क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान, दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान : निदा फ़ाज़ली

पिछले दिनो एक मुशायरे मे भाग लेने के लिये देश के प्रख्यात गज़लकार निदा फ़ाज़ली जी भिलाई आये थे. उनके इस प्रवास का लाभ उठाने नगर के पत्रकार और उत्सुको की टोली उनसे मिलने पहुंची. पत्रकारो के हाथो मे कलम कागज और जुबा पर सवाल थे जिसका निदा फ़ाज़ली जी ने बडी शालीनता व सहजता से जवाब दे रहे थे. हमारे जैसे जिज्ञासु अपने मोबाईल का वाइस रिकार्डर आन कर निदा फ़ाज़ली जी के मुख मण्डल को निहारते हुए उनके बातो को सुनने व सहमति असहमति को परखने की कोशिश कर रहे थे. पिछले दिनों मेरे एक पोस्ट मे बडे भाई अली सैयद जी ने टिप्पणी की जिसमे उन्होने निदा फ़ाज़ली जी द्वारा लिखी गज़ल को कोड किया. उसके बाद से ही हम सोंच रहे थे कि हम भी निदा फ़ाज़ली जी से मुलाकात की कहानी कह डाले. छत्तीसगढ समाचार पत्र के पत्रकार महोदय ने इस लम्बी चर्चा को अपने समाचार पत्र मे प्रकाशित भी किया है. हम निदा फ़ाज़ली जी से हुइ उस चर्चा के कुछ अंश यहा प्रस्तुत कर रहे है-
छत्तीसगढ के ज्वलंत समस्या नक्सलवाद पर लोगों ने जब निदा फ़ाज़ली जी से प्रतिक्रिया लेनी चाही तो निदा फ़ाज़ली जी ने कहा कि नक्सलवाद जो है वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है. यह इस बात की प्रतिक्रिया है कि हमारा पूरा देश चंद अंबानियों में बंटा हुआ है, अब मॉल कल्चर पैदा हो रहा है. उसमें अंडे वाले, भाजी वाले और दूसरे छोटे धंधे करने वाले बेकार हो रहे हैं. दिक्कत यह है कि कुछ लोग इन विडंबनाओं को भगवान की नाराजगी समझ कर खामोश हो जाते हैं. वहीं जो लोग इनके खिलाफ खड़े हो जाते हैं उनको लोग नए-नए नामों से पुकारते हैं. उसे नक्सलवाद भी कहते हैं. नक्सलवाद या और भी किस्म के सामाजिक विद्रोह हैं उनको खत्म करने के लिए पहले नंदीग्राम को खत्म करो. मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे हिस्सों से सांप्रदायिकता खत्म करो, सामाजिक विडंबनाएं खत्म करो. दिक्कत दरअसल यह है कि हमारे यहां एजुकेशन नहीं है इसलिए जागृति नहीं है. ऐसे में कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं सामाजिक अन्याय के खिलाफ. हमें चाहिए बहुत सारे अंबेडकर, खैरनार और अन्ना हज़ारे.
इन सबके पीछे अशिक्षा को मूल कारण बतलाते हुए उन्होने कहा कि शिक्षा के लिए आपके पास पैसा नहीं है बम बनाने पैसा है करप्शन के लिए पैसा है. ये पूरी समस्याएं हैं, किसी को एक दूसरे से अलग कर के नहीं देखी जा सकी. जरूरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा एजुकेशन पैदा हो. आजादी की रोशनी वहां तक पहुंचे जहां बरसों से गरीबी का, गंदे पानी का, खस्ताहाल सड़को का, बेरोजगारी का अंधेरा फैला हुआ है. सरकार चाहे किसी की भी हो हमारा संविधान कहता कुछ है और सरकार करती कुछ और हैं. अब हर काम को भगवान के हवाले कर दिया गया है. बच्चे पैदा करना भी भगवान के हवाले हो गया है. जब तक बदलते वक्त पे अपना अख्तियार नहीं रखेंगे हर काम भगवान करता रहेगा, बच्चे भी भगवान पैदा करता रहेगा और जनसंख्या बढ़ती रहेगी, पतीली का आकार बढ़ेगा नहीं खाने वाले बढ़ते चले जाएंगे. और इस तरह की विडंबनाएं पैदा होती रहेंगी. इस पर उन्होने एक शेर सुनाया और महफिल खुशनुमा हो गया. आप भी देखे -
खुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को, 
बदलते वक्त पे कुछ अपना अख्तियार भी रख।
साहित्य और संस्कृति के बाजारू रुपो पर अपनी नाराजगी जताते हुए उन्होने कहा आज के कल्चर में शब्दों का महत्व बिल्कुल नहीं है. क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान- दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान . आज क्रिकेट नजर आता है एक्टर नजर आता है पालिटिशियन नजर आता है. गालिब कहीं नजर आता है? एक फैशन बन गया है सिर्फ पार्लियामेंट में कोट करने गालिब, रहीम और कबीर की चंद लाइनें होती हैं. इस गलतफहमी में मत रहिए कि शब्दों का आज महत्व है. यह इसलिए क्योंकि शब्द बाजार की चीज नहीं है. आज आलू और टमाटर ज्यादा बिकते हैं शब्द कम बिकते हैं. रचनाकारो-कलमकारो के निरंतर कलम घसीटी करनें और कलम के दम पर इंकलाब लाने की क्षमता पर प्रश्न पूछने पर उन्होने कहा कि आप इस धोखे में मत रहिए कि कलम से इंकलाब आ सकता है. आज हमारे समाज के बदलावों ने कलम का दायरा बेहद छोटा कर दिया है. हां, यह जरूर है कि कलम से बेदारी पैदा की जा सक ती है कि अवाम अपने हक के लिए लडऩा सीखे.
सम्मानो-पुरस्कारो पर चुटीले सम्वाद मे उन्होने कहा कि पद्म सम्मानों को लेकर हमेशा विवाद की स्थिति रहती है. आपको आज तक ये सम्मान नहीं मिले..? आज हर चीज बिजनेस है. मैं कभी पद्म सम्मानों की दौड़ में नहीं रहा. मिलने पर मैं इहें ठुकरा भी सकता हूं. क्योकि मैं मानता हूं कि कुत्ते के गले में पट्टा डाल दिया जाए तो कुत्ता एक का हो जाता है. मुझे चाहिए आम लोगों की प्रशंसा. मैं आम लोगों के लिए लिखता हूं और अगर आम लोग मुझे एप्रिशिएट करते हैं तो मेरा काम हो जाता है. पद्म सम्मान आज जिस तरह दिए जा रहे हैं उसकी वजह यह है कि हमारे जिम्मेदार लोगों मे अवेयरनेस है ही नहीं. हद तो यह है कि बेकल उत्साही को पद्मश्री मिल जाती है और अली सरदार जाफरी को नहीं मिलती. क्योकि हमारे जिम्मेदार लोग कुछ जानते ही नहीं, यह उनकी गलती नहीं है. बाइबिल में भी कहा गया है कि हे ईश्वर,उहें माफ कर दो वो जानते नहीं कि वो क्या कर रहे हैं.
छत्तीसगढी के पारम्परिक गीत "ससुराल गेंदा फूल" के उपयोग पर आहत होते हुए उन्होने कहा कि फिल्मों में इंस्पिरेशन के नाम पर कापी का दौर थमता नहीं दिखता..? यह आज की बात नहीं है ऐसा हमेशा से होता रहा है. तकलीफ इस बात की है कि इसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जाता है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता थी ‘इब्न बतूता पहन के जूता’. उसका इस्तेमाल आज की फिल्म ‘इश्किया’ में हुआ यानि सर्वेश्वर दयाल को पुस्तक से बाहर आने में 33 साल लगे? मैं साहित्य को साहित्य के इतिहास से पहचानता हूं. मुझे मालूम है कि शब्द का क्या महत्व होता है. अगर मैं राइटर हूं और पोएट हूं तो दूसरों के शब्द और दूसरों की रचनाओं की हिफाज़त करना भी मेरा फजऱ् है. मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर उठा कर ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन’ गीत अपने नाम से लिखने का काम मैं नहीं करूंगा. मैं खुद नई बात लिखने की कोशिश करूंगा. 150 साल से ज्यादा की उम्र के ग़ालिब को निजामुद्दीन की अपनी कब्रगाह से निकल कर बंबई आने में काफी वक्त लगेगा और अब वह इतने बूढ़े हो चुके हैं कि आएंगे भी नहीं. इसलिए आप ग़ालिब को आसानी से एक्सप्लाइट कर सकते हैं. अब छत्तीसगढ़ का लोक गीत है ‘ससुराल गेंदा फूल’ इस पर किसी और को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिल जाता है क्योंकि यह पब्लिसिटी का युग है और इसे स्वीकार करना चाहिए यही हकीकत है.

8 टिप्‍पणियां:

  1. चर्चांश बढ़िया हैं

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  2. मै निदा फाज़ली साहब का फैन हूँ ।

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  3. ....बेहद प्रभावशाली साक्षात्कार/अभिव्यक्ति!!!

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  4. श्याम कोरी 'उदय' से आगे...

    संजीव भाई हम बेवज़ह तो आपके शैदाई नहीं हैं !

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  5. निदा फाजली साहब को मौका मिलते ही पढ़ सुन लेता हूँ...

    आपने पोस्ट में चर्चा किया अच्छा लगा :)

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  6. nida fajali saahab ke khayalat pahunchane ke liye sanjeev ji ko dhanyawad ..

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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