विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

एक तरफ हिन्दी चिट्ठाजगत हैरान परेशान है कि ये धुरविरोधी कौन है सब एक दूसरे को पूछ रहे हैं कि ये धुरविरोधी कौन है ? पर किसी को नही मालूम कि सोनार महोदय और धुरविरोधी महोदय कौन है ? ना ही धुरविरोधी महोदय को किसी प्रकार के चिट्ठा सम्मान या नाम की लालसा है इसीलिये तो सामने नही आ रहे हैं, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ की राजधानी में पिछले दो तीन सप्ताह से गिने चुने चिट्ठों के बावजूद अंतरजाल में हिन्दी की प्रभुता पर राजनीति और उस पर चर्चा आम है । पिछले सप्ताह ही रायपुर से, जो हमें हिन्दी चिटठाकार “समझते” हैं, ऐसे हमारे दो तीन मीडिया कर्मी भाई लोगों का फोन आया । बतलाये कि रायपुर के मीडिया जगत और सरकारी तंत्र में यह बात फैलाई गयी है कि छत्तीसगढ में हिन्दी के दो चिट्ठे “ही” सक्रिय है एवं उन्ही दो चिट्ठों को आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के वेब साईट में स्थान दिया गया है । पहले तो सुनकर आश्चर्य हुआ फिर खुशफहमी में बाहें खिलने लगी कि चलो हमारे व संजीत भाई के चिट्ठे के बारे में ही कहा जा रहा है । धन्य हो अफवाह फैलाने वाले महोदय का जो बिना पैसा दिये, बिना उसके रचनाओं को वेब में प्रकाशित किये भी