धुरविरोधी कौन है ? बनाम वो दो चिट्ठे कौन हैं ?

एक तरफ हिन्‍दी चिट्ठाजगत हैरान परेशान है कि ये धुरविरोधी कौन है सब एक दूसरे को पूछ रहे हैं कि ये धुरविरोधी कौन है ? पर किसी को नही मालूम कि सोनार महोदय और धुरविरोधी महोदय कौन है ? ना ही धुरविरोधी महोदय को किसी प्रकार के चिट्ठा सम्‍मान या नाम की लालसा है इसीलिये तो सामने नही आ रहे हैं, तो दूसरी तरफ छत्‍तीसगढ की राजधानी में पिछले दो तीन सप्‍ताह से गिने चुने चिट्ठों के बावजूद अंतरजाल में हिन्‍दी की प्रभुता पर राजनीति और उस पर चर्चा आम है ।

पिछले सप्‍ताह ही रायपुर से, जो हमें हिन्‍दी चिटठाकार “समझते” हैं, ऐसे हमारे दो तीन मीडिया कर्मी भाई लोगों का फोन आया । बतलाये कि रायपुर के मीडिया जगत और सरकारी तंत्र में यह बात फैलाई गयी है कि छत्‍तीसगढ में हिन्‍दी के दो चिट्ठे “ही” सक्रिय है एवं उन्‍ही दो चिट्ठों को आठवें विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन के वेब साईट में स्‍थान दिया गया है ।
पहले तो सुनकर आश्‍चर्य हुआ फिर खुशफहमी में बाहें खिलने लगी कि चलो हमारे व संजीत भाई के चिट्ठे के बारे में ही कहा जा रहा है । धन्‍य हो अफवाह फैलाने वाले महोदय का जो बिना पैसा दिये, बिना उसके रचनाओं को वेब में प्रकाशित किये भी हमारे चिट्ठों का टी आर पी छत्‍तीसगढ में बढा रहे हैं और छत्‍तीसगढ शासन से खुराक पानी, सम्‍मान आदि का जुगाड भी बिठा रहे हैं ।

मुझे डा. परदेशीराम वर्मा जी का छत्‍तीसगढ के लोक कलाकारों के संबंध में कहा गया एक वक्‍तव्‍य याद आता है यथा – “पैसा, अवसर, प्रसिद्धि और पुरस्‍कार केवल गुण और स्‍तर के आधार पर दिये जाते तो कलाकार भी छोटे रास्‍तों की तलास नहीं करते । मगर जब वे देखते हैं कि हालात यहां भी . . .”
“सती बिचारी भूख मरय, लडुआ खाय छिनार ।”
“जैसी है तो वे भी हतोत्‍साहित होते हैं ।“
मेरी टीबी पसंद करने वाली बीबी पिछले सप्‍ताह से ही कह रही है कि भिलाई दुर्ग में जिला स्‍तरीय हिन्‍दी चिट्ठा लेखक सम्‍मान देने की घोषणा किसी से करवा लो दो चार हजार के इनाम की घोषणा कर दो कलर प्रिंटर से सम्‍मान खुद ही छाप लो पैसा भी सम्‍मान के लिए खुद ही दे दो क्‍योंकि आपका घाटा तो कुछ होगा नहीं । सम्‍मान तो आपको ही मिलेगा आप बस एक ही तो हैं पूरे जिले में हिन्‍दी चिट्ठाकार । खुलखुल खुलखुल हांसते हुए मन में सब जुगाड को जमाने लगा ।

पर भाई लोगों नें बतलाया कि न तो “आरंभ” का नाम लिया जा रहा है ना ही उडन तश्‍तरी के प्रिय शिष्‍य “आवारा बंजारा” का । तो सारी खुशी काफूर हो गयी । अगले ही पल हमने अपने काफूर खुशी को कालर पकडकर वापस लाया समझाया “अरे बाबू तोर ले पहिली ले अंतरजाल में कोन ह खेलत हे ।” दिल नें बतलाया “पुतुल भाई बी बी सी वाले, सीजी नेट, भाई जय परकास मानस, तपेस जैन, बिलासपुर वाले तिवारी बबा हा । तो कुरहा भाई मन के चिट्ठा अउ ओखर पतरिका के आघू म तुमन ना ढेला औ ना माटी धुर्रा तो आव कचरा करईया ।” मैं संजीत भाई के बारे में कुछ नही कहता पर मेरे बारे में मेरे दिल ने सहीं कहा “हम धूल ही हैं चरणों के । कहां राजा भोज कहां संजू1 तेली ।”

किन्‍तु परन्‍तु नें फिर भी पीछा नहीं छोडा । अगर दो चिट्ठे ही छत्‍तीसगढ से सक्रिय हैं और वो हम लोगों का चिट्ठा नही है तो . . . भाई जय प्रकास मानस के तो तीन चिट्ठे सक्रिय हैं उन्‍होंनें छत्‍तीसगढी भाषा की एक बहुत ही प्रभावी चिट्ठे को किसी विशेषकारणवश संभवत: हटा लिया था, एक छत्‍तीसगढी गानों के चिट्ठे में उनका सहयोग है, परदेशीराम वर्मा जी इन्‍हें बैजू बावरा कहते हैं यानी धुन और लगन के पक्‍के । भाई तपेश जैन फिल्‍मकार हैं स्‍वतंत्र पत्रकारिता करते हैं वो भी आजकल अपने चिट्ठे में कभी कभार लिखते हैं और यदि लिखते हैं तो मैथिली भाई के प्‍लेटफार्म पर लिखते हैं, गानों के अपने चिट्ठे को वो सक्रिय रखे हुए हैं । प्रसिद्ध कृषि-वनस्‍पति विज्ञानी भाई पंकज अवधिया का हिन्‍दी चिट्ठा दर्द हिन्‍दुस्‍तानी सक्रिय है जो अभी अभी नारद में पंजीकृत हुआ है । हिरण्‍यगर्भ एवं डाक्‍टर सोनी जी जैसे आदरणीयों के चिट्ठे छत्‍तीसगढ की शान हैं पर नारद जी ने इन्‍हें सक्रिय नही माना है । पत्रिकाओं को लें तो अंतरजाल में छत्‍तीसगढ के सक्रिय पत्रिकाओं में हिन्‍दी साहित्‍य की ख्‍यात पत्रिका जिसमें जितेन्‍द्र चौधरी अपने जीतू भईया जईसे साहित्‍यकारों की रचनायें भी प्रकाशित होती हैं वह है सृजनगाथा, अपने नाम को सार्थक करता मीडिया विमर्श व छत्‍तीसगढी की पहली अंतरजाल पत्रिका लोकाक्षर ये तीन पत्रिकायें हैं । फिर ये दो चिट्ठे कौन से हैं । समझ में ही नही आ रहा है और धुरविरोधी कौन है, धुरविरोधी कौन है ? जैसे प्रश्‍न उमड घुमड रहे हैं !
“वो दो चिट्ठे कौन हैं ?”
भाई लोगों को यदि पता चलेगा तो हमें अवश्‍य बताईयेगा ।
(संजू1 मेरा निक नेम है)

छत्‍तीसगढ की करूणामयी मां मिनी माता


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीलगभग 20 वर्ष छत्‍तीसगढ के लब्‍धप्रतिष्ठित समाचार पत्र देशबंधु के फीचर, साहित्‍य पेज व बच्‍चों के पेज के मुख्‍य पद पर काम करते हुए परदेशीराम वर्मा नें छत्‍तीसगढ के साहित्‍य को निखारा है एवं उन्‍होंने छत्‍तीसगढ के साहित्‍यकारों को स्‍थापित करने एवं प्‍लेटफार्म प्रदान करने में जो अमूल्‍य योगदान दिया है उसे छत्‍तीसगढ नही भुला सकता क्‍योंकि दशकों तक देशबंधु समाचार पत्र छत्‍तीसगढ का मुख्‍य समाचार पत्र रहा है । प्रस्‍तुत है जिला साक्षरता समिति दुर्ग एवं नेशनल बुक ट्रस्‍ट, इंडिया के तत्‍वाधन में आयोजित संयुक्‍त कार्यशिविर में तैयार की गयी नवसाक्षर साहित्‍यमाला क्रम की पुस्‍तक मिनी माता के मुख्‍य अंश –

मिनी माता – परदेशीराम वर्मा

छत्‍तीसगढ में अकाल पडा था, सौ बरस पहले । लोग घर से बेघर हो गए । गांव के गांव खाली हो गए । पशु मर गये । नदी सूख गई । तालाब में पानी नहीं रहा । कुएं का जल भी सूख गया । सब गांवों की तरह सगोना गांव पर भी संकट आया । अकाल का संकट ।

सगोना गांव रायपुर जिले का बडा गांव था । भरा-पूरा गांव । इस गांव के लोग भी अन्‍न-पानी को तरसते । हाहाकार मच गया । मजदूर गांव छोड कर भाग गए । फिर छोटे किसान निकल पडे । अंत में गांव के बडे किसान भी मजबूर हो गए । गांव वीरान होने लगा । जिसे जहां आसरा मिला, चल पडा ।
सगोना गांव में एक धनी किसान था । उसकी अच्‍छी खेती बाडी थी । परिवार में पांच लोग थे । पति पत्‍नी और तीन छोटी बेटियां । किसान नें भी गांव छोडने का मन बना लिया । किसान नें अपनी पत्‍नी से पूछा । पत्‍नी नें कहा ‘जाना ही ठीक है । गांव का मोह तो है मगर छोडना होगा ।‘ जैसे दाना पानी के लिए चिडिया घेसला छोड देती है, ठीक वैसे ही सगोना गांव का किसान भी निकल पडा । अपने बच्‍चों के साथ । तीन बेटी और पति-पत्‍नी । पांचों चल पडे भूखे प्‍यासे । बिलासपुर स्‍टेशन की ओर । वहां बडी भीड थी । सगकी जाने की तैयारी थी । दूर जाने के लिए रेल ही सवारी थी । गाडी आई । सब बैठकर चल पडे ।

सगोना गांव का किसान सिर झुकाए बैठा था । उसे याद आ रहा था गांव का घर, घर के आगे का मैदान, मैदान में खडा पावन जय स्‍तंभ, उसे कुछ बल मिला गुरू बाबा के बोल याद हो आए । ‘सत्‍य में धरती सत्‍य में आकास । होगा बेडा पार ।‘ अचानक किसान की छोटी बेटी की सांस थम गयी । चलती गाडी में मां रोने लगी । बाप के आंसू थम गए । उसने बच्‍ची को देखा । बांहों में लिया । माटी की काया रह गयी थी । सांस का पंछी उड चुका था ।

बाप नें कुछ देर बेटी को और सम्‍हाला । मां नें आकखरी बार उसे देखा । नदी पास आ रही थी । बाप नें बेटी को एक बार चूमा । रोते हुए उसने लाश को नदी में छोड दिया । मां पछाड खाकर डिब्‍बे में गिर गयी । ‘हाय मोर बेटी’ कहती और रोती । रेलगाडी चलती रही । चलती गाडी में भी किसान को सब कुछ ठहरा सा लगता था ।
सबेरा हो गया । गाडी हावडा स्‍टेशन पहुंची । लोगों नें बताया कि पास ही बडा शहर है । यहां से गाडी बदली गई । साथ में ठेकेदार था । वही एक सहारा था । अनजाना देश । पराए लोग न कोई जान पहचान । सिर्फ ठेकेदार ही राही था । ठेकेदार नें सबको दूसरी गाडी में बिठा दिया । कुछ मुरमुरा और पेटभर पानी भी उसने दिया । यह भी न देता तो क्‍या कर लेते । दूसरी गाडी भी चल पडी ।
ठेकेदार नें कहा ‘चुप बैठे रहो । मंजिल तक ले जाउंगा । वहां काम होगा । दाना होगा । अपनी झोपडी होगी । नया संसार होगा ।‘ गाडी बढती गयी एक के बाद एक छोटी बडी नदियां, हरा भरा बंगाल । हरी भरी धरती । भीतर मन सूखा था ।

अचानक दूसरी बिटिया हिचकी लेने लगी । मां नें चिल्‍लाकर कहा ‘ ये भी जा रही है । बचा लो मालिक । निर्बल को बल दो । संभल लो ।‘ लेकिन काल को कौन बदले । यह बेटी भी चल बसी । डिब्‍बे के लोग सन्‍न रह गए । किसी को कुछ नही सूझा । फिर एक बूढे बाबा नें कहा ‘लाश तो लाश है, सांस नहीं तो आश नहीं, डिब्‍बे में लाश को मत रखो जैसे पहले किया था, सौंप दो नदी को, तर जाए चोला, जाना है सबको, माया है सब ।‘

मां नें सुना कुछ नही । रोती रही । कहते हैं ममता अंधी होती है । बाप नें फिर लाश को हांथ में लिया । हिम्‍मत कर वह दरवाजे के पास आया । मन ही मन उसने अपने गांव की नदी को याद किया । आंखे आंसू से तर थी । ‘जा दाई . . . ‘ कहते हुए उसने बेटी को सौंप दिया ।

एक बेटी गोद में बची थी । उसका नाम था देवमती, अपनी बहनों को याद कर खूब रोती । रोते धोते आगे बढते गए । आसाम पहुंच गए । गाडी से धरती पर उतरे । अपनी धरती अपने लोग छूट गये । नया संसार सामने खडा था ।

देवमती के मां बाप की झोपडी में पहली बार चूल्‍हा जला । धुंआ उठा जिंदगी की हलचल बढी । गांव के कई लोग थे । काम की बेला आ गई । आसाम के चाय बागानों में काम करना था । ठेकेदार नें काम समझा दिया था ।
दिनभर देवमती अपने हमजोलियों के साथ खेलती, मां बाप काम करते । जिंदगी की नैया चल पडी । लेकिन आसाम का पानी पचा नहीं । देवमती के बापू पहले बीमार हुए फिर मां नें खाट पकड ली । कुछ दिन की बीमारी में दोनों चल बसे । देवमती फिर अकेले रह गयी । गांव तो पहले ही छूट गया था अब मां बाप भी छूट गए । वहां हैजा फैला हुआ था छोटी सी देवमती भी बीमार हो गयी उसका कोई सहारा नही ।
पास दोल गांव में मिशन अस्‍पताल था ठेकेदार नें उसे वहां भरती करा दिया वह वहां ठीक हो गयी । लेकिन जाये कहां नर्सों को पकड कर रोने लगी । ‘ मैं कहां जाव दाई . . . ‘ उसके आर्तनाद से एक नर्स नें उसे सहारा दिया । बेटी की तरह पाला जवान होने पर एक भले लडके से उसकी शादी भी करवा दी । नया जीवन शुरू हो गया होली के दिन वह मां बन गयी देवमती नें बच्‍ची का नाम रखा मीनाक्षी मछली जैसे आंखों वाली ।

दोलगांव से देवमती जमुनामुख आ गयी वहां काम अच्‍छा मिला पढने लिखने में तेज मीनाक्षी नें यहीं शिक्षा पाई । अभी मीनाक्षी तेरह साल की ही थी कि आसाम में भी अंग्रेजों के विरूद्ध हवा चल पडी । मीनाक्षी भी बच्‍चों के साथ विदेशी कपडों की होली जलाने लगी । मां उसे मना करती मगर मीनाक्षी के गुरू देशभक्‍त थे वे उसे समझाते मीनाक्षी नें छुटपन से गुलामी का मतलब जान लिया वह आजादी की कीमत जानने लगी । बच्‍चों के दल के साथ छिटपुट काम करने लगी आजादी की लडाई लडने लगी ।
एक दिन उसके घर में मेहमान आये हुए थे मां नें बताया मेहमान थे महान गुरूजी नाम था गुरू गोसाई अगमदास जी, सत्‍य के साधक वे अलख जगाते हुए आसाम पुहुचे थे । लोगों में ज्ञान की रौशनी बाटते हुए छत्‍तीसगढ से गुरूजी आसाम आए थे । गांव भर के लोग आये सबने मिल कर पंथी गीत गाया ।
’मोर फुटे करम आज जागे हो गुरू, मोरे अंगना में आके बिराजे ना ।‘
गुरू अगमदास जी को यह परिवार भा गया उन्‍होंने कहा जहां से आये वहीं चलो लौटो अपनी जडों की ओर छत्‍तीसगढ में । गुरूजी की बात सबको जंच गयी । तेरह वर्ष की मीनाक्षी अपनी मां के साथ वापस लौट पडी । जन्‍म जन्‍म से जिससे नाता था लोग नये थे रिश्‍ता पुराना था ।
जगतगुरू अनामदास महान थे देश की आजादी के नेता थे । सत्‍य के साधक थे गुरूजी का घर पवित्र स्‍थल था जहां आजादी के सिपाही ठहरते थे । घर में छत्‍तीसगढ के बडे बडे नेता आते थे एक से बढकर एक सपूत धरती के लाल । मीनाक्षी नें बडे बडे नेताओं को जाना उन्‍हे पहचाना । छत्‍तीसगढ में बेटियां आगे नहीं आ पाई थी महिलाएं पीछे थी, आजादी के जंग में उनका जुडना जरूरी था ।
मीनाक्षी के पास छत्‍तीसगढ के महिलाओं को एकजुट करने का काम था उन्‍हे मान दिलाने का काम था । घर से निकालकर आगे लाने का काम था । हिम्‍मत बंधाने का काम था । नेताओं नें उसे यह काम सौंपा वह लडती गयी आगे बढती गयी । उसकी पहचान एक ममतामयी मां की बन गयी । वह घर बाहर सबका सेवा करती सबका मान रखती गुरूजी के प्रति आदर भाव बढता गया ।
गुरूजी नें मीनाक्षी को खूब मान दिया अवसर दिया मीनाक्षी नें गुरू आगमदास जी से विवाह किया । सामने सत्‍य का पथ था सेवा का बल था प्रेम और ममता से भरा पूरा संसार था । यहीं से उसकी महिमा और बढ गयी । गुरूजी उंच नीच की खाई पाटते थे समता का संदेश देते थे । मीनाक्षी नें गुरूघर का मान और बढा दिया वह छत्‍तीसगढ में दौरा करने लगी । छोटे बडे का भेद, छुआछूत, अपने पराये का भेद मिटाने का काम आगे बढा । आजादी की लडाई बढ चली समाज सेवा का काम आगे बढा । सबको मिलाने का काम होने लगा भेद मिटने लगा । छत्‍तीसगढ नें उन्‍हे मीनाक्षी से मिनीमाता बना लिया । ममतामयी मां मिनीमाता समता की राह पर चलाने वाली मां । मिनीमांता नें सबको दुलार दिया ।
आजादी के बाद लोगों के मनाने पर वह चुनाव में भी खडी हुई बडे शान से वे देश की संसद में 1952 में चुनकर पहुंची, देश नें एक गुणी और सेवाभावी सांसद को पाया । यहां से वहां तक यश गाथा पहुचने लगी । कद से छोटी मगर सोंच से बडी थी मिनीमाता । छत्‍तीसगढ की नारियों का मान बढा ।

उनका दिल्‍ली का बंगला आश्रम बन गया विद्यार्थी वहां रह कर पढते, लेखक आश्रय पाते, पत्रकारों का बसेरा बना वह घर । मिनीमाता नें सबको अपना समझा, उन्‍होंने किसी बच्‍चे को जन्‍म नही दिया लेकिन हर बच्‍चा उन्‍हे अपना बच्‍चा लगा । बाबासाहब अम्‍बेडकर नें उन्‍हे बल दिया, पंडित नेहरू नें जो काम उन्‍हें सौंपा मिनीमाता नें किया सपनों को धरती पर उतारा । मिनीमाता नें धन नही कमाया जन का मान पाया । छत्‍तीसगढ की मिनीमाता को सबने पहचाना ।
11 अगस्‍त 1972 को मिनीमाता यात्रा के लिए हवाई जहाज से निकलीं और जहाज भयानक आवाज के साथ नष्‍ट हो गया । मिनीमाता चल बसी । एक मशाल अचानक बुझ गयी । मिनीमाता की देह मिट गई नाम अमर हो गया ।
सबको जो साथ लेकर चलता है वही अमर होता है मिनीमाता नें समझाया था कि मानव मानव सब बराबर हैं बेटी बेटों में भेद नहीं हैं काम रह जाता है नाम रह जाता हैं । मिनीमाता के जीवन से यही संदेश मिलता है ।

टाटा स्‍काई बनाम बीएसएनएल ब्राड बैंड


अब बहुतै मुश्किल होत जात है ब्‍लाग में ठहरे रहना रोजै तिरिया के गारी खावै ले बचे खातिर कउनो उपाय करें समझे म नही आत है । अरे भाई लोगन हरे हप्‍ता कउनो नगरी चौपाल म ब्‍लाग मीट कर लिया करो । कम से कम हप्‍ता पंद्रही तो तो‍हांर मीट मटन के फोटू को देखा देखा के अपनी ब्‍लागरी को सुख्‍खाये तरिया कस मछरी जीयाये के कउनो बहाना मिल जईहैं । तोहार मीट के फोटू हमार मेहरारू को गजब नीक लागता है काबर कि ओमा छीट वाला, कढाई बाला पता नही का का परकार के साडी पहिरे, महिला ब्‍लागर को देख के हमार छोटकू के अम्‍मा कहत हैं जोडी ए एतवार को तनि दुई हजार रूपईया राशन सब्‍जी के लिए ज्‍यादा चाहिए था क्‍योंकि आपके गांव से इस माह सगा लोग ज्‍यादा आ गये थे ।

वो जानती है मेरे गांव से आने वालों के सभी खर्चे के लिए मेरा बागिन उलदा जाता है पर मुझे जानते हुए भी नादान बनना पडता है । बागिन का उलदाना सगा के कारण नही हैं मीट के फोटू में छपे साडी के कारण हैं ।

कभी कभार हंसी के पलों में जो विवाह के बाद शायद ही कभी आता हो और हर शादी शुदा उस क्षण के लिए अपना जीवन शिवोहम कह कर जीता है, पत्‍नी बतलाती है कि वो एकता कपूर के सीरियल भी 95 प्रतिशत साडी का पैटन जानने के लिए देखती है । बीच में जस्‍सी जैसी कोई नहीं नें हमारी बीबी का साडी का मूडे खराब कर दिया था फिर जईसे तईसे एकता को नारी एकता का धियान आबेच किया और जस्‍सी को लुगरा पहिनवाई दिये । धन्‍य हे नारी सारी एकता ।

अब टाटा टीबी के बात बतिया लें । हमारे रईपुर वाली परम पियारी सारी के कहने से हम सिटी केबल कटवा के टाटा स्‍काई के कनेक्‍शन ले लिये हैं । ज‍हां हर महिना के खतम होने के पहिले ही टप्‍प से लेटरवा टीवी स्‍क्रीन में टपकता है कहता है पईसा भरो नही तो टीबी देखना बंद । अरे तुहरे बाप का राज है, पहले हमारे डंडा के डर से सिटी केबल वाला चार पांच महीना में डरावत, सपटत दीन हीन बनकर हमारे दुवारी में आता था और ‘जो देना हो दे दो सर’ बोलता था । यहां तो साला अतियाचार है महिना पुरा नही कि धमकी चालू । का झुनझुना धरा दिये रईपुरहिन । रांका राज के जम्‍मो शान को टाटा कहवा दिये ।

यहां भी समझौता बीबी के साथ करना पडता है बीबी की बहन नें जो सलाह दिया है । टापअप कार्ड खरीदो नही तो टीवी बंद जब टीवी बंद तो सब कुछ बंद यानी घर आबाद घरवाली से घरवाली आबाद खुशहाली से और खुशहाली कहां से टीबी से जब टीवी नही न रहेगा तो बसंती कईसे नाची पता कईसे चलेगा धरमेंदर को । चलो भई तीने सौ रूपट्टी तो देना है महीना में, तीन सौ में खुशहाली आ सके तो और जादा भी रूपया खर्च करने को मैं तैयार हूं ।
पिछले दो माह से सरकारी टेलीफोन विभाग से हाथ पांव जोड रहा हूं क्‍योंकि मेरा घर तनिक शहर से आउटर में है दूसरे सेवादाताओं के पहुंच से बाहर । सरकारी फुनवा ही हमारे घर में किर्र कार कर पाता है । कि मेरे घर में ब्राड बैंड कनेक्‍शन लगा दे पर अब जनता जागरूक हो गये हैं । मेरे शहर में पोर्ट खाली नही है नये कनेक्‍शन के लिए । और जब पोर्ट कही से आता है तो मोडेम स्‍टाक में नही रहता । क्‍या करें आशा में जी रहें हैं कि कब हमारे छत्‍तीसगढ में भगवान राम आयेंगें और हमारी डोकरी दाई शबरी के सुकसी बोईर को खायेंगें ।
पर सोंचता हूं टाटा स्‍काई के लिए जो पैसा खर्चता हूं उसके एवज में तो खुशहाली मिलती है साडी का नया पैटर्न पता चलता है । ये ब्राड बैंड से सिवाय लडाई के और कुछ मिलने वाला नही है । अच्‍छा है कैफे में ब्‍लगियाना और टिपियाना घर जाना तो बीबी बच्‍चों के साथ ही बतियाना, नये फिलिम को मूवी आन डिमांड मंगवाना तभी मिलेगा खाना ।
घर में नेट कार्ड भी पांच मिनट से ज्‍यादा नही चलाना ।

छत्तीसगढियों को भी मिले महत्व



नजरिया : परदेशीराम वर्मा

छत्तीसगढ में आए दिन कुछ रोचक समाचार छपते रहते हैं अभी पिछले दिनों रेल विभाग के एक सेवानिवृत महाप्रबंधक से संबंधित समाचार छपा । कृपालु महाप्रबंधक ने जाते जाते 20 लोंगों को रेलवे में नियुक्त कर दिया इसमें किसी छत्तीसगढी का नाम नहीं था । नौकरी वैसे भी नहीं के बराबर हैं । जो हैं उनमें छत्तीसगढी व्यकित के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है । ऐसे में ज्ञानी जब जब छत्तीसगढ को राष्ट़ीय एकता, उदारता का पाठ पढाते हैं तो बेशाख्ता भगवती सेन याद आते है..........
दिन ला तुम रात कहो
आमा ला अमली,
डोरी ला सांप कहो,
रापा ला टंगली ।

छत्तीसगढ बेचारा और बपुरा है । जो भी चाहता है उसे मेल मुहब्बत और सबके साथ मिल जुलकर रहने का पाठ पढा जाता है । और चपत भी लगा जाता है ।

आजकल गवेषणाएं छप रही है कि कौन छत्तीसगढ में कब आया । मैं हमेशा निवेदन करता रहा हूं कि यह बिलकुल बेमानी है कि कौन कब आया । असल बात यह है कि जिन छत्‍तीसगढ विरोधियों की जडे बाहर हैं ऐसे विष वृक्षों की जडों में छत्तीसगढी पानी डालना बंद करिए वरना विषबेल फैलेगी और छत्तीसगढी सूख जायेगा ।

हरे भरे पृक्ष में अमरबेल का एक छोटा सा टुकडा अगर आ गिरता है तो धीरे धीरे. वह पूरे पेड का रस सोख लेता है । वृक्ष धराशायी हो जाता है । उसी तरह छत्तीसगढ के हरेपन को चट करने के लिए कुछ घातक अमरबेलों की कइ नश्‍लें हैं अमरबेलों के पक्ष में लगातार वातावरण तैयार किया जा रहा है और छत्तीसगढी व्यकित भैचक्क सा खडा है । छत्तीसगढ ने शंकर गुहा नियोगी को सर पर बिठाया । हर वर्ष उनकी याद में वह रोता है कि उसके हितों का रक्ष्क उन्हें छोड गया । उसे छत्तीसगढियों ने नहीं मारा ।

देश के भिन्‍न भिन्‍न प्रांतों से आने वाले छत्तीसगढ सेवकों को छत्तीसगढ ने सर माथे पर बिठाया, इसिलए माधवराव सप्रे, दादा सुधीर मुखर्जी, रामरतन द्विवेदी और योगनंदम पूजे जाते हैं । इन्हें कभी सफाइ नहीं देनी पडी कि ये छत्तीसगढी है या नहीं । आजकल जो बवाल मचाया जा रहा है । वह राज करने की हवस के कारण ही है । यह ठेंगमारी की संस्‍कृती ही है जो छत्तीसगढ के अनुकूल नहीं है । मान न मान मै तेरा मेहमान यह कहावत ऐसे ही तत्‍वों के लिए मौजूद है । जो छत्तीसगढ का हित चाहता है, उसके हित में अपना हित देखता है, जिसे छत्तीसगढ के मान सम्मान, सुख दुख की चिंता है उसे छत्तीसगढ पहचानता है । व्यापारी के अंतराष्टीयतावाद और संत के अंतरार्ष्टीयतावाद में अंतर होता है । ठीक उसी तरह जिस तरह हत्यारे के चाकू और चिकित्सक के चाकू में अंतर होता है । छत्तीसगढ तो सबको अपना बना लेने में आतुर रहा है । लेकिन उसका दुभार्ग्य है कि उसकी सरलता को उसकी कमजोरी मान लिया जाता है । जब व्यथित होकर वह सर उठाता है तो उसे सदाचार और सहिष्‍णुता का पाठ वे पढाते हैं, जो उसे लात लगाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते ।

छत्तीसगढ शासन को चाहिये कि चुनिंदा संस्‍कृतिकर्मी, साहित्यकार, समाजसेवी और इतिहासविदों की टीम बनाई जाए । यह टीम देश के उन हिस्‍सों में जाए जहां छत्तीसगढी व्यकित सैकडों बरसों से रहता है । असम, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश में छत्तीसगढीयों की बस्तियां है । वहां जाकर दल के विशेषज्ञ उनकी दशा दिशा का आंकलन करें । इससे यह तथ्य सामने आएगा कि छत्तीसगढ में देशभर से पधारे पहुना लोगों को क्या मिला और छत्तीसगढ ने घर से बेघर होकर क्या पाया । इससे संतुलन की प्रकृया को बल मिलेगा ।

धनी धमदास, गुरू बाबा घासीदास, पंडित सुन्दरलाल शर्मा, डा. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढी भाषा, संस्‍कृति और पहचान को ही पुख्ता किया । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी की प्रतिष्ठा के लिए उन्‍होंने काम किया । किसी को बुलाने या भगाने के लिए आंदोलन यहां नहीं चला । केवल छत्तीसगढ के हितों को चोट पहुंचाने का खेल बंद हो, यह प्रयास किया जाता है, आज भी छत्तीसगढ को दबाने और धमकाने का जो प्रयास हो रहा है उसी का विरोध किया जा रहा है । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी बनकर रहने में जिनकी शान घटती है वे ही छत्तीसगढ पर क्षेत्रीयताद और अनुदारता का इल्‍जाम लगाते हैं । यह सामंती दृष्टिकोण है । छत्तीसगढ में कभी सामंतशाही और संकीर्णता की वैसी जगह नहीं रही जिसके लिए देश के दूसरे राज्य जाने जाते हैं । तभी तो छत्तीसगढ से जाकर यू.पी. में सरस्वती का सम्पादन करने वाले पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने साहसपूवर्क यह लिखा कि प्रेमचंद की कहानियों में जो जातीय विद्वेष है, छत्तीसगढ में उसके लिए स्‍थान नहीं है । तात्पर्य यह है कि ठाकुर का कुनबा और सदगति में जो जातिभेद का भयानक चित्र है उसे प्रेमचंद ने अपने प्रदेश में देखा और उसका वैसा इलाज किया । छत्तीसगढ में जातीय विद्वेष का वैसा गाढा रंग न कभी था न कभी रहेगा । क्षेत्रीयता का नंगा नाच जो दूसरे प्रांतों में होता है वह भी यहां कभी नहीं हुआ । प्रेमचंद ने देखा कि जातीय विद्वेष के कारण समाज टूट रहा है तो उन्‍होंने वैसा चित्र खींचा । छत्तीसगढ के संतों और साहित्यकारों ने कहा मनुष्य मनुष्य एक है, सगे भाइ के समान है, इसिलए पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने सतनामियों को मंदिर प्रवेश कराया और उन्हें जनेउ दिया । गांधी जी भी उनकी इस क्रांतिकारी पहल की प्रशंसा करते नहीं थकते थे । यह उदार सोंच की धरती है । यहां साहित्यकारों ने जोडने का काम किया, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो हिंसा नहीं जनता उसे सुख से रहने का अधकार नहीं । जो लोग संगठित है और छत्तीसगढ में आकर अपनी प्रांतीय पहचान के लिए सतत प्रयास करते रहते हैं वे कम से कम छत्तीसगढ को उदारता का पाठ पढाना बंद करें । पहले छत्तीसगढ से प्यार कीजिए इसे आश्‍वस्‍त कीजिए तब मसीहा बनिए । खाल ओढकर जब भी कोइ जीव अपनी पहचान छुपाते हुए गपागप करने लगता है तो उसे मार पडती है उसे देर सबेर पहचान लिया जाता है । ऐसी नसीहतों से चिढने की जरूरत नहीं । बल्कि ओढे हुए खाल को उतार फेंकना ज्यादा जरूरी है । छत्तीसगढ में छत्तीसगढी की बात चलेगी । इससे घबराइये नहीं । इसमें शरीक होकर अपना द्वंद्व दूर कीजिए ।

( डा. परदेशीराम वर्मा जी का रचना संसार विशद है हमारे अनुरोध पर उन्‍होंने अपनी समस्‍त प्रकाशित रचनाओं को अंतरजाल में डालने के लिए स्‍वीकृति प्रदान की है । हम क्रमिक रूप से उनके सभी मुख्‍य एवं चर्चित रचनाओं के साथ ही उनकी साहित्तिक पत्रिका अकासदिया के नवीन अंकों का अंतरजाल संस्‍करण इसी चिट्ठे में डालने का प्रयास करेंगें – संजीव तिवारी )

अंतर्राष्‍ट्रीय ख्‍यातिप्राप्‍त पंथी नर्तक देवदास बंजारे



“ छत्‍तीसगढ की लोक कला अत्‍यंत समृद्ध है । वह अपनी मौलिकता और विविधता के लिए प्रसिद्ध है । पंथी नृत्‍य उनमें से एक है । पंथी नृत्‍य के शीर्षस्‍थ कलाकार का नाम है देवदास । उसके थिरकते पांवों नें पृथ्‍वी को नाप लिया है । वह कलाकार है जिसने छत्‍तीसगढ की माटी को चंदन बना दिया है । देवदास नें तभी संतोष की सांस ली, जब उसने उस चंदन की सुगंध से सारे वायुमण्‍डल को सुगंधित कर दिया । “

“ कला अभिव्‍यक्ति का सशक्‍त माघ्‍यम है । इस माघ्‍यम का उपयोग करने के लिए बडी तपस्‍या की आवश्‍यकता है । देवदास नें बडी तपस्‍या की है, साधना की है । आज यदि वे पंथी के शीर्ष स्‍थान प्रतिष्ठित और सम्‍मानित हैं, तो अपनी कठोर तपस्‍या और साधना के कारण । “

“ ऐसे ही सपूतो को जन्‍म दे कर छत्‍तीसगढ महतारी अपनी कोख को धन्‍य मानती है । भाषा, साहित्‍य, इतिहास और कला ही किसी क्षेत्र को उसकी अपनी पहचान देते हैं । ”

साहित्‍कार हरि ठाकुर जब देवदास बंजारे के संबंध में ऐसा कहते हैं तब बरबस हमारा घ्‍यान लोक कला के उस चितेरे पर आकर ठहर जाता है जिसने अपने नृत्‍य से पूरी दुनिया को नाप दिया है । कौन है यह देवदास जो छत्‍तीसगढ के लोक नृत्‍य को विश्‍व पटल पर ला खडा किया ?

देवदास 1 जनवरी 1947 को तत्‍कालीन रायपुर जिले के धमतरी तहसील के अंतर्गत एक छोटे से साधन विहीन गांव सांकरा में जन्‍मा व दुर्ग जिले के उमदा गांव में पला बढा । स्‍टील सिटी भिलाई के पास के गांव धनोरा नें देवदास को ठिकाना दिया । देवदास स्‍कूल के समय का धावक था छत्‍तीसगढ का प्रिय खेल कबड्डी का वह राज्‍यस्‍तरीय चेम्पियन था ।

अत्‍यंत तंगहाली के दिनों से उसने अपना जीवन प्रारंभ किया । उसके पास न तो पहनने को ढंग से कपडे थे न ही खाने का इंतजाम, दिन भर खेतों में मेहनत मजूरी कर के उसका व उसके परिवार का पेट पलता था ।

गुरू घासीदास सामाजिक चेतना एवं दलित उत्‍थान सम्‍मान व माधवराव सप्रे पुरस्‍कार प्राप्‍त पुस्‍तक “आरूग फूल” में परदेशीराम वर्मा जी देवदास के संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व को बडे भावनापूर्ण ढंग से प्रस्‍तुत किये हैं जो आरूग फूल की विषय वस्‍तु हैं । वर्मा जी बताते हैं -

“ देवदास का बचपन का नाम जेठू था । बडी माता के प्रकोप से उसके शरीर का एक परत का मांस उतर गया । जेठू को राख बिछा कर सुलाया जाता था, उसकी मा देवता से उसके जीवन की मनौती मनाई थी । धीरे धीरे जेठू ठीक हो गया देवताओं से मनौती के फलस्‍वरूप नया जीवन को प्राप्‍त जेठू को देवदास नाम दिया गया। “

कबड्डी खेलते हुए अपने टखने को गंभीर चोट पहुचा कर आहत देवदास को पंथी नृत्‍य की प्रेरणा अपने एक रिश्‍तेदार की शादी में नाचते पंथी दल को देख कर मिली तब से देवदास नें सोंच लिया कि जिस प्रकार उसके कसरती सधे शरीर नें कबड्डी को साधा था वैसे ही वह अपने धर्म गुरू धासीदास के संदेशों को जन जन तक पहुचाने में सक्षम पंथी गीत व नृत्‍य को साधेगा उस दिन से मांदर के थाप नें उसके तन मन को पंथी मय बना दिया।
छत्‍तीसगढ के सतनामियों के द्वारा प्रस्‍तुत किये जाने वाला यह नृत्‍य अदभुत करतब युक्‍त घुघरू, झांझ व मांदर के संगीत से युक्‍त गीतमय एवं भांगडा से भी तेज तीव्रतम नृत्‍यों में से एक है । पंथी गुरू बाबा घासीदास के संदेशों की मंचीय प्रस्‍तुति को कहा जाता है ।
धनोरा गांव के अपने मुहल्‍ले के लडकों को एकत्र कर पांवों में घुघरू, गले में कंठी पहने हुए, जनेउ धारी, संतो का बाना धारे हुए नर्तकों के दल का सृजन देवदास नें किया और शुरू हो गये बाबा घासीदास के संदेशों को जन जन तक नहुचाने के लिए ।

पारंपरिक पंथी नृत्‍य के अंदाज में देवदास नित नये प्रयोग को जोडता रहा और उसका नर्तक दल नित नई उंचाईयों को छूता गया ।

1972 में बाबा के जन्‍म स्‍थान गिरौदपुरी जहां छत्‍तीसगढ का बहुत बडा मेला लगता है वहां के प्रर्दशन नें देवदास को सफलता की सीढियों में चढना सिखा दिया उस अवसर पर अविभजित मध्‍य प्रदेश के तत्‍कालीन मुख्‍य मंत्री पं श्‍यामाचरण शुक्‍ल नें उसके दल को स्‍वर्ण पदक से नवाजा ।
छत्‍तीसगढ के समाचार पत्रों नें भी देवदास के पंथी दल की भूरि भूरि प्रसंशा की धीरे धीरे देवदास का दल प्रसिद्धि पाने लगा एवं शैन: शैन: देवदास अपने कला में पारंगत होता गया ।
26 जनवरी 1975 को छत्‍तीसगढ एवं स्‍पात मंत्रालय का प्रतिनिधित्‍व करते हुए गणतंत्र दिवस पर दिल्‍ली में देवदास को नाचते हुए लाखों लाख लोगों नें देखा ।

21 मई 1975 को तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति महामहिम फकरूद्दीन अली अहमद नें गणतंत्र दिवस के परेड की प्रस्‍तुति से प्रसन्‍न होकर राष्‍ट्रपति भवन में प्रस्‍तुति हेतु आमंत्रित किया एवं अपने हांथों से स्‍वर्ण पदक से सम्‍मानित किया ।

हबीब तनवीर नें जो देवदास को चरणदास चोर में ब्रेक दिया यहीं से उसकी नृत्‍य नें सफलता का रफ्तार पकड लिया । हबीब तनवीर के “चरणदास चोर” नें देश व विदेशों के कई कई शहरों में अपना कीर्तिमान रचा है जिसमें देवदास के बाल बिखरा कर नृत्‍य करते देखकर दर्शक झूम उठते थे ।
लंदन, एडिनबर्ग, हेम्‍बर्ग, एस्‍टरडम, कनाडा, ग्‍लासगो, पेरिस, सहित कई देशों व नगरों में पंथी नृत्‍य नें घंटों समा बांधा और दर्शक देवदास को मांदर बजाते पांवों में घुघरू बांधे तीव्र से तीव्रतम नृत्‍य करते, करतब करते, पिरामिड बनाते देखते और छत्‍तीसगढ के इस नृत्‍य को देखकर दांतो तले उंगली दबा लेते ।

ख्‍यातिलब्‍ध साहित्‍यकार कमलेश्‍वर भी देवदास बंजारे के नृत्‍य के दीवाने थे उन्‍होने कहा था –

“ देवदास बंजारे नें पंथी नृत्‍य को पुनर्जीवित कर के नया आयाम दिया हैं, संत घासीदास का आर्शिवाद उनमें विराजता है ! इसे योरोप और अमेरिका के लोग नहीं समझ पायेंगे, क्‍योंकि उनके पास आधुनिक नगर हैं, पर अपनी धरती से उपजी लोक कलाओं की कोई परंपरा नहीं है । उनके पास कोई देवदास या तीजन बाई नहीं है . . . अंतत: वे प्रतिस्‍पर्धात्‍मक औद्योगिक समाज अपनी जडों के तलाश में फिर लगेंगे और तब मनुष्‍य की सतत और अविरल उर्जा, आस्‍था और खोज का रास्‍ता पंथी जैसा नृत्‍य ही तय करेगा । ”
छत्‍तीसगढ के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार अशोक सिंघई कहते हैं

“देवदास बंजारे छत्‍तीसगढ के पहले मंचीय कलाकार हैं जिन्‍हे विदेशी मंचों पर प्रदर्शन का भरपूर अवसर मिला । इन अवसरों का उन्‍होंने उल्‍लेखनीय निर्वहन किया इसलिए वे साठाधिक मंचों पर प्रदर्शन दे सके । यह उल्‍लेखनीय कीर्तिमान है, छत्‍तीसगढ के अमर संत गुरू बाबा धासीदास के संदेशों को लेकर विदेश जाने वाले वे पहले कलाकार हैं । कई उपलब्धियां उन्‍हें विश्‍व के लोक कलाकारों की प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित कराती है । ”

बचपन से घुघरू पहन कर छुनुर छुनुर ठुमकता संघर्ष करता देवदास पंथी नृत्‍य का बेताज बादशाह बन गया पर नियति नें 26 अगस्‍त 2005 को एक सडक दुर्घटना में देवदास को छत्‍तीसगढ से छीन लिया। माटी का शरीर माटी में मिल गया ।

देवदास के द्वारा प्रस्‍तुत किये जाने वाले एक पारंपरिक पंथी गीत हम उनके सम्‍मान में यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं -


सत्‍यनाम, सत्‍यनाम, सत्‍यनाम सार
गुरू महिमा अपार, अमरित धार बहाई दे,
हो जाही बेडा पार, सतगुरू महिमा बताई दे।
सत्‍यलोक ले सतगुरू आवे हो
अमरित धार ला संत बर लाये हो
अमरित देके बाबा कर दे सुधार
तर जाही संसार, अमरित धार बहाई दे,
हो जाही बेडा पार, सतगुरू महिमा बताई दे।
सत के तराजू में दुनिया ला तौलो हो
गुरू ह बताईसे सत सत बोलो जी
सत के बोलईया मन हावे दुई चार,
उही गुरू हे हमार, अमरित धार बहाई दे,
हो जाही बेडा पार, सतगुरू महिमा बताई दे।
सत्‍यनाम, सत्‍यनाम, सत्‍यनाम सार
गुरू महिमा अपार, अमरित धार बहाई दे ।

(प्रस्‍तुत लेख आरूग फूल, हंसा उडिगे अकास व समय समय पर प्रकाशित लेखों व समाचारों को पिरोते हुए लिखा गया है द्वारा – संजीव तिवारी)

नउवा : संस्मरण



रमउ हमारे पिताजी से चार पांच साल बडे थे हमारे दादा जी नें इसे पास के गांव से लाकर हमारे गांव में बसाया था दस एकड जमीन और जुन्‍ना बाडा को देकर । रमउ हमारे परिवार का हजामत बनाया करता था और उसकी पत्‍नी छट्ठी छेवारी उठाती थी । रमउ स्‍वभाव से बहुत बातूनी था यही मेरे सभी चाचा, बुआ सहित पिताजी के लिए लडकी देखने गया था और इसी नें शादी लगाने की समस्‍त दायित्‍वों को डाट काम कंपनियों के सी ई ओ की भंति भली भंति निबटाया था ।

रमउ का बेटा जो हमारे साथ ही पढा है, कोरबा कालेज में समाजशास्‍त्र का प्रोफेसर है पिछले दिनों पेपर में पढा था कि वह पी एच डी भी कर लिया है । रमउ की सभी आदतें उसे विरासत में मिली हुई है । हमारे बचपन का दोस्‍त है दोस्‍त क्‍या हमारे एहसानों के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता हुआ एक आदर्श नमक हलाल । मैट्रिक के बाद से हम रायपुर भिलाई आ गये वह पता नहीं कहां कहां फूफा मोसा के यहां पढता रहा फिर प्रोफेसर भी बन गया।

हम विगत दिनों कोरबा प्रवास में थे उनसे मिलने की इच्‍छा हुई । मोबाईल से फोन किये तो बोला “बालको चौक में संतोष केंस कर्तनालय है वहीं संझा कन आ जाना वहां से घर चलेंगे ।“
चौंक पहुच कर हमने सोंचा पांन ठेले से पान खाकर दुकानदार से संतोष केश कर्तनालय का पता पूछा जाय । पान ठेले में पहले से दो नव धनाड्य किशोर सिगरेट पी रहे थे उनमें हंसी ठिठोली चल रही थी वो दाढी नही बनवाने के संबंध में ही कुछ कह रहे थे । मैंनें उनसे ही पूछ लिया “भाई संतोष केश कर्तनालय कहां पर है ?”
लडके फिर हंसने लगे ।
मैनें पूछा “क्‍या हुआ ?”
कहने लगे “अंकल वो देखें वो है ।“
मैं ठेले से सीधे कर्तनालय पहुच गया । अंदर देखकर मैं हतप्रभ हो गया हमारा पी एच डी प्राध्‍यापक हांथ में उस्‍तरा लिये किसी का दाढी बना रहा था । हमें देखते ही दाढी बनाना छोड के हमारे दोनो जूतों को छू कर प्रणाम किया “दाउ पाय लागौं ।“
“थोरिक बैठव मैं हजामत बना लेथव तहां ले आप संग गोठियाहूं ।“
उसके दाढी बनाते तक मैं भाव शून्‍य हो उसे देखते रहा ।
मुझे अपनी ओर अपलक ताकते हुए देखकर वह बोला
”का करबे दाउ पुरखौती धंधा ये करबे नही त सबके हजामत कौन बनाही ।“
”सबके मेछा दाढी तो साधु संत असन बाढ जाही, जउन करही शरम तेखर फूटे करम ।“
हा हा हा कह कर वह हंसने लगा ।
आज तक मेरे स्‍मृति में उसका उस्‍तरा पकडे हुए मुस्‍कुराता चेहरा घूमता है । भंगी मैला ढोना छोड दिये, धोबी कपडा चुरोना छोड दिये । वाह रे नउवा तोर दिन कब फिरही । तुम आदर्श हो समाज के ।

आशंका : डा. परदेशी राम वर्मा की कहानी



नेवरिया ठेठवार के आने के बाद पंचायत प्रारंभ होती है । गांव में ब्राहमण, तेली, कुर्मी सब जाति के लोग हैं । मगर सबसे ज्‍यादा छानही ठेठवारों की है ।
भुरी भंइस के दूध रे भईया, बडे कुआं के पानी,
नफे नफा कमाबो भईया, नइये निच्‍चट हानी ।
अब काछन निकलते समय नेवरिया के लडके उन्‍माद में आकर इस तरह के आधुनिक दोहे भी सुनाते हैं । हर साल दिवाली में सबसे पहले नेवरिया के घर से काछन निकलता है । नेवरिया ठेठवार समाज का राजा है । 200 बकरी और 25 एकड खेत के अतिरिक्‍त 27 भैंसे भी नेवरिया के थान में बंधी दिन भर पगुराती है । हां, रात में जरूर भैंसों की छांद छटक जाती है । साह चराने से नेवरिया को टोकने की जिसने भी कोशिश की है, उसको गांव छोडकर भागते भी नहीं बना है । साह चराना तो नेवरिया हक हो गया है । भैंसे जिधर मुंह उठाकर चल देती हैं, उधर के खेतों को काटने की समस्‍या से मुक्‍त कर देती हैं । भैंसों के मालिक नेवरिया की आसपास के गांवों में धाक है । ऐंठ मुरारी पागा बांधे, हांथ में तेंदूसार की लाठी लिए, बजनी पनही की चर्र चर्र आवाज पर झूमते नेवरिया को देखकर बच्‍चे सहम जाते हैं ।
आज भी नेवरिया का अगोरा है । सब आ गये हैं । लोग जानते हैं कि पंचायत तो प्रारंभ होती है नेवरिया के खखारने के बाद और नेवरिया बियारी करने के बाद पहले एक घंटा तेल लगवाते हैं, उसके बाद ही गुडी के लिए निकलते हैं । जैसे नेवरिया का शरीर मजबूत है, वैसे ही बात भी मजबूती से करते हैं । पंचायत के बीच नेवरिया की बात कभी नहीं कटती । जहां नेवरिया की बात कमजोर होने लगती है, वहां उसकी लाठी चलती है । नेवरिया के पांच लडके हैं जवान सब्‍बर । सबके हांथ में चमत्‍कारी लाठी हमेशा रहती है । खास तेंदूसार की लाठी – ‘तेंदूसार के लकडी भईया सेर – सेर घिव खाय रे ।‘

नेवरिया खखारते हुए पांचों लडकों के साथ आ गए । सब चुप हैं । पीपल के पत्‍ते अलबत्‍ता डोल रहे हैं । एसमें बैठे कौंए मगर चुपचाप हैं, शायद नेवरिया का भय उन्‍हें भी खामोश किए हुए है ।
बीच में नेवरिया बैठे हैं, उनके चारो ओर उनके लडके । लडकों के हांथ में लाठी है । लाठी में सेर - सेर घी पीने की तृप्ति है और तृप्ति के बावजूद किसी के भी सिर जम जाने की बेताबी है ।

नेवरिया के हुक्‍म से पंचायत शुरू हो जाती है । पंचायत हमेशा उनके हुक्‍म से ही शुरू होती है और उनकी हुंकार से खत्‍म होती है । कातिक नाई बीडी लेकर बीच में उनके पास जाता है, कभी वे एक बार बीडी निकाल लेते हैं, कभी कातिक को झिडक देते हैं कि बात कितनी जरूरी चल रही है और तुमको बस फुकुर - फुकुर की सूझी है । डांटना नेवरिया का काम है और डांट पर हंसना पंचों का । जहां तक कातिक नाउ का सवाल है, वह तो अपनी पीठ पर जब तक धौल नही पा लेता, कृतार्थ ही नही होता ।
आत खास नेवरिया के लिए पंचायत बैठी है । नेवरिया के लिए नहीं बल्कि उसके मझले लडके जरहू के ,खिलाफ । यह तो जरहू के लाठी में बंधी पीतल की चकाचौंध का कमाल है कि लोग सात माह से चुप हैं वरना ऐसी गलती अगर दूसरे किसी नें की होती तो उसे बहुत पहले ही मार-मुसेट कर दंडित कर दिया होता । मगर बिल्‍ली के गले में घंटी बांधी होती तो हमारे गांव में भी जरहू को ठिकाने लगा दिया गया होता । ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाई .... जेकर खूंटा मजबूत तेकर गाय । ‘
गलती तो भूरी नें की कि आज उसने पंचायत बुलवा ली । अब दिन भी आखिरी है । पानी में गोबर करोगे तो एक दिन तो उसे ऊलना ही है ।
सबसे पहले पूछा गया कि भई, पंचायत किस कारण से एकत्र की गयी है । कुछ देर की निस्‍तब्‍धता के बाद भूरी नें रूंधे गले से कहा, ‘ ददा हो, मैं बलाय हंव ’ और फफक फफक कर रोने लगी । गुडी चढाकर भूरी अपने को अपमानित महसूस कर रही थी; उस दिन को कोंस रही थी जब वह नेवरिया के लडके के टेन में गोबर बीनने चली गयी थी । बंभरी पेंड के घने जंगल में टेन हांककर नेवरिया के बेटे जरहू नें चोंगी सुलगा लिया । भूरी भी गोबर बीन कर घर जाने के लिए लौटने लगी तभी उसने देखा कि जरहू उसे बडे मनोयोग से देख रहा है । भूरी थी भी गोरी नारी । कपाट अस देहरन की । बडे बडे स्‍वजातीय गोंड आए, राजगोंड आये, मगर भूरी नें इनकार कर दिया । अपने ढाई साल के इकलौते बेटे सुकालू को पोसती हुई अपने स्‍वर्गीय पति लीभू की याद में सब कुछ दुख झेल रही थी । वह भरी जवानी में विधवा हो गयी और चुरपहिरी जात की होने के बावजूद उसने चूरी पहनने से इनकार कर दिया । लोग उसकी इसीलिए इज्‍जत करते थे । छोटी जाति की होकर भी इतनी चारित्रिक दृढता की यह स्‍त्री गांववालों के लिए श्रद्धास्‍पद थी । लीभू को मरे तीन साल हो गए, मगर भूरी नें कहीं भी हांथ लाम नही किया ।
बंभरी बन में अकेली जानकर जरहू नें उसे रोक लिया । भूरी तो सोंच भी नहीं सकती थी कि दिन दहाडे कोई आदमी वैसी अनीयत कर सकता है । मगर जरहू तब आदमी नही, राक्षस बन गया था । उसने भूरी का सब कुछ छीन लिया । रोती हुई भूरी नें तब उसे कहा कि दो दिन पहले ही मुड मिंजाई हुई है, कुछ हो गया तो गोडिंन के साथ ठेठवार की जाति भी बिगड जाएगी । तब मूंछ पर हांथ फेरते हुए जरहू नें कहा था कि देख, मैं सब ठीक कर लूंगा । गांव में कौन है जो हमारे सामने सर उठाकर चले और मुंह खोले, कुछ हो गया तो मैं तुम्‍हें संभाल लूंगा । हां, इसकी चर्चा कहीं मत करना और आज से मैं मरद के बच्‍चे की तरह तुम्‍हारा हाथ पकडता हूं, कोलिहा की तरह नहीं कि रात का हुआ-हुआ और सुरूज के साथ लुडधुंग-लुडधुंग ।
और भूरी मान गयी थी । मानना ही पडता । यह तो जरहू की भलमनसाहत थी कि उसने उसे आश्‍वासन भी दिया । चाहता तो वहीं नरवा में मारकर फेंक सकता था । मगर दिलवाला है जरहू, प्रेमी भी है, ऐसा भूरी नें उस दिन मान लिया था । आज उसी प्रेमी की परीक्षा है । रूंधे स्‍वर में भूरी नें अपने सात माह के पेट में पल रहे बच्‍चे के बाप का नाम लिया, उसने कहा, ‘नेवरिया ददा के मंझला बेटा के ताय ।‘
इतना सुनना था कि नेवरिया उठ खडे हुए । आंखे लाल हो गई । उन्‍होंने ललकार कर कहा, ‘जरहू तो है सिधवा लडका, सच- सच बता, तूने कैसे फांसा उस भकला को ।‘
भूरी भी जानती थी कि पंचायत से सब कुछ कहना जरूरी है । उसने निडर होकर सब बता दिया । उसने यह भी बताया कि जरहू नें उतरवाने के लिए उस पर दबाव डाला । न जाने क्‍या कुछ पिलाया भी । मगर ठेठवार की बीज है नहीं उतरा । अब आप सब कर दो नियाब ।
नेवरिया नें डांटकर चुप कराना चाहा, मगर भूरी नें मुंहतोड जवाब दिया, ‘हांथ पकडने के समय तो गरज रहा था तुम्‍हारा बेटा कि कोई बात नही है । मुडी मींजे हो तो भी संभल लूंगा । अब संभलता क्‍यों नही, मुडगिडा बना बैठा है पंचायत में ।‘
भूरी की बात जरहू के अंतस में बरछी की तरह जा लगी । उसका हाथ लाठी में चला गया, होंठ फडकने लगे । आंखें ललिया गई । किंतु पंचायत तो पंचायत है, उसे चुप रह जाना पडा । अंत में तय हुआ कि गाय की पूंछ पकडकर भूरी को स्‍वीकार करना होगा कि बच्‍चा जरहू के ािथ का ही है । बछिया लाई गयी । भूरी उठ खडी हुई । उपर आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे । भूरी नें सोंचा कि धरती फट जाती तो वह उसमें सीता की तरह जा समाती । मगर धरती फटी नहीं । भूरी को परीक्षा के लिए तैयार होना पडा ।
चारो ओर खामोशी थी । भूरी उठी । उसने साधकर कदम बढाया और ज्‍यों ही वह बछिया के पास पहुंची, नेवरिया खडे हो गए । उन्‍होंने चिल्‍लाकर कहा ‘अधरमिन का क्‍या भरोसा । छोटी जात की औरत का भरोसा भी हम क्‍यों करें । यह जरूर छू देगी बछिया के पूंछी । चलो उठो । हमको नही देखना है यह अधर्म ।‘ लोग उठने लगे । लेकिन कुछ लोगों नें विरोध किया और अंत में बात पंचायत पर छोड दी गई । बहुत दिनों के बाद नेवरिया की पगडी धूल धूसरित होने जा रही थी । गांव में हर व्‍यक्ति की छोटी-छोटी गलतियों के लिए पनही लेकर पंचायत में उठजाने वाले नेवरिया आज स्‍वयं अपराधी बने बैठे थे । अत: पंचायत की बात उन्‍हे माननी पडी । नेवरिया को अंदाज नहीं था कि भीतर ही भीतर गांव में किस तरह बदलाव आ गया है ।
अंत में पंचों नें फैसला सुना दिया कि भूरी को पोसने की जिम्‍मेदारी नेवरिया के मझले बेटे जरहू की होगी ।
पंचायत ख्‍त्‍म हो गयी । भूरी पंचों को आशीष रही थी । लोग भी प्रसन्‍न थे । धर्म की विजय हुई थी, पापी दंडित हुआ था । एक नई शुरूआत हो गयी थी । भूरी अपने आने वाले बच्‍चे के भविष्‍य के प्रति आश्‍वस्‍त हो गयी थी । जरहू के रूप में अब उसके बच्‍चों को बाप मिल गया था । लेकिन बात इतनी सीधी नही थी ।
कुम्‍हारी और गांव के बीच एक खरखरा नरवा है । गांव भर की बरदी वहीं जाती है । बरदी चराने वाले राउत नें एक दिन गांव में आकर बताया कि भूरी नें बंभरी पेड में लटककर फांसी लगा ली है ।
गांव भर के लोग गये । भूरी को बंभरी पेड से उतारा गया । सबने आश्‍चर्यचकित होकर देखा कि भूरी के गले में भेडी रूआं की मजबूत डोरी थी जिसे नेवरिया को बडे मनोयोग से ढेरा पर आंटते हुए, फिर हाथ से बंटते हुए लोगों नें देखा था । देखा था और सराहा था कि नेवरिया के लडके तो भेडी रूआं कतरने में ही माहिर हैं, किंतु डोरी बुनना तो केवल नेवरिया को आता है ।

यह तो नेवरिया की रस्‍सी का कमाल है कि भूरी जैसी दुहरी देह की औरत उससे झूल गयी और रस्‍सी का कुछ नही बिगडा । भूरी की गरदन जरूर टूट गयी । नेवरिया दुखी है तो केवल इसलिए कि लाख समझाने पर भी उसके लडके डोरी बनाने की कला नहीं सीख पाए । नेवरिया आशंकित है कि उसके बाद डोरी के अभाव में न जाने लडकों को किन मुसीबतों का सामना करना पडे ।

सत्‍वधिकार @ परदेशी राम वर्मा

आदिवासी क्रातिवीर कंगला मांझी

कंगला मांझी छत्‍तीसगढ के आदिवासी नेतृत्‍व के उदीयमान नक्षत्र थे । उनका नाम छत्‍तीसगढ के सम्‍माननीय स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानियों के रूप में लिया जाता है । कंगला मांझी एकमात्र ऐसे नेता थे जो तत्‍कालीन सी पी एण्‍ड बरार (मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ व महाराष्‍ट्र) से अंग्रेजों के विरूद्ध लडाई में समाज के असंगठित आदिवासियों को अपने अदभुत संगठन क्षमता से संगठित कर उनके के मन में देश प्रेम का जजबा दिया । बस्‍तर व अन्‍य स्‍थानीय राजगढों, रियासतों के गोंड राजाओं को अंग्रेजों के विरूद्ध खडा किया ।
कंगला मांझी का असली नाम हीरासिंह देव मांझी था । छत्तीसगढ और आदिवासी समाज की विपन्न और अत्यंत कंगाली भरा जीवन देखकर हीरासिंह देव मांझी नें खुद को कंगला घोषित कर दिया । इसलिए वे छत्तीसगढ की आशाओं के केन्द्र में आ गये न केवल आदिवासी समाज उनसे आशा करता था बल्कि पूरा छत्तीसगढ उनकी चमत्कारिक छबि से सम्मोहित था । कंगला मांझी विलक्षण नेता थे ।

कंगला मांझी अपने जवानी के शुरूआती दिनों में सन १९१३ से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुडे एवं एक वर्ष में ही जंगलों से अंग्रेजों द्वारा हो रहे दोहन के विरूद्ध आदिवासियों को खडा कर दिया । १९१४ में बस्तर के अंग्रेज विरोधी गतिविधियों से चिंतित हो अंग्रेज सरकार नें आदिवासियों के आंदोलन को दबाने का प्रयास किया पर कंगला मांझी के अनुरोध पर कांकेर रियासत की तत्‍कालीन राजमाता नें आदिवासियों का साथ दिया अंग्रेजों को पीछे हटना पडा। कंगला मांझी लगातार जंगलों व बीहडों में अपने लोगों के बीच आदिवासियों को संगठित करने में लगे रहे ।

सन १९१४ में उन्‍हें अंग्रेजों के द्वारा गिरफतार कर लिया गया । कंगला मांझी के लिए यह गिरफतारी वरदान सबित हुई, इस अवधि में उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई और वे गांधी जी के अहिंसा नीति के भक्‍त हो गये । १९२० में जेल में गांधी जी से उनकी मुलाकात पुन: हुई और इसी समय बस्तर की रणनीति तय की गयी । महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर कंगला मांझी नें अपने शांति सेना के दम पर आंदोलन चलाया और बस्‍तर के जंगलों में अंग्रेजों को पांव धरने नही दिया। वे मानते थे कि देश के असल शासक गोंड हैं । वे वलिदानी परंपरा के जीवित नक्षत्र बनकर वनवासियों को राह दिखाते रहे ।

१९४७ में देश आजाद हुआ तो उन्होंने पंडित नेंहरू से आर्शिवाद प्राप्‍त कर नये सिरे से आदिवासी संगठन खडा किया इनका संगठन श्री मांझी अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद आदिवासी किसान सैनिक संस्था एवं अखिल भारतीय माता दंतेवाडी समाज समिति के नाम से जाना जाता है ।


कंगला मांझी नें आदिवासियों को नयी पहचांन देने के लिए १९५१ से आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की वर्दी और सज्जा को अपने व अपने संगठन के लिए अपना लिया । सुनने में आश्‍चर्य होता है पर आंकडे बताते हैं कि, सिपाहियों की वर्दी से गर्व महसूस करने वाले कंगला मांझी के दो लाख वर्दीधारी सैनिक थे, वर्दी विहीन सैनिक भी लगभग इतनी ही संख्या में थे । कंगला मांझी आदिवासियों के आदि देव बूढा देव के अनुयायी को अपना सैनिक बनाते थे जबकि लगभग समस्‍त आदिवासी समुदाय बूढा देव के अनुयायी हैं इस कारण उनके सैनिकों की संख्‍या बढती ही गयी, छत्‍तीसगढ के अतिरिक्‍त मघ्‍य प्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, बिहार, झारखंड तक उनके सदस्‍य फैले हुए हैं ।

कंगला मांझी अपने सैनिकों के साथ श्रीमति इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी से भी मिल चुके थे एवं उनसे अपने सैनिकों के लिए प्रसंशा पा चुके थे । वे विकास के लिए उठाये गये हर कदम का समर्थन करते थे। हिंसा का विरोध करते थे । अहिंसक क्रांति के पुरोधा कंगला मांझी के सिपाही सैनिक वर्दी में होते लेकिन रास्ता महात्मा गांधी का ही अपनाते । उनका कहना था हमें मानव समाज की रक्षा के लिए मर मिटना है ।





कंगला मांझी नें समय समय पर आदिवासियों को संगठित करने व अनुशासित रखने के उद्धेश्य से पर्चे छपवा कर आदिवासियों में बटवाया करते थे इन्ही में से एक -

“भारत के गोंडवाना भाईयों, प्राचीन युग से अभी तक हम शक्तिशाली होते हुए भी जंगल खेडे, देहात में बंदरों के माफिक चुपचाप बैठे हैं । भारत के दोस्तों ये भूमि हमारी है फिर भी हम भूमि के गण होते हुए भी चुपचान हांथ बांधे बैठे हैं । आज हमारे हांथ से सोने की चिडिया कैसे उड गयी ।“

“आदिवासी समाज तब उन्नति करेगा जब वह राज्य और देश की उन्नति में भागीदार बनेगा और देश व राज्य तभी समृद्ध बनेगा जब उसका आदिवासी समृद्ध होगा ।“


यह दर्द और घनीभूत हो जाता है जब स्थिति इतने वर्षों बाद भी जस की तस दिखती है । आदिवासियों नें कभी दूसरों का अधिकार नही छीना मगर आदिवासियों पर लगातार चतुर चालाक समाज हमला करता रहा । संस्कृति, जमीन और परंपरा पर हुए हमलों से आहत आदिवासी तनकर खडे भी हुए लेकिन नेतृत्व के अभाव में वहुत देर तक लडाई नही लड सके । प्रतिरोधी शक्तियां साधन सम्पन्न थी । आदिवासी समाज सीधा, सरल और साधनहीन था ।

आज आदिवासी समाज निरंतर आगे बढ रहा है । इस विकास के पीछे कंगला मांझी का संघर्ष है । उन्होनें अपने लंबे जीवन को इस समाज के उत्थान के लिए झोक दिया । आज जबकि आदिवासी हितों की रक्षा के सवाल पर गौर करना अधिक जरूरी है, नकली लडाईयों में आदिवासी समाज को उलझा दिया जाता है ।


छत्तीसगढ का आदिवासी हीरा कंगला मांझी जब तक इनके बीच रहा, नक्सली समस्या छत्तीसगढ में नही आई । कितने दुर्भाग्य की बात है कि उनके अवसान के बाद उनकी परंपरा का भरपूर पोषण नही किया गया और धीरे धीरे नक्सली गतिविधियां पूरे प्रांत में छा गई । समय अब भी है आहत आदिवासियों को उचित महत्व देकर पुन: वह दौर लौटाया जा सकता है और कंगला मांझी के स्‍वप्‍नों को साकार किया जा सकता है, बस्‍तर बाट जोह रहा है अपने सपूत कंगला मांझी का।


प्रतिवर्ष ५ दिसम्बर को डौंडी लोहारा तहसील के गांव बघमार में कंगला मांझी सरकार की स्मृति को नमन करने आदिवासी समाज के अतिरिक्त छत्तीसगढ के स्वाभिमान के लिए चिंतित जन एकत्र होते हैं । जहां राजमाता फुलवादेवी एवं जीवंत आदिवासी सैनिकों को देखकर मन कंगला मांझी के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है । धन्‍य हे मोर छत्‍तीसगढ के सपूत ।


(कंगला मांझी का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय आदिवासी केम्प रणजीत सिंह मार्ग, नई दिल्ली में है ।)

(प्रस्‍तुत लेख छत्‍तीसगढ की साहित्तिक पत्रिका “अगासदिया” के क्रांतिवीर कंगला मांझी विशेषांक में प्रकाशित संपादकीय, अलग अलग लेखों, संस्‍मरणों व आलेखों को पिरोते हुए लिखा गया है द्वारा - संजीव तिवारी)

बिना लोगो मोनो का पेपर नेपकिन

अरे साहब जबरदस्‍ती मिले चारज से हलाकान सुबह सुबह उठ के हम भागे अपने होटल की ओर पर पत्‍नी के नाजुक हाथों से बना नास्‍ता कर के पंचू के पान का रस ना ले लें हमें चैन नही आता । पर आज तो पंचू के पांन ठेले में एक बहस चल रही है “किसने किसको क्‍या कहा ? “ हम भी पान के पिचकारी मारते हुए सब के बातों को रस ले ले कर सुननें लगे । कोई गजाधर भईया के स्‍टाईल में कह रहा था “देखे थे ना शरफरोस फिलिम में ! कईसन बडा लंबा पकड है भाई लोगन का हां ।“ कोई कह रहा था “भाई लोगों से पंगा लिया है पानी बूडे नई बचायेंगे ।“ कोई कहता “भाई इंडिया आने वाले हैं देखना सब की गिन गिन कर धुलाई करेंगें क्‍योंकि रिन शक्ति अब बन गया है सर्प एक्‍सल बार ।“

हमने सोंचा अब ज्‍यादा देर यहां रूकनें से कोई मतलब नही है क्‍योंकि हमने भी अमूल मांचो का चडढी पहिर रखा है कउनो कूकूर वाले बाई आ गईन तो चडडी उतरते देर ना लगिहैं । और रगड रगड के धुलाई चालू हो जाई ।

बंबईया भाई लोगन के स्‍टाईल में स्‍टड के खोपडिया तान के अपने खटखटिया बाईक में किक दे गेयर जमाई दिये और बडे शान से पिपियाते स्‍टील सिटी के चौडी सडकों में बाईक लहराने लगे क्‍योंकि जब से बंबईया भाई लोगन के फटफटी सवारी और बढी दाढी को देखा है मन में नया उत्‍साह उमड पडा है । नहीं तो अपनी खटखटिया बाईक और कूलर के बारे में कुछ भी कहते ना जाने ससुरी शरम कहां से आ ही जाती थी । पर अब हिम्‍मत बनाये भईया हिम्‍मत सिंग । अब तो एक इच्‍छा अउर रहि गैहैं अपने खटखटिया संग हमार बढिया फोटो ब्‍लाग में लगाये के । सोंचते सोंचते हम आगे बढने लगे ।

फटफटिया धुआ उडात रहै कि मोबाईलवा कें कें करने लगा । रस्‍ते में फोन आ गया रसूख भाई पेपर नेपकिन वाले का, बोला साहिब साबुन में आपका लोगो चटकाई दिया हूं थ्री स्‍टार डीलक्‍स को बडका छापा हूं अउर पेपर टायलेट रोल नेपकिन कल दे पाउंगा । सबै उत्‍साह पान के पीक जैसे धरती पर ।

आज हम अपने वेज होटल में संजीत भाई के ब्‍लागर मीट जइसे मीट का क्रियाकरम रखे हैं बीस पच्‍चीस ब्‍लागर लोगन के आने की संभावना है सब को नेउत आयें हैं और पेपर नेपकिन नही है । किसमें पोंछेंगे मूं हाथ, दस बारा ब्‍लागपरी भी आने वाली हैं किसमें छापा देंगी अपने लिपिस्टिक का ।

हम अपने वेटरी के जमाने में बम्‍बई के माई दरवाजा तीर खडे ताज होटल में साहब लोगन को पेपर नेपकिन का परयोग करते देख हूं ये पेपर नेपकिन जूठन को साफ करने के काम आती है बिचारी खुद फट के हमारा अंग साफ कर देती है पर कई साहब लोगन को दूसरे मैडमों के होंटो के छापा वाले नेपकिनों को बडे जतन से घिरिया के पर्स में रखते भी देखा हूं तब से आज तक अरे हां वेटर से मैनेजरी तक पेपर नेपकिन और टायलेट रोल के महत्‍व को गठरी बांध के सीखा हूं पेपर नेपकिन के नाम पर कोई समझौता नहीं।
रसूख भाई पेपर नेपकिन वाले को वापस फोन लगाया “रसूख भाई पेपर नेपकिन तो आज ही चाहिए, चाहे जैसे भी हो ।“ रसूख नें कहा “साहिब बिना लोगो मोनो के भेज दिया हूं ।“ मैने राहत की सांस ली । अच्‍छा हुआ पेपर नेपकिन बिना लोगो मोनो का है, नही तो ब्‍लागर मीट में किसी का लोगो किसी के और किसी का मोनो किसी के होंटो में टकरा जाता और छुद्र वस्‍तु के लिए ज्ञानियों में विवाद गहरा जाता ।

प्रथम मानसून की बूदों में अदभुत रोगनिवारक शक्तियां : पंकज अव‍धिया

पंकज अवधिया जी भारत के जाने माने कृषि वैज्ञानिक हैं, इन्‍होंनें छत्‍तीसगढ के पारंपरिक रोग उपचार पद्धति एवं औषधीय पौंधों के क्षेत्र में उल्‍लेखनीय कार्य किया है । अवधिया जी छत्‍तीसगढ के धरोहर हैं, इनके कई शोध प्रबंध देश व विदेशों में मानक के रूप में स्‍थापित हैं । इन्‍होंने प्रथम मानसून की बूंदों में रोग निवारक क्षमता के संबंध में भी शोध किया है जिसमें इन्‍होंने पाया है कि वर्षा की पहली बूंदें कैंसर जैसे रोग को भी खत्‍म करने की क्षमता रखती हैं । अपने अंग्रेजी चिटठे में पंकज अवधिया जी नें इसके छत्‍तीसगढ में हो रहे पारंपरिक प्रयोगों पर लिखा है पढें :

Healing power of the first monsoon rain
http://southasia. oneworld. net/article/ view/114063/ 1/

Traditional Medicinal Knowledge about First Rain Water collected from different species and its uses in Indian state Chhattisgarh
http://ecoport. org/ep?SearchTyp e=interactiveTab leView&itableId= 2481

डा परदेशीराम वर्मा की कहानी “ विसर्जन ”


हिन्दी और छत्तीसगढी में समान रूप से लिखकर पहचान बनाने वाले चुनिंदा साहित्यकारों में से एक कथाकार डा परदेशीराम वर्मा नें कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, निबंध, शोध प्रबंध आदि सभी विधओं में पर्याप्त लेखन किया है । भारतीय साहित्य जगत उन्हे एक कथाकार के रूप में पहचानता है । उनकी कृति औरत खेत नही कथा संग्रह को अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा मदारिया सम्मान प्राप्त हुआ । तीन हिन्दी एक छत्तीसगढी कहानी पुरस्कृत हुई है । जीवनी आरूग फूल को मघ्य प्रदेश साहित्य परिषद का सप्रे सम्मान मिला । उपन्यास प्रस्थान को महन्त अस्मिता पुरस्कार प्राप्त हुआ । छत्तीसगढी उपन्यास आवा रविशंकर विश्वविद्वालय के एम ए हिन्दी के पाठयक्रम में सम्मिलित हुआ । पढिये उनके चर्चित कथासंग्रह औरत खेत नही की एक कहानी जिसे कादंबिनी द्वारा पुरस्कृत किया गया है ।

“ विसर्जन ”

बकरी चराने वाले लडको के लिए यह इलाका एकदम निरापद था । इस पूरे क्षेत्र में बकरी पालन का व्यवसाय इसीलिए तो फूल फल रहा था । चारों ओर जंगल, पास में छोटी छोटी पहाडियां । पहाडियों के बीच छोटे छोटे मैदान । मैदान और पहाडियों से सटकर बहती छोटी सी नदी और नदी के उपरी कछार पर बन गए टीले के उपर स्थ्ति एक नामी गांव ढाबा । ढाबा का मतलब होता है भंडार । मगर यह ढाबा नाम का कोई एक ही गांव नहीं है इस क्षेत्र में । ढाबा नाम के तीन और गांव है, अत: पहचान के लिए हर ढाबा के साथ कोई विशेषण जोड दिया जाता है । मैं जिस ढाबा का जिक्र कर रहा हूँ उसे इस क्षेत्र में बोकरा ढाबा के नाम से जाना जाता है । बकरी पालन का व्‍यवसाय खूब फूला फला, इसीलिए होते होते इसका नाम बोकरा ढाबा प्रचलित हो गया ।
छत्‍तीसगढी में बकरे को बोकरा ही कहते हैं । घर धर तो यहां बकरे पलते हैं । सुबह हुई नहीं कि घरों से बकरों के दलों के साथ छोकरे निकल पडते हैं अपने निरापद चरागाह की ओर । इस चरागाह का नाम भी बोकरा डोंगरी है । अब तो गीतों में भी इस डोंगरी का नाम आने लगा है । छत्‍तीसगढ में एक लोकगीत भी प्रचलित है
“चलो जाबो रे
बोकरा चराय बर जी
बोकरा डोंगरी खार मन ।“
अर्थात चलो साथियों, बोकरा डोंगरी में चले अपने अपने बकरे चराने के लिए आगे वर्णन आता है कि डोंगरी में घास बहुत है । पेडों की छाया है । पास में बहती है नदी ।
यह बात भी सोची जा सकती है कि गांव का नाम “बोकरा ढाबा” ही क्‍यों पडा । आखिर इस रूप में गांव की पहचान क्‍यों बनी ?
हुआ यूं कि काशीराम यादव रोज की तरह अपनी बकरियां भेडे लेकर पांच बरस पहले एक दिन बडे फजर निकला डोंगरी की ओर । साथ में उसका पंद्रह बरस का पडका हीरा भी था । हीरा तालापार के स्‍कूल में आठवीं तक पढकर निठल्‍ला बैठ गया था । उसके घ्‍र में पूंजी के रूप में मात्र तीस बकरियां और भेडे थीं । बाप बकरी चराकर उसे आठवीं तक ही पढा पाया । स्‍कूल तो इस क्षेत्र में दस मील दूर एक ही गांव थ । नदी उस पार तालापार में नदी पार कर वह स्‍कूल जाता था । ढाबा से सिर्फ दो लडके अब तक आठवीं पास कर सके हैं । एक यह हीरा, दूसरा समारू । दोनों के बाप बकरी चराते थे । दोनों आठवीं पास करने के बाद खाली बैठ गये । नकरी लगती तब कुछ और पढ लेते । घर की हालत इतनी अच्‍छी नहीं कि उनके बाप को शहर भेजकर उन्‍हें आगे पढा पाते । इसीलिए वे भी अपने बाप के साथ चल निकलते डोंगरी की ओर ।
उस दिन कांशीराम के साथ हीरा भी जा रहा था । आगे आगे बकरियां चर रही थी बकरियों के गले में टूनुन टुनुन बजती घंटियां । कुछ बडी बकरियों के गले में छोलछोला । एक दो गाऍं भी थीं । बहुत हरहरी थीं और भागती बहुत थी, इसीलिए उनके पावों में काशी ने लकडी का गोडार बांध दिया था । सब जानवर आगे आगे जा रहे थे । अभी मैदान आया ही चाहता था कि दो मोटरसाइकिलों से लंबी लंबी मूँछोवाले चार लोग उतरकर खडे हो गए । उनके हाथें में लाठियां थीं एक के हाथ में चिडियां मारने की बंदूक भी थी । काशी को रोकरकर एक लम्‍बे से आदमी ने कहा, “रूक बे बोकरा खेदा” । काशी को उसका यह कथन बुरा तो लगा, मगर वह जान गया कि या तो ये जंगल विभाग के आदमी हैं या पुलिस के या पास के कस्‍बे के दारू के ठेकेदार के बंदे । हीरा के साथ सहमते हुए काशी उन्‍हें सलाम कर खडा हो गया ।

उनमें से एक नौजवान ने कहा, “भाई मियां, क्‍या आदमी का शिकार करना है चिडिया तो साली कोई मरी नहीं ।“

मूँछ वाले ने उसकी बात का मजा लेते हुए कहा, “यार तुम भी हो अकल के दुश्‍मन । अरे भाई, आदमी तो यहां कोई रहता नहीं । बकरी चराते हैं सब साले । सभी जानवर की तरह हैं । तुम भी यार चश्‍मा लगाओं आंखों में । यह लंडूरा तुम्‍हें आदमी दिखता है क्‍या ?“
कहते हुए उसने काशी के हाथ की बॉंसुरी छीन ली । हीरा ने अचानक चिल्‍लाकर कहा, “बांसुरी क्‍यों छीनते हैं ? हमने क्‍या बिगाडा है तुम्‍हारा ?“ मुछियल ने एक लात हीरा के कूल्‍हे पर जमाते हुए कहा, “तुम क्‍या बिगाडोगे साले ? बिगाडने के लिए चाहिए दम ! अब जो भी बिगाडना होगा हम बिगाडेंगे ।“
हीरा मार खाकर जमीन पर गिर गया । उसके मुंह से खून आने लगा । काशी दौड पडा बेटे को उठाने के लिए । तब तक चारों में से सबसे तगडे लगने वाले व्‍यक्ति ने हुकुम दे दिया । “उठा लो साले के दो बकरे । लोंडा तो लात खाकर सुधर ही गया । चलो डालो रवानगी ।“
बकरों को जब उन्‍होंने कंधों पर लादा तो बाप बेटे उनके पीछे दोड पडे । बकरे “मैं मैं” कर अपने चरवाहे मालिकों से आर्तनाद कर छुडा लेने का आग्रह करते रह गए । बाप बेटे को दौडते देखा तो उन लोगों ने कुछ छरें भी बंदूक से चला दिए । काशी के पांव में छर्रा जा लगा । वह बांवला हाे गया । उसने उठाकर एक पत्‍थर पीछे वाले के पीठ पर दे मारा । पत्‍थर लगते ही पह तिलमिलाकर रूक गया । चारों वहीं मोटर साइकिल रोककर खडे हो गए । उनमें से एक आदमी ने सबको रूक जाने को कहा और अकेला ही लहकते हुए आगे बढा । उसने एक लम्‍बा सा चाकू निकाला और एक झटके में काशी के पेट में पूरा घुसा दिया । हीरा बाप से लिपटकर रोने लगा । तब तक और चरवाहे भी आने लगे । हत्‍यारे बकरों को लादकर भाग गए । उसी रात हीरा के सिर से बाप का साया हट गया ।
“बोकरा ढाबा” में हुई यह पहली हत्‍या थी । चारों तरफ शोर उड गया कि काशी यादव दिन दहाडे मार दिया गया । आसपास के गांवों में बात फैल गई । लोग कुछ दिन तो बोकरा डोंगरी की ओर बकरों के साथ नहीं आए, फिर सब भूल भाल गए ।
अब हीरा ही घर का सयाना हो गया । अपनी विधवा मॉं और छोटे भाई बसंत का पालनहार । वह बकरियां चराता और घर का भार उठाता । साल भर बाद हीरा के गांव में एक दिन मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली दुर्गंध भर गई । लोग ओक ओक करने लगे । सयानों ने बताया कि नदी के किनारे पर यहां से दस कोस की दूरी पर एक शराब का कारखाना खुला है । उसमें शराब बननी शुरू हो गयी है । तब हीरा को पता चला कि यह जो मरे हुए जानवर के शरीर से उठनेवाली गंध से भी बदबूदार गंध गांव में घुसी है, वह है क्‍या आखिर । फिर धीरे धीरे एक और मुसीबत आने लगी । नदी का पानी भी दूषीत होने लगा । बहकर जो चमचम चममच पानी आ रहा था वह कुछ कुछ ललहू हो जाता था, मटमैला । उसका स्‍वाद भी कुछ कसैला होने लगा । बकरियां वह पानी पीकर बीमार होने लगी । कुछ मर भी गई । आसपास के गांव वाले परेशान होने लगे । बोकरा डोंगरी में हलचल कम हो गई । लडके वहां डंडा पचरंगा खेलते, कबडडी खुडवा जमाते थे । मगर अब घुम घामकर ही आ जाते । डोंगरी में लगे जंगली पेडों के पत्‍ते भी झडने लगे । त्राहि त्राहि मचने लगी । गांववाले अधमरे हो गए । उन्‍हें कुछ भी न सूझता ।

एक दिन हीरा ने देखा, एक जीप में चार पांच लोग गांव में आए । उनमें वही मुछियल तडंगा जवान भी था जिसके छूरे से उसके बाप की जान गई थी । जीप बीच गांव में रूकी । उस जीप से एक अफसरनुमा व्‍यक्ति उतरा । अफसर ने कहा, “पास में हमारा कारखाना है । वहां हम आपके गांव के लोगों को नौकरी देंगे । ये हमारे सुरक्षा अधिकारी हैं । आप जाकर इनसे गेट पर मिलिए । ये आपको भीतर भेज देंगे ।“ इतना कहकर मुछियल को साथ लेकर अफसर जीप में बैठने लगा । हीरा में जीप के आगे जाकर कहा, “रूकिए साहब ।“
“क्‍या बात है भाई ।“ अफसर ने कहा ।
“मैं हूँ हीरा ।“
”तुम भी आ जाना ।“
”मेरे बाप का नाम काशी । “
“उन्‍हें भी लेते आना ।“
”वो अब नहीं हैं साहब ।“
”ओ हो, मुझे दुख है ।“

“दुख नहीं साहब, आपको काहे का दुख । जो लोगों की जान लेता, वह तो आपका सुरक्ष अधिकारी है । दुख काहे का ? जो मारे जान, उसे तो आप सिर पर चढाए घुम रहे हैं ।“
अफसर अब जीप से उतर गया । मुछियल भी सर नवाए जमीन पर आ खडा हुआ ।

गांव के लोग भी जमीन पर आ खडे हुए । हीरा से सभी बातें सुनकर अफसर ने कहा, “भाई हीरा, तुम हो हिम्‍मती नौजवान । हम तुमसे खुश हैं । हम तुम्‍हें अच्‍छी नौकरी देंगे । बाप तो अब है नहीं । जो हुआ सो हुआ । अब आगे की सोचो । गुस्‍से में काम नहीं बनता ।”

हीरा ने कहा, “साहब समय से सम्‍हलना जरूरी है । मुझे वह दिन भूलता नहीं जब इस आदमी ने
छूरे से मेरे बाप को मार गिराया था, इसलिए बाप की लाश कंधे से उतरती नहींं है । मुझे लगता है कि धीरे धीरे पूरा छत्‍तीसगढ उसी तरह जमीन पर गिरकर तडपेगा, जैसे मेरा बाप तडपा था । और उसकी लाश पर आप लोग एक के बाद एक कारखाने लगाकर मुंह में मिश्री घे।लते हुए कहेंगे कि पीछे की भूलो और आगे बढो । साहब, हम लोग मूरख तो हैं, मगर अंधे नहीं । देख रहे हैं सारा खेल । ऑंखें हमारी देखने भी लगी हैं साहब । लेकिन आप लोग ऑंखों में टोपा बांध रखे हैं ।“
अब साहब उखड गए । उन्‍होंने कहा, “लडके, देख रहा हूँ कि बहुत चढ गए हो । बाप की गति देखकर भी सुधार नहीं हुआ है । ऐंठते ही जा रहे हो । फूँक देंगे तो सारा इलाका उजड जाएगा ।“
अफसर अभी बात कर ही रहा था कि मुछियल ने निकाल दिया तेंदूसार की लाठी का । धाड की
आवाज हुई और चाकू दूर जा गिरा । मुछियल का हाथ टूटकर झूल गया थ । तब तक अफसर ने अपना पिस्‍तौल निकाल लिया था, मगर उसने देखा कि सैकडों नौजवान लाठियों से लैस होकर उसकी ओर “मारो मारो” कहते हुए बढ रहे हैं ।
मुछियल को जीप में बैठाकर अफसर वहॉं से भागने लगा । हीरा ने झट दौडाकर गिरा हुआ चाकू उठा लिया । खुली हुई ज ीप थीं । सारे बोकरा ढाबा की बकरियॉं इधर उधर बगरकर चर रही
थी । गांव के लोग तो यहीं उलझे खडे थे गांव टीले पर है इसलिए जीप नीचे की ओर सर्र से भाग रही थी । हीरा को पता नहीं क्‍या हुआ कि उसने उठाकर चाकू जीप की ओर फेंक दी ।

चाकू लगा ठीक डाइवर के सिर पर । डाइवर का संतुलन बिगड गया । गाडी उलट पलट हो गई और देखते ही देखते सवारों के साथ गहरी नदी में जा गिरी । नदी के जल में शराब का मैल घुला हुआ था । अचेत सवार जल के भीतर समाते चले गए ।

डा. परदेशीराम वर्मा

छत्‍तीसगढ को हिन्‍दीभाषी राज्‍य घोषित करने का दुराग्रह क्‍यों ?

राज्‍य सरकार संविधान के अनुच्‍छेद 345 के अंतर्गत छत्‍तीसगढी भाषा को राजभाषा के रूप में शासकीय मान्‍यता प्रदान कर सकती है । फिर भी इसे हिन्‍दीभाषी राज्‍य घोषित करने का दुराग्रह क्‍यो ? पढिये दैनिक भास्‍कर में आज प्रकाशित स्‍वतंत्र पत्रकार श्री न्रदकिशोर शुक्‍ल की व्‍य‍था कथा जो हम सब छत्‍तीसगढियों को जानना आवश्‍यक है ।
कल रविवार को राजनांदगांव के सुरगी में संध्‍या 6 बजे राजभाषा छत्‍तीसगढी के लिए साहित्‍यकार व दिग्‍गज जुट रहे हैं ! आज सुबह हमारी प्रसिद्ध छत्‍तीसगढी साहित्‍यकार डा परदेशीराम वर्मा जी से हुई चर्चा में हमने रायपुर के हमारे व्‍लागर भाई संजीत त्रिपाठी जी के प्रश्‍न को भी उठाया था तो डा परदेशीराम वर्मा जी नें हमें आश्‍वासन दिया कि कल के इस आगाज में संजीत त्रिपाठी जी के बात को भी जनता के सामने रखा जायेगा । आगामी 19 जुलाई को डा खूबचंद बघेल के जयंती के अवसर पर हमारी भाषा के लिए एक महारैली रायपुर में आयोजित की जानी है । अब आगे जो भी हो अंजाम . . . निज भाषा सम्‍मान में हमारी लडाई जारी रहेगी ।

दीपाक्षर सम्‍मान समारोह ९ जून को बिलासपुर में

दीपाक्षर साहित्‍य समिति दुर्ग भिलाई के तत्‍वाधान में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला दीपाक्षर सम्‍मान समारोह इस वर्ष बिलासपुर में ९ जून को संपन्‍न होगा। छत्‍तीसगढ के सैकडो साहित्‍यकार इसमें शिरकत करेंगे।

कार्यक्रम दो सत्रों में होगा। प्रथम सत्र उदघाटन एवं सम्‍मान का होगा जिसमें छत्‍तीसगढ के सतत सृजन धर्मी दो साहित्‍यकारों को दीपाक्षर सम्‍मान २००७ से सम्‍मानित किया जावेगा। सम्‍मान के लिए चयनित साहित्‍यकार शिव शंकर पटनायक चर्चित उपन्‍यासकार, पिथौरा, जिला चांपा जांजगीर तथा डॉ संतरात साहू चर्चित साहित्‍यकार, भाठापारा, जिला रायपुर है।

द्वितीय सत्र में साहित्यिक परिचर्चा होगी जिसमें छत्तीसगढी साहित्‍य लेखक और पाठक का अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध विषय पर साहित्‍यकार अपने विचार रखेगे। इसी सत्र में पुष्‍कर सिंह राजा ग्राम झलमला (बालोद) की दो किताब, प्रयास प्रकाशन बिलासपुर द्वारा प्रकाशि‍त कृतियों क्रमशः पहला मेरे देश के दीमक हिन्‍दी काव्‍य संकलन एवं दूसरा हमर सुनइया कौन हे (छत्‍तीसगढी) काव्‍य संकलन का विमोचन किया जावेगा।

प्रसिद्ध विद्वान एवं भाषाविद् डा विनय कुमार पाठक संरक्षक दीपाक्षर साहित्‍य समिति, दुर्ग भिलाई के निर्देशन में आयोजित होने वाले दीपाक्षर सम्‍मान समारोह के समस्‍त कार्यक्रमों का संचालन समिति के अध्‍यक्ष दादूलाल जोशी फरहद करेंगे।

शिव शंकर पटनायक जी, डॉ संतरात साहू जी व पुष्‍कर सिंह राज जी की कृतियो के संबंध मे भी पूरी जानकारी हम शीघ्र ही आपके सामने प्रस्तुत करेंगे ।


मै इस कार्यक्रम मे अपनी निजी व्यस्तता के कारण उपस्थित नही हो पाउंगा यदि मेरे कोइ छत्तीसगढिया भाइ इस अवसर पर उपस्थित हो रहे होंगे तो हमे विवरण देने की कृपा करेंगे ।

1857 का स्वतंत्रता संग्राम या 1857 का गदर

दो दिन पहले प्रगतिशील वसुधा के सम्पादक प्रगतिशील लेखक संघ के राष्‍ट्रीय महासचिव प्रो. कमला प्रसाद के “१८५७ की क्रांति और आज के प्रश्‍न” विषय पर व्‍याख्‍यान को सुनने गया उन्होने १८५७ की क्रांति के १५० वर्ष पूरे होने पर अपने रोचक व सारगर्भित व्‍याख्‍यान मे जो कुछ कहा उसमे से कुछ बाते देर तक दिमाग मे गूंजती रही ।

"१८५७ की क्रांति की जितनी चर्चा हो रही है, इतनी सजग चर्चा १९५७ को १०० वर्ष पूरे होने पर भी नहीं हुई ।"

"१८५७ की क्रांति से संबंधित पृथक पृथक मत आज भी बने हुए हैं कोई मानते हैं यह एक धर्म युद्ध था कुछ कहते हैं यह सामंती सभ्‍यता और अंग्रेजी सभ्‍यता के बीच का युद्ध था ।"

" . . . . . . कार्लमार्क ने इसे जनविद्रोह का नाम दिया । "

" . . . . . . . . . . . गदर !"

हमे संविधान पढाने वाले हमारे एक प्राध्यापक आदरणीय कनक तिवारी जी जो हिदायत्तुल्ला राष्ट्रीय विधि महाविद्यालय मे विजिटिंग प्रोफ़ेशर है कहा करते थे कि कालमार्क्स के ईसी कथन को अंग्रेजो ने गदर निरुपित कर दिया था । इतिहास को शब्द रूप मे लिखने वाले अंग्रेज ही थे जिंहोने भारतीय एकता को चिढाने के लिये हमारे स्वतत्रता संग्राम को " १८५७ का गदर" नाम दिया "गदर" हम पर थोपा गया शब्द है । भारत मे जब तक अंग्रेजो के लिखे स्कूली पुस्तको का हिंदी अनुवाद चलता रहा तब तक के पुस्तको में इसे " १८५७ का गदर" ही कहा गया । जबकि गदर एक असंगठित एवं निरुद्देश्य आपराधिक मार काट को कहा जाता है । वो अपने तर्को मे कहां तक सहीं है, मै आज तक समझ नही पाया पर जब जब १८५७ के स्वतत्रता संग्राम को "गदर" कहा जाता है दिल को एक चोट पहुंचती है ।

छत्तीसगढ मे इसी मार्क्स के अनुयायी आज नंगा नाच रहे है और जन विद्रोह का कुत्सित प्रयाश करते हुए पवित्र शब्द क्रांति को भुना रहे है । कभी हम भी कवि गदर के गीतो मे ढपली बजाते थे पर अब हमारे प्रदेश की वर्तमान परिस्थितियो मे हमे घृणा होती है उन स्वर लहरियो से जिसे हम क्रांति के गीत कहते थे ।

छत्तीसगढी के लिए एकजुट आंदोलन का संकल्प

राजभाषा मंच के तत्वाधान में अगासदिया नें छत्तीसगढी और छत्तीसगढीया वैचारिक संगोष्ठी का आयोजन छत्तीसगढ के लौह नगरी भिलाई मे किया । इस गोष्ठी मे छत्तीसगढ मे निवास कर रहे सभी छत्तीसगढियो को भाषा की अस्मिता के लिये एकजुट होकर आंदोलन करने का संकल्प लेने को प्रेरित किया गया ।

कूर्मि भवन सेक्टर ७ में आयोजित इस संगोष्ठी के अध्यक्ष विधायक भूपेश बघेल नें अपने उद्बोधन मे कहा कि छत्तीसगढी भाषा को स्थापित करने के लिये केवल कोई एक क्षेत्र विशेष के लोग ही नही बल्कि सभी लोग जो इस धरती से जुडे है हमारी भाषा के संधर्ष में साथ साथ हैं । भाषा सब की जरूरत है और यह स्वाभिमान से जुडी लडाई है ।

इस अवसर पर पधारे संत कवि पवन दीवान ने कहा कि यहां चुनाव के समय छत्तीसगढी में वोट मांगा जाता है उसके बाद उस भाषा को भुला दिया जाता है । आज विकाश के इस दौर मे छत्तीसगढी ब्यापार और व्यवहार की भाषा बनते जा रही है। छत्तीसगढी मे बोल गोठिया के प्रशासनिक व व्यावसायिक कार्य हो रहे है पर छत्तीसगढीयों को उसकी भाषा नही दी जा रही है, बिना भाषा के कोई प्रदेश पूरा नही माना जा सकता है , छत्तीसगढी को सम्मान से पुरखों के सपने पूरे होंगे ।

प्रमुख वक्ता अशोक सिंघई नें अपने सरस वक्तव्य मे कहा कि भाषा जोडती है तोडती नहीं उंहोने हिन्दी लेखक पदुमलाल पन्नालाल बख्शी का उदाहरण देते हुए कहा कि बख्शी जी वंदनीय छत्तीसगढिया हैं । उंहोने छत्तीसगढी भाषा की एक रूपता के सबंध मे भी तथ्यात्मक सवाल उठाये छत्तीसगढ मे ही अलग अलग स्थानो पर अलग अलग प्रकार से बोली जाने वाली छत्तीसगढी भाषा की एकरुपता और मानक छत्तीसगढी की आवश्यकता पर प्रकाश डाला । उंहोने आगे कहा कि कौन छत्तीसगढिया है यह सोंचना छोड छत्तीसगढ के लिए कौन इमानदार है, यह सोचते हुए सबकी समझ में आने वाली भाषा की महत्ता को बढाने मे एकजुटता लाने को कहा ।

अंय वक्ताओं ने भी अपने अपने उदगार व्यक्त किये, भाषा की इस लडाई में चिकित्सा क्षेत्र से जुडे लोगों के प्रतिनिधि डा निर्वाण तिवारी नें कहा कि इस लडाई को सभी मिलकर लडेंगें, अभियंता और अधिकारी वर्ग का प्रतिनिधित्व कौशल वर्मा नें किया । कवि रवि श्रीवास्तव नें छत्तीसगढी की झूठी कसम खाने वालों को आडे हांथ लिया । राजनांदगांव के समाजसेवी गजेंद्र झा नें कहा कि कांग्रेस और भाजपा नें भाषा पर कोई ठोस निर्णय नही लिया है । इसकी लडाई के लिए हिम्मत से खडा होना है । मिथला खिचरिया नें कहा कि छत्तीसगढी सरल और अर्थपूर्ण भाषा है । हिन्दी एवं अंग्रेजी जाने लेकिन मातृ भाषा छत्तीसगढी की शक्ति और महत्ता पहचानें । डा नरेश कुमार वर्मा नें कहा कि छत्तीसगढी बडी भाषा है । इस भाषा की उपेक्षा सबके लिए अपमान की बात है ।

कुल मिला कर पूरे गोष्ठी के अंतराल मे वातावरण छत्तीसगढी मय रहा सबके मन मे हिलोरे मारती भाषा का प्यार स्पष्ट नजर आया । यही प्यार और संकल्प यदि चिरंतन रहे तो बिना राजनैतिक प्रतिठा के भी हमारी भाषा लोगो के दिलो मे प्रतिस्ठा पा सकती है ।

भाषा को स्थापित करने के इस संधर्ष के आगामी कार्यक्रमों में १० जून को ग्राम सुरगी, राजनांदगांव एवं १९ जुलाई डा खूबचंद बघेल के जन्म दिन पर जलसा करने का निर्णय लिया गया । यदि येसे ही प्रयाश निरंतर होते रहे तो वो दिन दूर नही है जब ३० मार्च २००२ को छत्तीसगढ विधानसभा में छत्तीसगढी भाषा को राजभाषा घोषित करने के अशासकीय संकल्प शासकीय संकल्प के रूप मे फ़लित हो सकेगा । धंयवाद भिलाई बिरादरी ।

परीक्षण . . . निरीक्षण 123

मदनांतक शूलपाणि

शिव आप मद रूपी मदन को भस्म करने वाले हो आपके हाथो मे सजा देने के लिये दिव्य शूल है मुझे आपके रूप का एहसास है . . .

करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा .
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधं .
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व .
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ..


हे शिव ¡ मुझे प्रत्येक व्यक्ति के भावनाओ का आदर करने और विनम्रता धारण करने की शक्ति दे ¡

कोई नया अरेन्जमेंट मार्केट में आयेगा तो बताइयेगा . .

रात में आफिस से आकर कम्प्यूटर में खटर पटर करते देख एक हिन्दी ब्लागर की पत्नी फिर चिल्लाई, “अभी भी नशा नही उतरा है आपका ! रोज सुबह वादा करते हो रात को भूल जाते हो . . . . !” बाकी शव्द कूलर के घरघराहट में दब गये ।

ब्लागर का लिखना जारी था, हांथ को विराम दे सोंचने लगा, नशा तो मैं करता नहीं और . . . कुछ भी तो नही भूलता रात में, सब याद रहता है महिलाओं की लगभग सभी पत्रिकाओं का पाठक हूं सभी पत्रिकाये में पतिवत व्यवहार की जो शिक्षा मिलती हैं उसे रट रखा हूं फिर ये क्या ? खटर पटर बंद कर के गंभीर चिंतन की मुद्रा में राजा दशरथ की भंति ब्लागर, पत्नी के पास बैठ गया पूछा “क्यों भागवान क्या हुआ ?“

“ क्या हुआ आपने कहा था ना कि आज से ब्लागिंग बंद न पढना न लिखना ! “
ब्लागर के जान में जान वापस आया, “अच्छा तो ये बात है ।“
अनुप तो कुछ और समझ बैठे थे और ना जाने दो क्षण में ही क्या क्या विचार मन में घुमडने लगे थे, एकता कपूर की पति पत्नी संबंधों का उन्मुक्त सिद्धांत याद आने लगा था । “उफ”

ब्लागर की पत्नी नें रौद्रमुखी स्वरूप में कहा “पिछले दिनों से नक्सलियों के मेलों से परेशान फिर रहे थे उससे मुक्त हुए तो ब्लागर स्पाम भाई से पंगा ले लिये, देखों अभी तो भाई नें अपना पावर दिखा दिया, ज्यादा टें टें करोगे तो आपके ब्लाग मे टिपिया के बता दूगी कि मेरे धर्म पति को कुछ आता जाता है नही, कूडा करकट से खोज खोज के कुछ लिखते है लिखते क्या है हिन्दी मे टाईप करते है और हिन्दी हिन्दी कहते फिरते है, न व्याकरण का पता न बरतने का छत्तीसगढीया अढहा भाषा का पैबन्द लगा लगा के हिन्दी को उन्नत क्या खाक करेन्गे ! एसे मे हिन्दी उन्नत होई तो सबै हिन्दी टाईपिस्ट के सम्मान समरोह आयोजित करवा लेव, एक पचास रुप्पटटी के साल जिसमे जाड भी न भाग सकै और एक नरियल देके !”
“चुपचाप ब्लांगिंग वागिंग बंद करो ! दूसर कउनो काम करो।“

ब्लागर ने कहा “अरी चुप रे भागवान कही अर्जुन वाले किशन जी सुन लेगे तो मुझे संञा सर्वनाम वाली संस्था की सदस्यता नही मिल पायेगी, ब्लागर भईया लोगन तो मेरे भोले बाबा है बेलपतिया मे मना लूंगा पर संस्था की सदस्यता नई मिल पायी तो फोटू देख देख कर हिन्दी के सेवियो को अपने साहित्य ञान का शेखी बघारते हुए टिपिया कइसे पाउंगा ! . . . . . धीरे बोल रायपुर पास मे ही है, मेरे दो दो बडे ब्लागर भाई सुन लेंगे तो मेरी चडडी उतर जायेगी धोती तो पहले से उतरी हुइ है “

ब्लागर के उतरते चडडी के भाव पर तरस खाती पत्नी ने फिर मुस्कुराते हुए चंद्रमुखी रूप धरा . बारह साल के वैवाहिक जीवन में ब्लागर को अपनी पत्नी का चंद्रमुखीस्वरूप कभी कभी ही देखने का सौभाग्य मिल पाया है बाकी दिनों में रौद्रमुखी स्वरूप को भगवान शिव बन कर अपने शरीर से थामते रहना है ताकि धरती बची रहे और लिखने का नशा बरकरार रहे क्योकि बडे भैया ने ही कहा है कि “. . . . . एसा करते हुए आप एक इतिहास लिख रहे होते है ।“

“अरे हा भईया मेरे टापमोस्ट भाई लोग तो ठहरे प्रेम विवाह वाले का जाने हमरी व्यथा, अरेन्ज मेरिझ की जिन्दगी, मेरिझ के बाद अरेन्ज, अरे बहुत कुछ अरेंज करना पडता है . . .”
“बीबी खुश ब्लागर खुश के लिये भी कोई नया अरेन्जमेंट मार्केट में आयेगा तो बताइयेगा . . .”

हमारी हिन्दी का भी कल्याण हो ! रूपर्ट स्नेल


गांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री अनुपम मिश्र द्वारा प्रकाशित अहिंसा-संस्कृति की द्वैमासिक प्रकाशन “गांधी मार्ग” में प्रकाशित रूपर्ट स्नेल, (हिन्दी प्राध्यापक, स्कूल आफ ओरियंटल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, लंदन विश्वविद्धालय) द्वारा लिखित लेख के कुछ रोचक अंश हिन्दी को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध भाईयों के लिए सादर प्रस्तुत है -

. . . . .शायद एक ऐसी पीढी जल्द ही बनेगी जिसको न अंग्रेजी ठीक तरह से आती हो, न हिन्दी ही । या यों कहा जाय कि वह पीढी बन चुकी है शव्दों के मर्म से गाफिल इस पीढी का भी कल्याण हो !

. . . . . लक्ष्मी के घर से थोडे ही फासले पर एक नया शिव मंदिर बनाया गया है । इसमें शिव जी की जो मूर्ति स्थापित है, वह संगमरमर की बनी हुई है। लक्ष्मी नें ही मुझे बताया था कि यह मूर्ति संगमरमर की है । कमाल है, मार्बल शव्द का इस्तेमाल उसने नहीं किया! मैने सोंच रखा था कि संगमरमर शव्द कब का मर-खप गया । उत्तर भारत के जितने संगमरमर के विक्रेता हैं, सबके सब अपने को `मार्बल' के विक्रेता कहते हैं । लक्ष्मी का मैं अत्यंत आभारी हूं कि उसने अनायास ही संगमरमर की सुंदरता को बचाये रखा है । यह बात दूसरी है कि बाद में उसने ही यह बात भी जोडी कि मूर्ति पर पेंट लगाया गया है । आखिरकार संगमरमर की सारी सुन्दरता जाती रही और संगमरमर वाले उस वाक्य की भी । तो भी हो, शिव की मूर्ति हमारा कल्याण करे!

. . . . . .देहरादून आते समय हमारा ध्यान कई बार किसी न किसी जूस कार्नर पर गया-चाहे गणेश जूस कार्नर हो चाहे लकी जूस कार्नर, या ब्राईट जूस कार्नर । ऐसी दुकानों का एक अडिग सिद्धांत होता है कि उनके नजदीक किसी तरह का कार्नर नही होगा, बल्कि प्रत्येक जूस कार्नर दुकानों की एक लंबी कतार के बीचों बीच कहीं सजा होगा । यह बात हमें बहुत मजेदार लगी । इन दुकानों में दूसरे ताजे रसों के साथ-साथ हास्य रस का भी स्वाद चखने को मिलेगा! आखिर में एक ऐसे ही रस की दुकान दिखाई दी जो वाकई सडक के कोने पर थी - यानी चौराहे पर ही बनी हुई थी, और उसका नाम था इंडिया जूस सेंटर! खैर, भारत के सभी कार्नर-हीन जूस कार्नरों का कल्याण हो !


आदरणीय अनुपम जी का यह प्रकाशन भी अनुपम है “गांधी मार्ग” का प्रकाशन जनवरी १९५७ से प्रारंभ हुआ था अभी अनुपम जी इस पत्रिका को १०० रू वार्षिक शुल्क पर उपलब्ध करा रहे हैं इतने कम शुल्क पर स्तरीय गांधी विचारकों के लेखों सें परिपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन अनुपम जी का गांधी यज्ञ है ।
श्री मिश्र जी का पता है -

श्री अनुपम मिश्र, गांधी शांति प्रतिष्ठान, २२३ दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली ११०००२
फोन - ०११ २३२३७४९१ए २३२३७४९३ए फैक्स - ०११ २३२३६७३४

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...