धान के बालियों से बने झालर का छत्तीसगढ़ी नाम क्या है?


चित्र : दैनिक छत्तीसगढ़ से साभार
प्रत्येक दीपावली में धान की बालियों से बना झालर छत्तीसगढ़ के बाजारों में नजर आता है। इसे छत्तीसगढ़ी में क्या कहा जाता है या इसके लिए छत्तीसगढ़ी में कोई शब्द है कि नहीं? यह प्रश्न हर साल *तमंचा रायपुरी* के सामने खड़ा होता है। राहुल सिंह जी और डॉ. निर्मल साहू जी भी इस प्रश्न का जवाब मुझसे पूछते रहे हैं और मैं भकुवाया हुआ इसका उत्तर ढ़ुढ़ते रहा हूँ। सिवाय एक शब्द 'सेला' मेरे दिमाग में आता है जो हल्बी शब्द है। सन्दर्भ यह कि, श्रद्धेय लाला जगदलपुरी की एक हल्‍बी गीत है ‘उडी गला चेडे’ –

'राजे दिना/धन धन हयं/उछी उडी करी आयते रला/बसी-बसी करी खयते रला/सेस्‍ता धान के पायते रला/केडे सुन्‍दर/चटेया चेडे/सरी गला धान/भारी गला चेडे/एबर चेडे केबे ना आसे/ना टाक सेला/कमता करबिस/एबर तुय तो ‘खड’ होयलिस/एबर तोके फींगीं देयबाय/गाय खयसी/चेडे गला/आउरी गोटे ‘सेला’ उगर ।‘

(लटक झूल रहा था नीचे धान की बालियों का एक झालर । टंगा हुआ था ‘सेला’ दरवाजे के चौंखट पर । अपनी शुभ शोभा छिटकाये दर्शनीय । एक दिन एक सुन्‍दर गौरैया आई, और उसने दोस्‍ती गांठ ली ‘सेला’ से । रोज रोज वह उड उड कर बार बार आती रही थी । बैठ कर सेला धान को खाती रही थी । भूख बुझाती रही थी । एक सुन्‍दर गौरैया । धीरे धीरे कम होते गये सेला के लटकते झूलते दाने । और एक दिन ऐसा आया कि सेला के पास शेष नहीं रह गया एक भी दाना । चिडिया उड गई । ‘चिडिया अब कभी नहीं आएगी रास्‍ता मत देख सेला ‘ सेला से उसकी आत्‍मा कह रही थी ‘अब तो तू रह गया है केवल घांस गौरैया के लिए अब रखा क्‍या है तेरे पास तेरे इस अवशिष्‍ट भाग से गौरैया को क्‍या लेना देना उसे चाहिए दाने गौरैया की दोस्‍ती तुझसे नहीं तेरे दानों से थी अब तुझे चौखट से उतार कर बाहर फेंक देंगें गइया खा जायेगी गौरैया गई एक नए ‘सेला’ की खोज में ।

इस कविता में धान की बालियों से बने झालर का उल्लेख आता है जिसे हल्बी में ‘सेला’ संबोधित किया गया है। क्या आपको पता है, इसे छत्तीसगढ़ी में क्या कहते हैं?
-संजीव तिवारी

एक मुलाकात : दाऊ रामचंद्र देशमुख से


सन् 1984-85 के जड़काले के किसी दिन हम (जितेंद्र जैन और दो अन्य मित्रों के साथ) सिमगा से ट्रकों में लिफ्ट लेते हुए, दुर्ग आ गए। वहां से पूछते-पुछाते पैदल बघेरा आ गए। सड़क से थोडा अंदर एक बड़े से बाड़े के सामने जब हम थिराये, तब हाथ-पैर और कपड़ों पर नजर गई। धूल-धूसरित पैर और मुरकुटाये कपड़े में हम फुल गवईहां नजर आ रहे थे। तब तक, बाड़े के दरोगा तक नौकरों ने खबर पंहुचा दी थी और अब दरोगा, दरवाजे पर खड़ा हमें नजरों से तौल रहा था। हमने, झेंपते हुए बताया कि हम सिमगा से आये हैं और दाऊ रामचंद्र देशमुख जी से मिलना चाहते हैं। क्यों ? का उत्तर हम शब्दों में ढंग से दे नहीं पाये किन्तु लगा कि, दरोगा समझ गया। उसने अंदर बुलाया और बाजवट पर बैठा दिया, थोड़ी देर बाद हाथ-पांव धोने का आदेश दिया। उसके कुछ समय के बाद हमारे लिए खाने की थाली लग गई। हमने एक दूसरे का मुह देखा, सब अप्रत्याशित हो रहा था। हालांकि हम दोपहर को यहाँ पहुचे थे और हमें भूख भी जोरों की लगी थी फिर भी हमने सोचा नहीं था कि हमें यहाँ खाना भी मिलेगा। मैंने मौन तोडा और दरोगा जी से कहा कि भैया हमें दाऊ जी से मिला दो, खान-वाना रहने दो। भूख तो लग रही थी, शरीर भोजन मांग रहा था और मन मांग को दरकिनार करते हुए, चंदैनी गोंदा के सर्जक से मिलना चाह रहा था।

दरोगा ने कहा कि अभी दाऊ जी सोये हैं, खाना खा लो तब तक दाऊ जी उठ जायेंगे फिर मिल लेना। ररूहा सपनाये दार-भात जैसे हमने भोजन किया, तृप्त हो गए। दीवारों के पार से छत्तीसगढ़ी संगीत की स्वर लहरियां गूंजने लगी, गीतों में थिरकते पांवों के घुंघरू बजने लगे। पं. रविशंकर शुक्ल, लक्षमण मस्तुरिया और संगीता चौबे, साधना, जयंती को गाते, खुमान लाल साव, गिरजा सिन्हां, केदार यादव को बजाते, पद्मा, बसंती, माया देवारों को नाचते, कई जाने अनजाने कलाकार हमारी स्मृतियों के बाड़े में जीवंत हो गए। हम चारों ने फिर एक-दूसरे की नजरों में देखा, सब वही देख-सुन रहे थे, झपकी आ गयी थी। लगभग एक घंटे बाद दरोगा ने हूंत करा कर उठाया और कोठार तरफ ले गया। वहां एक सफ़ेद रंग की अम्बेसडर खड़ी थी, ड्राइवर अपने सीट पर गाड़ी स्टार्ट करने के लिए तैयार बैठा था।

हम चारो दरोगा के साथ वहां खड़े हो गए। सफ़ेद धोती कुर्ते में एक बुजुर्ग, छड़ी पकडे गाड़ी की ओर आ रहे थे। उनका कपड़ा और उनका चेहरा दमक रहा था। उनके व्यक्तित्व से एक अदृश्य आभा निकल रही थी जिससे हम महसूस कर पा रहे थे कि यही दाऊ रामचंद्र देशमुख हैं। जब वे कार के पास आ गए तब हमने उनका चरण स्पर्श किया। उन्होंने क्रमशः हमारा नाम, गांव, पिता का नाम और पढाई के सम्बन्ध में प्रश्न किया, हमने सहमते हुए उत्तर दिया। अपनी जिंदगी में पहली बार हम किसी ऐसे शख्सियत से मिल रहे थे जिनसे मिलने का सपना हमने होश सम्हालते ही देखा था। वे सामने खड़े थे और हमारा बक्का नहीं फूट रहा था। लगभग 150 किलो मीटर दूर से मिलने के लिए इस तरह आने की हमारी उत्सुकता के सम्बन्ध में संक्षिप्त बात हुई। फिर उन्होंने कहा, गाड़ी में बैठो साथ में चलते हुए बात करेंगे। हम सब बैठ गए और कार सामने रेलवे क्रासिंग को पार करती हुई आगे बढ़ने लगी।

दिमाग में बहुत सारे प्रश्न कुलबुला रहे थे किन्तु वे प्रश्न का रूप धर, अभिव्यक्त नहीं हो पा रहे थे। हमने उनके साथ लगभग डेढ़ घंटे बिताये, हमने क्या पूछा और उन्होंने क्या बताया, अब याद नहीं है। उनकी कही एक बात याद है, उन्होंने वापस लौटते वक्त कहा था कि ‘एक सिद्ध निर्देशक की अस्वाभाविक कल्पनाशीलता ही कला के असल रूप को सामने ला पाती है।‘ यह कहते हुए उन्होंने कार रुकवाई थी, हम किसी बहुत बड़े फार्म हॉउस में थे। दूर तक फसलों की हरियाली बिखरी थी, आंतरिक सड़क के आजू-बाजू क्यारियों में कतार से गुलाब और अन्य प्रजाति के रंग बिरंगे फूल खिले थे। वे उतर कर एक गुलाब के पौधे तक गए, हम भी पीछे-पीछे पहुंचे। उन्होंने एक गुलाब फूल को दिखाया, और पूछा कैसे लग रहा है। हम चारों ने चलताऊ उत्तर दिया ‘सुन्दर’, ‘बहुत सुन्दर’, सुप्पर, ‘ब्यूटीफुल!’ उन्होंने कहा कि ‘मान लो यह फूल गंवई लोक कला है, कई फोटोग्राफर इस सुन्दर फूल का अलग-अलग एगंलों से फोटो खींचते हैं। सभी के फोटो सुन्दर ही होते हैं किन्तु कोई एक फोटोग्राफर इस फूल का फोटो कुछ इस तरह से खींचता है कि इसकी सुन्दरता सौ गुना बढ़ जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि उस फोटोग्राफर का इमेजिनेशन, अन्य फोटोग्राफरों से अलग होता है। वह इस फूल को उस प्रकार से नहीं देखता जैसे हम-आप देख रहे हैं, इस फूल का प्रतिबिम्ब उसके मस्तिष्क में उसी तरह से बनता है जैसा कि फोटो में आयेगा या, जैसा कि वह दिखाना चाहता है।‘ हम सब मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातों को सुनते रहे। कुछ बातें समझ में आई कुछ नहीं आई, हम बमुश्किल सत्रह-अट्ठारह साल के थे। लगभग आधा घंटा फार्म हाउस में और रूककर दाऊ जी और हम वापस बाड़ा की ओर निकल गए। शाम हो चली थी, पक्षियों का कलरव बढ़ गया था।

वह दौर पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की कहानी ‘कारी’ के लगातार मंचन का था। हम जिस दिन पहुचे थे उसके तीसरे दिन कहीं कार्यक्रम होने वाला था और दूसरे दिन रिहल्सल के लिए तय था। दाऊ जी से मिलने वालों की भीड़ बाड़े में बढ़ने लगी थी। दाऊ जी कार से उतर कर बैठक की ओर आगे बढ़ गए, दरोगा हमें बाड़े के बड़े से हाल में ले आया जहां बहुत सारे बाजवट बिछे हुए थे। तब तक रात भी हो गई, हम बिना कोई पूर्व कार्यक्रम के यूं ही दुर्ग चले आए थे, रात रूकना हमारी मजबूरी थी। वहां कुछ देर रूककर जब हम बाहर टहलने निकले, बाहर दाऊ जी से मिलने वालों की सायकलें, मोटर सायकलें और एक-दो कार खड़ी थी। बाहर बैठे गांव के लोगों नें बताया कि अंदर राम हृदय तिवारी, परदेशीराम वर्मा, मुकुन्द कौशल हैं। हम उत्सुकतावश वहीं जमें रहे, जब वे बाहर निकले तो जी भर के देखा, कुछ इस तरह कि उन्हें हाथों में छूकर टटोल रहे हों।

हम चारों नें अलग-अलग जगहों में चंदैनी गोंदा और कारी देखी थी, हमारे एक साथी नें देवार डेरा भी देखा था। उस समय चंदैनी गोंदा जैसे कई लोक सांस्कृंतिक कार्यक्रम उभर कर सामनें आ रहे थे उनमें से कईयों को हमने साथ में ही देखा था। तब मैं गांव की राम-लीला और धार्मिक नाटकों में विभिन्न किरदार निभाता था। नाचा में काम करने से मॉं-बाबूजी रोकते थे किन्तु देखने की छूट मिल जाती थी। हम कभी-कभी गांव में लीला के दौरान ही हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर और पोंगवा पंडि़त भी करते थे। मैंनें रायपुर में इन दोनों नाटकों को देखा था, तब हमारी कला की पारखी नजर नहीं थी, सिर्फ उत्सुकता थी और इन महान लोक कलाकारों से मिलनें का उद्देश्यी मित्रों में रौब गांठना ही था। उस दिन हम, बघेरा में रात भर चंदैनी गोंदा, डेवार डेरा और कारी के मंचन को देखने के अपने अनुभव के संबंध में गोठियाते रहे, खुमान-गिरजा के संगीतबद्ध गीतों को गुनगुनाते रहे। सुबह बिना नहाये-धोये सिमगा की ओर निकल चले, जाते जाते दाऊ जी से मिलने का भी हमारा ध्यान नहीं आया। आज जब दाऊ जी से मुलाकात के इस अभूतपूर्व अनुभव को महसूसता हूं तो रोमांचित हो जाता हूं। काश छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के नागरी प्रदर्शन के वे स्वर्णिम दिन फिर लौट कर आ जाते। किन्तु यही सांस्कृतिक प्रगति का तकाजा है, इस निरंतर प्रवाहमान नद को रोका नहीं जा सकता।
- संजीव तिवारी

छत्तीसगढ़ी डायस्पोरा : शून्य से शिखर की यात्रा

छत्तीसगढ़ से रोजगार या सही शब्दों में कहे तो रोज़ी रोटी की  तलाश में लोगों के पलायन का इतिहास बहुत ही पुराना है . यह भी संभव है कि, पलायन करने वाले लोग शायद भुखमरी या ऐसे ही किन्ही अन्य आपदा के चलते पलायन करके ही छत्तीसगढ़ आये रहे हों. पलायन आम तौर पर ख़राब हालात से जन्मते है, जबकि आप्रवासन पैसे कमाने या व्यापार के लिए होते हैं. पर बेचारा छत्तीसगढ़ी अभी कुछ दशक पहले तक पहली वाली श्रेणी का ही होता था. ऐसा ही पलायन आज से लगभग 150 साल पहले, तब शुरू हुआ था जब यहाँ के लोग पेट बिकाली के लिए असम के चाय बागानों में मजदूरी करने जाना शुरू किये. उस समय चाय के बागान भी बस शुरू ही हुए थे या हो रहे थे और इन छत्तीसगढ़ियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी उन बागानों में काम करते हुए ऐसी दक्षता अर्जित की कि आज वे पूरी दुनिया में सबसे बेहतरीन चाय के उत्पादक कहलाने लगे लेकिन तमगा आज भी वही टी गार्डन वर्कर या गार्डन लेबर का .  तब प्रवास के यातायात इतने सुगम नहीं थे, रास्ते में सुविधाओं का सख्त अभाव रहा होगा, कई दिनों में यहाँ से अपर असम पहुचा जाता रहा होगा, अनजाने लोग, अनजाना देश और अनजानी भाषा. हमारे उन पलायन करते भाई बहनों ने कितनी विषम परिस्थितियों का सामना किया होगा, उन्होंने किस तरह वहां अपने और अपने परिवार को व्यवस्थित किया होगा? उन्होंने ऐसा करते करते डेढ़ सौ साल गुज़ार दिए पर इन सब के बीच एक ख़ास बात जो इन्हें अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को सहेजने के लिए प्रेरित करती रही, वह है उनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी और उनकी अपनी बहुरंगी छत्तीसगढ़ी संस्कृति. सुखद लगता है कि आज जब यहाँ अपनी भूमि पर छत्तीसगढ़ी बोलने वाले समाज और परिवार अपनी भाषा के स्थान पर अन्य भाषा बोलने में गौरव की अनुभूति करने के वहम में इस भाषा को तिरियाने लगे हैं. वहीँ असम में रहने वाले छत्तीसगढ़ी वंशी जिनकी संख्या इन 150 सालों में बढ़कर 15 से 20 लाख के करीब हो गयी है, आज भी छत्तीसगढ़ी को ही अपनी मातृभाषा के रूप में प्रयोग करते हैं.

छत्तीसगढ़ से सबसे पहली बार आजीविका के लिए परदेस गमन की शुरुआत के बारे में असम में रहने वाले छत्तीसगढ़ वंशी लोगों का कहना है कि जब सन 1855 में छत्तीसगढ़ में भयावह भूकंप आया तब लोग बेघर हो गए और उनके लिए जीवन यापन कठिन हो गया तब वे लोग आजीविका की तलाश में यहां से बाहर निकलना शुरू किये ( यद्धपि 1855 में छत्तीसगढ़ के किसी भूभाग में भूकंप की पुष्टि, इतिहास नहीं करता हो सकता है किसी अकाल जैसी विभीषिका से भुखमरी की स्थिति निर्मित हुई रही हो और लोगों ने उदर पोषण के लिए परदेस का रुख किया हो). उस समय अंग्रेजी शासन द्वारा असम में चाय बागानों की स्थापना की जा रही थी जिसमे काम करने के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी. भर्ती एजेंट यहाँ से लोगों को कलकत्ता फिर वहां से गौहाटी ले जाते थे जहाँ से फिर उन्हें उत्तर असम के चाय बागानों में ले जाया जाता था . असम इम्पीरियल गजेटियर में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि, 19 शताब्दी के उत्तरार्ध में जब असम में चाय बागन विकसित किये जाने लगे तब सन् 1876 से उन बागानों में काम करने के लिए उड़ीसा, झारखण्ड, संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त आदि से मजदूर लाने की शुरुआत हुई. उसमे आगे यह भी लिखा है की सन् 1905 में चाय बागानों में रहने वालों में मध्य प्रान्त से आये लोगों की संख्या 65 हज़ार से अधिक थी. चूंकि उस समय छत्तीसगढ़ मध्य प्रांत का हिस्सा था, जिसके आधार पर हमारा अनुमान है यह संख्या छत्तीसगढ़ियों की ही होगी.उस दौर में जो लोग गए उनमे छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले लगभग सभी ग्रामीण समाज के लोग शामिल थे जैसे तेली, कुर्मी, धोबी, गोंड, राउत, केंवट, कलार, पनिका, सतनामी और अन्य जाति के लोग.

आज इन छत्तीसगढ़ी वंशियों की संख्या लगभग 15 से 20 लाख के आसपास है. उनमे से अधिकतर लोग चाय बागानों में ही रहते है. एक बसाहट में इनकी संख्या 100 से 3-400 घरों की है. इनके गाँव मिश्र प्रवृत्ति के है जिसमे ओरांव, मुंडा, संथाल आदि अन्य राज्य से आये लोग भी निवास करते हैं. इनके घरों में अभी भी मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी ही बोली जाती है और घर से बाहर भी एक दूसरे के साथ इसी भाषा में वार्तालाप होता है. अन्य भाषा भाषी लोगों के साथ संवाद के लिए एक नयी भाषा विकसित हो गयी है जिसे बागानी बोली कही जाती है जिसमे आसामी तथा छत्तीसगढ़ी सहित अन्य आप्रवासी भाषाओं के शब्द शामिल हैं. आज भी उनके जीवन संस्कार से संबंधित सभी अनुष्ठान पूर्ण छत्तीसगढ़ी हैं तथा विवाह भी वहां रह रहे स्वजातीय लोगो के बीच होते हैं. पर ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ से उनक कोई संपर्क नहीं हो, उनमे से अनेक लोगों की इच्छा छत्तीसगढ़ में विवाह सम्बन्ध बनाने की रहती है, अनेकों का अभी भी अपने मूल ग्रामों तथा वहां रह रहे रिश्तेदारों से संपर्क है. वे छत्तीसगढ़ी गीत संगीत के बड़े शौक़ीन हैं जिसकी पूर्ती रेडियो में छत्तीसगढ़ी प्रसारण सुन कर की जाती है. अपने पारंपरिक सभी तीज त्योहारों को भी उनके द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है.

डेढ़ सौ साल के अंतराल ने दुनिया के साथ ही उनकी भी स्थिति बदली है और परिणामतः पहले जहां छत्तीसगढ़ी वंशी लोग बागान कर्मी का ही काम करते थे वे अब शिक्षा प्राप्त कर अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बना लिए हैं. उनमे से अब लोग शिक्षक, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर, इंजिनियर और अन्य पेशे वाले तो बन ही गए हैं साथ ही उनमे से कुछ लोगों ने राजनीति में भी महत्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित की हैं. पिछले कई असम विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ी विधायक लगातार निर्वाचित होते रहे हैं. इस बार भी दो लोगो ने विधान सभा चुनाव जीता है और इस बीच एक विशेष उपलब्धि यह रही है कि रामेश्वर तेली जी, जो छत्तीसगढ़ी वंशी है उन्होंने डिब्रूगढ़ संसदीय क्षेत्र के सामान्य सीट से जीत प्राप्त कर संसद सदस्य बने हैं. असम राज्य प्रशासन तथा पत्रकारिता में भी छत्तीसगढ़ियों का महत्वपूर्ण स्थान है

दूसरा महत्वपूर्ण स्थान छत्तीसगढ़ के लोगों का बाहर काम के लिए जाने से संबंधित जो रहा है वह है जमशेदपुर या टाटानगर. 1907 में जब यहाँ पारसी उद्योगपति जमशेद जी टाटा ने स्टील प्लांट लगाया तो उस समय छत्तीसगढ़ से काफी तादात में लोग उस कारखाने में काम करने के लिए गए ,फिर वे वहीँ बस गए आज इनकी संख्या लगभग दो लाख के आसपास है है और वे, वहां हवाई अड्डे के नज़दीक स्थित इलाके सोनारी में निवास करते हैं. उनका उस शहर के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है. रघुवर दास जी जो आज झारखण्ड राज्य के मुख्यमंत्री हैं वे जमशेदपुर से ही हैं और छत्तीसगढ़ी मूल के हैं, वहां भी जीवन में छत्तीसगढ़ी संस्कृति और भाषा जीवन्तता के साथ विद्यमान है.

वैसे तो छत्तीसगढ़ के लोग अपनी श्रमशक्ति और इमानदारी के लिए उन सभी स्थानों में लोकप्रिय हो जाते है जहाँ वे काम करने के लिए जाते है. यहाँ के अनेक गावों के लोगों द्वारा सीज़नल माइगरेसन तो साल दर साल होते रहता है इसलिए हम उन्हें लद्दाख से शुरू हो कर पूरे देश में काम करते पा सकते हैं किन्तु आज़ादी के बाद छत्तीसगढ़ के लोगों ने अनेक स्थानों में स्थायी रूप से बसना प्रारंभ किया और उन शहरों में अपनी विशेष पहचान बनाई है.

सन 1975 में मैं कलकत्ता गया था जहाँ मैं अपने एक मित्र के साथ रूका था. जहां मैं ठहरा था उनका तेल का व्यापार था. वहाँ काम करने वालों को शुद्ध बांगला भाषा में बात करते सुनता था, एक बार सुखद आश्चर्य हुआ जब मैंने उन काम करने वालों को आपस में छत्तीसगढ़ी में वार्तालाप करते देखा. उनसे बात की, तो पता चला कि वे कई पीढ़ियों से कलकत्ता में बस गए हैं तथा उन्हें बिलासपुरी लेबर के नाम से जाना जाता है और उनकी संख्या कई हज़ारों में है .

नागपुर छत्तीसगढ़ी डायस्पोरा का एक बहुत पुराना और महत्वपूर्ण स्थल है. दिल्ली में भी इनकी संख्या काफी है. एक बार जब स्वर्गीय अर्जुन सिंह दिल्ली से लोकसभा के चुनाव प्रत्याशी थे तो उनके पक्ष में चुनाव प्रचार के लिए स्वर्गीय पवन दीवान जी ने लम्बे अरसे तक दिल्ली में डेरा डाल कर प्रचार कार्य किया था, क्योंकि उस निर्वाचन क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी मतदाताओं की काफी बड़ी संख्या थी.

भोपाल में जब 1964 में हेवी इलेक्ट्रिकल कारखाना खुला जिसे अब भेल कहा जाता है, उसमें काम करने छत्तीसगढ़ के काफी लोग भोपाल गए और उनमे से बहुतेरे लोग सेवानिवृत्ति के बाद भी वहीँ रह रहे हैं. उस समय छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के समीप कोनी में ही आई टी आई था जहां से प्रशिक्षण प्राप्त लोगो ने भेल में रोजगार पाया. कालांतर में अन्य नौकरीपेशा और श्रमिक वर्ग के लोग भी गए. धीरे धीरे इनकी संख्या बढती गयी जिसके चलते आज वहां छत्तीसगढ़ कालोनी, सतनामी नगर तो हैं ही, नेहरु नगर, 11 नंबर क्षेत्र, शाहपुरा में भी निवास करने वाले छत्तीसगढ़ियों की संख्या काफी अधिक है जहाँ हमें पूर्ण छत्तीसगढ़ी सास्कृतिक जीवन जिनमे जोत – जंवारा, गौरा, जैतखाम आदि देखने को मिलता है.

पिछले लगभग 5 – 6 दशकों में शिक्षा के चलते छत्तीसगढ़ियों के बीच एक ऐसा बड़ा वर्ग तैयार हुआ जो पेट बिकाली नहीं अपितु बेहतर जीवन के लिए देश के विभिन्न भागों के साथ ही दुनिया के कई देशों में काम करने जाने लगा. अच्छी पढ़ाई कर विदेश काम करने के लिए जाने, फिर वहीँ बस जाने की शुरुआत संभवतः आज से लगभग 50 – 60 साल पहले हुई जब डा श्याम नारायण शुक्ला, डा खेतराम चंद्राकर, डा इंदु शुक्ला आदि लोग पश्चिमी देशों में गए और वहीँ बस गए, अब इन विदेश प्रवासियों की तादात काफी अधिक हो गयी है जो अमेरिका के नासा और सिलिकन वेली जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के साथ ही ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और अन्य अनेक देशों में अपने ज्ञान तथा कौशल से अपना और छत्तीसगढ़ का नाम रोशन कर रहे हैं .

आव्रजन खासकर छत्तीसगढ़ियों द्वारा आजीविका के लिए ही पारंपरिक रूप से किया जाता रहा है, जीवन में बेहतरी के लिए आव्रजन की शुरुआत तो यहाँ के लोगों द्वारा अभी हाल में ही की गयी है किन्तु पेट बिकाली के लिए सैकड़ो – हज़ारों मील जाकर बसे छत्तीसगढ़ी लोगों द्वारा शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, राजनीति में अपना लोहा मनवाना और प्रशंसनीय मुकाम हासिल करना छत्तीसगढ़ वंशियों के लिए गौरव की बात है. आज भी भारत में कहीं भी जायें छत्तीसगढ़ी श्रमिक अपनी काम के प्रति लगाव, समर्पण और इमानदारी के लिए जाना जाता है और परदेसी धरती में इन मुकामों को हासिल करने में उनके इन्ही गुणों ने ही इन्हें मदद की होगी, किसी किस्म के छल – कपट और पैसों ने नहीं.

विगत कुछ वर्षों से यह इच्छा बलवती है कि इनके बीच जाकर इनकी जीवन यात्रा, संघर्ष गाथा और सामाजिक सांस्कृतिक वृत्तान्त को जानने समझाने की कोशिश की जाए. आज छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य है इसलिए उम्मीद है सैकड़ों सालो से, विभिन्न क्षेत्रों में हज़ारों मील दूर रहने वाले अपने 15-20 लाख भाई बहनों की कुछ सुध लेगा, उनके साथ दोस्ती तो नहीं कहना चाहिए बल्कि पारिवारिक रिश्ते कायम करने के लिए सेतु का निर्माण करेगा. भारत शासन ने केंद्र स्तर पर तो बाकायदा एक मंत्रालय की ही स्थापना की है जो दुनिया भर में बसे प्रवासी भारतीयों का देश के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ करने का काम करता है. हम सब यह बाद में करें जब हम उन्हें समझ ले और समझाने के लिए पहले इस उद्देश्य से वहां जायें तो. मुझे यह ज्ञात है कि राज्य के संस्कृति विभाग में काम करने वालों का ओरियंटेशन पुरातत्व से है, नृतत्व से नहीं इसलिए इस काम में शायद विभाग को रूचि न हो और काम की सफलता को लेकर भी शंसय हो . किन्तु मुझे लगता है कुछ तो शुरुआत की जाए . क्या यह संभव है कि एक विस्तृत प्रलेखन योजना लेकर सरकार से सहयोग करने कहा जाए . हमारे जैसे सामान सोंच वाले जनों की आर्थिक स्तिथि ऐसी नहीं है की उत्कट इच्छा होने के बावजूद हम इसे पूरा कर पाएं. यह ऐसा काम है जिसमे सरकार को अपना दायित्व समझना चाहिए और आगे बढ़कर इस काम को अंजाम देने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए. यह प्रयास वास्तविकता की धरातल को तभी छू सकेगा जब कुछ लोगों का एक छोटा समूह, वहां 2-3 हफ़्तों के लिए जाए.  वहां जाकर नृविज्ञान/मानव शास्त्रीय अध्ययन करते हुए उसका का प्रलेखन करे और एक तथ्यपरक ग्रन्थ का लेखन हो, जो उस यात्रा की परिणति के रूप में सामने आये.  यात्रा के उपरांत यहाँ छत्तीसगढ़ में, यात्रा के दौरान खींचे गए चित्रों की और आडिओ - विडिओ रिकॉर्डिंग की प्रदर्शनी लगाई जाए। इनके सहारे मुख्य रूप से इस बात को जानने की कोशिश की जाए की क्या उन्हें अपनी मूल भूमि से कुछ अपेक्षाए हैं? और हम उन्हें संस्कृति सरंक्षण में क्या योगदान दे सकते हैं? उनसे रिश्तों को ताज़ा और गर्मजोश बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? यह सब हम दिल में महसूस करें और समझें, अध्ययन के आधार पर कुछ तथ्यात्मक कार्य करें. हो सकता है हम उनसे सीखें कि भाषा और संस्कृति की वाकई में क्या महत्ता होती है, जो हमें ज़िन्दगी देती है हम उसे कैसे ज़िंदा रख सकते हैं. अपनी माटी से कट चुके ये माटी के सपूतों की अपनी संस्कृति और परंपरा से जुड़े रहने की जिजीविषा हमें खुद के अन्दर झाकने कहेगी कि देखो तुम्हारी उदासीनता उसे धीमा ज़हर देकर कहीं उसका अंत तो नहीं कर रही है।
-अशोक तिवारी
अशोक तिवारी जी का परिचय यहॉं उनके ब्‍लॉग में है.

संस्‍कृति एवं पुरातत्‍व संचालनालय का आयोजन : राय बहादुर डॉ. हीरालाल 150 वीं जयन्‍ती समारोह


इतिहास, पुरातत्‍व, जनसंख्‍या, भाषा एवं नृतत्वशास्त्र के अद्वितीय विद्धान
रायबहादुर डॉ. हीरालाल


संस्कृति एवं पुरातत्व संचालनालय, छत्तीसगढ़ शासन द्वारा रायबहादुर डॉ. हीरालाल के कार्य एवं योगदान का पुनर्स्‍मरण करने के उद्देश्‍य से उनकी 150वीं जयंती समारोह का आयोजन आज 1 अक्‍टूबर, 2016 को किया गया। महंत घासीदास संग्रहालय, रायपुर में आयोजित इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में जबलपुर से आमंत्रित डॉ.हीरालाल के वंशज डॉ. छाया राय ने आधार वक्‍तव्‍य दिया। डॉ. छाया राय डॉ. हीरालाल की प्रपौत्री है। वे दर्शनशास्त्र की अंतर्राष्ट्रीय विदुषी हैं, उन्होंने हिंदी एवं अंग्रेजी में दर्शनशास्‍त्र के अनेक शोध लिखे हैं जो विभिन्‍न प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है। जबलपुर विश्‍वविद्यालय की भूतपूर्व प्राध्‍यापिका डॉ. छाया राय नें अखिल भारतीय महिला दार्शनिक संघ की स्‍थापना की है। उन्‍होंनें अपने उद्बोधन में डॉ. हीरालाल के कार्यों पर विस्‍तृत प्रकाश डाला एवं वंशज होने के नाते उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों को पुन: प्रकाशित कराने में सहयोग करने की बात कही। उन्‍होंनें इस आयोजन के लिए संस्‍कृति एवं पुरातत्‍व संचालनालय, छत्तीसगढ़ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा कि, अन्‍य प्रदेश ऐसे आयोजन के लिए योजना बनाते ही रहे और छत्‍तीसगढ़ नें यह कर दिखाया।

कार्यक्रम की अध्‍यक्षता करते हुए डॉ. इंदिरा मिश्र आई.ए.एस. ने डॉ. हीरालाल के जीवन के विभिन्न रोमांचक व अविस्मरणीय पहलुओं का उल्लेख रोचक रूप से किया। उन्‍होंनें बताया कि सन् 1920 और 1911 के जनगणना कार्य को संपन्न कराने में उनकी महत्‍वपूर्ण भूमिका रही। सन् 1910 में जिला गजेटियरों के निर्माण में उनके असाधारण योगदान को दृष्टिगत रखते हुए तत्कालीन सरकार ने उन्हें राय बहादुर की उपाधि प्रदान की। इसके साथ ही अकादमिक एवं शोध कार्यों में भी उनकी विशेष रूचि रही, उन्होंने इतिहास, भूगोल, पुरातत्व, जनजातियों और भाषाओं के अध्ययन और प्रकाशन हेतु भी उल्लेखनीय कार्य किए। कार्यक्रम के आरंभ में अशोक तिवारी नें कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्‍तुत की एवं संचालक राकेश चतुर्वेदी नें स्‍वागत भाषण दिया।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र को संबोधित करते हुए डॉ.सुशील त्रिवेदी आई.ए.एस. नें प्रसिद्ध साहित्‍यकार व छंद मर्मज्ञ जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' और राय साहब डॉ. हीरालाल के कार्यों का उल्‍लेख करते हुए दोनों के जीवन में उल्‍लेखनीय कार्यों के कई स्तरों पर समानता का विशेष उल्लेख किया। उन्होंने तत्कालीन कठिन परिस्थितियों के बावजूद भारतीय भाषाओ एवं जनजीवन पर प्रामाणिक कार्य करने के लिए डॉ. हीरालाल जी का विशेष उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि हीरालाल जी के द्वारा लिखे गए ग्रंथ अंतिम निष्कर्ष के ग्रंथ माने जाते हैं। उन्होंने कहा कि डॉ. हीरालाल भारत के ऐसे गौरव थे जिन्होंने एथनोग्राफी को जनगणना के साथ जोड़ा, हिंदी गजेटियर को उन्‍होंनें भारतीय परिवेश में भारतीयों के लिए लिखा और अंग्रेजी गजेटियरों को अंग्रेजों के लिए लिखा। कलचुरियों के संबंध में उनके शोध एवं जानकारियों के आधार पर हमारे छत्तीसगढ़ का पूरा इतिहास का तंत्र रचा गया।

डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम ने रायबहादुर डॉ. हीरालाल के विभिन्‍न कार्यों का विशेष उल्लेख करते हुए बताया कि वह साइंस ग्रेजुएट थे। वे जिला गजेटीयर निर्माण करने एवं 1920 और 1911 के जनगणना कार्य के लिए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए थे। वे विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए न केवल सफल हुए बल्कि आधिकारिक विद्वान के रूप में स्थापित भी हुए। डॉ. निगम ने उनके बचपन में संस्कृत पढ़ने के वाकये का उल्‍लेख करते हुए कहा कि उनके संस्कृत अध्ययन का जुनून ही था, कि वे आगे जाकर उन्हें ताम्रपत्रों एवं शिलालेखों को पढ़ने में सहयोग किया। उन्होंने भाषा सर्वेक्षण जैसे कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया वो भी ऐसे समय में इतना विशद शोधपरक लेखन किया जब सुविधाएं नाम मात्र की थी। उन्हें नागपुर विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त करने के लिए आमंत्रित किया गया किंतु वे नागपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनने से मना कर दिया। किन्‍तु उन्‍होंनें नागपुर विश्वविद्यालय में बीए एवं एमए में हिंदी का अध्ययन आरंभ करवाया। सहा संचालक राहुल सिंह नें आभार प्रदर्शन करते हुए राय बहादुर हीरालाल के शोधपत्रों के तथ्‍यों का उल्लेख करते हुए कहा कि उनके एक-एक शोध पत्र पर एक-एक शोध ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। उनके शोध करने की प्रक्रिया और तथ्यों में अंतरनिहित इतिहास को विस्तार से समझने की आवश्यकता है।

विदित हो कि, स्‍मृतिशेष डॉ. हीरालाल का जन्म 1 अक्टूबर 2016 को जबलपुर जिले के कटनी मुड़वारा तहसील में हुआ था। वे सीपी एण्‍ड बरार राज्‍य में विभिन्‍न पदों पर कार्य करते हुए छत्‍तीसगढ़ में कई वर्षों तक सेवारत रहे एवं छत्‍तीसगढ़ के इतिहास, पुरातत्‍व, भाषा एवं जनजातियों पर विभिन्‍न शोध कार्य किया। वे नागरी प्रचारणी सभा के सदस्य रहे फिर उप सभापति चुने गए और सभापति भी रहे। उन्हें नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर की मानद उपाधि भी प्रदान की गई। अभी तक के प्रशासनिक इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जहां किसी स्कूल उप निरीक्षक को प्रशासन के क्षेत्र में ऐसा उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपा जाए जैसा कि तत्कालीन ब्रिटिश शासन के ने हीरालाल जी को सौंपा। वे स्कूल इंस्पेक्टर से कमिश्नर तक बनाए गए। उनकी महत्वपूर्ण किताबों में मध्य प्रांत और बरार के शिलालेख, एथनोग्राफिक नोट्स, ट्राईब्‍स एण्‍ड कास्‍ट आफ दि सेन्‍ट्रल प्राविजेंस आफ इंडिया, एपिग्राफिया इंडिका, इन्सक्रिप्शन इन द सेन्ट्रल प्राविसेंस, मध्‍य प्रदेश का इतिहास, भौगोलिक नामार्थ परिचय सहित छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न जिलों के हिन्‍दी में लिखे गए गजेटियर व शोध ग्रंथों में प्रकाशित लेख शामिल हैं। सर जॉर्ज ग्रियर्सन के कहने पर उन्होंने मध्य प्रांत की आदिम जनजातियों एवं लोक भाषाओं का ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग करते हुए वहां का भाषाई सर्वेक्षण किया था। यह रिकार्ड अब भोपाल के सप्रे संग्रहालय में उपलब्‍ध है।

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