जे बहु गणा गता सो पंथा : अजीत जोगी (Ajit Jogi)
क्या पलाश के वृक्ष से एकत्रित किया गया बान्दा आपको अदृश्य कर सकता है?
18. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
इस सप्ताह का विषय
क्या पलाश के वृक्ष से एकत्रित किया गया बान्दा आपको अदृश्य कर सकता है?
मुझे इस बात का अहसास है कि शीर्षक देखकर ही आप कहेंगे कि यह सब बेकार की बाते है क्योकि मि.इंडिया बनना तो सम्भव ही नही है। पर ग्रामीण अंचलो मे अभी भी इस तरह की बाते प्रचलित है। मै वर्षो से ग्रामीण हाटो मे जाता रहा हूँ। वहाँ जडी-बूटियो की दुकानो मे अक्सर जाना होता है। इन दुकानो मे बहुत बार दुर्लभ वनस्पतियाँ भी दिख जाती है। ऐसी ही दुर्लभ वनस्पतियाँ है पलाश नामक वृक्ष के ऊपर उगने वाले पौधे। इन्हे आम बोलचाल की भाषा मे बान्दा कहा जाता है पर विज्ञान की भाषा मे इन्हे आर्किड कहा जाता है।
पलाश के वृक्ष से वांडा प्रजाति के आर्किड को एकत्र कर लिया जाता है फिर इस दावे के साथ बेचा जाता है कि इसे विशेष समय मे धारण करने से अदृश्य हुआ जा सकता है। वशीकरण और शत्रुओ से निपटने के लिये भी इसके प्रयोग की सलाह दी जाती है। इस तरह के दावो मे कोई दम नही है यह हम सब जानते है पर जागरुकता नही होने के कारण ग्रामीण अंचलो मे अभी भी इसे खरीदा जाता है बडी मात्रा मे और ऊँचे दामो मे। आम लोगो के पैसे भी व्यर्थ जाते है और इस माँग के कारण देश के बहुत से जंगलो मे अब आर्किड मिल पाना मुश्किल होता जा रहा है। आर्किड प्रकृति मे विशिष्ट भूमिका निभाते है। पर्यावरण प्रदूषण के सूचक होते है। इनका रहना जंगल के स्वास्थ्य के लिये जरुरी है।
तंत्र से जुडे सस्ते और महंगे दोनो ही प्रकार के साहित्यो मे भी यह दावा मिलता है। इस तरह के गलत दावे करने वाले साहित्यो पर अंकुश लगाना जरुरी है।
आदिवासी समाज : पहचान का संकट (Adivasi samaj)
छत्तीसगढ़ की पहचान देश के बाहर इसके लोक कलाकारों के कारण भी बनी है । देश भर में छत्तीसगढ़ के कलाकार प्रदर्शन देकर यश अर्पित करते हैं । प्रदर्शनकारी मंचीय विधाओं में अधिकांश आदिवासी संस्कृति से जुड़ी है ।
छत्तीसगढ़ भर के मैदानी गांवों में भई गौरा-गौरी पूजन होता है । सुरहुती अर्थात् दीपावली के दिन गौरा-गौरी की पूजा होती है । यह गोड़ों का विशेष पर्व है । इस दिन वे अपनी बेटियों को उसकी ससुराल से विदा कर मायके लाते है । इसी तरह शैला, करमा आदि नृत्य हैं । अब तो मैदानी इलाके में कलाकार भी शैला करमा नृत्य में प्रवीण हो चुके हैं । आदिवासियों के देवता हैं बूढ़ादेव । बूढ़ादेव भगवान शंकर के ही स्वरूप है ।
रायपुर का बूढ़ा तालाब वस्तुत: आदिवासी राजा द्वारा निर्मित है । बूढ़ापारा भी वहां बसा है । लेकिन यह दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि बूढ़ा तालाब का नाम बदल कर विवेकानंद सरोवर कर दिया गया है । स्वामी विवेकानन्द रायपुर में कुछ वर्ष छुठपन में रहे । स्वाभाविक ही है कि उनकी मूर्ति रायपुर में लगायी गई । लेकिन सरोवर का नाम बूढ़ा तालाब था । यह भगवान शंकर के स्वरूप बूढ़ा देव के भक्तों की भावना से जुड़ा तालाब है । धीरे-धीरे इसी तरह आदिवासी स्मृतियों के साथ अगर छेड़छाड़ की जाएगी तो छत्तीसगढ़ का इतिहास विरूपीत होगा । आदिवासी संस्कृति, मंचीय कला आदि के संरक्षण की चिंता अब और आवश्यक है ।
कंगला मांझी ने जीवन भर अपनी शक्ति भर आदिवासी स्वाभीमान के लिए काम किया । लेकिन समय-समय पर आदिवासी हकों पर हमले होते हैं और कोई प्रतिकार के लिए उठ खड़ा नहीं होता ।
छत्तीसगढ़ के दम पर मध्यप्रदेश शासन ने आदिवासी लोककला परिषद का गठन किया । मध्यप्रदेश में आज भी आदिवासी लोककला परिषद विधिवत काम कर रहा है । लेकिन छत्तीसगढ़ में आदिवासी लोककला परिषद नहीं है ।
दिल्ली में छत्तीसगढ़ के कलाकारों के द्वारा निर्मित लोहे का वैसा ही द्वार बना है जैसा रायपुर के संस्कृति विभाग में है । द्वार तो हर कही नहीं बनेंगे लेकिन द्वारों के निर्माता आदिवासी कलाकार उन लौह द्वारों को पार कर संस्कृति विभाग के भीतर की मायावी दुनिया तक भी पहुंच सकें यह कोशिश जरूरी है ।
छत्तीसगढ़ राज्य बना । मुख्यमंत्री की आसंदी पर एक आदिवासी नेता बैठे । लेकिन उनके पूरे कार्यकाल में असली नकली की लड़ाई छिड़ी रही । आज जबकि आदिवासी हितों की रक्षा के सवाल पर गौर करना अधिक जरूरी है, नकली लड़ाईयों में आदिवासी समाज को उलझा दिया जाता है । आदिवासी का तात्पर्य ही है मूल निवासी । आदिवासी कभी किसी का हक मारकर अपना हित नहीं साधता । नाहक हिंसा भी नहीं करता लेकिन अन्याय करने वाला जब मर्यादा तोड़ देता है तब वह जान की परवाह किए बगैर समर में कूद पड़ता है ।
छत्तीसगढ़ का आदिवासी हीरा कंगला मांझी जब तक इनके बीच रहा, नक्सली समस्या छत्तीसगढ़ में नहीं आई । कितने दुर्भाग्य की बात है कि उनके अवसान के बाद उनकी परंपरा का भरपूर पोषण नहीं किया गया और धीरे-धीरे नक्सली गतिविधियां समूचा प्रांत कुछ इस तरह असुरक्षित माना जाने लगा कि पर्यटक तक यहां आने से घबराने लगे ।
समय अब भी है । आहत आदिवासियों को उचित महत्व देकर पुन: वह दौर लौटाया जा सकता है । जब सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का आदिवासी एक स्वर में यह गीत गाता था ................
देवगनों का देश हमारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा ।।
क्या ड्रुपिंग अशोक का वृक्ष गृह वाटिका मे लगाने से व्यापार मे घाटा होने लगता है?
17. हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास?
इस सप्ताह का विषय
क्या ड्रुपिंग अशोक का वृक्ष गृह वाटिका मे लगाने से व्यापार मे घाटा होने लगता है?
आधुनिक वास्तु शास्त्री गृह वाटिका मे ड्रुपिंग अशोक की उपस्थिति को अशुभ बताते है। वे तर्क देते है कि इसकी पत्तियाँ नीचे की ओर झुकी हुयी होती है। इससे धन की कमी होती जाती है। निराशा पैदा हो जाती है। वे किसी भी कीमत पर इसे हटाने की सलाह देते है और इसकी जगह दूसरे पेडो को लगाने पर जोर देते है।
जैसा कि आपने पहले पढा है अशोक दो प्रकार के होते है। सीता अशोक का वर्णन भारतीय ग्रंथो मे मिलता है और इसके विभिन्न पौध भागो का प्रयोग बतौर औषधी होता है। ड्रुपिंग अशोक सजावटी पौधा है और इसी कारण इसे विदेश से भारत लाया गया है। इसका वर्णन प्राचीन ग्रंथो मे नही मिलता है। आधुनिक वास्तुविदो का दावा पहली ही नजर मे गलत लगता है। यदि वे प्राचीन वास्तुशास्त्र के आधार पर यह दावा कर रहे है तो इसके कोई मायने नही है। ड्रुपिंग अशोक जहरीला पौधा नही है। इसे बिना किसी मुश्किल के वाटिका मे लगाया जा सकता है। दुनिया भर मे इसे पसन्द किया जाता है। रही बात इससे धन मे कमी या निराशा की तो सिर्फ पत्तियो के झुके होने के कारण ऐसा दावा करना गलत है। यह तो देखने का नजरिया है। यदि आप इसके उलट नजरिये से देखेंगे तो आपको यह पेड आसमान की ओर बढते तीर की तरह दिखेगा।
आधुनिक वास्तुविदो ने प्राचीन शास्त्र का नाम लेते हुये आम जनता को खूब छला है। इस लेख के माध्यम से मै उन्हे खुली चुनौती देता हूँ कि वे इसका वैज्ञानिक आधार बताये अन्यथा इस तरह की ठगी बन्द करे।
अगले सप्ताह का विषय
क्या पलाश के वृक्ष से एकत्रित किया गया बान्दा आपको अदृश्य कर सकता है?
अट्ठन्नी चवन्नी तैं गिनत रहिबे गोई, एड सेंस के पईसा नई मिलै फटा फट
कोहा पथरा झन मारबे रे टूरा
मोर बारी के आमा ह फरे लटा लट ।
गरमी के भभका म जम्मो सागे नंदा गे
आमा अथान संग, बासी तिरो सटा सट ।
हमर भाखा के मेछा टेंवा गे, अब
छत्तीसगढी म चेटिंग तुम करौ फटा फट ।
अक्कल के पइदल मैं निकल गेंव सडक म
तिपै भोंमरा रे तरूआ जरै चटा चट ।
अट्ठन्नी चवन्नी तैं गिनत रहिबे गोई
एड सेंस के पईसा नई मिलै फटा फट ।
पेट बिकाली के चिंता म संगी
बिलाग लिखई तो बंद होही कटा कट ।
पागा बांधे बांधे टूरा मन निंगे, मूडी ढांके ढांके टूरी ।
कईसे मैं लिखौं नवां पोस्ट गोरी, इही हे मोर मजबूरी ।।
(टोटल ठट्ठा है, लईका मन गर्मी के छुट्टी में धर में सकलाया है, ताश में रूपिया पइसा अउ चींपो गदही खेल रहा है, संगे संग रंग रंग के गाना बना रहा है, मोला कम्पोटर में बईठे देख कर । हा हा हा ..............)
श्री हीरा सिंह देव मांझी उर्फ कंगला मांझी सरकार (kangala Majhi)
कंगला मांझी यह नाम छत्तीसगढ़ में आज भी गूजंता है । छत्तीसगढ़ के बुजुर्ग नेताओं ने कंगला मांझी के संगठन कौशल को देख कर उन्हें भरपूर सहयोग भी दिया । घनश्याम सिंह गुप्ता, डॉ. खूबचंद बघेल, ठाकुर प्यारे लाल सिंह, विश्वनाथ तामस्कर, चंदूलाल चंद्राकर जैसे नामी गिरामी नेता और छत्तीसगढ़ के सपूत कंगला मांझी के मित्र, हितचिंतक, हमसफर और सहयोगी थे ।
दुर्ग जिले के जंगल में कंगला मांझी ने अपना क्रांतिकारी मुख्यालय बनाया । लेकिन यह बहुत बाद की बात हैं । १९१० से १९१२ तक कंगला मांझी ने तप किया । एकान्त चिंतन और प्रार्थना का यह समय उनके लिए बहुत मददगार सिद्ध हुआ । वे १९१२ के बाद सार्वजनिक जीवन में ताल ठोंक कर उतर गए । लगभग सौ वर्ष का अत्यंत सक्रिय समर्पित, राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत जीवन जीकर वे ५ दिसंबर १९८’ का इस लोक से विदा हो गए ।
पंडित जवाहर लाल नेहरू को नये भारत का मसीहा मानने वाले कंगला मांझी का असली नाम हीरासिंह देव मांझी था । छत्तीसगढ़ और आदिवासी समाज की विपन्न और अत्यंत कंगाली भरा जीवन देखकर हीरासिंह देव मांझी ने खुद को कंगला घोषित कर दिया । इसीलिए वे छत्तीसगढ़ की आशाओं के केन्द्र में आ गये । न केवल आदिवासी समाज उनसे आशा करता था बल्कि पूरा छत्तीसगढ़ उनकी चमत्कारिक छबि से सम्मोहित था । कंगला मांझी विलक्षण नेता थे । वे राष्ट्र गौरव की चिंता करते हुए देश में गोडवाना राज्य की कल्पना करते थे । उन्होंने बार - बार अपने घोषणा पत्रों में पंडित जवाहरलाल नेहरू का चित्र छापकर यह लिखा कि देश के लिए समर्पित रहकर मिट्टी का कर्ज चुकाना है । उनके सैनिकों के द्वारा रोमांचित करने वाला एक गीत गाया जाता है,
जसकी प्रथम दो पंक्तियां हैं ...............
देवगनों का देश हमारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा ।
आजाद हिंद फौज के सिपाहियों की वर्दी और सज्जा को अपनाकर गर्व महसूस करने वाले कंगला मांझी के दोलाख वर्दीधारी सैनिक हैं । वर्दी-विहीन सैनिक भी लगभग इतनी ही संख्या में हैं । प्रतिवर्ष ५ दिसंबर को डौंडी लोहारा तहसील में स्थित गांव बघमार में कंगला मांझी सरकार की स्मृति को नमन करने आदिवासी समाज के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान के लिए चिंतित जन एकत्र होतें है ।
वहां तीन दिन का ऐतिहासिक सम्मेलन होता है । लोग दिसंबर की सर्द रातों को पेड़ के नीचे काटतें हैं ।
भाव से भरे समर्पित आदिवासियों का हुजूम सम्हाले नहीं सम्हलता । कंगला मांझी के गांव में ऐसा आसरा भी नहीं बना है जिसमें आगन्तुकों को ठहराया जा सके । जबकि आयेदिन दूरदराज के पत्रकार, लेखक, समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ इस गांव की यात्रा करते हैं । मेले के दिनों में आदिवासी सैनिक ठहर सकें ऐसी व्यवस्था अभी बन नही पाई है । कंगला मांझी ने अपने एक पर्चे में लिखा है - भरत के गोड़वाना भाइयों, प्राचीन युग से अभी तक हम शक्तिशाली होते हुए भी जंगल खेड़े, देहात में बंदरों के माफिक चुपचाप बैठे हैं । भारत के दोस्तों ये भूमि हमारी है फिर भी हम भूमि के गण होते हुए भी चुपचाप हाथ बांधे बैठे हैं । आज हमारे हाथ से सोने की चिड़िया कैसे उड़ गई । यह दर्द और धनीभूत हो जाता है जब स्थिति इतने वर्षो बाद भी जस की तस दिखती है । आदिवासियों ने कभी दूसरों का अधिकार नहीं छीना मगर आदिवासियों पर लगातार चतुर चालाक समाज हमला करता रहा । संस्कृति, जमीन, जीवन और परंपरा पर हुए हमलों से आहत आदिवासी तनकर खड़े भी हुए लेकिन नेतृत्व के आभाव में बहुत देर तक लड़ाई नहीं लड़ सके । प्रतिरोधी शक्तियां साधन संपन्न थी । आदिवासी समाज सीधा, सरल और साधनहीन था । ऐसे में कंगला मांझी के अभ्युदय से एक क्रांतिकारी दौर की शुरूआत हुई ।
कंगला मांझी का सतत विकास और देश के लिए विनम्र योगदान : विकास के सोपान -
कंगला मांझी सरकार का जन्म कांकेर जिला स्थित गांव तेलावट में हुआ । यह उनका ननिहाल था । सलाम परिवार उनमका ममियारो है । यहीं उनका बचपन बीता । श्रम करते हुए वे जीवन के सोपानों पर चढ़ते रहे ।
1914 से वे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े । जंगल में स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हो चुका था । 1914 में बस्तर की गतिविधियों से चिंतित हो अंग्रेज सरकार आदिवासियों को दबाने जा पहुंची । तीन देवियों के पुजारियों को कील ठोंक कर मार दिया । अंग्रेज आदिवासियों की आस्था पर चोट करना चाहते थे । दैवीय शक्ति पर आदिवासियों के अटल विश्वास पर प्रहार करने के लिए ही पुजारियों की हत्या की गई ।
आदिवासी आंदोलन से जुड़ी जनश्रुतियों के अनुसार लोग आज भी बतातें है कि तीन देवियों के पुजारियों को जब कील ठोंक कर मार दिया गया तब वहां वीर बस्तरिया प्रगट हुए । वीर बस्तरिया ने अंग्रेजों से पूछा कि आप बस्तर में क्या चाहतें हैं । लड़ना हे तो मुझसे लड़ो । भोले आदिवासियों से क्या लड़ते हो ।
अंग्रेज ने कहा - मै जर्मन से हार गया हूं, यहां आराम करने आया हूँ । अंग्रेजों से कुछ दिनों बाद फिर आदिवासियों की लड़ाई हुई । इस लड़ाई में अंग्रेज हार गये ।
फिर अंग्रेज ने कांकेर की राजमाता से तीन हजार जवान देने का आग्रह किया । तब कंगला मांझी ने राजमाता को समझाया कि अगर आपने जवान अंग्रेजों को दे दिया तो यहां का राज कैसे चलेगा । तब माता ने अंग्रेज से कहा कि अपने लोगों से सलाह कर फिर जवाब दूंगी ।
कंगला मांझी ने राजमाता को समझाया कि अंग्रेज हमारी ही ताकत से हमें गुलाम बनाकर बैठे हैं । इसलिए हम उन्हें सहयोग न करें । आज वे बस्तर में हारे हैं, कल देश में हार कर भाग जायेंगे ।
तब अंग्रेजों से गोड़वाना राज्य की मांग की गई । १९१५ में रांची की बैठक हुई । १९१५ से १९१८ तक लगातार बैठकें होती रही । १९१९ में अंग्रेजों ने कांकेर, बस्तर और धमतरी के क्षेत्र को मिलाकर एक गोड़वाना राज बना देने का प्रस्ताव दिया ।
कंगला मांझी इससे सहमत नहीं हुए । एक छोटे से क्षेत्र में राज्य की बात उन्हें जमी नहीं । उन्होंने कहा कि विराट गोंड़वाना राज्य के वंशजों को एक छोटे से भूभाग का लालच दिया जा रहा है । हम सहमत नहीं है ।
1914 में जेल में वे महात्मा गांधी से मिल चुके थे । १९२० में पुन: कलकत्ते में महात्मा गांधी से भेंट हुई । वे लगातार राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में रहे ।आंदोलनों का नेतृत्व भी करते रहे । आदिवासियों को संगठित कर स्वतंत्रता की आग जंगल में धधकाते रहे ।
फिर आया 1922 का काल । महात्मा गांधी से प्रभावित कंगला मांझी ने अपनी शांति सेना के दम पर आंदोलन चलाया । वे मानते थे कि देश के असल शासक गोंड़ हैं । वे बलिदानी परंपरा के जीवित नक्षत्र बनकर वनवासियों को राह दिखाते रहें और 1947 में देश आजाद हुआ तो उन्होंने नए सिरे से संगठन खड़ा किया । अब शासक देशी थे । लेकिन शासन में आदिवासियों की हिस्सेदारी नहीं थी । यह नया संघर्ष था । अस्मिता के लिए संघर्ष । यद्यपि कंगला मांझी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को राष्ट्र ही नहीं विश्व का हीरा घोषित किया, लेकिन आदिवासी हितों की रक्षा के लिए वे सेना और समर्पित सैनिकों की जरूरत को मानते थे । इसीलिए एक संगठन को नया आकार दिया गया ।
संगठन और क्रांति का नव अध्याय
संगठन का नाम रखा गया श्री मांझी अर्न्तराष्ट्रीय समाजवाद आदिवासी किसान सैनिक संस्था इनकी एक और संस्था का नाम अखिल भारतीय माता दंतेवाड़ी समाज समिति । इस संगठन से लगातार आदिवासी जुड़ते गए, सदस्य बनते गए । १९५१ में बिल्ला एवं सैनिक की वर्दी प्रदान करने की परंपरा शुरू हुई । शासन ने लाल ध्वज भी
दिया । १९५१ से १९५६ तक यही लाल ध्वज कंगला मांझी जी फहराते रहे । लाल ध्वज समता वादी समाज की संरचना के लिए चिंतित कंगलामांझी के चिंतन का प्रतीक था ।
१९५६ में उन्हें राष्ट्रीय ध्वज दुर्ग में भेंट किया गया । जिला कचहरी में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का गौरव उन्हें उसी वर्ष मिला । दुर्ग के जयस्तंभ, पांच कडील चौक तथा जटार क्लब में भी वे प्रति वर्ष तिरंगा फहराते थे । उन्होंने दुर्ग के आमापारा में निवास के लिए स्थान चुना । उनका आधा परिवार आज भी खपरैल के टूटे घरों में आमापारा मैं हैं । वहां कंगला मांझी द्वारा निर्मित एक बहुत पुराना छोटा सा मंदिर भी है जिसमें बूढ़ा देव विराजित हैं । आमापारा में भी प्रतिवर्ष झंडा फहराया जाता रहा । आज भी यह परंपरा जारी है । पहले वहां मेला भी लगता था किन्तु अब आमापारा में उनका घर सिमट कर रह गया है । चारों और अतिक्रमण से उनका घर घिर गया है । जिस तरह छत्तीसगढ़िया घिर बैठा है ।
कंगला मांझी जी ने आमापारा के साथ १९६० मंे जंगल के भीतर अपनी सारी गतिविधियों के लिए स्थान चुना । आज भी वहां मात्र सात घर के लोग हैं । १९६० में केवल दो घर वहां थे । एक घर जुड़ावन पटेल का था, दूसरा घर कंगला मांझी ने बनाया । धीरे-धीरे बघमार गांव आदिवासियों का पुण्य धाम बनता गया । अब उस मिट्टी के बने मकान में राज-माता फुलवा देवी ने अपने सैनिकों और समर्थकों को दिशा निर्देस देने हेतु एक दफ्तर भी बना लिया है । परिसर में मिट्टी के बने मंदिर में तीन देवियां विराजित हैं । बूढ़ीमाता, दंतेवाड़ी माता तथा बावड़ी माता के अतिरिक्त आंगन में गढ़माता का स्थान है । रूपसिंह उइके इस घर के पुजारी हैं जो परिसर में ही निवास करतें है ।
बघमार में कंगला मांझी को दस एकड़ जमीन उनके एक सैनिक ने दिया । झरन टोला, मरकाम टोला, किल्लेकोड़ा पास के गांव हैं । इस गांव में न खेल का मैदान है न दूसरी सुविधा । १५ वर्ष पहले बिजली जरूर आ गई है । राजनांदगांव राजहरा रोड़ से कच्ची सड़क पर उतर कर चार किलोमीटर और चलने पर बघमार गांव आता है ।
सड़क इतनी खराब है कि थोड़ा भी पानी गिरने पर पैदल चलना मुश्किल हो जाता है। आसपास के जंगलों में अब भिन्न-भिन्न आश्रमों के बोर्ड लग गये है । जमीन पर धर्म के नाम पर कब्जे भी शुरू हो गये हैं ।
लेकिन गोड़वाना राज्य के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों के मसीहा कंगला मांझी का घर उसी तरह है । मिट्टी का मकान ग्रामीण शैली में बना है । लकड़ी के खंभों पर खड़ा मकान मांझी जी की सरलता और आडंबर हीनता की याद दिलाता है ।
स्वानुशासन और कर्त्तव्य
कंगला मांझी ने राष्ट्र, छत्तीसगढ़ और आदिवासी समाज को एक धागे में पिरोकर उस माला को आदर भाव से धारण किया । यह विलक्षण साधना सिद्ध हुई । कुछ भी न मांगते हुए उन्होंने अपने लोगों को कर्त्तव्य का पाठ जरूर पढ़ाया । जैसे एक पर्चा निकला : रिजर्व सीट के हाथ मजबूत करने के लिए आदिवासी भाई आवें, कदम बढ़ावें और भारत के समस्त दूत बन जावें । इस पर्चे मे कर्त्तव्यों की सूची कुछ इस तरह है :-
१. अपने धर्म का आदर करें और उसका पालन करें ।
२. सुख शांति फैलाने हेतु तत्पर रहें ।
‘. असहाय बूढे-बूढ़ी, बच्चों की सहायता करें ।
‘. पूज्य जनों का आदेश मानें ।
५. अपने देश व राज्य के लिए तन-मन-धन न्यौछावर करें ।
६. अपना चरित्र पवित्र रखें ।
ऐसी उदात्त कल्पना थी कंगला मांझी की । वे सबके साथ अपना विकास देखते थे ।
आदिवासी समाज तब उन्नति करेगा जब वह राज्य और देश की उन्नति में भागीदार बनेगा । इसी तरह वे यह भी मानते थे कि देश और राज्य तभी समृद्ध बनेगा जब उसका आदिवासी समृद्ध होगा । यह बहुत
व्यवहारिक सोच है । उन्होंने गोंडवाना राज्य के लिए आदिवासी समाज में जागृति का प्रयास तो किया ही साथ ही समाज निर्माण की दिशा में उन्होंने ठोस कार्य किया ।
आदिवासी समाज के लिए जो पालन योग्य नियम जारी हुए वे इस तरह हैं .......
१. बच्चों के जन्म पर गांव भर को भोजन नहीं कराना है बल्कि पांच गरीब बच्चों को भोजन कराना है । इस तरह घर पवित्र होगा ।
२. एकता रखना है, मिलकर रहना है ।
‘. बूढ़ा देव की पूजा होगी पर हिंसा नहीं होनी चाहिए, बलि न दें ।
‘. विवाह के लिए १’ वर्ष की लड़की एवं १८ वर्ष का लड़का हो । बाल विवाह न करे ं ।
५. विवाह गोंड़वाना में प्रचलित पद्धति से हो ।
६. विधवा विवाह में लेन-देन न हो ।
७. भौजाई को चूड़ी पहनाना हो तो तय हो, जब स्त्री मर जाय, बाल-बच्चे न हो तब सबकी स्वीकृति से यह करें ।
८. ७ माह के बच्चे के निधन पर मृत्यु भोज न दिया जाए ।
९. एक घर में दो मौत होने पर एक ही मृत्यु भोज दिया जाए ।
१०. शुभ कार्य के दौरान किसी घर में मौत हो जाय तो उसे अशुद्ध घर नहीं मानना चाहिए ।
११. पति-पत्नि में सतत कलह रहने पर पंचायत छोड़ छुड़ी कर दे ताकि दोनों अलग जीवन बिता सकें ।
१२. संतान नही होने पर या पत्नी सदा बीमार रहे तब पंचों से स्वीकृति लेकर दूसरा ब्याह करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त और भी सामाजिक रीतियों से जुड़े सुत्रों को उन्होंने पकड़ा और उसके महत्व को समझाया । जीवन की जटिलता को कम करने के लिए कंगला मांझी ने सदैव प्रयास किया । समाज में व्यापत कुरीतियों पर साहस पूर्वक नकेल डालने में वे सफल रहे ।
समानता का नवदर्शन और जातीय एकता का प्रयास
छत्तीसगढ़ में भिन्न-भिन्न जातियों के बड़े संगठन हैं । एक समान खान-पान, संस्कृति, मान्यता के बावजूद समाजों के बीच दीवारें हैं । चूड़ी प्रथा से लेकर सभी आदिवासी समाज की प्रथाओं को छत्तीसगढ़ की समस्त जातियों ने अंगीकार किया था । बल्कि यूं मानने मे किसी को परहेज नहीं होना चाहिए कि जिन जातियों चूड़ी प्रथा रही वे छत्तीसगढ़ की आदिम और पुरानी जातियां हैं । इसीलिए एक समान जीवन दर्शन से जुड़ी, समान सामाजिक नियमों से बंधी जातियों को कंगला मांझी ने एक माना । आश्चर्य होता है यह देखकर कि वे कितने बड़े क्रांतिदृष्टा थे । समय के पार देखने की कैसी दिव्य दृष्टि उनके पास थी । यहां उन जातियों का उल्लेख जरूरी है जिसे एक मानकर कंगला मांझी ने पर्चा निकाला ।
आदिवासी आदिम जाति परिगणित मूल निवासी शाखा सूची
गोंड़, भील, केंवट, ढ़ीमर, निषादराज, कंवर, बिंझवार, हलबा, धनुहार, मरार, कलार, कुम्हार, प्रधान, लोधी, नेगी, जोगी, बैगा, पनिका, गनिका, नाई, धोबी, तेली, तमोली, बाजदार, देवदास, नगाड़ची, गांडा, महार, रावत, गोबारी, यादव, नाहर, कोलिता, धोसी, सयान, सनिया, भूमिया, भोई, बेलदार, बसोट, बुर्रा, बड़रा, देवार, कोष्टा, गढ़वाल, देवांगन, महतो, महरकतिया, परगनिहा, कोक, ओल, भद्रा, उड़िया, ओझिया, सोनझरिया, सोनकर, अमांग, झरिया, कोरबा, लोहार, कोरकू, सोता, कौड़ाकू, मुयासी ।
ये लगभग छत्तीसगढ़ की सभी दलित, पिछड़ी एवं वनवासी जातियां हैं । इन्हें एक करने का यह वंदनीय प्रयास उन्होंने किया ।
संगठन का स्वरूप
कंगला मांझी जी को स्वयं सब कुछ नये सिरे से प्रारंभ करना पड़ा । पूर्व में कोई सांगठनिक नियमादि थे नहीं । उन्होने आदिवासी समाज को मजबूत करने के लिए एक विस्तृत निर्देश पत्रक तैयार किया । जिसके अनुसार पद इस तरह बनाये गये.........
तहसील में एक प्रतिनिधि हो । तहसील क्षेत्र में ५ से ‘० गांव का एक परगना क्षेत्र हो जिसका एक अगुवा हो । उन्होंने लिखा कि ऐसा तहसील प्रतिनिधि हो जो पढ़ा लिखा हो और शासन की नीतियों का लाभ आदिवासी समाज के भाइयों को दिला सकें । कृषि के संबंध में लोगों को बता सकें ।
जनगणना के लिए मरदम शुभारी सन् १९७० का फार्म भी छपवाया जिसमें आदिवासी समाज से संबंधित विस्तृत जानकारी मिल सके । इस फार्म में मुखिया के परिवारजनों की संख्या, मकान स्वयं का है या किराये का, यह भी उल्लेख जरूरी किया गया । साथ ही गांव, शहर, देश, विदेश के आदिवासियों के फार्म भराकर जानकारी ली गई ।
इसके अतिरिक्त भारत के किसानों के लिए भी एक होने की अपील निकाली गई । उन्होंने माना कि जो भूमि से जुड़ा है वह किसान चाहे देश के किसी भी हिस्से में रहते हों, एक हैं वे सब भारत मां के श्रम वीर बेटे हैं । उनका आपस में एका जरूरी है । तभी उनका सम्मान बढ़ेगा और तभी राष्ट्र मजबूत होगा जब राष्ट्र के सभी किसान एक होंगे ।
अनुशासित संगठन पर नियंत्रण
कंगला मांझी सरकार का अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय दिल्ली में स्थापित हुआ । आदिवासी केम्प रणजीत सिंह मार्ग नई दिल्ली ११०००२ यह पता है । वहां से ही पूरे देश के आदिवासियों के लिए वे अपना परिपत्र जारी करते थे । जिसमें कंगला मांझी जी, श्रीमती फुलवा देवी एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू के चित्र अनिवार्य रूप से छपे ।
अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद की बात वे प्राय: हर पर्चे में करते थे । उनके संगठन में समय-समय पर चुनाव हुए । पदों का निर्धारण हुआ । अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, पंच, सभासद नियुक्त हुए । सैनिकों की भर्ती हुई । सैनिकों को वर्दी दी गई । प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से वे अपने सैनिकों के
साथ ही मिलें । वे संगठन में ‘ परगना मिलाकर एक कार्यालय खोलते थे । जिसमें प्रमुख अगुवा कहलाता था । उन्होंने अगुवों को निर्देशित किया कि कार्यालय के रजिस्टरों एवं सभी पत्रकों को ठीक रखें और समय-समय पर जांच भी करवायें । वे व्यक्तिवाद के विरोधी थे । उन्हें पता था कि सब मिलजुलकर ही मंजिल तक पहुंच सकतें है । इसीलिए दीवारों को ध्वस्त करते हुए वे आगे बढ़े । उदारतापूर्वक सबको उन्होंने अपने साथ जोड़ा । लेकिन सभी जुड़ने वालों से आग्रह किया कि ईमानदारी पूर्वक जाति, क्षेत्र और राष्ट्र की सेवा करें । वे बार-बार लिखतें ...............
14 नवंबर 1947 को समस्त मानव भारतीय संतान को स्मरण किया जाता है कि हमें किसी से लड़ना या हिंसात्मक कार्यवाही करना नहीं है । वरन् हमें सिर्फ उड़त-बुड़त जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक निशान है उसी की आवश्यकता है ।
ये पर्चे विलक्षण हैं । इन पर्चो में कभी यह ऐलान किया जाता है कि समाजवाद ने शक्ति के रूप में प्रगट होकर दिल्ली में आसन ग्रहण कर लिया है ।
यह श्रीमती इंदिरा गांधी के साहसिक निर्णयों की प्रशंसा ही है । मगर ढ़ंग ठेठ उनका अपना । श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इन्दिरा जी को दुर्गा कहा । इसी तर्ज पर मांझी जी ने शक्ति का अवतार कहा । उन्होंने विकास के लिए उठाये गये हर कदम का समर्थन किया । हिंसा का विरोध किया । अहिंसक क्रांति के पुरोधा कंगला मांझी के सिपाही सैनिक वर्दी में होते लेकिन रास्ता महात्मा गांधी का ही अपनाते ।
राज और ताज की मांग
कंगला मांझी ने समय-समय पर केन्द्रीय शासन को याद दिलाया कि आदिवासी हितों की रक्षा उनका दायित्व है । उनके संगठन से जुड़े चालीस लाख लोगों ने भारत को शक्तिशाली बनाने के लिए शांतिपूर्वक मत दिया । इसलिए आदिवासी सत्ता को स्वीकार कर उसे ताज और राज भी दिया जाए । देखें पर्चे का अंश ..........
अडतालिसगढ़ बीस सौ कोस बस्तर सात सौ परगना कांकेर स्टेट छत्तीसगढ़ विलीन रियासत मध्यप्रदेश स्टेट के चालीस लाख आदिवासी और जनजाति आदिवासी परंपरा के शिला लेखों के मुताबिक भारत सरकार के मददगार महाकांग्रेस को सलाह देते हुए तथा अपने पैरों पर खड़ा होकर देश की रक्षा के लिए कदम उठाये हैं ।
हम भारत में किसी से लड़ना नहीं चाहतें, हम तलवार से किसी पर चढ़ाई नहीं करना चाहतें । हमें तो सब गांवों को एक कर भारत को महान और मजबूत बनाना है, ताकि उन्नतिशील भारत की जनता अपने पैरों पर खड़े होकर देश की रक्षा कर सके ।
देश के हितार्थ लोकसभा एवं विधानसभा में आदिवासी मतदाताओं द्वारा चुनकर भेंजे गए उम्मीदवारों के नाम एवं पता नीचे दर्शाये गए हैं ।
रूलिंग चीफ आफ इंडिया, मध्यप्रदेश राज्य शासन रिजर्व सीट से भाग लेने वाले प्रतिनिधियों, प्रेसिडेण्ट एवं चपरासी तथा सेक्रेटरियों के नाम यहां है (राज्य शासन गोंड़वाना)
नये युग के लिए नई किताब : भारत भूमिका
श्री कंगला मांझी सरकार द्वारा लिखित एक पुस्तक है भारत भूमिका । १९५१ में यह किताब लिखी गई । किताब में उपर श्री कंगला मांझी एवं श्रीमती फुलवादेवी का चित्र है । घोषणा है नया युग, नया राष्ट्र, भारत समराष्ट्र दर्शन (अंतर्राष्ट्रीय अखिल भारतीय आदिवासी मूल निवासी) राज्य शासन मध्यप्रदेश स्टेट भारत गोंड़वाना
कंगला मांझी अपने सैनिकों को साथ अंग्रेजों से भी लड़ते रहे । १९’७ में देश आजाद हुआ । नई रोशनी आई । पंडित जवाहर लाल नेहरू की ओर आशा भरी नजर से आदिवासी समाज ने देखा । उन उमंग भरे दिनों में कंगला मांझी ने अपनं ढ़ंग से एक किताब लिखकर राष्ट्रभक्तो को सौंपा । किताब में कुछ विशिष्ट जो बातें हैं, वे इस तरह हैं .........
१. नये युग के अनुसार सारे पुराने कानून को नया कर कानून खोजने वाला कौन है ?
२. नये युग का सूत्रधार कौन ?
‘. इस युग के असल हीरा हैं पंडित जवाहर लाल नेहरू ।
‘. औस उसी तरह भारत के अंदर एक और हीरा मिला । गोंड़ अनाथ फकीर कंगला मांझी ।
५. दोनों हीरों को गांधी जी का आशीष मिला ।
६. भारत के हीरा पंडित जवाहरलाल नेहरू और बस्तर के हीरा कंगला मांझी है ।
भारतीय परम्परा प्राचीन गोंडवाना संस्कृति
संदेश
१. गोंड़वाना भाई जानें कि जिस दिन पृथ्वी में जलारंग (महाजलप्लावन) हुआ उसी दिन से हम गोंड़ पृथ्वी पर है ं।
२. हम भगवान शंकर के अंग और बूढ़ादेव के गण हैं ।
‘. पहले पांच देव प्रकट हुए । फिर वे पाताल लोक से मिट्टी को मथकर पृथ्वी का निर्माण किया गया । फिर बना पृथ्वी पर कैलाश ।
‘. सभी देवताओं ने विचार कर भगवान कृष्ण को राज्य चलाने का भार सौंप दिया ।
५. भगवान कृष्ण ने वामन अवतार लिया । लेकिन वे संसार को न पालन करने के लिए चिंतित हुए । उन्होने ब्रम्हा, विष्णु, महेश को बुलाकर कहा कि मैं इस पृथ्वी का पालन नहीं कर सकता ।
सब देवताओं से विचार कर श्री कृष्ण ने इस धरती को भगवान शंकर को सौंप दिया । लेकिन विराट स्वरूप धारण करने पर भी जब भगवान शंकर से पृथ्वी की व्यवस्था नहीं हुई तब पुन: देवगनों से कहा कि ऐसे वीर पुरूष पैदा करों जो यह जिम्मा ले । भगवान कृष्ण ने भगवान शंकर से कहा कि आप ही शक्ति के श्रोत हैं, आप कुछ करें । तब आत्म मंथन के बाद भगवान शंकर ने शक्ति पुरूष के रूप में एक काला भील पैदा किया । सबने विश्वास किया कि यह शक्ति पुरूष है । भगवान कृष्ण ने कहा कि इसी शक्ति पुरूष को हीरा और ताज सौंप दिया जाए । उन्होंने कहा कि देवताओं, तुम्हारे मन में कोई कपट है तो बोलो । अंत में शक्ति पुरूष को भार सौंप दिया गया । इससे सिद्ध होता है कि गोंड़ आदिकाल से पृथ्वी के शासक हैं । भारत में गोड़ों का राज्य गोंड़वाना कहलाता है । मगर हम मानवतावादी हैं । सबका हित चाहतें हैं । यह मैं घोषित करता हूँ ।
दस हजार वर्षो से हम संघर्षरत हैं । नदी, सागर, पहाड़ सब पर हमारे पांवों के निशान हैं । चार वेद तो हैं लेकिन हमारा जो पांचवा वेद है वह कहां छुपा दिया गया यह सोचना है । हमें सत्ताहीन कर वन में भेज
गया । वहां हम बंदरों की तरह पेड़ों के सहारे जीते रहे । इस देश में अंग्रेज भी शासन कर गये । तरह-तरह के समा्रट हुए लेकिन असल शासक गोंड़ों को उनका हक नहीं मिला । महात्मा गांधी ने भी इसपर विचार किया ।
हमें मानव समाज की रक्षा के लिए मर मिटना है । हमें जीवन यापन के लिए जमीन चाहिए । बेहतर साधन चाहिए । हम किसी का हक नहीं छीनते इसलिए हमें हमारा हक दिया जाय । सरकार ने नाकाबंदी कानून बनाकर ठीक किया । उसमें जगल की रक्षा के लिए भी प्रयास किया । चुनाव की प्रक्रिया भी ठीक है । राजनीतिक माहौल भी उत्तम है । लेकिन आदिवासी समाज के लिए जो दायित्व पूरा करना चाहिए उस ओर और ध्यान देने की जरूरत है ।
उपरोक्त पुस्तक में और भी बातों का विस्तार है । आदिवासी समाज ही क्या आज पढ़े लिखे समाज में वैज्ञानिक युग में भी भ्रम और भ्रांति का जोर है । देवताओं की मूर्तियां दूध पी रही हैं । समुद्र का पानी मीठा हो रहा आदि बातें वैज्ञानिक युग में पढ़े लिखे लोगों को सच लगती है तब सौ वर्ष पूर्व के आदिवासी भाइयों के बीच काम करने के लिए किस तरह कंगला मांझी जी ने तरह तरह से प्रयोग किया होगा, यह हम समझ सकते हैं ।
आदिवासी प्रकृति के अनुरूप उन्होंने संगठन को नया आयाम दिया । बूढ़ादेव के आराधक आदिवासियों के लिए भगवान शंकर की कथा को समय समय पर प्रस्तुत किया । अत्माभिमान जगाने के लिए इतिहास के परिप्रेक्ष्य में आदिवासी समाज को उन्होंने बताया कि वे कितने सक्षम हैं । उनकी विरासत क्या है । उनका वैभवशाली भूतकाल था । वर्तमान यद्यपि निराशाजनक है लेकिन संगठित होकर हम पुन: वैभव को प्राप्त कर सकते हैं ।
संक्षिप्त परिचय
कंगला मांझी का पूरा नाम हीरा सिंह देव था । पिता का नाम रैनू मांझी था तथा मां का नाम चैतीबाई था । उनकी शादी छुठपन में हो गई थी । बिरझा देवी उनकी पहली पत्नि थी । बिरझा देवी से एक बेटा कमलदेव तथा तीन बेटियां कमला, कौशिल्या एवं कुंवरबाई हुई । यह परिवार आमापारा दुर्ग में रहता है । उन्होंने १९६५ में दूसरा ब्याह किया । आदिवासी परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की फुलवा देवी से उन्होंने ब्याह किया । श्रीमती फूलवा देवी विवाह से पूर्व बालबाड़ी में शिक्षिका थी । बालाघाट के पास तत्कालीन मंडला जिले के गांव घोड़ादेही के आदिवासी किसान सुमेरी उइके तथा माता बिराजो बाई के यहां १९५२ में जन्मी श्रीमती फुलवादेवी को अपनी जीवन संगनी बनाने का निश्चय १९६’ में कंगला मांझी ने किया ।
फुलवा देवी के साथ ब्याह के लिए घोड़ादेही पहुंचे कंगला मांझी ने प्रारंभिक बातचीत में बताया कि एक पढ़ी लिखी लड़की मेरे सपनों में आती है । यह स्वप्न प्रसंग सुनकर गांव वालों को लगा कि कहीं वह फुलवा देवी तो नहीं है ।
कंगला मांझी ने फुलवा देवी को देखा तो वे उन्हें देखते ही रह गये । वही लड़की जो स्वप्न में उन्हें दिखती थी सामने खड़ी थी । उम्र में अंतर होने के कारण फुलवा देवी की मां ने रोना-पीटना शुरू कर दिया । मगर अंतत: कंगला मांझी के जीवन में फुलवा देवी का प्रवेश हुआ । फुलवा देवी ही उनकी विरासत को सम्हालने में सक्षम हुई आज आदिवासी समाज उन्हें माता कहकर नमन करता है । कंगला मांझी की अर्धागिनी बनकर फुलवा देवी ने खूब संघर्ष किया । एक तरफ उन्हें गृह कलह से भी जूझना पड़ा तो दूसरी ओर कंगला मांझी के स्वप्न को साकार करने के लिए कमर कसना था । वे ‘२ वर्ष की थीं जब कंगला मांझी ५ दिसंबर १९८’ को बघमार गांव में संपूर्ण जिम्मेदारी सौंप कर इस लोक से विदा हो गए । तब से श्रीमती फुलवा देवी ही विरासत की भार सम्हाल रही है । वे बघमार में प्रतिवर्ष ५ दिसंबर से सप्ताह भर चलने वाले मेले की व्यवस्था करती हैं । कंगला मांझी की पुण्यस्मृति म आयोजित समारोह का संयोजन कर वे आदिवासी समाज में नवचेतना का संचार करती है । दूरदराज के क्षेत्रों में फैले उनके सैनिक श्रीमती फुलवा देवी के आदेश का ठीक उसी तरह पालन करतें हैं जिस तरह कंगला मांझी के आदेशों को मानते थे । प्राणों को हथेली पर लेकर चलने वाले ये सैनिक समाज में सुधार के लिए काम करतें है ।
फुलवा देवी सैनिकों को अपना पुत्र मानती हैं । उनका एक बेटा कुम्भदेव है जो दिल्ली कार्यालय की देखभाल करतें हैं । फुलवा देवी की भी तीन बेटियां हुई । बड़ी बेटी देवकी विवाहित हैं । वह अपने पति दीपक कुमार के साथ बघमार में संगठन के काम में हाथ बंटाती है । दो बेटियां देवकुमारी तथा राजकुमारी अभी अविवाहित है । वे बघमार में ही माँ के साथ रहकर संगठन के काम में हिस्सेदारी लेकर प्रशिक्षण पा रही है ।
अखिल भारतीय दंतेवाड़ी समाज समिति की सम्मानीय अध्यक्ष श्रीमती फुलवा देवी निरंतर यात्रायें करती हैं । छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त मध्यप्रदेस, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड तक उनकी समिति का विस्तार है ।
यह एक दुर्भाग्य जनक स्थिति है कि आदिवासियों के लिए उन्हीं के बीच रहकर जीवन भर काम करने वाले आदिवासी समाज में पूंजित कंगला मांझी जी को सरकार ने कभी अनुदान या अन्य सुविधा प्रदान नहीं किया । जबकि आदिवासियों में सामाजिक चेतना एवं जागृति के लिए उनके संगठन ने ऐतिहासिक काम किया है ।
नशा विरोधी अभियान चलाकर आदिवासियों को सुगठित होने के लिए कंगला मांझी ने आह्वान किया । सामाजिक राजनैतिक जागृति के साथ ही शैक्षणिक और प्रशंसनीय दक्षता प्राप्त कर आगे बढ़ने का आह्वान भी उन्होंने किया ।
आज आदिवासी समाज निरंतर आगे बढ़ रहा है । इस विकास के पीछे कंगला मांझी का संघर्ष है । उन्होंने अपने लंबे जीवन को इस समाज
के उत्थान के लिए झोंक दिया । वे चाहते तो स्वयं सांसद या विधायक बनने के लिये प्रयास करतें लेकिन अंधकार में डूबे वनों में साधनहीनता का शाप झेलकर जीवन यापन करने वाले आदिवासियों के लिए उन्होंने कंगला बनकर अलख जगाया । शायर ने ऐसे ही व्यक्तित्व के लिए लिखा है ........
अंधेरा मांगने आया था रोशनी हमसे,
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते
आज कंगला मांझी की पुण्य स्थली बघमार में एक आदिवासी शंकर के हाथों निर्मित प्रस्तर मूर्ति स्थापित है । वहीं ५ दिसंबर को सब श्रद्धालु पहुंचते है । श्रीमती फुलवा देवी मां की तरह सबका संरक्षण करती है । अब समय आ गया है कि ऐसे गतिशील, दृष्टि सम्पन्न समाज वादी आस्था पर चलने वाले आदिवासी संगठन की मुखिया अध्यक्ष श्रीमती फुलवादेवी को राज्य-अतिथि का दर्जा दिया जाए । यह मांग आदिवासी समाज ने की हैं आदिवासी समाज की ओर से प्रमुख निम्न मांगे रखी गई हैं .....
१. श्रीमती फुलवा देवी को राज्य-अतिथि के रूप में सम्मान दिया जाए ।
२. प्रेरणा स्थल बघमार गांव में अतिथि गृह, सभागार बने ।
‘. स्व. कंगला मांझी सरकार के घर से लगी जमीन संगठन को अपने विराट आयोजनों, सभागणों के लिए दिया जाए ।
आदिवासी समाज का यह विराट संगठन विशेष अवसरों पर जो गीत गाता है उसमें उनकी सांस्कृतिक विशेषता का प्रतीकात्मक वर्णन है । देवी-देवगणों की चर्चा है । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस गीत में राष्ट्र के सम्मान की बात कही गई है । यह अद्भुत गीत है जिसमें जातीय गौरव, क्षेत्रीय स्वाभिमान सबसे ऊपर राष्ट्रीयता है । राष्ट्रीय वंदना का यह गीत इस तरह है .....
क्रांतिवीर कंगला मांझी रचित गीत
देवगनों का देश हमारा ।
झंडा ऊंचा रहे हमारा ।।
पांच देव मथ पैदा आवे ।
पाताल लोक से मिट्टी लावे ।।
पांच देव मिल मथिन किये हैं ।
देव अंग से मौन निकालेहैं ।।
जागो प्यारे वीर गोंडवाना ।।
देव शिला लेख सीमा पहाड़ ।
बहती नदी और गिरता फूल ।।
मुख संग्रामपुर पड़ की पहाड़ ।
खण्डहरों में पैदा आये हैं ।।
यही है सुन्दर देश हमारा ।।
पुत्र बनाकर पैदा किये हैं ।
यही भूमि में कई वीर हुए हैं ।।
यही वीर संसार को तारन किये हैं ।
सारे भारत में गूंज किये हैं ।।
भारत वीरों का है यह नारा ।।
भगवान आयें बावन अंवतारा ।
भिल्ल आये देवगन अंवतारा ।।
आदि शक्ति ने वचन दिया है ।
आर्शीवाद हमें ही मिला है ।।
तभी पाये भारत देश हमारा ।।
आओ देवी वीरों आओ ।
आदिशक्ति का मान बढ़ाओ ।।
बड़ा देव में प्रेम लगाओ ।
विश्व विजय करके दिखलाओ ।।
झंडा गूंजे सारे संसारा ।।
देवगनों का देश हमारा ।।
झंडा ऊंचा रहे हमारा ।।
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