स्‍वामी विवेकानंद पथ का पथिक : स्‍वामी आत्‍मानंद

गांधी जी की लाठी लेकर आगे आगे चलते हुए एक बच्‍चे की तस्‍वीर को हम कई अवसरों में देखे होंगें, हमारी स्‍मृति पटल में वह चित्र गहरे से अंकित है, आप सभी को यह चित्र याद होगा । इस चित्र में गांधी जी की लाठी लेकर आगे आगे चलता बच्‍चा तब का रामेश्‍वर उर्फ तुलेन्‍द्र वर्मा और आज के स्‍वामी आत्‍मानंद जी हैं । मैं इस चित्र को देखकर रोमांचित हो उठता हूं कि यही स्‍वामी आत्‍मानंद हैं जिन्‍होंनें छत्‍तीसगढ में मानव सेवा एवं शिक्षा संस्‍कार का अलख जगाया और शहरी व धुर आदिवासी क्षेत्र में बच्‍चों को तेजस्विता का संस्‍कार, युवकों को सेवा भाव तथा बुजुर्गों को आत्मिक संतोष का जीवन संचार किया ।

बालक तुलेन्‍द्र का जन्‍म 6 अक्‍टूबर 1929 को रायपुर जिले के बदबंदा गांव में हुआ, पिता धनीराम वर्मा पास के स्‍कूल में शिक्षक थे एवं माता भाग्‍यवती देवी गृहणी थी । पिता धनीराम वर्मा नें शिक्षा क्षेत्र में उच्‍च प्रशिक्षण के लिये बुनियादी प्रशिक्षण केन्‍द्र वर्धा में प्रवेश ले लिया और परिवार सहित वर्धा आ गये । वर्धा आकर धनीराम जी गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम में अक्‍सर आने लगे एवं बालक तुलेन्‍द्र भी पिता के साथ सेवाग्राम जाने लगे । बालक तुलेन्‍द्र गीत व भजन कर्णप्रिय स्‍वर में गाता था जिसके कारण गांधीजी उससे स्‍नेह करते थे । गांधी जी उसे अपने पास बिठाकर उससे गीत सुनते थे । धीरे धीरे तुलेन्‍द्र को गांधी जी का विशेष स्‍नेह प्राप्‍त हो गया, जब वे तुलेन्‍द्र के साथ आश्रम में घूमते थे तब तुलेन्‍द्र उनकी लाठी उठाकर आगे आगे दौडता था और गांधी जी पीछे पीछे लंबे लंबे डग भरते अपने चितपरिचित अंदाज में चलते थे ।


कुछ वर्ष उपरांत धनीराम वर्मा जी रायपुर वापस आ गए एवं रायपुर में 1943 में श्रीराम स्‍टोर्स नामक दुकान खोलकर जीवन यापन करने लगे, बालक तुलेन्‍द्र नें सेंटपाल स्‍कूल से प्रथम श्रेणी में हाईस्‍कूल की परीक्षा पास की और उच्‍च शिक्षा के लिए साइंस कालेज नागपुर चले गए । वहां उन्‍हें कालेज में छात्रावास उपलब्‍ध नहीं हो सका फलत: वे रामकृष्‍ण आश्रम में रहने लगे । यहीं से उनके मन में स्‍वामी विवेकानंद के आदर्शों नें प्रवेश किया बाद में उन्‍हें कालेज के द्वारा छात्रावास उपलब्‍ध करा दिया गया पर तब तक विवेक ज्‍योति नें उनके हृदय में प्रवेश कर परम आलोक फैला दिया था । तुलेन्‍द्र नें नागपुर से प्रथम श्रेणी में एमएससी(गणित) उत्‍तीर्ण किया, फिर दोस्‍तों की सलाह पर आईएएस की परीक्षा में सम्मिलित भी हुए वहां उन्‍हें प्रथम दस सफल उम्‍मीदवारों में स्‍थान मिला पर मानव सेवा एवं विवेक दशर्न से आलोकित तुलेन्‍द्र नौकरी से बिलग रहते हुए, मौखिक परीक्षा में सम्मिलित ही नहीं हुए । वे रामकृष्‍ण आश्रम की विचाधारा से जुडकर कठिन साधना एवं स्‍वाध्‍याय में रम गए ।

स्‍वामी आत्‍मानंद जी के चार भाई थे जिनमें से छोटे भाई, प्रसिद्ध भाषाविद व विवेक ज्‍योति के संपादक डॉ.नरेन्‍द्र देव वर्मा, स्‍वामी जी के जीवनकाल में ही स्‍वर्ग सिधार गए थे । शेष तीन में से स्‍वामी श्री त्‍यागानंद जी महाराज अपने बडे भाई के पदचिन्‍हों पर चलते हुए, वर्तमान में इलाहाबाद रामकृष्‍ण आश्रम के प्रमुख हैं । स्‍वामी श्री निखिलात्‍मकानंद जी महाराज छत्‍तीसगढ के वनवासी क्षेत्र में शिक्षा संस्‍कार की ज्‍योति जलाते हुए छत्‍तीसगढ के नारायणपुर आश्रम के प्रमुख हैं । सबसे छोटे भाई डॉ.ओम प्रकाश वर्मा शिक्षाविद हैं और विवेकानंद विद्यापीठ, रायपुर के प्रमुख हैं ।
सन 1957 में रामकृष्‍ण मिशन के महाध्‍यक्ष स्‍वामी शंकरानंद नें तुलेन्‍द्र की प्रतिभा, विलक्षणता, सेवा व समर्पण से प्रभावित होकर ब्रम्‍हचर्य में दीक्षित किया व उन्‍हें नया नाम दिया - स्‍वामी तेज चैतन्‍य । अपने नाम के ही अनुरूप स्‍वामी तेज चैतन्‍य नें अपनी प्रतिभा व ज्ञान के तेज से मिशन को आलोकित किया । अपने आप में निरंतर विकास व साधना सिद्धि के लिये वे हिमालय स्थित स्‍वर्गाश्रम में एक वर्ष तक कठिन साधना कर वापस रायपुर आये । स्‍वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास को अविश्‍मर्णीय बनाने के उद्देश्‍य से रायपुर में विवेकानंद आश्रम का निर्माण कार्य आरंभ कर दिया । इस कार्य के लिये उन्‍हें मिशन से विधिवत स्‍वीकृति नहीं मिली किन्‍तु वे इस प्रयास में सफल रहे एवं आश्रम निर्माण के साथ ही रामकृष्‍ण मिशन, बेलूर मठ से संबद्धता भी प्राप्‍त हो गई ।

आज हम जिस विवेकानंद आश्रम का भव्‍य व मानवतावादी स्‍वरूप देख रहे हें वह उन्‍हीं स्‍वामी तेज चैतन्‍य की लगन व निष्‍ठा का प्रतिफल है जिन्‍हें बाद में स्‍वामी आत्‍मानंद के नाम से पुकारा गया । स्‍वामी जी छत्‍तीसगढ की सेवा में इस कदर ब्रम्‍हानंद में लीन हुए कि मंदिर निर्माण हेतु प्राप्‍त राशि भी अकालग्रस्‍त ग्रामीणों को बांट दी । बाग्‍ला देश से आये शरणार्थियों की सेवा, शिक्षा हेतु सतत प्रयास, कुष्‍ट उन्‍मूलन आदि समाजहित के कार्य जी जान से जुटकर करते रहे । शासन के अनुरोध पर वनवासियों के उत्‍थान हेतु नारायणपुर में उच्‍च स्‍तरीय शिक्षा संस्‍कार केन्‍द्र की स्‍थापना भी इस महामना के द्वारा की गई । इसके साथ ही इन्‍होंनें छत्‍तीसगढ में शिक्षा संस्‍कार, युवा उत्‍थान व प्रेरणा के देदीप्‍यमान नक्षत्र के रूप में चतुर्दिक छा गए । छत्‍तीसगढ को सुसंस्‍कृत करने हेतु कृत संकल्पित इस युवा संत को 27 अगस्‍त 1989 को भोपाल से सडक मार्ग द्वारा रायपुर आते हुए राजनांदगांव के समीप एक दुर्घटना नें हमसे सदा सदा के लिए छीन लिया ।

रामकृष्‍ण मिशन - विवेकानंद आश्रम, रायपुर के संबंध में संजीत त्रिपाठी जी के आवारा बंजारा में विस्‍तृत रिपोर्ट भी देखें ।


संजीव तिवारी

जोजवा पटवारी और डॉ.चंद्रबाबू नायडू

छत्तीसगढ शासन के शिक्षा विभाग के द्वारा स्कूल विद्यार्थियों के लिए छत्तीसगढी शब्द कोश बनाया जा रहा है इस कार्य में छत्तीसगढी भाषा के ज्ञानी लगे हुए हैं, उनके द्वारा प्रयास यह किया जा रहा है कि छत्तीसगढी शव्दों का हिन्दी व अंग्रेजी में सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया जा सके । शव्दकोश निर्माण टीम में लगे छत्तीसगढ के प्रसिद्ध कहानीकार डॉ.परदेशीराम वर्मा जी से आज हम मुलाकात करने उनके घर गए । चर्चा के दौरान उन्होंनें बतलाया कि वे कल तक इसी काम के चलते रायपुर में ही थे । हमने उत्सु्कता से इसकी प्रगति व प्रक्रिया के संबंध में पूछा, तो उन्होंनें बतलाया कि एक शव्द‍ का लगभग एक पेज में विश्लेषण किया जा रहा है । कई छत्तीसगढी शव्दों को सटीक हिन्दी व अंग्रेजी शव्दों में व्यक्त करना सामान्य बात नहीं है क्योंकि यहां के कई शव्द इतने गूढ अर्थ अपने में समेटे हैं कि इनका शब्दिक अर्थ एवं लाक्षणिक अर्थ व इनका अलग अलग समय में प्रयोग से निकलते अर्थों में जमीन आसमान का अंतर हो जाता है ।

इसका उदाहरण आज व कल के कुछ अखबारों में प्रकाशित भी हुआ है । डॉ.परदेशीराम वर्मा जी नें हमें इसका एक और उदाहरण बतलाया । वह शव्दत था ‘जोजवा’ । ‘जोजवा’ का शब्दिक एवं निकट शव्द हैं – अकुशल, बुद्धू, अज्ञानी एवं इसके निकट के कुछ अन्य शव्द । अब इसका प्रयोग देखें – जब कोई मालिक अपने नौकर को ‘जोजवा’ संबोधित करता है वहां उपरोक्त शव्द सटीक बैठता है । अब इसका लाक्षणिक अर्थ प्रयोग देखें – जब एक पत्नी या प्रेमिका अपने पति या प्रेमी को ‘जोजवा’ संबोधित करती है तब यहां यह पौरूष से अभिप्रेत होता है वहीं जब ‘जोजवा’ शव्द का प्रयोग भाभी अपने देवर के लिए करती है वहां उपरोक्त अर्थ बिल्कु्ल भी फिट नहीं होता यहां सामाजिक मर्यादाओं में इसे नासमझ के करीब व मजाकिया लहजे में प्रयोग समझा जा सकता है ।


चर्चायें तो काफी लम्बी थी और शव्दों के सफर में हम किंचित कमजोर हैं, इसके लिये हमारे ब्लागर भाई अजित वडनेरकर जी सिद्धस्थ हैं । अत: हमने अजित जी के ब्लाग व दैनिक भास्कर में उनके कालम के संबंध में डॉ.वर्मा जी को परिचित कराते हुए इस शव्दकोश के प्रकाशन के इंतजार में खो गए ।

इस मुलाकात के बाद आज शाम को ही व्यावसायिक कार्य से अचानक रायपुर जाना पडा, वो इसलिये कि मैं पिछले लगभग एक सप्ताह से रायपुर के अति विशिष्ठ आवासीय क्षेत्र में मेरे एक क्‍लाइंट के बहुमंजिला आवासीय परिसर के निर्माण के लिए प्रस्तावित एक भूखण्ड‍ के संबंध में जानकारी जुटाने चक्कर काट रहा हूं किन्तु रायपुर जिले में पटवारियों के हडताल के कारण मेरा काम आरंभ ही नहीं हो पा रहा है । पटवारी महोदय का कार्यालय तो बंद है साथ ही मोबाईल भी बंद है । अब जब हम अपनी इस समस्या को हमारे कार्यालय पहुचे एक नव कुबेर जमीन दलाल से गुहराये तो उन्होंनें इसका हल चुटकियों में निकाला और अगले घंटे में ही पटवारी महोदय से घडी चौंक में मुलाकात भी करा दी ।

मुझे आश्चर्य हुआ, रायपुर के जमीन दलाल माफियाओं के लंम्बे जुगाडों को देखकर । रायपुर में पटवारियों की हडताल जमीन माफियाओं के बढते दबाव और आपराधिक कृत्य के विरोध में चल रही है । दूसरी तरफ ये इन्हीं के पाव के तलुए चांट रहे हैं या कहीं कहीं पूर्ण रूप से इसके सरगना बने हुए हैं । प्रजातांत्रिक तरीकों से विरोध प्रदर्शन का अधिकार संविधान नें दिया है तो ये इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, जनता पिसती है तो पिसे इन्हें क्या । मेरा अनुमान है कि अब तो पुलिस थानों की तरह पटवारी हल्कों के दाम भी दस-दस लाख रूपये के करीब हो गये होंगें । सरकारी तबादला उद्योग की बाते हैं हम गरियाने के सिवा और क्या कर सकते हैं ।


गरम भुट्टे के साथ वापसी : वापस चंद दिनों में ही साइकल से सेकेंड हैंड स्कूटर फिर चमचमाती क्लासिक होन्डा सिटी के मालिक बने दलाल महोदय के कार में साथ बैठकर हम दुर्ग की ओर लौटे । साथ में मेरे अतिरिक्त दो छत्तीसगढी मूल के दलाल व एक साउथ इंडियन दलाल महोदय थे । हम रास्ते में छत्तीसगढी भाषा में ही बात कर रहे थे । अचानक हम लोगों का ध्यान साथ बैठे साउथ इंडियन भाई की ओर चला गया क्योंकि उनके मोबाईल में रिंग टोन बजने के साथ ही वह अपनी मातृभाषा में जोर जोर से बातें करने लगा था, उघर से फोन करने वाला भी हम लोगों के परिचय में ही था और साउथ इंडियन था । काफी देर तक बात करने के बाद जब बात खत्म हुई तब तक वह समझ चुका था कि हम सब उसके अपनी मातृभाषा में बात करने पर कोई टिप्पिणी करेंगें सो वह छूटते ही बोला कि हमारे डॉ.चंद्रबाबू नायडू साहब कहते हैं कि जब भी आप अपने मातृभाषा – भाषी से बात करो अपनी भाषा में ही बात करो यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो अपनी धरती के प्रति कर्तव्य निर्वहन सहीं ढंग से नहीं कर रहे हो, इसलिये हमने अपनी भाषा में बात किया ।

साथ चल रहे सभी लोगों नें उसकी प्रसंशा की, मुझे सुबह डॉ.परदेशीराम वर्मा जी से चर्चा के अंश याद आ गए जब मैनें उन्हें छत्तीसगढी अस्मिता रैली व महाबईठका के राजनीतिकरण पर सवाल किया तब उन्होंनें अपने आपको राजनिति से दूर रखते हुए उत्तर दिया कि मैं तो हनुमान हूं, जहां जहां राम चर्चा वहां वहां हनुमान वैसे ही जहां जहां भी छत्तीसगढ व छत्तीसगढियों की अस्मिता पर चर्चा होगी आप मुझे वहां उपस्थित पायेंगें

एक तरफ वर्मा जी जैसे लोग हैं जो सोंच में असमानता के बावजूद छत्तीसगढ के लिए अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हैं और दूसरी ओर डॉ. चंद्रबाबू नायडू के ऐसे भक्त भी हैं जो अपने प्रदेश के लिए अपनी प्रतिबद्धता को याद रखते हैं । अदम साहब नें कहा था -

जिसकी गर्मी से महकते हैं बगावत के गुलाब , 
आपके सीने में वह महफूज चिनगारी रहे ।

ब्लागिंग जजबा और उत्साह की निरंतरता

इंटरनेट में जब से गूगल नें ब्लाग के सहारे सृजनात्मकता को बढावा देनें का काम शुरू किया है एवं हिन्दी की सुगमता से परिचित हुआ हूं, यू समझिये कुछ अतिउत्साहित सा हूं, पर इससे मेरे सामान्य कार्य व्यवहार में दिक्कतें बढ गई हैं, ब्ला‍ग के लिये चिंतन, कार्य योजना एवं इस कडी को निरंतर आगे बढाने की लालसा नें कष्ट भी दिये हैं, इसका सबसे बडा कारण समय है । ब्लाग लिखने के साथ साथ ब्लागों को पढना व समसामयिक गतिविधियों में सहभागिता, दोस्तों से इस विषय में आनलाईन चर्चा इन सबके लिये अतिरिक्त समय की आवश्यकता व कमी को महसूस कर रहा हूं ।

ब्लागिंग पूर्णतया स्वांत: सुखाय अव्यावसायिक कार्य व्यहवहार है बल्कि यह कहें कि इसके लिये हमें इंटरनेट बिलों के रूप में पैसे भी नियमित खर्च करने पडते हैं, मतलब घर फूंकों तमाशा देखो वाला काम । हमारे जैसे अति अल्प आय वर्ग के लिये तो यह उक्ति सौ फीसदी सहीं बैठती है । कुछ मित्र कहते हैं कि तीन सौ से आठ सौ रूपये प्रति माह के अनुपात में साल के चार से दस हजार रूपये व्यय करके तो तुम अपने बच्चों के लिए कोई अच्छा सा आर्थिक निवेश अपना सकते हो व ज्ञान पिपासा के लिये इसके लगभग आधे पैसे में देश की प्रतिष्ठित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं को क्रय कर नियमित पढ सकते हो ।

मित्र सहीं कहता है, मुद्रा से जुडे होने के कारण इस ब्लागिंग जजबा और उत्साह की निरंतरता पर संदेह तो होता हैं । क्योंकि कदाचित अच्छे लिखने, स्तरीय सामाग्री परोसने के बावजूद चंद लोगों को छोडकर गूगल के एड सेंस किसी अन्य हिंन्दी ब्लागर्स पर मेहरबान नहीं हो रही है सो हिन्दी ब्लागों में हमारे जैसे लोगों का अधिक समय तक टिके रह पाना संभव नहीं प्रतीत होता, इसके साथ ही कार्यालय व घरेलू कामों में भी इससे किंचित बाधा उत्पन्न होती है, परिवार में इस जजबे पर मतैक्य नहीं होनें के कारण भी रोज रोज के खिटपिट मानस में उठते उत्साह को बार बार आहत करते हैं । एक तरफ थ्री जी दरवाजे पर दस्तक दे रही है तो दूसरी तरफ हम निरूत्साहित हो रहे हैं ।

अब हिन्दी ब्लागर्स के लिये भी कोई मोटीवेशन पैकेज सरकार को या सेवा प्रदाताओं को आरंभ करना चाहिये । बरसात नें तो जमकर छला है अब लगता है, किसानी भी सलामत नहीं रह पायेगी । दिल्ली में वकीलों की शर्मनाक हरकत पर आये फैसले को देखकर काला कोट का भार भी भारी लगने लगा है । कम से कम गरीबी रेखा का कार्ड तो बनवा दो यार, लेपटापधारी होने के कारण इसमें भी नाम नहीं जुड पाया । छत्तीसगढ में तो चुनाव नजदीक है अभी जो भी मांगोगे मिलेगा । वैसे राष्ट्रपति के यहां से जारी फर्जी कार्ड के सहारे जब रायपुर में जमकर वसूली और दादागिरी हो सकती है तो मैं सोंचता हूं कि राज्यपाल के यहां से कोई कार्ड जारी करवा दो दुर्ग में कुछ धन कमा लूं । हा हा हा ........ टेस्ट पोस्ट है टेंशन नई लेने का, मन लगे तो टिपियाने का, क्योंकि हम जानते हैं आप मेरे उलूल-जुलूल को भी झेल लेते हैं । क्षमा करेंगें ।

और हॉं 27 अगस्त को ‘आरंभ’ देखना मत भूलियेगा, इस दिन हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं ‘विवेकानंद पथ के पथिक : स्वामी आत्मानंद’ उनकी पुण्यतिथि पर शव्दों का श्रद्वासुमन ।

लोकगीतों में छत्तीसगढ की पारंपरिक नारी

छत्तीसगढ आरंभ से ही धान का कटोरा रहा है यहां महिलायें पुरूषों के साथ कंधे में कंधा मिलाते हुए कृषि कार्य करती रही हैं । कृषि कार्य महिला और पुरूष दोनों के सामूहिक श्रम से सफल होता है जिसके कारण हमेशा दोनों की स्थिति समान ही रही है, खेतों में दोनों के लिए अलग अलग कार्य नियत हैं । नारी और पुरूष के श्रम से ही छत्तीसगढ में धान के फसल लहलहाये हैं । इसकी इसी आर्थिक समृद्धि के कारण वैदिक काल से लेकर बौद्ध कालीन समयों तक छत्तीससगढ सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से भी उन्नति के शिखर में रहा है । छत्तीसगढ के बहुचर्चित राउत नाच में एक दोहा प्राय: संपूर्ण छत्तीसगढ में बार बार गाया (पारा) जाता है जो छत्तीसगढ में नारियों की स्थिति को स्पष्ट‍ करती है और इस दोहे को नारी सम्मान व समानता के सबसे पुराने लोक साक्ष्य के रूप में स्वीकारा जा सकता है ।‘नारी निंदा झन कर दाउ, नारी नर के खान रे । नारी नर उपजावय भईया, धुरू पहलाद समान रे ।।‘यह दोहा नारी के सम्मान को उसी तरह से परिभाषित करती है जिस तरह से संस्कृत के यत्र नारी पूज्यंतें तत्र .... वाक्यांशों का महत्व है ।

छत्तींसगढ की पारिवारिक परंपरा के इतिहास पर नजर डालने से यह ज्ञात होता है कि यहां संयुक्त परिवार की परम्पंरा रही है जो आज तक गावों में देखने को मिलती है । संयुक्त परिवार में आंसू भी हैं तो मुस्कान भी हैं, यहां परिवार के सभी सदस्य हिल मिल कर रहते हैं और कृषि कार्य करते हैं । बडे परिवार में मुखिया के कई बेटे बहू एक साथ रहते हैं । जहां वय में कुछ बडी कन्या बालिकायें परिवार के छोटे बच्चों का देखरेख उस अवसर पर बेहतर करती हैं जब उनके अभिभावक खेतों में काम से चले जाते हैं । इस अवसर पर छोटे बच्चों को सम्हालने के लिए नारीसुलभ वात्सल्य प्रवृत्ति के कारण बालिकायें छोटे भाई बहनों का देखरेख बेहतर करती हैं एवं पेज पसिया पकाती है और मिलजुल कर खाती है । यहीं से परिवार में नारी के प्रति विशेष श्रद्धा एवं सम्मान का बीजोरोपण आरंभ होता है । अपने से बडी बहन से प्राप्तम स्नेह व प्रेम के कारण भावी पीढी के मन में नारी के प्रति स्वाभाविक सम्मान स्वमेव जागृत हो जाता है ।

पुराने समय में बालिका अवस्था में ही छत्तीसगढ में बालविवाह की प्रथा के कारण उनका विवाह भी कर दिया जाता था । इससे परिवार में दुलार करने वाली एवं दुलार पाने वाली बेटी को दूसरे के घर में भेजे जाने का दुख पूरे परिवार को होता था । मॉं अपनी छोटे उम्र की बेटी के बिदा के अवसर पर गाती है ‘कोरवन पाई पाई भांवर गिंजारेव, पर्रा म लगिन सधाये हो, नान्हें म करेंव तोर अंगनी मंगनी, नान्हें म करेंव बिहाव वो ।‘बेटी इतनी छोटी है कि उसे एक दिन के लिये भी उसके पति के घर में भेजने पर सभी को दुख होता है । यद्धपि विवाह बाद कन्या को मॉं बाप अपने घर वापस ले आते हैं फिर वय: संधि किशोरावस्था में उसका पति उसे कृषि कार्य में हाथ बटाने या घर में चूल्हा चौका करने के उद्देश्य: से गवना करा कर लाता है जहां वह सारी उम्र के लिए आ जाती है । कन्या को यह नया परिवेश तत्काल रास नहीं आता, इसीलिये गीत फूटते हैं ‘काखर संग मैं खेलहूं दाई काखर संग मैं खाहूं ओ’ । खेलने खाने की उम्र में बहू शव्द और दायित्व का भार उसे रास नहीं आता । ससुराल में उसका अपना कहने के लिए एकमात्र पति ही रहता है जिसे वह अपना मित्र मानती है और उसके साथ बालिका वधु की भांति खेलती है धीरे धीरे वह पारिवारिक दायित्वों को सम्हालते हुए सांसारिक व्यवहार को सीखती है ।

शिक्षण प्रशिक्षण के इस खेल में संयुक्त परिवार के कारण कई पारिवारिक रिश्तेरदारों से सामना होता है, रेगिंग भी होती है जिसमें प्राचार्य के रूप में उसकी सास हर कदम पर उसे रोक टोंक कर सामाजिक बनाती है वहीं नंनद, जेठानियॉं व देवरानियों से स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा के कारण उसकी खट पट चलती है पर उन सब के प्रति स्नेग व सम्मान की घूंटी भी वह इसी पाठशाला से पाती है । पुत्रवत देवर को अपनी व्यथा सुनाती बहु कहती है ‘सास गारी देवय, नंनद मुह लेवय देवर बाबू मोर ...’ । श्वसुराल में छोटे ननद देवरों के प्रति भाई बहन की भांति प्यार उडेलने का जजबा छत्तीसगढ की नारियों की परम्परा रही है । ‘छोटका देवर मोर बेटवा बरोबर’ कहने का तात्पर्य विशद है यह गीत यहां की नारियों के वात्सल्य को चित्रित करती है । नंनदों से खटपट के बावजूद भाभी पुत्र जन्म पर उन्हें मनपसंद साडी और सोने का ‘कोपरा’ देने की निष्छरल कामना रखती है वहीं क्षणिक क्रोधवश सास, नंनद व देवरानी, जेठानी के प्रसूता अवस्था में साथ नहीं दिये जाने पर अपने मायके से मॉं, बहन व भाभियों से अपनी प्रसूता कराने ‘कांकें पानी’ बनाने का गीत भी गाती है ।

इस संयुक्त परिवार की परिस्थितियों में परिवार के नारियों के बीच स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा एवं जलन की भावना भी अंदर अंदर पनपते रहती है । ननद और भावज के बीच छुटपुट झडपें व असंतोष गीतों में प्रकट होती हैं । ननद अपने विवाह के बाद घर छूट जाने के दुख पर गाती है । ‘दाई ददा के इंदरी जरत हे, भउजी के जियरा जुडाय हो’ । मां पिता अपनी कमवय पुत्री को पराया घर भेज कर दुखी हैं पर भाभी रंगरेली नंनद को अपने घर से दूर भेजकर अपनी स्वतंत्रता के लिए खुश है क्योंकि उसे पता है कि छोटी ननद बहुत रंगरेली है सास को बात बात में चुगली लगाती है । ‘छोटकी नंनदिया बड रंगरेली हो, सास मेर लिगरी लगाय ।‘ इसी संयुक्त परिवार में नारी को नारी के द्वारा प्रतारण का भी उल्लेख मिलता है जो वर्चस्व की अंदरूणी लडाई है । नई आई वधु पर सब अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं कभी कभी तो यह दबाव इतना अधिक बढ जाता है कि उसे कहना पडता है कि ‘ठेंवत रहिथे ननंद जेठानी, लागथे करेजवा म ठेस, महुरा खा के मैं सुत जातेंव, मिट जाय मोर कलेश ।‘ इस पारिवारिक राजनीति व दमन के कष्ट को सहते हुए भी वधु अपने परिवार के हित की बात ही सोंचती है और कामना करती है कि अपनों से बडों को सम्मान और छोटों को स्नेह देती रहे । छोटी ननदों व देवरानियों पर तो उसका स्नेक अपार रहता है क्योंकि जो कष्ट उसने इस संयुक्त परिवार में शुरूआती दिनों में भोगें हैं वह उसके बाद आई बहुओं को न हो इसलिये वह देवरानियों का हर वक्त ध्यान रखती है उन्हें उचित आसन सम्मान देती है । ‘गोबर दे बछरू गोबर दे, चारो खूंट ला लीपन दे, चारो देरनियां ला बईठन दे ।‘

छत्तीसगढ में संयुक्त परिवार के साथ साथ रख्खी, बिहई जैसे बहुपत्नी‍ प्रथा का भी चलन रहा है जिसके कारण यहां के कुछ गीतों में नारी रूदन नजर आता है । सौतिया डाह में जो गीत मुखरित हुए है वह हृदय को तार तार कर देते हैं । सौतिया डाह का दर्द पत्नी के संपूर्ण जीवन में कांटे की तरह चुभता है तभी तो वह ‘मोंगरा’ में कहती है ‘पीपर के झार पहर भर, मधु के दुई पहर हो, सउती के झार जनम भर, सेजरी बटौतिन हो ।‘ एक लोकोक्ति में कहा गया कि ‘पीपर के पाना हलर हईया, दूई डौकी के डउका कलर कईया’ । लोकोक्तियों नें अपना प्रभाव समाज में छोडा है और अब यह प्रथा कही कहीं अपवाद स्वरूप ही समाज में है और धीरे धीरे बहु पत्नी प्रथा समाप्ति की ओर है । इस दुख के अतिरिक्त नारी जीवन में अन्यान्य विषम परिस्थितियां होती है जिससे वह लडते हुए आगे बढती है इसीलिये एक लोक गीतों में छत्तीसगढ की नारी ‘मोला तिरिया जनम झनि देय‘ का आर्तनाद करती है तो मन संशय से घिर जाता है कि यहां नारी की स्थिति ऐसी भी थी जिससे नारियों को अपने नारी होने की पीडा का अनुभव हुआ और उसने नारी के रूप में पुन: जन्म न देने के लिये इश्वर से पार्थना करना पडा । नारी के इस रूदन को आधुनिक युग में कहानियों व उपन्यासों में भी व्यक्त करने की कोशिसें की गई है । हमने नारी के इस दुख के पहलुओं को यहां के पारंपरिक गीतों और गाथाओं में कई बार तलाशने का प्रयत्न किया तो दुख के इस पडले से ज्यादा सुख एवं सम्मान का पडला हमें भारी नजर आया ।

संजीव तिवारी

रायपुर प्रेस क्‍लब में पहुचे ब्‍लागर्स

कल हम रायपुर में अपना व्‍यावसायिक कार्य निबटा कर कुछ समय के लिये फ्री हुए तो हमने सोंचा कि ब्‍लागरी मीटिंग कर ली जाय, हमारी मीटिंग होती है भाई संजीत के घर में पर महोदय अब सचमुच में आवारा बंजारा हो गए हैं पत्रकार का झोला फिर से थाम लिया है और वो भी सिटी कवर कर रहे हैं सो दिन भर रायपुर की गलियां नापते हैं, हमें घर में मिलते ही नहीं । तो हमने सोंचा बडे भाई मानस जी से मिला जाय, खाडी प्रवास से आये हैं जय जोहार हो जायेगा, पर उनका मोबाईल लगा नहीं । फिर हमने हिम्‍मत कर के  हमारे प्रदेश के छत्तीसगढ़ पत्रकार महासंघ के प्रदेशाध्यक्ष और अब हमारे हिन्‍दी ब्‍लाग जगत मुखर मुखिया, रायपुर प्रेस क्‍लब के अध्‍यक्ष अनिल पुसदकर जी से मिलने का मन बनाया । सो हम  संजीत जी को खोजकर उनके साथ प्रेस क्‍लब के लिये रवाना हो गए ।


अनिल पुसदकर जी प्रेस क्‍लब में पत्रकार बंधुओं के साथ बैठे थे, शायद एक मीटिंग तय थी जिसका समय हो रहा था, हमने फोन पर ही एपांइंटमेंट ले लिया था, सो हमनें डरते झेंपते प्रेस क्‍लब में प्रवेश किया, कारण यह कि संजीत व अनिल भाई, दो दो पत्रकार व ब्‍लागर उसमें भी पत्रकारों के प्रदेश मुखिया से मिलने में किंचित सकुचाहट हो रही थी, सुना था बहुत स्‍पष्‍ट वादी कडक ब्‍यक्ति हैं । पर शंकायें निर्मूल निकली भाई हमसे बडी आत्‍मीयता से मिले, अपने पत्रकार मित्रों से परिचय कराया  व उन्‍होंनें हमें रायपुर प्रेस क्‍लब के नवनिर्मित एवं सभी आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित  कान्‍फ्रेंस हाल दिखलाया, जो महानगरों के प्रेस कान्‍फ्रेंस हाल के अनुरूप बनाया गया है । मैं सदियों से मोतीबाग के उस प्रेस क्‍लब के कान्‍फ्रेंस हाल को, जब जब ऐसा कोई प्रसारण होता है तब से टीवी में देखता रहा हूं ,  सचमुच में  कायाकल्‍प हो गया है । इसका श्रेय अनिल भईया को ही जाता है क्‍योंकि उनके जैसा जुझारू व कर्मठ पत्रकार के बूते ही है यह काम, उनकी सोंच छत्‍तीसगढ के प्रेस व पत्रकारों को भी महानगर जैसी उंचाईयां देने का है । मैं कान्‍फ्रेंस हाल में खोया रहा और संजीत जी के साथ पत्रकार बंधु जुट गये चर्चा ब्‍लागरी पर जम गई । 


अमिताभ, लालू सहित नये ब्‍लागर मनोज बाजपेई, रवि रतलामी, ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय,  शिवकुमार मिश्र जी, डॉ.अनुराग जी, कस्‍बा वाले रविश जी, बालकिशन जी, दिनेशराय द्विवेदी जी, अनूप शुक्‍ल जी, अजित वडनेरकर जी सहित रंजू जी, अनुराधा श्रीवास्‍तव जी, मीनाक्षी जी, अनिताकुमार जी, सीमा दानी  आदि सभी नियमित हिन्‍दी ब्‍लागरों पर एवं उनके हालिया पोस्‍टों पर चर्चा हुई । अनिल भाई नें स्‍वीकारा कि उन्‍हें यह ब्‍लागरी भा गई है और वे अब इसमें रम गये हैं । हमें खुशी है कि छत्‍तीसगढ में अनिल भईया जैसे हिन्‍दी ब्‍लागर अब ब्‍लागरी में जम गये  हैं ।



पत्रकारों की महफिल थी अत: छत्‍तीसगढ पर संजय तिवारी जी के विस्‍फोट डाट काम के जैसा पोर्टल बनाने के संबंध में भी भाईयों नें रूचि जताई । ब्‍लाग के लड्डू के दीवानों नें पूरी तन्‍मयता से हम तीनों की ब्‍लागरी को सुनते रहे, साथ ही यह भी तय हुआ कि इस माह एक दिन संजीत भाई का प्रेस क्‍लब में ब्‍लाग पर एक प्रेजेंटेशन भी करवा दिया जाय ताकि पत्रकारों को इसका लाभ मिल सके और छत्‍तीसगढ में ब्‍लागों की संख्‍या में वृद्धि हो । 

हमारी बातों में रूचि लेने वालों में अन्‍य पत्रकारों सहित पत्रकार कम शायर ज्‍यादा हाजी मोहसिन अली सुहैल एवं एक स्‍थानीय अखबार के समाचार संपादक संजीव वर्मा जो शीध्र ही इस ब्‍लाग कीडे से संक्रमित होने वाले हैं, शामिल थे ।  और भाईयों का नाम याद नहीं आ रहा है माफ करेंगें, दरउसल  संजीत भाई नें विज्ञप्ति ही नहीं दिया ना और हम तो पत्रकारिता के पहली क्‍लास में हैं । 

(फोटो में दायें से अनिल पुसदकर जी एवं मैं संजीव तिवारी, फोटो संजीत भाई के मोबाईल कैमरे से खींची गई है) 

संजीव तिवारी 

कवि गोष्ठियों को ‘’भजन मंडलियॉं’’ मत बनाइये

तुलसीदास : ’’कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई (वही कीर्ति, रचना तथा सम्‍पत्ति अच्‍छी है, जिससे गंगा नदी के समान सबका हित हो)’’
सम सामयिक चेतना की छंद धर्मी, स्व . रामेश्वर गुरू तथा स्व. विश्वंभर दयाल अग्रवाल पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त मासिक पत्रिका ‘’संकल्प रथ’’ के जुलाई 2008 के संपादकीय में आदरणीय राम अधीर जी वर्तमान परिवेश में देश के गली कूचों पर धडा धड आयोजित होते कवि सम्मेलनों के संबंध में देश के ख्यात कवियों व साहित्य कारों के विचार कि आज के कवि सम्मेलन तो ‘’लाफ्टर शो’’ हो गए हैं, पर कहते हैं - ’’मुझे उनकी बातों से सहमत होना पडता है, किन्तु ऐसी खरी-खोटी टिप्पणी करने वाले ये गीतकार दो कौडी के हास्य कवियों के साथ मंचों पर क्यों बैठते हैं ? इसके पीछे उनकी धन-लोलुपता है । जबकि चुटकुलेबाजी में माहिर और विदेशों तक में जाने वाले कवियों नें हिन्दी कविता को द्रौपदी बनाकर रख दिया है । ऐसी दशा में नामवर गीतकारों को ऐसे मंचों का बहिष्कार करना चाहिये । जिन पर बहुत ही घटिया दर्जे के हास्य कवियों का जमवाडा हो । परन्तु , नहीं उन्हें तो पैसा चाहिये । मैं जहां तक समझता हूं हास्य-व्यंग के कवियों को हम नहीं सुधार सकते परन्तु नितांत ही चौथे दर्जे के श्रोताओं को सुधारना जरूरी है जो सबसे आगे बैठते हैं और कविता को मूंगफली खाते-खाते सुनते हैं । सवाल है कि कूसूरवार कौन है- आप या वे घटिया दर्जे के हास्य कवि ?’’
आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल : ‘’कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्‍यत्‍व की उच्‍च भूमि पर ले आती है ।’’


श्री राम अधीर जी के सवाल का जवाब देना हमारे लिये लाजमी भले ही न हो पर, उनके इस सवाल पर चिंतन आवश्यक है । आज कविता के स्तर कवि सम्मेलनों में परोसे जाने वाली फूहडता व नाटकीय भव्यता एवं इनकी बारंबारता को देखते हुए ही संपादक नें इसे ‘’भजन मंडली’’ मत बनाओ कहा है, और इन आयोजनों के कर्णधारों पर बरसते हुए वे कहते हैं - ’’मतलब यह कि जिन्हें कुछ लिखने-पढने से मतलब नहीं उनको आप कवि बनाने की ठेकेदारी कर रहे हैं, तो फिर यही उचित रहेगा कि गीत, गजल को मरने दीजिये । किसी की रचना को आपने कमजोर कह दिया तो वह नाराज हो जायेगा, यही डर आपको खाये जा रहा है तो गीत-गजल को बर्बाद करने वालों का आपकी ओर से अभिनन्दन होना चाहिये ।‘’

अजीत कुमार सिन्‍हा : ‘’वह उस तरह का साहित्‍य भी रचने लगता है, जो बहुत बार, शायद निकलता तो उसी के भीतर से है, पर खुद उसके भी अंतर में पहुँच नहीं पाता । औरों की बात उठाना यहॉं इसलिये मौजूं नहीं जान पडता, क्‍योंकि ऐसा कवि ‘उपजहि अनत, अनत छबि लहहीं (रचना उत्‍पन्‍न हो कवि के मन में, पर शोभा पाए अन्‍य लोगों के मन में) को बेमानी समझकर, रचना को एक ऐसा इंद्रजाल मानने लगा है, जो न कहीं उत्‍पन्‍न हो, न कहीं फैले, लेकिन ‘वाह’वाह’ चारो तरफ से सुनाई दे ।‘

आजकल इन भजन मंडलियों में शिरकत करने के लिये लालायित अनेकों कवि भी कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो गए हैं, दो शब्दों की तुकबंदी की या आडे तिरछे भावों को एक साथ मिलाकर काकटेल तैयार किया कागज में उकेरा और हो गए कवि, अब झेलो इन्हें । वर्तमान कविता पर हाल ही में प्रकाशित कृति ‘’इधर की हिन्दीं कविता’’ के लेखक अजीत कुमार सिन्हा जी जो अग्रज पीढी की महिला गीत-कवयित्री स्व.सुमित्रा कुमारी सिन्हा के प्रतिभासंपन्न सुपुत्र हैं, नें अपने लेख ‘गांव के लोगों तक कैसे पहुँची कविता’ पर समीक्षकों के दायित्व पक्ष पर जो विचार व्यक्त, करते हैं उसकी आज अहम आवश्यकता है - ’’बहरहाल, कवि क्या लिखे और कैसे लिखे  – तुलसीदास और शेखर की तरह अथवा केशवदास और पुंडरीक की तरह । इसके बारे में, न मैं कुछ कह सकने की स्थिति में हूँ, न यह अधिकार लेना चाहता हूं । लेकिन सोंचता जरूर हूं कि कविता के समीक्षक पर इसकी जिम्मेदारी है कि आज की कविता की विशेषता का विवेचन ऐसी भाषा में और इस ढंग से करें कि कविता का सौंदर्य अधिक से अधिक लोगों के लिए उजागर हो सके ।‘’

इस विषय पर चर्चा करते हुए हमारे एक ब्लाग पाठक मित्र कहते हैं कि यह बात तो तुम्हारे हिन्दी ब्‍लाग जगत में भी हो सकता है । तब वहां भी ऐसे समीक्षकों के टिपियाने की आवश्य‍कता पडेगी नहीं तो वहां भी कविता के नाम पर आरती संग्रह प्रकाशित होने लगेंगें । हमने कहा अभी हिन्‍दी ब्लाग में ऐसी स्थिति नहीं आई है और जब आयेगी तब तक समीक्षक लोग भी ब्‍लाग जगत में आ जायेंगें । क्‍या सोंचते हैं आप ????.

अधिवक्‍ता संघ की मासिक बुलेटिन अब हिन्‍दी ब्‍लाग में

हिन्‍दी की बढती लोकप्रियता व इंटरनेट की सर्वसुलभता को देखते हुए प्रिंट मीडिया का रूझान अब आनलाईन प्रकाशन की ओर बढ रहा है । विगत दिनों छत्‍तीसगढ अधिवक्‍ता संध की एक इकाई दुर्ग अधिवक्‍ता संध नें विधि विषयों पर केन्द्रित एक मासिक बुलेटिन के प्रकाशन का निर्णय लिया जिससे कि सदस्‍यों से नियमित संपर्क भी बना रहे एवं विधिक गतिविधियों से सदस्‍य परिचित भी होते रहें । इस बुलेटिन के लिए जब अधिवक्‍ताओं से लेख आदि आमंत्रित किये जा रहे थे तब मैंनें ‘विधि एवं सूचना क्रांति’ शीर्षक से एक लेख इस बुलेटिन हेतु प्रेषित किया, संपादकों से चर्चा के दौरान पता चला कि उन्‍हें ब्‍लाग के संबंध में सामान्‍य जानकारी है और वे कुछ ब्‍लागों से परिचित भी हैं इसलिये उन्‍होंनें इस बुलेटिन को ब्‍लाग के माध्‍यम से आनलाईन करने का सुझाव दिया, हमने संघ को सहायता प्रदान की और इस बुलेटिन का एक ब्‍लाग बना दिया ।


मुझे तब बहुत खुशी हुई जब इस पत्र के पिंट प्रति के विमोचन समारोह के लिए निर्धारित तिथि दिनांक 29 जुलाई 2008 को जिला न्यायालय परिसर में स्थित संघ के ग्रंथालय में इस ब्‍लाग को भी समारोहपूर्वक जारी किया गया और दुर्ग अधिवक्‍ता संघ के लगभग 3000 पंजीकृत अधिवक्‍ताओं में से भारी संख्‍या में उपस्थित अधिवक्‍ताओं, साहित्‍यकारों व गणमान्‍य अतिथियों के सम्‍मुख राज्‍य के जलसंसाधन मंत्री हेमचंद यादव जी नें 'अभिभाषक वाणी' के आनलाईन ब्लाग संस्करण के ‘विजिबल टू एवरीवन’ बटन को क्लिक कर जारी किया ।


विमोचन अवसर पर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री हेमचंद यादव, मंत्री जल संसाधन, आयकट, परिवहन एव श्रम विभाग, छ.ग. शासन थे एवं अध्यक्षता श्री रंगनाथ चंद्राकर, जिला एवं सत्र न्यायाधीश, दुर्ग नें किया इस कार्यक्रम के विशिष्ठ अतिथि श्री ए.के. निमोनकर, प्रधान न्यायाधीश, कुटुम्ब न्यायालय, दुर्ग व श्री विवेक रंजन तिवारी, अध्यक्ष छ.ग.अधिवक्ता परिषद व श्री रावलमल जैन 'मणि' समाजसेवा एवं साहित्यकार थे ।


इस अवसर पर 'अभिभाषक वाणी' परिवार नें सामूहिक रूप से विधि के क्षेत्र में उत्कृष्ट ब्लाग तीसरा खम्बा एवं अदालत का अवलोकन भी किया एवं विधि संबंधी हिन्दी ब्लागों को देखकर प्रसन्नता भी जाहिर की । ब्‍लाग के टिप्‍पणियों को देखकर अभिभाषक वाणी संपादक मंडल नें 'अभिभाषक वाणी' में किये गये टिप्‍पणियों एवं सुझावों को आगामी प्रिंट अंक में पाठक के पत्रों के रूप में स्‍थान देने एवं सुझावों के अनुरूप बुलेटिन को पाठकानुकूल बनाने का भी निर्णय लिया है ।


मैं हिन्‍दी ब्‍लाग के सुखद भविष्‍य को देखते हुए इस समाचार को आप सबों के बीच बांटना चाहता हूं, आपसे अनुरोध है कि दुर्ग अधिवक्‍ता संघ के नियमित ब्‍लाग व प्रिंट माध्‍यमों से बुलेटिन प्रकाशन के निर्णय पर संपादक मंडल का साहस बढायें ।


(कार्यक्रम के फोटो अभी उपलब्‍ध नहीं हैं जैसे ही उपलब्‍ध होंगें यहां लगाउंगा)

लेख चोरों से अपने ब्‍लाग को बचायें

पिछले कई पोस्टों में आपने पढा होगा कि फलां ब्लागर्स की कविता फलां नें कापी कर अपने ब्लाग में पोस्ट किया या फलां नें ब्लाग पोस्ट को कापी कर फलां पत्रिका में अपने नाम से छपवा लिया ।

हम अपने जुगाडू तंत्र से कई दिनों से इसका हल ढूढने में लगे थे, हमारे मित्रों नें बतलाया था कि एचटीएमएल में कापी प्रोटेक्ट करने के भी कोड होते हैं, पर वह हमें मिल नहीं रहा था पिछले दिनों हमें नेट सर्च में इसके दर्शन हो गये और हमने इसका प्रयोग प्रथमत: अपने ही ब्लाग पर किया । इस कोड को स्थापित करने के बाद पोस्ट टेक्स्ट में कर्सर कापी कमांड को स्वीकार करने के लिए सलेक्ट ही नहीं होता जिससे टेक्स्ट कापी ही नहीं हो पाता और हमारा लेख कापी के पेस्ट के सहारे चोरी नहीं हो पायेगा ।

यदि आप भी इसे आजमाना चाहते हैं तो हम इसे क्रमिक रूप से आपके लिये प्रस्‍तुत कर रहे हैं :-

1 . ब्लागर्स में लागईन होंवें - लेआउट - एडिट एचटीएमएल

2. सुरक्षा के लिहाज से संपूर्ण डाउनलोड टैम्पलेट से डाटा सहेज लेवें ।

3. एचटीएमएल बाक्स में नीचे चित्र में दिये गये कोड को खोजें -
4. उस कोड को हटाकर नीचे चित्र में दिये गये संपूर्ण कोड को टाईप कर देवें ।

5. टेम्पलेट सेव करें और अपना ब्लाग देखें, टेक्स्ट कापी बैन हो गया है ।




संजीव तिवारी

कहां है घर ? : कहानी

उसने टीन शेड से बने अस्थाई शौचालय के लटकते दरवाजे को भेडकर अंदर प्रवेश किया । चूंउउउव करता हुआ दरवाजा खुला, चिखला से अपने पैर को बचाते हुए उसने दरवाजे में कुंडी लगाई और आगे बढी । शौचालय में मद्धिम रौशनी की बल्ब जल रही थी । टीन सेड को जोड जोड कर बनाये गए अस्थाई शौचालय के जोड से बाहर का दृश्य दिख रहा था । बाहर तार के बाड के इस पार सर्चलाईट की रौशनी छाई हुई थी । दो बंदूकधारी रेत के बोरों में दबे छिपे थे, उसने जोड के छेद में आंखें सटा दी, दो वर्दीवाले में से एक जोहन था ।


जोहन नें जेब से सितार जर्दे का पाउच निकाला और उसे मुह में उडेल लिया, साथी वर्दीवाला उससे कुछ बात कर रहा था । टीन शेड के जोड में सटी आंखें जोहन पर टिकी थी । शौचालय के दरवाजे में दस्तक हुई । ‘अरे जल्दी निकल गोई, सुत गेस का ?’ खिलखिलाती आवाज नें उसकी तंद्रा भंग कर दी । उसने कुंडी खोला और अपने मिट्टी निर्मित टीन शेड से ढकें ठिकाने में चली गई । लगभग आठ बाई पांच के उस संदूकनुमा घर में जमीन पर उसके बाबू, दाई और दो छोटे भाई सोये थे । बाजू में ही ईंटो से बना चूल्हा एवं जूठे बर्तन को तिरियाकर रखा गया था । उसने घर का फइरका बंद किया और छोटे भाई के चिरकट चद्दर को खींचकर उसके अंदर घुस गई । आंखों में जोहन का लम्बां तगडा वर्दी वाला रूप छा गया जिसे उसने अभी अभी देखा था । वह देर तक स्वप्नों में, डोंगरी पहाडों में जोहन के साथ करमा नाचती रही और सो गई ।


सबह उठकर उसने बर्तन साफ किये, रात के बचे आधा बंगुनिया पानी में नहाया और सार्वजनिक नल पांईट से जर्मन के बडे भगोनें में लड-झगड कर खिसियाते हुए पानी लाई ‘सरकार हर बोरिंग कोडा के लडई बढावत हे, बने रहे मोर सेंदर नदिया दई कोनों रोके न टोंके, ससन भर तंउर अउ दस बेर धौड के हौंला हौला पानी ल भर डर ।‘ बडबडाते हुए चूल्हे में लकडी जलाकर पसिया पकाने लगी ।


कुछ माह पहले ही वह अपने परिवार के साथ इस कैम्प में आई थी, अपने हंसते-खिलखिलाते तरूणाई को गांव में ही छोड कर । यहां आकर उसकी कुछ उम्र में बडी लडकियां सलेही बन गई थी जो आस पास के ही गांव के थे । अब जब वे चूल्हा चौंका से मुक्त होतीं तो कहीं एक जगह मिल बैठते और फुसफुसाहट के साथ किसी किसी सहेली के लाल होते मुख मंडल से हंसी फूटती फिर सब समवेत खिलखिलाने लगते । करमा और ददरिया के बंद फूट पडते । सहेलियां छेडछाड से लेकर नरवा में युवा मित्र के साथ आंख मिचौली के अनुभवों को बताती तो उसके पूरे शरीर में झुरझुरी फैल जाती । किशोरावस्था पर ग्रामीण बालाओं में चढती जवानी की कहानियां सभी को मदमस्त कर देती ।


दिन में उसके दाई बाबू जंगल जाते और चार चिरौंजी, हर्रा बहेरा, इकट्ठा कर घर लाते । खाखी वर्दी वाले दिन भर कैम्प में गस्त करते, तार के कांटों से घिरे स्वस्फूर्त ? बंधन में परदेशी वर्दीवालों से बचकर रहने की हिदायत दे किशोर व जवान लडकियों की मांए दहशत के बावजूद चेहरे पर सरकार के दिये आवश्य‍क रूप से लगाए जाने वाले मुस्कान को चिपकाये रहतीं ।


उसका मन होता कि पल्ला दौंड कर डोंगरी में चढ जाये या किसी विशाल महुआ के वृक्ष के थिलिंग में चढकर दूर दूर तक फैले जंगल में टेढी-मेढी रेखाओं सी नजर आती सडक पर चींटी जैसे रेंगते इक्का दुक्का वाहनों को घंटों निहारे । पर अब वह बडी हो गई है, दाई उसे बार बार समझाती है ‘अक्केल्ला् मत निंगे कर ।‘ वर्दी में जोहन को देखकर उसका मन भंवरा नाचने लगता था, अब वह जवान हो गई है ।


जोहन जंगल इलाके का था वह हल्बी व छत्तीसगढी में बोलना जानता था इस कारण कैम्प के सभी लोगों से वह प्रतिदिन पांव-पैलगी करते रहता था । वनवासी अपने बीच के ‘साहेब’ की आत्मियता से अपनी जमीन छोडने का दुख बिसराने का प्रयास करते । युवा जोहन स्टेनगन थामें पूरे कैम्प में चौकडी भरते रहता । कैम्प के सभी युवा लडकियों का वह हीरो था ।


उस रात को भी उसके आंखों में जोहन छाया था वैसे ही लाईट गुल हो गई, सन्नाटा मीलों तक पसरा था । वर्दीवालों की आवाजें तेज हो गई फिर जनरेटर चलने की आवाज के साथ सर्चलाईट पुन: चमकने लगे । ‘ठांय ।‘ की आवाज नें उंघते वर्दीवालों को चौंका दिया, उन्हेंर कुछ समझ में आता तब तक पूरे सर्चलाईट गोली से उड चुके थे । अंधेरे में भगदड मच गई । दादा लोगों की टोली कैम्प् में घुस आई थी । चीख-पुकार, गालियों के संग गोलियों के आदान प्रदान और आर्तनाद से वह सिहर उठी । अपने भाई को अपने छाती में छिपाकर चद्दर में अपने पूरे शरीर को ढांप कर चुरू-मुरू दुबक गई । घंटो तक बाहर का माहौल वैसे ही बना रहा, उसकी बंद आंखें बाहर के दृश्यों को आवाजों से महसूस करती रही । दहशत में नींद हवा हो गई थी, दाई-बाबू भी जाग गए थे पर सभी अनजान बने दुबके थे ।


सुबह धीरे-धीरे हिम्मत करते हुए लोग अपने अपने घरों से बाहर निकलने लगे । बाहर का दृश्य देखकर सभी का टट्टी सटक गया । अपने परिजनों का जला व गोलियों से बिंधा लाश देख कर करेजा कांप गया । मौत का भय यहां भी ताण्डव करता नजर आया ।


दो-तीन दिन खुसुर-फुसुर के बाद दाई बाबू कैम्प से महुआ बीनने निकलकर बाहर दूर सडक में उसका और बच्चों का इंतजार करने लगे । वह बच्चों को घुमाने के बहाने कैंम्प से टसक गई और इंतजार करते दाई बाबू के पास पहुचकर कैम्प को दूर से प्रणाम किया जैसा उसने कैम्प् में आने के पहले अपने गांव के बूढा देव को किया था । ‘जीव रही त कहूं कमा खा लेबो नोनी के दाई ।‘ बाबू के शव्दे नें मौत के भय से सुकुरदुम हुए पूरे परिवार को बल दिया और वे सडक पर आ रही बस को रोककर उसमें चढ गए । कहां जाना है यह बाबू भी तय नहीं कर पाये थे, अभी तो यहां से निकलना जरूरी था । एक शहर फिर दूसरा शहर फिर ........ इन पांच जिन्दगियों नें कई कई शहरों को पार कर, कंटेनरों में भरा कर आसाम के बर्मा से सटे एक गांव तक का सफर तय किया ।


यहां नदी किनारे चार पांच चिमनी वाले ईंट भट्ठे में बहुतायत छत्तीसगढिया मजदूर थे । दाई बाबू नें ईंट भट्ठे के खोला में जब अपना मोटरा रखा तब उनके आंखों में खुशी को झांकती हुई वह झाडू उठा कर कमरे में झाडू लगाने लगी । नदी किनारे फैले जंगल अपने से लग रहे थे, आजू बाजू के लोग भी अस्सीं कोस नव बासा में भी अपने थे । चिंता और भय झाडू के चलते ही दूर आसमान में उड चला ।


अब वह भी दाई बाबू के साथ भट्ठे में काम करने लगी । बाबू नें रास्ते में उसे बताया था कि उस दिन और लोगों के साथ जोहन की भी मौत हो गई थी । अब उसे रात में जोहन के सपने नहीं आते, सभी सहेलियां छूट गई । यहां आकर वह कुछ गुमसुम सी हो गई है । उसका खिलता यौवन ठहर सा गया है, अल्लडता जब्बं हो गई है, परिपक्वता छा गई है ।


एक साथ बीस ईंट को सिर में लेकर गहरे भट्ठे से जब वह निकलती तब दूर से उसके संपूर्ण शरीर को गिद्ध की तरह निहारते मुंशी को वह कनखिंयों से देखती और एक हाथ में साडी के पल्लू को पकड कर अपने ढपे स्तनों को और ढापती । कभी कभी वर्दी वाले लोगों का दल भट्ठे पर आता और मजदूरों की ओर हाथ दिखा कर मुंशी से कुछ फुस-फुसाता फिर चला जाता । यह दल वैसे ही शक्ल सूरत के होते जैसे उसने अपने गांव और कैम्प के वर्दीवालों का देखा था । उसने एक अधेड छत्तीसगढी महिला से शंका से पूछा ‘नागा पुलिस अउ मिजो पुलिस ?  का इंहों दादा मन के राज हे ?’ ‘ नहीं नोनी, का लिट्टे क उल्‍फा कहिथे दाई, दादा ये येमन इंहा के फेर हमन ला कुछू नि करे ।‘ अधेड महिला नें बताया था । उसके मन में पुन: भय का प्रवेश हो जाता है पर वह अपने लोगों से बात कर आश्वस्थ हो जाती है ।


कुछ माह ऐसे ही चलता रहा, एक दिन वर्दीवालों का फरमान मुंशी नें पढ सुनाया जिसका सार यह था कि यह जमीन उनकी है यहां कोई दूसरे प्रदेश का आदमी नहीं रह सकता, पांच दिन के अंदर अपने घर भाग जाओ नहीं तो गोली से उडा देंगें । बाजू भट्ठे के एक बुजुर्ग मजदूर नें दाई बाबू को शाम को आकर समझाया ‘भाग जाना ठीक हे बाबू, इंहा बात कहत बंदूक चलथे, परदेश के सोंहारी ले तो अपन घर के पेज पसिया बने ।‘ वह यहां की परिस्थिति से तो वाकिफ नहीं थी पर वह ऐलान का मतलब समझती थी, फरमान की ताकत जानती थी । कहां जायेंगें वे, कहां है उनका घर ?


छत्तीसगढ पर लिखी गई मोटी मोटी किताबों को एयरवेज के विमान से लाकर मैं डिब्रूगढ के सितारा होटल में बैठकर छत्तीसगढ की आदिवासी अस्मिता पर एक बडा लेख लिखने में मशगुल हूं, मेरे सुपरवाईजर नें मुझे उनसे परिचय कराया है, वे लगभग 25 किलोमीटर पैदल चल कर शहर आये हैं । पेट्रोलियम प्रोडक्ट के मेरे कंपनी के टैंकरों की खेप सुल्फा से लेनदेन के बाद आज छत्तीसगढ के लिए रवाना होने वाली है पर वे पांचों अपने मोटरा के पास बैठे हैं मेरे आग्रह पर भी किसी भी ट्रक में सवार नहीं हो रहे हैं, शाम हो रही है और मुझे भी आज ही परिवार सहित आसाम छोड देना है ।
(यह कहानी, परिस्थितियां और इसके पात्र पूर्णतया काल्‍पनिक हैं )

संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...