स्मरण:

मन्ना-डे नहीं रहे

सिने संगीत में शास्त्रीय राग की एक लौ बुझी
-विनोदसाव


भारतीय सिने संगीत के बहुचर्चित गायकों में से एक मन्ना डे नहीं रहे। आज सबेरे 24 अक्टूबर को उनका बंगलोर में अवसान हुआ। उनका नाम प्रबोध चन्द्र डे था लेकिन वे मन्नाडे के नाम से जाने गए। मन्ना डे के अवसान के साथ ही रफी, मुकेश, किशोर की समृद्ध गायन परंपरा का अंत हुआ। बंगाल की धरती में पले बढ़े जिन तीन गायकों ने हिंदी व बांग्ला फिल्मों में बड़ी ख्याति अर्जित की उनमें तलत महमूद, हेमंत कुमार और मन्ना डे थे। तलत महमूद बांग्ला फिल्मों में तपन कुमार के नाम से गाते थे और लोकप्रिय थे। हिंदी साहित्य के कथाकार कुमार अंबुज ने मन्नाडे पर एक कहानी लिखी है जिसका षीर्शक है ’एक दिनमन्ना-डे’।

मन्ना डे का स्वर और उनका गायन अपनी एक विशिष्ठ भंगिमा लिये हुआ था। उनकी आवाज में भी तलत महमूद की तरह का रेशमी अहसास था।वे शास्त्रीय गीतों के बड़े जानकार और गायक थे। कहा जा सकता है कि सुगमसंगीतों से भरे फिल्मी जगतमें ये मन्नाडे ही थे जिन्होंने अपने हजारों सुगमगीतों के बीच बड़ी संख्या में शास्‍त्रीय गीत भी गाये। उनके गाये गीतों में शास्त्रीय संगीत के राग से भरा ’लागा चुनरी में दाग छुपाउँ कैसे’ अद्भुत ताल से भरा गीत था। फिल्मों में उनकी साख उनके द्वारा गाये गये शास्त्रीय गीतों से बनी। इसीलिए उनके बारे में संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार कहा था कि मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो रफी, किशोर या मुकेश ने गाये हों, लेकिन इनमें से कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नहीं गा सकता है।

मन्ना-डे की आवाज विशेष ने जहॉ उन्हें शास्त्रीय गीतों के गायन में एक तरफा उँचाई दी वहीं उनकी आवाज की इस अनोखी भंगिमा ने उनके गायन की सीमा रेखा भी खींच दी थी। उनकी आवाज में एक किस्म का वार्द्धक्य पनथा, जिस तरह से एस.डी.बर्मन की आवाज में था। यद्यपि बर्मनदा की आवाज फिल्मों में उनके बुढ़ापे में ही सुनाई दी थी इसलिए वार्द्धक्यपन से भरीउनकी आवाज को उसी रुप में ही सुना और स्वीकारा गया, लेकिन मन्ना-डे में यह अनोखापन उनकी युवावस्था में ही आ गया था, इसका खामियाजा उन्हें यह भुगतना पड़ा कि वे अपने समय में ज्यादा लीजेन्ड्री हीरो के गायक नहीं बन पाये। उनकी आवाज की रसिकता कोई कम नहीं थी पर वह ’यूथ’ या युवकों की आवाज नहीं थी।बलराज साहनी की आवाज में फिल्म ’वक्त’ का यह गीत ’ओ मेरी ज़ोहराजबी..तुझे मालूम नहीं।’ देश के तमाम रिटायर्ड बूढ़ों का सबसे प्रिय गीत था। संगीत सभाओं में वृद्ध श्रोतागण सबसे ज्यादा मन्नाडे, तलत, हेमंत कुमार और एस.डी.बर्मन के गीतों की फरमाइश भेजते थे। ये सभी गायक बंगाल के थे जिनकी आवाज में आरंभ से ही अपने किस्म की प्रौढ़ता और वार्द्धक्य पन थी। इसलिए भी अपने समय के महानायकों या सूपर-स्टारों के गीत उन्हें कम मिले और उन्होंने ज्यादातर चरित्र अभिनेताओं और हास्य कलाकारों के लिए गीत गाए। प्राण या महमूद के लिए अपनी आवाजें दीं। धार्मिक फिल्मों में आकाशवाणी से गूंजनेवाले गीतों के लिए उनकी आवाज चुनी गई। यद्यपि राजकपूर ने उनकी कला की कद्र करते हुए अपने लिए कई गीत उनसे गवाए जिन्हें जमकर लोकप्रियता भी मिली। ’मेरा नाम जोकर’ में नीरज का लिखा बहुप्रसिद्ध गीत ’ए भाईजरा देखकेचलो’ उनका सबसे जीवन्त गीत रहा। ’चोरी चोरी’ के लगभग सभी गीत राजकपूर ने मन्नाडे से गवाए थे। शायद उनकी आवाज की इस विशेष भंगिमा के कारण ही प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंशराय बच्चन ने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिये मन्ना डे का चयन किया था।

मन्नाडे को अपनी आवाज के इस वार्द्धक्यपन की समझ थी और दूरदर्शन पर पिछले दिनों एक साक्षात्कार में उन्होंने हॅसते हुए अपनी इस विशेषता को स्वीकारा था और बताया था कि ’लोग कहते थे कि कैसा गायक है बूढ़ों जैसा गाता है। सुनकर मैं झेंप उठता था लेकिन बाद में मैंने अपनी इसी विशेषता को संगीतात्मकता की ओर मोड़ा था।’ साक्षात्कार के समय उनकी जीवन संगिनी अद्भुतसौंदर्य की धनी केरल की सुलोचना कुमारन भी साथ थीं। वे रवीन्द्र संगीत की जानकार थीं।

भारत शासन ने भी मन्नाडे की कला का सम्मान करते हुए उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण तो दिए ही साथ ही कुछ बरसों पहले उन्हें दादा साहब फाल्के का सर्वोच्च सम्मान भी देकर उन की प्रतिभा व योगदान को सराहा है।

हिंदी फिल्मों में पार्श्वभगायन के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था। आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि मैं मन्ना डे के गीतोंको ही सुनता हूं।


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

यात्रा वृत्तांतः

- विनोद साव


दुर्ग-भिलाई रहवासियों के लिए कार ड्राइव के लिए सियादेवी एक आदर्श दूरी है। आना जाना मिलाकर डेढ़ सौ किलोमीटर। छह सात घंटे का एक अच्छा पिकनिक प्रोग्राम। सियादेवी का रास्ता बालोद मार्ग पर झलमला से कटता है। दुर्ग से चौव्वन किलोमीटर झलमला और वहॉ से पन्द्रह किलोमीटर सियादेवी। यह बालोद से बीस और रायपुर से धमतरी होकर सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नये जिलों के निर्माण के बाद अब यह दुर्ग जिले से निकलकर बालोद जिले के क्षेत्र में आ गया है। वैसे भी बालोद क्षेत्र अपनी कृषि भूमि, जंगल, कुछ पहाड़ियॉ, तांदुला व सूखा नदी और लगभग आधे दर्जन बॉंध व कई नहरों से समृद्ध भूमि है। यहॉ मैदानी और वन्य जीवन का सुन्दर सम्मिश्रण है। सवर्ण और आदिवासी जीवन का अच्छा समन्वय है। यहॉ समृद्ध किसान भी हैं और भरे पूरे आदिवासी भी। यह क्षेत्र अपने किसान आंदोलनों के लिए भी जाना जाता है और आदिवासी चेतना के लिए भी। बालोद स्कूल से पढ़कर निकले कई मेधावी छात्र इंजीनियरिंग एवं प्रशासन में बड़ी संख्या में अपनी पहचान बना चुके हैं। एक समय में बालोद नगर पालिका को पुराने दुर्ग जिले की ग्यारह नगर पालिकाओं में सबसे आदर्श नगर पालिका माना गया था। दुर्ग की तरह बालोद में भी उर्स पाक का भव्य आयोजन होता है। यहॉ जख्मी साहब जैसे बड़े शायर हुए थे। अपनी कला चेतना में यह शहर बड़ा संगीत प्रेमी रहा है। यह एक छोटा लेकिन साफ सुथरा और सुन्दर नगर है और वैसे ही यहॉ के रहवासी। इस शहर से नौ वर्षों तक मेरा सम्बंध रहा है जब मैंने अपनी पहली नौकरी वर्ष 1974 में बालोद पी.डब्लू.डी. में आरंभ की थी, तब हम अक्सर अपनी सायकलें उठाकर तांदुला और सूखा नदी पर बने आदमाबाद डैम की ओर निकल जाते थे। इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक चार किलोमीटर सायकल दौड़ाते थे। कभी इसमें नहाते थे।

सियादेवी के लिए मुड़ने से पहले उस डैम के दूसरे सिरे को याद करते हुए उस ओर अपनी कार मैंने मोड़ ली थी। यहॉ सिंचाई विभाग का कभी भव्य गेस्ट हाउस हुआ करता था जिसकी बागवानी मन मोह लेती थी। यहॉ एक व्यू पाइंट है जिसमें चढ़ने से बॉध का विहंगम दृष्य दिखता था। अब व्यू पाइंट पुराने पेड़ों से ढॅक गया है, अब यहॉ पहले जैसी मोहकता नहीं है। बागवानी नष्ट हो गई है । छत्तीसगढ़ की सरकार ने अब इस गेस्ट हाउस को रिसोर्ट बनाने के लिए ठेके पर दे दिया है। पता नहीं यह रिसोर्ट कब और कितना उपयोगी साबित हो पाएगा?

मैंने झलमला में एक गुमठी वाले से रास्ता पूछकर सियादेवी के लिए अपनी कार मोड़ ली थी। साथ में पत्नी और बहू थीं। अब हम पन्द्रह किलोमीटर के वन परिक्षेत्र में थे, जिसमें सघन वन के बीचोंबीच पतली पगडंडी की तरह एक साफ सुथरी सड़क थी। यह सड़क आधी पक्की बन पाई है बाकी निर्माणाधीन है। रास्ते में रानी मॉ का एक मंदिर बना है, जहॉ राजा रानी की मूर्ति है। यहॉ वैसे ही जोत जलाये जाते हैं जैसे माता के मंदिरों में। आदिवासी समाज में अपने राजा रानियों के प्रति गहरी आस्था रही है। हो सकता है ऐसी ही कोई ममतामयी और उपकारी रानी मॉ रही होगी जिनकी स्मृति में मूर्ति बनाकर पूजा की जा रही है। इसके समीप जो गॉव है उसका नाम नर्रा है। हमें थोड़ी भूख लग आई थी तो हमने नर्रा में छत्तीसगढ़ का सबसे मीठा छीताफल और उसना सिंघाड़ा खरीद लिया था।

नर्रा से चार किलोमीटर का कच्चा रास्ता नारागॉव जाता है जहॉ सियादेवी अर्थात माता सीता का मंदिर है। कहा जाता है कि वनवास के समय राम, सीता और लक्ष्मण दंडकारण्य आते हुए यहां से निकले थे। यहॉ एक समान भावना यह देखने में आई है कि जिस तरह नर्रा गॉव वालों ने अपनी रानी मॉ का मंदिर बनवाया है और पूजा है उसी तरह नारागॉव वालों ने रानी सीता का मंदिर बनवाकर उन्हें अराध्य देवी माना है। यहॉ भी जोत जलायी जाती है। आदिवासी क्षेत्र होने के बाद भी सियादेवी की व्यवस्था एकदम चाक चौबन्द है। मुख्य प्रवेशद्वार से पहले फैला पसरा पार्किग स्थल है, जहॉ दस रुपये की परची देकर चौपहिया वाहनों को रखा जाता है। कारों, जीपों और मोटर-सायकलों का अम्बार था। आसपास के गॉवों से उत्साहीजन ट्रैक्टर व ट्रकों में भी भर भरकर आए थे।

सियादेवी का यह स्थान पहली ही दृष्टि में मन को भा जाता है। उतार-चढ़ाव में बसा यह सुन्दर उपवन है। पहाड़ी नाले से यहॉ कहीं कहीं सुन्दर झरने बन गए हैं। मुख्य मंदिर के दर्शन के बाद ही झरनों और गुफा के लिए रास्ता जाता है। नीचे झरने के सामने खड़े होकर, फोटो खिंचाकर स्केनर से उसके तुरंत प्रिंट लेते हुए लोगों का उत्साह देखते बनता था। भिलाई के एक परिचित फोटोग्राफर महापात्र जी से यहॉ भेंट हुई तो उन्होंने झरने के सामने हमारा भी चित्र खींच लिया। दर्शन के बाद लगे बाजार में चाट गुपचुप के ठेले भारी मात्रा में लगे हुए हैं। अब आदिवासी समाज को भी इस चाट कचौड़ी की चट लग गई है।

लौटते समय हमने उस नारागॉव को देखा जहॉ हमारे साथ आई बहू ने पॉच बरस पहले अपनी नौकरी आरंभ की थी और यहॉ से स्थानांतरण लेकर गई थीं। बीच जंगल में बसे गॉव में बहू ने उस उप स्वास्थ्य केंद्र को देखा जहॉ स्कूटी चलाते हुए वह ड्यूटी पर आया करती थी। उस घर को देखा जहॉ उसने नौ महीने बिताए थे। उन लोगों से मंदिर में उसकी भेंट हुई जो कभी इस इलाके में उसके साथ हुआ करते थे। लौटते समय उसके चेहरे में अतीत को फिर से देख पाने का भाव हिलोरें ले रहा था।


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

सिर्फ एक गांव में गाई जाती है छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती ??

छत्तीसगढ़ के प्राय: हर गांव में देवी शक्ति के प्रतीक के रूप में महामाई के लिए एक स्‍थल निश्चित होता है. जहां प्रत्येक नवरात में ज्योति जलाई जाती है एवं जेंवारा बोया जाता है. सभी गांवों में नवरात्रि के समय संध्या आरती होती है. ज्यादातर गांवों में यह आरती हिन्दी की प्रचलित देवी आरती होती है या कहीं कहीं स्थानीय देवी के लिए बनाई गई आरती गाई जाती है. मेरी जानकारी के अनुसार एक गांव को छोड़ कर कहीं अन्‍य मैदानी छत्‍तीसगढ़ के गांव में छत्‍तीसगढ़ी भाषा में महामाई की आरती नहीं गाई जाती. जिस गांव में छत्‍तीसगढ़ी में महामाई की आरती गाई जाती है वह गांव है बेमेतरा जिला के बेरला तहसील के शिवनाथ के किनारे बसा गांव खम्‍हरिया जो खारून और शिवनाथ संगम स्‍थल सोमनाथ के पास स्थित है.

इसके दस्‍तावेजी साक्ष्‍य एवं स्‍थापना के लिए यद्यपि मैं योग्‍य नहीं हूं किन्‍तु वयोवृद्ध निवासियों से चर्चा से यह सिद्ध होता है कि यह परम्‍परा बहुत पुरानी है. वाचिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी गाए जा रहे इस महामाई की आरती का जो ज्ञात प्रवाह है उसके अनुसार लगभग 500 वर्ष से यह इसी तरह से गाई जा रही है. यह आरती कब से गाई जा रही है पूछने पर गांव वाले बतलाते हैं कि लगभग चार पांच सौ साल पहले से यानी चार पांच पीढ़ी से लगातार यह परम्‍परा चली आ रही हो, इसके अनुसार इसे पांच सौ वर्ष से निरंतर माना जा सकता है यह भी हो सकता है कि यह उससे भी पहले चली आ रही गायन परम्परा हो.

खम्हरिया में गाई जाने वाली आरती में यद्धपि बीच के बोल आरती से नहीं लगते क्योंकि इसमें देवी के गुणगान का बखान नहीं दिखता और ना ही प्रार्थना के भाव प्रत्यक्षत: नजर आते सिवा बार बार के टेक ‘महामाई ले लो आरती हो माय’ को ठोड़ दें तो. किन्‍तु पारंपरिकता एवं देसज भाव इस आरती के महत्व को प्रतिपादित करती है. इस आरती में निहित शब्दों और उनके अर्थों में तारतम्यता भी नहीं नजर आती. इस गांव में गाई जाने वाली आरती में पांच पद हैं जो सभी एक दूसरे से अलग अलग प्रतीत होते हैं.  खम्‍हरिया गांव में गाई जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी महामाई की आरती इस प्रकार है -

महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज में गड़े हिंडोला
लख आये लख जाए
लख आये लख जाए
माता लख आए लख जाए
एक नइ आवय लाल लगुंरवा
जियरा के परान अधार
महामाई ले लो आरती हो माय
महामाई ले लो आरती हो माय

गढ़ हिंगलाज म उतरे बराईन
आस पास नरियर के बारी
झोफ्फा झोफ्फा फरे सुपारी
दाख दरूहन केकती केंवरा
मोगरा के गजब सुवास
महामाई ले लो आरती हो माय

बाजत आवय बांसुरी अउ
उड़त आवय घूर
माता उड़त आवय घूर
नाचत आवय नन्द कन्हैंया
सुरही कमल कर फूल
महामाई ले लो आरती हो माय

डहक डहक तोर डमरू बाजे
हाथ धरे तिरसूल बिराजे
रावन मारे असुर संहारे
दस जोड़ी मुंदरी पदुम बिराजे
महामाई ले लो आरती हो माय

अन म जेठी कोदई अउ
धन म जेठी गाय
माता धन म जेठी गाय
ओढ़ना म जेठी कारी कमरिया
ना धोबियन घर जाए
माता ना धोबियन घर जाए
महामाई ले लो आरती हो माय

आईये इस बिरले आरती को विश्‍लेषित करते हैं, आरती के पहले पद में हिंगलाज गढ़ में माता के पालने में झूलने और माता के दर्शन हेतु लाखों लोगों के आने जाने का उल्लेख आता है. लोक लंगुरे के नहीं आने से चिंतित है क्योंकि लंगूर माता के जियरा के प्राण का आधार है यानी प्रिय है. दूसरे पद में गढ़ हिंगलाज की सुन्दरता का वर्णन मिलता है जिसमें नारियल के बाग, सुपाड़ी के पेंड़, दाख, दारू, केकती, केंवड़ा के फूल के साथ ही मोंगरा के फूलों के सुवास का वर्णन है ऐसे स्थान पर बराईन के उतरने का उल्लेख लोक करता है. पारंपरिक छत्तीसगढ़ी जस गीतों में बराईन पान बेंचने वाली का उल्लेख कई बार आता है. जिसके आधार पर यह प्रतीत होता है कि बराईन एक महिला तांत्रिक है किन्तु देवी उपासक है उसकी झड़प यदा कदा लंगुरे से, जो 21 बहिनी के भईया लंगुरवा है, से होते रही है. यह महिला तांत्रिक उस गढ़ हिंगलाज में उतरती है. तीसरे पद में लोक कृष्ण को पद में पिरोता है कि वह बांसुरी बजाते हुए नाचते हुए जब आता है तो उसके नाचने से धूल उड़ती है और वह हाथ में कमल का फूल लिए आता है. चौंथे पद में संगीत का चढ़ाव तेज हो जाता है और गायन में भी तेजी आ जाती है इसमें देवी के रूप का वर्णन आता है डहक डहक डमरू बज रहा है, तुम्हारे हाथ में त्रिशूल है, तुमने रावण को मारा है और असुरों का संहार किया है. तुम्हारी अंगुलियों में दस जोड़ी अंगूठी है. तुम कमल के आसन में विराजमान हो. पांचवे पद में लोक शायद माता को अर्पित करने योग्य वस्तु का वर्णन करते हुए संदेश देना चाहता है वह कहता है कि अन्न में मुख्य कोदो है जो छत्तीसगढ़ के बहुसंख्यक गरीब जनता का अन्न है. धन में वह गाय को प्रमुख स्थान देता है, कपड़े मे प्रमुख स्थान वह भेड़ों के रोंए से बने काले कम्बल को देता है क्योंकि वह धोबी के घर कभी धुलने के लिए नहीं जाता यानी इसे धोने की आवश्यकता ही नहीं.

इन पांचों पदों को जोड़ने का प्रयास मैं बचपन से करते रहा हूं, पहले पद में हिंगलाज माता का वर्णन दूसरे में गढ़ हिंगलाज का वर्णन, तीसरे पद में कृष्ण का वर्णन, चौंथे में माता का स्वरूप वर्णन और अंतिम में चढ़ावा हेतु वस्तु का वर्णन आता है जिसमें कृपा के पद को हटा दें तो तारतम्यता बनती नजर आती है, यह भी हो सकता है कि इस आरती में पहले और पर रहे होंगें जो हटा दिए गए होंगें या भुला दिए गए हों.

गांव वालों का कहना है कि ये आरती रतनपुर के महामाई की आरती है, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण जीवन यापन हेतु पहले रतनपुर राज्य आए फिर अन्य गढ़ों में फैलते गए, गढ़पतियों के द्वारा पहले से बसे गांव ब्राह्मणों को दान में दिए गए तो कुछ ब्राह्मण उपयुक्त स्थल में अपना स्वयं का गांव बसा लिया. इसी क्रम में रांका राज के अधीन इस गांव को बसाने वाले कुछ ब्राह्मण अपने सेवकों के साथ यहां आये और शिवनाथ नदी के तट का उपयुक्त उपजाउ जमीन को चुनकर अपना डेरा डाल लिया. तब रतनपुर की देवी महामाया ही उनके स्मृति में थी उन्होनें ही नदी के किनारे देवी का स्थापना किया और तब से यही आरती गाई जा रही है. बाद के दिनों में शिवरीनारायण होते हुए उड़ीसा के मांझी लोग नदी के तट पर आकर बस गए धीरे धीरे गांव स्वरूप लेने लगा और आज लगभग 1500 की जनसंख्या वाला यह गांव, बेमेतरा जिले का आखरी गांव है.

संजीव तिवारी

वर्धा में आभासी मित्रों से साक्षात्कार


महात्मा गॉंधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में विगत दिनों आयोजित हिन्दी ब्लॉग संबंधी कार्यशाला से संबंधित अनुभव के पोस्ट प्रतिभागियों के ब्लॉगों में प्रकाशित हो रहे हैं। सभी की अपनी अपनी दृष्टि और अभिव्‍यक्ति का अपना अपना अलग अंदाज होता है, धुरंधर लिख्खाड़ों में डॉ.अरविन्द मिश्र एवं अनूप शुक्ल नें सेमीनार को समग्र रूप से प्रस्तुत कर दिया है अन्य पोस्टों में भी लगभग सभी पहलुओं को प्रस्तुत किया जा चुका है, उन्हीं वाकयों को बार बार लिखने का कोई औचित्य नहीं है, इस कार्यक्रम में जिन ब्‍लॉगर साथियों से हमारी मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ कलम घसीटी मेरे नोट बुक में पोस्‍ट करने से बचे थे जिसे प्रस्‍तुत कर रहा हूँ।

सबसे पहले मैं आप लोगों को बताता चलूं कि, मेरे इस कार्यशाला में जाने के पीछे तीन उद्देश्य थे। पहला, मैं महात्मा गॉंधी अंतरर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को देखना एवं वहॉं के साहित्‍य सृजन के लिए उर्वर वातावरण को महसूस करना चाहता था। दूसरा, इस कार्यशाला में उपस्थित होकर, आभासी मित्रों से मिलना चाहता था क्योंकि विश्वविद्यालय के पिछले ब्लॉगर सम्मेलनों में मैं चाहकर भी उपस्थित नहीं हो पाया था। तीसरा, मेरे छत्तीसगढ़ी के आनलाईन साहित्य संग्रह पोर्टल गुरतुर गोठ जैसे अन्य देशज भाषा के वेब पोर्टलों की आवश्यकता, उसकी उपयोगिता एवं देशज भाषा के साहित्य के अधिकाधिक पन्नों को आनलाईन करने हेतु ब्लॉगरों, छात्रों व विश्वविद्यालयों का आहवान करना चाहता था। इसमें से पहले दोनों उद्देश्यों की पूर्ति भलीभांति हुई, तीसरे के लिए चर्चा का समय नहीं मिल पाया। इस कार्यक्रम में हम अपने आभासी मित्रों से रूबरू मिले, जिन आभासी ब्लॉगरों से मुलाकात हुई उनके संबंध में कुछ बातें आप सबसे साझा करता हूँ।

इस कार्यक्रम के दूसरे दिन सेलेब्रिटी लेखिका, विचारक, ब्लॉगर मनीषा पांडे के दर्शन हुए। हिन्दी में 'बेदखल की डायरी' ब्लॉग लिख रहीं मनीषा के ब्लॉग पोस्टों को हम हिन्दी ब्लॉग के आरंभिक दिनों से पढ़ते रहे हैं। स्पष्टवादिता से लिखी गई इनके पोस्टों में झलकते इनके व्यक्तित्व से हम प्रभावित थे। मानस नें इनके ब्लॉग में लगे मासूम फोटो से इनके बिंदास लेखन का पहचान सेट कर लिया था। बाद के वर्षों में फेसबुक मे लम्बे लम्बे वैचारिक पोस्टों और उस पर अविराम बहसों नें मनीषा पाण्डेय की दबंग छवि को आत्मसाध किया। इनके ब्लॉग पोस्टों एवं फेसबुक वालों पर हमने कभी कोई टिप्पणी की या नहीं याद नहीं, बस बहसों को पढ़ते रहे। वैसे भी तीखी वैचारिक बहसों में उथली मानसिकता के टिप्पणियों का कोई औचित्य भी नहीं था  इन कुछ वर्षों में इन्होंनें बहुतेरे मुद्दों पर बात की। खासकर स्त्री स्वतंत्रता पर इनकी बहसों नें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की परिभाषा को बहुत विस्तार दिया जो नवउदार मासिकता के युवाओं एवं तकनीकि दक्ष परम्पराओं के पैरोकार, भूतपूर्व युवाओं के बीच विमर्श का महत्वपूर्ण दस्तावेज बनकर बार बार फेसबुक के नोटीफिकेशन में हाईलाईट हुआ। इन बहसों के अतिरिक्त इन्होंनें हमेशा अपने वाल पोस्टों में अनेक मान्य परम्पराओं पर चोट करते हुए अपनी बुलंद छवि एवं व्यक्तित्व को सार्वजनिक किया। इसमें इनकी, कथनी एवं करनी के दोगलेपन से दूर स्पष्टवादी छवि विकसित हुई। हम दूसरे दिन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद वापस आ गए इस कारण व्यक्तिगत रूप से मनीषा पांडे से ज्यादा समय तक नहीं मिल सके। उपर लिखी गई पंक्तियॉं उनके संबंध में आभासी जगत के अनुभ से प्राप्त जानकारी मानी जावे।

यहॉं हिन्दी ब्लॉग के चर्चित व्यक्तित्व डॉ.अरविन्द मिश्र से भी मिलना हुआ। डॉक्टर साहब के ब्लॉग पोस्ट व इनकी धारदार टिप्पणियों से हमारे मन में इनकी विद्वत छवि पूर्व से ही अंकित थी। हमारे एक पोस्ट के संबंध में चर्चा करने के लिए इन्होंनें हमें फोन भी किया और इसके बाद संवाद स्थापित रहा। इनके बीच संवादों की कड़ी में प्रो.अली सैयद भी रहे जिनके कारण ही डाक्टर मिश्र से आत्मियता स्थापित हुई। इनसे वर्धा में मिलना मेरे लिए सुखकर था, मैं इनके समीप रहकर इनका स्नेह आर्शिवाद लेना चाहता था जो मुझे यहॉं प्राप्त हुआ। वर्धा में सभी नें इनके मिलनसार छवि का साक्षात्कार किया होगा, डॉ.अरविन्द मिश्र से कुलपति की आत्मीयता को देखकर खुशी हुई।

इनके साथ ही ब्लॉग जगत में मौज लेने वाले फुरसतिया ब्लॉगर अनूप शुक्ल से भी मुलाकात हुई। नारद के जमाने में हिन्दी ब्लॉगों में हमारी रूचि बढ़ाने वालों में से अनूप शुक्ल मुख्य रहे हैं। तब छत्तीसगढ़ में संजीत त्रिपाठी और स्वयं मैं ब्लॉग में लगभग नियमित थे और जय प्रकाश मानस जी अंतरालों में लिखते थे। इनकी टिप्पणियों से हमारा उत्साह वर्धन होता था और हम उत्साह में पोस्ट ठेलते थे। इसी बीच नारद विवाद के समय हमने आत्ममुग्धतावश एक पोस्ट लिख दी थी। उस पोस्ट पर उस समय के कम चिट्ठाकारों के बावजूद तीखी झड़पें हुई थी और उसके तत्काल बाद हमारे ब्लॉग को किसी नें फ्लैग कर दिया था। हम इस संकट से उबरने की विधि नहीं जानते थे, बड़ी मुश्किल से हमें अपने ब्लॉग पर पुन: लिखने का अधिकार प्राप्त हुआ। इस समय मुझे लगता था कि मेरे ब्लॉग में गड़बड़ संभवत: अनूप शुक्ल नें तकनीकि विशेषज्ञ जितेन्द्र चौधरी से करवाया है। संजीत त्रिपाठी के द्वारा स्पष्टीकरण देनें व परिस्थितियों को समझानें के बाद मन नें अनूप शुक्ल को क्लीन चिट दिया। इसके बाद के वर्षों में मठाधीशी विवादों में अनूप शुक्ल को मौज लेते हुए देखना अच्छा लगता था। वर्धा में इनसे मिलकर अच्छा लगा दोनों दिन इनका स्नेह मुझे मिला, वापसी में बड़ी गाड़ी में हम नागपुर तक साथ आए।

ब्लॉग की दुनिया के धुरंधर खिलाड़ी अविनाश वाचस्पति से मुलाकात करने की हमारी इच्छा बहुत दिनों से थी। दिल्ली के परिकल्पना सम्मान समारोह में मैं इनसे मिल नहीं पाया था। इनके सहज सरल शब्दों से लिखे गए ब्लॉग पोस्टों से आप सब परिचित ही हैं। हिन्दी ब्लॉगिंग के संबंध में व व्यंग्य पर इन्होंनें किताबें भी लिखी है और इनके व्यंग्य आलेख लगातार पत्र पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। जहॉं तक मैंनें इन्हें समझा ये भौतिक व आभासी दोनों प्रकार के सोशल नेटवर्किंग के माहिर खिलाड़ी हैं। वर्धा में हसमुख, मिलनसार सभीपर आत्मीयता बरसाते अन्ना उर्फ मुन्ना भाई नें बिना स्वयं के मुख में मुस्कुराहट बिखेरे अपनी बातों से सबको हर पल मुस्कुरानें को विवश किया। मेरे रूम पार्टनर डॉ.अशोक मिश्र से मैं पहली बार मिला था, इनके ब्लॉग से भी मैं परिचित नहीं था किन्तु मुझे इन्होंनें सहृदयता से कमरे में स्थान दिया और लगने ही नहीं दिया कि हम अपरिचित हैं। बातचीत में इनके ब्लॉग शोध, पत्रकारिता व अकादमिक अनुभवों से साक्षात्कार हुआ। सहज सरल व्यक्तित्व के धनी प्रियरंजन जी मुझे सचमुच में प्रिय लगे।वापसी में हम नागपुर तक इनके साथ रहे। नागपुर तक साथ चलने वालों में हर्षवर्धन त्रिपाठी भी थे, शुरूआती ब्लॉगिंग के समय से हर्षवर्धन जी का ब्लॉग पढ़ते रहा हूं और कई वर्षों से मैं इनके ब्लॉग का ई मेल सब्साक्राईबर हूं लगभग प्रत्येक दिन इनका ब्लॉग अपडेट मेल से प्राप्त होता है। सामयिक विषयों और समाचारों को विश्लेषित करने का इंनका अंदाज मुझे पसंद है। पहले दिन वर्धा पहुचते ही हर्षवर्धन जी नें ही मेरा गर्मजोशी से स्वागत किया और पहले सत्र को संचालित करते हुए एक सफल टीवी डिबैट संचालक के रूप में अपनी छवि प्रस्तुत की, इनके बात करने का अंदाज मुझे बहुत पसंद आया ।

इनके अतिरिक्त इस कार्यक्रम में जिन ब्लॉग मित्रों नें स्मृति में छाप छोड़ा उनमें मस्त मौला संतोष त्रिवेदी, कार्यक्रमों की व्यस्तता के बीच भी मुस्कुराते रहने वाले कर्तव्यपरायण सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, इनके साथ परछाई जैसी आयोजन में हाथ बटाती श्रीमती रचना त्रिपाठी, मुस्कुराहट बिखेरते रहेने वाले डॉ.घापसे, साहित्य रसी व सफल प्रकाशक शैलेष भारतवासी, देसज ज्ञान के धनी प्रखर पत्रकार संजीव सिन्हा, गंभीर कविताओं की पक्षधर संध्या शर्मा, खालिस देसी पत्रकार बमशंकर टुन गणेश राकेश सिंह, वरिष्ठ पत्रकार इष्ट देव सांस्कृत्यायन, अपने ब्लॉग पोस्टों की ही तरह चिंतक प्रवीण पाण्डेय, अर्थ काम वाले अनिल रघुराज, ब्लॉगिंग के आरंभिक दिनों के आभासी साथी डॉ.प्रवीण चोपड़ा, आदि ब्लॉगर आलोक कुमार व तकनीकि विशेषज्ञ विपुल जैन, स्नेहमयी वंदना अवस्थी दुबे, गंभीर आवाज में अपनी बातें करने वाले कार्तिकेय मिश्र लगता था कि इन्होंनें एक एक शब्दों को बोलने के पहले तोला हो), इन्हीं की तरह मुम्बई से पधारे डॉ.मनीष कुमार मिश्र की भी बातें लगती थी उनकी बातें सुनते हुए यह स्पष्ट हो जाता था कि ये हिन्दी के प्राध्यापक हैं। इनके अतिरिक्‍त विश्‍वविद्यालय के माननीय कुलपति का हिन्‍दी ब्‍लॉगों के प्रति रूचि व छात्र छात्राओं की सीखने की ललक सेहम अत्‍यंत प्रभावित हुए। इस दो दिन के कार्यक्रमकी स्‍मृतियॉं हमेशा बनी रहेगी, धन्यवाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी।

मेरे पीछे शोध छात्र जोशी
चलते चलते :- इस कार्यक्रम में ब्‍लॉगरों के अतिरिक्‍त महाविद्यालय के छात्र जोशी (नाम ध्यान नहीं आ रहा है) से भी हमारी मुलाकात हुई। जनसंचार में एम.फिल. के बाद शोध कर रहे जोशी छत्‍तीसगढ़ के एक गॉंव से हैं। चर्चा में उनकी उत्‍सुकता एवं समझ से हमें अपनी पीढ़ी पर गर्व महसूस हुआ। जोशी नें अभनपुर के आस पास के गॉंवों में प्रचलित एक प्रथा/परम्‍परा के संबंध में हमें बतलाया जिसके अनुसार छत्‍तीसगढ़ की एक जाति किसी भी गॉंव में किसी व्‍यक्ति के मृत्‍यु के बाद मृतक के घर जाता है और दान प्राप्‍त करता है। मृतक के परिजन दान देने के बाद घर को गोबर से लीप बुहार कर, सभी कपड़ों को धोकर, घर पवित्र करते हैं। बसदेवा को दान देनें के बाद ही घर को साफ किया जाता है एवं तभी घर पवित्र होता है ऐसी मान्‍यता है। जोशी का कहना था कि यह आश्‍चर्य का विषय है कि खानाबदोश जीवन जीने वाले बसदेवा को कैसे ज्ञात हो जाता है कि अमुख गॉंव में अमुख के घर में मृत्‍यु हुई है और वह आवश्‍यक रूप से वहॉं पहुच जाता है। जोशी नें हमें कहा कि इस पर शोध किया जाना चाहिए। हमने कहा कि हमें इस प्रथा के संबंध में ज्‍यादा जानकारी नहीं है, ललित शर्मा जी आपके गॉंव के निकट ही रहते हैं, उनसे चर्चा करते हैं और शोध की दिशा में भी सोंचते हैं।

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...