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सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ आदि काल से अपनी परम्परा, समर्पण की भावना, सरलता और उत्सवप्रियता के कारण पूरे देश में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन और प्रकृति का निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय उत्सव जैसा महौल बनाये रखते हैं। किसी प्रकार का दुख इनके उत्सवप्रियता में कमी नहीं लाता। झूलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मूसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। ''धान का कटोरा'' कहे जाने वाले इस अंचल के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होते हैं। ''श्याम कार्तिक महोत्सव ' उनमें से एक है जो छत्‍तीसगढ में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है। नवगठित जांजगीर-चांपा जिले का एक छोटा सा गांव सरखों में मुझे यह अनूठा आयोजन देखने को मिला।

जांजगीर जिला मुख्यालय के नैला रेल्वे स्टेशन से मात्र ३-४ कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गांव सरखों स्थित है। पक्की सड़क और निजी बस इस गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है। सड़क के दोनों ओर खेत और खेतों में कटने के लिए तैयार धान की फसल। धान की सोंधी महक मेरे मन को प्रफुल्लित कर रही थी.. और हमारी मोटर सायकल धीरे धीरे प्रकृति के इस आनंद उत्सव का आनंद लेती जा रही थी। शंकर भाई गाड़ी चला रहे थे और बीच बीच में मेरे उल्टे सीधे प्रश्नों का उत्‍तर भी देते जा रहे थे। दिन भर के इंतजार के बाद शाम को सरखों जाने का संयोग बना था। कार्तिक पूर्णिमा का दिन वैसे भी छत्‍तीसगढ वासियों के लिये महत्वपूर्ण होता है। श्याम कार्तिक महोत्सव का अंतिम दिवस होने के कारण सड़कों में जबरदस्त भीड़ थी-औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े और मनचले युवकऱ्युवतियां पैदल, साइकिल, भैंसा गाड़ी, बस, टे्रक्टर और जीप में बैठकर जा रहे थे। सबकी एक ही मंजिल थी- सरखों। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी, मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे...।

जांजगीर जिला कृषि के क्षेत्र में अत्यंत समृद्ध है और उनकी समृद्धतता यहां के खेतों में दो बार फसल होने के कारण है। यही नहीं बल्कि इस जिले में सरखों, जर्वे, सिवनी आदि गांवों में अनेक प्रतिभाएं छत्‍तीसगढ को गौरवान्वित करती रही है। उच्च शिक्षा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा आदि महत्वपूर्ण पदों पर यहां की प्रतिभाएं पदस्थ रही है। इससे यह गांव शुरू से चर्चित रहा है। ये बात अलग है कि ये प्रतिभाएं अपने गांव की ओर मुड़कर नहीं आये और उनकी उपेक्षा भाव माता पिता की बूढ़ी आंखों को जी भरकर रूलाया है और बूढ़ेपन में बिना सहारे जीने को मजबूर कर दिया है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहें....?

शंकर भाई ने मोटर सायकल अचानक रोक दी- सरखों आ गया भई ! मेरी विचार श्रृंखला अचानक टूट गयी और मैं अपने को सरखों के भीड़ में पाया। शाम गहराती जा रही थी और रोशनी के बावजूद अंधेरापन महसूस हो रहा था। मुझे लगा दिन में आते तो अच्छा होता ? हम लोग एक भीड़ भरे घर में दाखिल हुए। लोगों ने वहां हमारा बड़ा आत्मीय स्वागत किया। एक महिला आगे आकर हमारा स्वागत करती हुई साधिकार बैठक में ले गई और मना करने के बावजूद जलपान करने के लिए ले आयी। शंकर भाई मेरा उनसे परिचय कराते हैं- ये अश्विनी केशरवानी हैं, चांपा के कालेज में पढ़ाते हैं और पेपर में लिखते भी हैं...श्याम कार्तिक महोत्सव देखने आये हैं..और ये इस गांव की सरपंच हैं- श्रीमती कुमारी बाई राठौर। मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। उनकी सहजता, सादगी और आत्मीयता देखकर मैं अभिभूत हो गया। आज के स्वार्थी दुनियां में ऐसे लोग भी हैं जो नि:स्वार्थ होते हैं। पूरा गांव इसी भाव से से बाहर से आये मेहमानों, रिश्तेदारों के स्वागत सत्कार में लगा हुआ था। गांव में त्योहार जैसा माहौल था। गांव का ऐसा कोई भी घर नहीं था जहां मेहमान न आया हो ? वैसे भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है। इस मास में सार्वाधिक व्रतोत्सव होते हैं। कार्तिक मास की कथाओं या पौराणिक प्रसंगों के कारण ही नहीं बल्कि भौगोलिक, पर्यावरण, वैज्ञानिक और ज्योतिष कारणों से भी महत्वपूर्ण है। कृतिका नक्षत्र जिस पूर्णिमा को होता है वह मास कार्तिक का होता है। चंद्रमा उच्च का होता है अर्थात् पितर प्राण पृथ्वी पर दूरी पर होते हैं और सौर प्राण पृथ्वी के करीब होता है। मास का प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण होता है।

...और हम जब गांव के गुड़ी में पहुंचे तब श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकल चुकी थी और गांव के बड़े बुजुर्ग इस आयोजन में सहभागी बने गुड़ी में उपस्थित थे। इस गांव का गुड़ी गांव के बीच में स्थित है। सामने पंचायत भवन है। गांव के चारों ओर छोटे बड़े तालाब हैं। तालाबों की उपादेयता पहले दैनिक उपभोग, स्नान-ध्यान और खेतों की सिंचाई आदि के लिए थी। छत्‍तीसगढ के गांव तालाबों के मामले में जरूर सम्पन्न है। लेकिन इन तालाबों से सिंचाई अब नाम मात्र को होता है। अब उसमें नहाने भी कोई नहीं जाता बल्कि उसमें मछली की खेती होती है। इससे ग्राम पंचायत की आमदनी होती है। शायद खेत इसीलिए सूखते जा रहे हैं? उसकी निर्भरता या तो वर्षा के पानी अथवा बिजली की मदद से बोरिंग पर है। बहरहाल, सरखों में नहर से सिंचाई होती है। यहां एक से पांच एकड़ खेत वाले किसान अधिक हैं और चांपा जमींदारी से जुड़े मालगुजार लाल अमीरसिंह जी का परिवार और कुछ ''पोठ किसान'' हैं। सभी सुसम्पन्न और तन, मन और धन से इस महोत्सव में अपनी भागीदारी देते हैं। गांव के बड़े बुजुर्ग श्री दादूराम साव, श्री झाड़ूराम साव, पूर्व सरपंच श्री भरतलाल राठौर ने मुझे बताया कि सब गांव की तरह हमारे गांव में भी दीपावली में गौरी पूजा किया करते थे। बरसों की इस परंपरा में एक बार ऐसा मोड़ आया कि श्री सोनाऊ केंवट का प्रस्ताव-'' हमारे गांव में क्यों न श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा-अर्चना किया जाये..'' को गांव वालों ने आज से लगभग ४०-४२ साल पहले मान लिया था। तब से आज तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा हम करते आ रहे हैं। बहुत दिनों तक श्री श्याम कार्तिक महाराज को एक लोहार के दुकान में बैठाते थे। कुछ ही वर्ष पहले सबकी सहमति से अब गांव के गुड़ी में श्री श्याम कार्तिक महाराज को बिठाने लगे हैं। एक वर्ष सरखों में तो दूसरे वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है। जिस वर्ष सरखों में यह महोत्सव होता तो बोड़सरा में नवधा रामायण होता है। इसी प्रकार जिस वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है तो सरखों में नवधा रामायण होता है। लेकिन सरखों में ही केवल श्री श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा अर्चना की जाती है। कार्तिक मास के दूसरे पाख के छट से पूर्णिमा तक नौ दिन तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की मयूर में विराजित छ: सिरों और बारह हाथ वाले मनमोहक मूर्ति की स्थापना की जाती है। साथ में शिव पार्वती और उसकी परिक्रमा करते श्री गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करते हैं। अन्य झांकी में श्री कृष्ण जी की माखन खिलाते यशाोदा जी की मूर्ति होती है। ये मूर्तियां गांव के ही मूर्तिकार स्व. श्री शिवलाल श्रीवास, घासीराम आदि बनाते थे। वर्तमान में बलराम साव बनाते आ रहे हैं। इस उत्सव में नवयुवकों की पर्याप्त हिस्सेदारी होती है। श्री श्याम कार्तिक महोत्सव के अध्यक्ष श्री अजय सिंह राठौर, ने बताया कि इस महोत्सव मंे पूरा गांव एकजूट होकर कार्य करता है। स्वस्फूर्त होकर नवयुवक वालिंटरी करते हैं। घर की औरतें बाहर से आये बहू-बेटियों, रिश्तेदारों और मेहमानों की खातिरदारी करने में पूरा सहयोग करती हैं। इतने बड़े आयोजन में पुलिस की बिल्कुल आवश्यकता नहीं होती।

इस गांव में श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा का प्रथम अधिकार पूर्व मालगुजार लाल अमीरसिंह के परिवार को प्राप्त है। नौ दिन तक चलने वाले इस महोत्सव में आप-पास के गांवों के सभी नागरिकों को सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा जाता है और सरखों में उनका आत्मीय स्वागत किया जाता है, जो अमूमन दूसरी जगह देखने को नहीं मिलता। चार वार्डो में निवासरत अनुसूचित जाति की बस्ती में स्वजातीय बंधुओं की मेहमान नवाजी भी उल्लेखनीय है। छोटे-बड़े हर प्रकार के दुकान, होटल आदि यहां लगता है। कार्तिक पूर्णिमा इस उत्सव का अंतिम दिन होता है। दोपहर में पूजा, हवन आदि के बाद श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकलती है जो पूरे गांव की गलियों में भ्रमण करके पुन: गुड़ी में लायी जाती है और नवा तालाब में नाव खेलने के बाद रात्रि में उसे विसर्जित कर देते हैं। इस दृश्य को हजारों-लाखों आंखें अपलक निहारते हैं। पंचायत द्वारा जल ग्रहण मिशन के सहयोग से इस तालाब को बंधाने का कार्य किया गया है। लेकिन चारों ओर से सर्च लाइट लगाकर नांव खेलने के दृश्य को फोकस किया जाये तो यह दृश्य और आकर्षक बन सकता है। लेकिन प्रशासन, दैनिक समाचार पत्रों और मीडिया की नजरों से दूर इस गांव की यह अनूठी परंपरा स्वस्फूर्त रूप से बदस्तूर जारी है। शोभायात्रा के दौरान हर घर के सामने उनकी पूजा-अर्चना कर आरती उतारी जाती है। सबके सहयोग से श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती है। कवि किशोर पांडेय गाते हैं :-

जय स्कंद कारतिक स्वामी। चराचरन के अंतर जामी।।
सकल परानी के हिय कंदर। बइठे नित गुह बनके उज्जर।।
कउनो आरो तब नहिं पावैं। नांव ठांव सब गुपुत बतावैं।।
तैं हस स्वयं गुपुत के ज्ञाता। जय जय हे गनपति के भ्राता।।
मइहन परम अनु ले जादा। हव महान तुम कतका गादा।।
जानकार करन कारज के। तन अवतरिस पझरिहा रज के।।
गरभ ले खसल परै उमा के। पाय सरूप परम अतमा के।।

स्कंद पुराण के अनुसार श्री गणेश के अग्रज कार्तिक महाराज आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने और शिव भक्ति का दक्षिण भारत में प्रचार करने के लिए जप तप करने लगे। दक्षिण भारत में कार्तिक भगवान को ''श्री मुरगुन स्वामी'' के रूप में पूजा जाता है। कवि किशोर की बानगी पेश है :-

देउता तीरिथ रिसि अउ मुनी। दउड़य करौंच कातिक पुन्नी।।
दक्खन परमुख देव कहावैं। मुरगुन स्वामी नाव धरावैं।।
ब्रह्मचर्य के शक्ति देवैया। शुभदानी अउ पाप हरैया।।
हवै मंजुर के तुंहर सवारी। जै शिखि ध्वज अखंड ब्रह्मचारी।।

ब्रह्मचर्य, शक्ति और श्री रूद्रायामल तंत्र के अन्नो बढ़ाने वाले श्री श्याम कार्तिक महाराज के बखान इन शब्दों में सुनिये :-
छह मुखमंडल कमल हे प्रमुदित। बारह विशाल नयन आनंदित।।
बाजू बारह उठे अकाशा। बारह धरय अस्त्र अघनाशा।।
शांत चतुरभुज रूप तव सुघरा। हाथ अभय वर शक्ति अउ कुकरा।।
तैं उन मंगलवार के राजा। बाधा नाश तुंहर हे काजा।।
परम पबित हे तोर सरूपा। जय जय सुर सिरमोर युधूपा।।

दक्षिण भारत में पूजित श्री श्याम कार्तिक स्वामी यूं अचानक जांजगीर क्षेत्र में कैसे पूजे जाने लगे यह प्रश्न आज भी अनुत्‍तरित है। लेकिन इनकी पूजा की अनूठी परंपरा से सरखों, बोड़सरा और खोखरा और इस क्षेत्र के लोगों में आपसी भाईचारा का संदेश लोकहित में उचित भी है। मुझे सरपंच काकी की बात ''...कारतिक महराज के दरसन करा, घर में खाहा-पीहा, रथिया मा गम्मत देखिहा अउ बिहना जाहा..। में महोत्सव का सारा निचोड़ दिखता है। उन्हें मेरा साधुवाद।

रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति -

प्रो. अश्विनी केशरवानी
''राघव'' डागा कालोनी,
चांपा-४५६७१ ( छत्‍तीसगढ )

शिवरीनारायण में विराजे मां अन्नपूर्णा

शिवरीनारायण में विराजे मां अन्नपूर्णा

प्रो. आश्विनी केशरवानी


छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी चित्रोत्पला गंगा (महानदी) के तट पर स्थित शिवरीनारायण आदिकाल से ऋशि-मुनियों और देवी-देवताओं की सिद्धि स्थली रही है। सतयुग में भगवान श्रीराम और लक्ष्मण यहां श्‍ाबरी के मीठे बेर खाये थे और भाबरी को मोक्ष प्रदान कर भाबरीनारायण की आधार शिला रखे। वे यहां भाबरी की प्रार्थना को स्वीकार करके नारायण रूप में विराजमान हुए। खरौद के दक्षिण द्वार में सौराइन दाई का अति प्राचीन पूर्वाभिमुख मंदिर है। इसके गर्भगृह में श्रीराम और लक्ष्मण के धनुर्धारी मूर्ति है। खरौद के लक्ष्मणे वर महादेव की स्थापना भी श्रीराम ने भाई लक्ष्मण के अनुरोध पर लंका विजय के निमित्त की थी। भगवान जगन्नाथ को शिवरीनारायणसे ही पुरी ले जाया गया है। माघपूर्णिमा को प्रतिवर्श भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। उनके यहां गुप्त रूप में विराजमान होने के कारण भाबरीनारायण को ''गुप्त तीर्थ`` के रूप में पांचवां धाम माना गया है। ऋशि मुनि इसकी महिमा गाते हैं: :-

शबरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान

याज्ञवलक्य व्यासादि ऋशि निज मुख करत बखान।

शिवरीनारायण में वैश्णव परम्परा के भगवान नारायण, के शिवनारायण, लक्ष्मीनारायण और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी के भव्य मंदिर हैं। एक वैष्‍्णव मठ भी यहां हैं। श्रीराम जानकी मंदिर को अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह ने महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से पुत्ररत्न प्राप्ति के बाद संवत् १९२७ में बनवाया। इसी प्रकार एक अन्य श्रीराम लक्ष्मण जानकी मंदिर का निर्माण क्षेत्रीय केंवट समाज के द्वारा बनवाया गया है। इस मंदिर में भगवान विष्‍्णु के २४ अवतारों की मूर्तियां हैं। इस मंदिर के बगल में बंजारा नायक समाज के द्वारा निर्मित श्रीरामजानकी गुरू नानकदेव मंदिर है। महानदी के तट पर लक्ष्मीनारायण का अति प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। इस मंदिर प्रांगण में मां अन्नपूर्णा का दक्षिणाभिमुख सौम्य मूर्ति से युक्त भव्य मंदिर है। इस मंदिर के परिसर में समस्त सोलह शक्तियां मेदनीय, भद्रा, गंगा, बहुरूपा, तितिक्षा, माया, हेतिरक्षा, अर्पदा, रिपुहंत्री, नंदा, त्रिनेती, स्वामी सिद्धि और हासिनी मां अन्नपूर्णा के साथ विराजित हैं। ''माता विशालाक्षि भगवान सुन्दरी त्वां अन्नपूर्णे भारण प्रपद्ये`` ऋतुओं के संधिकाल में पड़ने वाले नवरात्रि में किये जाने वाले आध्यात्मिक जप तप अनुश्ठान और समस्त धार्मिक कार्य फलदायी होते हैं। भारदीय वसंत पर्व में मां अन्नपूर्णा प्रत्येक दिन अलग अलग रूपों में सु शोभित होती हैं। पहले दिन मां अन्नपूर्णा महागौरी, दूसरे दिन ज्येश्ठा गौरी, तीसरे दिन सौभाग्य गौरी, चौथे दिन श्रृंगार गौरी, पांचवे दिन वि शालाक्षी गौरी, छठे दिन ललिता गौरी, सातवें दिन भवानी और आठवें दिन मंगलागौरी के रूप में विराजित होेती हैं। छत्तीसगढ़ की महिला समाज द्वारा यहां मंगलागौरी की पूजा और उसका उद्यापन किया जाता है।

त्रेतायुग में श्रीरामचंद्रजी जब लंका पर चढ़ाई करने जाने लगे तब उन्होंने मां अन्नपूर्णा की आराधना करके अपनी बानर सेना की भूख को भाशंत करने की प्रार्थना की थी। तब मां अन्नपूर्णा ने सबकी भूख को शशंत ही नहीं किया बल्कि उन्हें लंका विजय का आशीर्वाद भी दिया। इसी प्रकार द्वापरयुग में पांडवों ने कौरवों से युद्ध शुरू करने के पूर्व मां अन्नपूर्णा से सबकी भूख शशंत करने और अपनी विजय का वरदान मांगा था। मां अन्नपूर्णा ने उनकी मनोकामना पूरी करते हुए उन्हें विजय का आ शीर्वाद दिया था। सृष्‍्टि के आरंभ में जब पृथ्वी का निचला भाग जलमग्न था तब हिमालय क्षेत्र में भगवान नारायण बद्रीनारायण के रूप में विराजमान थे। कालांतर में जल स्तर कम होने और हिमालय क्षेत्र बर्फ से ढक जाने के कारण भगवान नारायण सिंदूरगिरि क्षेत्र के भाबरीनारायण में विराजमान हुए। यहां उनका गुप्त वास होने के कारण भाबरीनारायण ''गुप्त तीर्थ`` के रूप में जगत् विख्यात् हुआ। कदाचित इसी कारण देवी-देवता और ऋशि-मुनि आदि तपस्या करने और सिद्धि प्राप्त करने के लिए इस क्षेत्र में आते थे। उनकी क्षुधा को शशंत करने के लिए मां अन्नपूर्णा यहां सतयुग से विराजित हैं।

भाक्ति से शिव अलग नहीं हैं। अधिष्‍ठान से अध्यस्त की सत्ता भिन्न नहीं होती, वह तो अधिष्‍्ठान रूप ही है। शिव एकरस अपरिणामी है और शक्ति परिणामी हैं। यह जगत परिणामी भाक्ति का ही विलास है। शिव से भाक्ति का आविर्भाव होते ही तीनों लोक और चौदह भुवन उत्पन्न होते हैं और शक्ति का तिरोभाव होते ही जगत अभावग्रस्त हो जाता है।

भाक्ति जातं हि संसारं तस्मिन सति जगत्व्रयम्।

तस्मिन् क्षीणे जगत क्षीणं तच्चिकित्स्य प्रयत्नेत:।।

आनंद स्वरूपा भक्त वत्सला मां भवानी भक्तों के भावनानुसार अनेक रूपों को धारण करती है-दुर्गा, महाकाली, राधा, ललिता, त्रिपुरा, महालक्ष्मी, महा सरस्वती और अन्नपूर्णा। चूंकि शिव से इनकी सत्ता अलग नहीं है अत: इनको ''शिव- शक्ति`` कहते हैं। भगवान शंकराचार्य के अनुसार ''परमात्मा की अश्टाक्त नामावली भाक्ति जिसने समस्त संसार को उत्पन्न किया है, अनादि, अविद्या, त्रिगुणात्मिका और जगत रूपी कार्य से परे है।`` कार्यरूप जगत को देखकर ही शक्तिरूपी माया की सिद्धि होती है। जिस प्रकार बालक माता के गर्भ में नौ माह तक रहकर जन्म लेता है, उसी प्रकार तीनों लोक और चौदह भुवन भाक्ति रूपी माता के गर्भ में स्थित है। मां अन्नपूर्णा हमारा पालन और पो शण करती है। गीता में श्रीकृष्‍्ण जी कहते हैं-' हे अर्जुन ! मेरी भाक्ति रूपी योनि गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतनरूप बीज स्थापित करता हूं। इन दोनों के संयोग से संसार की उत्पत्ति होती है। नेक प्रकार के योनि में जितने शरीरादि आकार वाले पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उनमें त्रिगुणमयी भाक्ति तो गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज का स्थापन करने वाला पिता हूं।'

''धान का कटोरा`` कहलाने वाला छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण भूभाग मां अन्नपूर्णा की कृपा से प्रतिफलित है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से ६० कि.मी., बिलासपुर से ६४ कि.मी. और रायपुर से १२० कि.मी. व्हाया बलौदाबाजार की दूरी पर पवित्र महानदी के पावन तट पर स्थित शिवरीनारायणकी पि चम छोर में रामघाट से लगा लक्ष्मीनारायण मंदिर परिसर में दक्षिण मुखी मां अन्नपूर्णा विराजित हैं। काले ग्रेनाइट पत्थर की ११-१२ वीं भाताब्दी की अन्यान्य मूर्तियों से सुसज्जित इस मंदिर का जीर्णोद्धार महंत हजारगिरि की प्रेरणा से बिलाईगढ़ के जमींदार ने १७वीं भाताब्दी में कराया था। मंदिर परिसर में भगवान लक्ष्मीनारायण के द्वारपाल जय-विजय और सामने गरूण जी के अलावा दाहिनी ओर चतुर्भुजी गणे श जी जप करने की मुद्रा में स्थित हैं। दक्षिण द्वार से लगे चतुर्भुजी दुर्गा जी अपने वाहन से सटकर खड़ी हैं। मंदिर की बायीं ओर आदि शक्ति महागौरी मां अन्नपूर्णा विराजित हैं। इस मंदिर का पृथक अस्तित्व है। मंदिर के जीर्णोद्धार के समय घेराबंदी होने के कारण मां अन्नपूर्णा और लक्ष्मीनारायण मंदिर एक मंदिर जैसा प्रतीत होता है और लोगों को इस मंदिर के पृथक अस्तित्व का अहसास नहीं होता। अन्नपूर्णा जी की बायीं ओर दक्षिणाभिमुख पवनसुत हनुमान जी विराजमान हैं। पूर्वी प्रवेश द्वार पर एक ओर कालभैरव और दूसरी ओर भाीतला माता स्थित है। मां अन्नपूर्णा और भगवान लक्ष्मीनारायण के विषेश कृपापात्र मंदिर के पुजारी और सुप्रसिद्ध ज्योति शाचार्य पंडित वि वे वर नारायण द्विवेदी के कु शल संरक्षण में यहां प्रतिवर्श भारदीय और वासंतिक नवरात्रि में सर्वसिद्धि और मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है। मां अन्नपूर्णा की कृपा हम सबके उपर सदा बनी रहे, यही कामना है। उन्हें हमारा शत् शत् नमन पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के शब्दों में :-

महामाया रूपे परमवि शदे भाक्ति ! अमले !

रमा रम्ये भाशन्ते सरल हृदये देवि ! कमले !

जगन्मूले आद्ये कवि विवुधवन्द्ये श्रुतिनुते !

बिना तेरी दया कब अमरता लोग लहते !!

रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति

प्रो. आश्विनी केशरवानी

राघव, डागा कोलोनी,

चांपा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)

छत्तीसगढ़ के रमरमिहा

प्रो. अश्विनी केशरवानी
महानदी, छत्‍तीसगढ़ की एक पवित्र और पुण्यदायिनी नदी है। इसे चित्रोत्पला गंगा भी कहा जाता है और इसका उल्लेख रामायण और महाभारत कालीन ग्रंथों में मिलता है। गंगा के समान पवित्र इस नदी के तट पर अनेक नगर और मंदिर स्थित हैं। महानदी की पवित्रता के कारण ये नगर सांस्कृतिक तीर्थ कहलाने लगे। इन नगरों में ऋषि-मुनियों प्राचीन काल में अपना आश्रम बनाकर तप किया करते थे। कदाचित् इसी कारण इन्हें सांस्कृतिक तीर्थ कहा जाने लगा। सिहावा, राजिम, सिरपुर, खरौद, शिवरीनारायण, तुरतुरिया, चंद्रपुर और संबलपुर आदि नगर महानदी के तट पर बसे हैं। इस नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में रामायण और महाभारत कालीन अवशेष आज भी मिलते हैं। रायपुर जिले के बलौदाबाजार के निकट जंगलों के बीच तुरतुरिया ग्राम स्थित है। रामायण काल में यहां बाल्मिकी आश्रम था, जहां माता सीता ने वनदेवी के रूप में रहकर लव और कुश को जन्म दिया था। मल्हार के पास ग्राम कोसला को माता कौशल्या का मायका और श्रीराम का ननिहाल माना जाता है। सक्ती और सरगुजा की पहाड़ियों में रामायण कालीन अवशेष मिलते हैं। शिवरीनारायण का वास्तविक रूप शबरीनारायण है जो शबरी के जूठे बेर खाने और उसके उद्धार करने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण ने दंडकारण्य जाते इस भेंट को चिरस्थायी करने के लिये बनाये थे। श्रीराम का नारायणी रूप यहां प्राचीन काल से गुप्त रूप से विराजमान है। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्तधाम'' कहा गया है। रामनाम को समर्पित, अपने पूरे शरीर में रामनाम अंकित कराकर केवल राम को भजने वाले रामनामी महानदी के तटवर्ती ग्रामों में बसते हैं। इन्हें रमरमिहा, रामनमिहा और रामनामी कहा जाता है। खरौद को रामायण कालीन खर और दूषण की नगरी माना जाता है। खरौद के दक्षिण द्वार पर शबरी का अति प्राचीन मंदिर है। इसे सौराइन दाई का मंदिर भी कहा जाता है।

महानदी का यह तटवर्ती क्षेत्र धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। सिहावा, सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर जहां धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, वहां प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिलने से प्राचीनता की जानकारी मिलती है। राजनीतिक दृष्टि से तब इसे ''ट्रांस महानदी क्षेत्र'' कहा जाता था। महानदी की सहायक नदी जोंक के तट पर गुरू घासीदास का धाम गिरौदपुरी स्थित है। यहीं सतनाम पंथ का जन्म हुआ इसी प्रकार सरसींवा के पास महानदी का तटवर्ती ग्राम ``उड़काकन'' रामनामी पंथ का एक पवित्र तीर्थधाम है। रामनामी और सतनामी के लिये शिवरीनारायण का वही महत्व है जो दूसरों के लिये प्रयाग और काशी का है। माघी पूर्णिमा से लगने वाले मेला के समय इस पंथ के लोग भी शिवरीनारायण में अपना तंबू लगाकर भजन आदि करते हैं। पूरे शरीर में रामनाम का अंकन लोगों के लिये आकर्षण होता है। मैं भी इन्हें बचपन से देखते रहा हंू। मेरे लिये यह उत्सुकता का विषय था। सांवले शरीर में रामनाम को गोदना, सिर पर मोर मुकुट लगाये हाथ में मंजिरा लिये रात दिन रामनाम का भजन करते हैं। उनके शरीर का ऐसा कोई भाग नहीं बचा होता है जहां रामनाम अंकित हो...यहां तक कि वे जो कपड़े पहनते हैं और जिस तम्बू के नीचे रहते हैं, उसमें भी रामनाम अंकित होता है। >ाीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में आज भी प्रात: राम राम कहने का रिवाज है। इससे उनकी दिनचर्या शुभ होती है।

महानदी के तटवर्ती ग्रामों में रमरमिहा लोग निवास करते है। >ाीसगढ़ के पांच सीमावर्ती जिलों रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा, महासमुंद और रायगढ़ के सारंगढ़, घरघोड़ा, जांजगीर, चांपा, मालखरौदा, चंद्रपुर, पामगढ़, कसडोल, बलौदाबाजार और बिलाईगढ़ क्षेत्र के लगभग ३०० गांवों में पांच लाख रमरमिहा निवास करते हैं। रामनामी पंथ अनुसूचित जाति की एक शाखा है जो संत कवि रैदास को अपने पंथ का मूल पुरूष मानते हैं। इन्हें रमरमिहा अथवा रामनमिहा कहा जाता है। रामनाम में सदा तन्मय रहने वाले ये लोग अहिंसक और शाकाहारी होते हैं। मदिरा से वे बहुत दूर होते हैं।


>ाीसगढ़ में रामनामी पंथ की उत्पि> के सम्बंध में कहा जाता है कि ये लोग हरियाणा के नारनौल से यहां आये थे। उस काल में तत्कालीन शासकों के दमनात्मक रवैये से त्रस्त होकर ये लोग >ाीसगढ़ के शांत माहौल में बसे थे। आज उनकी २० वीं पीढ़ी के वंशज अपनी परंपराओं और विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहरों के कारण अलग से पहचाने जाते हैं। पारस्परिक सद्भाव और अद्भूत संगठन क्षमता वाले इस कौम को तोड़ने के लिये तत्कालीन शासकों ने एक चाल चली जिसमें वे सफल हो गये। पूर्व में रामनामी पंथ के लोग भी सतनाम के उपासक थे। उनमें आपसी सद्भाव और भाईचारा था। इससे उनमें अच्छा संगठन था। उनकी इस संगठन शक्ति को क्षीण करने और आपस में फूट डालने के लिये एक नवजात शिशु के माथे पर ''रामनाम'' गुदवा दिया और प्रचारित कर दिया कि यह शिशु राम की इच्छा से इस भूलोक में आया है। अत: राम की इच्छा के अनुरूप रामना का अनुसरण करें। इस प्रकार एक शक्तिशाली संगठन दो हिस्सों में बंट गया। आगे चलकर इन दोनों समुदाय के दो भाग और हुये। अलग रहने के बावजूद इनमें सांस्कृतिक साम्यता पायी जाती है।





सांस्कृतिक परंपरा के द्योतक राम नाम :-

श्रीराम को अनेक रूपों में पजा जाता है। शायद ही कोई ऐसा होगा जो श्रीराम के सगुण रूप को नकारता हो? लेकिन महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में बसे रमरमिहा लोग श्रीराम के सगुण रूप को नकार कर उसके निर्गुण रूप के उपासक हैं। हिन्दुस्तान में शायद ही कोई दूसरा पंथ होगा जो रामनाम में इतना रमा जाये कि पूरे शरीर में रामनाम गुदवा ले। लेकिन रमरमिहा लोग पूरे शरीर में राम नाम गुदवाते हैं, यहां तक पहनने-ओढ़ने के कपड़े और तम्बू के कपड़ों में भी राम नाम लिखा होता है। श्रीराम चरित मानस में भी कहा गया है:- ``जय राम रूप अनूप निर्गुण प्रेरक सही `` अर्थात् हे राम! आपकी जय हो। आपके रूप अनुपम है। आप निर्गुण हैं और सत्य ही गुणों के प्रेरक हैं। आगे कहा गया है:-

यद्यपि प्रभु के नाम अनेका, श्रुति कह अधिक एक से एका।
राम सकल नामन्ह ते अधिका, होउ नाथ अघ खग गल बघिका।।

यद्यपि प्रभु के अनेक नाम है और वेद कहते हैं कि वे नाम एक से एक बढ़कर है। तो भी हे नाथ ! रामनाम सबसे बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के लिये वह बधित के समान हो। सबसे मजेदार बात तो यह है कि निराकार राम की उपासना करने का अधिकार उन्हें न्यायालय से मिला है।


जांजगीर-चांपा जिले के मालखरौदा विकासखंड के अंतर्गत ग्राम चारपारा के श्री परसराम भारद्वाज को रामनामी पंथ का प्रवर्तक माना जाता है। सन् १९०४ में उन्होंने निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम को मानकर एक जन आंदोलन की शुरूवात की थी। उन्होंने सबसे पहले अपने माथे पर रामनाम अंकित कराया था। इसके पूर्व निचली जाति के माने जाने के कारण वे रामायण का पाठ और रामनाम का उच्चारण नहीं करते थे। उनका मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था। अक्सर उनको जातिगत आधार पर अपमान सहना पड़ता था। इसी बीच विदेशी ताकतों ने इस क्षेत्र को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और उन्हें ईसाई धर्म मानने के लिये विवश किया। इसके लिये उन्हें हर प्रकार की मद्द दी जाने लगी। इसी समय श्री परसराम भारद्वाज ने रामनामी पंथ के अंतर्गत निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम की पूजा अर्चना करने की बात कही, जिसे सबने सहर्ष स्वीकार किया और तब से सब निराकार श्रीराम को अपने घर में पूजने लगे। भविष्य में उच्च जातियों द्वारा पुन: बाधा डाल सके इसके लिये उन्होंने तत्कालीन मध्य प्रांत और बरार के जिला सत्र न्यायालय से कानूनी अधिकार प्राप्त कर लिया। सत्र न्यायाधीश ने अपने फैसले में लिखा है:-''ये लोग जिस राम के नाम को भजते हैं वे राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम नहीं हैं बल्कि निराकार ब्रह्म के प्रतीक राम हैं।'' ब्राह्मणों के प्रति इनके मन में जबरदस्त विरोध की भावना है। संभव है उनकी यह भावना उनके द्वारा जातिगत आधार पर दी गयी प्रतारणा का प्रतिफल हो ? यही कारण है कि रामनामी पंथ की सामाजिक संरचना में जन्म से लेकर मृत्यु तक और विवाह से लेकर संतानोत्पि> तक के सारे संस्कार ऐसे बनाये गये हैं जिसमें ब्राह्मणों की आवश्यकता ही पड़े। बिलासपुर जिला गजेटियर के अनुसार उनके धार्मिक कार्यो को पंथ के संत सम्पन्न कराते हैं। अगर अति आवश्यक हुआ तो वे ब्राह्मणों को भी आमंत्रित करते हैं।

रेड इंडियन :-

रामरमिहा के गुरू और गोसाई लोग रंगीन मोर पंखों वाले बांस के मुकुट धारण करने वाले होते हैं। इस पर भी रामनाम की काली पट्टी लगी रहती है। पत्रकार श्री सतीश जायसवाल इनकी तुलना रेड इंडियन से करते हैं। अपने एक लेख मंे वे लिखते हैं :- ''इन मुकुटों के कारण ये लोग रंग बिरंगे पंखों की शीश सज्जा करने वाले रेड इंडियनों की तरह नजर आते हैं। वैसे तो भारत में अंडमान द्वीप समूह तथा कुछ आफ्रीकी देशों के जन जातीय कबीलों में वृक्षों की छाल और मिट्टी के नैसर्गिक रंगों से अपने शरीर को चित्रित करने और रंगने की परंपरा है। लेकिन वहां यह सब सजावटी सा होता है। धार्मिक विधि विधान के तौर पर अपने पूरे शरीर में ईश्वर का नाम अंकित करने वाला संभवत: यह दुनिया का एक मात्र समुदाय है। यह समुदाय कोई छोटा मोटा जन जातीय कबीला नहीं बल्कि पांच लाख से भी उपर विशाल जनसंख्या वाले धर्मावलंबियों का एक संगठित पंथ है। जिससे जनतांत्रिक व्यवस्था का सबसे सशक्त अस्त्र अर्थात् मतदान का अधिकार मिला हुआ है।''

आदिवासी परंपरा गोदना :-

सौंदर्य वृद्धि के लिये आदिवासी संस्कृति में अंग लेखन और चित्रांकन की परंपरा गोदना अनेक आस्थाओं से जुड़ा है। गोदना आदिवासी महिलाओं का श्रृंगार ही नहीं बल्कि ऐसा परिधान है जो आजीवन तन से जुड़ा रहता है। मान्यता तो यह भी है कि मृत्योपरान्त तो तन के सारे गहने और कपड़े उतारे जा सकते हैं, लेकिन संग तो गोदना ही जाता है। गोदना को लोग ''चिन्हारी'' के रूप में गुदवाते हैं। ऐसे मंे गोदना अगर रामनाम का हो तो सोने में सुहागा ही होगा। अगर किसी रामरमिहा को ध्यान से देखें तो आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है क्योंकि हाथ, पैर यहां तक कि आंखों की पलकों में रामनाम खुदा रहता है। बचपन में रामनाम माथे पर गोदा जाता है। गोदना गोदते समय भजन कीर्तन होता है जिससे मन रामनाम में लीन हो जाये और पीड़ा का आभास तक हो ? उम्र के हिसाब से शरीर के दूसरे भाग में गोदने का काम किया जाता है। पहले स्याही से रामनाम लिखा जाता है फिर सुई चुभोई जाती है। गोदना गोदने में दो सुई काम में लाई जाती है और काले रंग को अधिक गहरा तथा पक्का बनाने के लिये उस पर उपर से मिट्टी के तेल से निकला धुंआ लगा लेते हैं। गोदना गोदते समय गीत भी गाये जाते हैं :- धूम कुसंगति कालिख होई। लिखिय पुराण मंजु मति होई।।

गोदना गोदने के बाद उसके उपर हल्दी का लेप लगाया जाता हैं गोदना पकने की बात बहुत कम ही सुनने को मिलती है। >ाीसगढ़ में गोदना गोदने का काम देवारिन महिलाएं करती हैंं। गोदना गोदते समय वे अक्सर गाती हैं:

मोर भूरी दीदी-

घुरूर घुरूर जाता बाजे माली भर पिसा

एक चिरूवा भर दउड़त है किसान।

एक चानी भांटा सोर घइला पानी

तोर धांगरा दारू पी के पड़ गै उतानी।

पंचायत : एक सर्वमान्य संस्था :-

सामाजिक व्यवस्था में जहां चार घर हुये नहीं कि उनमें किसी किसी बात को लेकर टकराहट अवश्य होती है। रमरमिहा लोग झगड़ों का निपटारा कोर्ट-कचहरी के बजाय अपनी पंचायत में करना ज्यादा पसंद करते हैं। इस पंथ की अपनी पंचायत होती है, जो सर्वमान्य संस्था होती है। रमरमिहा लोगों की सामाजिक पंचायत का गठन पंथ के निर्माण के समय से ही हुआ है। सन् १९६० के पहले तक गुरू प्रथा से पंचों का नामांकन होता था। लेकिन समयानुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन अवश्यसंभावी है। अत: नामांकन प्रथा के बजाय चुनाव प्रक्रिया अपनाया जाने लगा। इस प्रकार सन् १९६० में पहली निर्वाचित पंचायत बनी और उसके बाद से हर वर्ष पंचायत का चुनाव होता है। इस पंचायत में १०० पंच होते हैं। आठ गांव के पीछे एक प्रतिनिधि होता है। ये सब महासभा के प्रतिनिधि कहलाते हैं। इसी महासभा में पदाधिकारियों का निर्वाचन होता है। पंचायत का कार्यक्षेत्र सामाजिक, पारिवारिक झगड़ों का निपटारा करना, धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन को मजबूत बनाना और सामूहिक विवाह को सम्पन्न कराना है। लंबे समय तक श्री बोधराम रामनामी पंथ के महामंत्री हैं।

सामूहिक आयोजन : पंथ मेला :-

रामनामी पंथ के दो प्रमुख आयोजन होते हैं- एक, रामनवमीं में संत समागम और दूसरा, पौष एकादशी से त्रयोदशी तक चलने वाला तीन दिवसीय मेला। मेला में सामाजिक वाद विवादों, पारिवारिक झगड़ों आदि का फैसला होता है। इसके अलावा महासभा का आयोजन और सामूहिक विवाह भी होते हें। अगला मेला किस स्थान में लगेगा, इसका निर्णय भी यहीं पर हो जाता है। रामनामी मेला महानदी के तटवर्ती ग्रामों में एक बार महानदी के >ार में तो दूसरी बार महानदी के दक्षिण में लगता है।

रामनामी मेला का आयोजन महानदी के तटवर्ती ग्रामों में लगने के बारे में एक लोककथा प्रचलित है। उसके अनुसार आज से ८५-८५ वर्ष पहले सवारियों से भरी एक नाव महानदी को पार करते समय मझधार में फंस गयी। नाविकों नाव को किनारे लगाने की बहुत कोशिश की मगर सफलता नहीं मिलीं उस समय ईश्वर ही कोई चमत्कार कर सकता था। नाव में सवार सभी यात्रियों ने मिन्नतें मानने लगे लेकिन इससे भी कोई फायदा नहीं हुआ। संयोग से उस नाव में रामनामी पंथ के प्रवर्तक श्री परसराम भारद्वाज और उनके अनुयायी भी सवार थे। सबने उनसे भी मिन्नतें मानने का अनुरोध किया। तब उन्होंने भी मिन्नतें मानी :- ''यदि मझधार में फंसी नाव सकुशल किनारे लग जायेगी तो रामनामी समाज द्वारा महानदी के दोनों किनारों पर रामनाम के भजन-कीर्तन का आयोजन करेगी।'' आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, उनके इस प्रकार मिन्नत मानते ही नाव सकुशल किनारे लग गयी। तब से प्रतिवर्ष महानदी के तटवर्ती ग्रामों में रामनाम का भजन-कीर्तन का आयोजन होने लगा जो आगे चलकर रामनामी सम्मेलन और मेला का रूप ले लिया।

तीन दिवसीय मेला के पहले दिन मेला स्थल में निर्मित जय स्तम्भ के उपर कलश चढ़ाया जाता है। दूसरे दिन रामायण पाठ, रामनाम के भजन-कीर्तन का आयोजन होता है। मेला के अंतिम दिन सामूहिक विवाह और सामूहिक भोजन-भंडारा का आयोजन होता है। मेला स्थल के आस पास जुआ, मांस-मदिरा और वेश्या गमन जैसी कुप्रथा पूर्णत: प्रतिबंधित होता है। रामलीला मेला का प्रमुख आकर्षण होता है। मेला स्थल के मध्य में १३ फीट ऊंचे जय स्तम्भ का निर्माण किया जाता है और चबुतरे में भी रामनाम अंकित होता है। इस चबुतरे पर रामचरित मानस की प्रति रख दी जाती है। फिर रामनाम कीर्तन होता है जिसमें वाद्य यंत्रों के बजाय घुंघरू मंडित लकड़ी के चौके से ध्वनि और ताल निकाला जाता है तथा मयूर पंख से सुसज्जित तंबूरे से वातावरण राममय हो जाता है। विवाह के समय वर-वधू की जय स्तम्भ और रामायण को साक्षी मानकर सात फेरा लेवाया जाता है। फेरा के पूर्व महासभा के समक्ष वर और वधू पक्ष को विधिवत घोषणा पत्र भरना पड़ता है और संस्था का निर्धारित शुल्क ११-११ रूपये देना पड़ता है। दहेज मांगना और तलाक लेना पूर्णत: वर्जित है। हालांकि विधवा महिला के माथे पर रामनाम देखकर कोई व्यक्ति उनसे पुनर्विवाह कर सकता है।

रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति,

प्रो. अश्विनी केशरवानी

राघव, डागा कालोनी,

चांपा-४९५६७१ (छत्तीसगढ़)

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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