नीली फ़िल्म दिखाकर/छुपाकर लाल हुए पत्रकार ......

रायपुर में पिछले दिनों एक अफ़सर और उसकी पत्नि की ब्ल्यू फ़िल्म के सार्वजनिक हो जाने के बाद से चर्चा का बाजार गर्म है, अमीर धरती गरीब लोग में अनिल पुसदकर जी ने इसी मुद्दे पर मीडिया की लक्ष्‍मण रेखा में विमर्श प्रस्‍तुत किया था. न्‍यूज 36 वाले अहफाज रशीद जी नें भी सच का सामना - साधना में इस पर जानकारी प्रस्‍तुत की थी. आज अहफाज रशीद जी नें अपने ब्‍लाग में इस पर तीखी प्रतिक्रिया प्रस्‍तुत की है, हम उनसे अनुमति प्राप्‍त कर यह पोस्‍ट यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं - 

नीली फ़िल्म दिखाकर/छुपाकर लाल हुए पत्रकार ......
   

अहफ़ाज रशीद

छत्तीसगढ़ का पत्रकारिता जगत आज अपने आप में शर्मिंदा है। एक अफसर और उसकी पत्नी की नीली फ़िल्म दिखाने, छुपाने या अफसर से बाईट के बहाने मिलने वाले कई पत्रकारों के चेहरे की रौनक उडी हुई है। न्यूज़ २४ ने तो इसी मामले में अपने संवाददाता अर्धेन्दु मुख़र्जी को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। वैसे मैं अर्धेन्दु मुख़र्जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ वो वसूली जैसे मामलों से हमेशा दूर रहा है। मैं शुरू से उन वसूलीबाज़ पत्रकारों को जानता हूँ जो पत्रकारिता करने नहीं सिर्फ़ वसूली करने के लिए पत्रकारिता में आए हैं। वही पत्रकार हैं जो इस मामले में ज़्यादा रूचि ले रहे हैं और अपनी वसूली स्पर्धा में आड़े आने वाले पत्रकारों को निपटाने में लगे हैं । वोही लोग हैं जो इस मामले में संलिप्त पत्रकारों की शिकायतें चैनल के दफ्तरों तक पहुँचा रहे हैं। वो बिल्कुल नहीं चाहते की उनकी वसूली प्रभावित हो या कोई और उनसे आगे निकले। 


अहफ़ाज रशीद
22 साल से प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में समान रूप से सक्रिय. इसके अलावा छत्तीसगढ़ी फिल्म एवं अलबम निर्माण. जूझारू साथी. दोस्तों के दोस्त. दुश्मनों के दुश्मन. करना क्या है ? जिंदगी दो दिन का है. कर जाऊँ कुछ औरों से हटकर- बोलना सब जानते हैं लेकिन कहाँ, कब और कैसे बोलना है यह नहीं जानते. और यही हालत लेखनी की भी है . यही बहुत है अपने बारे में . कभी बतियाना चाहें तो यह लीजिए मेरा मोबाइल - 09329126363 or 09424223553.
विदेश दौरा करके आने के बाद कई दिनों तक अपने ब्रीफकेस पर टैग लटका कर घूमने वाले पत्रकार इस बार बिना टैग के एअरपोर्ट से वापस आए हैं। एक अफसर ने अपनी बीवी के साथ नीली फ़िल्म बनाकर ये तो साबित कर दिया है कि रमन सिंह के राज में सब सम्भव है। जिसकी मर्जी में जो आ रहा है कर रहे हैं। अफसरों की इतनी औकात हो गयी है कि इस मामले में साधना न्यूज़ का प्रसारण तक प्रभावित किया गया। इस मामले भी सीख यही मिलती है कि शासन से जुड़े किसी भी आदमी से उलझना ठीक नहीं है। पत्रकारों को भी सोचना चाहिए कि जब सारे अधिकारी सीधे मुख्यमंत्री के संपर्क में हैं तो उनसे उलझना कहाँ कि समझदारी है। इस मामले में भी तो ऐसा ही संदेह है। 

एक अफसर अपनी ख़ुद की निजी बीवी के साथ नीली फ़िल्म बनाता है । उसे होश नहीं है कि ये फ़िल्म उसके कैमरे से बाहर कैसे चली गयी है। अगर कोई ठेकेदार इस मामले में शामिल था तो भी कैमरे से टेप बाहर कैसे आ गया। अब अफसर कहते हैं कि ऐसी कोई सी डी उन्होंने नहीं बनाई । उनकी पत्नी का कहना है कि अगर बीवी के साथ पति ही है तो क्या दिक्कत है। अपरोक्ष रूप से दोनों ने ये बात स्वीकार की कि गलती हुई है लेकिन चेहरे पर हवाइयां लगातार उड़ रही थी। दोनों बार बार ये बात कहते रहे कि वे किसी षडयंत्र का शिकार हुए हैं। 

ये बात अब तक मेरी समझ से बाहर है कि अफसर के हाथ में कैमरा था , पत्नी सामने थी तो फिर कैमरे का टेप बाहर आकर सी डी के रूप में तब्दील कैसे हो गया। सारे मामले अभी पुलिस कि जांच में हैं । कल ये मामला न्यायालय में चला जाएगा। गिरोहबाज पत्रकारों को इस मामले से सीख लेनी चाहिए। खासकर ऐसे पत्रकार जो एक मामले का पता चलने पर दो तीन पत्रकारों को साथ लेकर जाते हैं। वसूली हो गयी तो उसे आपस में बाँट लेते हैं। प्रेस क्लब ने तो साफ़ साफ़ कह दिया है कि वो इस मामले में आरोपी पत्रकारों के साथ नहीं हैं। ऐसे में सहारा समय पर चलने वाली एक ख़बर चौंकाने वाली रही। अचानक सहारा चौथे स्तम्भ कि दुहाई देने लग गया। साफ़ सुथरी छवि और न जाने क्या क्या कहने लग गया। प्रेस क्लब से छुपकर मार्केटिंग वाले बंदों का पेट काटकर सरकारी विज्ञापन में ख़ुद कमीशन खाने वाले लोगों का बदला हुआ रूप देखकर पत्रकार जगत हतप्रभ है। आपस की गला काट स्पर्धा में ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ बताना अच्छी बात है लेकिन दुःख के समय साथ खड़े होने की बजाय किसी को अकेले छोड़ देना कहाँ की समझदारी है? मुझे कभी कभी साधना के ब्यूरो चीफ पर तरस आता है। 

संजय जब ईटीवी में था । तब उसके पास एक पूरानी दोपहिया थी । आज उसके पास दो - दो मकान है। कार की भी ख़बर है मुझे। खैर,,,, अचानक चौथे स्तम्भ की दुहाई देने वाले सहारा के लोग क्या भूल गए की मार्केटिंग के बन्दों का पेट काटकर ख़ुद आर ओ लेने कौन पत्रकार अफसरों के चक्कर काटते हैं । मैं पूरी शिद्दत से जानता और मानता हूँ की पैसे से बहुत कुछ तो हो सकता है लेकिन सब कुछ नहीं .........

अहफ़ाज रशीद जी का ब्‍लाग है - NEWS 36

देवकीनंदन खत्री बनने का प्रयास

हमने पढ़ा है जीवन के शाश्वत सत्यों को चुनना और अपनी रचना का हिस्सा बनाना, रचनाकार की परिपक्व़ता और विस्तार का संकेत होता है. कथा साहित्य का यही वास्तविक मूल होता है, जिसमें आगे चलकर लेखक की दृष्टि, उसकी वैचारिक समझ, अनुभव तथा विभिन्न जानकारियां शाखाओं के रूप में प्रस्फुटित होकर फलती फूलतीं हैं. लेखक ओमप्रकाश जैन की औपन्यासिक कृति 'संघर्ष और सपने' अपने प्रस्तुत कलेवर में इन्हीं जानकारियों के खजाने का भ्रम प्रस्तुत करती है. मानव मन और उसकी अतलातल गहराई के सच को जानने एवं स्‍वानुभूत सत्य अथवा जिया भोगा यथार्थ को शव्द देने का भरसक प्रयास लेखक नें प्रस्तुत उपन्यास में किया है. अपने लेखकीय कथन में उसने स्वीकारा है कि प्रस्तुत उपन्यास में उसने सामाजिक कुरीतियों पर सीधे प्रहार किए है एवं उपन्यास की गरिमा बनाए रखने के लिए उन्होंनें कठोर संघर्ष किया है.

उपन्यास ‘संघर्ष और सपने’ में बाबा विक्रम सिंह, सुलोचना व अमृतलाल जैसे पात्रों की आभासी उपस्थिति प्रस्तुत करते हुए लेखक नें 'प्रभात' नामक एक पात्र को आदर्श रूप में प्रस्तु्त किया है. उपन्यासों के संबंध में प्रचलित पूर्वोक्ति यहां स्पष्ट दृष्टिगत होती है कि उपन्या‍सकार अपने उपन्यास में आत्मकथा और आत्म कथा में उपन्यास लिखता है. लेखक प्रभात के केन्द्रीय पात्र में अपने स्व‍यं को प्रस्तुत करता प्रतीत होत है . सामाजिक उपन्यास की व्यावसायिक लालसा नें कथानक में हवेली का रहस्य और चतुष्कोणीय प्रेमकथा को भी शामिल कर लिया है जो लगभग अतिरंजक नजर आता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक नें इस उपन्यास को लिखने में अपनी सर्वोत्तम उर्जा लगाकर बेहतर लिखने का प्रयास किया है किन्तु लेखक के लेखन में साहित्यिक अध्ययन का अभाव समूचे उपन्यास में दृष्टिगत होता है. लेखक नें देवकीनंदन खत्री बनने का प्रयास तो किया है पर चंद्रकांता संतति को पढा नहीं है, यह प्रस्तुत उपन्यास को पढने से स्पष्ट झलकता है. उथले प्रसंगों और बिम्बों से युत उपन्यास के कथानक में समग्र प्रभावान्विति में बिखराव एवं भीतरी कलात्मक कसावट की कमी है. कहानी में प्रवाह की कमी के कारण संवाद व परिस्थितियों का चित्रण असहज लगने लगता है. जिसके बावजूद लेखक नें अपने संघर्ष और सपने को भरपूर पठनीय बनाया है जो भाषा, विषय, उपन्यास की अर्थवत्ता और गुणवत्ता के शास्त्रीय बंधनों से मुक्त हल्की-फुल्की कहानी में रूचि रखने वाले पाठकों को जरूर पसंद आयेगी.

(कुछ लेखकों की आकांक्षा होती है समीक्षा के लिए किसी को अपनी कृति सौंपने के अगले ही घंटे उसकी कागजी प्रतिक्रिया तैयार होकर मिल जाए या पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो जाए पर जिसे आपने यह भार दिया है उसका दायित्व होता है कि वह उस कृति को एक सामान्य पाठक और लेखक की इच्छा के अनुरूप समालोचक की दृटि से पढ़े. इसके लिये समय की आवश्यकता होती है. प्रस्तुत उपन्यास के लेखक ओमप्रकाश जैन जी के द्वारा मुझे पिछले कई महीनों से लगातार फोन आ रहे थे और व्यक्तिगत संपर्क भी किए जा रहे थे किन्तु मैं उनके उपन्यास को एक दो पन्ने से ज्यादा पढ़ ही नहीं पा रहा था. मुझे किशोरावस्था‍ में पढ़े गए दूसरे दर्जे के बाजारू जासूसी उपन्यासों की 'लरिकाई' उस उपन्यास में नजर आती थी और मैं पढ़ना बंद कर देता था इधर जैन साहब का फोन फिर आ जाता था. आखिर में मैंनें लगभग 250 पृष्‍टों के डिमाई साईज के इस उपन्‍यास को शुरू से अंत तक पढ़ा. बहुत कठिन है किसी लेखक की कृति के संबंध में सार्वजनिक तौर पे कुछ कहना और ऐसे लेखक की कृति पर जो उसकी पहली रचना हो. जैन साहब और पाठक दोनों को क्षमा सहित.)

संजीव तिवारी

गणेश उत्‍सव और आस्‍था का बेढंगापन

तिथि में घट-बढ एवं पंडितों पुरोहितों के मतभिन्‍नता के कारण इस वर्ष कहीं तृतीया (तीज) के दिन ही गणेश चतुर्थी मनाया गया तो कहीं पंचमी के दिन गणपति बप्‍पा भव्‍य पंडालों में विराजमान हुए. अब जगह जगह गणेश उत्‍सव की धूम है, ढोल-नगाड़े बज रहे हैं और भक्‍तजन गणेश जी की सेवा में तन-मन-धन से जुटे हैं, अस्‍थाई गणेश पंडालों में भव्‍यता जड़ने के लिए हर उस रसूखदारों का दरवाजा टटोला जा रहा है जो इन आयोजनों के लिए पानी जैसा पैसा बहाते हैं. किसी एक जगह सामूहिक आयोजन करने के बजाए प्रत्‍येक गली मुहल्‍लों में बाकायदा प्रतिस्‍पर्धा के उद्देश्‍य से यह उत्‍सव किए-कराए जा रहे हैं और प्रत्‍येक चार कदम पर छोटे-बडे गणेश पंडाल नजर आ रहे हैं. आस्‍था से जुडे मुद्दे के कारण इसे कोई फिजूलखर्ची कहकर अपना मुह खोलना नहीं चाहता किन्‍तु पैसे की इस कदर बरबादी से आमजन आहत होता है. बालगंगाधर तिलक ने जब गणपति उत्‍सव आरंभ किया था तब इस उत्‍सव में बाहृय आडंबर न्‍यून व हृदय की आंतरिक श्रद्धा का संचार सर्वत्र था. अब आंतरिक श्रद्धा न्‍यून किन्‍तु बाह्य श्रद्धा का आडंबर इतना विशाल है कि लोग अपने आप को गणपति का बड़ा से बड़ा भक्‍त जताने में लगे हैं.

कल बारिश से बचने के लिए हम सड़क किनारे लगे एक ऐसे ही पंडाल में खड़े हो गए.  उसी समय गणेश भगवान की मूर्ति आ रही थी, गणपति बप्‍पा मोरया की हर्षध्‍वनि के साथ ढ़ोल के कानफाड़ू थाप के साथ बच्‍चे और युवा बारिश में भींगते हुए भी नाच रहे थे. पीछे ठेले में गणेश जी की मूर्ति आ रही थी जिसे पानी से बचाने के लिए पोलीथीन से ढंक दिया गया था. टोली पंडाल पहुची और गणेश जी के उपर से पोलीथीन हटाया गया तो मैं एक क्षण तो समझ ही नहीं पाया कि यह गजानन हैं ..... ? मेरे मन में गणेश जी का जो स्‍वरूप बचपन से अंकित है उससे वह स्‍वरूप मेल ही नहीं खा रहा था. बेढंगे गोल-मोल करके कुछ भी रूप-आकर दे दिया गया था जिसमें गणेश की अस्तित्‍व की गवाही सूढ और दांत दे रहे थे. हमने नाच-नाच कर थक गये एक किशोर से पूछा कि यह क्‍या गणेश है यार ?, उसने बड़े ही स्‍वाभाविक ढंग से उत्‍तर दिया कि एलियन गणेश है.

ये हाल है हमारी आस्‍था का. पहले विभिनन देवी-देवताओं के रूप में गणपति उत्‍सव के समय गणपति जी की मूर्ती विराजमान होने लगी फिर इसमें कलात्‍मकता का प्रवेश हुआ, कलाकारों नें विभिन्‍न वस्‍तुओं से गणपति जी की स्‍वाभाविक मूर्तियां बनाई और हमने-आपने सभी ने उसे स्‍वीकारा. इसी कलात्‍मकता और रचनाशीलता का ढोंग रचते हुए कुछ लोगों नें विभिन्‍न पशु पक्षियों के रूप में गणपति की मूर्ति स्‍थापित करने लगे और इस भावना को छूट देने का परिणाम यहां तक पहुच गया कि अब सुदर्शन गणाधिपति गदहा-घोड़ा, एलियन, अमीबा आदि के रूप में नजर आने लगे. यदि अब भी हम इनकी सराहना करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब घृणित जीव-जंतुओं में भी ईश्‍वर का अंश होता है, ऐसी दलील के साथ उनके रूप-आकार के गणपति हमारे सामने होंगें.

पिछले दो दिनों से एयरटेल जीपीआरएस महोदय नौ दिन चले अढ़ाई कोस की चाल चल कर हमारे हरेभरे समसामयिक पोस्‍टों को चर रहा है सो पोस्‍ट पब्लिश हो जाये तो गणपति बप्‍पा मोरया नहीं तो जय राम जी.   

संजीव तिवारी  

कार्यालयीन कर्मचारियों की ब्‍लागरी खतरे में

पिछले दिनों समाचार पत्रों में एक खबर प्रमुखता से आई थी कि इंटरनेट में सोशल नेटवर्किंग साईटों में अपने कर्मचारियों की सक्रियता पर संस्‍था प्रमुखों के द्वारा नजर रखी जा रही है. इस पर कई उदाहरण एवं अनुभव प्रस्‍तुत किए गए थे कि कैसे बॉस कर्मचारियों की चौबीसों घंटे की नेट सक्रियता का आकलन कर रहे हैं. कार्यालय समय में सोशल नेटवर्किंग साईटों पर सर्फिंग ना करने की शख्‍त हिदायत और कहीं कहीं इसे बेन करने का प्रयास भी किया जा रहा है. दरअसल कार्यालय समय में काम में हील हवाला करके इंटरनेट साईटों में समय गवानें पर अंकुश लगाने एवं अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता का संपूर्ण सदुपयोग (दोहन) करने के उद्देश्‍य से किए जा रहे यह कार्य सराहनीय हैं.

किन्‍तु समाचार पत्र के इन समाचारों को पढ कर नेट व संचार तंत्र के अल्‍पज्ञ बॉस या संस्‍था प्रमुख को बेवजह का टेंसन हो गया है. कुछ संस्‍थाओं में तो यह टेंसन कुछ इस कदर बढ गया है कि जैसे ही अपने किसी कर्मचारी को कलम छोडकर कीबोर्ड में हाथ चलाते कहीं बॉस ने देख लिया तो चाहे वह कार्यालयीन कार्य क्‍यूं न हो वह समझने लगते हैं कि मेरा कर्मचारी सोशल नेटवर्किंग साईट देख रहा है. और बिना कुछ कहे उस कर्मचारी को बेवजह के कामों में बिजी करा दिया जाता है जो बॉस के चिढ एवं खीझ को दर्शाता है एवं कर्मचारी भी अनमने से सौंपे गये कार्य को पूरा करता है. इस अनुभव से क्षेत्रीय कई कर्मचारियों को आजकल गुजरना पड रहा है.

मेरे एक मित्र कहते हैं कि 'मुझे स्‍वयं अब यह लगने लगा है कि मेरे संस्‍था प्रमुख मेरे ब्‍लाग सक्रियता पर दूसरे कर्मचारियों के माध्‍यम से नजर रखवा रहे हैं. या मेरे दूसरे मित्र कर्मचारी साथी जानबूझकर मेरी ब्‍लागरी को नमक मिर्च के साथ पेश कर रहे हैं.' मित्र के इन शव्‍दों का अर्थ एवं उनके पदचापों को मं स्‍वयं अनुभव कर रहा हूं. इसीलिये मैंनें पोस्‍ट लिखने एवं पब्लिश करने का समय कार्यालयीन समय के बाद तय कर लिया है. ब्‍लागों को पढने एवं उन पर टिप्‍पणी करने का समय भी कार्यालयीन समय पर न हो ऐसा भरसक प्रयत्‍न कर रहा हूं.

मित्र जनाब फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' के निम्‍नलिखित शव्‍दों को चिढकर सुना रहे हैं. पर इस मौके पे इन शव्‍दों को याद करना कतई लाजमी नहीं है फिर भी मन इन पंक्तियों को फिर से दुहराना चाहता है-
मता-ए-लौहो-कलम छिन गई तो क्या गम है

कि खूने-दिल में डुबो ली है उंगलियां मैंने
जबां पे मुहर लगी है तो क्या रख दी है
हर एक हल्का-ए-ज़ंजीर में ज़ुबां मैंने॥..
कोई पुकारो कि उम्र होने आई है
फ़लक को का़फ़िला-ए-रोज़ो शाम ठहराए
सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आके दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए॥


संजीव तिवारी  

छत्‍तीसगढी तिहार - पोला और किसानों की पीड़ा

आज छत्‍तीसगढ़ में पोला पर्व मनाया जा रहा है. पोला पर्व प्रतिवर्ष भाद्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाया जाता है. पूरे देश में भयंकर सूखे की स्थिति को देखते हुए सब तरफ त्‍यौहारों की चमक अब फीकी रहने वाली है. फिर भी हर हाल में अपने आप को खुश रखने के गुणों के कारण भारतीय किसान अपनी-अपनी क्षेत्रीय संस्‍कृति के अनुसार अपने दुख को बिसराने का प्रयत्‍न कर रहे हैं.

छत्‍तीसगढ़ में अभी कुछ दिनों से हो रही छुटपुट वर्षा से किसानों को कुछ राहत मिली है किन्‍तु सौ प्रतिशत उत्‍पादन का स्‍वप्‍न अब अधूरा ही रहने वाला है. फिर भी अंचल में पर्वों का उत्‍साह बरकरार है. छत्‍तीसगढ़ में एक कहावत है 'दहरा के भरोसा बाढ़ी खाना' यानी भविष्‍य में अच्‍छी वर्षा और भरपूर पैदावार की संभावना में उधार लेना,  वो भी लिये रकम या अन्‍न का ढ़ेढ गुना वापस करने के वचन के साथ. किसान गांव के महाजन से यह उधार-बाढ़ी लेकर भी त्‍यौहारों का मजा लूटते हैं. पोरा के बाद तीजा आता है और गांव की बेटियां जो अन्‍यत्र व्‍याही होती है उन्‍हें मायके लाने का सिलसिला पोला के बाद आरंभ हो जाता है. बहन को या बेटी को मायके लिवा लाने के लिये कर्ज लिये जाते हैं, ठेठरी - खुरमी बनाने के लिए कर्ज लिये जाते हैं और '‍तीजा के बिहान भाय सरी-सरी लुगरा' बहन-बेटियों को साड़ी भेंट की जाती है वो भी उसके मनपसंद, तो इसके लिये भी कर्ज. फिर भी मगन किसान. मैं भी जड़ों से किसान हूं इस कारण उनकी पीड़ा मुझे सालती है किन्‍तु इसके बावजूद उनके एक दूसरे के प्रति प्रेम व त्‍यौहारों के बहाने खुशी जाहिर करना वर्तमान यंत्रवत जीवन में बिसरते  और बिखरते आपसी संबंधों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है.

आप सभी को पोला पर्व की हार्दिक शुभकामनांए ..............

छत्‍तीसगढ़ी तिहार : तीजा - पोरा पढ़ें संजीत त्रिपाठी जी के ब्‍लाग 'आवारा बंजारा' में .

संजीव तिवारी   

टिप्पणी (?) करना बंद कर दें अन्यथा अमिताभ बच्‍चन ब्लॉग लिखना बंद कर देंगे .....

कुछ अखबारों नें सूचना दी है कि अमिताभ बच्‍चन अपना ब्‍लाग बंद करने वाले हैं. यह समाचार अमिताभ बच्‍चन के करोड़ों प्रसंशकों को दुख पहुंचाने वाली है, क्‍योंकि यही वह अड्डा था जिसमें वे बिना प्रेस के नमक मिर्च के साथ प्रस्‍तुत होते थे. हालांकि इसके साथ ही बहुत से ब्‍लाग साथियों की यह भी शिकायत रही कि वे टिप्‍पणियों को तवज्‍जो नहीं देते.

अमिताभ के ब्‍लाग के संबंध में नित नई जानकारी देने वाले जोश नें ये पढ़ें वो पढ़ें करते हुए जो विवरण प्रस्‍तुत किया है उसके  अनुसार अपने ब्लॉग पर निजी एवं भद्दी किस्म की टिप्पणियों से आहत अभिनेता अमिताभ बच्चन ने ऐसी टिप्पणियां लिखने वालों को चेतावनी दी है कि या तो वे ऐसा करना बंद कर दें अन्यथा वह ब्लॉग लिखना बंद कर देंगे। बिग बी ने अपने ब्लाग ‘बिगबीडॉटबिगअड्डा’ पर लिखा है कि अपने ब्लॉग पर ऐसी टिप्पणियों को देखकर उन्हें ऐसा लगा मानो कलेजे में किसी ने शूल चुभा दी हो। उन्होंने लिखा है “ऐसे में मेरे पास यही विकल्प है। या तो आप ऐसा करना बंद कर दें या मैं ही बंद कर देता हूं।” बिग बी की इस चेतावनी से उनके प्रशंसक चिंतित हैं और वे अपने प्रिय अभिनेता से ब्लॉग बंद नहीं करने की गुजारिश कर रहे हैं।

अमिताभ ने लिखा है कि जब अपने ब्लॉग पर की जाने वाली टिप्पणियों को जबाव देने के लिये अपना ब्लॉग खोला और टिप्पणियों को पढ़ना शुरू किया तो यह देख उनका दिल भारी हो गया कि कई लोग इस माध्यम का इस्तेमाल एक दूसरे के खिलाफ अत्यंत निजी एवं आपत्तिजनक बातें करने के लिये कर रहे हैं। 

जब मैं आखिरी टिप्पणियों तक गया तो यह देखकर दंग रह गया कि उनमें गाली गलौच का भी प्रयोग किया गया था इन्हें देखकर ऐसा लगा कि मेरी छाती में किसी ने छुरा घोंप दिया हो।

अमिताभ बच्‍चन क्‍या सोंचते हैं वो तो वही जाने, फिलहाल बिग अड्डा अमिताभ के नाम पर किसी ना किसी बहाने चर्चा में रहने का बहाना ढूंढ़ ही लेता है. 

तू आ भी जा

छलिया
तूने छला है मुझे
बार बार मेरी आंखों में
अंतस तक भींग जाने का स्‍वप्‍न दिखाकर
दूर कहीं क्षितिज में
खो गया है.

और मैं
तेरा बाट जोहती
अंजुरी में बुझ चुके
त्‍यौहारों का दीप जलाती
ठेठरी खुरमी और लाई बतासा लिये
दरकते खेतों में
अपलक निहारते
खड़ी हूं.

मेरे आंखों से टपकते अश्रु
और बदन से टपके श्रमसीकर से
मैं अपने खेतों की
प्‍यास नहीं बुझा पाउंगी.

तू आ तो
मेरे खुशियों में
पानी फेरने के लिए ही सही.

संजीव तिवारी

हरिभूमि के हिमांशु द्विवेदी को ‘वसुंधरा सम्मान’

लोक जागृति के ध्वजवाहक का बहुमान


स्व.देवीप्रसाद चौबे की स्मृति में स्थापित प्रतिष्ठित वसुंधरा सम्मान आज लोक जागरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए हरिभूमि समाचार पत्र समूह के प्रबंध संपादक हिमांशु द्विवेदी को प्रदान किया गया। भिलाई निवास में आयोजित भव्य समारोह में केबिनेट मंत्री हेमचंद यादव और संसदीय सचिव विजय बघेल के हाथों श्री द्विवेदी को 21 हजार की सम्मान निधि व शाल-श्रीफल से नवाजा गया।

प्रारंभ में कीर्तिशेष स्व.देवी प्रसाद चौबे के तैलचित्र पर अतिथियों ने माल्यार्पण व दीप प्रज्वलित कर श्रद्धांजलि दी। तत्पश्चात अतिथियों का सम्मान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे, प्रदीप चौबे व राजेन्द्र चौबे ने किया।

उपस्थित बुद्धिजीवियों को सम्बोधित करते हुए हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि पहले यह लाईफ टाईम एचीवमेंट सम्मान की तरह देखा जाता था, जिसने पत्रकारिता के क्षेत्र में वर्षों अपना योगदान दिया उसे यह सम्मान दिया जाता था। अब पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को भी दिया जाने लगा है। श्री द्विवेदी ने कहा ‘आज मैं आकाश में टिमटिमाने की कोशिश कर रहा हूं, तारे की हैसियत नहीं है, फिर भी सूर्य बनने की तमन्ना है मेरी। मैं वह कलम नहीं जो बिक जाती है बाजारों में, देश जले मैं कुछ ना बोलूं ऐसा मैं गद्दार नहीं’। उन्होंने कहा कि मीडिया को जो भूमिका नक्सली समस्या पर निभानी चाहिए वह सार्थक भूमिका नहीं निभाई जा रही है। देश के गद्दारों के प्रति सहानुभूति का नजरिया रखना भी देश के साथ गद्दारी है। प्रदेश नक्सलियों की चपेट में है और दिल्ली का मीडिया इसे तीन मिनट देने को तैयार नहीं है। अगर लोग राखी सावंत का स्वयंवर देखने आकर्षित नहीं हो तो अपने आप इस तरह के कार्यक्रम बंद हो जाएंगे। श्री द्विवेदी ने कहा ‘हिम्मत से सच कह दें तो बुरा मानते हैं लोग, और डर-डर के बात करने की हमें आदत नहीं।’

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि कृषि मंत्री हेमचंद यादव ने कहा कि जग में जब बच्चा जन्म लेता है तो वह रोता रहता है और सारे लोग खुशी मनाते हैं, काम ऐसे करो कि जब तुम दुनिया से जाओ तो दुनिया रोए। श्री यादव ने कहा कि आज सारी जवाबदारी मीडिया और जनप्रतिनिधियों पर मढ़ दी जाती है। उन्होंने कहा कि तटस्थता का शब्द बेमानी है। तटस्थता का दूसरा अर्थ कायरता है। वह लड़ाई में कूदता नहीं है और मन में दूसरे के हारने की कामना करते हैं। उन्होंने पत्रकारिता पर कहा कि आज कल जो बातें आनी चाहिए वह नहीं आतीं। श्री द्विवेदी की बात को दोहराते हुए कहा कि मंच से उन्होने जो बातें कही है वह उस पर कायम रहेंगे यह उम्मीद करता हूं, क्योंकि रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाए पर वचन न जाई। उन्होंने कहा कि नक्सलवाद व समाज के अलगाववाद को दूर करने के लिए सभी को अपने कर्तव्य का पालन करना होगा।

कार्यक्रम के अध्यक्ष संसदीय सचिव विजय बघेल ने हिमांशु द्विवेदी को यह प्रतिष्ठित सम्मान मिलने पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा कि जो बातें सच हैं उन्हें सामने लाया जाना चाहिए, चाहे वह किसी के भी खिलाफ क्यों न हो। श्री बघेल ने कहा कि हमारे विभाग में एक जनसंपर्क विभाग होना चाहिए, इस संबंध में मैंने मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और गृह मंत्री से चर्चा की है। सम्मान के संबंध में उन्होंने कहा कि यह सम्मान निरंतर जारी रहे।

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि के कुलपति सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि अब चुप्पी तोड़ने की जरूरत है। मीडिया को अपना पक्ष नक्सलवाद पर रखना चाहिए। उन्होंने सवाल उठाया कि राजनांदगांव की घटना को कितने अखबारों ने विस्तार से छापा..? किसी जनजागरण अभियान की तरह नक्सल के खिलाफ भी अभियान छेड़ने की जरूरत है, ताकि पूरे देश के लोग जानें कि हमारा प्रदेश किस त्रासदी से गुजर रहा है। इस मौके पर शिक्षाविद् आईपी मिश्रा ने भी अपने सारगर्भित विचार रखे। इस अवसर पर लोक जागरण पत्रिका वसुंधरा के 16वें अंक का लोकार्पण केबिनेट मंत्री हेमचंद यादव ने किया। विनोद मिश्र इस पत्रिका के संपादक हैं। मंच संचालन अनीता सावंत और आभार प्रदर्शन शायर मुमताज ने किया। कार्यक्रम में मुख्य रूप से जिला कांग्रेस कमेटी ग्रामीण के अध्यक्ष घनाराम साहू, तुलसी साहू, डॉ रक्षा सिंह, राजेन्द्र चौबे, केएस प्रसाद, रावलमल जैन मणि, डॉ. महेशचंद्र शर्मा, रविशंकर सिंह, नीता कांबोज, मुत्थुस्वामी सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार-पत्रकार व गणमान्य लोग उपस्थित थे।

हरिभूमि न्यूज
हरिभूमि से साभार,  ई पेपर यहां देखा जा सकता है.

कविता पर तनाव : विविक्षा ब्‍लाग से

छत्तीसगढ़ में शायद पहली बार किसी कवि की कविता पर तनाव की स्थिति पैदा हो गई। पेशे से शिक्षक कवि बद्रीप्रसाद पुरोहित की कविता सरायपाली के एक अखबार में छपी थी। बसना, सरायपाली और पिथौरा क्षेत्र तक सीमित अखबार छत्तीसगढ़ शब्द में आखिर ऐसा क्या था कि मुस्लिम समाज के कुछ युवकों ने उन्हें स्कूल से बाहर बुलाया और मारपीट की। आगे की जानकारी और कवि की उस कविता को पढें रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र छत्तीसगढ़ में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत श्री डॉ. निर्मल साहू के ब्‍लाग विविक्षा में.

श्री साहू जी के इस ब्‍लाग में अभी तक यही आखरी पोस्‍ट है इसके बाद इस ब्‍लाग में नियमित पोस्‍ट नहीं है. उनकी व्‍यस्‍तता हम समझ सकते हैं किन्‍तु विविक्षा के कुल 17 पोस्‍टों को पढते हुए ऐसा लगता है कि विविक्षा को नियमित रहना चाहिये. आप अपनी राय विविक्षा में ही देवें तो बेहतर होगा.

आस्‍था की व्‍यावसायिकता या जड़ों की कीमत

सुबह घर से आफिस के लिये निकलने से लेकर रात को घर के लिये वापस आफि़स से निकलते तक श्रीमति जी नें बीसियों बार याद दिलाया कि घर आते समय बाजार से पूजा का सामान लेते आना, कल हलषष्‍ठी है.
छत्‍तीसगढ में पिछले रविवार से कुछ अच्‍छी बारिश हो रही है जो आज तक धीरे धीरे चल रही थी. हम आफिस से इंदिरा मार्केट दुर्ग पहुंचे, देखा रिमझिम बारिश के बावजूद मार्केट के पहले से ही छतरियों का रेला लगा हुआ था. जैसे तैसे गाडी पार्क कर हम थैला हाथ में लेकर आगे बढ़े. मार्केट के बाहर ही 'खमरछठ' (हलषष्‍ठी को छत्‍तीसगढ़ में खमरछठ कहा जाता है) के पूजा सामान बेचनें वाले 'पसरा' फैलाये बैठे थे. पसहर चांवल (ऐसा अन्‍न जो गांव में तालाबों के किनारों में स्‍वमेव ही उगता है और जिसे पकने पर सूप से झाड़ कर इकत्रित कर, कूट कर चांवल बनाया जाता है), महुये के फल, पत्‍ते, उसी के लकड़ी के दातौन व बिना जुते हुए भूमि से स्‍वाभाविक रूप से उगे शाक वनस्‍पतियों के पांच प्रकार की भाज़ी इत्‍यादि के बाजार सजे थे. लोग उन्‍हें खरीदने पिल पडे थे.

कौड़ी के मोल इन चीजों को हमने भी बहत ज्‍यादा कीमत में खरीदा. फिर डेयरी में लाईन लगा कर गाय के दूध उत्‍पादों के स्‍थान पर हलषष्‍ठी में प्रयोग होने वाले भैंस के दूध, दही और घी खरीदा. फिर याद आया कि पूजा सामानों के साथ चांवल और भाजी तो लिया पर बिना हल जुते उगे मिर्च को लेना रह गया. पूरा बाजार पुन: छान मारा पर वह मिर्च कहीं नहीं मिला. जब बाजार से बाहर निकल रहा था तभी एक 'पसरे' में वह मिर्च दिखा, मटर के दानों जैसा. लोगों की भीड वहां भी थी. हमने कीमत पूछा तो उसने बतलाया कि दस रूपये का एक. मुझे लगा कुछ गलत सुन लिया हूँ, पुन: पूछा तो 'पसरे' वाली बाई ने कुछ तुनकते हुए कहा कि हॉं दस रूपये का एक है.लोग मुट्ठी भर शेष बचे उस छोटे-छोटे मिर्च को छांट-छांट कर खरीद रहे थे. मैंनें सोंचा कि यदि कुछ पल और रूका तो पूरा मिर्च बिक जायेगा. सो मैंनें भी छांटकर तीन मिर्च लिये और चुपचाप तीस रूपया उसके हाथ में धर दिये.

हमें अपने गांव के दिन याद हैं वहां ये सब सामान सहज रूप से उपलब्‍ध हो जाते थे, बहुत ही कम कीमत में. पर शहर, गांवों के सहज चीजों की कीमत तभी जानती है जब उसकी आवश्‍यकता हो या वह आस्‍था से जुड जाए. कुछ भी हो, आस्‍था जड़ों से पैदा होती है और जड़ों से जुड़ने के लिये कीमत कोई मायने नहीं रखती.

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ़ के इस त्‍यौहार के संबंध में पढ़ें मेरी पुरानी पोस्‍ट -
बहुराचौथ व खमरछट : छत्‍तीसगढ़ के त्‍यौहार

(यह पोस्‍ट आदरणीय रवि रतलामी जी द्वारा प्रदत्‍त नया मंगल फोंट से लिखा गया है)

आप कहॉं रहते हैं ... घर में.

पिछले दिनों एक पोस्‍ट में ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी नें अपना पता ठिकाना बतलाते हुए पूछा था कि 'आप' कहां रहते हैं. हालांकि उन्‍होंनें परिवेश के संबन्‍ध में विमर्श चाहा था पर हमारी सोंच कुछ ऐसे चली और यह पोस्‍ट टाईप हो गया. आप भी देखें कि हमारा घर कहां हैं.

पढाई के दिनों में हमको हाई स्‍कूल तक स्‍कूल के लिये गांव से पैदल लगभग आठ किलोमीटर जाना और आठ किलोमीटर आना जब पढता था तब हमारे बडे भाई और बहने हमारे दादा जी को बहुत कोंसते थे कि अपार भू-संम्‍पत्ति होते हुए भी हमारे दादा, सिमगा (वह कस्‍बा जहां हम कच्‍ची उम्र से ही पढने आते थे) में एक छोटा सा घर नहीं बनवाये, वक्‍त जरूरत में जहां रूका जा सके या फिर घर के किसी नौकर के साथ रहते हुए बच्‍चे पढाई कर सकें. तब हमें अपने पांवों में दर्द और कच्‍चे रास्‍तों में चलने के कारण नाजुक पैर पर पडे छालों के अतिरिक्‍त और कुछ समझ में नहीं आता था. हम बस्‍ता लटकाये उनके पीछे-पीछे उनकी बातें सुनते चलते रहते थे. और जब कालेज पढने के लिये रायपुर का रूख करना पडा तब हमारे मुंह से भी विरोध के स्‍वर रोज-रोज फूटने लगे. रायपुर में आस-पास के गांव वाले जमीदार, गौंटिया या दरोगा के द्वारा नगर में बनवाये गये बडे-बडे बाडे नजर आते थे 'कठिया बाडा', 'रांका बाडा', अर्जुनी वाले दाउ का बाडा,' 'सिद्ध निवास' पता नहीं और क्‍या-क्‍या. साथ पढने वाले मित्र अपने गांव के इन्‍हीं बाडो में रहते थे और हमें चिरोरी कर कर के छोटा दबडा किराये में लेना पढता था. तब दादा जी के दकियानूसी प्रवृत्ति पर चिढ होती थी कि उन्‍होंनें शहरों में न खुद मकान बनवाया ना ही अपने बच्‍चों को गांव से बाहर निकलने दिये.
किराये के छोटे मकान में रहने का दुख क्‍या होता है यह वही जान सकता है जो किराये के मकान या चाल में रहता है, चाहे वह बेचलर स्‍टूडेंट हो या शादीशुदा बालबच्‍चेदार परिवार. और खासकर उन्‍हें जिन्‍हें गांव में खुले खुले बारामदों व उन्‍मुक्‍त स्‍वतंत्रता मिलती हो. पर हमारे हृदय में दुख का यह क्रम अनवरत रहा.

पढाई के बाद रायपुर के ही ब्राह्मण पारा, बरमबाबा, शंकरनगर के साथ ही दुर्गा कालेज कैम्‍पस के प्रथम तल में बने कार्यालय, नव-भास्‍कर प्रेस आदि धनी आबादी के बीच किराये से या फिर दोस्‍ती-यारी के चलते 'घर' का स्‍वप्‍न पूरा करते रहे, नौकरी के लिये जद्दोजहद चलती रही. इसके बाद हम दुर्ग आ गए क्‍योंकि तब वहां हमारी बडी बहन का स्‍थानांतरण हो गया था. घर तब भी किराये का ही था. मै जिस संस्‍थान के साथ कार्य कर रहा हूं उसका कार्यालय भिलाई में है और मुझे दुर्ग से प्रत्‍येक दिन आना जाना होता था सो मैनें समूह द्वारा बनाये जा रहे बहुमंजिला व्‍यावसायिक काम्‍पलेक्‍स कम होटेल के लगभग पूर्ण हो चुके एक कार्यालय फिर एक रूम को 'घर' बना लिया.

जब शादी हुई तब असली चिंता जागी 'घर' की. उस समय भिलाई स्‍पात संयंत्र के क्‍वाटरों को वहां के कर्मचारी सालाना किराये पर देते थे. मैनें एक दलाल को पकडा कि भाई मेरी शादी हो गई है अब जल्‍दी ही मुझे कोई क्‍वाटर किराये से दिला दो. दलाल महोदय दूसरे दिन आये अपनी नई यामाहा में बैठाकर सेक्‍टर 6 के सी मार्कट के पीछे ड्यूपलेक्‍स क्‍वाटर को बाहर से दिखाया. मैं ड्यूपलेक्‍स क्‍वाटरों को पहले भी देख चुका था इस लिये अंदर देखे बिना ही राजी हो गया. किराया तय हुआ और मैनें दूसरे दिन पूरे साल भर का किराया दे दिया. उसने किराया उसी क्‍वाटर में लिया, क्‍वाटर बढिया साफ सूथरा था एवं फ्लोर को शायद पानी से धोया या पोछा गया था जिसके कारण क्‍वाटर सुन्‍दर लग रहा था. मैनें वहां अपना ताला लगाया और वापस अपने अड्डे आ गया. मेरे मातहत कर्मचारियों से तय यह हुआ कि शाम को छुट्टी के बाद मेटाडोर बुलाकर सामान पहुचा देंगें. किया भी यही गया, क्‍वाटर में सामान सब व्‍यवस्थित रख दिया गया. और हम सब ताला लगाकर खाना खाने किसी रेस्‍टारेंट में चले गये वापस आने पर मेरा एक विश्‍वसनीय सहायक मेरे साथ रहा. हमने पलंग बिछाई और सो गये.

रात लगभग 12 बजे दरवाजे में जोरदार दस्‍तक होने लगी. हम दोनों हडबडाकर उठे, मैंने दरवाजा खोला. दरवाजे को धकेलते हुए एक सब इंस्‍पेक्‍टर के साथ लगभग पांच-छ: पुलिस वाले अंदर क्‍वाटर में घुस गए. हम दोनों सकते में आ गए. उन्‍होंनें बतलाया कि इस क्‍वाटर के असली मालिक को दलाल नें आज सुबह इसी क्‍वाटर में चाकू मार दिया है. दरअसल दलाल इस क्‍वाटर को जबरन कब्‍जा करके रखा था, आज मुझे किराये से देने के लिये क्‍वाटर खोला होगा तो पडोसियों नें मकान मालिक को बुला लिया, तकरार बढी होगी और दलाल ने अपना दबदबा कायम रखने के लिये छोटे चाकू से वार कर दिया था. हम इससे बेखबर थे पुलिस भी यह बात जानती थी. पर उन्‍हें आदेश था कि हमें डग्गे में बिठाकर थाना लाये और बयान करवायें. हमें थाना ले जाया गया, बयान आदि का कार्य नहीं किया गया. सिर्फ बिठा दिया गया बैरक से बाहर किन्‍तु कैदियों की भांति. रात का समय थाने की भयावहता से हमारे चेहरे पीले पड गए थे. कोई भी परिचय बताने से काम नहीं बन पा रहा था. उसी समय एक चमत्‍कार हुआ, मेरे मित्र का मित्र एक ट्रैफिक इंस्‍पेक्‍टर उसी समय थाना आया और मुझे वहां बैठे देखकर मुझसे वाकाया पूछा और हम दोनों को उसी समय थानेदार से बोल कर छुडवा दिया, ट्रैफिक इंस्‍पेक्‍टर के कहने पर हमने क्‍वाटर की चाबी उन्‍हे दे दी, भाड में जाए क्‍वाटर और सामान. हम सेक्‍टर 6 कोतवाली से पैदल ठंड की रात में सुपेला आये. तब तक लगभग रात के तीन बज गए थे. मानसिक रूप से हम इतने घबरा गए थे कि मैं शव्‍दों में बयां नहीं कर सकता उस अनुभव को. दूसरे दिन उसी भले मानुस नें मेरा सारा सामान उस क्‍वाटर से मेटाडोर में भरवाकर वापस मेरे आफिस भेजा. हमें पुलिसिया कार्यवाही से दूर किया.

इस वाकये नें मुझे झकझोर के रख दिया. 'घर' का स्‍वप्‍न बरकरार रहा. उस इंस्‍पेक्‍टर नें मेरे मित्र को सुबह इसकी जानकारी दी तो मित्र नें पहले मुझे मेरे सहायता न लेने के थोथे इथिक पर फटकारा और तत्‍परता दिखलाते हुए हुडको में एक कमरे का एक मकान किराये में दिला दिया. तब मैं अपनी पत्‍नी को वहां ला पाया और पहली बार लगा कि वह कमरा मेरा 'घर' है. इस 'घर' में मैं लगभग एक वर्ष रहा फिर मैं जहां काम करता था उस कम्‍पनी नें घर देने का सिलसिला जो चालू किया वो आज तक जारी है. हमारी कम्‍पनी रियल स्‍टेट का काम भी करती है, हम लोगों के लिये घर बनाते हैं और शहर के कुछ ऐसे मकान भी हम खरीद लेते हैं जो सस्‍ते हों और उसे रिनवेट करें तो अच्‍छा रेट मिल जाए. रिनवेट होने के बाद बिकने तक की अवधि मेरी है, अभी जिसमें रह रहा हूं उसकी कीमत कम्‍पनी ने रखी है आधा करोड. इन्‍हीं घरों में कट रही है जिन्‍दगी (हा हा हा लंगोटिया मानुस करोड का मकान). पता नहीं कब तक यह सिलसिला चलेगा. और मैं कह पांउगा कि मेरा घर यहां है. घर के मामले में मैं दार्शनिक सोंच ही अख्तियार कर लेता हूं - जीव-देह-आत्‍मा .............

मुझे लगता है कि कोई चमत्‍कार होगा और मेरे पास शहर में घर खरीदने या बनवाने लायक पैसा होगा या ..... जब मैं अपने आप को रिटायर समझने लगूंगा और वापस अपने गांव जाउंगा तभी मुझे मेरा 'घर' मिल पायेगा.

पोस्‍ट जरूरत से ज्‍यादा लम्‍बी हो गई पर क्‍या करें कीबोर्ड में उंगलिंया चलती रही चलती रही.

संजीव तिवारी

मित्र के आरकुट प्रोफाईल फोटो में फिर नंगी तस्‍वीर ...

बहुत दिनों से सोंच रहा हूं मेरे आरकुट प्रोफाईल को डिलीट कर दूं. क्‍योंकि अब प्रत्‍येक दिन ऐसे एक-दो फ्रैंड रिक्‍वेस्‍ट आ रहे हैं जो या तो छद्म प्रोफाईल हैं या फिर विशुद्ध रूप से पोर्नसाईटों की ओर ले जाने वाले प्रोफाईल हैं. फ्रैंड रिक्‍वेस्‍ट के बाद स्‍वाभाविक तौर पर उसके प्रोफाईल के तत्‍वों एवं उसके पूर्व मित्रों का अवलोकन कर हम उसे स्‍वीकार कर लेते हैं. बाद में उन प्रोफाईलों की नौटंकी शुरू हो जाती है. ऐसे नये दोस्‍तों या कहें तथाकथित 'दोस्‍तों' से तो एक हद तक किनारा किया जा सकता है किन्‍तु जब किसी जाने पहचाने मित्र के द्वारा भी पोर्नोग्राफी परोसी जाए तो बडी तकलीफ होती है.


अभी कल ही मेरे प्रोफाईल में एक वस्‍त्रविहीन कामिनी की तस्‍वीर नजर आ रही थी. हुआ यह था कि मेरे एक आरकुट मित्र नें मुझे के प्रसंशापत्र लिखा था उस मित्र का वह प्रोफाईल फोटो था. प्रसंशापत्र प्रोफाईल के नीचे प्रदर्शित होता है अत: कल दिन भर वह चित्र मेरे प्रोफाईल में चिपका रहा.

मित्रों नें मुझे फोन कर बतलाया भी किन्‍तु मैं दिन भर नेट संपर्क से दूर कार्य में व्‍यस्‍त था अत: उस प्रसंशापत्र को हटा नहीं पाया. खैर संध्‍या उस मित्र नें फोटो बदल दिया और सबकुछ सामान्‍य हो गया. उस प्रसंशक मित्र ने इस वाकये पर अपनी सफाई यह दी कि उनका पासवर्ड किसी नें चुरा लिया था. अक्‍सर ऐसे वाकये के बाद यही दलील प्रस्‍तुत होती है. मेरा वह मित्र वास्‍तव में नेट प्रयोग में अभी नया खिलाडी है यह हो सकता है, पर इसके पहले भी कई पुराने मित्रों के साथ भी यह हो चुका है. संशय इसी बात पर गहरी हो चली है. और हम अपने आरकुट प्रोफाईल को डिलीट करने पे आमादा हैं.
क्‍या हमारे आरकुट प्रोफाईल का पासवर्ड भी कोई ऐसे ही चुरा लेगा.

संजीव तिवारी

इस तरह उगता हूं बार बार : छत्तीसगढ के नक्षत्र

छत्तीसगढ की कला, संस्कृति व साहित्य से संबंधित अनेक पत्र-पत्रिकाओं के बीच छत्तीसगढ की मांगलिक मंजूषा के रूप में विगत कई वर्षों से प्रकाशित पत्रिका ‘झांपी’ का अहम स्थान है. इस पत्रिका में संग्रहित पाठ्य सामाग्रियों में प्रधान संपादक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व गांधीवाधी चिंतक जमुना प्रसाद कसार जी की साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता व सक्रियता देखते ही बनती है. वे विगत कई वर्षों से छत्तीसगढ की गरिमामय परम्पररा के प्रतीक ‘झांपी’ में छत्तीसगढ की संस्कृति व लोक साहित्य को संजों कर नियमित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं. इस अंक में कसार जी नें ‘झांपी’ के संपादक मण्डल के सहयोगी महावीर अग्रवाल जी के दुर्लभ साक्षात्कारों को संग्रहित कर उन्हें पुन: आगे बढाया है. पत्रिका के संरक्षक नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे जी की आकांक्षा के अनुरूप महावीर जी नें कसार जी के द्वारा दिये गये इस दायित्व का बेहतर निर्वहन किया है. ‘झांपी’ के इस अंक में ‘रस डूबें हैं सौ-सौ अक्षर, पंक्ति-पंक्ति संगीत मधुर हैं’ नारायण लाल परमार जी के गीत के इस पंक्ति की ही तरह कवियों के जीवन की वीणा झंकृत हुई है.


झांपी के इस अंक में छत्तीसगढ के कविता के क्षेत्र में जाज्वल्यमान दस नक्षत्रों गजानन माधव मुक्तिबोध, मुकुटधर पाण्डेय, लाला जगदलपुरी, हरि ठाकुर, नारायण लाल परमार, विनोद कुमार शुक्ल, श्याम लाल चतुर्वेदी, दानेश्वर शर्मा, त्रिभुवन पाण्डेय, जमुना प्रसाद कसार को शामिल किया गया है जिसमें उनका साक्षात्कार, जीवन परिचय एवं महत्वपूर्ण रचनायें संग्रहित हैं. महावीर अग्रवाल जी के द्वारा लिये गये इन साक्षात्कारों से इन नक्षत्रों के विचार एवं रचना प्रक्रिया के संबंध में बडी सहजता से गूढ जानकारी प्रस्तुत हुई है. इसके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के इतिहास में संभवत: ऐसा पहला अवसर है जब दिवंगत मूर्धन्य साहित्यकार मुक्तिबोध जी का अद्भुत साक्षात्‍कार महावीर अग्रवाल जी नें लिया है जो इस अंक में संग्रहित है. महावीर अग्रवाल जी के प्रश्नों के उत्तर से कवियों का जीवन खुले किताब की तरह स्पष्ट‍ हुआ है. नक्षत्रों के माटी के प्रति प्रेम और पत्रिका की प्रतिबद्धता दोनों की जडे हरि ठाकुर जी के ‘दूब’ की तरह गहरी प्रतीत होती है.

‘झांपी’ का यह अंक 83 वर्षीय युवा जमुना प्रसाद कसार जी की सतत उर्जा, सक्रियता एवं साहित्य सृजन के निरंतर प्रयास का प्रमाण है. मुकुटघर पाण्डेय जी की कविता विश्वबोध की ही भांति ‘सरल स्वभाव कृषक के हल में / पतिव्रता-रमणी के बल में / श्रम-सीकर से सिंचित धन में / संशय रहित भिक्षु के मन में / कवि के चिंता-पूर्ण वचन में / तेरा मिला प्रमाण.’

पत्रिका के संरक्षक रविन्द्रि चौबे जी नें अपनी कलम में पत्रिका की विषयवस्तु एवं अपनी मंशा को स्पाष्ट करते हुए लिखा है कि ‘.... इस अंचल के साहित्याकाश में ऐसे अनेक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं जिनकी दीप्ति को स्थायित्व प्रदान किया जाए जिससे इस प्रकाशपुंज की आकाशगंगा भावी पीढियों का पथ प्रदर्शन करती रहे. मेरी यह आकांक्षा रही कि यहां के मूर्धन्य साहित्यकारों के संघर्ष, उनकी व्यथा कथा, उनके अनुभव एवं उनकी उपलब्धियों को उनके ही शब्दों में लिपिबद्ध किया जाए. .... मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह पहली किश्‍त है.’ विलोम व्योम में टंगे मनोहर मणियों के इन दीपों’ की श्रृंखला निरंतर जारी रहे.


संजीव तिवारी


छत्तीसगढ के नक्षत्र : झांपी
प्रधान संपादक व प्रकाशक –
जमुना प्रसाद कसार
सिकोलाभाठा, प्रेमनगर, दुर्ग
अंक - अक्टूबर 2008-09
मूल्य – 75 रूपये

स्‍त्री का सबसे सुन्‍दर हिस्‍सा देह नहीं, उसकी भावना है.

मैं बहुत किशोरावस्‍था में ही कविता के प्रति आकर्षिक हो गया था और सौंदर्य के प्रति कविता में मैंनें कविता की उपमा दी है स्‍त्री से. क्‍योंकि वह सौंदर्य की प्रतिनिधि है.


सौंदर्य तो हिमालय के अंचल में पैदा होने के कारण मेरे घर का मेहमान रहा है, सदैव से. तो मैं यह कहना चाहता था कि भाई प्रेम की जो अवस्‍था आज है, जो स्थिति आज है, वह तो द्रोह से, मोह से, लांछन से, कर्दम से घिरी हुई है. हूं, वह कभी सार्थक होगी, मैने हमेशा स्‍त्री के लिये लिखा है् कि उसका हृदय तो तिजोरी में बंद है. उसको तो ऐसा होना चाहिये जैसे फूल अपने नाल से बंधा रहता है, वैसे स्‍त्री को अपने प्रियजन से, बंधा तो रहना चाहिये घर से, लेकिन अपने हृदय का सौरभ जैसे फूल सबों को देता है, वैसे भी स्‍त्री को अपनी भावना समस्‍त लोगों को देनी चाहिए जिससे कि भावना का आदान प्रदान हो सके. क्‍योंकि स्‍त्री का सबसे सुन्‍दर हिस्‍सा देह नहीं, उसकी भावना है.

अपनी कविता 'आत्मिका' की पंक्तियां 'कल्‍मष लांछन के कांटों में खिला प्रेम/ का फूल धरा पर/उसको छूना मौन भू-कर्दम में/ गिरना दुस्‍तर.' के संबंध में पूछे गए एक प्रश्‍न के उत्‍तर में महाकवि सुमित्रा नंदन पंत.

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संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...