय का चयन करते हैं। यह कोई आवश्यवक नहीं है ना ही यह व्या‍वहारिक है कि छत्तीसगढ के सभी ब्लागर किसी एक मसले को लेकर प्रत्येक दिन एक सुर में लेखन करे।)

ब्लॉग व्यवसायिक नहीं. ऐसा मेरा मानना है. लोगो के मत मेरे मत से भिन्न हो सकते हैं लेकिन लोगो को मेरे ब्लॉग पर मैंने क्या लिखा इस पर नकारात्मक टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं जब तक की उनके बारे में व्यक्तिगत रूप से उसमे कुछ न लिखा हो. आखिर ब्लॉग क्या है? समाचारपत्र या व्यक्तिगत डायरी, जिसे पढने की छूट सबको है. किसी भी ब्लॉग को पढने से पहले मैं सोचता हूँ की इससे शायद इन सज्जन के बारे में और ज्यादा जानकारी मिले. वे क्या हैं और क्या कर रहे हैं. ब्लॉग से मुझे दुसरे व्यक्ति के कार्यकलापों और जीवन के उनके अनुभव के बारे जानकारी मिले यह मेरा उद्देश्य होता है. मेरा मानना है की कोई ब्लॉग किसी एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति को प्रदर्शित करने का उत्तम साधन है.

यह मेरा अपना विचार है लोग मेरे विचार से असहमत होने के लिए स्‍वतंत्र हैं क्योंकि उनकी सहमति या  असहमति पर मेरा कोई वश नहीं. ब्लॉग तो एक pornsite की तरह है जहाँ  पर  पहले  ही सचेत कर दिया जाता है की यदि आप नग्नता से दुखी होते हैं तो कृपया इसके आगे न बढे.

सत्‍येन्‍द्र


Satyendra K.Tiwari.
Wildlife Photographer, Naturalist, Tour Leader
H.NO 139, P.O.Tala, Distt Umariya.
M.P. India 484-661
To know more about Bandhavgarh visit following links.
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जाके नख अरू जटा बिसाला, सोई तापस परसिद्ध कलि‍काला.

पिछले दिनों कई ब्लागों में बहुत हो हल्ला हुआ कि छत्तीसगढ के ब्लागर्स कुछ विशेष आवश्यक और ज्वलंत मुद्दों में कुछ नहीं लिख रहे हैं. ब्लाग जगत में सक्रिय रहने के कारण हम पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हम पुलिस की बर्बरता और दमन पर चुप्पी साध लेते हैं. पुलिस या प्रशासन के विरूद्ध नक्सल मामलों में कुछ भी लिखने से कतराते हैं। दूसरी तरफ छत्तीतसगढ के ब्लागर्स नक्सली हिंसा पर मानवाधिकार वादियों की चुप्पी पर तगडा पोस्ट ठेलते हैं.

ब्लागर्स की चुप्पी के व्यर्थ आरोपों पर मेरा मानना है कि ब्ला‍ग लेखन मीडिया के समान कोई अनिवार्य प्रतिबद्धता नहीं है इस कारण हम अपने समय व सहुलियत के अनुसार ब्लालग लेखन करते हैं और अपनी मर्जी के विषय का चयन करते हैं। यह कोई आवश्यवक नहीं है ना ही यह व्या‍वहारिक है कि छत्तीसगढ के सभी ब्लागर किसी एक मसले को लेकर प्रत्येक दिन एक सुर में लेखन करे।

अभी आलोचक पंकज चतुर्वेदी नें एक पत्र पर पुन: छत्‍तीसगढ के कुछ मसलों पर गंभीर सवाल उठायें हैं. जिसका स्पष्ट‍ जवाब जय प्रकाश मानस जी नें दिया है. यदि पंकज जी को एक सामान्य पाठक मानते हुए देखें तो पंकज चतुवेर्दी जी नें जिस आधार पर आरोप प्रतिपादित किये हैं वह एक समाचार – पत्र पर प्रकाशित साक्षात्कार है एवं ऐसे अन्य समाचार (पत्र) है जो छत्तीसगढ की परिस्थितियों के संबंध में स्पष्ट जानकारी नहीं रखते या नहीं देना चाहते.

देश की स्थिति परिस्थिति के संबंध में मीडिया जनता तक सच को लाती है, दिखाती है या पढाती है. यह मीडिया का नैतिक कर्तव्य ही नहीं आवश्यंक कार्य (ड्यूटी) है. कुछ हर्फों में लिखे शव्द व्यक्तिगत न होते हुए भी आदमी को किस कदर विचलित कर सकते हैं इसका उदाहरण है यह लम्बा चौडा आरोप.

लोगों के मन में धारणा बनाने या लोगों को दिग्भ्रमित करने या वास्तविक परिस्थिति से अवगत कराने के पीछे मीडिया की भूमिका संबंधी बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता। छत्‍तीसगढ के बहुचर्चित सलवा जूडूम के मसले को ही लें, राष्‍ट्रीय मीडिया सलवा जूडूम शिविरों के हालात के संबंध में जो बातें करती है वह बेहद सीमित प्रस्तुत होती हैं। इसके विपरीत सलवा जुडूम के विपक्ष में बोलने और लिखने वाले कुछ लोग इस पर खुल कर लिखते हैं और जुडूम के पक्षधर लोगों के द्वारा किए गए बलप्रयोग एवं दमन का विस्तृत चित्र भी खींचते हैं। ऐसे चित्रों की हकीकत जनता के पास आनी ही चाहिये यदि ये झूठे एवं बकवास हैं तो जनता के सम्मुख इसका भंडाफोड भी होना चाहिए। सिर्फ यह मान लेना कि जो सलवा जूडूम के विरोधी है वे सरकार के विरोधी हैं उचित नहीं है।

पुलिस व प्रशासन के कार्यों की समीक्षा मीडिया के द्वारा ही बेहतर ढंग से संभव है ऐसी स्थिति में पुलिस के द्वारा नक्सल उन्मूलन के लिए किए जा रहे कार्यों एवं प्रशासन के द्वारा सलवा जूडूम के आयोजनों की निष्प्क्ष समीक्षा भी बेहद आवश्यक है। जूडूम शिविरों के संबंध में जब दिल्‍ली में समाचार प्रकाशित होते हैं तो वे केवल उसके विरोध में ही प्रकाशित होते हैं, वहां की परिस्थितियों की वर्ततान तस्वीर दिल्‍ली और दूसरे जगह की मीडिया में आनी चाहिये.

छत्तीसगढ की मीडिया की यदि हम बात करें तो सुदूर दुर्गम जंगली इलाकों के समाचार निष्पक्ष रूप से यहां के समाचारों में आये हैं और इसी के चलते सिंगारपुर जैसे घटनाओं का न्यायिक जांच संभव हो पाया है और इसी के कारण सलवा जूडूम पर राष्ट्रव्यापी बहसों का दौर भी चल पाया है।

बस्तर के जनजातीय इतिहास को देखते हुए उनकी एकजुटता और अन्याय के विरूद्ध उठ खडे होने की प्रवृत्ति स्वंरूप सलवा जुडूम की उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता किन्तु सलवा जुडूम के प्रारंभिक नेतृत्व के बाद निरंतर संचालन में कुछ आंशिक खामियां भी आई होंगीं और यह भी हो सकता है कि सलवा जूडूम वाले कुछ गलतियां कर बैठे हों। ऐसा इसलिये भी हो सकता है कि किसी आन्दोलन की निरंतरता उसके नेताओं के नियंत्रण में योजनाबद्ध तरीकों से चलाई जाये तभी उसमें सफलता की त्रुटिरहित संभावना बनती है। पर आरंभिक नेतृत्व के उपरांत ‘जूडूम’ में किसी योग्य नेतृत्व का सर्वथा अभाव रहा है ऐसे में नक्सली आतंक व दमन से पीडित व पूर्वाग्रह से ग्रसित लोगों के द्वारा ‘जुडूम’ के लिए आग्रह करने के बजाय कहीं भी शक्ति का प्रयोग नहीं किया गया हो ऐसा नहीं माना जा सकता। सिर्फ हमारे 'स्‍वस्‍फूर्त' 'स्‍वस्‍फूर्त' कहने के बजाय ऐसे ही कुछ गंभीर मसले हैं जिन पर मीडिया या मीडिया से जुडे लोगों का लेखन आवश्यक है। इससे ही इस पुनीत यज्ञ की समीक्षा हो सकेगी, खामियों पर नजर जायेगी और भविष्य में सुधार व शांति की संभावना बन सकेगी। छत्तीससगढ से दूर बैठे लोगों के मन में ‘जूडूम’ का सच सामने आयेगा और वे अपनी धारण बदल सकेंगें।


संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन क्‍यूं नहीं

छत्तीसगढ में नक्सली तांडव को देखते हुए सचमुच में प्रत्येक व्यक्ति के मुह से अब बरबस निकल रहा है कि अब पानी सिर से उतर चुका है. किन्तु इस समस्या से निबटना यदि इतना आसान होता तो पिछले कई दसकों से फलते फूलते इस अमरबेल को कब का नेस्तानाबूत कर दिया गया होता. बरसों से छत्तीतसगढ के लोग देख रहे हैं, उनकी बोली गोली है वे किसी राजनैतिक समाधान में विश्वास रखते ही नहीं। नक्सलियों का स्वरूप हिंसा है, बिना हिंसा के उनका अस्तित्व ही नहीं है। उनके सिद्धांतों के अनुसार ‘सर्वहारा के अधिनायकत्व में क्रांति को निरंतर जारी रखना’ व ‘आक्रमण ही आत्मरक्षा का असली उपाय है’ और क्रांति व आक्रमण संयुक्त रूप से हिंसा के ध्योतक हैं। सिद्धांतों और वादों की घूंटी पीते-पिलाते हिंसा को अपना धर्म मानते नक्सली राह से भटक गये हैं और अब आर्गनाईज्ड क्राईम कर रहे हैं जिसमें वसूली इनका सबसे बडा धंधा हो गया है।

इस धंधे की साख बरकरार रखने एवं अपने आतंक को प्रदर्शित करने के लिए निरीह लोगों व पुलिस वालों की बेवजह हत्यायें की जा रही है। सामान्य जनता तो यहां तक कहती है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जिनके पास पैसे हैं वे इन्हें बेखौफ-बेरोकटोक जंगलों के सडकों में आने जाने के लिए पैसे देते हैं। ऐसा कई बार सुनने में आता है एवं लोगों की स्वाभाविक प्रथम अभिव्यक्ति रहती है कि नेता, व्यापारी, ठेकेदार वनविभाग के कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक नक्सलियों को पैसे देकर अपनी खैरियत सिक्योर करते हैं। जो इन्हें पैसे नहीं देते उनकी मौत एरिया कमांडरों की गोलियों से हो जाती है। वसूली से प्राप्त इन पैसों से मैदानी इलाकों में बैठे इनके आका-काका माओ और मार्क्सो के सिद्धांतों पर धनियां बोंते पूंजीपतियों की भांति आराम फरमाते हैं और नक्सली स्वयं सर्वहारा के रूप में इनके लिये खून बहाते वसूली करते हैं। विगत दिनों झारखण्ड के एक नक्सली नेता का इंटरव्यू दैनिक छत्तीसगढ के मुख्य पृष्ट पर छपा था जिसमें उन्होंनें स्वींकार किया था कि उनके आय का मुख्य जरिया वसूली है उसमें उसने वसूली के रकम को करोडो में बताया था। मीडिया, पुलिस एवं जनमानस से जो बातें उभरकर सामने आ रही है उसका सार यही है। इन आपराधिक संगठनों के संविधान विरोधी कार्य पर शीध्रातिशीध्र नियंत्रण आवश्यक है। राज्‍य सरकार के मत्‍थे सारी जिम्‍मेदारी डाल देनें से केन्‍द्र बरी नहीं हो जाता छत्‍तीसगढ में भी लालगढ जैसे केन्‍द्रीय संयुक्‍त आपरेशन की आवश्‍यकता है। 

डीजीपी विश्‍वरंजन कविता भी करेंगें और लडाई भी लडेंगें

कल रायपुर में छत्‍तीसगढ शासन के मंत्रियों की कैबिनेट बैठक के बाद पत्रकारों से रूबरू होते हुए प्रदेश के मुख्य मंत्री डॉ.रमन सिंह नें विगत दिनों एसपी सहित 40 पुलिस कर्मियों के शहीद हो जाने एवं प्रदेश के पुलिस प्रमुख के कविता लिखने में व्यस्त होने के सवाल पर कहा कि डीजीपी विश्विरंजन 'कविता भी करेंगें और लडाई भी करेंगे'.

एसपी विनोद चौबे सहित 39 पुलिस कर्मियों के शहादत के बाद लगभग सभी समाचार पत्रों में लगातार डीजीपी विश्ववरंजन के कविता करने एवं साहित्य प्रेम में रमें होने की खबरें छापी गई. समाचार पत्रों के मुताबिक कल हुए मंत्रियों की कैबिनेट बैठक में छत्तीसगढ में नक्सली गतिविधियों से निबटने में पुलिस के पूर्णतया असफल होने एवं पुलिस प्रमुख विश्‍वरंजन के साहित्तिक गतिविधियों में रमें होने पर सभी मंत्रियों नें विरोध जताया. मंत्रियों नें यहां तक कहा कि डीजीपी के कार्यालय में सुबह से रात तक साहित्यकारों का जमावडा रहता है जब कोई पुलिस का अफसर डीजीपी से सुरक्षा के मसले पर चर्चा करने आता है तो उसे जल्दी से जल्दी चलता कर साहित्यकारों की महफिल फिर सज जाती है. इसके पहले कांग्रेस के नेताओं नें खुलकर डीजीपी के इस साहित्तिक प्रयास को आडे हाथों लिया था तब यह सोंचा जा रहा था कि मामला राजनैतिक है, किन्तु आज जब सत्ता दल के मंत्रियों के द्वारा डीजीपी के साहित्तिक क्रियाकलापों पर फिकरे कसे गये तो चिंतन आवश्यक हो गया.

विगत दिनों संजीत त्रिपाठी जी के ब्‍लाग आवारा बंजारा के डीजीपी के अनुभव और अनिल पुसदकर का सम्मान शीर्षक से प्रकाशित एक पोस्‍ट के बाद मैंनें एक पोस्ट पर   छत्तीसगढ के पुलिस प्रमुख के नाम एक पत्र लिखा था. इसके बाद डीजीपी के पीआरओ भाई जयप्रकाश मानस जी नें मुझे डपट लगाई थी. सिपाही क्यों नहीं लिख सकता कविता ? यह एक भाग के रूप में था उसके अगले भाग में पता नहीं और किस किस को मूर्ख कहा जायेगा क्योंकि छत्तीसगढ में मेरी तरह की बातें करने वाले बहुत से अबूझ लोग अब यह स्वीकारनें लगे हैं कि एक पुलिस वाले को कविता अवश्य करनी चाहिये किन्तु संकट आने एवं सुरक्षा की आवश्यकता पडने पर डटकर मुकाबला करना चाहिये और अभी छत्तीसगढ की परिस्थिति नक्सलियों के खत्मे की रणनीति बनाने और उनका डटकर मुकाबला करने की है. हमारे पुलिस के सिपाही इसमें पूर्ण सक्षम है हमारे पास नक्सलियों से एक कदम आगे की सोच वाले अफसर भी हैं.

डीजीपी विश्वरंजन के क्रियाकलापों में एवं सौजन्य से छत्तीसगढ में विगत दिनों एक महत्वपूर्ण कार्य हुआ जो हिन्दी साहित्य जगत के लिये सदा सदा के लिये याद किया जायेगा वो था प्रमोद वर्मा जी पर कार्यक्रम एवं उस पर अमल. एक पुलिस प्रमुख होते हुए ऐसे कार्यक्रम के संपादन में यद्धपि विश्वररंजन जी को किंचित दिक्कतें आयी होगी पर उन्होंनें यह साबित कर दिया कि वे न केवल छत्तीसगढ के पुलिस प्रमुख हैं वरन छत्तीसगढ की बौद्धिक मानसिकता के भी प्रमुख हैं. लोगों को यह बातें सहजता से पच नहीं पाई, कार्यक्रम में पुलिस विभाग की भारी उपस्थिति एवं इसके ठीक बाद नक्सलियों द्वारा 40 पुलिस कर्मियों की हत्या कर दिये जाने के कारण पुलिस विभाग को लोगों नें आडे हाथों लिया और तरह तरह की बयानबाजी आरंभ हो गई. इसके साथ- साथ विश्वरंजन के साहित्तिक मित्रों की पुलिस प्रमुख से निकटता को साबित करने के लिये सहजता से उल्लेख किये गये वाकये भी चर्चा में आये कि कैसे किसी साहित्तिक मित्र के जन्मदिन या वैवाहिक वर्षगांठ पर पुलिस प्रमुख नें उन मित्रों को थानेदार स्तर के अधिकारी के हांथ गुलदस्ते के साथ शुभकामना संदेश भेजे, और उस अधिकारी नें अपनी ड्यूटी पिरियड में मित्र को सेल्यूट बजाते हुए गुलदस्ते भेंट किये. अब यह काम स्वयं पुलिस प्रमुख नें करवाया या उनके किसी मातहत नें करवाया किन्तु् लोग पुलिस प्रमुख के पुलिस अधिकारियों के ऐसे सदुपयोग पर सवाल अवश्य लगा रहे हैं.

हमें विश्वास है पुलिस प्रमुख इन सब बातों से विचलित नहीं होंगें एवं नक्सलियों से भिडने के लिये अपनी कुशल रणनीति तय करते हुए सिपाही के रूप में 'कविता भी करेंगें और लडाई भी करेंगे'.

संजीव तिवारी

नमन शहीद एस.पी. विनोद चौबे

विगत रविवार को राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित, छत्तीसगढ के जांबाज पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे सहित 39 जवानों के राष्‍ट्रद्रोहियों से लडते हुए शहीद हो जाने पर हमारी अश्रुपूरित श्रद्धांजली 
 
संजीव तिवारी
 
छत्तीसगढ भारत का अंग है या नहीं?

राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी, रायपुर की खबरें

विगत सात जुलाई को सृजन गाथा ब्‍लाग पर रायपुर में दस जुलाई को राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी आयोजित किये जाने का समाचार प्रकाशित हुआ. इसके पूर्व निमंत्रण पत्रों एवं आमंत्रण मेल से प्रमोद वर्मा स्‍मृति समारोह 2009 की जानकारी प्राप्‍त हो चुकी थी और इस कार्यक्रम में वक्‍ताओं को सुनने के लिये हमारी ललक जाग उठी थी. इसी कार्यक्रम के अवसर पर राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी आयोजित किये जाने के समाचार नें हमारे उत्‍साह को दुगना कर दिया. साथी ब्‍लागर्स से चर्चा होते रही, इसके संबंध में राजकुमार ग्‍वालानी जी एवं बाबला जी का पोस्‍ट आपने पढा ही है. 

मेरे एवं साथी ब्‍लागर्स के लिये यह एक अच्‍छा सुअवसर था कि देश के नामी गिरामी साहित्‍यकारों के सममुख ब्‍लाग की उपादेयता पर बहस सुनने और करने का मौका मिलेगा. इस राष्‍ट्रीय ब्‍लागर्स संगोष्‍ठी के आयोजक जयप्रकाश मानस जी नें संगोष्‍ठी का विषय
'छपास पीड़ा का इलाज मात्र हैं ब्लॉग?' रखा था. पोस्‍ट के अनुसार इस संगोष्ठी के मुख्य अतिथि  देश के महत्वपूर्ण आलोचक एवं भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक डॉ. प्रभाकर तथा विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवि एवं आलोचक श्री प्रभात त्रिपाठी, रायगढ़ एवं  भाषाविद एवं हिन्‍दी का पताका पहराने वाले ए. अरविंदाक्षन, कालीकट तथा इसकी अध्यक्षता करने वाले थे हमर मयारू  ब्लॉगर रविशंकर श्रीवास्तव जी (रविरतलामी)

मैं नियत समय से डेढ घंटे पहले ही पहुच गया क्‍यूंकि मुझे आने वाले ब्‍लागरों को पहचानकर उन्‍हें इकत्रित करना था, साथ ही मोबाईल फोन से ब्‍लागर्स साथियों से चर्चा भी होती रही. रवि भाई से कार्यक्रम स्‍थल में जाते ही मुलाकात हो गई. इसके बाद साथियों को बुलाने के लिये जब फोन किया तो रायपुर के कई ब्‍लागर्स साथी यों नें बतलाया कि इस संबंध में समाचार पत्रों में कोई समाचार नहीं छपा है, प्रमोद वर्मा स्‍मृति समारोह कार्यक्रम के पल-पल की जानकारी समाचार पत्रों में है किन्‍तु आगर-ब्‍लागर के लिये वहां कोई स्‍थान नहीं है लगता है इसीलिये इस संबंध में कोई समाचार नहीं है. हमने साथियों को मानस जी एवं रवि भाई के ब्‍लाग में प्रकाशित पोस्‍ट का हवाला देते हुए कहा कि हमें इन समाचार पत्रों से क्‍या लेना देना हमारा समाचार ब्‍लाग में आ गया यानी कार्यक्रम तय है समझो, जल्‍दी आवो. इसे स्‍पष्‍ट करने के लिये समाचार पत्रों के कार्यलय में  इस संबंध में जानना चाहा तो सभी नें बतलाया कि छपा-छपाया कार्यक्रम विवरण हमें भेजा गया है वहां ब्‍लागर्स संगोष्‍ठी का कोई नामोनिशान नहीं है. तब तक तपेश जैन जी नें मुझे वह स्‍थान दिखा दिया था जहां राष्‍ट्रीय ब्‍लागर्स गोष्‍ठी होनी थी. कार्यक्रम में पहले से ही शरद कोकाश जी, वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता एवं साहित्‍यकार कनक तिवारी जी, डॉ.रामकुमार बेहार जी, पुलिस विभाग के जनसंपर्क अधिकारी, विनोद साव जी, हेमंत वैष्‍णव जी भी उपस्थित थे.  


हमारी संगोष्‍ठी हुई, फोटेसेशन भी हुआ पर जिस विषय पर गर्मागरम बहस होनी थी उसे भांप कर साहित्‍यकार ब्‍लागरों के पास नहीं आये. हां एकाध साहित्‍यकार नें हमारे कार्यक्रम को झांक कर देखा भी तो किसी दूसरे साहित्‍यकार नें कह दिया 'अरे यार ब्‍लागरों की गोष्‍ठी है' तो पहला रूकने की बजाय वहां से जाना ही उचित समझा. कुल मिलाकर प्रतिवादी को बार बार नोटिस तामील करने के बाद भी हाजिर नहीं होने के बिला पर मामला एकपक्षीय ब्‍लागरों के पक्ष में सुनाया गया. और सभी ब्‍लागर्स जीत के उत्‍साह में रायपुर प्रेस क्‍लब की ओर कूच कर गये. जहां रवि रतलामी जी, अनिल पुसदकर जी, राजकुमार ग्‍वालानी जी, बी.एस.पाबला जी, त्र्यंबक शर्मा जी, संजीत त्रिपाठी जी, सचिन अवस्‍थी जी के साथ ही रायपुर प्रेस क्‍लब के सदस्‍यों के बीच उत्‍साह से ब्‍लागरी महफिल सजी एवं भविष्‍य में ब्‍लागर्स सम्‍मेलन कराए जाने की योजना पर चर्चा हुई. 

 
जय प्रकाश मानस जी, संजय द्विवेदी जी, बी.एस.पाबला जी, रवि रतलामी जी और अनिल पुसदकर जी

मैं और रवि भईया 



फोटो - रूपेश यादव जी से साभार 


संजीव तिवारी

मेरी कहानी 'पिता का वचन' अन्‍यथा पर

भारतीय - अमरीकी मित्रों का साहित्यिक प्रयास 'अन्‍यथा' के अंक 14 पर प्रसिद्ध कथाकार एस.आर.हरनोट, छत्‍तीसगढ के चितेरे कथाकार मित्र कैलाश बनवासी व लोकबाबू के साथ ही मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई है, इसे इस लिंक से पढा जा सकता है:-

कहानी - पिता का वचन

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संजीव तिवारी 

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