विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
विगत बीस वर्षो से भगत सिंह के शहादत दिवस पर दुर्ग की गुरूसिंह सभा व्याख्यान और कवि सम्मेलन आयोजित करते आ रही है। इस वर्ष भी 23 मार्च को यह कार्यक्रम संध्या 7.30 बजे आयोजित था। इस वर्ष भगत सिंह पर वक्तव्य देने छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता श्री कनक तिवारी जी आने वाले थे। मैं पिछले लगभग चार साल पहले उन्हें इसी मंच पर सुन चुका था। मैं बेसब्री से उस घड़ी का इंतजार कर रहा था। मैं उन्हें लगातार पढ़ता और सुनता रहा हूं, तब से जब मैं एलएल.बी. फर्स्टईयर में था और उन्होंनें संविधान के पीरियड के पहले दिन ही मुझसे पूछा था कि 1857 में क्या हुआ था। मैंनें झेंपते हुए छत्तीसगढि़या लहजे में कहा था, 'गदर।' उन्होंनें उस दिन पूरा पीरियड हमें यह समझाया था कि अंग्रेजों नें हमारे इतिहास को गलत ढ़ंग से नरेट किया है, उन्होंनें 'गदर' शब्द को बहुत सरल ढ़ग से समझाया जिसका सार अर्थ था 'निरुद्देश्य मार-काट'। उन्होंनें बताया कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की भावनात्मकता को खारिज करने के उद्देश्य से अंग्रेजों नें इसे खुद व हिन्दी इतिहासकारों से 'गदर' लिखा और लिखवाया।