सुब्रत बसु : रंगकर्म के एक अध्‍याय का अंत

छत्‍तीसगढ अंचल के प्रख्‍यात रंगकर्मी एवं कई सिरियलों के निर्माता व निर्देशक, हिन्‍दी फिल्‍मों के शीर्ष निर्देशक अनुराग बसु के पिता सुब्रत बसु का निधन छत्‍तीसगढ सहित पूरे देश के लिए दुख का समाचार है ।



रायपुर फाफाडीह व रायपुर से भिलाई स्‍पात संयंत्र की सेवा स्‍वैच्छिक अवकाश लेकर 1987 से निरंतर मुम्‍बई में निवास करते हुए सुब्रत दादा नें देश में एक से बढकर एक नाटकों का मंचन किया है । उनके स्‍वयं के रंगमंचीय ग्रुप ‘अभियान’ के द्वारा कई महत्‍वपूर्ण नाटकों का मंचन किया गया है । छत्‍तीसगढ के भिलाई स्‍पात संयंत्र की कहानी पर आधारित स्‍टील बैले में सुब्रत दा का काम यादगार रहा है । भिलाई की जनता को इसके 40 से भी अधिक शो देखने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ है वहीं इस बैले का मंचन देश के अलग अलग शहरों में सफलता पूर्वक किया गया है जहां इसे बेहद सराहा गया है ।





सुब्रत बसु एवं अनुराग बसु लंबे समय तक भिलाई में रहे है उनके परिवार के अन्‍य सदस्‍य भिलाई में ही रहते हैं इस कारण पारिवारिक कार्यक्रमों में सुब्रद दादा व अनुराग बसु अक्‍सर भिलाई आते जाते रहे हैं । उनके स्‍थानीय निवासी बडे भाई शम्‍भूनाथ बसु का घर तब मित्रों, प्रसंशकों व मीडिया वालों के जमवाडे से दिन भर भरा रहता है, आज उस घर में वीरानी स्‍पष्‍ट भलक रही थी ।




उनके पारारिवारिक मित्रों नें बताया कि दादा के निवास गोरेगांव में 22 अगस्‍त की रात ब्‍लड प्रेसर की दवा लेने से भूल करने की वजह से सुबह उन्‍हें दिल का दौरा पडा एवं नानावटी के डाक्‍टरों नें सिर में क्‍लाट बताते हुए तत्‍काल आपरेशन किया था जिसके बाद से ही वे कोमा में चले गये थे, इसी हालत में वे 26 सितम्‍बर को आखरी सांस लिए ।



सुब्रत दादा नें छत्‍तीसगढ के रंगमंचीय कलाकारों जिस तरह से मदद किया है एवं उन्‍हें प्रेरणा दिया है उसे अंचल नहीं भुला सकता । अब भिलाई सहित संपूर्ण छत्‍तीसगढ सुब्रत दादा के संपूर्ण गुण एवं अस्तित्‍व को उनके होनहार पुत्र अनुराग बसु में ही निहार रहे हैं, क्‍योंकि छत्‍तीसगढ के रंगकर्म को नई दिशा व दशा देने में सुब्रत दा के स्‍थान पर मर्डर, मैट्रो, गैंगेस्‍टर, साया, तुमसा नहीं देखा, कुछ तो है व मीत जैसे सफलतम फिल्‍म देने वाले अनुराग बसु ही उनके खेवईया हैं ।

आदिवासियों पर आधारित एनिमेशन फिल्‍म


मघ्‍य भारत के आदिवासियों की कहानियों पर आधारित पांच एनिमेशन फिल्‍मों का निर्माण ब्रिटेन निवासी तारा डगलस नें किया है जिसका प्रदर्शन पूरे विश्‍व में रोड शो के द्वारा किया जा चुका है एवं सराहा जा चुका है । इस फिल्‍म को नेशनल जियोग्राफिक फिल्‍म फेस्टिवल, नेहरू सेंटर, स्‍कूल आफ ओरियंटल एंड अफ्रिकन स्‍टडीज, द रैडिकल बुक फेयर एडिनबरा और स्‍कार्टलैण्‍ड में दिखाया जा चुका है ।

हिन्दी, अंग्रेजी और हल्‍बी समेत आठ भाषाओं में उपलब्‍ध इन फिल्‍मों को भारत के विभिन्‍न आदिवासी क्षेत्रों में ब्रायन गिनीज चैरिटेबल ट्रस्‍ट द्वारा अपने आदिवासियों के लिए सर्मपित कार्यक्रम द टालेस्‍ट स्‍टोरी काम्‍पीटिशन के तहत उपलब्‍ध कराया गया है । छत्‍तीसगढ में यह आयोजन छत्‍तीसगढ पर्यटन एवं आर्ट होम संस्‍था के सहयोग से 27 सितम्‍बर को राजधानी रायपुर के राजभवन के पीछे स्थित ऐतिहासिक ‘मेसानिक लाज’ में किया गया । पूरे समाचार की जानकारी हमें मिल नहीं पाई है, आज नया रायपुर से भिलाई वाप आते समय हमारे एक मित्र नें इसकी जानकारी दी । घर आकर हमने इस सीमित जानकारी को नेट में खगालना आरंभ किया एवं जितनी जानकारी उपलब्‍ध हो सकी आप लोगों को प्रस्‍तुत कर रहे हैं फिल्‍म की कहानी व अन्‍य जानकारी आवारा बंजारा वाले संजीत त्रिपाठी जी यदि उक्‍त कार्यक्रम में उपस्थित हो पाये हों तो, अपनी टिप्‍पणी के द्वारा देवें तो यह पोस्‍ट पूर्ण हो जायेगा।

पांच फिल्‍मों में से एक ‘हाउ द एलिफेंट लोस्‍ट हिज विंग्‍स’ में छत्‍तीसगढ के बस्‍तर के पारंपरिक व 250 वर्षो से प्रसिद्ध आदिवासी शिल्‍पकला ‘ढोकरा शिल्‍प’ को थ्री डी एनिमेशन से जीवंत रूप में प्रस्‍तुत किया गया है एवं अंचल के पारंपरिक कहानी जिसमें पूर्व में हांथी के पंख हुआ करते थे किन्‍तु हाथी अपने आताताई स्‍वभाव के कारण अपना पंख खो दिया, को मोहक रूप से प्रस्‍तुत किया गया है ।

पांचो फिल्‍म में से ‘हाउ द एलिफेंट लोस्‍ट हिज विंग्‍स’ को पूरे विश्‍व में सराहा गया है जिसकी जानकारी अनेको वेब साईटों में उपलब्‍ध है किन्‍तु यह फिल्‍म मुफ्त में प्रदर्शन के लिए उपलब्‍ध नहीं होने के कारण हम इसे यहां प्रस्‍तुत नहीं कर पा रहे हैं किन्‍तु बस्‍तर के इस पारंपरिक एवं विश्‍व प्रसिद्ध कला के संबंध में नेट में उपलब्‍ध एक फीचर हम यहां जानकारी के लिए प्रस्‍तुत कर रहे हैं देखें बस्‍तर की पारंपरिक कला को जीवंत :

24 सितम्‍बर विश्‍व हृदय दिवस : क्‍या धडकता है आपका भी दिल





भारत में भी अब कम उम्र के लोग बडी तेजी से हृदयाघात से शिकार हो रहे हैं । भारी तादात में एंजियोग्राफी और बाईपास सर्जरी की जा रही है । बस थोडी सी सतर्कता से रख सकते हैं आप अपने दिल को चुस्‍त दुरूस्‍त ।

दिल का सबसे बडा दुश्‍मन है, स्‍ट्रेस । स्ट्रेस से बचना आसान नहीं है । स्‍ट्रैस के कारण मस्तिष्‍क से जो जैव रसायन स्‍त्रावित होते हैं, वे हृदय की पूरी प्रणाली को खराब कर देते हैं । स्‍ट्रैस से उबरने में भारतीय पारंपरिक योग चिकित्‍सा सौ प्रतिशत कारगर है ।

स्‍ट्रैस से उबरने में 'भ्रामरी प्राणायाम' एक चमत्‍कार की तरह कार्य करता है । हृदय को स्‍वस्‍थ रखने में ध्‍यान, धारणा प्रार्थना, सत्‍संग, मुद्रा आदि का भारी योगदान है । यह वैज्ञानिक शोधों से साबित हो चुका है कि आध्‍यात्मिक जीवन प्रणाली हृदय को स्‍वस्‍थ रखने की सबसे ठोस गारंटी है । बाईपास एवं एंजियोप्‍लास्‍टी आपको केवल लक्षणो से निजात दिलाती है । यह पुन: हार्ट अटैक नहीं होने की गारंटी नहीं है ।

तो हो जाएं तैयार आज विश्‍व हृदय दिवस है आज से भ्रामरी को अपने नित्‍यकृयाकलाप में कर लेवें शामिल ।




एक लडाई नंगे पांव : जिंदगीनामा

हरियाणा एवं छत्‍तीसगढ से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र हरिभूमि में प्रत्‍येक दिन समाचारों के साथ कुछ न कुछ फीचर पेज होता ही है, श्री द्विवेदी जी के हाथों में इस पत्र का कमान है । इसमें प्रत्‍येक दिन उत्‍कृष्‍ठ पठनीय सामाग्री का संकलन होता है प्रत्‍येक दिन अलग अलग विषयों में नियत एक पूरे पेज में सोमवार को क्षितिज में हमारे छत्‍तीसगढ के वरिष्‍ठ चिट्ठाकार जयप्रकाश मानस जी का एक कालम वेब भूमि भी आता है जिसमें इंटरनेट व अन्‍य तकनीकि जानकारी होती है, इसके गुरूवार को प्रकाशित चौपाल में हमारे एक और ब्‍लागर प्रो. अश्विनी केशरवानी का पूरे एक पेज का आलेख भी आया था । मैं समय समय पर इन पेजों को पढते रहता हूं इसी के बुधवार को जिंदगीनामा में ये मेरी लाईफ है कालम के अंतरगत सतीश सिंह ठाकुर के द्वारा लिखा एक जीवन वृत्‍त देखा, पढा और लगा कि इसे आप लोगों के लिए भी प्रस्‍तुत किया जाय । वैसे आपकी जानकारी के लिए मैं यह बता दूं कि नंगे पांव के इस सत्‍याग्रही से मैं चार वर्ष पूर्व रायपुर में बाल श्रमिकों पर आयोजित गैर सरकारी संगठनों के राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में मिला था उसके बाद बाल श्रमिक समस्‍या संबंधी विष्‍यों पर इनसे लगातार पत्र एवं अन्‍य माघ्‍यमों से संपर्क होते रहा है, आज इन्‍हें हरिभूमि भे देखकर खुशी हुई । पढे एक लडाई नंगे पांव :-

नंगे पांवों को हम देश के आम आदमी की पहचान माने या फिर उसकी दुरावस्‍था का प्रतीक । याद करें, वर्षों पहले भारत के राष्‍ट्रीय फुटबाल टीम को केवल इसलिए खेलने का मौका नहीं मिला था, क्‍योंकि उसके खिलाडियों नें जूते नहीं पहने थे । एक और घटना याद आती है, पेइचिंग एशियाड में राजपूताना रायफल्‍स के सैनिक दीनाराम नें बाधा दौड में नंगे पांव दौडकर रजत पदक जीता था, क्‍योंकि तब दीनाराम के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे उस दौड में प्रयुक्‍त होने वाले खास तरह के जूते खरीद पाते । इल दोनों घटनाओं की रोशनी में एक बात जो साफ दिखती है, वह है ऐश्‍वर्यशाली सत्‍ता का दोगलापन । उसे जनता के नंगे पांव रहने पर शर्म भी नहीं आती । व्‍यवस्‍था के इसी छली चरित्र को आईना दिखाने बीते सात सालों से एक शख्‍श नंगे पांव घूम रहा है । नंगे पांव सत्‍याग्रही के रूप में राजेश सिंह सिसोदिया इस भेदभव वाले परिवेश में बिलकुल नए ढंग से अपनी लडाई लड रहे हैं ।

सरगुजा के पहाडी इलाके ढौलपुर के बबोली गांव में राजेश सिंह सिसोदिया का जन्‍म हुआ । बचपन में ही मां बाप से अलग होकर ननिहाल में रहने वाले राजेश ने अपने शुरूआती दौर में ही अनुभव कर लिया था कि दोयम दर्जे के नागरिकों को किस तरह के सुख नसीब होते हैं । भेदभाव वाले व्‍यवहार से उनका पहला सबक घर में ही पड गया तो उनके अंदर प्रतिरोध की ताकत भी धीरे धीरे संचित होने लगी । पांचवी कक्षा के बाद वे सैनिक स्‍कूल रीवा में पडने गये । तो वहां के माहौल ने उनके प्रतिरोध के जस्‍बे को और भी फोर्स आकार दिया । दसवीं के बाद मेडिकल आधार पर सैनिक शिक्षा के लिये आयोग्‍य माना गया, दरअसल उनके एक हथेली में छह उंगलियां थी । रीवा का सैनिक स्‍कूल छूटा तो आगे की पढायी उन्‍होंने भोपाल से की । ऐसे वक्‍त में जब आम युवक कैरियर संवारने की चिंता करते हैं उनहोंने अपने लिये अलग तरह की भूमिका तय कर ली थी । बंधुवा मुक्ति मोर्चा के स्‍वामी अग्निवेश भोपाल से चुनाव लड रहे थे तब वे मोर्चा से जुडे उसके करीब एक डेढ साल बीतते बीतते बचपन बचाव आंदोलन से उनके शब्‍दों में कहें तो वे सम्‍पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में जुड गये यह सिलसिला 1999 तक चलता रहा ।

एक बडे संगठन से जुडकर और ठीकठाक वेतन पाकर भी राजेश सिंह एक द्वंद्व में जीते रहे । वे बताते हैं एक बार रेल यात्रा के दौरान उन्‍होंने एक नंगे बच्‍चे को यात्रियों से भीख मांगते देखा वह बच्‍चा मांगी हुई चीजों को लाकर अपनी उस मां को दे रहा था, जिस पर एक और दुधमुहे बच्‍चे को पालने की जिम्‍मेदारी थी । इस त्रासदपूर्ण द्रश्‍य ने उनके मस्तिष्‍क को कई तरह से मथना शुरू किया आखिर में वे इस नतीजे तक पहूंचे कि किसी बडे संगठन में काम करने के बजाय अब उन्‍हें अपने तई कोशिश करने की जरूरत है । नतीजतन 12 मार्च 1999 को उन्‍होंने नंगे पाव सत्‍याग्रह की घोषणा कर दी, शुरूआत में उन्‍हें सब ओर से हताशा ही मिली, यद्यपि तब बचपन बचाओ आंदोलन के प्रमुख कैलाश सत्‍यार्थी ने उनको अपना समर्थन दिया था । प्रारंभिक दौर में उन्‍होंने देश भर के बच्‍चों के लिए समान शिक्षा के एजेंडे को लेकर अपना कार्यक्रम शुरू किया । जब उन्‍हें विभिन्‍न क्षेत्रों से नैतिक समर्थन मिलने लगा । तो यह बात बचपन बचाओ आंदोलन के साथियों को राश नहीं आयी, उस समय तक यह संगठन ही रोजी रोटी का प्रबंध करता था । अंतत: उन्‍होंने अपना एक मात्र आश्रय को छोड दिया । वे बताते हैं कि इसके बाद के डेढ वर्ष उसके लिये मुश्किलों भरे रहे । यहां तक की आर्थिक दिक्‍कतों ने उन्‍हें बडे कर्जे में डुबो दिया । घर से उन्‍हें अलग होकर भी रहना पडा । पर नंगे पाव सत्‍याग्रह तब भी जारी रहा । इस दरम्यिान कनाडा के एक सवैच्छिक संगठन से सेव-दि- चिल्ड्रन उनकी मदद के लिए सामने आया ।

नंगे पांव सत्‍याग्रह एक अति कठिन रास्‍ता है । जिस पर चलने का साहस बिरले लोग ही करते हैं । इसके बाद भी आज देश भर से करीब बीस लोग उनके साथ आये हैं जो सीमित अवधियों में नंगे पांव रहकर उनके लडाई को आगे बढा रहे हैं । अभी उनके सत्‍याग्रह का कार्यक्षेत्र सरगुजा जिला है जहां वे जनमुद्रदों के लिए सीधा संघर्ष कर रहे हैं । मोटे तौर पर राष्‍ट्रीय स्‍तर के उनके एजेंडों में समान शिक्षा तो है ही, इसके अलावा वे रेलों में सामान्‍य श्रेणी के डिब्‍बों में बढोतरी, राष्‍ट्रीय पुलिस आयोग के गठन और छत्‍तीसगढ में भूमि आयोग गठित की मांग कर रहे हैं । वहीं वे बंद पडे उद्योगों की जमीनें वापस लेने की मांग भी राज्‍य सरकारों से कर रहे हैं ।

नंगे पांव रहते क्‍या-क्‍या तकलीफे पेश आई इस सवाल पर राजेश सिंह बताते हैं कि उनका सत्‍याग्रह मार्च के महिने में शुरू हुआ था उस साल की गर्मी उसके संकलप की परीक्षा लेने वाली थी । तपती जमीन पर चलने से उनके पांव में छाले पड जाते थे । पर उनके मन में यह ख्‍याल कभी नहीं आया कि वे यह संकलप छोड दे । शुरूआती दो साल के परेशानियों के बाद अब दिक्‍कत महसूस नहीं होती । अलबत्‍ता अंजान लोग जरूर उन्‍हें नंगे पांव देखकर अचरज होता है । कई तो यह भी पूछ बैठते हैं कि वे चप्‍पल कहीं भूल आये क्‍या । 40 साल की उम्र में करीब साढे सात साल को उन्‍होंने नंगे पांव ही गुजार दिए और उसकी यात्रा अब भी जारी है । इस दौर में छोटी-छोटी सफलताऐं भी उन्‍हें मिली पर अब भी वे निर्णायक युद्ध जितने की कोशिश में जुटे हुए हैं ।
(हरिभूमि का आभार)

दिल्‍ली सुख से सोई है नरम रजाई में : दिनकर



मेरे पास उपलव्‍ध 1967 की एक कविता संग्रह से मैं दिनकर जी की यह कविता उपलव्‍ध करा रहा हूं, इसके पन्‍ने फटे हुए थे इसलिए कविता जो अंश अस्‍पष्‍ट थे उसे मैं यहां प्रस्‍तुत नहीं कर पाया । यह कविता तत्‍कालीन परिस्थिति में लिखा गया था, दिल्‍ली वालों से क्षमा सहित प्रस्‍तुत है :-

भारत का यह रेशमी नगर – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

XXX XXX XXX

दिल्‍ली फूलों में बसी, ओस कणों से भींगी,
दिल्‍ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है ।
प्रेमिका कंठ में पडी मालती की माला,
दिल्‍ली सपनो की सेज मधुर रस-भीनी है ।


XXX XXX XXX

रेशम के कोमल तार, क्रांतियों के धागे,
हैं बंधे उन्‍हीं से अंग यहां आजादी के ।
दिल्‍ली वाले गा रहे बैठ निश्‍चेत मगन,
रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के ।

XXX XXX XXX


भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला,
भारत अब भी व्‍याकुल विपत्ति के घेरे में ।
दिल्‍ली में तो है खूब ज्‍योति की चहल पहल
पर, भटक रहा है सारा देश अंधेरे में ।


रेशमी कलम से भाग्‍य – लेख लिखने वालों,
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्‍त हो रोये हो ?
बीमार किसी बच्‍चे की दवा जुटाने में,
तुम भी क्‍या घर भर पेट बांध कर सोये हो ?

असहाय किसानों की किस्‍मत को खेतों में,
क्‍या अनायास जल में बह जाते देखा है ?
क्‍या खायेंगें यह सोंच निराशा से पागल,
बेचारों को चीख रह जाते देखा है ?

देखा है ग्रामों की अनेक रेभाओं को,
जिनकी आभा पर धूल अभी तक छायी है ?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक,
रेशम क्‍या साडी सही नहीं चढ पायी है ।


पर, तुम नगरों के लाल, अमीरी के पुतले,
क्‍यों व्‍यथा भगय-हीन की मन में लाओगे ?
जलता हो सारा देश, किन्‍तु होकर अधीर,
तुम दौड दौड कर क्‍यों आग बुझाओगे ।

चिंता हो भी क्‍यों तुम्‍हें गांव के जलने से ?
दिल्‍ली में तो रोटिंयां नहीं कम होती है ।
धुलता न अश्रु-बूंदों से आंखें का काजल,
गालों पर की धूलियां नहीं नम होती है ।

जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें,
आराम नई दिल्‍ली अपना कब छोडेगी ?

XXX XXX XXX

चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर,
दिल्‍ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में ।
है विकल देश सारा अभाव के तापों से,
दिल्‍ली सुख से सोई है नरम रजाई में ।

XXX XXX XXX

बहुराचौथ व खमरछठ : छत्‍तीसगढ के त्‍यौहार

भाद्रपद (भादो) का महीना छत्‍तीसगढ के लिए त्‍यौहारों का महीना होता है, इस महीने में धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्‍तीसगढ में किसान धान के प्रारंभिक कृषि कार्य से किंचित मुक्‍त हो जाते हैं । हरेली से प्रारंभ छत्‍तीसगढ का बरसात के महीनों का त्‍यौहार, खमरछठ से अपने असली रूप में आता है । इसके बाद छत्‍तीसगढ में महिलाओं का सबसे बडा त्‍यौहार तीजा पोला आता है जिसके संबंध में संजीत त्रिपाठी जी आपको जानकारी दे चुके हैं ।

छत्‍तीसगढ का त्‍यौहार खमरछठ या हलषष्‍ठी भादो मास के छठ को मनाया जाता है, यह त्‍यौहार विवाहित संतानवती महिलाओं का त्‍यौहार है । यह त्‍यौहार छत्‍तीसगढ के एक और त्‍यौहार बहुराचौथ का परिपूरक है । बहुरा चौथ भादो के चतुर्थी को मनाया जाता है यह गाय व बछडे के प्रसिद्व स्‍नेह कथा जिसमें शेर के रूप में भगवान शिव गाय का परीक्षा लेते हैं, पर आधारित संतान प्रेम का उत्‍सव है इस दिन भी महिलायें उपवास रखती हैं एवं उत्‍सव मनाती हैं ।

बहुरा चौथ के दो दिन बाद छठ को खमरछठ आता है, यह त्‍यौहार कुटुम्‍ब प्रेम का त्‍यौहार है । इस दिन प्रचलित रीति के अनुसार महिलायें हल चले हुए स्‍थान में नहीं जाती, हल चले हुए स्‍थान से उत्‍पन्‍न किसी भी प्रकार के अन्‍न या फल का सेवन इस दिन नहीं किया जाता । प्रात काल उठ कर महिलायें महुआ या करंज के पेड का दातून करती हैं, खली एवं नदी किनारे की चिकनी मिट्टी से सिर धोकर तैयार होती है । गांव के किसी प्रतिष्ठित व्‍यक्ति के घर के आंगन में 4 बाई 6 फिट का एक छोटा गड्ढा खोदा जाता है, जिसे ‘सगरी खनना’ कहा जाता है । उससे निकले मिट्टी से उसका पार बनाते हुए उसे तालाब का रूप दिया जाता है । उस तालाब के किनारे नाई ठाकुर द्वारा लाये गये कांसी के फूल, परसा के डंगाल व बेर की डंगाल व फूल आदि लगा कर उसे सजाया जाता है ।

दोपहर में पूरे गांव की महिलायें उस स्‍थान पर उपस्थित होती हैं एवं पारंपरिक रूप से छ: पान या परसे के पन्‍ने पर रक्‍त चंदन से शक्ति देवी का रूप बनाया जाता है, जिसकी पूजा विधि विधान से की जाती है उक्‍त बनाये गये देवी को निर्मित तालाब में चढाकर लाई, महुआ के फल, दूध, दही, मेवा व छुहारा आदि चढाया जाता है । पूजा के बाद पंडित जी से पारंपरिक रूप से प्रचलित पुत्र व कुटुम्‍ब प्रेम, ममत्‍व को प्रदर्शित करने वाले छ: कथा का महिलायें श्रवण करती हैं एवं छठ देवी का आर्शिवाद लेकर अपने अपने घर को जाती हैं । घर में जाकर सफेद मिट्टी में नये कपडे के तुकडे को भिंगो कर अपने पुत्र पुत्रियों के पीठ पर प्‍यार से पुचकारते हुए छ: बार मारती हैं ।

इस दिन महिलायें बिना हल चले स्‍थान से उत्‍पन्‍न अन्‍न ही ग्रहण करती हैं इसलिए तालाब के किनारे स्‍वत: उत्‍पन्‍न धान का चांवल वनाया जाता है जिसे पसहर कहते हैं । पसहर का चांवल व विभिन्‍न प्रकार के भजियों से निर्मित सब्‍जी एवं भैंस के दूध, दही व धी को फलाहार प्रसाद के रूप ग्रहण किया जाता है इस दिन गाय के दूध दही का प्रयोग भी वर्जित होता है । घर में बनाये गये भोजन मे से छ: दोने तैयार कर एक पत्‍तल में रख जाता है जिसमें से एक दोना गौ माता के लिए एक जल देवी के लिए निकाला जाता है बाकी बचे चार दोनो को प्रसाद के रूप में परिवार मिल बांट कर खाते है, महिलायें खासकर अपने व अपने परिवार के बच्‍चों को अपने पास बिठा कर दुलार से इस भोजन को खिलाती हैं । इस दिन गांव में माहौल पूर्णतया उल्‍लासमय रहता है ।

छत्‍तीसगढ में संयुक्‍त परिवार की परंपरा रही है, यहां की मिट्टी में आपसी भाईचारा कूट कूट कर भरा है, इसी भाव को प्रदर्शित करता यह त्‍यौहार महिलाओं में परिवार के पुत्र पुत्रियों के बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य व ऐश्‍वर्यशाली जीवन की कामना के भाव को जगाता है ।

लालकिला और ऋगवेद विश्‍व धरोहर एवं क्रूज पर्यटन : समाचार

लालकिला और ऋगवेद विश्‍व धरोहर की सूची में



ताज को विश्‍व के सात अजूबों में पहला स्‍थान मिलने के बाद जब यूनेस्‍कों ने दिल्‍ली के प्रसिद्ध लालकिले को विश्‍व धरोहर का दर्जा प्रदान किया है यह भारत के लिये गौरव का विषय है । भारतीय प्राचीन संस्‍कृति की एक और धरोहर ऋगवेद को यूनेस्‍को ने विश्‍व की धरोहर के रूप में स्‍वीकार किया है । विश्‍व की प्राचीन संस्‍कृतियों की साहित्यिक धरोहरों का खाता रखने वाले यूनेस्‍को के विश्‍व मेमोरी रिकॉर्ड में ऋगवेद की 30 पाण्‍डूलिपियों को शामिल किया गया है । यह हर भारतीयों के लिये गर्व की बात है ।





क्रूज पर्यटन का तेजी से बढता आकर्षण



नौका विहार के माध्‍यम से जल क्रीडाओं का आनंद अब तेजी से बढते हुए औद्योगिकीकरण के चलते धुंधला पडते जा रहा है । भारत सरकार क्रूज टूरिज्‍म को बढावा देने एवं विदेशी पर्यटकों के साथ साथ घरेलू पर्यटकों को भी आकर्षित करने के लिये कई कदम उठाने जा रही है ।

देश में साढे सात हजार किलोमीटर लम्‍बी तट रेखा पर बसे लगभग दो सौ बंदरगाह शीध्र ही पोत विहार के जरिये अपनी कमाई में इजाफा करेगा । पर्यटन मंत्रालय ने वर्ष 2010 तक हर साल दस लाख क्रूज पर्यटकों का लक्ष्‍य निर्धारित किया है । वर्तमान में लगभग 50 हजार पर्यटक प्रतिवर्ष क्रूज के माध्‍यम से भारत के विभिन्‍न बंदरगाह में आते हैं । इस बढते पर्यटक यातायात में वृद्धि से क्षेत्र के लिये रोजगार उपलब्‍ध हो सकेगा ।

देश में तेजी से बढते हुए पूंजीपतियों से भी इस पर्यटन के नये रूवरूप में जान आने की पूरी संभावना है । क्रूज शिपिंग को विकसित किये जाने हेतु पश्चिमी एवं पूर्वी तट को एक विशेष क्रूज सरकिट बनाया जा रहा है । यह सर्किट मुम्‍बई, गोवा, कोच्चि से लेकर पूर्व में तूति कोरिन बंदरगाह का होगा ।

देश के प्रमुख बंदरगाहों को विश्‍व स्‍तरीय मानकों के अनुरूप बनाने के लिये पर्यटन मंत्रालय कुल लागत का एक चौथाई या 40 करोड में से जो कम होगा अनदान देगा । इस तरह से क्रूज टूरिज्‍म के यातायात में वृद्धि कर भारत सरकार पर्यटन उद्योग में पूंजी निवेश को बढावा देने एक क्रांतिकारी कदम उठा रही है।

आलोक पुराणिक रविवारीय हरिभूमि पर

अपने चितपरिचित व लोकप्रिय व्‍यंगकार स्‍थापित चिट्ठाकार आलोक पुराणिक जी का एक व्‍यंग हरियाणा व छत्‍तीसगढ से एक साथ प्रकाशित दैनिक हरिभूमि के रविवारीय अंक में प्रकाशित हुआ है । इस प्रकाशन से छत्‍तीसगढ के सुधी पाठकों को आलोक जी के विशेष शैली के व्‍यंग को जानने व समझने को मिलेगा, हरिभूमि से साभार एवं आलोक जी को धन्‍यवाद सहित हम इसे चित्र रूप में प्रस्‍तुत कर रहे हैं

कृष्ण स्मृति के कुछ अंश : कृष्‍ण जन्‍म का रहस्‍य


कल रात से आचार्य रजनीश द्वारा लिखित 'कृष्‍ण स्‍मृति' धर में ढूढता रहा पर नही मिला, शायद किसी नें पढने लिया हो और लौटाया नहीं है । इस पुस्‍तक यानी चिंतन सागर नें मुझे सहज व सरल भाषा में कृष्‍ण से साक्षातकार कराया था, आज इसे पुन: पढने व पढाने की लालसा नें नेट में खोज किया तो वेबदुनिया में ही इसके कुछ अंश पा गया, प्रस्‍तुत है वेबदुनिया व ओशो इंटरनेशनल से साभार सहित :-


कृष्ण का जन्म होता है अँधेरी रात में, अमावस में। सभी का जन्म अँधेरी रात में होता है और अमावस में होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कुछ जन्म अँधेरे में ही होता है। एक बीज भी फूटता है तो जमीन के अँधेरे में जन्मता है। फूल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अँधेरे में होता है।

असल में जन्म की प्रक्रिया इतनी रहस्यपूर्ण है कि अँधेरे में ही हो सकती है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म होता है, वे सब गहरे अंधकार में, गहन अंधकार में होती है। एक कविता जन्मती है, तो मन के बहुत अचेतन अंधकार में जन्मती है। बहुत अनकांशस डार्कनेस में पैदा होती है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की बहुत अतल गहराइयों में जहाँ कोई रोशनी नहीं पहुँचती जगत की, वहाँ होता है। समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन अंधकार से अर्थ है, जहाँ बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुँचता। जहाँ सोच-समझ में कुछ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं सूझता है।


कृष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है। यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।


दूसरी बात कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ी है- बंधन में जन्म होता है, कारागृह में। किसका जन्म है जो बंधन और कारागृह में नहीं होता है? हम सभी कारागृह में जन्मते हैं। हो सकता है कि मरते वक्त तक हम कारागृह से मुक्त हो जाएँ, जरूरी नहीं है हो सकता है कि हम मरें भी कारागृह में। जन्म एक बंधन में लाता है, सीमा में लाता है। शरीर में आना ही बड़े बंधन में आ जाना है, बड़े कारागृह में आ जाना है। जब भी कोई आत्मा जन्म लेती है तो कारागृह में ही जन्म लेती है।


लेकिन इस प्रतीक को ठीक से नहीं समझा गया। इस बहुत काव्यात्मक बात को ऐतिहासिक घटना समझकर बड़ी भूल हो गई। सभी जन्म कारागृह में होते हैं। सभी मृत्युएँ कारागृह में नहीं होती हैं। कुछ मृत्युएँ मुक्ति में होती है। कुछ अधिक कारागृह में होती हैं। जन्म तो बंधन में होगा, मरते क्षण तक अगर हम बंधन से छूट जाएँ, टूट जाएँ सारे कारागृह, तो जीवन की यात्रा सफल हो गई।


कृष्ण के जन्म के साथ एक और तीसरी बात जुड़ी है और वह यह है कि जन्म के साथ ही उन्हें मारे जाने की धमकी है। किसको नहीं है? जन्म के साथ ही मरने की घटना संभावी हो जाती है। जन्म के बाद - एक पल बाद भी मृत्यु घटित हो सकती है। जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है। किसी भी क्षण मौत घट सकती है। मौत के लिए एक ही शर्त जरूरी है, वह जन्म है। और कोई शर्त जरूरी नहीं है। जन्म के बाद एक पल जीया हुआ बालक भी मरने के लिए उतना ही योग्य हो जाता है, जितना सत्तर साल जीया हुआ आदमी होता है। मरने के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए, जन्म भर चाहिए।


लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ एक चौथी बात भी जुड़ी है कि मरने की बहुत तरह की घटनाएँ आती हैं, लेकिन वे सबसे बचकर निकल जाते हैं। जो भी उन्हें मारने आता है, वही मर जाता है। कहें कि मौत ही उनके लिए मर जाती है। मौत सब उपाय करती है और बेकार हो जाती है। कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं, जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हारकर लौट जाती है।


वे सब रूपों की कथाएँ हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है।


मौत की धमकी एक दिन समाप्त हो जाती है। जिन-जिन ने चाहा है, जिस-जिस ढंग से चाहा है कृष्ण मर जाएँ, वे-वे ढंग असफल हो जाते हैं और कृष्ण जीए ही चले जाते हैं। लेकिन ये बातें इतनी सीधी, जैसा मैं कह रहा हूँ, कही नहीं गई हैं। इतने सीधे कहने का पुराने आदमी के पास कोई उपाय नहीं था। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।


जितना पुरानी दुनिया में हम वापस लौटेंगे, उतना ही चिंतन का जो ढंग है, वह पिक्चोरियल होता है, चित्रात्मक होता है, शब्दात्मक नहीं होता। अभी भी रात आप सपना देखते हैं, कभी आपने खयाल किया कि सपनों में शब्दों का उपयोग करते हैं कि चित्रों का?


सपने में शब्दों का उपयोग नहीं होता, चित्रों का उपयोग होता है। क्योंकि सपने हमारे आदिम भाषा हैं, प्रिमिटिव लैंग्वेज हैं। सपने के मामले में हममें और आज से दस हजार साल पहले के आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सपने अभी भी पुराने हैं, प्रिमिटिव हैं, अभी भी सपना आधुनिक नहीं हो पाया। अभी भी सपने तो वही हैं जो दस हजार साल, दस साल पुराने थे। गुहा-मानव ने एक गुफा में सोकर रात में जो सपने देखे होंगे, वही एयरकंडीशंड मकान में भी देखे जाते हैं। उससे कोई और फर्क नहीं पड़ा है। सपने की खूबी है कि उसकी सारी अभिव्यक्ति चित्रों में है।


जितना पुरानी दुनिया में हम लौटेंगे- और कृष्ण बहुत पुराने हैं, इन अर्थों में पुराने हैं कि आदमी जब चिंतन शुरू कर रहा है, आदमी जब सोच रहा है जगत और जीवन के बाबत, अभी जब शब्द नहीं बने हैं और जब प्रतीकों में और चित्रों में सारा का सारा कहा जाता है और समझा जाता है, तब कृष्ण के जीवन की घटनाएँ लिखी गई हैं। उन घटनाओं को डीकोड करना पड़ता है। उन घटनाओं को चित्रों से तोड़कर शब्दों में लाना पड़ता है। और कृष्ण शब्द को भी थोड़ा समझना जरूरी है।


कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश का केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो केंद्रीय चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें खिँचती हैं और आकृष्ट होती हैं।


शरीर खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का जन्म है।


कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है। महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौटकर निर्मित होती है।


पीछे लौटकर जब हम देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ घटते हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी बार-बार लिखती है।


हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएँ होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं, एक इंस्टीट्यूट हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों का सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है। इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में मैं कोई मूल्य नहीं मानता हूँ। कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे कलेक्टिव माइंड के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं, वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।
भगवान श्री कृष्‍ण के पावन जन्‍म की शुभकामनायें । नंद घर आनंद भयो जय कन्‍हैंया लाल की ।

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...