विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
पंडित दामोदर प्रसाद त्रिपाठी छत्तीसगढ़ के 14 रियासतों में से एक छुईखदान रियासत का राजनैतिक, सांस्कृतिक, साहित्यक एवं धार्मिक गतिविधियों में सदैव अग्रणी स्थान रहा है। भारतवर्ष में जिन कारणों से राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ उनसे छुईखदान भी प्रभावित हुए बिना न रह सका। यहां भी मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए असंतोष के स्वर मुखरित हुए। छुईखदान के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार स्व. डॉ. रतन जैन के अनुसार तत्कालीन छुईखदान रियासत में आजादी के आंदोलन का सूत्रपात सन् 1920 के आसपास हुआ। उस समय राजनांदगांव, छुईखदान, छुरिया, बादराटोला, कौड़ीकसा, घोघरे और कवर्धा भी स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख केन्द्र थे। अप्रैल 1920 में राजनांदगांव में मजदूरों की 36 दिनों की ऐतिहासिक हड़ताल और 21 दिसम्बर 1920 को महात्मा गांधी के प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन ने यहां के लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उस समय अनेक अनाम सेनानियों ने आजादी की मशाल अपने हाथों में थामीं। संभवत: यही कारण है कि जब 26 दिसम्बर 1920 को नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो छुईखदान का एक शिष्टमंडल इस