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सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए : व्यंग

सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए

विनोद साव

सुखद दाम्पत्य जीवन के दो आधार..पत्नी का समर्पण और पति का प्यार। यह सूक्तिवाक्य चाहें तो दम्पत्तिगण अपने शयनकक्ष में लगाकर रख लें। दिन में पांच बार इसका जाप कर लें तो यह दिनभर उनके मन में किसी नारे की तरह गूंजता रहेगा। इससे हर पत्नी अपने मन मंदिर के देवता की उपासना भी करती रहेगी और हर पति अपनी पत्नी को हूर की परी समझने लगेगा। रोज सबेरे जब उनकी नींद खुले तो यह नारा उनकी ऑखों के सामने होगा जो उन्हें किसी शक्तिवर्द्धक पेय की तरह तरोताजा रखेगा। रात में सोते समय इस सूक्तिवाक्य पर दृष्टि पड़ जाए तो वह शिलाजीत की तरह तेज एवं भरोसेमंद साबित होगा। रोजमर्रा के जीवन में जहॉ बच्चों की चिल्ल-पों, भोजन व नाश्ते के बीच की खिटखिट, किराने दुकान की किटकिट और दिनभर घर में बर्तन मांजने, कपड़ा धोने व झाड़ूपोंछा करने की किचकिच के बीच यह नारा पति-पत्नी को सदाबहार बनाए रखेगा।


समानता की आवाज है। नारी जागरण का उफान है। तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का तूफान है। लोग कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। एक कवि महोदय मंच पर दहाड़ रहे थे कि `हमने कंधे से कंधा मिलाया तो ईनाम में दर्जन भर बच्चों को पाया।` मंच से उतरकर वे गदगद थे। श्रृंगार रस की कविताओं से वे ओतप्रोत हुए जा रहे थे। गले में चंदन माल और उपर चंदन भाल। हाथ में रखे लिफाफे से उनके पॉव भारी थे। हमने उनसे आटोग्राफ मांगा तो वे अभिभूत हुए। हमारी डायरी और हमारी पेन मांगकर उस पर अपना पता लिख दिया - सुकवि रासबिहारी `प्रणय`, कन्हैया-ट्वेल्व्ह, वृन्दावन की कुंज गली। हमने पूछा `कवि महराज! ये कन्हैया-ट्वेल्वह क्या है क्या कन्हैयाजी की सोलह हजार एक सौ आठ रानियों में से किसी एक का नम्बर है`


उन्होंने भावविव्हल होते हुए कहा कि `महाशयजी! ये हमारे सुखद दाम्पत्य जीवन का परिणाम है। हमने अपनी जीवनसंगिनी को हमेशा बराबरी का दर्जा दिया। उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया।`


`तो इससे कन्हैया-ट्वेल्व्ह का क्या सम्बंध है सुकवि! कृपया शंका समाधान करें।`


वे किसी शीलवती नारी की तरह सकुचाते हुए बोले `दरअसल कन्हैया .. हमारा सबसे छोटा और एकमात्र पुत्र है जो ग्यारह बेटियों के बाद पैदा हुआ है। हमने अपने मकान का नाम उसी चिरंजीव के नाम पर रखा है यानी कि कन्हैया-ट्वेल्वह।` दाम्पत्य जीवन में उनकी श्रम-साधना के परिणाम को जानकर मैं बाग बाग हुआ।


भ्रष्टाचार के आरोप तो अब एक आरोप नहीं कल्चर बन गए हैं। लेनेदेन और खानपान का संस्कार है। एक से लेना तो दूसरे को देना की परम्परा बढ़ चली है। अपने महकमे के जिम्मेदार अधिकारी हैं फिर भी दयनीय होकर कह उठते हैं कि `क्या बताएं साब .. हमारे उपर भी तो कोई बैठा है। हम न भी लेना चाहें तो ये उपर वाले कहॉ मानते हैं। लेना और देना हम सबकी मजबूरी है।` जो आया है सो जाएगा के फकीरी अंदाज में वे बोल पड़ते हैं कि `जो देगा वह पाएगा। जो खिलाएगा उसका काम होगा। अपना पेट तो तन्ख्वाह से भर लेते हैं लेकिन साथ में एक बीवी और चार बच्चे भी हैं। उनकी खुशी का खयाल भी तो रखना है।` वे लिफाफा टेबल के नीचे सरकाते हुए सरक उठे।


मैंने पूछा कि `क्या आप घर में इस परम्परा को बनाए रखें हैं! लेनेदेन और चाटुकारिता का विभागीय मामला घर में भी निर्णायक साबित होता है`


वे छूटते ही बोले `हॉ.. क्यों नहीं! हर महीने बीवी के लिए साड़ी या गहने का इंतजाम करो और बच्चों को कपड़े व खिलौने देते रहो तो घर के दाल आटे का भाव पता नहीं चलता। अपुन तो बस आजाद पंछी। सबेरे घर से काम पर निकलो और देर रात तक घर पहुंचो।` वे अपने घर की देर रात फिल्म का किस्सा सुनाने लगे। जो उनके सुखद दाम्पत्य जीवन का राज था।


यह फिल्म का दूसरा हिस्सा है। जहॉ एक कोई कहता है तो दूसरा उसका खंडन करता है। खंडन मंडन भी खूब जमकर चल रहा है। सत्ता ने स्टेटमेंट दिया तो संगठन ने उसका खंडन किया। सरकार ने कोई घोषणा की तो विपक्षी दल ने खंडन किया। निर्णय लेने के लिए मैनेजमेंट है तो उनका खंडन करने के लिए यूनियन है। सुखद दाम्पत्य जीवन का राज बताया पति महाशय ने तो पत्नी ने उसका खंडन किया `इनको क्या पता है! ये घर में रहते ही कब हैं। घर-गृहस्थी के झंझट में तो हम फॅसे हैं। इन्हें तो सचमुच दाल-आटे का भाव भी नहीं मालूम। एक बार घर से निकले तो फिर गायब, सीधे रात को खाने और सोने के लिए पहुंचेंगे। घर को घर नहीं सराय बना लिया है। कुछ कहती हूं तो द्रौपदी-सत्यभामा संवाद सुनाते हैं कि पत्नी का पति के प्रति आदर्श व्यवहार क्या हो - अपने अंदर के अहंकार को दूर कर पति में अपने नारीत्व को पूजा के फूल की तरह निष्काम प्रेम के जल से सुरभित कर उड़ेल देना। पत्नी को पति का प्रिय भोजन स्वयं बनाना और बैठकर भोजन कराना है। पति के आगे स्वयं को सतेज, सुन्दर, चिरऱ्यौवना के रुप में रखने का प्रयास करना। तुम मेरे हो के बजाय मैं आपकी हूं का भाव पति के साथ रखना।` क्या करेंगे भैया.. मर्दों की दुनियॉ है जैसा कहेंगे वैसा करेंगे। औरत के नसीब में तो बस कहीं भी खटना लिखा है।`


उत्सवधर्मियों की यह दुनियॉ है। कहीं उदघ़ाटन तो कहीं शिलान्यास, कहीं जन्मतिथि तो कहीं पुण्यतिथि, कहीं नारी उत्थान तो कहीं विधवा विवाह, कहीं वेलेन्टाइन-डे तो कहीं मैरीज एन्नीवर्सरी। बाजार में ऐसी भीड़ है जैसे ज़िन्दगी चार दिन की है। मिठाइयॉ, उपहार और गुलदस्ते लेते हुए सफेद पाजामें में कत्थई कुर्ता पहने आशिकी अन्दाज में वे मिल गए, बोले `आज शादी की सालगिरह है। इसलिए कुछ ले जा रहा हूं।`


मैंने पूछा `आज के दिन आप अपनी पत्नी को डॉटते फटकारते नहीं? और उसकी भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाते?`


`अजी इसके लिए तो साल भर पड़ा है। कम से कम एक दिन तो हम हॅसते खेलते बिता लें। फिर पति-पत्नी के बीच खटपट तो होती रहनी चाहिए जैसे संसद में प्रधानमंत्री और विपक्षी नेता के बीच होती है। यही सच्चा प्रजातंत्र है। इससे लगता है दाम्पत्य जीवन में कुछ घट रहा है। नहीं तो दोनों एक एक ओर मुंह फुलाए बैठे हैं तो क्या मतलब। पति पत्नी के बीच नोंकझोंक दाम्पत्य सम्बंधों में प्रगाढ़ता के लक्षण हैं।` उन्होंने दाम्पत्य सम्बंध को लोकतांत्रिक रुप दिए जाने पर जोर दिया।


हर माकूल समय में उपहार देने का चलन है। कुछ उपहार देने के बहाने रिश्वत खिला देते हैं तो कोई रिश्वत देने के बहाने उपहार थमा देते हैं। साहब के पास जाओ तो उपहार ले जाओ, बाबू के पास जाओं तो उपहार ले जाओ, प्रीतिभोज में जाओ तो वर वधू को लिफाफा पकड़ाओ जैसे खाने के बिल का एडवांस पेमेन्ट हो। वे नार्थस्टार-शू के उपर जीन्स, जीन्स के उपर टी-शर्ट, टी-शर्ट के उपर गॉगल और गॉगल के उपर हैट पहने हुए हीरो लग रहे थे लेकिन एक बम्फर सेल में बड़े पशोपेश में खड़े थे। मुझे देखते ही झल्ला पड़े `यार..दुनियॉ में किसी को भी कोई गिफ्ट देना तो समझ में आता है कि क्या देना है लेकिन इन बीवियों के मामले में दिमाग काम नहीं करता!`



मैंने संस्कृत के एक चले हुए श्लोक को बमुश्किल उच्चारित करते हुए उन्हें सुनाया कि `पुरुषस्य भाग्यम नारी चरित्रम् दैवो ना जानधि कुतो मनुष्या।` पुरुष के भाग्य और नारी के चरित्र को देवता भी नहीं जान सकते तो आदमी की क्या बिसात।`


पर उनका कंझाना सतत जारी था `शादी की सालगिरह है अब पत्नी को कौन सा उपहार दूं! उसे अपने नए मकान की चाबी सौंप दूं या किसी हिल-स्टेशन में घुमा लाउं! घर में ही कार्यक्रम बनाएं या किसी होटल में सेलीबे्रट करें। सोने का कोई गहना पहनाउं या हाथीदांत व चंदन की लकड़ी का बना कोई आभूषण खरीदूं! यार.. मुझे ये सुखद दाम्पत्य जीवन की कोशिश बड़ी दुखद लग रही है।`


मैंने कहा `बंधु! नारी को सबसे प्यारी साड़ियॉ है। वह जब भी शॉपिंग के लिए जाती है तो कोई साड़ी खरीद लाती है। कभी कोई फेरी वाला आ जाता है तो उसके साड़ी के ठेले के आसपास मोहल्ले भर की पत्नियॉ ऐसे चिपक जाती हैं जैसे शहद के छत्ते से मुधमक्खियॉ। एक महिला दूसरे की मेहमान होती है तो उसे सम्मान में साड़ी मिलती है। दूसरी महिला पहले के घर आती है तो वह साड़ी के बदल साड़ी पाती है। जैसे नारी के तन पर साड़ियॉ चमकती हैं वैसे ही साड़ियों के बीच में नारी दमकती है। इस पर हिन्दी व्याकरण में भ्रांतिमान अलंकार का एक सुन्दर उदाहरण भी है कि `नारी बीच साड़ी है कि साड़ी बीच नारी है..नारी है कि साड़ी है कि साड़ी है कि नारी है।` जब भ्रांतिमान अलंकार के लिए नारी और साड़ी के उदाहरण को उपयुक्त माना गया तो अपनी पत्नी की पसंदगी पर आपका भ्रम स्वाभाविक है।` इस उदाहरण से उन्हें पत्नी की पसंद का सूत्र मिल गया था और वे कंझाना छोड़कर साड़ियों की दुकान की ओर भाग खड़े हुए।


आजकल मार्निगवाक की भागमभाग है। सेहत बनाने और मांसपेशी दिखाने का फैशन है। मैक्सी के अन्दर बीवी है तो चार साल का बेटा फूलपेंट में डूबा है और पिताश्री उतर आए हैं हाफपेंट पर। तीनों का बरमूड़ा ट्रैंगल है। बरमूड़ा पहने वे पत्नी और बच्चे के साथ दौड़े जा रहे थे। ओलम्पिक में जैसे किसी विजेता धावक के पीछे पत्रकार दौड़ते हैं मैंने उनके पीछे दौड़ लगाते हुए कहा कि `सर! शायद आपके सुखद दाम्पत्य जीवन का यही राज है कि हर रोज आप पत्नी व बच्चों के साथ दौड़ लगाते है।`


`ज़िन्दगी तो दौड़धूप का दूसरा नाम है।` पहले वे दार्शनिक भाव से बोले। .. जब दौड़ना है तो अकेले क्यू.. पत्नी को भी साथ रखिए क्योंकि पति और पत्नी गृहस्थी की गाड़ी के दो चक्के हैं और इसे चलाने के लिए दोनों चक्कों का दौड़ना जरुरी है।` अब वे गृहस्थ मुद्रा में आ गए थे।


`.. फिर साथ में यह तीसरा चक्का क्यों।` मैंने उनके बेटे की ओर ईशारा करते हुए कहा।


`बेटा स्टेपनी है.. जब एक चक्का पंक्चर हो जाता है तो तो स्टेपनी काम आता है।` अब वे घोर व्यावहारिकता में उतर आए थे। कहने लगे `रोज सबेरे दौड़ लगाकर सेहत बनाने का हमारा उदद़ेश्य भूख बढ़ाना है। आपको आश्चर्य होगा कि हमारे सुखद दाम्पत्य जीवन का मुख्य आधार `मुर्गा` है।`


`लेकिन आदमी के सुखद दाम्पत्य जीवन से भला एक मुर्गे का क्या सम्बंध है।` मैंने चौकते हुए पूछा।


`सम्बंध है साहब सम्बंध है.. अब देखिए मेरी बीवी मुर्गा बहुत अच्छा बनाती है। जिस दिन वह लजीज मुर्गा बनाती है उस दिन हमारे दाम्पत्य सम्बंध मुधर हो उठते हैं। जिस दिन मुर्गा बनाने में देरी हुई या मुर्गा ठीक नहीं बना तो हम दोनों के बीच मुर्गा लड़ाई शुरु हो जाती है। हम रोज सबेरे दो मील दौड़ लगाते हैं ताकि हमें ज्यादा से ज्यादा भूख लगे और हम ज्यादा से ज्यादा मुर्गा खा सकें।` यह कहते हुए उन्होंने अपनी पत्नी की ओर किसी मुर्गे की तरह प्यार से गर्दन उठाकर देखा तो पत्नी फुदकते हुए समर्पण भाव से निहाल हो उठी। ये उसी सूत्र का परिणाम था जिससे यह नारा बना है कि सुखद दाम्पत्य जीवन के दो आधार पत्नी का समर्पण और पति का प्यार।



पिछला लेख : ओह भिलाई तुम कितनी सुन्दर हो....
विनोद साव

मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ ४९१००१

मो. ९३०११४८६२६

पाठकों के पत्र व्‍यंगकारों के नाम : विनोद शंकर शुक्‍ल - 3


पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम
दूसरा पत्र शरद जोशी के नाम

तीसरा पत्र रविन्‍द्रनाथ त्‍यागी के नाम




हे व्‍यंग के ऋतुराज,

आदाब !

गुस्‍ताख किस्‍म के खत के लिए माफी चाहता हूं । यों शायद मैं गुस्‍ताखी का हौसला न करता, अगरचे मरहूम शायर अब्‍दुल रहीम खानखाना मेरी हौसलाअफजाई न करते । खानखाना साहब फर्मा गये हैं --- ‘ क्षमा बडन को चाहिए छोटन को अपराध ।‘ इस शेर की रोशनी में छोटा होने के कारण मुझे गुस्‍ताख होने का हक मिल जाता है और बडे होने के कारण आपको माफ करने की सनद ।


जनाब, मैने आपकी कई किताबें पढी हैं । अहा, क्‍या प्‍यारी प्‍यारी फागुनी चीजें दी है आपने ? आपका हर्फ-हर्फ जायकेदार है, लाईन-लाईन सीने से लगा लेने के काबिल हैं ।


आप हिन्‍दी व्‍यंग की आबरू हैं, व्‍यंग के ऋतुराज हैं । अगरचे हिन्‍दी में और भी व्‍यंगकार हैं, पर आपके सामने सब फीके हैं । परसाई ग्रीष्‍म हैं, शरद वर्षा और श्रीलाल शीत । वसंत तो केवल आप हैं । मैं अक्‍सर अपने दोस्‍तों से कहता हूं, अगर तुमने त्‍यागी साहब को नहीं पढा, तो कुछ नहीं पढा, ऐसा ग्रेट राईटर सदियों में पैदा होता हैं ----

‘हजारों साल हिन्‍दी अपनी बेनूरी पे रोती है, बडी मुश्किल से होता है अदब में, त्‍यागी तब पैदा ।‘

हम तो आपके ही मुरीद हैं । जैसे रसखान के लिए कृष्‍ण वैसे हमारे लिए आप । अगले जन्‍म के लिए यही एकसूत्रीय आरजू है ---

पाहन हौं तो वही फ्लैट को, जो जाय लगे त्‍यागी साहब के द्वारन ।

गरीबनवाज आपसे एक छोटी सी गुजारिस है । इधर मुहल्‍ले में अपना एक लफडा चल रहा है । एक चौदहवी के चांद पर दिल जा अटका है, जैसे कटी पतंग बिजली के खंबे पर अटक जाती है । मुश्किल यह है कि इधर एक शायरनुमा नौजवान से लडकी के ताल्‍लुकात दिन दूने रात चौगुने बढ रहे हें । कमबख्‍त शेरों शायरी भरे खत लिखता है कि लडकी दिलोजान से उसे चाहने लगी है । आप हसीनाओं के फितरत को जानते ही हैं ( आपने भी तो आधा दर्जन से अधिक इश्‍क किये हैं और ‘मेरे पहले प्रेम प्रसंग’ वाली रचना में स्‍वीकार भी किया है ) जो जितना नमक मिर्च लगाकर उनके हुश्‍न की तारीफ करता है, उसे वो उतना ही बडा आशिक मान बैठती है ।


बदनसीबी से मै भी इस कला में कोरा हूं । हाय रे हिन्‍दुस्‍तान, यहां प्रेम करना भी आसान नहीं है । नौजवानों के लिए नर्क है यह देश । नौकरी भी मुश्किल, छोकरी भी मुश्किल । नौकरी के लिए अप्‍लीकेशन लिखना आना जरूरी है और छोकरी के लिए प्रेमपत्र ।


त्‍यागी साहब, अब आप भी हमारे अल्‍लाह हैं । अपने इस बंदे को डूबने से बचाईये । चार पांच अच्‍छे से दिल फरेब खत लौटती डाक से लिख भेजिए, ताकि मैं उस शायर की औलाद का पत्‍ता साफ कर सकूं । आपसे पढकर इस फन का माहिर इंडिया में इस वक्‍त कोई दूसरा नहीं है ।


हालांकि मैं नवाब वाजिद अली शाह की औलाद नहीं हूं, परंतु दिल मैने नवाब का पाया है । आपको हर खत पर मैं 100 रूपया बतौर शुक्राना अदा करूंगा । उम्‍मीद है आप मेरी फरमाईश पूरी करेंगें ।


आपका शुक्रगुजार

आशिक अली, एम. ए.

पाठकों के पत्र व्‍यंगकारों के नाम : विनोद शंकर शुक्‍ल 2

पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम

दूसरा पत्र शरद जोशी के नाम

दुष्‍ट-प्रवर,

समझ में नहीं आता, मैनें तुम्‍हारा क्‍या बिगाडा है ? क्‍यों तुम हाथ धोकर मेरे पीछे पडे हो ? सीआईए जैसे किसी भी देश में गृह कलह करा देता है, वैसे ही तुमने मेरी छोटी-सी गृहस्‍थी में बवंडर उठा दिया है । तुम्‍हारे ही कारण कल मेरी पत्‍नी रूठकर मायके चली गई और मैं तब से अपने को बिलकुल अनाथ और असहाय महसूस कर रहा हूं ।

महाशय, मैं तुमसे व्‍यक्तिगत तौर पर बिलकुल परिचित नहीं, मैने तुम्‍हें कभी देखा नहीं, फिर तुम मेरे संबंध में सारी बातें कैसे जानते हो ? यदि जानते भी हो तो उसे अपनी रचनाओं के माध्‍यम से सार्वजनिक क्‍यों बना देते हो ? तुम्‍हें किसी के निजी जीवन में झांकने का क्‍या हक है ?

शादी से पहले लिखी, मेरी प्रेमिका ( अब पत्‍नी ) की चिट्ठी जाने तुमने कहां से उडा ली और उसे जैसे का तैसा अपनी ‘पराये पत्रों की सुगंध’ रचना में प्रयुक्‍त कर लिया । क्‍या तुम्‍हारे पास अपनी अकल नहीं है ? बिलकुल यही तो शव्‍द थे मेरी प्रेमिका के ------ ‘डियर, मैं 26 को मेल से पहुंच रही हूं । उम्‍मीद है प्‍लेटफार्म पर वक्‍त से मिल जाओगे । अभी मैरिज अनांउंस मत करना क्‍योंकि कुछ दिन हमें अलग रहना शो करना पडेगा । मेरे ठहरने का अरेंजमेंट कही अलग करना फिलहाल । तुम्‍हारा जुकाम कैसा है ? उसमें कबूतर बडा मुफीद होता है । बहुत बहुत प्‍यार तुम्‍हारी – नूरजहां ‘

खैर, बमुश्किल हमारी शादी हुई । हमने घर बसाया । तुमने फिर भी हमारा पीछा नहीं छोडा । अब तुम हमारे पारिवारिक जीवन में झांकने लगे । ‘मेरे क्षेत्र के पति’ रचना में तुमने मुझे ‘कुत्‍ते’ के रूप में पेश किया, लिखा ---- ‘उनके गले में जंजीर बंधी रहती है जो उन‍की औरत के हाथ में रहती है जो अंदर काम करती है । वे समय पर छोड भी दिये जाते हैं, और वे तब सडक पर भटकते हैं और दफ्तर जाते हैं ।‘

अच्‍छा, मैं कुत्‍ता सही, पर मैने तो तुम्‍हे कभी नहीं काटा । फिर क्‍यों तुम व्‍यंग के पत्‍थर मुझ पर उछालते रहते हो ।

तुम लेखक हो या ‘ऐंटीना’ । मिया-बीबी के होने वाले गुप्‍त संवादों को भी कैच कर लेते हो ? अब तो बेडरूम में पत्‍नी के साथ सोते हुए भी यही लगता है कि तुम हमें देख रहे हो, सुन रहे हो ।

कल तो गजब हो गया ‘भूतपूर्व प्रेमिकाओं को पत्र’ वाली तुम्‍हारी रचना पढ बीबी यों उखड गयी जैसे आंधी में कोई पेड उखड जाता है । तुमने मेरी भूतपूर्व प्रेमिका कुंतला का जिक्र इस रचना में किया है । पत्‍नी को उसके और मेरे प्रेम के संबंध में पता चल गया था । दरअसल बीए के तीन सालों में मैने तीन अदद कन्‍याओं से प्रेम किया । पहले साल जूली, दूसरे साल कुन्‍तला और तीसरे साल यही नामुराद नूरजहां, जो अब मेरी बीबी है । तुम देखोगे, प्रेम में भी मैनें साम्‍प्रदायिक एकता का निर्वाह किया । इसाई, हिन्‍दू और मुस्लिम तीनो धर्म की कन्‍याये मेरी प्रेमिकायें रही । खैर कुन्‍तला इस समय एक ठेकेदार की बीबी है और यदा कदा मिलकर हम अपने भूतपूर्व प्रेम की दीवाली मना लेते हैं । तुम्‍हारी रचना नें पत्‍नी के पुराने जख्‍म कुरेद दिये । वह बार बार पूछने लगी क्‍या तुम उससे अब भी मिलते हो ? तुम्‍हारी वो घरफोडू पंक्तियां इस प्रकार हैं ---

‘ अब तो तुम्‍हारे उन सुर्ख गालों पर वक्‍त नें कितना पाउडर चढा दिया है । जिन होटो के अंचुंम्बित रहने का रिकार्ड बन्‍दे नें पहली बार तोडा था, उस पर तुम्‍हारे पातिव्रत्‍य नें आज ऐसी लिपिस्टिक लगा रखी है, जैसे मेरी कविता की कापी पर घूल की तहें । आज जब अपने बच्‍चों को स्‍कूल और ठेकेदार पति को पुल का निर्माण देखने रवाना कर तुम सोफे पर लेटी यह चिट्ठा पढ रही हो, मैं तुमसे पूछूं कि क्‍या तुम्‍हे याद है वो ठेकेदारिनी कि, कभी एक पुल बनाने का, दो किनारे जोडने का ठेका तुमने भी लिया था ।‘

मैने नूरजहां को लाख समझाया कि मेरे और कुन्‍तला के बीच अब कोई संबंध नही है, परन्‍तु वह मानने को तैयार नही थी । तुम्‍हारी इन चंद लकीरों नें कहर ढा दिया । घर की कंकरीट की दीवार भी थरथरा गयी । गीता कुरान उठा कर मैने कुन्‍तला को भूल जाने की कसमें खायी, पर नूरजहां न रूकी ।
जालिम, तुम्‍हारे बारे में मेरे मन में तरह तरह के खयाल आते हैं, क्‍या तुम मेरी बीबी के पुराने आशिक हो जो उससे इस तरह बदला ले रहे हो ? कहीं तुम्‍हारा इरादा मुझे ब्‍लेकमेल करने का तो नही है ? बोलो, कितना पैसा लेकर तुम हमें चैन से जीने दोगे ?

इस पत्र का जवाब चार दिन के अंदर न दिया तो मेरी राईफल से शहीद होने के लिए तैयार रहो ।

तुम्‍हारा

भूचाल सिंह ईंट ठेके दार


(शेष अंतिम पत्र अगले पोस्‍ट पर)

पाठकों के पत्र व्‍यंगकारों के नाम : विनोद शंकर शुक्‍ल

(अस्‍सी के दसक से आज तक व्‍यंग की दुनिया में तहलका मचाने वाले रायपुर निवासी आदरणीय विनोद शंकर शुक्‍ल जी को कौन नही जानता है उन्‍होंने अपने समकालीन व्‍यंगकारों पर भी अपनी कलम चलाई है । हम 1985 में रचित व प्रकाशित उनकी एक व्‍यंग रचना को यहां आपके लिए प्रस्‍तुत कर रहे हैं )


हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रविन्‍द्र नाथ त्‍यागी की व्‍यंग तिकडी हिन्‍दी पाठकों के बीच अपार लोकप्रिय है । इनका अपना विशाल पाठक समूह हैं । एक समीक्षक किस्‍म के पाठक नें मुझे बताया कि परसाई को तामसिक, जोशी को सात्विक और त्‍यागी को राजसिक प्रवृत्ति के पाठक बहुत पसंद करते हैं । एक पाठक जो व्‍यंगकारों को साग-सब्‍जी समझता था, मुझसे बोला, ‘क्‍या बात है साब अपने व्‍यंगकारों की । सबके स्‍वाद अलग अलग हैं । परसाई करेला है, जोशी ककडी है और त्‍यागी खरबूजा है ।‘ उसकी बात से लगा, तीनो में से कोई भी उसे मिला तो वह कच्‍चा चबा जायेगा ।

हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास के मर्मज्ञ एक पाठक बोले ‘राजनीति उस समय फलती फूलती है, जब किसी चौकडी का जन्‍म होता है और साहित्‍य तब समृद्ध होता है, जब कोई तिकडी उस पर छा जाती है । प्रसाद, पंत और निराला की ‘त्रयी’ जब प्रगट हुई, तभी छायावाद फला फूला । हिन्‍दी की नयी कहानी भी कमलेश्‍वर, मोहन राकेश और राजेन्‍द्र यादव के पदार्पण से ही सम्‍पन्‍न हुई । यही हाल हिन्‍दी व्‍यंग का है । परसाई, शरद जोशी और रविन्‍द्रनाथ त्‍यागी हिन्‍दी व्‍यंग के ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश हैं ।‘

रोज बडी संख्‍या में व्‍यंगकारों को पाठकों के अजीबोगरीब पत्र प्राप्‍त होते हें । इनकी फाईलों में सेंध लगाकर बडी मुश्किल से प्राप्‍त किये गये तीन पत्र आपकी खिदमत में पेश है :-

पहला पत्र : हरिशंकर परसाई के नाम



अधर्म शिरोमणि,

ईश्‍वर तुम्‍हे सदबुद्धि दे ।

तुम जैसे नास्तिकों को हरि और शंकर जैसे भगवानों के नाम शोभा नहीं देते । अच्‍छा हो यदि तुम एच.एस.परसाई लिखा करो । म्‍लेच्‍छ-भाषा ही तुम्‍हारे लिए ठीक है ।

मेरा नाम स्‍वामी त्रिनेत्रानंद है और मैं भूत, वर्तमान और भविष्‍य सभी देखने की सामर्थ्‍य रखता हूं । ‘पूर्वजन्‍मशास्‍त्र’ का तो मैं विशेषज्ञ ही हूं । मैने बडे बडे नेताओं, महात्‍माओं और ज्ञानियों के पूर्वजन्‍म का पता लगाया है ।
पंडित जवाहर लाल नेहरू को मैने ही बताया था कि वे पूर्व जन्‍म में सम्राट अशोक थे । मेरे कथन की सत्‍यता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सम्राट अशोक भी शांतिप्रिय थे और पंडित नेहरू भी । अशोक नें विश्‍व शांति के लिए धर्मचक्र प्रवर्तित किया था और पंडितजी नें पंचशील । दोनों की जन्‍म कुण्‍डलियां इस सीमा तक मिलती थी कि यदि जन्‍मतिथि का उल्‍लेख न होता तो यह बताना कठिन था कि कौन-सी अशोक की है और कौन-सी पंडित जी की ?

इसी प्रकार बाबू राजनारायण को भी मैने ही बताया था कि वे पूर्वजन्‍म में दुर्वासा ऋषि थे । दुर्वासा के भीतरी और बाहरी दोनों ही लक्षण उनमें दिखाई देते थे । दाढी बाहरी लक्षण हैं और क्रोधी मन भीतरी । उनके शाप के कारण ही जनता-पार्टी का राजपाठ चौपट हो गया था ।

दुर्बुधे, तुम्‍हारे भी पूर्वजन्‍म का पता मैने लगाया है । कुछ दिन पूर्व एक धर्मप्राण सज्‍जन मेरे पास आये थे । तुम्‍हारी कुण्‍डली देकर बोले, ‘यह लेखक धर्म-कर्म के विरूद्ध अनाप-शनाप लिखता है इसकी अक्‍ल ठिकाने लगाने की कोशिस कर हम हार गये हैं । अब आप ही ऐसा कोई अनुष्‍ठान कीजिये, जिससे इसकी बुद्धि निर्मल हो जाये । इसे व्‍यंगकार से प्रवचनकार बना दीजिये ।‘

तुम्‍हारी कुण्‍डली देखने पर ज्ञात हुआ कि तुम द्वापर के अश्‍वत्‍थामा हो । धर्म, नीति और न्‍यायभ्रष्‍ट, अभिशप्‍त । पाण्‍डवों द्वारा पिता के अधमपूर्वक मारे जाने से विक्षिप्‍त, पशू युगों-युगों से दिशाहीन भटकते हुए । यह सत्‍य है, अश्‍वस्‍थामा कभी मरा नहीं, वह सदियों से नये नये रूपों में प्रकट होता रहता है । कभी कार्ल मार्क बनकर आता है तो कभी हरिशंकर परसाई ।

यज्ञ द्वारा तुम्‍हारी मुक्ति और विवेक निर्मल करने में समय लगेगा । मैं शार्टकट चाहता हूं । जिससे अनुष्‍ठान का चक्‍कर भी न चलाना पडे और तुम्‍हारा परिष्‍कार भी हो जाये । तुम केवल इतना करो कि नास्तिक लेखन छोड दो ‘रानी नागफनी की कहानी’ के स्‍थान पर ‘नर्मदा मैया की कहानी’ जैसी रचनायें लिखने लगो । इससे तुम्‍हारी शुद्धि चाहने वाले इतने मात्र से संतुष्‍ट हो जायेंगें । अनुष्‍ठान का पैसा हम और तुम आधा-आधा बांट सकते हैं ।

एक काम और मैं करूंगा अपनी पूर्वजन्‍म की विद्या से सिद्ध कर दूंगा कि तुम त्रेता के परशुराम हो । परसाई परशुराम का ही तो अपभ्रंश रूप है । परशुराम भी ब्राह्मण और अविवाहित थे, तुम भी हो । फर्क इतना ही है कि फरसे की जगह इस बार हाथ में कलम है ।

तुम्‍हें अश्‍वस्‍थामा बनना पसंद है या परशुराम, यह तुम सोंचो । आशा है, अपने निर्णय की शीध्र सूचना दोगो ताकि मैं भी अपना कर्तव्‍य निश्चित कर सकूं ।

सदबुद्धि के शुभाशीष सहित,

- स्‍वामी त्रिनेत्रानंद

(आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी के प्रिय प्रोफेसर श्री शुक्‍ल जी के शेष दो पत्र अगले पोस्‍टों पर हम प्रस्‍तुत करेंगे)

धांसू प्रोफाईल का सच

हम कवि एवं कविता दोनों के मर्मज्ञ हैं । हम कवि हृदय एवं आह से उपजे गान को समझते हैं । पाठक भी ऐसे अवसर को पहचानते हैं प्रेम, आह और दर्द को देखकर कविता के चिट्ठों में सात्‍वना देने जरूर जाते हैं । कहा भी गया है जो दुख में साथ निभाये वही तो साथी है, यदि बनना हो साथी तो प्रेम, आह और दर्द की कविताओं पर टिप्‍पणी कीजिये अपने प्रोफाईल में तुलसीदास जैसे महाकवि के छंदों को लिखें । कवि न होउं न बचन प्रवीणा । तो भईये ये संवाद का तकाजा है ।

हम तो साहित्‍य के विद्यार्थी रहे हैं हमें तो और भी मजा है मुहरटे छंदों व पदों की ऐसी झडी टिप्‍पणियों व आरकुट स्‍क्रैपों में हम फेंकते हैं कि कन्‍या तो फिदा हो ही निहायत हाउस वाईफ टाईप फिमेल भी हमारे बहुमुखी व्‍यक्तित्‍व वाले प्रोफाईल से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । हमने आरकुट और कविता के चिट्ठों को देखा तो अपने प्रोफाईल को पहले अपडेट किया क्‍योंकि जब लोग जो हैं वो नही प्रस्‍तुत करते, जो नहीं हैं उसे प्रस्‍तुत करने का नाम ही यदि प्रोफाईल है तो हम क्‍यू पीछे रहें बडे दिनों से जो भी बनने की तमन्‍ना थी उसे बारी बारी से अपने फोफाईल में अब डालना आरंभ कर दिया था । पच्‍चीस पोज देकर अपने पिचके गाल के दोनो तरफ दो दो बीडा पान बनारस से मंगा कर दाबे हैं और बीस फोटू खिंचवायें थे । ऐइसा फोटू निकलवाया था कि जइसे गुड । मख्खियां भिनभिना के आई रही थी । भाई सूंघने वालों की कमी नहीं है बस आपका प्रोफाईल और फोटू एवं टिप्‍पणी धांसू होना चाहिए ।

अब आने लगे थे स्‍क्रैप, होने लगी थी चैटिंग । रात को जब फुरसतिया टाईम में हम नेट में बैठते थे तो हमारी श्रीमतिजी कनखियों से हमारे मानीटर का निरीक्षण करते रहती थी । सो हमने अपने साथियों को कह दिया कि अपने अपने प्रोफाईल में फोटू अमिताभ बच्‍चन और अमर सिंह जी का लगा लो पर संजीत भाई के मामू नें हमारा सब किये धरे पर पानी फेर दिया । तब हमने कहा कि हनुमान जी का फोटो लगा लो क्‍योंकि शादी के पहले तक हम भी उन्‍ही के नक्‍शे कदम पर चले हैं और वो हमारे अब भी आराध्य हैं ऐसे में कनखियों से भी हमारी श्रीमती जान नहीं पायेगी कि हम इंशान से चैट कर रहे हैं कि भगवान से ।

कल ही हमारी जिद्दी पडोसन घर आयी और आग लगा गयी । वो आई जी पंडा के सारे किस्‍से को मेरी श्रीमती को रिकाल करा गयी । अब हनुमान जी के भी फोटू को नाक में चश्‍मा को ठीक करती हुई देखती है और कहती है भरोसा नहीं है तुम लोगों का वो प्रोफेसर मटुक नाथ को देखो, अपनी बेटी के उम्र की लडकी के साथ भाग गया । आजकल की लडकियां चीनी कम, निशब्‍द जैसी फिल्‍में देखकर रामधारी सिंह दिनकर की उर्वशी को भी मात देने लगी हैं ।

श्रीमती के बार बार रिकवेस्‍ट करने और गृह कलह की गंभीर संभावनाओं को मध्‍ये नजर रखते हुए फाईनली हमने आज अपने प्रोफाईल में वो सुन्‍दर फोटू बदल दिया और अपना असली फोटू लगा दिया ।

कैसे लगा मेरा फोटू बताईयेगा जरूर ।

एमबीसियस गर्ल

छोटे शहरों के सितारा होटलों में बडे बडे चोचले के साथ ही रिशेप्‍शन के अतिरिक्‍त प्रोफेशनल लेडीज स्‍टाफ रखने का चलन अब बढता जा रहा है खासकर हाउसकीपिंग व किचन डिपार्टमेंटों में जहां अब तक एक्‍का दुक्‍का ही महिला स्‍टाफ रहते थे वहां इनकी संख्‍या में इजाफा होते जा रही है । वो इसलिए कि अब प्रदेश स्‍तर पर भी होटल व रेस्‍टारेंट के प्रशिक्षण संस्‍थान खुलते जा रहे हैं जहां से नयी नयी एम्‍बीसि‍यस विथ स्‍मार्ट गर्ल्‍स ट्रेनिंग लेती हैं और लोकल लेबल पर इन होटलों में ज्‍वाईन कर लेती हैं । कभी कभी एकाध माह दिल्‍ली मुम्‍बई के होटलों में काम कर के भी लडकियां वापस आ जाती हैं और लोकल लेबल पर ज्‍वाईन कर लेती हैं ।

अब ऐसी दिल्‍ली मुम्‍बई रिटर्न लडकी और उसका एम्‍बीसि‍यस होना हमें बहुत सालता है । धीरूभाई हैं कि रोज आते हैं और कहते हैं फलाना जी मिस ढेकाने को ढंग से काम सिखाईये ये वेलकम ग्रुप में काम कर चुकी हैं और ली मेरेडियन ज्‍वाईन करने वाली थी हमने रिक्‍वेस्‍ट कर के इन्‍हे ज्‍वाईन करवाया है । कहते तो ऐसे हैं जैसे हमें ही कह रहे हों कि आप ही सीखें ये तो सीखी पढी है । दिखने में भी वैसेईच लगती है ।

हम ठहरे ठेठ छत्‍तीसगढिया, सोंचते हैं जइसे ठेठ बिहारी लालू जी रेल मंत्रालय अपने स्‍टाईल में चला रहे हैं वैसे ही हम इस धरमशाला को चलायेंगे चाहे अंग्रेजी मेम आये कि जर्मनी के बाबू । यहां छत्‍तीसगढ में तो हम राजा हैं हमारी मेहरारू कहती है वा जी किसी भी शहर में चले जाओ आपके चेले होटल में नजर आ ही जाते हैं । हम हैं ही खानदानी ट्रेनिंग इंस्‍टीट्यूट, स्‍टार रेटिंग हमने लिया ही इसीलिए है चार महीना सीखों रूम में गेस्‍ट के लिए रखे लेटर पेड चुराओ टायपिंग इंस्‍टीट्यूट से एक्‍सपीरियंस सर्टिफिकेट बनाओ खुद दस्‍खत करो और चढ जाओ बेबीलोन में । पर ये एम्‍बीसि‍यस गर्ल जबसे आई है हमारी मति को अपने पांच इंची हिल वाली सैंडिल के टप टप से बहुतै भरमाती है ।

अब धीरूभाई नें भर्ती किया है इस कारण हम इनकी सैंडल का ही नाप जानने पर विश्‍वास रखते हैं ज्‍यादा कुछ नहीं । दूसरी बात दिलवालों की दिल्‍ली के ली मेरेडियन से आयी है तो कुछ तो मान रखना ही पडेगा । जब हमें रिपोर्ट देने, तराशे गये टखनो व पिंडिलियों को ढकने का प्रयत्‍न करते सोबर स्‍कर्ट और शरीर को भरपूर कसती हमारे मोनो वाली कमीज में फाईलों को अपने सीने में दबाये हमारे सामने खडी होती है तब मन तो ये करता है कि काश मैं फाईल होता । चश्‍मों को अपने सहीं जगह में बैठाते हुए उसकी बातें सुनता हूं । दिल्‍ली के गलियों और वहां रहने वालों के बारे में पूछता हूं कि शीला दीक्षित जी से मिली हो क्‍या, वहां चाय का क्‍या क्‍या ट्रेंड चल रहा है, कोई कवि संम्‍मेलन सुनी हो कि नहीं आदि आदि । और बातें खत्‍म कर फाईलों को वेवजह अपने टेबल में रखवा लेता हूं कि थोडी देर बाद देख कर दूंगा । उसके जाने के बाद इत्मिनान से फाईलों को नाक के सामने ले जाकर रामदेव के चेले की भांति लम्‍बी लम्‍बी सांस लेते हुए उसके डियोडरेंट का ब्रांड जानने का प्रयत्‍न करता हूं ।

पर एमबीसियस गर्ल ब्रांड का पता चलता ही नहीं । काम करने में तेज हो कि ना हो बातों में बडी तेज है रूमसर्विस सम्‍हालती है । कहती है सर रूमसर्विस और हाउसकीपिंग का काम तो मेरे घर सम्‍हालने जैसा है जैसे हम अपने कमरे सजाते हैं वैसे ही रूम सजाना है और धीरे धीरे मेरे धरमशाले के साथ साथ अपना घर भी कमीशन पेटे सजाने लगी है । रिसपांसिबिलिटी नाम की चिडिया किसे कहते हैं उसे मालूम ही नहीं दिन भर हाहा, हीही तो उससे समय बच गया तो मोबाईल में चिपकी रहेगी । रूम से फोन की घंटी पे घंटी बज रहे हों पर मैडम का मोबाईल ज्‍यादा जरूरी है । ऐसे में गेस्‍ट का शिकायत आना लाजमी है । पर कभी गेस्‍ट की शिकायत आई नहीं कि अपने झील सी आंखों में रहस्‍यमय भाव लिये हमारी सहानुभूति प्राप्‍त करने की मुद्रा में हमारे सामने खडी हो जाती है और कहती है सर जमाना खराब है गेस्‍ट जबरन शिकायत कर रहा है । इसीलिए तो मम्‍मी होटल में नौकरी करने से मना करती है । अरेरेरे मैं वारी जांवा कुडिये ।

ऐसे समय में कभी कभी धीरूभाई भी हमारे पास आना चाहते हैं तो हम झटपट वेटर भेजकर लिफ्ट को टाप फ्लोर में भेजकर दरवाजा खुलवा देते हैं । अब बुलाते रहो, एक दो बार बटन दबाते हैं फिर उत्‍साहे में “हफरते हफरते” फलोर पे फलोर चढते जाते हैं । मिस ढेकाना के अभिवादन एवं मुस्‍कान से उनका सारा श्रम काफूर हो जाता है ।

धीरूभाई भी पसीज जाते हैं उसकी अदा पर । वो ठहरे बुजुर्ग आदमी हमारी एमबीसियस गर्ल ठहरी तब्‍बू जी सी कम उम्र वाली, उसे मैंनेजमेंट हेल्‍प नहीं करेगा तो कौन करेगा । सचमुच में आज कल के गेस्‍ट साले बदमास हैं अमूल के फेमस प्रोडक्‍ट पहन कर लाबी में भी निकल जाते हैं और मना करो तो गलती गिनाने लगते हैं । बेचारी का ध्‍यान रखा करो अब जमाना बदल गया है । गाहे बगाहे स्‍कर्ट से पिंडिंलिंयां झांकती हैं और सारा मैंनेजमेंट उसकी तरफ हो जाता है ।

मैं लाख कोशिस करता हूं हिम्‍मत कर के उससे रेजीगनेशन ले लूं पर जब भी हिम्‍मत करता हूं कोई ना कोई संवेदना का सहारा उसके पास रहता है और उपर से धीरूभाई ना निगलने देते ना उगलने देते ।

हमारी समस्‍या तो सुलझने के बजाय उलझती ही जाती है एक ही बात सत्‍य नजर आती है कुछ लडकियां अपने नादानी को बेहद भुनाती हैं ।
... और बॉस के चाय में कम तो अपने चाय में चीनी ज्‍यादा मिलाती हैं ।

हजार बार देखो, देखने की चीज है (ब्‍लागर्स पैरोडी टाईप गद्य)

कल भारी बारिस के कारण रायपुर में कोई फ्लाईट नही आ पाई जमीन से आसमान तक पानी ही पानी, हमारे संस्‍था प्रमुख को आज शाम को दुबई जाना था । हडबडाने लगे क्‍या करें, नागपुर फोन किये पता चला वहां भी देर सबेर की नौबत है समय चूके जा रहा था कल भी यही हाल रहा तो ... चक्रधर की चकल्लस छोडो। हमने अपनी अभिव्यक्ति प्रस्‍तुत की बोईंग तो अइबेच नई करी अब लालू भईया के बडे बोईंग में जाये बर पडी मुम्‍बई से कल उडना है आपको कल का इंतजार करते यहीं बैठे रहेगें तो नही न जा पायेंगें दुबई ।



सो हम दौडे सांसद महोदय से रेलगाड़ी के बडका साहब को फोन करवा के टेसन की ओर टिकस का बंदोबस्‍त करने । टिकट का इंतजाम करने के बाद हमारे पास कुछ समय था हम इंतजार करने लगे बॉस का । महाशक्ति की भांति चारो तरफ नजर दौडाये कहीं कोई सुन्‍दरी मिल जाय और आंख तर कर ली जाय या कोई जोगलिखी हो कोई पहचान का मिल जाये । इस बुढापे भरी जवानी में अब आंख और अंतर्मन का ही तो सहारा रह गया है । देखा सामने एक लगभग 40-45 वर्ष की जवान कन्‍या अपने साजो सामान के साथ खडी थी साथ में उसका सामान था अल्प विराम हूर के साथ लंगूर की शक्‍ल में उसका पति गले में पट्टा बंधे कूकूर की भांति खडा था आंखों में मोटी ग्‍लास का चश्‍मा लगाये इधर उधर कुछ सूंघता हुआ शायद कुली ढूंढ रहा था । हमने अपनी नजर दूसरी ओर कर ली लगा डर कि हमरी सूरत देख के हमें ही ऐ कुली कह कर ना बुला ले ।



उसे आश्‍वस्‍थ होकर एक जगह खडे देखा तो सोंचे ये जोगलिखी हमारे लिये ही है पहले चोर निगाहों से सुन्‍दरी को फिर देखा सुन्‍दरी नें 40-45 वर्ष की ढलती उम्र को पीले टी शर्ट एवं नीले फुल टाईट जीन्‍स से जकड रखा था । गठे ठसे शरीर की कहानी स्‍पष्‍ट थी कि उसकी कोई सृजन-गाथा नहीं है । चेहरे पर विशेष रूप से बंजर भूमि सुधार के सारे परयोग अपनाये गये थे और धान गेहूं बोना छोडकर जैसे आजकल फूलों की खेती की जा रही है वैसे ही अंग्रेजी खादों से गुलाबों की खेती की गयी थी ।



मन बिना चोर नजर से उस ड्रीम सुन्‍दरी को देखना चाहा नजरें सीधे उस पर । एक क्षण में उसने अपने राजीव नयन में भांप लिया कि हम उसकी सुन्‍दरता के मुरीद हैं । उसने अनमने से अंजान भाव प्रदर्शित करते हुए पर्स से आईना निकाला, अपनी सूरत देखने लगी, मानो हमें अनुमति दे रही हो कि देखो । उसकी मानसिक हलचल को मैं स्‍पष्‍ट पढ रहा था । सौंदर्य का प्रदर्शन होना ही चाहिए हमारा मन उडन तश्तरी …. बन उसके आस पास मंडराने लगा । हमारे दादा जी कहा करते थे जिसमें से कुछ ज्ञात कुछ अज्ञात हैं पर एक याद है - आप रूप भोजन, पर रूप श्रृंगार । जो रूप उसने धरा है वो दुनिया को दिखाने के लिए ही था, सौभाग्‍य से वहां हम एकोऽहम् ही थे और कोई नहीं था, दो चार बूढे निठल्ला चिन्तन कर रहे थे, सो फुरसतिया देखने लगे, प्रेम अनुभूतियाँ जाग उठी । कस्‍बा, बजार, मोहल्ला में यदि वो दिख जाती तो जवानों का कांव कांव हो जाता पर यहां कोई भी बजार पर अवैध अतिक्रमण नहीं कर सकता था ।



हमने अपनी आंखें व्‍यवस्थित की देखने लगे जी भर के, मन पखेरू फ़िर उड़ चला छायावादी कवि की भांति क्‍योंकि हमें हिन्द-युग्म में सौंदर्य कविता जो भेजनी है क्या करूँ मुझे लिखना नहीं आता… इसीलिए सौंदर्य बोध कर रहा था रचनाकार को तूलिका पकडा कर ।


अचानक उसके पति को लगा कि हम उसकी पत्‍नी को ताक रहे हैं । बेचैन सी निगाहों से हमें अगिनखोर सा देखा । नजरें बिनती कर रही थी, भाई साहब प्‍लीज ऐसा मत करो उसके अंर्तध्‍वनि को सुनकर हम भी अपने लिंकित मन व निगाह को सहजता से दूसरी तरफ कर लिये ऐसा प्रदर्शित करते हुए कि हम कोई पंगेबाज नही हैं कुली खोज रहे हैं और पास ही रखे दूसरे की लगेज के पास जा कर खडे हो गये ।



देखा एक कुआरा सजीला नौजवान पास में ताजा समाचार पत्र लेकर आ गया आवारा बंजारा की भांति कहने लगा हम भी हैं लाइन में हम सौंदर्य के पुजारी हैं । हमने बातों बातों में उसे समझाते हुए कहा बेटा मैं एक अकेला इस शहर मे.. साहित्‍यकार हूं हिन्‍दी व्‍लाग वाला चिट्ठाकार हूं, मसिजीवी हूं पहले मैं आया हूं मुझे सौंदर्य की अनुभूति है । पास ही एक राम भक्‍त यानी हनुमान रेलवे पुलिस खडा था हम लोगों का वाद-संवाद सुन रहा था । जोर से डंडा पटका और बोला -



तुम साले अधकचरे लोग समय नष्‍ट करने का एक भ्रस्‍ट साधन हो अभी हमारे छत्‍तीसगढ में हिन्‍दी ब्‍लाग लिखने वाले भाई जयप्रकाश मानस ही सृजन शिल्पी हैं तीसरा कोई नहीं है उन्‍ही को मालूम है साहित्‍य और सौंदर्य, चलो भागो यहां से बेफालतू में भीड बढा रहे हो तुम लोगों का मन निर्मल आनंद नहीं है । हमने पिद्दी सिपाही से बतंगड़ करना और ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी का धौंस देना उचित नही समझा, दिल में आह भरते नौ दो ग्यारह हो गये मन में ढंग से ना देख पाने की वेदना व्‍याप्‍त थी ।

टाटा स्‍काई बनाम बीएसएनएल ब्राड बैंड


अब बहुतै मुश्किल होत जात है ब्‍लाग में ठहरे रहना रोजै तिरिया के गारी खावै ले बचे खातिर कउनो उपाय करें समझे म नही आत है । अरे भाई लोगन हरे हप्‍ता कउनो नगरी चौपाल म ब्‍लाग मीट कर लिया करो । कम से कम हप्‍ता पंद्रही तो तो‍हांर मीट मटन के फोटू को देखा देखा के अपनी ब्‍लागरी को सुख्‍खाये तरिया कस मछरी जीयाये के कउनो बहाना मिल जईहैं । तोहार मीट के फोटू हमार मेहरारू को गजब नीक लागता है काबर कि ओमा छीट वाला, कढाई बाला पता नही का का परकार के साडी पहिरे, महिला ब्‍लागर को देख के हमार छोटकू के अम्‍मा कहत हैं जोडी ए एतवार को तनि दुई हजार रूपईया राशन सब्‍जी के लिए ज्‍यादा चाहिए था क्‍योंकि आपके गांव से इस माह सगा लोग ज्‍यादा आ गये थे ।

वो जानती है मेरे गांव से आने वालों के सभी खर्चे के लिए मेरा बागिन उलदा जाता है पर मुझे जानते हुए भी नादान बनना पडता है । बागिन का उलदाना सगा के कारण नही हैं मीट के फोटू में छपे साडी के कारण हैं ।

कभी कभार हंसी के पलों में जो विवाह के बाद शायद ही कभी आता हो और हर शादी शुदा उस क्षण के लिए अपना जीवन शिवोहम कह कर जीता है, पत्‍नी बतलाती है कि वो एकता कपूर के सीरियल भी 95 प्रतिशत साडी का पैटन जानने के लिए देखती है । बीच में जस्‍सी जैसी कोई नहीं नें हमारी बीबी का साडी का मूडे खराब कर दिया था फिर जईसे तईसे एकता को नारी एकता का धियान आबेच किया और जस्‍सी को लुगरा पहिनवाई दिये । धन्‍य हे नारी सारी एकता ।

अब टाटा टीबी के बात बतिया लें । हमारे रईपुर वाली परम पियारी सारी के कहने से हम सिटी केबल कटवा के टाटा स्‍काई के कनेक्‍शन ले लिये हैं । ज‍हां हर महिना के खतम होने के पहिले ही टप्‍प से लेटरवा टीवी स्‍क्रीन में टपकता है कहता है पईसा भरो नही तो टीबी देखना बंद । अरे तुहरे बाप का राज है, पहले हमारे डंडा के डर से सिटी केबल वाला चार पांच महीना में डरावत, सपटत दीन हीन बनकर हमारे दुवारी में आता था और ‘जो देना हो दे दो सर’ बोलता था । यहां तो साला अतियाचार है महिना पुरा नही कि धमकी चालू । का झुनझुना धरा दिये रईपुरहिन । रांका राज के जम्‍मो शान को टाटा कहवा दिये ।

यहां भी समझौता बीबी के साथ करना पडता है बीबी की बहन नें जो सलाह दिया है । टापअप कार्ड खरीदो नही तो टीवी बंद जब टीवी बंद तो सब कुछ बंद यानी घर आबाद घरवाली से घरवाली आबाद खुशहाली से और खुशहाली कहां से टीबी से जब टीवी नही न रहेगा तो बसंती कईसे नाची पता कईसे चलेगा धरमेंदर को । चलो भई तीने सौ रूपट्टी तो देना है महीना में, तीन सौ में खुशहाली आ सके तो और जादा भी रूपया खर्च करने को मैं तैयार हूं ।
पिछले दो माह से सरकारी टेलीफोन विभाग से हाथ पांव जोड रहा हूं क्‍योंकि मेरा घर तनिक शहर से आउटर में है दूसरे सेवादाताओं के पहुंच से बाहर । सरकारी फुनवा ही हमारे घर में किर्र कार कर पाता है । कि मेरे घर में ब्राड बैंड कनेक्‍शन लगा दे पर अब जनता जागरूक हो गये हैं । मेरे शहर में पोर्ट खाली नही है नये कनेक्‍शन के लिए । और जब पोर्ट कही से आता है तो मोडेम स्‍टाक में नही रहता । क्‍या करें आशा में जी रहें हैं कि कब हमारे छत्‍तीसगढ में भगवान राम आयेंगें और हमारी डोकरी दाई शबरी के सुकसी बोईर को खायेंगें ।
पर सोंचता हूं टाटा स्‍काई के लिए जो पैसा खर्चता हूं उसके एवज में तो खुशहाली मिलती है साडी का नया पैटर्न पता चलता है । ये ब्राड बैंड से सिवाय लडाई के और कुछ मिलने वाला नही है । अच्‍छा है कैफे में ब्‍लगियाना और टिपियाना घर जाना तो बीबी बच्‍चों के साथ ही बतियाना, नये फिलिम को मूवी आन डिमांड मंगवाना तभी मिलेगा खाना ।
घर में नेट कार्ड भी पांच मिनट से ज्‍यादा नही चलाना ।

बिना लोगो मोनो का पेपर नेपकिन

अरे साहब जबरदस्‍ती मिले चारज से हलाकान सुबह सुबह उठ के हम भागे अपने होटल की ओर पर पत्‍नी के नाजुक हाथों से बना नास्‍ता कर के पंचू के पान का रस ना ले लें हमें चैन नही आता । पर आज तो पंचू के पांन ठेले में एक बहस चल रही है “किसने किसको क्‍या कहा ? “ हम भी पान के पिचकारी मारते हुए सब के बातों को रस ले ले कर सुननें लगे । कोई गजाधर भईया के स्‍टाईल में कह रहा था “देखे थे ना शरफरोस फिलिम में ! कईसन बडा लंबा पकड है भाई लोगन का हां ।“ कोई कह रहा था “भाई लोगों से पंगा लिया है पानी बूडे नई बचायेंगे ।“ कोई कहता “भाई इंडिया आने वाले हैं देखना सब की गिन गिन कर धुलाई करेंगें क्‍योंकि रिन शक्ति अब बन गया है सर्प एक्‍सल बार ।“

हमने सोंचा अब ज्‍यादा देर यहां रूकनें से कोई मतलब नही है क्‍योंकि हमने भी अमूल मांचो का चडढी पहिर रखा है कउनो कूकूर वाले बाई आ गईन तो चडडी उतरते देर ना लगिहैं । और रगड रगड के धुलाई चालू हो जाई ।

बंबईया भाई लोगन के स्‍टाईल में स्‍टड के खोपडिया तान के अपने खटखटिया बाईक में किक दे गेयर जमाई दिये और बडे शान से पिपियाते स्‍टील सिटी के चौडी सडकों में बाईक लहराने लगे क्‍योंकि जब से बंबईया भाई लोगन के फटफटी सवारी और बढी दाढी को देखा है मन में नया उत्‍साह उमड पडा है । नहीं तो अपनी खटखटिया बाईक और कूलर के बारे में कुछ भी कहते ना जाने ससुरी शरम कहां से आ ही जाती थी । पर अब हिम्‍मत बनाये भईया हिम्‍मत सिंग । अब तो एक इच्‍छा अउर रहि गैहैं अपने खटखटिया संग हमार बढिया फोटो ब्‍लाग में लगाये के । सोंचते सोंचते हम आगे बढने लगे ।

फटफटिया धुआ उडात रहै कि मोबाईलवा कें कें करने लगा । रस्‍ते में फोन आ गया रसूख भाई पेपर नेपकिन वाले का, बोला साहिब साबुन में आपका लोगो चटकाई दिया हूं थ्री स्‍टार डीलक्‍स को बडका छापा हूं अउर पेपर टायलेट रोल नेपकिन कल दे पाउंगा । सबै उत्‍साह पान के पीक जैसे धरती पर ।

आज हम अपने वेज होटल में संजीत भाई के ब्‍लागर मीट जइसे मीट का क्रियाकरम रखे हैं बीस पच्‍चीस ब्‍लागर लोगन के आने की संभावना है सब को नेउत आयें हैं और पेपर नेपकिन नही है । किसमें पोंछेंगे मूं हाथ, दस बारा ब्‍लागपरी भी आने वाली हैं किसमें छापा देंगी अपने लिपिस्टिक का ।

हम अपने वेटरी के जमाने में बम्‍बई के माई दरवाजा तीर खडे ताज होटल में साहब लोगन को पेपर नेपकिन का परयोग करते देख हूं ये पेपर नेपकिन जूठन को साफ करने के काम आती है बिचारी खुद फट के हमारा अंग साफ कर देती है पर कई साहब लोगन को दूसरे मैडमों के होंटो के छापा वाले नेपकिनों को बडे जतन से घिरिया के पर्स में रखते भी देखा हूं तब से आज तक अरे हां वेटर से मैनेजरी तक पेपर नेपकिन और टायलेट रोल के महत्‍व को गठरी बांध के सीखा हूं पेपर नेपकिन के नाम पर कोई समझौता नहीं।
रसूख भाई पेपर नेपकिन वाले को वापस फोन लगाया “रसूख भाई पेपर नेपकिन तो आज ही चाहिए, चाहे जैसे भी हो ।“ रसूख नें कहा “साहिब बिना लोगो मोनो के भेज दिया हूं ।“ मैने राहत की सांस ली । अच्‍छा हुआ पेपर नेपकिन बिना लोगो मोनो का है, नही तो ब्‍लागर मीट में किसी का लोगो किसी के और किसी का मोनो किसी के होंटो में टकरा जाता और छुद्र वस्‍तु के लिए ज्ञानियों में विवाद गहरा जाता ।

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...