मानसून

मानसून के स्‍वागत में
मानसून शब्द मूलतः अरबी भाषा के ‘मौसिम’ से बना है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर मौसम या ऋतु निकाला जा सकता है। मानसूनी हवाएं साल के छः माह हिन्द महासागर से भारत की ओर तथा साल के बाकी छः माह में इससे ठीक विपरीत चलती है, जिसका लाभ अरब सागर में पालदार नौकाओं से चलने वाले उन व्यापारियों को होता था, जिन्होंने इसका नामकरण किया था पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानसून सिर्फ समुद्री हवा का झोंका भर नहीं, यह पानी की वह कहानी है जिससे हमारी जिन्दगानी का शायद ही कोई पहलू अछूता हो।

मानसून का नामकरण यद्यपि अरबों ने किया पर इसकी खोज ईस्वी सन् 48 में हिप्पोलस ने की थी। यूनानियों को सम्भवतः इससे पहले भी मानसूनी हवाओं की दिशा व समय की जानकारी थी। प्रायद्वीपी भारत के बंदरगाह नगरों में ईस्वी पूर्व की यूनानी मुद्राएं भी बड़ी संख्या में मिली है, जिससे लगता है कि उस समय भी भारत-यूनान के बीच अच्छा खासा व्यापार हो रहा था जो मानसूनी हवाओं की सहायता से ही सम्भव था। ईस्वी पूर्व 326 में सिकन्दर ने भारत से वापस लौटते हुए अपने मित्र व सेनापति नियार्कस को सिन्धु नदी के मुहाने से दजला-फरात नदी तक जलमार्ग से भेजा था ताकि मानसूनी हवाओं व फारस की खाड़ी का भौगोलिक सर्वेक्षण किया जा सके। ईस्वी प्रथम शताब्दी में लिखी टॉलेमी की ‘ज्योग्रफी’ प्लिनी की ‘नेचुरल हिस्टोरिको’ तथा इसके कुछ बाद में एक अज्ञात नाविक द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द पेरीप्लस आफ द एरीथ्रियन सी’ में मानसून का विवरण मिलता है। हिन्द महासागर में चलने वाले किसी भी नाविक के लिए मानसून का ज्ञान अनिवार्य रहा है।
पानी को संग्रहित करने की इसी परम्परा ने शायद हम में धन के संग्रहण की भी आदत डाली और इसी कारण हम भारतीयों में बचत दर दुनिया में सर्वाधिक है। मैं ऐसा इसीलिए भी कह रहा हूं क्योंकि हम भारतीय पानी व धन दोनों के लिए द्रव्य शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं।
मानसूनी हवाओं के चलने का भौगोलिक कारण भारत में पड़ने वाली प्रचण्ड गर्मी है। मकर संक्रांति के पश्चात् सूर्य उत्तरायण होकर कर्क रेखा की ओर बढ़ने लगता है जिससे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के तापमान में दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगती है, मई तक कई स्थानों पर पारा 45 डिग्री से. पार कर जाता है, जिससे हवाएं गर्म होकर ऊपर उठने लगती है और उत्तर पश्चिमी व पूर्वी जेट हवाओं के चलने से निम्न दाब का केन्द्र निर्मित होने लगता है। इस खाली जगह को भरने के लिए हिन्द महासागर से जलवाष्प से भरी हवाएं आगे बढ़ती है पर जैसे-जैसे ये वायुमण्डल में उपर उठती है इनका तापमान गिरने लगता है और नमी बूंदों के रुप में संघनित होकर वर्षा होती है।

अरब सागर से आने वाले मानसून को दक्षिण-पश्चिम मानसून भी कहा जाता है जो सामान्यतः केरल के तट पर जून के पहले सप्ताह में पहुंचता है। भारत में होने वाली अधिकांश वर्षा इसी दक्षिण-पश्चिम मानसून से होती है। लगभग इसी समय बंगाल की खाड़ी से आने वाला उत्तर-पूर्वी मानसून भी पूर्वी व पूर्वोत्तर भारत में वर्षा करता है। छत्तीसगढ़ के ऊपर ये दोनों मानसून आपस में मिलते है यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में औसत से अधिक वर्षा होती है।

मानसून सितम्बर में उत्तर भारत से लौटना प्रारंभ कर देता है। यह लौटता हुआ मानसून नवम्बर में तमिलनाडु में थोड़ी बारिश करता है, जो वहां ऊगायी जाने वाली तम्बाकू की फसल के लिए उपयोगी होता है। दिसम्बर में सूर्य दक्षिणायण हो जाता है और निम्न दाब का केन्द्र भी खिसककर बंगाल की खाड़ी पर आ जाता है। जिस कारण पूर्वी तट पर भयंकर चक्रवात के साथ वर्षा होती है। मानसून के आने से पहले मई में पूरे दक्षिण भारत में हल्की वर्षा होती है जिसे ‘मैंगोशावर’ कहते हैं क्योंकि इससे आम जल्दी तैयार होता है।

मानसूनी वर्षा की मात्रा व वितरण कई स्थानीय तत्वों जैसे समुद्र से दूरी, जंगल व पर्वत जैसे प्राकृतिक अवरोधो पर भी निर्भर कहते है। इसीलिए पश्चिमी घाट व पूर्वोत्तर भारत में उत्तर भारत की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। चूंकि देश के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा का वितरण असमान होता है। जिस कारण विभिन्न क्षेत्रों की वनस्पतियों और उस पर पनपने वाले जैव मण्डल में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। भारत में इतनी अधिक जैव विविधता होने का बड़ा कारण मानूसन है। मानसूनी वन न सिर्फ मूल्यवान होते हैं बल्कि ये ग्रीष्म में पानी की बचत करने के लिए अपनी पत्तियां भी गिरा देते है। लाखों सालों से होने वाली इस प्रक्रिया के फलस्वरुप पत्तियों के सड़ने से भूमि बेहद उपजाऊ हो गयी है जो आज करोड़ों भारतीयों का पेट भरने में सक्षम है।

मानसून की पहुचने की तारीख
मानसूनी वर्षा का न सिर्फ वितरण असमान होता है, बल्कि इसकी मात्रा भी हर वर्ष अलग-अलग हो सकती है। इसलिए भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ भी कहा जाता है। यह मानसून की अनिश्चितता ही है जिसने भारतीयों को भाग्यवादी बना दिया, पर मानसून ने भारतीयों को सिर्फ भाग्यवादी ही नहीं बनाया बल्कि यह भी सिखाया कि कैसे अधिकता के मौसम में संसाधनों को संभालकर रखा जाय, ताकि कठिनता के समय पर वे उपलब्ध रहे। चूंकि मानसून के लौट जाने के पश्चात् हिमालय से निकलने वाली नदियों को छोड़कर पानी का कोई और स्रोत उपलब्ध नहीं रहता, इसलिए मानसून के पानी को संग्रहित करने के लिए पूरे भारत में तालाब बनवाने की परम्परा रही है। पानी को संग्रहित करने की इसी परम्परा ने शायद हम में धन के संग्रहण की भी आदत डाली और इसी कारण हम भारतीयों में बचत दर दुनिया में सर्वाधिक है। मैं ऐसा इसीलिए भी कह रहा हूं क्योंकि हम भारतीय पानी व धन दोनों के लिए द्रव्य शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं।

मानसून भारत के फसल-चक्र को भी निर्धारित करता है। मानसून के आगमन के साथ जून-जुलाई में बुआई करके अक्टूबर तक काट ली जाने वाली फसल ‘खरीफ की फसल’ कहलाती है। इसमें चावल, कपास, जूट, मूंगफली इत्यादि अधिक पानी लेने वाली जिन्से बोयी जाती है। जबकि अक्टूबर में बोयी जाने वाली रबी की फसल में गेहूं चना, मटर सरसों इत्यादि होते है जिसमें पानी कम लगता है। भारत आने वाले यूनानी इतिहासकारों ने साल में दो बार होने वाली इस फसलों पर आश्चर्य वक्त किया है, खासकर मिट्टी की नमी के सहारे होने वाली रबी की फसल उनके लिए कौतुहल का विषय रही। इसी प्रकार का कौतूहल बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में भी व्यक्त किया है।

मानसून ने कई बार इतिहास की धारा को भी मोड़ा है। सिकंदर और पोरस के बीच जब युद्ध चल रहा था, तभी मानसून आ पहुंचा और पोरस के धनुर्धरों के आदमकद धनुष, जिन्हें जमीन पर पैर के अंगूठे से दबाकर स्थिर रखा जाता था, कीचड़ में फिसलने लगे और बाण अपने निशाने चूक गये। यूनानी सैनिकों के कवच को भेद डालने वाले इन शक्तिशाली धनुषों की नाकामी ही पोरस की हार का प्रमुख कारण बनी। पर मानसून के आ जाने से नदियां चढ़ गयी और यूनानी सेना को सिंधु के तट पर ही रुकना पड़ा। इसी बीच उन्हें पाटलीपुत्र के शक्तिशाली नंदों के विषय में जानकारी हुई जो इसी तरह के धनुषों का इस्तेमाल करते थे, इसके बाद तो यूनानी सेना सिकंदर के लाख कोशिशों के बाद भी टस से मस होने का तैयार नहीं हुई और उसे मजबूरन वापस लौटना पड़ा। मानसून ने मोहम्मद गजनी के सोमनाथ धावे को भी अस्त-व्यस्त किया था। दरअसल सोमनाथ की लूट से क्षुब्ध धार का राजा भोज उसकी वापसी के सभी रास्तों को बंद करके खड़ा हो गया। मजबूरी में गजनी मानसून की आस लिए कच्छ के रण में जा घुसा पर उस साल मानसून देरी से आया और उसकी अधिकांश सेना व लूट का माल कच्छ का रन निगल गया। आखिर में वह इस तरह मानसून के हाथों बुरी तरह पिटकर वापस लौट पाया।

चित्रकोट जलप्रपात, जगदलपुर4
मानसून का भारतीय धर्म पर भी गहरा प्रभाव है। मानसून के चार महीने-चतुर्मास का विशेष महत्व है। वैदिक धर्म में वरुण को जल व दिशा का स्वामी माना गया है। वैदिक साहित्य में वरुण ही एकमात्र ऐसे देव है जिन्हें असुर कहा गया है। यह इस तथ्य की ओर इशारा है कि आर्य स्थानीय कृषि प्रधान समाज से तालमेल बैठा रहे थे और पशुपालन से कृषि की ओर आ रहे थे, जिसमें मानसून या वर्षा का बहुत महत्व था। वरुण की ही तरह आर्यों के एक अन्य देव इन्द्र भी थे, पर उन्हें विद्युत व चक्रवात का स्वामी माना गया है। इन्द्र की बेटी है काजल, जिनकी पूजा दक्षिण की ओर मुंह करके की जाती है जो मानसून के आने की दिशा है। उत्तर भारत में वर्षा ऋतु में गायी जाने वाली कजरी भी इन्हीं से सम्बंधित है। वैसे भारतीय शास्त्रीय संगीत में भी वर्षा ऋतु के लिए कई राग है, पर इनमें राग ‘मेघ मल्हार’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। जिसमें गायक के निमंत्रण पर मेघ वर्षा करते है। पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है पर कहते हैं कि कई गायकों ने इसे साबित करके भी दिखाया है। जो भी हो पर यह तो वैज्ञानिकों ने साबित कर ही दिया है कि उत्तर अमेरीका में प्रवास पर निकलने वाली मोनार्क तितलियों का सम्बंध दक्षिण चीन सागर से उठने वाले बादलों से है और हमारे मानसून का दक्षिण अमेरीका की ‘अलनीनो’ जल धारा से, वैसे मेरा मानना है कि पूरा विश्व समग्रता में एक इकाई है जिसकी सभी चीजें परस्पर अंतःसंबंधित है। तो फिर राग मेघ मल्हार गाने वाले गायक का सम्बंध मेघों से क्यों नहीं।

मेघों से ध्यान आया ‘मेघदूत’ का, जिसमें महाकवि कालीदास ने इन्हीं मानसूनी बादलों से अपनी प्रेयसी को संदेश भेजा था। मैं बात कर रहा था मानव व प्रकृति के अंतःसंबंधों की, तो इस संबंध में प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करने का समय हमारे लिए उत्सव बन जाता है। हमारे अधिकांश त्यौहार प्रकृति को दिये जाने वाले धन्यवाद ज्ञापन ही तो है। छत्तीसगढ़ में अच्छे मानसून के लिए प्रकृति को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए ‘हरेली’ त्यौहार मनाया जाता है।

मानसून पर्यावरण के नाजुक संतुलन पर टिका हुआ है जिसे ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते प्रभाव से गंभीर खतरा है। पृथ्वी के तापमान वृद्धि से मानसून की अनिश्चितता भी बढ़ जायेगी और देश के विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ व सूखे के हालात एक समय में ही पैदा होने लगेंगे। पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान एक वैश्विक समस्या है जिस पर हाल ही में ‘क्योटो’ सम्मेलन तो हुआ लेकिन विकसित देशों की हठधर्मिता के कारण कोई सकारात्मक निर्णय नहीं हो पाया। इस पर आगे क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है पर फिलहाल तो मानसून पूरे देश में वर्षा कर रहा है। यह हमारे लिए उत्सव का, अधिकता का समय है और संग्रह का भी।
विवेक राज सिंह



विवेक राज सिंह 
समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं।अकलतरा, छत्‍तीसगढ़ में इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है. 

इस ब्‍लॉग में विवेक राज सिंह जी के पूर्व आलेख -

सभी चित्र गूगल खोज से साभार

छत्‍तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्‍दकोश : खुली चर्चा होनी चाहिए

विधान सभा द्वारा तैयार एवं राजभाषा आयोग द्वारा प्रकाशित छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश पर उठते सवाल नें प्रत्येक छत्तीसगढिया के कान खडे कर दिये हैं. मीडिया में उडती खबरें यह बता रही है कि इसमें संकलित कई शब्दों के अर्थ ग्राह्य नहीं हैं. किसी भी ग्रंथ पर कुछ लिखने के पहले उसका अवलोकन व अध्ययन आवश्यक है इस लिहाज से यह प्रशासनिक शब्दकोश हमारे पास अभी नहीं है किन्तु माध्यमों से जो शब्दार्थ सामने आ रहे हैं उससे प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि शब्दकोश जल्दबाजी में छाप दी गई है.

ऐसे समय में जब छत्तीसगढ़ी राजभाषा के मानकीकरण एवं शब्दों के दस्तावेजीकरण की आवश्यकता पर सभी विद्वान बल दे रहे है उसी समय में राजभाषा विभाग द्वारा यह प्रशासनिक शव्दावली प्रकाशित की गई है और आगे की कड़ियों के प्रकाशन की योजना भी है. आरम्भिक कड़ी में ही गलतियां सामने आ रही है इसलिए पहले यह आवश्यक है कि इस पर प्रदेश स्तरीय विमर्श हो. समाचार पत्रों में इसमें संकलित शब्दों के संबंध में जो समाचार आ रहे है उसको देखते हुए और इस शब्दकोश के निर्माण की प्रक्रिया के संबंध में पढते हुए, यह तो स्पष्ट है कि इन दोनों में सुधार की आवश्यकता है.

यह निर्विवाद सत्य है कि कोई भी शब्दकोश पूर्ण नहीं माना जा सकता, सुधार की संभावना सदैव बनी रहती है किन्तु राजभाषा आयोग के द्वारा प्रकाशित किए जाने के कारण जन की अपेक्षा इस शब्दकोश से बहुत थी. इसके पूर्व भी वरिष्ठ विद्वानों के द्वारा कुछ मानक छत्तीसगढी शब्दकोश प्रकाशित किए जा चुके हैं जिस पर अलग अलग राय लोगों का रहा है किन्तु वे शब्दकोश व्यक्ति विशेष द्वारा लिखे गए थे और प्रकाशक भाषा आयोग नहीं था ना ही उन्हें प्रशासकीय दस्तावेज बनाने की घोषणा हुई थी इसलिये उन पर चर्चा उतनी आवश्यक नहीं थी.

शैक्षणिक अनुसंधान परिषद के द्वारा प्रकाशित शब्दकोश पर तदकालीन मीडिया नें लगातार समचार छापे थे एवं उस पर विमर्श भी हुआ था. शैक्षणिक अनुसंधान परिषद के शब्दकोश बनाने में सहभागिता करने वाले विद्वानों नें विनम्रता से इसे स्वीकारा भी था कि यद्धपि सुधार की संभावना नाममात्र है किन्तु इस पर प्रयास किया जा सकता है. सुधार की संभावनाओं को कम करने एवं उस पर विश्वास करने के पीछे शैक्षणिक अनुसंधान परिषद के द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया भी थी. शैक्षणिक अनुसंधान परिषद नें ये शब्दकोश छ: महीनों के लगातार अलग अलग भौगोलिक क्षेत्र में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी के जानकार लोगों के बीच प्रत्येक शब्द पर बहस कर के अंगीकार किया गया था.

छत्तीसगढी के राजभाषा बनने के बाद प्रशासनिक शब्दावली की आवश्यकता तो बढ गई थी किन्तु इसके लिए क्रमबद्ध तैयारी की आवश्यकता थी. विधानसभा के द्वारा शब्दावली तैयार करने उसे अनुमोदित करने के लिए जिन जिन विद्वानों नें कार्य किया उनकी भाषा संबंधी ज्ञान पर कोई भी प्रश्न चिन्ह नहीं है किन्तु विधानसभा या आयोग को इसे तैयार करने के लिए छत्तीसगढ़ी के साथ साथ गोडी, भथरी, सरगुजिहा, लरिया आदि के अधिकाधिक जानकारों का सहयोग लेना था. दोनों संस्थानों की विश्वसनीयता इस शब्दकोश का आधार है, यदि वर्तमान में प्रकाशित कोश में सुधार नहीं किया जाता तो यह माना जायेगा कि इसमें संकलित, कुछ विरोध किए जा रहे शब्दों को मानक बनाने के लिए थोपा जा रहा है.

भाषा विज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार शब्द संकलन प्रक्रिया निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, इसी का परिपक्व सोपान मानकीकरण होता है. प्रकाशित प्रशासनिक शब्दावली को मानक कदापि ना माना जावे, अभी मानकीकरण का सफर लम्बा है.

यदि सरकार की इच्छा इमानदारी से छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश प्रकाशित करने की है तो आयोग के दिशानिर्देशन में प्रत्येक छत्तीसगढ़ी शब्द के अर्थ और प्रयोग पर अलग—अलग विद्वानों से ओपन डिबेट होना चाहिए और इसका दस्तावेजीकरण होना चाहिए, इस कार्य के लिए यद्धपि लम्बा समय लगेगा किन्तु इसी से शब्दों के मानक अर्थ र्निविवाद स्थापित होंगें. इससे 'नंदाते' शब्दों का दस्तावेजीकरण भी हो पायेगा, हमारे बहुत सारे शब्दों का प्रयोग अब नहीं हो रहा है, फिर भी यदा कदा वे शब्द प्रयोग होते हैं उनका अर्थ भी ऐसे शब्दकोश में आ पायेगा. आक्शफोर्ड डिक्शनरी के द्वारा कोश निर्माण के लिए जिस तरह से भाषा विशेषज्ञों के सहयोग के साथ ही समय समय पर समाज से वार्ता की जाती है उसी तरह से हमारे प्रशासनिक शब्दकोश के लिए भी समाज से खुली चर्चा होनी चाहिए.

गैर छत्तीसगढ़ी भाषी के लिए शब्दों का आधा अधूरा ज्ञान किस तरह संवेदनशील हो जाता हैं इसका एक उदाहरण देखिये. एक गैर छत्तीसगढ़ी भाषी व्यापारी को किसी नें बतलाया था कि पुरूष को 'डउका' और स्त्री को 'डउकी' कहा जाता है. उस व्यापारी के मृदुल स्वर में 'ए वो डउकी! ले जा ना वो दस रूपया म!' कहते ही उसके पीठ में जोरदार डंडा उस स्त्री के पति द्वारा जड़े गए और फिर उसकी जमकर धुनाई हुई. शब्दों के अर्थ एवं उसके प्रयोगों के प्रति यदि हम संवेदनशील होकर गैर छत्तीसगढ़ी भाषी को नहीं समझायेंगें तो यही होगा.

संजीव तिवारी
संपादक : आनलाईन छत्तीसगढ़ी वेब मैग्जीन गुरतुर गोठ डॉट कॉम

साठवें जन्म दिन पर हार्दिक शुभकामनाऍं :

हमारे पारिवारिक हीरो - बड़े भैया प्रमोद साव

- विनोद साव

बड़े भैया साठ बरस के हो गए, उनकी षष्ठपूर्ति मनायी जा रही है। तब पता चला कि मैं भी संतावन बरस का हो गया हूँ। अपनी उम्र का एहसास तब होता है जब अपने आसपास के लोग साठ बरस के हो जाते हैं। बड़े भैया के बाद मैं था और मैंने ही सबसे पहले उन्हें भैया कहना शुरु किया था, बाद में मुझसे छोटे भाई-बहनों ने मुझे भैया कहना शुरु किया तब भैया बड़े भैया हो गए, तब से यही संबोधन उनके लिए ज्यादा प्रयुक्त होता है। भैया जिनका नाम प्रमोद साव है, वर्तमान में गुरुनानक उच्चतर माध्यमिक शाला, दल्ली-राजहरा के लोकप्रिय प्राचार्य हैं। हमारे पिता अर्जुनसिंह साव भी छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्कूलों के यशस्वी प्राचार्य थे। कोई भैया से पूछता है कि ‘आजकल आप क्या कर रहे हैं?’ तो वे कह उठते हैं कि ‘बस... अपने पिता के नक्शे कदम पर चल रहा हूँ।’

युवावस्था में प्रमोद साव
बाबूजी की तरह श्याम सलोने भैया भी आकर्शक व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। उनकी ऑंखों में कुछ ऐसा सम्मोहन रहा है कि इस सम्मोहन का शिकार होने वालों की उन्हें कमी नहीं रही है। हमारे भरे पूरे परिवार में उनके व्यक्तित्व और विनम्र व्यवहार से लोग इतने सम्मोहित रहे हैं कि किसी ने उनसे कोई अपेक्षा भी नहीं की। अम्मॉं-बाबूजी और घर के बड़े बुजुर्गों ने उनसे कभी कोई खरे वचन नहीं कहे। भैया अपने भाई बहनों के बीच हमेशा रमे रहना चाहते हैं, इतने कि उन्हें कभी मित्रों की जरुरत नहीं पड़ी। भाइयों को ही उन्होंने अपना मित्र जाना और उन्हीं के बीच रहकर साठ बरसों का उन्मुक्त जीवन उन्होंने जी लिया। वे हम सात भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं पर अपने तीखे नाक-नक्श और सलोने पन के कारण देखने वालों को वे पॉंचों भाइयों में सबसे छोटे लगते हैं। बच्चे भी उनके साथ अपने को बड़ा सहज अनुभव करते हैं। शैली कहती है ‘बड़े पापा कितने स्वीट लगते हैं। उनका ड्रेस कोड अभी भी यंग एंड यूथ जैसा है।’ तब मिनी कहती है ‘नई तो क्या! बड़े पापा मुंबई में होते तो हीरो होते।’ भैया के बच्चे विनी और डम्पी इतने कायल हैं कि अपने पापा के साठवें जन्म-दिन की पार्टी वे चुपचाप एरेंज कर रहे हैं, अपने पापा को सरप्राइज देते हुए। इस बार उनकी बहू रीतु और पोती मिहिका भी शामिल हैं। भाभी का तो ये हाल है कि घर की देवरानियॉं कह उठती हैं कि ‘ये दीदी ना भैया (जेठजी) को एक सेकण्ड के लिए भी छोड़ती नहीं है। भैया बैठते हैं तो बैठती है, भैया खड़े होते हैं तो खड़ी होती हैं।’

परिवार के साथ आत्मीय क्षण
भाई-बहनों के बीच बैठकर भैया का चेहरा खिल उठता है। उनका सेलीब्रिटी मूड देखते ही बनता है। वे जीवन के सारे निर्णयों को भाई-बहनों के बीच रहकर तय करते हैं। उन्हें सब तीज-त्योहारों को मनाना, शादी ब्याह करना, पिकनिक मनाना या अस्पतालों के चक्कर लगाना सम्बंधी जितने भी कार्य हों वे परिवार में भाई बहनों के बीच रहकर ही करते हैं। उन्हें भोजन में स्वाद तभी आता है जब वे परिजनों से घिरे होते हैं। सहन-शीलता उनमें विकट है और यही उनका एक ऐसा गुण है कि कोई उनके व्यवहार से आहत नहीं होता। दुखों में उन्हें रोते हुए कभी नहीं देखा गया यह एक विलक्षण गुण भी उनके पास है। वे परिवार के हर सुख दुख में दल्ली-राजहरा से ट्रेन में बैठकर इतनी आसानी से दुर्ग आ जाते हैं जैसे वे कहीं दूर नहीं बसते बल्कि दुर्ग में ही रहते हों कहीं हमारे आसपास। यात्रा या कार्यक्रमों की कोई थकान या शिकन उनके चेहरे पर दिखलाई नहीं देती। हमेशा वैसे ही सम्मोहक नजर आते हैं जैसा उनकी ऑंखें कहती हैं।


22 जुलाई 2012 को साठ बरस पूरे कर लेने वाले इस युवा अग्रज को पूरे परिजनों की ओर से ढेरों बधाइयॉं।
विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

संदर्भ: भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष : 2

बच्चों के प्रिय हीरो थे दारासिंह

- विनोद साव
 
भारतीय सिनेमा में दारासिंह का भी एक जमाना रहा जब वर्ष 1960 से 1970 के बीच फिल्मों में उनकी मांग खूब थी। वे अखाड़े से आए हुए पहलवान थे। उन्होंने फ्री-स्टाइल कुश्ती की अपनी स्वतंत्र शैली बना ली थी जिसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिल गई थी और वे इस कुश्ती के एक अपराजेय नायक थे। उन्हें ता-उम्र कोई पराजित नहीं कर सका। यह कभी नहीं सुना गया कि दारासिंह किसी दंगल में हार गए हों। वे कुश्ती की हर प्रतियोगिता में हमेशा विजय प्राप्त करते थे। तब अपने आप को बलवान समझने वाले आदमी के लिए यह मुहावरा भी चल पड़ा था कि ‘अपने आप को बड़ा दारासिंह समझता है।’ दारासिंह कुश्ती के दूसरे पहलवानों से भिन्न थे उनका कद साढ़े छह फुट का था। उनका रंग एकदम गोरा था। बाल घुंघराले थे और नाक-नक्श एकदम तराशे हुए से। उनके रोम रोम से उनकी चुस्ती फुर्ती एकदम साफ झलका करती थी। कुश्ती के रींग में वे किसी चीते की तरह उछल कर अपने प्रतियोगी पर वार किया करते थे। तब हम लोग प्रायमरी मिडिल स्कूल के छात्र थे और वे कई बार दुर्ग भिलाई में कुश्ती की प्रतियोगिता में भाग लेने आया करते थे। अपने सुंदर व्यक्तित्व के कारण वे फिल्मों के सफल नायक भी हो गए थे।

बहुत पहले एक बार दुर्ग में शहीद भगत fसंह उच्चतर माध्यामिक शाला की स्थापना के लिए दारासिंह राशि जुटाने आए थे कुछ पहलवानों को लेकर तब टिकट पर एक कुश्ती प्रतियोगिता रखी गई थी। उस दिन मैं दुर्ग रेलवे स्टेशन में अपने किसी रिश्तेदार को छोड़ने गया था। प्लेटफार्म पर संतराबाड़ी, दुर्ग के सरदार भाइयों का बड़ा समूह वहॉं बाजे गाजे के साथ उपस्थित। बम्बई-हावड़ा एक्सप्रेस का आगमन हुआ और प्लेटफार्म पर सरदारों ने भांगड़ा नाचना शुरु कर दिया था। दारासिंह जिन्दाबाद की गूंज होने लगी थी। लोगों ने देखा कि फस्ट क्लास कम्पार्टमेंट से दारासिंह निकले। उनका विराट व्यक्तित्व बाहर आया, वे उंचे पूरे गोरे बदन पर लाल रंग का चुस्त टी-शर्ट

पहने हुए थे और अपने सिर के घुंघराले बालों के साथ वे बेहद खूबसूरत दिख रहे थे। उन्हें देखते ही प्लेटफार्म में भगदड़ गच गई और इस भगदड़ में सिक्ख भाइयों का भांगड़ा शुरु हो गया था और देखते ही देखते वहॉं रंग आ गया था।

दारासिंह अकेले पहलवान हैं जो फिल्मों में हीरो का रोल पा गए थे। रुप रंग में सुंदर होने का उन्हें यह लाभ मिला कि वे लगभग दस बरस तक स्टंट फिल्मों के सफल नायक रहे। उस समय की युवा अभिनेत्रियां निशि, सोनिया साहनी और मुमताज उनकी नायिका बनीं। मुमताज जैसी खूबसूरत और भाव प्रवण अभिनेत्री जिनकी सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ जोड़ी बाद में लोकप्रिय हुई थी उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत दारासिंह की नायिका बनकर की थी। दारासिंह की फिल्मों में केवल मारधाड़ नहीं होते थे बल्कि नायिकाओं के साथ उनके प्रेम दृश्य भी होते थे। उनके गीतों को ज्यादातर महेन्द्र कपूर गाते थे। मुकेश और मोहम्मद रफी की आवाज भी उनके लिए ली गई थी। दारासिंह की एक फिल्म ‘हम सब उस्ताद है’ में उनके साथ शेख मुख्तार और किशोर कुमार ने काम किया था। इस फिल्म में पूरे समय दारासिंह और शेख मुख्तार के बीच लड़ाई चला करती थी और इन दृश्यों के बीच में किशोर कुमार गाने गाया करते थे। प्यार बाॅटते चलो और अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो - जैसे पांच कर्णप्रिय गीत इस फिल्म में किशोर कुमार ने गाये थे और फिल्म हिट हो गई थी। ‘सिकन्दरे आजम’ में उन्होंने सिकंदर बने पृथ्वीराज के साथ पोरस की चुनौतीपूर्ण भूमिका की थी।

बच्चों और किशोरों में दारासिंह ज्यादा लोकप्रिय हुए थे। उनकी फिल्में जब हाउसफूल चला करती थीं तब उनमें प्रायमरी मिडिल स्कूल पढ़ने वाले छात्रों की भीड़ अधिक हुआ करती थी। फिल्मों में उनकी बहादुरी के दृश्य देख देखकर बच्चे खूब ताली बजा कर मजा लिया करते थे। वे अक्सर किसी शैतान की गुफाओं में घुस जाते थे और उसका अंत कर लोगों को उसके दमन और अत्याचार से बचाने वाले महानायक बन जाते थे। बच्चों के बीच दारासिंह की वैसी ही इमेज बन गई थी जो कॉमिक्स की दुनियॉं में महा-मृत्युंजय या फैंटम की थी, टीवी धारावाहिकों में शक्तिमान या स्पाइडर मेन की थी। धार्मिक फिल्मों में हनुमान और भीम की थी। वे सामाजिक फिल्मों से भी ज्यादा अपनी धार्मिक फिल्मों में छाप छोड़ते थे। हनुमान और भीमसेन के रुप में वे ज्यादा लोकप्रिय हुए थे। शंकर की भूमिका भी उन्होंने की थी।

दारासिंह में अपने पंजाब के प्रति बड़ा प्रेम था। उनकी संवाद अदायगी में पंजाबी भाषा का प्रभाव था। टीवी पर उनके साक्षात्कार पंजाबी में होते थे। अपने फिल्मों में जीये चरित्र की तरह उनमें देशभक्ति की भावना कूट कूट कर भरी थी। वे अपने वास्तविक जीवन में भी एक सहृदयी इंसान और सच्चे देशभक्त लगा करते थे। वे राज्य सभा के सदस्य हो गए थे। देवानंद, शम्मीकपूर जैसे अनेक जनप्रिय-नायकों की तरह दारासिंह ने भी अपनी अंतिम साॅस एक ऐसे समय में ली है जब हम भारतीय फिल्मों के सौ वर्ष मना रहे हैं।
विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

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