राजीव काला जल और शानी

उस दिन दौंडते भागते दुर्ग रेलवे स्टेशन पहुचा । गाडी स्टैंड करते ही रेलगाडी की लम्बी सीटी सुनाई देने लगी थी । तुरत फुरत प्लैटफार्म टिकट लेकर अंदर दाखिल हुआ । छत्तीसगढ एक्सप्रेस मेरे स्टेशन प्रवेश करते ही प्लेटफार्म नं. 1 पर आकर रूकी । चढने उतरने वालों के हूजूम को पार करता हुआ मैं एस 6 के सामने जाकर खडा हो गया । राजीव रंजन जी और अभिषेक सागर जी मेरे सामने खडे थे । साहित्य शिल्पी और छत्तीसगढ के साहित्यकारों पर संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण चर्चा के बीच ही राजीव जी नें सागर जी को सामने की पुस्तक दुकान से शानी का ‘काला जल’ पता करने को कहा, पुस्तक वहां नहीं मिली । तब तक गाडी की सीटी पुन: बज गई और राजीव जी एवं सागर जी से हमने बिदा लिया देर तक हाथ हिलाते हुए बब्बन मिंया स्मृति में आ गए ।

राजीव जी से क्षणिक मुलाकात उनका व्यक्तित्व‍ मेरे लिए उनके बस्तर प्रेम के कारण बहुत अहमियत रखता है तिस पर शानी की याद । शानी नें तो बस्तर को संपूर्ण हिन्दी जगत में अमर कर दिया है, सच माने तो हमने भी बस्तर को शानी से ही जाना । उनकी कालजयी कृति ‘काला जल’ नें तो अपने परिवेश से प्रेम को और बढा दिया ।

‘काला जल’ या शानी का उल्लेख जब जब होता है जगदलपुर का वह तालाब स्मृति में जीवंत हो उठता है, उसके पात्र व कथानक गड्ड मड्ड रूप में कई कई बार मन में उमडते हैं पर ठीक से याद नहीं रह पाते । राजीव जी के याद दिलाने पर मुझे उसे पढने की इच्छा पुन: जागृत हो गई । यह उपन्यास मेरी नजरों में लगभग 1982-83 में आई थी और 1983 की गर्मियों में मैंने इसे पढा था । यह मेरे गांव में मेरी मां की सहेजी गई निजी लाईब्रेरी में थी । मेरी मॉं हंस व सारिका की अनियमित पाठक थी एवं धुर गांव में भी जिसे मैंनें बाद में समझा कि इसे साहित्य कहा जाता है, ऐसे किताबों की भी पाठक थीं और संग्रह भी करती थीं । अत: मैं ‘काला जल’ को पाने के लिए पिछले रविवार को गांव जा पहुचा जहां उनकी किताबें नहीं मिल पाई किन्तु हंस व सारिका के कुछ फटे पुराने अंक व अन्य पत्रिकायें ही मिल पाई पुस्तनकें नदारद थी ।

मेरी मॉं एवं मेरे पिता की मृत्यु के बाद गांव का घर लगभग सराय सा हो गया है और जिन्हें जो अच्छा लगा वे बहुत पहले ही ले गए । सो ‘काला जल’ मुझे वहां नहीं मिल सका । घर की देररेख के लिये जिसे हमने गांव में रखा है उसने जब हमें कागजों की ढेर में जूझते देखा तो पूछा ‘दाउ का खोजत हावस?’ उसे बताने का कोई औचित्य नहीं था किन्तु उसने एक कमरे में ले जाकर मुझे दो तीन पुस्तकें दिखाई जिसे किसी मेहमान नें मेरे पिताजी के मृतक कार्यक्रम के समय पढ कर वहीं रख दिया था और कमरा बरसों से ताले में बंद था । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, धूल में अटा ‘काला जल’ वहां मिल गया ।

ऐसी कृतियों को पढने के प्रति रूचि जागृत करने का पाठ मैंनें अपनी मॉं से सीखा था । मॉं मिडिल स्कूल तक ही पढी थी और इसी बीच में वह बहू बनकर मेरे दादा के गांव में आ गई थी जहां महिलाओं को पढाने का रिवाज नहीं था । मेरे दादा की मालगुजारी थी और बीसियों लठैतों के साथ पच्चीसों हल चलते थे आवश्यक संस्कृत के अतिरिक्त अन्य शिक्षा को तनिक भी महत्व नहीं दिया जाता था । ऐसी परिस्थितियों में भी मॉं की ऐसी रूचि, मानसिक क्षमता एवं साहित्तिक अभिरूचि को देखकर मुझे आश्चर्य होता था । भीष्म साहनी की तमस जब पहली बार प्रकाशित होकर बाजार में आई और मॉं के हाथ लगी तब की कुछ बातें स्मृति में हैं । मेरे बडे भाई बताते हैं, उन दिनों वो तमस के कथानकों एवं उस समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों को तमस के कथानक में जोडने, उसमें उभारने एवं कुछ चरित्रों पर कम प्रकाश डालने के लेखक के उद्देश्यों पर चर्चा करती थी पर हमें यह सब समझ में नहीं आता था और जब तमस टीवी में आई तो उसे देखने में जो आनंद आया उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

कथानक व कृति की तत्कालीन उपादेयता पर उनका ध्यान व बहस हमेशा केन्द्रित रहता था । ऐसे समय पर भी वे गंभीर चिंतन करती जब किसी पुस्तक का पुर्नप्रकाशन हुआ हो । संस्करणों के बीच की अवधि को अपने मोटे चश्में से निहारते हुए पहले बुदबुदातीं और हमें बतलातीं कि यह पुस्तक फलां से फलां सन् तक सर्वाधिक बिकी है । इसका भी क्या मतलब होता है यह हम नहीं जानते थे यद्धपि वह भारतीय परिस्थितियों , किताब के कथानक या विषय को उन वर्षों से जोडकर समझाती थीं पर हमारे पल्ले नहीं पडती थी । आज इन बहुत सारी यादों को संजोंना उन पर चर्चा करना अच्छा लगता है । ‘काला जल’ के कथानक की तरह ।

मेरे गांव से मेरे वर्तमान निवास दुर्ग तक का लगभग 125 किलोमीटर का सफर इन्हीं यादों में कट गया । यहां आते ही ‘काला जल’ को एक ही बैठक में पी गया । गुलशेर अहमद ‘शानी’ के इस काला पानी रूपी जीवन प्रणाली में अमानवीय और प्रगतिविरोधी मानों और मूल्यों की असहनीय सडांध में डूबते उतराते बब्बन, मिर्जा करामत बेग, बी दरोगिन, रज्जू मिंया, रोशन, मोहसिन, छोटी फूफी, सल्लो आपा नें पुन: बस्तर को जीवंत कर दिया ।

आपको भी यदि अवसर मिले तो अवश्य पढें शानी की सर्वश्रेष्ठ कृति  ‘काला जल’ ।


संजीव तिवारी

'पहल' के बंद होने पर महावीर अग्रवाल जी की त्‍वरित टिप्‍पणी

"पहल के प्रवेशांक से लेकर अभी-अभी प्रकाशित 90 अंक तक का एक-एक शव्‍द मैंने पढा है । पहल मेरे लिए एक आदर्श पत्रिका प्रारंभ से लेकर आज तक रही है । पहल के संपादक ज्ञानरंजन से प्रेरणा लेकर ही मैंने 'सापेक्ष' पत्रिका प्रारंभ की थी जिसके अभी तक 50 अंक छप चुके हैं । 

पहल का बंद होना मेरे लिए सिर्फ एक दुखद घटना नहीं है वरण मैं यह मानता हूं कि पहल के बंद होने से सुधी पाठकों की दुनियां में एक शून्‍यता और निराशा आयेगी । मेरी ज्ञानरंजन जी से दूरभाष पर चर्चा हुई उन्‍होंनें कहा - अब लिखेंगें पढेंगें और मित्रों से भेंट मुलाकात करेंगें । मुझे लगता है नई पीढी में कोई न कोई आयेगा और ''पहल'' के काम को आगे जरूर बढायेगा । "


डॉ. महावीर अग्रवाल 
संपादक - सापेक्ष

सापेक्ष 47 - हबीब तनवीर का रंग संसार, सापेक्ष 48 - उत्‍तर आधुनिकता और द्वंदवाद, सापेक्ष 49 विज्ञान का दर्शन (फ्रेडरिक एंगेल्‍स का योगदान), सापेक्ष 50 - हिन्‍दी आलोचना पर

इस ब्‍लाग पर कल पढें - 'राजीव रंजन, शानी और काला जल'  
 

सरखों में श्याम कार्तिक पूजा : प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्‍तीसगढ आदि काल से अपनी परम्परा, समर्पण की भावना, सरलता और उत्सवप्रियता के कारण पूरे देश में आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां के लोगों का भोलापन और प्रकृति का निश्छल दुलार का ही परिणाम है कि यहां के लोग सुख को तो आपस में बांटते ही हैं, दुख में भी विचलित न होकर हर समय उत्सव जैसा महौल बनाये रखते हैं। किसी प्रकार का दुख इनके उत्सवप्रियता में कमी नहीं लाता। झूलसती गर्मी में इनके चौपाल गुंजित होते हैं, मूसलाधार बारिश में इनके खेत गमकते हैं और कड़कड़ाती ठंड में इनके खलिहान झूमते हैं। ''धान का कटोरा'' कहे जाने वाले इस अंचल के लोगों के रग रग में पायी जाने वाली उत्सवप्रियता, सहजता और वचनबद्धता कई तरीके से प्रकट होते हैं। ''श्याम कार्तिक महोत्सव ' उनमें से एक है जो छत्‍तीसगढ में अपनी तरह का अनूठा आयोजन है। नवगठित जांजगीर-चांपा जिले का एक छोटा सा गांव सरखों में मुझे यह अनूठा आयोजन देखने को मिला।

जांजगीर जिला मुख्यालय के नैला रेल्वे स्टेशन से मात्र ३-४ कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गांव सरखों स्थित है। पक्की सड़क और निजी बस इस गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है। सड़क के दोनों ओर खेत और खेतों में कटने के लिए तैयार धान की फसल। धान की सोंधी महक मेरे मन को प्रफुल्लित कर रही थी.. और हमारी मोटर सायकल धीरे धीरे प्रकृति के इस आनंद उत्सव का आनंद लेती जा रही थी। शंकर भाई गाड़ी चला रहे थे और बीच बीच में मेरे उल्टे सीधे प्रश्नों का उत्‍तर भी देते जा रहे थे। दिन भर के इंतजार के बाद शाम को सरखों जाने का संयोग बना था। कार्तिक पूर्णिमा का दिन वैसे भी छत्‍तीसगढ वासियों के लिये महत्वपूर्ण होता है। श्याम कार्तिक महोत्सव का अंतिम दिवस होने के कारण सड़कों में जबरदस्त भीड़ थी-औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े और मनचले युवकऱ्युवतियां पैदल, साइकिल, भैंसा गाड़ी, बस, टे्रक्टर और जीप में बैठकर जा रहे थे। सबकी एक ही मंजिल थी- सरखों। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी, मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे...।

जांजगीर जिला कृषि के क्षेत्र में अत्यंत समृद्ध है और उनकी समृद्धतता यहां के खेतों में दो बार फसल होने के कारण है। यही नहीं बल्कि इस जिले में सरखों, जर्वे, सिवनी आदि गांवों में अनेक प्रतिभाएं छत्‍तीसगढ को गौरवान्वित करती रही है। उच्च शिक्षा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा आदि महत्वपूर्ण पदों पर यहां की प्रतिभाएं पदस्थ रही है। इससे यह गांव शुरू से चर्चित रहा है। ये बात अलग है कि ये प्रतिभाएं अपने गांव की ओर मुड़कर नहीं आये और उनकी उपेक्षा भाव माता पिता की बूढ़ी आंखों को जी भरकर रूलाया है और बूढ़ेपन में बिना सहारे जीने को मजबूर कर दिया है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहें....?

शंकर भाई ने मोटर सायकल अचानक रोक दी- सरखों आ गया भई ! मेरी विचार श्रृंखला अचानक टूट गयी और मैं अपने को सरखों के भीड़ में पाया। शाम गहराती जा रही थी और रोशनी के बावजूद अंधेरापन महसूस हो रहा था। मुझे लगा दिन में आते तो अच्छा होता ? हम लोग एक भीड़ भरे घर में दाखिल हुए। लोगों ने वहां हमारा बड़ा आत्मीय स्वागत किया। एक महिला आगे आकर हमारा स्वागत करती हुई साधिकार बैठक में ले गई और मना करने के बावजूद जलपान करने के लिए ले आयी। शंकर भाई मेरा उनसे परिचय कराते हैं- ये अश्विनी केशरवानी हैं, चांपा के कालेज में पढ़ाते हैं और पेपर में लिखते भी हैं...श्याम कार्तिक महोत्सव देखने आये हैं..और ये इस गांव की सरपंच हैं- श्रीमती कुमारी बाई राठौर। मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। उनकी सहजता, सादगी और आत्मीयता देखकर मैं अभिभूत हो गया। आज के स्वार्थी दुनियां में ऐसे लोग भी हैं जो नि:स्वार्थ होते हैं। पूरा गांव इसी भाव से से बाहर से आये मेहमानों, रिश्तेदारों के स्वागत सत्कार में लगा हुआ था। गांव में त्योहार जैसा माहौल था। गांव का ऐसा कोई भी घर नहीं था जहां मेहमान न आया हो ? वैसे भी कार्तिक मास सनातन धर्मी लोगों के लिए महत्वपूर्ण मास है। इस मास में सार्वाधिक व्रतोत्सव होते हैं। कार्तिक मास की कथाओं या पौराणिक प्रसंगों के कारण ही नहीं बल्कि भौगोलिक, पर्यावरण, वैज्ञानिक और ज्योतिष कारणों से भी महत्वपूर्ण है। कृतिका नक्षत्र जिस पूर्णिमा को होता है वह मास कार्तिक का होता है। चंद्रमा उच्च का होता है अर्थात् पितर प्राण पृथ्वी पर दूरी पर होते हैं और सौर प्राण पृथ्वी के करीब होता है। मास का प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण होता है।

...और हम जब गांव के गुड़ी में पहुंचे तब श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकल चुकी थी और गांव के बड़े बुजुर्ग इस आयोजन में सहभागी बने गुड़ी में उपस्थित थे। इस गांव का गुड़ी गांव के बीच में स्थित है। सामने पंचायत भवन है। गांव के चारों ओर छोटे बड़े तालाब हैं। तालाबों की उपादेयता पहले दैनिक उपभोग, स्नान-ध्यान और खेतों की सिंचाई आदि के लिए थी। छत्‍तीसगढ के गांव तालाबों के मामले में जरूर सम्पन्न है। लेकिन इन तालाबों से सिंचाई अब नाम मात्र को होता है। अब उसमें नहाने भी कोई नहीं जाता बल्कि उसमें मछली की खेती होती है। इससे ग्राम पंचायत की आमदनी होती है। शायद खेत इसीलिए सूखते जा रहे हैं? उसकी निर्भरता या तो वर्षा के पानी अथवा बिजली की मदद से बोरिंग पर है। बहरहाल, सरखों में नहर से सिंचाई होती है। यहां एक से पांच एकड़ खेत वाले किसान अधिक हैं और चांपा जमींदारी से जुड़े मालगुजार लाल अमीरसिंह जी का परिवार और कुछ ''पोठ किसान'' हैं। सभी सुसम्पन्न और तन, मन और धन से इस महोत्सव में अपनी भागीदारी देते हैं। गांव के बड़े बुजुर्ग श्री दादूराम साव, श्री झाड़ूराम साव, पूर्व सरपंच श्री भरतलाल राठौर ने मुझे बताया कि सब गांव की तरह हमारे गांव में भी दीपावली में गौरी पूजा किया करते थे। बरसों की इस परंपरा में एक बार ऐसा मोड़ आया कि श्री सोनाऊ केंवट का प्रस्ताव-'' हमारे गांव में क्यों न श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा-अर्चना किया जाये..'' को गांव वालों ने आज से लगभग ४०-४२ साल पहले मान लिया था। तब से आज तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा हम करते आ रहे हैं। बहुत दिनों तक श्री श्याम कार्तिक महाराज को एक लोहार के दुकान में बैठाते थे। कुछ ही वर्ष पहले सबकी सहमति से अब गांव के गुड़ी में श्री श्याम कार्तिक महाराज को बिठाने लगे हैं। एक वर्ष सरखों में तो दूसरे वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है। जिस वर्ष सरखों में यह महोत्सव होता तो बोड़सरा में नवधा रामायण होता है। इसी प्रकार जिस वर्ष बोड़सरा में यह महोत्सव होता है तो सरखों में नवधा रामायण होता है। लेकिन सरखों में ही केवल श्री श्याम कार्तिक महाराज की मूर्ति स्थापित करके पूजा अर्चना की जाती है। कार्तिक मास के दूसरे पाख के छट से पूर्णिमा तक नौ दिन तक श्री श्याम कार्तिक महाराज की मयूर में विराजित छ: सिरों और बारह हाथ वाले मनमोहक मूर्ति की स्थापना की जाती है। साथ में शिव पार्वती और उसकी परिक्रमा करते श्री गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करते हैं। अन्य झांकी में श्री कृष्ण जी की माखन खिलाते यशाोदा जी की मूर्ति होती है। ये मूर्तियां गांव के ही मूर्तिकार स्व. श्री शिवलाल श्रीवास, घासीराम आदि बनाते थे। वर्तमान में बलराम साव बनाते आ रहे हैं। इस उत्सव में नवयुवकों की पर्याप्त हिस्सेदारी होती है। श्री श्याम कार्तिक महोत्सव के अध्यक्ष श्री अजय सिंह राठौर, ने बताया कि इस महोत्सव मंे पूरा गांव एकजूट होकर कार्य करता है। स्वस्फूर्त होकर नवयुवक वालिंटरी करते हैं। घर की औरतें बाहर से आये बहू-बेटियों, रिश्तेदारों और मेहमानों की खातिरदारी करने में पूरा सहयोग करती हैं। इतने बड़े आयोजन में पुलिस की बिल्कुल आवश्यकता नहीं होती।

इस गांव में श्री श्याम कार्तिक महाराज की पूजा का प्रथम अधिकार पूर्व मालगुजार लाल अमीरसिंह के परिवार को प्राप्त है। नौ दिन तक चलने वाले इस महोत्सव में आप-पास के गांवों के सभी नागरिकों को सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा जाता है और सरखों में उनका आत्मीय स्वागत किया जाता है, जो अमूमन दूसरी जगह देखने को नहीं मिलता। चार वार्डो में निवासरत अनुसूचित जाति की बस्ती में स्वजातीय बंधुओं की मेहमान नवाजी भी उल्लेखनीय है। छोटे-बड़े हर प्रकार के दुकान, होटल आदि यहां लगता है। कार्तिक पूर्णिमा इस उत्सव का अंतिम दिन होता है। दोपहर में पूजा, हवन आदि के बाद श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निकलती है जो पूरे गांव की गलियों में भ्रमण करके पुन: गुड़ी में लायी जाती है और नवा तालाब में नाव खेलने के बाद रात्रि में उसे विसर्जित कर देते हैं। इस दृश्य को हजारों-लाखों आंखें अपलक निहारते हैं। पंचायत द्वारा जल ग्रहण मिशन के सहयोग से इस तालाब को बंधाने का कार्य किया गया है। लेकिन चारों ओर से सर्च लाइट लगाकर नांव खेलने के दृश्य को फोकस किया जाये तो यह दृश्य और आकर्षक बन सकता है। लेकिन प्रशासन, दैनिक समाचार पत्रों और मीडिया की नजरों से दूर इस गांव की यह अनूठी परंपरा स्वस्फूर्त रूप से बदस्तूर जारी है। शोभायात्रा के दौरान हर घर के सामने उनकी पूजा-अर्चना कर आरती उतारी जाती है। सबके सहयोग से श्री श्याम कार्तिक महाराज की शोभायात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती है। कवि किशोर पांडेय गाते हैं :-

जय स्कंद कारतिक स्वामी। चराचरन के अंतर जामी।।
सकल परानी के हिय कंदर। बइठे नित गुह बनके उज्जर।।
कउनो आरो तब नहिं पावैं। नांव ठांव सब गुपुत बतावैं।।
तैं हस स्वयं गुपुत के ज्ञाता। जय जय हे गनपति के भ्राता।।
मइहन परम अनु ले जादा। हव महान तुम कतका गादा।।
जानकार करन कारज के। तन अवतरिस पझरिहा रज के।।
गरभ ले खसल परै उमा के। पाय सरूप परम अतमा के।।

स्कंद पुराण के अनुसार श्री गणेश के अग्रज कार्तिक महाराज आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने और शिव भक्ति का दक्षिण भारत में प्रचार करने के लिए जप तप करने लगे। दक्षिण भारत में कार्तिक भगवान को ''श्री मुरगुन स्वामी'' के रूप में पूजा जाता है। कवि किशोर की बानगी पेश है :-

देउता तीरिथ रिसि अउ मुनी। दउड़य करौंच कातिक पुन्नी।।
दक्खन परमुख देव कहावैं। मुरगुन स्वामी नाव धरावैं।।
ब्रह्मचर्य के शक्ति देवैया। शुभदानी अउ पाप हरैया।।
हवै मंजुर के तुंहर सवारी। जै शिखि ध्वज अखंड ब्रह्मचारी।।

ब्रह्मचर्य, शक्ति और श्री रूद्रायामल तंत्र के अन्नो बढ़ाने वाले श्री श्याम कार्तिक महाराज के बखान इन शब्दों में सुनिये :-
छह मुखमंडल कमल हे प्रमुदित। बारह विशाल नयन आनंदित।।
बाजू बारह उठे अकाशा। बारह धरय अस्त्र अघनाशा।।
शांत चतुरभुज रूप तव सुघरा। हाथ अभय वर शक्ति अउ कुकरा।।
तैं उन मंगलवार के राजा। बाधा नाश तुंहर हे काजा।।
परम पबित हे तोर सरूपा। जय जय सुर सिरमोर युधूपा।।

दक्षिण भारत में पूजित श्री श्याम कार्तिक स्वामी यूं अचानक जांजगीर क्षेत्र में कैसे पूजे जाने लगे यह प्रश्न आज भी अनुत्‍तरित है। लेकिन इनकी पूजा की अनूठी परंपरा से सरखों, बोड़सरा और खोखरा और इस क्षेत्र के लोगों में आपसी भाईचारा का संदेश लोकहित में उचित भी है। मुझे सरपंच काकी की बात ''...कारतिक महराज के दरसन करा, घर में खाहा-पीहा, रथिया मा गम्मत देखिहा अउ बिहना जाहा..। में महोत्सव का सारा निचोड़ दिखता है। उन्हें मेरा साधुवाद।

रचना, आलेख, फोटो एवं प्रस्तुति -

प्रो. अश्विनी केशरवानी
''राघव'' डागा कालोनी,
चांपा-४५६७१ ( छत्‍तीसगढ )

नया मेहमान

कल रात  को घर आकर फ्रेश होकर बैठा तो मेरा बालक नारियल हाथ में लेकर खडा हो गया ।  अगरबत्‍ती लगाकर इसे तोडे, हमने बिना त्‍यौहार कारण पूछा तो उसनें बतलाया । हमारे कालोनी के मकानों में गार्डनिग के लिए भरपूर जगह दिये गये हैं जिसमें कईयों नें बागवानी के अपने शौक को पूरा किया है जिसमें से किसी के गार्डन में एक बिल्‍ली नें चार बच्‍चे दिये थे और बच्‍चों के आंख खुलने के बाद से वह पूरे कालोनी में कभी यहां तो कभी वहां अपने बच्‍चों को छोड कर घूमती रही है ।

अब खबर यह थी कि बिल्‍ली अपने एक एक बच्‍चों को अलग अलग घरों के गार्डन में छोड आयी है और बच्‍चे दिन भर अपनी मॉं से मिलने की आश में चिल्‍ला रहे हैं ऐसा ही एक बच्‍चा पिछले दो दिन से हमारे घर के बाउंड्री में रखे कबाडों के पीछे छुपा चिल्‍ला रहा था, मेरा बालक इससे अतिआकर्षित व उत्‍साहित हो रहा था वहीं मेरी श्रीमतीजी को इस आवाज से काफी गुस्‍सा आ रहा था पर उसे बंद कराने का जरिया मात्र उसे उसकी मॉं से मिलाना था जो संभव नहीं दिख रहा था, अब उसके क्रोध नें भक्ति का सहारा लिया जो स्‍वाभाविक तौर पर महिलाओं में देखी जाती है, उसके मॉं से उसे मिलाने की मन्‍नत स्‍वरूप नारियल 'चढाया गया और चमत्‍कार स्‍वरूप अगले दिन उसकी मां शाम को पिछवाडे वाले खण्‍डेलवाल आंटी के गार्डन में आयी तो श्रीमतिजी नें हमारे घर में छूटे बच्‍चे को भी उसके पास पहुँचा दी । बच्‍चे को पूरे तीन दिन बाद मॉं का दूध व साथ मिला था ।
उमंग व उत्‍साह को मेरे घर में पाकर मैं मुदित था ।

मेरे संस्‍था प्रमुख की कृपा से मेरे दुर्ग निवास का लगभग संपूर्ण समय कम्‍पनी के द्वारा ही उपलब्‍ध कराए गए आवास में बीत रहा है । इस आवास से मेरा लगाव इसलिये कुछ ज्‍यादा है कि मैं जब गांव में रहता था तब भी शिवनाथ नदी मेरे घर के करीब बहती थी और यहां मीलों दूर शहर में भी शिवनाथ मेरे घर के करीब ही बहती है और बरसात के दिनों में जब वह अति उत्‍श्रृंखल हो जाती है तो उसी तरह मेरे इस शहर के घर में भी घुसती है जैसे वह गांव के घर में बेरोकटोक घुस आती है, पर यहां ऐसी स्थिति दो-तीन साल में एकाध बार ही होता है सो हम जैसे तैसे सामानों को सम्‍हालते हैं और उपर व्‍यवस्थित करने की जुगत में लगते हैं कभी कभी इस जुगत में लगने वाले समय तक शिवनाथ वापस चली जाती है और हमें इसी बहाने घर के सामानों को पुन: दीपावली के पूर्व ही व्‍यवस्थित करने का बहाना मिल जाता है ।

अब बरसात और दीपावली दोनों अपने उमंग की खुशबू बिखेरती हुई गुजर गई है पर मेरे कालोनी की गलियों में अब भी फटाकों की चुट-पुट जारी है । फटाका चलाते बच्‍चों और पटाकों से बचते बंचाते कल रात आफिस से घर पहुंचा, तो घर में उत्‍साह व उमंग के साथ एक नये मेहमान को देखकर मैं चकराया । मेरा पुत्र अति उत्‍साहित नजर आ रहा था किन्‍तु श्रीमतीजी कुछ चिंतित । मेहमान महोदय को जब हम देखे तो हमारा भी प्‍यार उमड पडा । हमने श्रीमतीजी से पालतू जानवरों से चिढने वाले अपने स्‍वभाव के बावजूद बिल्‍ली के बच्‍चे को अचानक अपने घर में पनाह देने का कारण पूछा तब उसनें बतलाया कि  बिल्‍ली आज भी अपने बच्‍चे को दूध पिलाने नहीं आई है और यह दिन भर चिल्‍लाई है मेरे कान पक गये हैं इसकी आर्तनाद सुनकर मुझसे नहीं रहा गया तो इसे घर के अंदर ले आई  । स्‍वाभाविक मानवीय भावनाओं को जीवंत देखने में आनंद आता है आज भी मोगैम्‍बो खुश हुआ ।

मैं अपने ग्रामीण पन को जीवित रखने के प्रयास में ठंड आते ही सुबह-सुबह गार्डन एरिया में इंटो को चूल्‍हे का शक्‍ल देकर आग 'तापता' हूं और उसका सदुपयोग करते हुए पत्‍नीश्री उसी से सभी के लिए नहाने का पानी भी गरम कर देती है । सुबह उठकर देखा तो श्रीमतीजी ड्रापर से उस बिल्‍ली के बच्‍चे को दूध पिलाने में मगन थी,चूल्‍हा ठंडा था । सो हमने सेल्‍फ सर्विस का मंत्र बुदबुदाते हुए चाय की गंजी उठाई पर उसकी आवाज ने श्रीमतीजी के तंद्रा को तोडा और हमारी चाय से लेकर सुबह के नास्‍ते की व्‍यवस्‍था हो पाई । ड्रापर में दूध पीने के बाद इस बिल्‍ली के बच्‍चे नें घर में खूब उधम मचाया । उसे खेलते देखकर बरबस चेहरे पर मुस्‍कान आ जाती थी । देर तक उसके खेल को देखने के बाद आज वोट डालकर लेट से आफिस के लिए निकला ।
रास्‍ते में उस बिल्‍ली के बच्‍चे की यादें छाई रही । लगता है लोग इसीलिये पालतू जानवर घर में रखते हैं,  व्‍यस्‍त जिन्‍दगी में अटैचमैंट के लिए भावनाओं का बयार मनुष्‍य को छूकर नहीं निकलती । पर इन भावनाओं को महसूस  मनुष्‍य ही करता है ................ 

संजीव तिवारी

लोक गाथा : दशमत कैना

भोज राज्य का राजा भोज एक दिन अपनी सात सुन्दर राजकन्याओं को राजसभा में बुलाकर प्रश्न करता है कि तुम सभी बहने किसके भाग्य का खाती हो । छ: बहने कहती हैं कि वे सब अपने पिता अर्थात राजा भोज के भाग्य का खाती हैं और सब पाती हैं । जब सबसे छोटी बेटी से राजा यही प्रश्न दुहराता है तब, अपनी सभी बहनों से अतिसुन्दरी दशमत कहती है कि, वह अपने कर्म का खाती है, अपने भाग्य का पाती है । इस उत्तर से राजा का स्वाभिमान ठोकर खाता है और स्वाभाविक राजसी दंभ उभर आता है ।
राजा अपने मंत्री से उस छोटी कन्या के लिए ऐसे वर की तलाश करने को कहता है जो एकदम गरीब हो, यदि वह दिन में श्रम करे तभी उसे रोटी मिले, यदि काम न करे तो भूखा रहना पडे । राजा की आज्ञा के अनुरूप भुजंग रूप रंग हीन उडिया मजदूर बिहइया को खोजा गया । वह अपने भाई के साथ जंगल में पत्थर तोडकर ‘पथरा पिला-जुगनू’ निकालते थे जिसे उनकी मॉं, साहूकार को बेंचती थी जिससे उन्हें पेट भरने लायक अनाज मिल पाता था । बिहइया से दसमत कैना का विवाह कर दिया गया । दशमत अपने पति के साथ पत्थर तोडने का कार्य करने लगी जिसे उन्होंने अपना भाग्य समझकर स्वीकार कर लिया । पत्थर से निकलने वाले ‘पथरा पिला’ को दशमत कैना परख लेती है कि वे हीरे हैं जिसका साहूकार अत्यंत कम कीमत देता है और खुद लाखों में बेंचता है । तब वह उससे लड झगडकर हीरे का उचित प्रतिफल प्राप्त करती है और अपने जाति के लोगों को भी दिलवाती है । राजकुमारी होने के कारण नेतृत्व के स्वा्भाविक गुण उसमें रहते हैं । वह अपने सभी मेहनतकश रोज कमाओ रोज खाओ वाले उडिया समूह की नेत्री बन जाती है और दशमत ओडनिन के नाम से पहचानी जाती है । दशमत के भाग्य में मेहनत से ही खाना लिखा होता है, अत: वह अपने पति एवं ओडिया मजदूरों के समूह के साथ साथ क्षेत्र भर में घूम घूम कर बांध, तालाब व बावली खोदने का काम करने लगती है । इसी क्रम में दशमत ओडनिन धौंरा नगर के राजा महानदेव के पास जोहारने के बहाने 120 स्त्री और 120 पुरूषों के साथ काम पूछने जाती है । राजकुल में उत्पहन दशमत अपने पारंपरिक छत्तीसगढिया श्रृंगार में जब राजा महानदेव के सामने प्रस्तुत होती है तब राजा उसके सौंदर्य से मोहित हो जाता है । महल में फुदकने वाली गौरइया राजा को चेतावनी देती है कि इस पर आशक्त मत होवें पर राजा दशमत को स्वर्ण आसन देता है और उसका परिचय पूछता है । दशमत बतलाती है कि भोजनगर उसका मायका है और ओडार बांध उसका श्वसुराल, वह बाबली खोदने का काम करती है ।
दशमत के रूप यौवन पर मोहित राजा उसे अपने गरीब मजदूर पति को छोड पटरानी बनने का प्रस्ताव देता है और उससे विनय करने लगता है । दशमत विचलित हुए बिना राजा का अनुरोध ठुकरा देती है और ओडार बांध आकर अपने कार्य में लग जाती है ।
नव लाख ओडिया मिट्टी खोद रहे हैं और नव लाख ओडनिन ‘झउहा’ में मिट्टी ढो रही हैं जिसमें से अपने सौंदर्य के कारण दशमत कैना अलग से पहचानी जा रही है वह मिट्टी ढोनें में पूरी तन्मीयता से लगी है । राजा महानदेव दशमत के प्रेम में ओडार बांध आ जाता है और बांध के किनारे तंबू तान कर बैठ जाता है और दशमत के रूप यौवन का आंखों से रस लेने लगता है ! उसे कंकड मार मार कर छेडता है । दशमत से विवाह करने की गुहार करता है उसके इस हरकत से परेशान दशमत शर्त रखती है कि तुम भी हमारी तरह काम करो तब सोंचेंगें । प्रेम में आशक्त राजा सिर में ‘झउहा’ लिए ‘लुदरूस-लुदरूस’ मिट्टी ढोता है । पसीने से लथपथ उसका राजसी वैभव प्राप्त शरीर थककर चूर हो जाता है । दशमत की सहेलियां उससे मजाक करती है, दशमत भी कहती है, देखो रे तुम्हारे जीजा कैसे मिट्टी ढो रहे हैं, हंसी ढिठोली के बावजूद राजा वह कार्य नहीं कर पाता । वह दशमत से कोई दूसरा निम्न स्तरीय कार्य कराने को कहता है पर श्रम वाला काम करने से मना करता है । ऐश्वेर्यशाली राजा की दीनता पर मजा लेते निम्नस्तर का जीवन यापन करने वाले ओडिया लोग कहते हैं कि हमारे जाति के स्त्री को पाना है तो हमारी तरह मांस खाना होगा और दारू पीना होगा । राजा ब्राह्मण है, फिर भी वह दशमत के लिए तैयार हो जाता है । ओडिया डेरे में सुअर का मांस पकाया जाता है और राजा गरमा गरम मांस भात के साथ शराब का पान करता है एवं नशे में चूर हो जाता है । नशे में बाबरों सा हरकत करते हुए नाचने लगता है और थककर बेहोश हो जाता है । उसके बेहोश हो जाने पर सभी ओडिया उसे खाट में बांध देते हैं एवं उसकी चूटिया को ‘चबरी गदही’ के पूंछ से बांध कर गधी को डंडा मार, बिदका देते हैं । राजा का शरीर छलनी होता हुआ घिसटते जाता है और गधी ‘खार खार जंगल जंगल’ भागती है । राजा मदद के लिए पुकारता है, राजा के बेटे मदद के लिए महल से निकलने लगते हैं पर सातों रानियां अपने बेटों को रोक देती हैं कि जिस पिता ने एक विवाहित श्रमिक स्त्री के कारण तुम्हारी मां को त्याग दिया ऐसे पिता की सहायता मत करो । बेटों के पांव ठिठक गये । राजा का आर्तनाद सुन ओडिया मजे ले रहे हैं, राजा का मुहलगा नाई से यह सब देखा नहीं जाता वह उस्तरे से गदही का पूंछ काटकर राजा को बचाता है ।
राजा अपने महल में आता है क्रोध एवं प्रेम से पागल कुछ दिन बाद अपनी चतुरंगिनी सेना लेकर ओडार बांध की ओर कूच कर जाता है । राजा के सैनिक चुन चुनकर ओडियों को मारने लगते हैं नव लाख ओडिया और राजा के सैनिकों के बीच युद्ध होता है, सभी ओडिया मारे जाते हैं । राजा दशमत को खोजता है पर वह अपने पति के मृत्यु के दुख में ओडार बांध में कूदकर प्राण त्याग देती है । राजा दशमत के मृत देह को देखकर अत्यत दुखी हो जाता है । आत्मग्ला नी और संवेदना के कारण राजा बांध किनारे के पत्थर में अपना सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे देता है ।
(वाचिक परम्परा में सदियों से इस गाथा को छत्तीसगढ के घुमंतु देवार जाति के लोग पीढी दर पीढी गाते आ रहे हैं । वर्तमान में इस गाथा को अपनी मोहक प्रस्तुति के साथ जीवंत बनाए रखने का एकमात्र दायित्व का निर्वहन श्रीमति रेखा देवार कर रही हैं । इस गाथा को रेखा से सुनने का आनंद अद्वितीय है । यह गाथा छत्तीसगढी संस्कृति के पहलुओं को विभिन्‍न आयामों में व्‍यक्‍त करती है ।  पारंपरिक धरोहर इस गाथा को हम भविष्य में मूल छत्तीसगढी भाषा में अपने ‘गुरतुर गोठ’ में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगें )

कहानी रूपांकन -
संजीव तिवारी

रचनाओं की महक

प्रिय एबीसी,

काफी लम्‍बे अरसे के बाद आज तुम्‍हें फिर पत्र लिख रहा हूं, पिछले तीन माह से तुम्‍हें पत्र लिखना चाह रहा था किन्‍तु लिख नहीं पा रहा था । हंस में 'विदर्भ' कहानी पढने के बाद से ही, पर ...... तुम्‍हारा पता वहां नहीं था । सिर्फ ई मेल एड्रेस था वो भी याहू का जो हिन्‍दी मंगल फोंट को सहजता से स्‍वीकार नहीं करता इस कारण की बोर्ड पर खेलते मेरे हाथ रूक गये थे ।

उस कहानी एवं वहां दिये तुम्‍हारे परिचय से मुझे तुम्‍हारे संबंध में कुछ और जानकारी मिली और मुझे खुशी हुई कि तुम अब कम्‍प्‍यूटर से घोर नफरत करने वाली अपनी प्रवृत्ति बदल चुकी हो इसी लिए तो अपना स्‍थाई पता ई मेल का दिया है । चलो वक्‍त नें सहीं तुम्‍हें बदला तो ...., नहीं तो बदलना तो तुम्‍हारी तासीर में नहीं था ।

तुममें क्‍या क्‍या बदलाव आया है यह मैं जानना चाहता हूं, पर मैं यह भी जानता हूं कि इसके लिये मुझे तुमसे मिलना पडेगा, तुम यूं ही अपने राज खोलती भी तो नहीं हो । मैं तुम्‍हें तुम्‍हारी कहानियों से ही जान पाता हूं या फिर जब तुम मुझसे, आमने सामने बैठकर बातें करती हो । 

इन दिनों किस नगर में बसेरा है तुम्‍‍हारा, परिवार का क्‍या हाल चाल है, विकास को तो अब प्रमोशन भी मिल गया होगा, वैभव भी स्‍कूलिंग खत्‍म कर चुका होगा और कालेज में होगा, हो सकता है तुम्‍हारे सिर के बाल कुछ सफेद भी हो गए हों क्‍योंकि मेरे तो हो गए हैं , कुछ वेट कम किया कि वैसे ही ............। अब तो तुम साडी ही पहनती होगी, बहुत सारे प्रश्‍न हैं एक पत्र में समा नही पायेंगें किन्‍तु भावनायें उन्‍हें इसी पत्र में ही समेंटना चाहती हैं, पता नहीं तुमसे फिर मुलाकात या संवाद की स्थिति बन पायेगी । 

मुझे याद आता है मेरी पहली कविता जो मैंनें अपनी डायरी में लिखी थी उस पर तुमने इत्र का स्‍प्रे डाल दिया था, स्‍याही से लिखे शव्‍द फैल गए थे  तो मैंनें तुमसे कहा था कि रूको ...... ये तो मिट जायेगा । तुमने कहा था नहीं इससे इसकी खुशबू देर तक जीवित रहेगी, रचनाओं की महक । आज भी मेरी डायरी में वे पंक्तियां और खुशबू जीवंत है । 

इधर मैनें लिखना छोड दिया उघर तुमने कलम को अपना साथी बना लिया । लेख, कवितायें, कहानियां लगभग हर सप्‍ताह नजरों से गुजरने लगी । नगर नगर, महानगर में विकास के साथ नौकरी के स्‍थानांतरण का दुख-सुख झेलते हुए तुमने अपने लेखन को सदैव जीवित रखा । 

मेरे लिए तुम्‍हारी लेखनी पढना तुमसे मिलने से कम नहीं होता, मैं तुम्‍हारी लेखनी जब पढता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि तुम कालेज के गार्डन में बैठकर  मुझे दुष्‍यंत को डिक्‍टेट कर रही हो या फिर बाबा नार्गाजुन की रचनाओं पर बहस कर रही हो और मैं तुम्‍हारी बातों को दिलों से आत्‍मसाध कर रहा हूं (दिमाक से तो करता ही था, हा हा हा)।

'सागर मंथन', 'एक अकेली औरत', 'नील गगन', 'मेरी चुभन' और 'शिवनाथ की चपलता' सभी के विमोचन से लेकर समीक्षा तक के प्रकाशित कतरनों को मैं ढूंढ ढूंढ कर संग्रहित करता रहा हूं, इन पुस्‍तकों को भी क्रय करने के लिए प्रकाशकों व मित्रों को मनीआर्डर कर मंगाते रहा हूं । रचनाओं के साथ साथ शायद तुम्‍हारा पता भी मिल जाए । पर हर किताब में तुम्‍हारा पता अलग अलग ही रहा । 

इधर कुछ वर्षों से मैंनें भी कलम उठाने का प्रयास किया है, हो सकता है तुमने एकाक प्रकाशन देखा भी हो । पर ... सब डरते सहमते । तुम्‍हारे रहते मेरे शव्‍द और व्‍याकरण परिस्‍कृत हो जाते थे, भले ही मुझे तुमसे कुछ इर्ष्‍या होती थी किन्‍तु तुम्‍हारी नजर पडते ही आवश्‍यक सुधार के साथ ही भविष्‍य में उन गलतियों की संभावना पर विराम लग जाते थे । अब तुम यहां नहीं हो, मुझे पता नहीं मैं कहां कहां शव्‍द और व्‍याकरण की गलतियां कर रहा हूं । जहां से भी मेरी आलोचना के पत्र आते हैं मैं उत्‍सुकता से उसे निहारता हूं कि तुम तो नहीं । मुझे नहीं लगता कि तुमनें इन दिनों मुझे याद किया है । 

तुमसे मिलने की संभावनाओं के चलते ही मैनें इंटरनेट में अपने आप को विस्‍तार दिया है, मेरे लिए यह सब आसान नहीं है, तुम जानती हो । मेरा कार्य दायित्‍व एवं पारिवारिक दायित्‍व मुझे इसके लिए समय की इजाजत नहीं देता किन्‍तु मैं कुछ स्‍वार्थी सा होकर इसके लिए समय चुराता हूं ताकि तुमसे किसी नेट मोड पर मुलाकात हो जाय । यह भी हो सकता है कि जब तुम्‍हारी नजर मुझ पर पडे तब तक मेरे दीपक का तेल खत्‍म हो चुका हो, यह भी संभव है बुझ भी चुका हो । खैर इन मुद्दों पर बहस जरूरी भी नहीं । 

'इस सदी की नई कहानियॉं' संग्रह में तुम्‍हारी एक कहानी मैंने पढीहै, यह तो बहुत बडा अचीवमेंट है, नहीं नहीं अचीवमेंट को विलोपित करता हूं । तुम्‍हारी कहानियॉं इस संग्रह में आनी ही थी । इसे मेरी ठिठोली मत समझना, मैनें जब इस संग्रह की तीनों मेरे बजट से भी मंहगी किताबें खरीदी थी तब मुझे पता नहीं था कि इसमें तुम होगी । तुम अपनी लेखनी को इस उंचाई तक ले आवोगी खुशी मिश्रित आश्‍चर्य होता है । 

सच पूछो तो तुम्‍हारी पहली प्रकाशित कहानी के संबंध में महेश नें मुझे बतलाया था तो मैनें उस पर कोई उत्‍सुकता जाहिर नहीं किया था, मुझे हुआ भी नहीं था । मैनें सोंचा हॉं लिख दिया होगा और छप भी गया होगा झोंके में । किन्‍तु जब लगातार अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में तुम्‍हारी लेखनी लगभग बरसने लगी, पाठकों के पत्रों पर चर्चा होने लगी तब मैनें, लगभग डेढ साल बाद तुम्‍हारी रचनाओं को संग्रहित करना चालू किया और सच मानों तो तभी मैनें उन्‍हें पढा भी । 

पत्र कुछ ज्‍यादा लम्‍बा हो रहा है, अत: अब विराम देता हूं । वक्‍त मिले एवं यदि तुम्‍‍हें सचमुच मेल खोलना आता हो तो मुझे मेल करना । रचनाओं की महक क्‍या होती है अब मैं महसूस करता हूं ।

तुम्‍हारा 

एक्‍सवाईजेड

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

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