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हिन्दी गद्य के आलोक में दुर्ग भिलाई के रचनाकार

-    विनोद साव
हिन्दी साहित्य के भारतेंदु युग के उद्भट रचनाकार प्रतापनारायण मिश्र ने एक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया था उसका नाम रखा था ‘ब्राम्हण’. यह एक सामाजिक-साहित्यिक पत्रिका. बस इसी तरह से दुर्ग और उसके पडोसी नगर भिलाई में कारखाने की स्थापना के बाद कोई पत्रिका निरंतर आठ वर्षों तक हर माह छपती रही तो वह एक जातीय संगठन की पत्रिका थी ‘साहू सन्देश’ और इस पत्रिका के संपादक थे पतिराम साव. साव जी के संपादन में यह पत्रिका १९६० से १९६८ तक निरंतर प्रकाशित होती रही. पतिराम साव न केवल समाज के एक अग्रणी आन्दोलनकर्ता थे बल्कि वे दुर्ग में १९२७ से शिक्षक और बाद में प्रधानाध्यापक हुए थे. वे समाज सेवी थे, स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे. शिक्षक संघ के आन्दोलन में जेल गए थे. नागपुर जेल में उन्हें पंद्रह दिनों तक रहना पड़ा था. वे दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति के पहले महामंत्री थे. मंचों पर कविता पाठ की परंपरा की स्थापना करने वालों में से थे. उनके नाम से हर वर्ष साहित्यकारों, शिक्षकों व समाजसेवियों को अपने योगदान के लिए ‘समाजरत्न’ पतिराम साव सम्मान’ से अलंकृत किया गया.



चूँकि आज़ादी के बाद साहित्यिक पत्रिकाओं का अभाव था इसलिए साव जी द्वारा सम्पादित ‘साहू सन्देश’ में ही सभी समाज के साहित्यकार छपा करते थे. छत्तीसगढ़ी के चर्चित कवि कोदूराम दलित तो ‘साहू संदेश’ की उपज हैं. तब शिशुपाल बलदेव यादव, उदयप्रसाद ’उदय’ (ताम्रकार), दानेश्वर शर्मा, रघुवीर अग्रवाल पथिक, बसंत देशमुख जैसे कितने ही छत्तीसगढ़ी हिन्दी के तत्कालीन वरिष्ठ व युवा रचनाकार साव जी के संपादन में ‘साहू संदेश’ में छपा करते थे. इस पत्रिका में छेदीलाल बैरिस्टर, डा.खूबचंद बघेल जैसे बड़े विचारवानों के भाईचारा और स्थानीय अस्मिता की भावना से भरे पुनर्प्रकाशित आलेखों को भी हम पढ़ा करते थे. पत्रिका के हर अंक में संपादक साव जी द्वारा लिखित सम्पादकीय चिंतन परक होता था जिस पर संपादक कार्यालय में गहमागहमी के साथ चर्चा बैठकी होती रहती थी. कहा जा सकता है कि साव जी और उनके समकालीन गुरुजनों के माध्यम से इस अंचल में सद्भावपूर्ण साहित्यिक वैचारिक वातावरण बनाने की ठोस शुरुआत हो चुकी थी.




इसके बाद वह दौर आया जब भिलाई इस्पात संयत्र अपने किशोरवय को प्राप्त कर अपनी जवानी के जोश को प्राप्त कर रहा था और लौह उत्पादन में देश में न केवल अग्रणी ईकाई सिद्ध हो रहा था बल्कि अपनी कार्य-संस्कृति के बीच अवकाश के क्षणों के लिए भिलाई के कर्मवीरों को उनके अनुकूल मनोरंजन देने के उपक्रम भी कर रहा था. इस सोच के साथ तीन क्लबों का गठन किया गया – लिटररी क्लब, आर्ट क्लब और एडवेंचर क्लब.. और इन तीनों क्लबों में सबसे ज्यादा मुखरित हो रहा था लिटररी क्लब. इस क्लब के अध्यक्ष हिन्दी साहित्य के दो आलोचक-समीक्षक हो गए थे – डा.मनराखन लाल साहू और अशोक सिंघई. संयोगवश ये दोनों व्यक्तित्व भिलाई में जनसंपर्क अधिकारी और राजभाषा अधिकारी भी रहे. इन दोनों ने तब अपने अपने समय में जनसंपर्क विभाग और राजभाषा विभाग से आवश्यक स्रोत और संसाधन जुटाकर लिटररी क्लब के माध्यम से हिन्दी साहित्य के विराट आयोजनों को रूप दिया जिसमें देश भर के जाने माने लेखक, चिन्तक और अनेक बुद्धिजीवियों का निरंतर भिलाई आगमन होता रहा. देश में सबसे बड़े और भव्य रूप में हिन्दी दिवस मनाने की शुरुआत हो चुकी थी. इन सबसे  भिलाई की साहित्य साधना को बल मिला और सार्थक दिशा मिल रही थी. आज भी भिलाई के इन दोनों विभागों के प्रभारी अधिकारी – विजय मेराल, उप महाप्रबंधक (जनसंपर्क) और डा.बी.एम.तिवारी, सहा.महाप्रबंधक (राजभाषा) अपने रचनात्मक कार्यक्रमों से कलाकारों और संस्कृति कर्मियों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं.   

चूँकि यहां पर गद्य विधा के रचनाकारों पर चर्चा करने को कहा गया है इसलिए इस आरंभिक भूमिका के साथ वैसा ही प्रयास इस आलेख में होगा - दुर्ग में हिन्दी का पहला उपन्यास जो पढने में आया वह था डा.अनंत कुमार चौहान ‘अणु’ का उपन्यास ‘मोड़ पर’. इस उपन्यास का कथानक गृहस्थ और सन्यास धर्म के बीच किसी बेहतर विकल्प को तलाशने के अंतरद्वंद से भरा हुआ था. इस दशा में एक पारंपरिक हिन्दू स्त्री का स्थान कहां और कितना सुरक्षित होगा इस पर इसके पात्रों के मध्य तर्क-वितर्क होते हैं. भले ही इस उपन्यास के चरित्रों में थोडा अस्वाभाविक विकास दिखता है, उपन्यास के पात्रों और उसके लेखक में कुछ भटकाव दिखाई देता है पर फिर भी यह उपन्यास अपने समय में स्त्री विमर्श का ठोस आधार तो बुन रहा था. इसे पढ़ते समय भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ का स्मरण हो आता था.



दुर्ग में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व शिक्षा अधिकारी जमुना प्रसाद कसार हुए. उनकी पुस्तकें उनकी सेवानिवृत्ति के बाद छपीं थीं पर उनमें कथा, उपन्यास, नाटक, निबंध, समीक्षा जैसी अनेक विधाओं की कृतियाँ थीं. कविताएं भी थीं पर उनका गद्य लेखन सशक्त था और इनमें कथा संग्रह - ‘सन्नाटे का शोर’, उपन्यास ‘अक्षर’, निबंध ‘संस्कार का मंत्री, शोध -‘माता कैकेयी: एक रूपांकन’ जैसी अनेक कृतियाँ थीं. कसार जी मानस प्रेमी और कुशल वक्ता थे. आकाशवाणी-रायपुर में ‘आज का चिंतन’ कार्यक्रम के अंतर्गत उन्होंने अनेक चिंतन परक रचनाओं का पाठ किया था.

इस तरह कथा व उपन्यास लेखन दोनों में दुर्ग और उसके पडोसी शहर भिलाई के रचनाकारों ने अपनी उल्लेखनीय पहचान बनाई. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा संसार में दुर्ग में ‘विश्वेश्वर’ एक बड़े कथाकार हो गए थे जिन्होंने बम्बई में रहकर कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव जैसे मनीषी कथाकारों के संग रहकर कथा लेखन किया और धर्मयुग, सारिका, नई कहानी जैसी कई बड़ी पत्रिकाओं में छपे. ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने अपने अक्षर प्रकाशन से उनका पहला कथा संग्रह ‘दूसरी गुलामी’ को प्रकाशित किया था. विश्वेश्वर की सर्वाधिक चर्चित कहानी ‘लाक्षागृह’ थी जिनमें उन्होंने अनेक मुखौटों व छद्म रूपों पर जमकर सेंध मारी थी जैसा कि मुक्तिबोध की कहानियों में देखने को मिलता है. उन्हें ‘कहानी’ पत्रिका द्वारा ‘प्रेमचंद कहानी सम्मान’ दिया गया था उनके बाद कहानी लेखन में भिलाई में परदेशी राम वर्मा, लोकबाबू और विनोद मिश्र की तिकड़ी उभर कर आई. इनमें परदेशी राम वर्मा अधिक मुखरित हुए और वे आज भी निरंतर सक्रिय हैं. उनका समूचा लेखन हिन्दी और छत्तीसगढ़ी गद्य का विपुल लेखन है. कथा, उपन्यास और संस्मरण लेखन में उनकी दर्ज़नों कृतियाँ हैं. अपने विषय वैविध्य लेखन से उन्होंने सम्मान भी खूब बटोरा है. उनकी रचनाएं पाठ्यक्रम में भी समाहित हुई हैं. हिन्दी उपन्यास ‘प्रस्थान’ और छत्तीसगढ़ी उपन्यास ‘आवा’ के ज़रिए छत्तीसगढ़ की अस्मिता और आंचलिकता से लबरेज कथाकार के रूप में उनकी बड़ी पहचान बनी है. उन्हें रविशंकर विश्वविद्यालय ने ‘डी-लिट्.’की उपाधि से विभूषित किया है.




परदेशी राम वर्मा को हम आंचलिकता से भरे कथाकार मानते हैं तो लोकबाबू की कहानियों में स्थानीयता की पकड़ को देखा जा सकता है. लोकबाबू उन बिरले रचनाकारों में से हैं जो संगठन और लेखन दोनों ही स्तर पर सक्रिय रहे. वे आजीवन प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य रहे हैं. प्रलेसं की सहयात्री संस्था ’इप्टा’ के कार्यक्रमों में भी अपनी पूरी उर्जा के साथ वे जुटे रहे हैं। उन्होंने गद्य लिखा और गद्य में कहानी लेखन पर अपने को केंद्रित किया। उनके दो कथा संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। उनके एक उपन्यास ’अब लौं नसानी’ को मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ’वागीश्वरी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है। उनकी कहानी ’मेमना’ को केरल के शालेय पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उनका दूसरा कथा संग्रह है ’बोधिसत्व भी नहीं आये.’ इस पर प्रस्तावना ज्ञानरंजन और सियाराम शर्मा ने लिखी है। संग्रह के फ्लैप पर कमला प्रसाद और शैलेश मटियानी की टिप्पणियॉ भी शामिल हैं।

इस तिकड़ी के कथाकारों में विनोद मिश्र अपने लेखन के आरंभिक दौर में सक्रिय कथाकार थे. उनके भी दो कथा-संग्रह ‘जुमेराती मियाँ’ और ‘स्वप्न गर्भ’ छपे. बाद में लेखन की तुलना में वे आयोजन में अधिक सक्रिय हो गए और भिलाई में पिछले दो दशक से छत्तीसगढ़ राज्य शासन के संस्कृति विभाग के सह्योग से दो आयोजन करते आ रहे हैं - इनमें ‘रामचंद देशमुख बहुमत सम्मान’ में किसी लोक कलाकार को और ‘वसुंधरा सम्मान’ से किसी पत्रकार को सम्मानित किया जाता हैं. साथ ही वे ‘बहुमत’ और ‘एकजुटता’ नाम से अनियतकालीन पत्रिका का संपादन करते हैं.

बल्कि परवर्ती पीढी में दुर्ग के तीन कथाकार ऋषि गजपाल, मनोज रूपड़ा और कैलाश बनवासी ने हिन्दी कथा लेखन में अपना व्यापक प्रभाव डाला. ऋषि गजपाल ‘पहल’ में प्रकाशित अपनी एक लम्बी कहानी से चर्चा में आए. ‘घंटियों का शोर’ सहित उनके दो कथा संग्रह और उपन्यास हैं. मनोज रूपड़ा ने कम मगर लम्बी कहानियां लिखीं जबकि कैलाश बनवासी ने छोटी मगर अधिक कहानियां लिखीं. मनोज और कैलाश इन दोनों ही कथाकारों ने राष्ट्रीय परिदृश्य में अपनी धाक जमाई है. कैलाश को कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं. उनकी कहानियों ने प्रख्यात समालोचक डा. नामवरसिंह का ध्यान खींचा और उन्होंने कैलाश बनवासी की चर्चित कहानी ‘बाज़ार में रामधन’ पर स्वतंत्र टिप्पणी भी की.



महिलाओं ने जो कविता तथा अन्य विधाओं में नाम कमा चुकी थीं उन्होंने कहानी में भी दखल दी. प्रसिद्द गीतकारा संतोष झांझी ने भारत पाकिस्तान विभाजन पर उपन्यास ‘सरहदें आज भी’ लिखा और उनके कथा संग्रह भी आए. संतोष झांझी इसलिए भी उल्लेखनीय नाम हैं क्योंकि उन्होंने भिलाई में हिन्दी रंगमंच को स्थापना दी और अनेक नाटकों में अभिनय किया. इसी तरह डा.नलिनीं श्रीवास्तव, प्रभा सरस, विद्या गुप्ता, सरला शर्मा, मीता दास ने कहानी, निबंध व अनुवाद कर्म में अपनी कलम चलाई. नलिनी श्रीवास्तव ने अपने लेखन के अतिरिक्त अपने दादा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के समग्र साहित्य का संचयन किया जिन्हें कई खण्डों में वाणी प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है. विद्या गुप्ता अपने लेखन, अपनी रचनाओं के पाठ और साहित्य सम्मेलनों में अपने वक्तव्यों से प्रभाव छोडती हैं. कथा संग्रह ‘एक लोटा पानी’ की लेखिका प्रभा सरस एक समय में कई नामी व्यावसायिक पत्रिकाओं में खूब छपा करतीं थीं. भिलाई से सेवानिवृत्ति के बाद सरला शर्मा ने भी निबंध संग्रह और उपन्यास लिखकर अपनी साहित्यिक सक्रियता दर्ज की. मीता दास ने बांग्ला-हिन्दी में लेखन के साथ अनुवाद कर्म करने का बीड़ा उठा लिया है. विशेषकर बांग्ला साहित्यकार नवारुण भट्टाचार्य की कृतियों पर वे काम करतीं हैं. गोविन्द पाल ने भी अपने बांग्ला-हिन्दी लेखन वैविध्य के बीच बालसाहित्य लेखन में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज की है. उनके बालकथा संग्रह और बालनाटक संग्रह प्रकाशित हुए हैं.

हिन्दी व्यंग्य लेखन में दुर्ग भिलाई के लेखकों ने अपनी पहचान बनाई. नई कविता के जाने माने कवि रवि श्रीवास्तव, गुलबीर सिंह भाटिया ने अच्छे गद्य-व्यंग्य भी लिखे. अपनी रचनाओं का अनेक गोष्ठियों में वे पाठ करते हैं. रवि श्रीवास्तव के दो व्यंग्य संग्रह- ‘लालबत्ती का डूबता सूरज’ और ‘राम खिलावन का राम राज्य’ प्रकाशित हुआ. अस्सी की उम्र की और जा रहे इस तेजस्वी व्यक्तिव की रचनाएं आज भी अख़बारों पत्रिकाओं में छप रही हैं. रवि श्रीवास्तव साहित्य के आयोजनों के प्रति बड़े ज़िम्मेदार माने जाते हैं और शहर में साहित्यिक समरसता बनाए रखते हैं. गुलबीर सिंह भाटिया ने व्यंग्य के अतिरिक्त अच्छी कहानियां लिखीं. उनका कथा संग्रह ‘मछली का मायका’ उनके परिपक्व लेखन को प्रमाणित करता है. वे पंजाबी के भी लेखक रहे तब प्रसिद्द कथाकारा अमृता प्रीतम ने उनकी पंजाबी कहानी को अपने द्वारा सम्पादित संग्रह में शामिल भी किया था.




व्यंग्य में विनोद साव यानी मेरी उपस्थिति को हिन्दी व्यंग्य विधा ने स्वीकारा है. सत्रह किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनमें चार व्यंग्य संग्रह दो उपन्यास, दो यात्रावृत्तांत और कहानी व संस्मरण के एक एक संग्रह हैं. छत्तीसगढ़ पाठ्य पुस्तक निगम ने मुक्तिबोध और दाऊ मन्दरा जी साव पर मेरी चित्र कथाएं छापी है. अपने रचनाधर्म पर मैं खुद ही कुछ कहूं उससे ज्यादा प्रासंगिक होगा कि विगत दिनों समग्र लेखन के लिए आयोजक संस्था द्वारा ‘सप्तपर्णी सम्मान’ देते हुए अभिन्दन पत्र में दी गई पंक्तियों को उद्धृत कर देना, यथानुसार – “छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन श्री विनोद साव, दुर्ग को उनके सुदीर्घ साहित्यिक अवदान के लिए ईश्वरी प्रसाद मिश्र स्मृति सप्तपर्णी सम्मान २०१८ प्रदान करते हुए आनंद का अनुभव करता है. सर्वप्रथम एक व्यंग्य लेखक के रूप में चर्चित व प्रशंसित होकर उन्होंने कहानी विधा की और रुख किया. इसके समानांतर यात्रावृत्तांत लेखन में भी उनकी रूचि जागृत हुई. इस तरह तीन विभिन्न विधाओं में समान गति से लिखते हुए उन्होंने अपने सामर्थ्य का परिचय दिया. उनकी कहानियों के विषय निरूपण में संवेदनशीलता व शैली में सरसता है, जबकि यात्रा विवरण में वे बारीक़ विवरणों में जाते हैं और सुन्दर कोलाज पाठकों के सामने रखते हैं. सम्मलेन, श्री विनोद साव को शुभकामनाएं देता है कि उनकी लेखनी इसी तरह सक्रिय बनी रहे.”

हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में दुर्ग के जयप्रकाश और भिलाई के सियाराम शर्मा ने प्रतिष्ठा अर्जित की. आलोचना की प्रमुख पत्रिकाओं में इनके आलोचनात्मक निबंध एवं सैद्धांतिक समीक्षाएं प्रकाशित होती रहती हैं. दोनों ही आलोचक आलोचना के वाचिक परंपरा से समृद्ध हैं और साहित्य सम्मेलनों के प्रभावशाली और गंभीर वक्ता हैं. महावीर अग्रवाल ने ‘सापेक्ष’ जैसी साहित्यिक पत्रिका अपने संपादन में प्रकाशित कर और श्री-प्रकाशन के माध्यम से अनेक रचनाकारों के संग्रह छापकर साहित्य जगत में दुर्ग नगर को एक पहचान दी है. उनकी पत्रिका ‘सापेक्ष’ को मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत भी किया गया है. जनवादी कवि नासिर अहमद सिकंदर कविता के नए मुहावरों पर बातचीत करते हैं और उन पर उनके आलेख लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं. उनका ‘आलोचनात्मक गद्य’ प्रकाशनाधीन है. नरेंद्र राठौर साहित्य लेखन के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में कार्यरत संस्था ‘कवच’ के अध्यक्ष हैं. उन्होंने इतिहास, पुरातत्व और पर्यावरण विषयक पांडुलिपियाँ को खोजने का कार्य किया है. शासकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डा.महेशचंद्र शर्मा संस्कृत व हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखक हैं. संस्कृत के अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में उन्होंने शिरकत की, उन्होंने शोध पत्र पढ़े और अनेकों बार उन्हें संस्कृत साहित्य में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया. कल्याण महाविद्यालय, भिलाई के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा.सुधीर शर्मा सक्रिय साहित्यकार, संपादक और कार्यक्रम संयोजक हैं. माधव राव सप्रे की पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के पुनर्प्रकाशन का जिम्मा उठाकर वे इस मासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं. वे साहित्य के शोध संधान और राजभाषा हिन्दी के कार्यक्रमों से जुड़े हैं. इस विषयक वे देश-विदेश की यात्रा भी कर आते हैं.  युवा रचनाकारों में प्रगतिशील लेखक संघ, भिलाई के अध्यक्ष हैं परमेश्वर वैष्णव जो अनेक साहित्यिक आयोजनों में अपनी सक्रियता और अपने वैचारिक वक्तव्यों से पहचान बना रहे हैं.



भिलाई में केवल साहित्यकारों में ही नहीं यहां के पत्रकारों में भी लेखकीय प्रतिभा साहित्यकारों के बरक्स है. क्रांतिकारी विचारों से लैस भिलाई के पत्रकार राजकुमार सोनी ने हिन्दी नाटकों और रंगमंच पर उल्लेखनीय काम किया है. पिछले दिनों उनके एक उपन्यास का विमोचन हुआ. वरिष्ठ पत्रकार सईद अहमद व्यंग्य और कथा लेखन में सक्रिय हैं. उनके दो व्यंग्य संग्रह छपे हैं और ‘हंस’ जैसी ख्यातिनाम पत्रिका में उनकी कहानियां छप रही हैं. युवा पत्रकार मुहम्मद जाकिर हुसैन ने ‘भिलाई एक मिसाल:फौलादी नेतृत्वकर्ताओं का‘ और ‘वोल्गा से शिवनाथ तक’ दो पुस्तकों को रचा. इनमें भिलाई की ऐतिहासिक विकास यात्रा में यहां के कर्मठ महाप्रबंधकों और रूसी विशेषज्ञों के योगदानों का अत्यंत संवेदनशील ढंग से विश्लेषण किया है. जाकिर ने उन सबकी स्मृतियों को संजोते हुए उन्हें अनुभव जनित गाथाओं व क्षेपक कथाओं से पठनीय बना लिया है. एक अन्य पत्रकार मित्र प्रदीप भट्टाचार्य ने पिछले दस-ग्यारह वर्षों से मासिक पत्रिका प्रकाशन का महत्पूर्ण ज़िम्मा उठाया है और वे ‘छत्तीसगढ़ आसपास’ नामक पत्रिका का हर महीने मुद्रण कर रहे हैं. इस पत्रिका में छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकारों से वे नियमित स्तंभ लेखन करवा रहे हैं. इससे लेखकों को भी अपनी कलम मांजने का अवसर मिल रहा है. हिन्दी छत्तीसगढ़ी दोनों के लेखक संजीव तिवारी ने तो वेबसाइट में पत्रिकाओं का प्रकाशन कर एक नवोन्मेष के साथ अपनी उपस्थित दर्ज की है. वे हिन्दी में ‘आरम्भ’ और छत्तीसगढ़ी में ‘गुरतुर गोठ’ नाम से वेबसाइट पत्रिका का संपादन कर छत्तीसगढ़ की अस्मिता विषयक ज्ञानवर्धक सामग्रियों को सामने ला रहे हैं. छत्तीसगढ़ी गद्य-व्यंग्य का उनका एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ है.

साहित्य की विधाओं से इतर लेखन का एक बड़ा हिस्सा दुर्ग में कनक तिवारी के समग्र लेखन में समाधृत हुआ है. कनक तिवारी विचारों की दुनियां के उन दुर्लभ व्यक्तित्वों में शुमार हैं जो लिखने और बोलने में एक बराबर विस्मयकारी प्रभाव छोड़ते हैं. उन्होंने एकदम ठोस गद्य लेखन का विपुल मात्रा में साहित्य रचा है. वे भारतीय वांग्मय के उत्स को चीन्हते हुए अपनी कलम चलाते हैं तब उनकी विशेषज्ञता भारतीय स्वाधीनता संग्राम, भारतीय संविधान और गाँधी नेहरु विचार धारा के संदर्भ में परवान चढ़ती नज़र आती है. आज भी अस्सी की उम्र में तिवारी जी लिखने पढने में बेहद सक्रिय बुद्धिजीवी हैं. अनेक अख़बारों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में स्तंभ लेखन कर रहे हैं. वे हर तरह के मीडिया और संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करते हैं. इस मायने में आज के सोशल मीडिया फेसबुक में भी उनकी भरपूर सक्रिय उपस्थिति को देखा जा सकता है. मध्यप्रदेश शासन में जब तिवारी जी केबिनेट में रहे तब भिलाई में ‘बख्शी सृजन पीठ’ और रायपुर में ‘बख्शी शोध पीठ’ की स्थापना करवा कर साहित्यिक आयोजनों को और भी गति व ऊंचाई पाने के अवसर दिए. तब बख्शी सृजन पीठ के अध्यक्ष के रूप में प्रसिद्द समालोचक प्रमोद वर्मा और कथाकार सतीश जायसवाल ने यहां पदस्थ होकर साहित्यिक वातावरण को और भी परिष्कृत किया. तिवारी जी की जीवन संगिनी पुष्पा तिवारी ने भी कविता कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे जो पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुए.




(यह अलेख नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की त्रैमसिक पत्रिका ‘महानदी’ में प्रकाशित हुअ है -  इस पत्रिका का ३ सितम्बर को भिलाई इस्पात संयत्र के मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने केंद्र, राज्य, बैंक व बीमा प्रतिष्ठान्न के समस्त राजभाषा अधिकारियों की उपस्थिति में विमोचन किया और साहित्यकारों का सम्मान किया)



20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल सत्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com लेखक संपर्क मो. 9009884014





छत्‍तीसगढ़ के इतिहास को बदलता तरीघाट

- विनोद साव




सावन माह का यह पहला दिन था. थोड़ी फुहार थी इसलिए हवा ठंडी बह रही थी. पाटन का यह इलाका चिरपरिचित इलाका था. गांव कस्बों में गौरवपथ बन गए है. इस इलाके के सेनानियों ने स्वाधीनता संग्राम में लड़ाइयां लड़ी थीं. गौरवपथ जिस चौराहे से शुरू होता है वह आत्मानंद चौक कहलाता है. यहां स्वामी आत्मानंद की मूर्ति लगी हुई है जो एक बड़े समाज सुधारक थे.
पाटन की सीमा पार करते हुए हम अटारी गांव जाने वाली उस सड़क पर आ गए थे जिसके शिकारी पारा में कभी तीजनबाई रहा करती थी. बारह साल की उम्र में तब उनकी पंडवानी का स्वर पहले यही गूंजता था. उन्होंने यहां से पंडवानी गायन शुरू किया था. यहां से तेलीगुंडरा गांव का एक रास्ता फूटता है जहां दानवीर दाऊ रामचंद साहू रहा करते थे जिन्होंने स्कूल निर्माण व शिक्षा के विकास के लिए अपनी बावन एकड़ जमीन बरसों पहले दान कर दी थी. अब समय है जब किसी स्कूल का नाम दाऊजी के नाम से कर दिया जावे. आज उनका दशगात्र कार्यक्रम था. वहां सांसद ताम्रध्वज साहू और क्षेत्रीय विद्यायक भूपेश बघेल भी थे. दाऊ जी के गांव में उन्हें अपने श्रद्धा-सुमन व्यक्त करके हम लौट रहे थे . तब एक तिराहे पर गुमठी में हमने अच्छी चाय पी ली थी. गुमठी वाले ने बताया कि बायीं ओर का रास्ता सीधे तरीघाट को जाता है.
तरीघाट गांव सड़क पर ही है खारून नदी के किनारे बसा गांव. नदी के इस पार दुर्ग जिला और उस पार रायपुर जिला. यह सड़क सीधे अभनपुर राजिम जाने के लिए निकल पड़ती है. उत्खनन का क्षेत्र पूछे जाने पर एक महिला ने दांयी ओर रास्ता सुझाया तब हम लगभग किलोमीटर भर आगे बढ़ चले थे. हरियाली भरा एक परिसर आ गया था. यहां देखकर सुखद अचम्भा हुआ कि मंदिर के प्रवेशद्वार पर गाँधी जी का सन्देश दिखा. लोहे की एक गोल पट्टी थी जिस पर ऊपर लाल अक्षर से लिखा था ‘जय महामाया’ और उसके नीचे हरे अक्षरों में लिखा था ‘आदमी की स्वयं की ज़मीर से बड़ा दुनियां में कोई अदालत नहीं.’- महात्मा गाँधी.
मंदिर के पुजारी ने हमें उत्खनन क्षेत्र का रास्ता दिखा दिया था. यहां बिजली खंभे के लिए गड्ढे की खुदाई करते हुए अचानक मजदूरों को एक तांबे के पात्र में 200 प्राचीन सिक्के मिले. इन सिक्कों को ग्रामीणों ने कलेक्टोरेट में आयोजित जनदर्शन कार्यक्रम में जिला प्रशासन को सौंपा. इन सिक्कों के मिलने के बाद तरीघाट बड़ा व्यापारिक केन्द्र होने के पुरातत्व विभाग का दावा और भी मजबूत हो गया है. इस दौरान ही मजदूरों को तांबे के छोटे पात्र में प्राचीन सिक्का मिला. उप संचालक पुरातत्व विभाग रायपुर जेआर भगत ने बताया कि सिक्के मुगलकालीन व कम से कम 500 साल पुराने हैं.
रावण की पुरानी मूर्ति के चारों ओर उत्खनन क्षेत्र फैला पसरा था. यहां देखरेख करने वाले खूंटियारे जी मिले उन्होंने बताया कि ‘वे अनुसूचित जाति के हैं. राजनीति शास्त्र में एम.ए. हैं पर अभी ठीक ठाक नौकरी न मिल पाने के कारण यहां चौकीदारी कर रहे हैं. यह छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा उत्खनन क्षेत्र है. सिरपुर, डमरू, पचराही सहित छत्तीसगढ़ के सात उत्खनन क्षेत्रों में सबसे बड़ा होगा तरीघाट का उत्खनन क्षेत्र. यहां चार टीले हैं जिनमें केवल एक टीले की खुदाई हुई है. यहां कल्चुरी, गुप्तवंश, मौर्यकाल, सातवाहन, दुर्ग के राजा जगपाल वंश के समय की स्वर्ण मुद्राएं, ताम्र सिक्के और ताम्बे के कलात्मक आभूषण व बर्तन प्राप्त हुए है. साथ में अन्य अवशेष हैं जो भिन्न मूर्तियों व कलाशिल्पों के हैं. जे.आर.भगत पुरातत्वविद हैं उनकी देखरेख में यहां खुदाई का कार्य चल रहा है. गलियारे के दोनों ओर कमरे निकले हैं. उनके अनुसार यह क्षेत्र कभी एक बड़ा व्यापारिक परिसर व केन्द्र रहा होगा जहां सोने, ताम्बे व अन्य धातुओं से बनी वस्तुएं क्रय-विक्रय के लिए आती जाती रही होंगी. पिछले तीन वर्षों से यहां प्राप्त अवशेषों व मुद्राओं को रायपुर के घासीदास संग्रहालय में अभी रखा गया है जिसे यहां नए बने संग्रहालय में ले आया जाएगा तब यहां आने वाले इसे देख सकेंगे और तरीघाट के इतिहास एवं पुरातत्व के बारे में जानकारी ले सकेंगे. अब छत्तीसगढ़ का इतिहास डेढ़ हज़ार साल पुरानी सिरपुर सभ्यता से नहीं बल्कि ढाई हज़ार साल प्राचीन खारून नदी की सभ्यता तरीघाट से आरम्भ होगा.’
हम रावण की जिस मूर्ति के चौरे पर खड़े हुए थे उसके बारे में बताया गया कि ‘यह पुरातात्विक नहीं है. पहले तरीघाट गांव के लोग यहां दशहरा मनाते थे. अब यह संरक्षित क्षेत्र हो गया है. तब दशहरा दूसरे स्थान पर मनाया जाता है. दस सिरों वाले रावण की यह मूर्ति युद्ध करने की मुद्रा में बनी है और विशाल धनुष बाण उनके हाथों में है.’ खूंटियारे बता रहे थे कि ‘चरवाहों और मवेशियों के कारण उत्खनन क्षेत्रों को बड़ा नुकसान पहुँचता है. उनके निशान मिटने लगते हैं. इन्हें बिना किसी क्षति के सम्हाल पाना बड़ा मुश्किल होता है भैय्या.’ फिर चरवाहों से उनकी हुज्जत होने लग गई थी.
सभ्यता नदी किनारे पनपती है तो उत्खनन क्षेत्र के पीछे खारून नदी बह रही थी. दुर्ग जिले के संजारी क्षेत्र से निकलने वाली खारून रायपुर की सीमा से बहती हुई आगे जाकर सिमगा-सोमनाथ के पास शिवनाथ से मिल जाती है. इस मिलन स्थल पर मेरी एक कहानी है ‘नदी, मछली और वह.’ तब खारून शिवनाथ में मिलकर महानदी की संपन्न जलराशि में भी अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करती है. खारुन में एक शान्ति है जो देखने वालों को अपनी ओर खींचती हैं.
सूर्यास्त का समय था हम खारून किनारे बैठे हुए थे जिसका नाम है तरीघाट. ‘तरी’ के मायने है नीचे. इसका अर्थ है नीचे का घाट. काम से लौटते मजदूरों किसानों को देख रहे थे जो नदी में बने बाँधा को पार कर रहे थे अपनी सायकलों को लेकर. हाथ में थैले और सिर पर समान रखे स्त्रियां चली जा रही थीं कतारबद्ध होकर उस पार. हम देख रहे थे लोकजीवन के रंग को अपने भीतर किसी लोकगीत की धुन के साथ.




उत्खनन क्षेत्र में लेखक

इस कलाकृति को दस हज़ार वर्ष पुराना समझा जा रहा है

और धुलाई के बाद स्वर्ण सिक्के

खारून नदी जिसके किनारे थी ढाई हज़ार साल पहले एक समृद्ध सभ्यता

खुदाई से प्राप्त अन्य कलाकृतियां

तरीघाट पहले टीले का विशाल उत्खनन क्षेत्र

नवनिर्मित संग्रहालय भवन






20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com लेखक संपर्क मो. 9009884014

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

- विनोद साव

आधुनिक काल में हिन्दी निबंधों के विकास का पहला युग भारतेंदु युग कहलाया और दूसरा युग द्विवेदी युग. तीसरा युग शुक्ल युग. इस तीसरे युग में रामचंद शुक्ल के साथ बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, जयशंकर प्रसाद आदि हुए थे. बक्शी जी का नाम पदुमलाल था; नाम के साथ वे पिता का नाम पुन्नालाल लगाते थे. अनेक विधाओं में लिखने के बाद निबंधकार के रूप में उन्हें अच्छी पहचान मिली. अपनी विशिष्ट शैली में उनके निबंध मौलिकता और नवीनता लिए हुए हैं जो अपने समय से पहले आधुनिक खड़ी बोली में मंजे हुए हैं.
बख्शी जी छत्तीसगढ़ की माटी की देन है. उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ की आत्मा’ कहानी लिखी है. इसमें वे लिखते हैं ‘छत्तीसगढ़ के जनजीवन में चरित्र की एक ऐसी उज्ज्वलता है, जो अन्यत्र नहीं पायी जाती. वे स्वयं धोखा नहीं देते. वे स्वयं कष्ट सह लेते हैं पर दूसरों को कष्ट नहीं देते. वे कठिन परिस्थितियों में भी स्नेह और ममत्व नहीं छोड़ते. जो इस आत्मा से परिचित नहीं होते वे छत्तीसगढ़ के जीवन की महिमा व्यक्त नहीं करते.’ लोककला निर्देशक रामचंद देशमुख बताते थे कि ‘चंदैनी गोंदा’ के बाद ‘कारी’ नामक प्रस्तुति तैयार करने की प्रेरणा मुझे बख्शी जी की इसी कहानी और उसकी नायिका से मिली थी.’
बख्शी जी के जन्मशताब्दी वर्ष १९९४ में भिलाई में तीन दिवसीय राष्ट्रीय साहित्य सम्मलेन रखा गया था. सम्मलेन में कथाकार कमलेश्वर आव्हान कर रहे थे कि ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास में जिसे द्विवेदी युग कहा जाता है, उसे द्विवेदी जी को प्रणाम अर्पित करते हुए सप्रे युग भी कहा जाना चाहिए. हिन्दी कहानी और हिन्दी गद्य को माधव राव सप्रे और बाद में बख्शी जी ने बड़ी ऊंचाई दी. इन दोनों सृजनकारों ने हिन्दी साहित्य के आधुनिकीकरण और गद्य को दिशा दी है लेकिन हिन्दी साहित्य का वर्णवादी इतिहास इन दोनों व्यक्तित्वों के बारे में मौन है. आचार्य शुक्ल का इतिहास सप्रेजी के बारे में मौन है तो बाद के इतिहासकारों के विवरण बख्शी जी के बारे में खामोश हैं.’
अपने निबंध ‘साहित्य और शिक्षा’ में बख्शी जी लिखते हैं ‘लोकरुचि बदलती रहती है और उसी के अनुसार ग्रंथों की लोकप्रियता भी बढती-घटती रहती है. वर्तमान युग प्रचार का युग है. राजनीति की तरह साहित्य में भी प्रचार का बड़ा महत्त्व है. ढोल पीटकर या नगाडा बजाकर यदि कोई जनता का मत प्राप्त कर मंत्री बन सकता है तो साहित्य के क्षेत्र में भी यथेष्ट ढोल पीटकर कोई लेखक या कवि गौरव के शिखर पर पहुँच कर विशेष ख्याति भी प्राप्त कर सकता है.’
हास्य-व्यंगात्मक शैली तथा भाषा उनके ललित निबंधों में प्रयुक्त हुई है. आत्मपरक निबंधों में इस शैली को अपनाया गया है - ‘क्या लिखूं निबंध’ उनकी आत्मव्यंजक शैली का सुंदर नमूना है । इसमें लेखक की निजता और उसका व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। उनके विनोदप्रिय व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए धमतरी के रामायणी दाउद-खां एक बार एक प्रसंग सुना रहे थे कि ‘खैरागढ़ में एक मारवाड़ी अपनी अंतिम सांसें ले रहा था. तब उनका एक सेवक दौड़ते हुए बख्शी जी के पास आया और कहा कि ‘मास्टर जी.. मालिक ने खटिया पकड़ ली है और आपको याद कर रहे हैं. चलिए ज़ल्दी चलिए.’ यह सुनकर बख्शी जी बोले कि ‘जाओ तुम्हारे मालिक से कहना कि कुछ नहीं होगा. वो मारवाड़ी मरेगा नहीं.. अभी इतने गुनाह बाकी हैं उसे कौन करेगा..?’




प्रसिद्द व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी अपने संस्मरण ‘पचास वर्ष पूर्व का प्रयाग’ में लिखते हैं ‘बख्शी जी अत्यंत साधारण स्तर का जीवन जीते थे पर साहित्य पर उनकी असाधारण पकड़ थी. साहित्य के अतिरिक्त कोई और शगल उनका था ही नहीं. वे बहुत ही दीन व संकोची स्वाभाव के व्यक्ति थे जिन्होंने विश्व साहित्य का गहरा अध्ययन किया था. वे प्रेमचंद और पंत के भक्त अनुचर थे. देव, बिहारी और मतिराम जैसे कवियों के प्रेमी थे पर पद्माकर से उन्हें इतना मोह था कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता. देवकीनंदन खत्री व मैथिलीशरण गुप्त के उपासक थे पर वे यह कहने में कोई संकोच नहीं करते थे कि ‘भविष्य जो है वह प्रेमचंद, जैनेंद्रकुमार, पंत और निराला का ही है, किसी और का नहीं.’ उन्हें देखकर पता चलता था कि एक समर्पित साहित्यकार कैसा होता है. मित्रों के दबाव के फलस्वरूप उन्होंने ‘विश्व साहित्य का अनुशीलन’ नामक आलोचनात्मक निबंध संग्रह भी लिखे जो मील के पत्थर हैं. वे साहित्य के मूक साधक थे और इस कारण भी उनको उचित सम्मान नहीं मिला हालाँकि उनमें महान प्रतिभा थी. निराला जी भी उनकी प्रतिभा के कायल थे और पंत जी उन पर जान देते थे.
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ‘सरस्वती’ के संपादक बनकर जब फिर प्रयाग आए तो पत्रिका का स्तर बहुत ही ज़ल्दी ऊपर उठने लगा. वे हिन्दी के महानतम निबंधकार हैं. गुलेरीजी की ‘उसने कहा था’ नामक कहानी की भांति, बख्शी जी का ‘रामलाल पंडित’ नामक एक निबंध ही उन्हें अमर रखने के लिए काफी है. यह दुखद है कि विद्यानिवास मिश्र ने जब निबंध संग्रह तैयार किया तो उन्होंने ‘आधुनिक निबंधावली’ में राम मनोहर लोहिया और कमलापति त्रिपाठी जैसे लोगों की रचनाओं को शामिल किया पर बख्शी जी को लेना वे भूल गए.’
वे लगभग दो वर्ष प्रयाग में रहे. उसके बाद उन्होंने इंडियन प्रेस के मालिक हरिकेशव घोष (पटल बाबू) से सदा के लिए विदा मांगी. पटल बाबू ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की पर पता नहीं क्यों, बख्शी जी ने अपने गांव जाने की जिद न छोड़ी. प्रयाग छोड़ने से पहले उन्होंने संगम में स्नान किया, पंत और निराला से अंतिम भेंट की, हिंदू-होस्टल के कर्ता-धर्ता देवीदत्त शुक्ल के साथ भोजन किया और नौसिखियों को आशीर्वाद भी दिया और कहा कि ‘सच्चा साहित्यकार वही हो सकता है जिसमें सृजन का सुख होगा. सृजन के सुख के सामने प्रशंसा, पुरस्कार व यश कोई मायने नहीं रखते. साहित्य का सच्चा समीक्षक मात्र काल है, और कोई नहीं.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘पुराने साहित्यकारों को सदैव पढते रहना चाहिए. पुराने को जाने बिना आप नया नहीं लिख सकते.’
त्यागी जी लिखते हैं कि ‘उनको छोड़ने मैं स्टेशन गया और जब गाड़ी चली तो प्रयाग को सदा के लिए छोड़ते हुए वे अत्यंत भावुक हो उठे. सभी लोगों की आँखों में आंसुओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं था. अपने जीवन में मैंने अनेक बड़े बड़े साहित्यकार देखे पर बख्शी जी जैसा विरक्त और नि:संग व्यक्ति कोई और नहीं देखा.
बख्शी जी के जाने के बाद ‘सरस्वती’ छपती तो रही पर उसमें अब पहले जैसी बात नहीं रही थी.’





20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com लेखक संपर्क मो. 9009884014

हिन्दी, रोजगार और छत्तीसगढ़

- विनोद साव

छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन रायपुर में आयोजित 'हिन्दी और रोजगार' विचार सत्र की अध्यक्षता डॉ. इंदिरा मिश्र IAS ने की. एन.आई.टी. के प्रो.समीर वाजपेयी ने आलेख पढ़ा। अपने विचार रखते हुए लेखक विनोद साव. कार्यक्रम संचालन संजय शाम ने किया.
मुक्तिबोध कहते थे कि ‘साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन ज़रूरी है.’ परसाई ने भी कहा था कि ‘मुझे उन लोगों से मिलकर बड़ी कोफ़्त होती है जो केवल साहित्य की ही बात करते हैं.’ शरद जोशी ने कहा था कि ‘व्यंग्य को साहित्य होने से बचाना होगा.’ साहित्य समालोचक प्रमोद वर्मा ने यह जानकर खुशी जाहिर की थी कि ‘मैं हिन्दी का लेखक होने के बाद भी हिन्दी में नहीं समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हूं.’ इन टिप्पणियों से ये ज़ाहिर है कि साहित्य केवल साहित्य की बदौलत ही जिंदा नहीं रह सकता. उसे अपने ज़माने के और भी ग़मों को अपने भीतर समाना होता है जो उसके विचारों की ज़मीन को गरमा सके और उसे किसी मुकम्मल बयान देने तक पहुंचा सके.
साहित्य की प्रतिबद्ध वैचारिक परम्परा के भीतर सफल व सार्थक आयोजन छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मलेन अब भी कर लेता है. वरना इस विचार विरोधी परिवेश में तो कुछ कहना और कुछ सुनना सुनाना भी दुष्कर होता जा रहा है. साहित्य का मूल्याँकन भी अब सरकार करती है.
विगत २९-३० मार्च को निरंजन धर्मशाला रायपुर में हिन्दी साहित्य का दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मलेन संपन्न हुआ था. इसमें साहित्य के इतर भी कुछ विषयों पर बातें हुई थीं. इनमें एक विषय था ‘हिन्दी और रोजगार’. सम्मलेन के अध्यक्ष ललित सुरजन यह मानते हैं कि कुछ साहित्यकार हैं जो साहित्येत्तर (साहित्य के अलावा) विषयों पर भी बोल सकते हैं और उनका पूरा दोहन किया जाना चाहिए. उनकी इस नीति के तहत मैं भी साहित्य से कहीं अधिक साहित्येत्तर विषयों का अधिकारी मान लिया जाता हूं. इसलिए वे मुझे कभी नदियों तालाबों के सामाजिक महत्त्व पर बोलने के लिए बुला लेते हैं तो कभी राजभाषा हिन्दी और रोजगार विषयक वक्तव्य देने के लिए आदेश कर देते हैं. कुछ मित्रगण नाराज होते हैं, कहते हैं कि मैं सभी जगह हाथ पाँव मारता रहता हूं. तब मेरी हालत कुछ इस तरह से हो जाती है कि ‘मैं साहित्यकारों के बीच गैर-साहित्यिक विषयों का विशेषज्ञ मान लिया जाता हूं और गैर-साहित्यिकों के बीच मैं साहित्य का साधक बन जाता हूं.’




अच्छी गहमागहमी थी उस दिन सम्मलेन के आयोजन स्थल में और भोजन के बाद तीन तीन समानांतर सत्र शुरू हो चुके थे. एक तरफ कहानियों पर चिंता के लिए कहानीकारों का जमघट लग चुका था तो दूसरी तरफ हिन्दी की वाचिक परम्परा परवान चढ़ रही थी और तीसरी ओर हिन्दी और रोजगार विषय पर शिक्षा व प्रशासन से जुड़े अधिकारी कुछ समाधान निकालने में जुटे हुए थे. इस सत्र की अध्यक्षता के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की पूर्व अधिकारी डा. इन्दिरा मिश्र आसन ग्रहण कर चुकी थीं. संजय शाम ने संचालन आरंभ कर दिया था. एन.आई.टी.रायपुर के प्रो. समीर वाजपेयी अपने आलेख का वाचन करने लगे थे.
संचालक ने आलेख पाठ के बाद पहले वक्ता के रूप में मुझे बुलाया. मैंने अपने उन दिनों को याद किया जब लेखक बनने से पहले भिलाई इस्पात संयत्र के राजभाषा विभाग द्वारा संभाषणों की कई प्रतियोगिताओं को मैं जीत जाया करता था. उन क्षणों का स्मरण करते हुए मैं मुखरित हो उठा था :
आलेखकार ने Functional Hindi का जिक्र किया है – इसका आशय कार्यकारी हिन्दी है या इसे कामकाजी हिन्दी भी कह सकते हैं. हमारी भाषा किस तरह से कामकाजी हो. कामकाज को सुगम बनाने में भाषा की अहम भूमिका होती है. भाषा चाहे राजकाज की भाषा हो या व्यवसाय या अन्यान्य क्षेत्रों की भाषा हो उसे सुगम और ग्राह्य होना होगा. इसलिए किताबी भाषा से गुरेज किया जाता है और बोलते या सारगर्भित वक्तव्य देते समय भी भाषा के किताबी हो जाने को दोषपूर्ण अभिव्यक्ति माना जाता है. इसलिए भी अनेक राज्यों ने अपने विश्विद्यालयों में फंक्शनल हिन्दी यानि कामकाजी हिन्दी का पाठ्यक्रम चलाया है. देश में सबसे प्रचलित भाषा हिन्दी है इसलिए अहिन्दी भाषी राज्यों ने भी अपने राज्य के रोजगार आकांक्षियों के लिए कामकाज की भाषा के पाठ्यक्रम को प्राथमिकता दी है. केरल में यह नारा भी है कि ‘अंग्रेजी सीखों फारेन जाओ, हिन्दी सीखो नार्थ जाओ.’ हिन्दी को लेकर उग्र हो जाने वाले राज्य तमिलनाडु में भी हिन्दी में नौकरी पाने के अवसर को वहां लोग खोना नहीं चाहते. चेन्नई में हिन्दी प्रचारिणी सभा के द्वारा कार्यकारी हिन्दी के पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं.
नौकरी व रोजगार के मामले में हिन्दीभाषी राज्यों की तुलना में अधिक जाग्रति अहिंदीभाषी राज्यों में आरंभ से रही है. इसलिए उन राज्यों ने हिन्दी शिक्षण योजना के अन्तर्गत अनेक व्यावहारिक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए हैं. आन्ध्र में हैदराबाद, महाराष्ट्र में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय वर्धा में ऐसे व्यावहारिक पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं. हिन्दी राज्यों में बनारस, दिल्ली में कुछ महाविद्यालयों संस्थाओं द्वारा ऐसे प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं.
अब सवाल यह है कि हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ‘हिन्दी और रोजगार’ विषय पर चर्चा करने को एकत्रित तो हुए हैं पर छत्तीसगढ़ में कार्यकारी हिन्दी को लेकर कहाँ शिक्षण प्रशिक्षण हो रहा है इसकी कोई जानकारी यहां सम्मलेन में उपस्थित वक्ताओं, प्राध्यापकों को है भी नहीं. राजभाषा किसी भी राज्य शासन के गृह मंत्रालय के अधीन होती है. हमारी सरकार हिन्दी के विकास और हिन्दी के माध्यम से रोजगार प्राप्त करने के तरीके पर कौन से कार्यक्रम चला रही हैं. क्या रविशंकर विश्वविद्यालय में रोजगार परक हिन्दी का कोई पाठ्यक्रम निर्धारण हुआ है. अभी नए खुले दुर्ग के हेमचंद यादव विश्वविद्यालय में या अन्यत्र कहीं इसके लिए कोई पहल की जा रही है? यह सरकार द्वारा चलाए जा रहे कौशल प्रशिक्षण केन्दों में क्यों नहीं है? या किसी निजी संस्थान द्वारा ऐसा कुछ किया जा रहा है.. और है तो इस विषयक डिग्री या डिप्लोमा धारी विद्यार्थियों के लिए रोजगार सम्बन्धी दिशानिर्देश क्या हैं और प्रशिक्षण प्राप्त उम्मीदवारों के प्लेसमेंट कहाँ हो रहे हैं. इन सबके जानकारीपूर्ण दस्तावेज़ रखे जाने चाहिए. ये सब विचार के मुद्दे हैं.
हमारा राज्य रोजगार पाने के मामले में पीछे है. अंग्रेजी न सही कम से कम हिन्दी के रोजगार तो हमारे बच्चों नवजवानों को प्राप्त करने का कौशल आ जाए. ऐसी चेतना इसके नागरिकों में आए और उनकी चेतना को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें हमारी राज्य सरकार की हो. इतनी उम्मीद तो हमें करनी ही चाहिए.






20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो.9301148626 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com लेखक संपर्क मो. 9009884014

छत्तीसगढ़ में अस्मितावादी लेखन - विनोद साव

विचार गोष्ठी में बाएं से मुख्य वक्ता विनोद साव, डा.जे.आर.सोनी, बी.एल.ठाकुर, मुख्य अतिथि डा.संजय अलंग(IAS), दिनेंद्र दास, छत्तीसगढ़ी वंशी असम निवासी शंकरचंद्र साहू, परदेशीराम वर्मा, अशेश्वर वर्मा.
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर ‘अगासदिया’ भिलाई में ‘छत्तीसगढ़ में अस्मितावादी लेखन पर’ विचार गोष्ठी संपन्न हुई. बुद्ध ने कहा था कि ‘परम्पराओं को इसलिए मत मानो कि इसे मैं मानता हूं या हमारे पूर्वज मानते थे. बरसों पुरानी परंपराओं को अपनाने से पहले यह देख लो कि यह आज भी अपनाने योग्य है या नहीं?.’ जाहिर है बुद्ध का यह कथन परंपराओं और रीति-रिवाजों पर लकीर के फ़कीर बने रहने से समाज को सावधान करना था.  इन परम्पराओं में हमारी अस्मिता निहित होती है. इस अस्मिता की रक्षा को लेकर भी न केवल सामान्यजनों में बल्कि लेखक बुद्धिजीवियों के बीच भी बहस हो जाती है.
हम अपनी अस्मिता को भिन्न माध्यम से तलाशते हैं: इसमें हमारी जातीय स्मृतियों, लोक-गाथाओं, मिथकों, पौराणिक चरित्रों कथाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. ये काल्पनिक होते हुए भी वास्तविक लगती हैं. योग शास्त्र के अनुसार यह पाँच क्लेशों में से एक है. राग, द्वेष की तरह मन का यह भाव या मनोवृत्ति कि ‘मेरी एक पृथक् और विशिष्ट सत्ता है’.. और यही इसकी सीमा है. कभी अस्मिता रक्षा की भावना इतनी आवेग युक्त हो जाती है कि यह पृथकतावादी आन्दोलन की ओर रूख कर जाती है. यह किसी क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक मांग की तरह अपनी अलग ‘टेरिटरी’(भू-भाग) की मांग करने लग जाती है.
बहरहाल छत्तीसगढ़ में अपनी अस्मिता के लिए आवाज़ दीगर राज्यों की तरह उग्र और आक्रामक नहीं रही है. यह छत्तीसगढ़ के रहवासियों की तरह सहृदयता पूर्ण है जिसमें उसके निजपन के आनंदमय संसार की चाहत है जिसमें वह सदा मगनमय होता आया है. छत्तीसगढ़ की अस्मिता की पहचान उसके लोकतत्व के रचे बसे संसार में है जहां से वह अपने जीवन के लिए अतिरिक्त उत्साह और उर्जा प्राप्त करता रहता है. इन्हीं लोकतत्वों की उपज है तीजनबाई, देवदास, सूरजबाई खांडे, रामचंद देशमुख – ये छत्तीसगढ़ी संस्कृति के ‘ब्रांड एम्बेसडर’ हैं.
डा.हीरालाल शुक्ल, डा.रमाकांत श्रीवास्तव जैसे अनेक आलोचकों के अनुसार यह माना जाता है कि १५ वीं सदी में खैरागढ़ के राजाश्रित कवि दलपत साय ने अपने संरक्षक लक्ष्मीनिधि राय जो उस समय खोलवा के जमींदार थे - को संबोधित करते हुए छत्तीसगढ़ को एक पृथक ईकाई माना था. दलपत साय ने भरी सभा में हुंकारते हुए कहा था कि
‘लक्ष्मीनिधिराय सुनो चित्त दै, गढ़ छत्तीस में न गढैया रही
मरदुमी रही नहि मरदन में, फेर हिम्मत से न लड़ैया रही
भयभाव भरे सब कांप रहे, भय है नहि जाय डरैया रही
दलराम भने सरकार सुनो, नृप कोउ न ढाल अडैया रही‘
इस हुंकार की परिणति चार सौ साल बाद छत्तीसगढ़ राज्य के पृथक अस्तित्व में आने पर हुई.  इन पंक्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि ‘छत्तीसगढ़’ जैसे अंचल का एक चित्र मानस पटल पर उभरने लगा था. छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग दूसरी बार रतनपुर के कवि गोपाल मिश्र ने अपने काव्य ‘खूब तमाशा’ में सन १६८० में किया.. तब यह क्षेत्र दक्षिण कोसल कहलाता था. ‘छत्तीसगढ़ी’ संज्ञा अस्तित्व में कब आई इस पर इतिहासकार डा.संजय अलंग जैसे प्रबुद्धजन चर्चा करते रहे हैं. उनकी किताब ‘कोसल से छतीसगढ़ तक’में छत्तीस’ क्या है ‘गढ़’ क्या है?‘ इसका पुराना नाम ‘कोसल’ क्यों प्रचलित नहीं हो पाया है क्यों नहीं अपनाया गया. छत्तीसगढ़ का वर्तमान स्वरुप कैसे विकसित हुआ. इन सभी प्रश्नों पर सामूहिक चर्चा वे निरंतर कर रहे हैं.
यहां कुछ उन लेखकों के संदर्भ में बातें की जा सकती हैं जिन्होंने विगत दशकों में इतिहास, कविता और गद्य लेखन के प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवाई हैं. इनमें हैं हरि ठाकुर, लक्षमण मस्तुरिया और परदेशीराम वर्मा. इन तीनों रचनाकारों ने हिन्दी छत्तीसगढ़ी दोनों में लेखन किया है. हरि ठाकुर जब बोलते थे तब बहुधा इन पंक्तियों से आरम्भ करते थे कि ‘छत्तीसगढ़ की भाषा संस्कृति के प्रति मुझे बड़ा मोह है.’  परदेशी राम वर्मा ने लिखा है कि ‘छत्तीसगढ़ को जानना है तो हरि ठाकुर को पढ़ो.’ छत्तीसगढ़ की गाथा, जल, जंगल और ज़मीन के संघर्ष की शुरूआत, छत्तीसगढ़ का प्रांरभिक इतिहास और सांस्कृतिक विकास, कोसल की भाषा कोसली जैसे नामों से हरि ठाकुर की दर्ज़नों कृतियाँ हैं जिनमें छत्तीसगढ़ का वे तुलनात्मक रूप से अधिक प्रामाणिक इतिहास परोसते हैं. राष्ट्र स्तर पर होने वाले महाविद्रोह में छत्तीसगढ़ के राजाओं और जमीदारों ने भी हिस्सा लिया था. इस राष्ट्रीय अस्मिता को वे रेखांकित करते हैं :
‘छत्तीसगढ़ भी ठोंकिस ताल, अठरा सौ सन्तावन साल।
गरजिस वीर नारायण सिंह, मेटिस सबे फिरंगी चिन्ह।‘  
छत्तीसगढ़ के पहले क्रांतिकारी शहीद वीर नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने पम्फलेट छपाकर ‘लाल जोहार किया है’
परदेशीराम वर्मा ने हिन्दी छत्तीसगढ़ी में आपने विपुल गद्य लेखन से इस अस्मिता की आवाज़ में ऐसा चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न किया कि उनके अनेक समकालीन व परवर्ती लेखक उनका अनुसरण करने लग गए. उन्होंने अपनी कहानियों में छत्तीसगढ़ी लोक-मान्यता से ओतप्रोत परिवेश बुनकर, पात्र व चरित्र खड़े कर, हिन्दी कथाओं में आंचलिक बोली व उनके हाने-मुहावरों का जमकर प्रयोग कर अपनी रचनाओं को और भी संप्रेषणीय बना लिया है.
इनमें लक्ष्मण मस्तुरिया ने जितना लेखन किया उससे ज्यादा अपने गीतों की मंचों पर प्रभावी प्रस्तुति से अपने अस्मितापूर्ण लेखन का अलग प्रभाव उन्होंने जना है और वे लगभग असम के भूपेन हज़ारिका की तरह छत्तीसगढ़ के जनमानस में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले कवि गीतकार हो गए. उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में छंद के स्तर पर भी प्रयोग किए हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहां असम ने अपने सृजनकार भूपेन हजारिका को पद्मभूषण और दादा साहब फाल्के पुरस्कारों तक पहुँचाया वहीं लक्ष्मण मस्तुरिया की यहां के शासन-प्रशासन और यहां की जनता ने कितनी सुधि ली है इसकी भनक लोगों को नहीं हो पायी, न ही उन्हें किसी पुरस्कार अलंकरण से कभी नवाज़ा गया.

 -  विनोद साव


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो.9301148626 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com

यात्रा वृत्तांत : थाईलैंड यात्रा और फेसबुक फ्रेंड्स के हवाई हमले

- विनोद साव 

‘दोस्तों.. हम कल १६ तारीख से थाईलैंड की यात्रा पर जा रहे हैं. बैंकाक और पटाया घूमते हुए वापस कोलकाता होकर रायपुर एअरपोर्ट पर २२ मार्च को उतरेंगे. आपको जानकर खुशी होगी कि मैं सपत्नीक जा रहा हूं.’ जाते समय फेसबुक पर दी गई मेरी इस जानकारी ने हडकंप मचा दी. सहसा लोगों को यह विश्वास नहीं हुआ कि मैं वाकई इस तरह से जा रहा हूं. कहीं कोई ‘मैच’ नहीं है. फेसबुक फ्रेंड्स ने अपनी आशंका रूपी ‘कमेंट्स’ की बौछारें लगा दी. कुंअर ठाकुर नरेंद्र प्रताप सिंह राठौर ने कहा कि ‘भाई साब.. पटाया गोवा से दस गुना ज्यादा रंगीन है ऐसे में आप भाभी जी ???' पत्रकार मनोज अग्रवाल ने कहा कि 'अच्छा किया साव जी आपने पहले बता दिया.. नहीं तो लोग गलत समझते.' रायपुर के प्रदीप कुमार शर्मा ने हमें 'हनीमून पर जाने की बधाई दे डाली.' व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने अग्रज की सदाशयता से कहा कि 'ये आप अच्छा काम कर रहे हैं आपकी यात्रा मंगलमय हो'. ब्राम्हणों ने 'शुभम् भवतु यात्रायाम' का आशीर्वाद दे दिया.

कोलकाता से जब हमने बैंकाक के लिए उड़ान भरी तब कथाकार कैलाश बनवासी, व्यंग्यकार गुलबीर सिंह भाटिया और रंगकर्मी राजेश श्रीवास्तव ने भी शुभकामनाएँ भेजीं. हाँ महिला मित्रों ने यथेष्ट दूरी बनाये रखी सिवाय मीता दास, वंदना केंगरानी और कुमकुम भाभी (श्रीमती उदयप्रकाश) के जिन्होंने हर पोस्ट को ‘लाइक’ कर अपने साहस का परिचय दिया. होली ठिठोली करते हुए उड़ान भरने से पहले एयरपोर्ट के स्मोकिंग जोन में सिगरेट पीते हुए मेरा चित्र देखकर व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे जैसे बड़े-बुजुर्गों ने सिगरेट नहीं पीने की नसीहत दी. इंदौर के विद्वान साथी प्रदीप शर्मा ने स्मोकिंग जोन के अंदर ये काम कर हवा को प्रदूषित होने से बचा लेने की सराहना की. तो अंबिकापुर आकाशवाणी के उदघोषक शोभनाथ साहू ने समझाया कि 'कुछ बातें छुपकर छुपाकर करनी होती है, आपने देश क्या छोड़ा, एकदम उन्मुक्त हो गए । इस चेहरे से लौट आएं ।' व्यंग्यकार कैलाश मंडलेकर ने इस चेहरे की तारीफ की कि 'बहुत सुंदर फ़ोटो है. सिगरेट के बिना भी आप बढ़िया दिखते हैं विनोद जी.. यार इस उम्र में इतने स्मार्ट बने रहने का क्या नुस्खा है ?' कथाकार रमाकांत श्रीवास्तव ने ये जुमला फेंका 'पीलो यार.. पीलो .. बंगाली लोग तो सिगरेट खाते हैं.' नवीन कुमार तिवारी ‘अमर्यादित‘ ने 'हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया' का गीत गुनगुनाया'.
फेसबुक में समुद्र में पैराग्लाइडिंग करते हुए पिक्स के साथ जब यह टिप्पणी गई कि 'मुझसे पहले पत्नी ने उड़ान भर ली. मैं ज़मीन पर रह गया और वो आसमान में उड़न छू हो गई.' सतीशकुमार चौहान ने कहा कि ' जमीन से जुडे लोग जमीन पर ही रह जाते हैं.' हास्य-व्यंग्य के कवि परमेश्वर वैष्णव सबसे ज्यादा उत्तेजित रहे ' अभी तक आपने भाभी जी की ताकत हौसले किचन में देखे थे. अब बाहर ले आये तब पता चला आपको. ऐसे ही हर गृहणी का दर्द है.' कविताई सुर में नरेंद्र राठौर बोल उठे 'मतलब .. लुट गई जीवन भर की कमाई.. आप रह गए ज़मीन पर और भाभी हुई हवा हवाई.'

अल्काज़ार-शो के बाद उसके नर्तक कलाकार अपने उत्तेजक लिबास में हाल के बाहर आकर दर्शकों से मिलते हैं. हाथ मिलाने, गले मिलने और फोटो खिंचाने के अलग अलग रेट हैं. ये जानकर भिलाई की कथाकार मीता दास पूछती हैं कि 'कितना रोकड़ा लुटा आये?' रायपुर के पत्रकार गोकुल सोनी को संदेह है 'हाथ मिलाये, गले मिले बस !'

बैंकाक में संग्रहालय से बुद्ध के कुछ चित्र फेसबुक पर पोस्ट करता हूं जिन्हें सबसे ज्यादा 'लाइक' करते हैं भिलाई इस्पात संयंत्र के पूर्व कार्यपालक निदेशक गणतंत्र ओझा साहब. समुद्र तट पर पट्टाया की देशी बीयर 'चांग' पीते देखकर भिलाई के पूर्व जनसम्पर्क आधिकारी अरूण भट्ट भुवनेश्वर से उत्साह बढ़ाते हैं कहते हैं 'एन्जॉय लाइफ.' थाई सुंदरियों के चित्र देखकर यायावर सतीश जायसवाल लगातार अपनी 'लाइक' भेज कर उत्साह बनाये रखे हैं. बैंकाक में 'क्रूज' में सवार होते समय एक सुन्दरी से गर्मजोशी से स्वागत होता देख शब्दों के जादूगर कनक तिवारी से रहा नहीं गया और पूछ बैठे कि 'थाई ने क्या क्या ख़्वाब दिखाए ?'
बैंकाक में हमारे होटल 'इकोटेल' के पीछे आंध्रा रेस्टारेंट था. इसके मालिक हैं नौपदा विजया गोपाला. वे दुर्ग भिलाई अपने रिश्तेदारों के बीच आते जाते रहते हैं. वे अब मेरे फेसबुक फ्रेंड हो गए हैं. फेसबुक में सबसे ज्यादा तहलका मचाया है 'स्काई ट्रेन' के पिक्स ने. आसमान में उडती ‘स्काई ट्रेन’. इसमें ५० मिनट यात्रा की. यह ट्रेन ऊपर चलती है और शहर नीचे होता है. अंत में यह बैंकाक एयरपोर्ट के भीतर घुसकर सवारियों को उतारती है.
दोस्तों.. थाईलैंड की यात्रा पूरी कर एक सप्ताह बाद घर पहुंचा तो घर बच्चों से भरा था जिन्हें देखकर हम भाव-विभोर हुए. दिल्ली से के.के.अरोरा ने ‘वेलकम टू इंडिया’ कहा और कोरबा के सुरेश सोनी की हमारे आगमन पर तुकबंदियां देखिये :
आकर नाती पोती पाए !
क्या क्या लाए नही बताए !
स्काई ट्रेन में सफर कर आए !
चांग बीयर भी पीकर आए !
परदेश से आकर अपनों को पाए !
हम सबकी जानकारी बढ़ाए !


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो.9301148626 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com

सम्मेलन : तेलुगु महासभलु


भिलाई के उर्जावान और कर्मठ aसाथी रूद्रमूर्ति लोगों से इतनी सहजता से मिलते हैं कि मिलने वालों को आभास नहीं होने देते कि वे एक साथ कई बड़े काम कर रहे हैं. मसलन वे भिलाई में तेलुगु रंगमंच के निर्देशक हैं. तेलुगु के प्रसिद्ध अखबार ‘’इनाडु’ के छत्तीसगढ स्थित संवाददाता हैं और तेलुगु-हिंदी द्वैभाषिक पत्रिका ‘भिलाई वाणी के संपादक हैं, तेलुगु समुदाय के पिछड़े वर्ग के संरक्षक हैं, बालाजी मंदिर के सक्रिय सदस्य हैं. वे हर साल तेलुगु साहित्य एवं संस्कृति कर्म पर वार्षिक सम्मेलन अलग अलग शहरों में करवाते हैं. पिछले दिनों उन्होंने भिलाई में तीन दिवसीय ‘अखिल भारती तेलुगु महासभलु का विराट आयोजन कर दिखाया था. इस सम्मेलन में देश भर के तेलुगु विद्वान साहित्यकार और फिल्म निर्देशक व कलाकार उपस्थित हुए थे.

इस तरह के तमाम बड़े और महत्वपूर्ण आयोजनों का जब रूद्रमूर्ति आमन्त्रण दे रहे होते हैं तब वे आमन्त्रित जन को बड़े हौले हौले अपनी योजना को बताते हैं विनम्रता के साथ और जब उस कार्यक्रम में आमन्त्रित गण पहुंचते हैं तब देखते हैं कि वह एक विराट और चमचमाता हुआ आयोजन है - जिसमें हर चीज अनुशासित, पाबन्द और गरिमामय होती है. ऐसा ही भव्य आयोजन कर दिखाया था उन्होंने विगत अप्रेल माह में उस तीन दिन के महासम्मेलन में. यह आयोजन नेहरु सांस्कृतिक सदन भिलाई में सफलता पूर्वक संपन्न हुआ था.

आयोजन स्थल के बाहर प्रवेश द्वार पर उन तेलुगु महापुरुषों के चित्र लगे थे जिन्होंने अपने अपने युग में अपने अपने क्षेत्र में तेलुगु समाज का पथ प्रदर्शन किया था. इनमें समाज-सेवक, साहित्यकार व फिल्म क्षेत्रों के समर्पित चर्चित जन थे. तेलुगु समाज की एक बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ कला के जितने प्रतिरूप हैं उन सब पर तेलुगु सिनेमा का बड़ा गहरा प्रभाव होता है. चाहे वह कला या साहित्य का क्षेत्र हो या समाजसेवा और देशप्रेम की भावना हो. इन सबके लिए तेलुगु जन सबसे ज्यादा प्रेरणा अपनी फिल्मों से लेता आया है. सिनेमेटिक प्रभाव उनकी भावना को बड़ी तीव्रता से उद्वेलित करते हैं. अनेक विवादों के बाद भी सिनेमा के कलाकार उनकी पहली पसंद होते हैं. इन सबमें भी वे सब से ज्यादा आस्था तेलुगु फिल्मों के दो महानायकों - एन.टी.रामाराव और नागेश्वर राव पर रखते हैं. इनमें विशेषकर एन.टी.रामाराव एक ऐसे नक्षत्र रहे हैं जिन्होंने आन्ध्र प्रदेश की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों को बड़ी दूर तक प्रभावित किया है. ऐसा मानना है कि ‘तेलुगु देशम पार्टी’ का गठन करने वाले एन.टी.रामाराव पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने तेलुगु समाज को देश की मुख्य धारा में स्पष्ट और सही पहचान दी. सम्मेलन में हुए साहित्यिक कार्यक्रमों में भी यह सिनेमाई प्रभाव स्पष्ट दिख रहा था. विशुद्ध साहित्यकारों के साथ फिल्म मीडिया से जुड़े अनेक निर्देशक, गीतकार, संगीतकार और अभिनेता शिरकत कर रहे थे. वे अपने विषयगत व्याख्यानों में अपने भाव भरे गीत सुर में गा रहे थे और श्रोता भाव विभोर होकर सुन रहे थे.
यह भी इस सम्मेलन की एक विशेषता कही जावेगी कि रखे गए तेलुगु भाषा के अनेक सत्रों के बीच हिंदी भाषा का भी एक सत्र रखा गया था. दरअसल ‘साहित्य के वर्तमान स्वरुप विषय पर विमर्श सत्र में तेलुगु और हिंदी दोनों भाषाओँ के साहित्यकारों को प्रतिभागी बनाया गया था.

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में मैंने तेलुगु साहित्य की विरासत को खंगालते हुए कहा कि ‘आज साहित्य में पुरानी परिपाटी से बचकर आधुनिक विचारों से लैस होकर लिखने की जरूरत है. तेलुगु में वेमना कवि हुए जो हिंदी के कबीर की तरह साहसी और उन्मुक्त विचारक थे. तेलुगु के आधुनिक काल को के.वीरेश लिंगम ने उसी तरह प्रभावित किया था जिस तरह हिंदी में भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने. हमें भारतेंदु और वीरेश लिंगम के मार्ग पर चलकर निर्भीक लेखन करना होगा और अपने समय की राजनीति पर भी हस्तक्षेप करना होगा. इस सत्र में तेलुगु फ़िल्मी गीतकार सुद्दाला अशोक तेजा के काव्य- संग्रह ‘धरती माँ’ का विमोचन हुआ. इस संग्रह में तेलुगु जन के त्याग और राष्ट् के प्रति उनके योगदान का उल्लेख किया गया है. यह मातृभूमि प्रेम से भरा एक संवेदनशील काव्य संग्रह है. इस सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद साव ने की. साहित्यकार अशोक सिंघई, नासिर अहमद सिकंदर. लोकबाबू, मुमताज़ और परमेश्वर वैष्णव ने अपने विचार व्यक्त किये.

आयोजन विशेषज्ञ रूद्रमूर्ति ने अपने साथियों के साथ मिलकर सम्मेलन के सभी सत्रों को विधिवत संपन्न किया. यह उल्लेखनीय है कि भिलाई में हर साल होने वाली ‘बहु-भाषीय नाट्य प्रतियोगिता, अब बहु-भाषीय इसलिए रह गई है क्योंकि हिंदी के अतिरिक्त अब केवल तेलुगु नाटक ही खेले जा रहे हैं. यह कमाल भी रूद्रमूर्ति, कृष्णमूर्ति, एम-बाबूराव, जोगाराव और उनके साथियों के कारण संभव हो पाया है.

-विनोद साव


परिचय - विनोद साव

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। fहंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं उन्होंने लिखी हैं। वे उपन्यास के लिए डाॅ. नामवरfसंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं। उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो.9301148626 ई-मेलः vinod.sao1955@gmail.com


कला दीर्घा : हर ‘निगेटिव’ को ‘पॉजिटिव’ बनाते हुए अनिल कामड़े

-विनोद साव

भिलाई आर्ट्स क्लब ने इस शहर को चित्रों और रंगों से भर दिया है. पिछले महीने भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का सार्थक आयोजन किया गया था और इस बार अनिल कामड़े के छायाचित्रों की प्रदर्शनी लगवा दी. नेहरू आर्ट गैलरी के सामने ही अनिल मिल गए. अपने चिर-परिचित हंसमुख चेहरे के साथ. जन संपर्क विभाग के फोटो विडियो सेक्शन में एक समय तीन कलाकार ऐसे सहभागी थे जो दुर्ग से एक साथ आते और जाते रहे – हिमांशु मिश्रा, प्रमोद यादव और अनिल कामड़े. ये तीनों दुर्ग में गया नगर के आसपास लगभग एक ही इलाके में रहे. इन तीनों कलाकारों में जबर्दस्त यारी थी और इनके कारण जन संपर्क विभाग में याराना माहौल बना रहता था. इनमें विलक्षण विडियोग्राफर हिमांशु मिश्रा हबीब तनवीर के ‘सेट’ पर कार्य करते हुए दुर्घटनाग्रस्त होकर असमय ही यारों के बीच से चले गए. हिमांशु के पास किसी फिल्म के छायाकार जैसी समृद्ध दृष्टि और तकनीक थी. उनकी बनाई विडियो फिल्मों ने छत्तीसगढ और इसके बाहर भी अपनी छाप छोड़ी थी.

साहित्य में कदम रखने से पहले मैंने भी कुछ विडियो फीचर फिल्मों के निर्माण में दांव पेंच आजमाए थे. हिमांशु के साथ मिलकर ‘पाटन दर्शन’ और ‘भारत-सोवियत मैत्री’ बनाई थी जिनका कई जगह प्रदर्शन हुआ था. हिमांशु के सहयोगी साथी अनिल वशिष्ठ और हसन उनकी कलात्मक बारीकियों के हरदम साक्षी रहे हैं. इनके साथी कुशल फोटोग्राफर प्रमोद यादव पिछले वर्ष सेवानिवृत हो गए. प्रमोद यादव के कैमरे के पीछे एक साहित्यकार की नज़र भी होती है क्योंकि वे एक प्रकाशित होने वाले लेखक भी हैं. इस महीने अनिल कामड़े ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया है लेकिन केवल नौकरी से अवकाश ग्रहण किया है कला से नहीं. नौकरी से निवृत होना कलाकारों के लिए ‘प्लस’ होता है. रिटायरमेंट के बाद कलाकारों की कला की एक अलग दुनियां होती है, जो उनकी अपनी नितांत निजी दुनियां होती है. वे मुक्त होकर फिर से अपनी कला में लीन होने का पूरा अवसर पा लेते हैं.

अनिल कामड़े अपनी मुचमुची मुस्कान के साथ कहते हैं कि ‘विनोद भाई १९५५ में जन्मे जो कला प्रेमी हुए उनमें मैं, आप और हिमांशु थे. यह सुनकर प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए मुख्य अतिथि रंजना मुले, महाप्रबंधक (सी.एस.आर.) किलकते हुए कह उठती हैं कि ‘हम भी १९५५ के हैं.’

गोलाकार गैलरी में लगे हैं अनिल कामड़े के खींचे हुए रंगीन और श्वेतश्याम चित्र. ये बस्तर के आदिवासी जीवन पर केंद्रित चित्र हैं. इनमें बस्तर के नैसर्गिक दृश्यों की उपस्थिति भी उनके जन-जीवन से है. मनुष्य की जिजीविषा के बिना प्रकृति का भी मोल कितना है ? प्रकृति की छटा तो तभी निखरती और बिखरती है जब उस वन प्रांतर की जन भागीदारी प्रकृति के श्रोतों पर होती है. नदी पहाड़ और सूरज चाँद के साथ मनुष्यों का समुदाय हो तब जाकर कला का प्रयोजन सिद्ध होता है.. और अनिल इसे खूब सिद्ध करते हैं अपनी छायांकन कला से. अनिल के भीतर एक यायावर है. वे घूमते रहते हैं हाथ और कंधे पर अपना कैमरा लिए. जहाँ भी कुछ असाधारण दिखा कि उसे कैमरे में कैद किया. अनिल उन फटाफट फोटोग्राफरों में नहीं हैं जो फोटो खींचे और चलते बने. वे बड़े धैर्य के साथ अपने ‘ऑब्जेक्ट’ को ‘फोकस’ करते हैं. कैमरे में उनकी तन्मयता उस निशानेबाज की तरह दिखाई देती है जिसे निशाना लगाना है तो सीधे अपने लक्ष्य पर अन्यथा नहीं. प्रदर्शनी में लगे चित्रों में यह साफ दिख रहा है कि चित्रकार ने बस्तरिहा जीवन के सूक्ष्म लोक तत्वों को बड़ी सूक्ष्मता से उतार लिया है. यह उनके चित्रों को देखकर ही महसूसा जा सकता है, कुछ इस तरह कि बस्तर के लोक जीवन की मधुर लय भी देखने वाले के कानों में झंकृत हो उठती है.

अनिल कामड़े को वर्ष 2000 में भिलाई में हुई अखिल भारती फोटोग्राफी प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला था. उनके चित्र धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिकाओं सहित अनेक अख़बारों में प्रमुखता से छपते रहे हैं. प्रगतिशील लेखक संघ के भोपाल और लखनऊ सम्मेलनों में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी. वे कहते हैं कि ‘इंसान के रोजमर्रा की खटखट, जिंदगी में उसकी उठा पटक और उसकी जद्दोजहद के बीच जो सौंदर्य झांकता है कुछ ऐसे ही पलों को मैं कैमरे में ले लेता हूँ.’ अपने छायांकन में वे जीवन की नकारात्मकता को सकरात्मक आयाम देते हैं. हर ‘निगेटिव’ को ‘पॉजिटिव’ बना लेने की कला है अनिल कामड़े में.


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com


कुछ जमीन से कुछ हवा से : रंगों और तूलिकाओं की दुनिया में तीन दिन

- विनोद साव


अतिथि चित्रकार अखिलेश के साथ लेखक.
भिलाई के चित्रकार हरि सेन ने फोन किया था कि ‘भिलाई में चित्रकला पर तीन दिनों का बढ़िया आयोजन है .. आप अपने विचारों के साथ आ जाइये.’ ऐसा कहते हुए उनके छत्तीसगढ़ी के चिर परिचित जुमले थे ‘भइगे कका.. जान दे कहाथे’. हरि सेन से मेरा परिचय १९९३ से है जब उन्होंने मेरे पहले व्यंग्य संग्रह ‘मेरा मध्य प्रदेशीय ह्रदय’ का मुखपृष्ठ बनाया था. लेकिन मुझे चित्रकारों के बीच में ‘लॉन्च’ किया है चित्रकार डी.एस.विद्यार्थी और सूक्ष्म कलाकार अंकुश देवांगन ने. मेरा मन शिल्पों, चित्रों और रंगों की दुनियां में शुरू से ही रमा रहा है. हाँ .. चित्रकारों की संगत देर से मिल रही है.

मैं हर शाम ऑफिस से निकलता और इन तूलिकाओं और उनके रंगों की दुनिया में जा समाता. पहली शाम सिविक सेंटर के नेहरु आर्ट गैलरी में थी जहाँ कला प्रेमी नेहरु को हार पहना कर चित्रकला प्रदर्शनी का उदघाटन किया गया. इस अवसर पर अनेक चित्रकारों व भिलाई के अधिकारियों कर्मचारियों के बीच इंदौर से आये प्रसिद्ध चित्रकार व लेखक अखिलेश उपस्थित थे. गोल गुम्बद वाली इस गैलरी में चित्रों को देखना एक अलहदा अनुभव होता है.

सभी चित्र आधुनिक कलाओं के यानी ‘माडर्न आर्ट’ के थे. तीन दिनों के इस चित्रमय आयोजन को स्वच्छता अभियान को समर्पित किया गया था. चित्रों में औद्योगिक विकास के साथ मिलने वाले प्रदूषण की ओर ध्यान आकर्षित किया गया था. अखिलेश के बनाये कुछ चित्रों में मशीनीकरण के बीच फंसे मनुष्य के द्वन्द को इस प्रकार दर्शाया गया था मानों वे भी मशीन के कल पुर्जे हो गए हों. एक अन्य चित्रकार ने धूल और कालिमा से अंटे एक पेड़ को दर्शाया था जो स्पंज आयरन फैक्टरी की देन थे. कुछ ताल तलैया थे जिनमे प्रदूषित जलों की वीभत्सता को दर्शाया गया था.


कैनवास पर चित्र बनाते हुए सुनीता वर्मा तथा अन्य चित्रकार
इस तीन दिवसीय आयोजन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि कला पर विमर्श करने की कोशिश की गई थी. दूसरे दिन भिलाई क्लब में कला विमर्श पर गोष्ठी थी. भिलाई आर्ट क्लब के अध्यक्ष आर.के.मेराल ने बताया था कि ‘यह द्विपक्षीय सम्प्रेषण का विमर्श है जिसमें चित्र बनाने वाले और चित्रों को देखने वाले दोनों अपनी बातें कह सकेंगे. यह एक तरह से विमर्श में जन भागीदारी है.’ संचालन कर रहे सत्यवान नायक ने जब मुझे बोलने का अवसर दिया तब बातें इस तरह निकलीं कि ‘कला के किसी भी प्रति-रूप का सम्प्रेषण जितनी बड़ी चुनौती कला को देखने वाले के लिए है उससे बड़ी चुनौती यह कला का सृजन करने वाले के लिए है. और यह चुनौती सबसे अधिक माँडर्न आर्ट के लिए है.. यहाँ प्रदर्शित कलाओं की यह बड़ी विशेषता है कि वे हमारे कल कारखानों से बढते प्रदूषण को बता पा रही हैं. हमें सावधान कर पा रही हैं.’

१९३६ में बनी फिल्म ‘चार्ली इन माँडर्न टाइम्स’ में चार्ली चेप्लिन ने इस भोगवादी संस्कृति और उत्पादन की मारामारी के बीच मनुष्य को भी मशीन बना देने जैसे मालिकों के जघन्य कृत का खुलासा किया था. चैप्लिन को यह फिल्म बनाने की प्रेरणा महात्मा गाँधी से मिली थी.’

गोष्ठी के मुख्य वक्ता अखिलेश थे. कान में बाली पहने ऊंची कद काठी वाले अखिलेश केवल एक चित्रकार ही नहीं हैं एक अच्छे लेखक भी हैं. पिछले दिनों भिलाई के सार्वजनिक वाचनालय से उनकी एक किताब हासिल हुई थी ‘मकबूल’ नाम की जो मकबूल फ़िदा हुसैन पर लिखी गई है. अखिलेश इसमें लिखते हैं कि ‘आज भी कला महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले युवा मन में पहली छवि हुसैन की ही होती है. यह आलोक हुसैन अकेले दम पर फैलाते हैं, जिसमें कई साल बाद आने वाला युवा चित्रकार भी प्रकाशित होता है.’

आयोजन के तीसरे दिन ऐसे कई युवा चित्रकार प्रकाशित हो रहे थे और अपनी तूलिकाओं से आलोक फैला रहे थे उस सौ फुट लंबे सफ़ेद कैनवास पर. यह कैनवास नेहरु आर्ट गैलेरी के सामने फैलाया गया था जिसमें हरि सेन, सुनीता वर्मा, योगेन्द्र त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ चित्रकारों के साथ अनेक युवा चित्रकार भी अपनी तूलिकायें लेकर जुट गए थे और रंगों की छटा बिखरा रहे थे. यह रंगों और चित्रों की एक अलग दुनियां थी जो अद्भुत और अविस्मणीय थी.




20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...