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क्या वे औसत दर्जे के परिणामों से संतुष्ट रहेंगे या .... ? : वेंकटेश शुक्ल

इस आलेख की पहली कड़ी : छत्‍तीसगढ़ सोने की चिडि़या यहां पढ़ें. 
सबसे बड़ी महत्ता रोजगार की
किसी भी अर्थ व्यवस्था का मापदंड है रोजगार की बहुलता। जब आम लोगों के पास रोजगार होता है तब वे घर लेते हैं, फर्नीचर खरीदते हैं, यातायात, मनोरंजन और कपड़ों - जूतों में पैसा खर्च करते हैं जिस से इन सब क्षेत्रों में रोजगार बढ़ता है। राज्य स्वयं एक बहुत बड़ा मालिक है किन्तु उसकी भी सीमा होती है अतिरिक्त रोजगार देने की। छत्तीसगढ़ में बहुत से लोग कृषि तथा वन पर निर्भर होकर किसी तरह जीवन-यापन करते हैं और उन्हें कहीं और अधिक आय मिले तो वे उसे सहर्ष स्वीकार करेंगे। छत्तीसगढ़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रोजगार बढ़ाने की। यह स्थापित तथ्य है कि 80 फीसदी रोजगार लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमियों के माध्यम से बनते हैं। बस मालिक, होटल मालिक, खुदरा व्यापारी, ठेकेदार जैसे उद्यमी कम हुनर वाले लोगों को रोजगार देते हैं जबकि कारखाने तथा उद्योग धंधे जैसे मध्यम श्रेणी के उद्यमी थोड़े बहुत हुनर वालों को काम देते हैं।

छत्तीसगढ़ कैसे बने सोने की चिडिय़ा? भाग - 2



वेंकटेश शुक्ल कैलिफोर्निया में एक कम्प्यूटर चिप डिजाईन सॉफ्टवेयर कंपनी के अध्यक्ष हैं।  छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले के अकलतरा में पढ़े, श्री शुक्ल  छत्तीसगढ़  प्रवासी भारतीय पुरस्कार 2007 से सम्मानित हो चुके हैं। 2002-03 में  छत्तीसगढ़ शासन के सलाहकार रह चुके हैं। वे अमरीका में रहते हुए भी  छत्तीसगढ़ के लगातार संपर्क में रहते हैं और इंटरनेट पर 'छत्तीसगढ़’ के  नियमित पाठक भी हैं। वे भारत में प्रतिभाशाली और जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाई  में मदद करने वाले एक संगठन में भी सक्रिय हैं। उनका यह लंबा लेख छत्तीसगढ़  जैसे राज्य को एक अंतरराष्ट्रीय खनिज-देशों के साथ जोड़कर देखता है  –संपादक, छत्तीसगढ़.



http://www.dailychhattisgarh.com से साभार

शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि लघु और मध्यम श्रेणी के ज्यादा से ज्यादा उद्यमी छत्तीसगढ़ की ओर आकर्षित हों जो छोटे मोटे कारखाने, व्यापार, उद्योग और संयंत्र स्थापित करें और, जब तक ये कानून को न तोड़ें, उनके काम में कम से कम बाधा आये। टाटा, मित्तल, इनफ़ोसिस ये सब बड़े रोजगारी हैं और इन सबको जरूर बुलाना चाहिए। मगर राज्य तभी सफल होगा जब मेरे भोपाल वाले मित्र जैसे उद्यमी यहाँ आएंगे। जब ऐसे उद्यमी प्रदेश में आते हैं तो अखबारों में सुर्खियाँ नहीं छपतीं जो टाटा के आने में छपती हैं मगर ऐसे लोगों को राज्य में लाना ज्यादा बड़ी उपलब्धि है क्योकि रोजगार समस्या का यही समाधान है कि हजारों लाखों इस तरह के लघु और मध्यम श्रेणी के उद्यमी और व्यापारी आएं।
छत्तीसगढ़ को अगर तेजी से प्रगति करना है तो ऐसे लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमियों को आकर्षित करना होगा। यह काफी नहीं है कि बिजली, पानी और रोड की सुविधा बाकि राज्यों के मुकाबले अच्छी है। अगर ये सुविधाएं काफी होतीं तो आज केरल भी अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह सफल होता। शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिये कि प्रदेश को आसपास के प्रदेशों के मुकाबले प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिले और रोजगार सृजन करने वाले दूसरे राज्यों को छोड़कर छत्तीसगढ़ आएं।
विलम्ब कम करें रोजगार बढ़ाने के लिए
छत्तीसगढ़ के पास एक स्वर्णिम अवसर है उद्यमियों एवं व्यापारियों को आकर्षित करके रोजगार बढ़ाने का। रोजगार बढ़ाने की रामबाण दवा है- धंधे लगाने और चलाने में होने वाली देरी को कम से कम करना। हांगकांग में केवल बीस दिनों के भीतर उद्योग लगाने की अनुमति मिल जाती है जबकि भारत में औसतन 89 दिन लगते हैं। कुछ देरी केंद्र शासन के कारण होती है किन्तु ज्यादा से ज्यादा देरी राज्य स्तर की संस्थाओं के कारण होती है। इसे कम करें और देखें इसका परिणाम।
शुरू होने के बाद, उद्यमों और व्यापारों की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है करारों (कांट्रेक्ट) को लागू करने में देरी। सिंगापोर में करार को लागू करने में मात्र 120 दिन लगते हैं जबकि भारत में, वित्त मंत्रालय में सलाहकार कौशिक बासु के अनुसार, 1420 दिन लगते हैं कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते लगाते। दूसरी बाधा तब होती है जब चेक बाऊंस होते हैं और भुगतान नहीं होता। यद्यपि चेक बाऊंस होने पर कानून बना है किन्तु रोते धोते ये सब मामले पहुंचते हैं न्यायालयों में जहाँ सालों लगे रहेगा केस। दुबई में चेक बाऊंस का मामला एक महीने में निपट जाता है और तीन साल की कैद हो सकती है। विलम्ब को दूर करने में सिंगापोर, दुबई और हांगकांग जग माहिर हैं। दुनिया भर के लोग इन देशों में आते हैं मगर कोई बेरोजगारी नहीं। देरी कम कीजिये छत्तीसगढ़ में और देखिये कैसे देश भर के उद्यमी, निवेशक और व्यापारी यहाँ आने की मारामारी करते हैं।
विलम्ब कम कैसे हो- जहाँ होना चाहिए वहाँ से शासन लापता है-
1. न्यायालयों को और सशक्त करें। न केवल जज और स्टाफ ज्यादा हों बल्कि विशेष न्यायालयों की स्थापना की जाये जो केवल उद्योग / व्यापार सम्बन्धित विवाद पर फोकस करें जैसे कि करारनामे, चेक बाऊंस के विवाद और अन्य आर्थिक अपराध। भारत में न्यायपालिका पर खर्च सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी एन पी) का मात्र 0.3 फीसदी है जबकी छत्तीसगढ़ 0.4 फीसदी खर्च करता है। इससे भी ज्यादा न्यायपालिका पर खर्च करना प्रदेश के लिए बहुत फायदेमंद होगा। दूसरे राज्य इस तथ्त को या तो नहीं समझते या उनके पास न्यायपालिका पर खर्च बढ़ाने के किये पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। सिंगापोर न्यायपालिका पर 1.2 फीसदी खर्च करता है। यदि छत्तीसगढ़ न्यायपालिका पर अधिक निवेश करे जिससे करारनामे शीघ्रता से लागू हों और चेक बाउंस के मामले जल्दी निपट जाएँ तो पूरे भारतवर्ष में यह राज्य निवेशकों, उद्यमियों और व्यापारियों के लिए स्वर्ग बन जायेगा और रोजगार की बहुलता में देरी नहीं होगी।
2. प्रदेश में निवेश की क्या प्रक्रिया है यह आसान और स्पष्ट होना चाहिए और उस पर अमल होना चाहिए। मेरे एक मित्र अध्यक्ष हैं एक अमेरिकी कंपनी के जिसके हैदराबाद में करीब 1000 इंजीनियर हैं। वे हैदराबाद में आसमान छूती कीमतों तथा यातायात में दिक्कतों से परेशान थे। मैंने उन्हें सलाह दी कि अपने उद्योग बढ़ाने के लिए छत्तीसगढ़ जाएँ और कुछ उच्च अधिकारियों से मिलें। ये वर्ष 2008 के शुरुआत की बात है। उस बिचारे ने मेरी बात मान कर रायपुर की दो यात्राएं कीं, चिलचिलाती धूप में अधिकारियों से मिलने के लिए घंटों बाहर खड़े रहे ताकि उन्हें ऑफिस के लिए एक-दो एकड़ जमीन ऐसी जगह मिल जाए जहाँ इंजीनियर जाने के लिए तैयार हों। मगर किसी ने भी यह नहीं बताया कि काम कैसे होगा। बस यहाँ से वहाँ उन्हें भेजते रहे। तंग आकर वह चले गए तमिलनाडु जहां एक नोडल ऑफिस जमीन, बिजली, पानी, इण्टरनेट, और प्रदूषण जैसे सारे कामों का एक जगह इंतजाम करता है। जहां उद्यमी जाते हैं वहीं रोजगार भी जायेगा।
विलम्ब कम कैसे हो: जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ शासन घुसा बैठा है- 1. यह आवश्यक है की नौकरशाही के निचले स्तर, जिसका सामना आम आदमी से होता है, पर अंकुश रखा जाये। ऐसे नीति नियम न बनाये जाएँ जिसका दुरूपयोग व्यक्तिगत हित के लिए हो सके।उदाहरण के तौर पर हर दवाई की दुकान को कुछ वर्षों में अपना लाइसेंस रिन्यू कराना पड़ता है जिसमें दूकानदार का समय बर्बाद होता है और घूस खिलानी पड़ती है। क्या ऐसा नहीं किया जा सकता है कि लाइसेंस रिन्न्युअल अपने आप हो जब तक दूकान के खिलाफ कोई विश्वसनीय शिकायत न हो? एक बस मालिक की तो और भी परेशानी है। कभी पुलिस वाले, सभी परिवहन विभाग वाले और कभी श्रम विभाग वाले पीछे पड़े रहते हैं।
मुझे बताया गया है कि बस चलाने के सैंकड़ों कायदे कानून हैं और पुलिस चाहे तो किसी को भी कभी भी पकड़ कर चालान कर सकती है क्योकि किसी न किसी कायदे कानून की अवहेलना तो पक्की है। फिल्म कलाकार गोविंदा की एक फिल्म है,'चल चला चल' जिसमें एक मेहनती बस मालिक की नौकरशाही के हाथों की परेशानी का बड़ा मार्मिक प्रदर्शन है। अगर रोजगार बढ़ाना है तो ऐसे सभी नियमों को हटाना होगा जिनसे न तो शासन को फायदा होता है और न ही आम जनता को, बल्कि फायदा होता है केवल बेईमान बाबुओं और इंस्पेक्टरों को। ऐसे नियमों को हटाएँ तो रोजगार द्रुत गति से बढ़ेगा। इन नियमों की लिस्ट बनाना आसान है, सम्बंधित व्यापार संघ बड़ी खुशी से लिस्ट बना देंगीं।
2. शासन को ऐसी सभी जगह से हट जाना चाहिए जहाँ उसकी मौजूदगी से जनता को नुकसान ज्यादा और फायदा कम होता है। एकाधिकार प्राप्त संस्थाएं जैसे हाऊसिंग बोर्ड या डेवेलपमेंट अथॉरिटी जिन्हें नगरीय भूमि पर एकाधिकार है, आर्थिक प्रगति में ब्रेक लगाती हैं। शुरुआत में ये विकास संस्थाएं सक्षम होती हैं, नेक इरादों से इनकी शुरुआत होती है किन्तु पांचेक वर्षों के भीतर ही जब प्रारंभिक प्रबंधन टीम बदलती है, ये संस्थाएं भ्रष्टाचार का गढ़ बन जाती हैं। इन संस्थाओं से न तो शासन को और न ही जनसाधारण को कोई फायदा मिलता है। फायदा रहता है केवल इनमे काम करने वालों का और उनको जिनकी पहुँच है इन कर्मचारियों तक। ऐसी संस्थाएं विकास की गति को रोकती हैं, गलत परियोजनाओं में निवेश करती हैं जिनका कुल मिलाकर बुरा असर रोजगार पर होता है। कोई भी नई एकाधिकार प्राप्त अथॉरिटी शुरू करते समय ही उसकी समाप्ति की तिथि भी निर्धारित होनी चाहिए। जहाँ भी एकाधिकार दिया जाता है उसका दुष्प्रयोग निश्चित है, आर्थिक विकास में बाधा निश्चित है। इसलिए आर्थिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ भी एकाधिकार समाप्त हुआ है, परिणाम अच्छे ही हुए हैं। छत्तीसगढ़ शासन ने राज्य परिवहन निगम को बंद किया और आज केवल एक ही वर्ग इस निर्णय से अप्रसन्न हैं - निगम के पूर्व कर्मचारी। शासन को घाटे के उपक्रम में निवेश नहीं करना पड़ता और आम जनता को विभिन्न दरों पर यातायात की अच्छी सुविधा मिल रही है। जब से मोबाइल फोन और निजी फोन कंपनियां आईं हैं, आम आदमी को फोन विभाग के कर्मचारियों से परेशान नहीं होना पड़ता, फोन कनेक्शन के लिए आठ वर्षों का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। हाऊसिंग बोर्ड या डेवेलपमेंट अथॉरिटी के बजाय अगर विकास की प्राथमिकताएं तय हों, स्पष्ट नियम हों जिनका पालन हो तो ज्यादा मकान जल्दी बनेंगे और नए मकान मालिक फर्निचर, सज्जा सामग्री, इत्यादि पर खर्च करेंगे जिससे विकास दर तीव्र होगी और रोजगार बढ़ेगा।
खनिज उत्खनन के लिए विश्व मान्य पद्धतियां अपनाएं बोत्स्वाना का उदाहरण अपनाएं - माइनिंग कंपनियों से लंबी अवधि का अनुबंधन करें और एक समय की लाइसेंस फ़ीस के बजाय मुनाफे में हिस्सा लेते रहें। जिम्बाब्बे, कांगो या झारखण्ड की तर्ज पर खनिज उत्खनन का सौदा नहीं करना चाहिए। जिसमे एक बार की लाइसेंस फ़ीस के एवज में लंबे समय तक उत्खनन का अधिकार दे दिया जाता है। मधु कोड़ा जैसे आज के निर्णयकारी तो अपनी जेब भर लेते हैं लेकिन राज्य को इसका लंबे समय तक नुकसान उठाना पड़ता है। 'ग्लोबल उत्खनन उद्योग ट्रांसपरेंसी पहल' को अपनाएं जो पारदर्शिता का मापदंड रखता है। जिस तरह सूर्य की रोशनी संक्रमण के विरुद्ध वरदान है उसी तरह पारदर्शिता भ्रष्टीकरण के खिलाफ कारगर है।
उपसंहार
छत्तीसगढ़ राज्य के पास देश के संपन्नतम राज्यों में से एक बनने का अवसर है, पर्याप्त संभावनाएं हैं। शासन की नीतियों में आमूलचूल क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है सही नीतियों की, लीक से हटकर चलने के राजनैतिक मनोबल की, और निर्णयों को कार्यान्वित करने की क्षमता। क्या छत्तीसगढ़ के शासकों में इस चुनौती को उठाने की सामर्थ्य है? क्या वे औसत दर्जे के परिणामों से संतुष्ट रहेंगे या प्रदेश को सोने की चिडिय़ा बनाने के सुयोग का लाभ उठाएंगे?

वेंकटेश शुक्ल
इस आलेख की पहली कड़ी : छत्‍तीसगढ़ सोने की चिडि़या यहां पढ़ें. 
(इस लेख से सहमति, असहमति या टिप्पणी लेखक को हिन्दी या अंग्रेजी में vnshukla@yahoo.com पर भेजी जा सकती है।)

छत्तीसगढ़ एक सोने की चिडिय़ा? : वेंकटेश शुक्ल

छत्तीसगढ़ के पास देश के सम्पन्नतम राज्यों में से एक बनने का अवसर है, पर्याप्त संभावनाएं हैं। शासन की नीतियों में आमूलचूल क्रांतिकारी बदलाव के बिना यह सम्भव है। यह संभव है अगर ऐसी समझ आ जाए कि किसी भी देश या प्रांत को समृद्धता भाग्य से नहीं मिलती। भाग्य से मिली हुई खनिज संपत्ति, जलवायु, संस्कृति, भौगोलिक स्थिति अथवा प्राकृतिक संसाधन के बल पर ही कोई देश या राज्य समृद्ध नहीं होता है। समृद्धता का कारण हमेशा राज्य या देश द्वारा जाने या अनजाने में चुनी हुई नीतियाँ होती हैं। चूँकि यह तर्क परंपरागत शासन के विरुद्ध है, इस का गहराई से विश्लेषण करना होगा। इस लेख में पहले देश विदेशों के ऐतिहासिक अनुभवों का वर्णन किया जाएगा और इन अनुभवों से कुछ निष्कर्ष निकाले जाएंगे। फिर यह प्रयास रहेगा कि इन निष्कर्षों को ध्यान में रखते हुए, किस तरह की नीतियाँ और किस तरह का परिवर्तन छत्तीसगढ़ को करना चाहिए ताकि यह राज्य सोने की चिडिय़ा बन जाए। 
छत्तीसगढ़ एक सोने की चिडिय़ा? 
भाग - 1

वेंकटेश शुक्ल कैलिफोर्निया में एक कम्प्यूटर चिप डिजाईन सॉफ्टवेयर कंपनी के अध्यक्ष हैं। छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले के अकलतरा में पढ़े, श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ प्रवासी भारतीय पुरस्कार 2007 से सम्मानित हो चुके हैं। 2002-03 में छत्तीसगढ़ शासन के सलाहकार रह चुके हैं। वे अमरीका में रहते हुए भी छत्तीसगढ़ के लगातार संपर्क में रहते हैं और इंटरनेट पर 'छत्तीसगढ़’ के नियमित पाठक भी हैं। वे भारत में प्रतिभाशाली और जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाई में मदद करने वाले एक संगठन में भी सक्रिय हैं। उनका यह लंबा लेख छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को एक अंतरराष्ट्रीय खनिज-देशों के साथ जोड़कर देखता है –संपादक, छत्तीसगढ़.
http://www.dailychhattisgarh.com से साभार
 
क्या खनिज बाहुल्य से समृद्धता आती है?
हमेशा नहीं। अर्थशास्त्रियों की जमात में एक मुहावरा प्रचलित है - 'रिसौर्स कर्स’ अथवा संसाधनों का अभिशाप। ज्यादातर देखा यह गया है कि जिस देश में जितनी ज्यादा खनिज संपत्ति है वहां की जनता उतनी ही ज्यादा बदहाल है। कांगो, जिम्बावे, नाइजीरिया और अंगोला जैसे देश जिनमें दुनिया की सबसे ज्यादा खनिज संपदा है, वहीँ के नागरिक सबसे ज्यादा परेशान हैं भुखमरी, हिंसा, निरक्षरता और बीमारियों से। यह स्पष्ट है कि इन देशों में साधनों की कमी नहीं है मगर फिर भी आम जनता में हाहाकार मचा हुआ है क्योकि इन सब देशों के कर्ता-धर्ताओं ने ऐसी नीतियाँ अपनायीं जिनसे उनकी जेब भरी किन्तु देश का बुरा हाल हुआ। केवल नीतियों से जमीन आसमान का फर्क देखिये। इन सब देशों का एक पड़ोसी देश है बोत्सवाना। अपनी स्वतंत्रता के समय 1963 में, बोत्सवाना इस धरती के सबसे गरीब देशों में था। लेकिन अगले 33 सालों तक यह देश 9 फीसदी फीसदी सालाना की शानदार दर से विकसित होता गया। दुनिया भर में लोग एशियन टाइगर (कोरिया, थाईलैंड, मलेशिया) से प्रभावित हैं कि किस तरह इन देशों ने अस्सी के दशक में जबरदस्त तरक्की करके अपनी जनता की आर्थिक स्थिति को उभारा। मगर बोत्सवाना की प्रगति दर ने इन सबों को पीछे छोड़ दिया। आज ये हाल है कि बोत्सवाना की प्रति व्यक्ति आय भारत से सात गुनी है। इतना अंतर क्यो? मोटे तौर पर अपने पड़ोसियों से इतना अंतर बोत्सवाना की दो नीतियों का कमाल है। पहली बात तो ये कि बोत्सवाना ने उत्खनन कंपनियों के साथ अपने रिश्ते कुछ अलग तरह से गढ़े। उनको लम्बी अवधि के उत्खनन अधिकार दिए किन्तु मुनाफे में 50 फीसदी की हिस्सेदारी ली। उत्खनन कंपनी के दूरगामी हित देश के हित से मिले हुए हैं। ऐसा नहीं कि एक बार किसी तरह से उठा पटक कर लाइसेंस ले लीजिए और फिर लूट सके तो लूट। उत्खनन कंपनियां ताबड़तोड़ उत्खनन की लूट के बजाय, टिकाऊ उत्खनन में निवेश करने में रूचि रखती हैं। दूसरे देशों में उत्खनन कम्पनियों ने मुनाफे की दीर्धकालीन हिस्सेदारी के बजाय उत्खनन के अधिकार हासिल करने के लिए रिश्वत दिये लेकिन गृह युद्ध, तथा सरकारी नीतियों के बदलने के डर से इन कंपनियों ने ताबड़तोड़ उत्खनन किया। कंपनी और देश के हित बिलकुल विभिन्न थे।
दूसरा अंतर यह कि बोत्सवाना के संस्थापक नेताओं ने राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक भागीदारी का इनतेजाम किया और खनिजों से मिलने वाली स्थिर आय का शिक्षा में बड़े पैमाने पर निवेश किया। इसके अलावा आर्थिक नीतियों में उदारीकरण का रास्ता अपनाया। मिसालन बोत्सवाना में कीमती जमीन पर एकाधिकार वाली हाऊसिंग बोर्ड या विकास प्राधिकरण जैसी कोई चीज नहीं है। ताज्जुब नहीं है कि ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल बोत्सवाना को अफ्रीकी देशों में सबसे कम भ्रष्ट देश मानता है।
तेल निर्यातक देशों के भी अलग-अलग अनुभव हैं। वेनिजुएला, नाइजेरिया, मेक्सिको जैसे तेल निर्यातक देशों में आबादी गरीब है जबकि नॉर्वे जैसे देश में प्रतिव्यक्ति आय विश्व में सर्वोच्च है। वेनिजुएला में समाजवाद के नाम पर सत्ता का एक व्यक्ति में केंद्रीयकरण बरबादी के लिए जिम्मेदार है। नाइजेरिया सर्वाधिक रोगविकृत प्रकरण है जहाँ शासकवर्ग राज्य तिजोरी को लूट रहे हैं। मेक्सिको में कुप्रबंध की भरमार है। भारत से अमेरिका फोन करने में प्रति मिनट सात रुपए लगते हैं किन्तु अमेरिका के पड़ोसी देश मेक्सिको से अमेरिका फोन की दर 100 रु प्रति मिनट से भी ज्यादा है। भारत में भी छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड व्यापक प्राकृतिक सम्पदा से संपन्न हैं लेकिन सबसे ज्यादा गरीबी भी इन प्रांतों में है। खनिज संपदा अपने आप में समृद्धि की गारन्टी नहीं हो सकती। समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि खनिज संपत्ति का किस व्यवस्था से दोहन किया जाता है, उससे मिलने वाली आय को किस तरह बांटा जाता है और उसे किस तरह निवेशित किया जाता है - जन सामान्य के दीर्घकालिक हित में या किसी ताकतवर गुट के स्विट्जरलैंड के बैंक अकाउंट में।
क्या इतिहास, संस्कृति, जलवायु, या भौगोलिक परिस्थिति कोई मायने रखती है?
दो अपेक्षाकृत नए देशों की मिसाल देना दिलचस्प होगा। दोनों एक जैसे इतिहास, संस्कृति और साधन-संपन्नता को लेकर आगे बढ़े और समृद्धि के ऊंचे स्तरों को दोनों देशों ने एक ही वक्त पर छुआ। लेकिन एक की अर्थव्यवस्था उखड़ती चली गई, और एक सदी के बाद आज भी उसका लुढ़कना जारी है। फर्क, एक देश द्वारा चुना गया समृद्धि का रास्ता टिकाऊ नहीं था, और देश में सत्ता के ढांचे ने वक्त के साथ सुधार नहीं होने दिए। शुरुआत में अमेरिका और अर्जेंटीना में बहुत सी समानताएं थीं। यूरोप से आए प्रवासियों से आबाद, परस्पर 50 वर्षों में अपने अपने औपनिवेशक मालिकों से स्वतंत्र, दोनों के पास विशाल भू-क्षेत्र और समृद्ध जनतंत्र था। 1929 तक दोनों दुनिया के दस सबसे संपन्न देशों में शामिल थे। उस समय कोई यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता था की अगले 20 वर्षों में अमेरिका दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था के रूप में उभरेगा, और अर्जेंटीना अपने कर्ज भी अदा नहीं कर पाएगा, और तानाशाही की गिरफ्त में चला जाएगा। अपने मौजूदा संकट के बावजूद, अमेरिका आगे आने वाले 50 सालों के लिए दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में सुस्थापित है। दूसरी ओर अर्जेंटीना एक संकट से दूसरे संकट के झटके खाता हुआ, समय- समय पर अपने नागरिकों की बचत, और आज भी उसे कर्ज देने की बेवकूफी करने वाले विदेशियों के पैसे डुबाए जा रहा है।
फर्क क्या था? यह अपने आप में एक लंबा विषय है। यहाँ कहने के लिए ये पर्याप्त है कि अंतर था उनकी नीतियों में। अमेरिका ने एक बड़ा मध्यम वर्ग बनाया और उसके जरिये औद्योगिक प्रगति की लेकिन किसी को भी ज्यादा पावरफुल नहीं बनने दिया। अर्जेंटीना ने बढ़ावा दिया जमींदारों और अफसरों को जिन्हें मेहनत से कमाई करनी आती नहीं थी पर अर्थ व्यवस्था पर उनका पूरा नियंत्रण था। जैसे ही 1929 का विश्वव्यापी आर्थिक संकट आया और शासन ने कुछ शक्तिशाली वर्गों के पक्ष में निर्णय लिए, क्रांति के बादल छा गए।
हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है। जो कोई भी गुजरात और उत्तर प्रदेश गया है वह वहाँ की सरकारों द्वारा चुनी हुई नीतियों के अलग-अलग परिणामों को समझ सकता है। आजादी के 25 वर्षों के भीतर ही गुजरात विकास के प्रक्षेप पथ पर आ चुका था जिसे मोदी काल ने और भी गति प्रदान की है। देश में किसी भी उद्यमी या उद्योगपति से दोनों राज्यो में से किसी एक को चुनने को कहिए तो ज़्यादातर लोग गुजरात को चुनेंगे। मेरा एक मित्र भोपाल में टर्बाइन बना कर पूरे विश्व में निर्यात करता है। कम लागत और अच्छी गुणवत्ता के लिए उसकी साख है। अपने उत्पाद की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वह 100 कामगारों की क्षमता वाली एक और फैक्ट्री डालना चाहता है।
क्या यह तर्कसंगत नहीं लगता कि वह अपनी दूसरी फैक्ट्री भी भोपाल में ही लगाये? लेकिन नहीं। वह इसे गुजरात में लगा रहा है। मध्यप्रदेश में रोजगार सृजन करने वालों पर होने वाले इंस्पेक्टर राज के हमले वह बहुत झेल चुका है। मंजूरी, अनापत्ति प्रमाणपत्र, और दूसरी चीजों के लिए तमाम तरह के बाबुओं के धक्के भी खा चुका है। मेरे मित्र का पूरा जीवन भोपाल में बीता है। गुजरात में न तो कभी उसने कोई व्यापार किया है, न ही वहाँ उसका कोई रिश्तेदार रहता है लेकिन फिर भी वह गुजरात का रुख कर रहा है। मध्यप्रदेश को बेहतर भौगोलिक परिस्थिति का फायदा है, लेकिन वह अपनी भ्रष्ट और अक्षम नौकरशाही पर काबू नहीं कर सकता। गुजरात की नीतियां बेहतर हैं और उन पर वह बेहतर ढंग से अमल करता है। मध्यप्रदेश ने 100 लोगों को नौकरी से वंचित कर दिया और गुजरात ने अपने 100 और नागरिकों को नौकरी दिला दी। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दो पड़ोसी प्रदेशों में से एक देश के सबसे संपन्न प्रदेशों में है और दूसरा सबसे गरीब प्रदेशों में गिना जाता है। इन सब उदाहरणो से साफ हो गया है कि इतिहास, संस्कृति, भौगोलिक स्थिति इत्यादि समरूप हों तब भी देश प्रदेशों की समृद्धि में जमीन आसमान का अंतर हो सकता है।
जिनके पास कुछ भी नहीं वो क्या गरीबी से बच सकते हैं?
उन जगहों का क्या, जिनके पास कोई खनिज संपदा नहीं है, भौगोलिक दृष्टि से भी कोई फायदा नहीं है, और जिनके पास पर्यटन स्थलों की ऐसी कोई विरासत भी नहीं है। आप सोचेंगे कि ऐसे देश तो गरीब ही होंगे। ऐसा जरूरी नहीं। सिंगापोर, हांगकांग, और दुबई को देखें। इन तीनों देशों की आर्थिक नीतियाँ काफी आकर्षक हैं। ये देश दुनियां में सबसे ज्यादा रहने लायक जगहों में माने जाते हैं। केवल दस किलोमीटर दूर चले जाएँ इन शहरों से, तो मकान का किराया दस गुना कम हो जाएगा लेकिन लोग दस गुना किराया देने के लिए तैयार रहते हैं ताकि सिंगापुर, हांगकांग और दुबई में रह सकें। इन शहरों में अपराध की दर कम है, सड़कों पर गंदगी नहीं है। व्यापार के लिए कम अड़चनें और कानून का सख्त अमल है। इन तीनों देशों में न तो कोई खनिज संपदा है, न ही कोई प्राकृतिक सुंदरता और जलवायु भी साधारण है। फिर भी ये देश विश्व के सबसे उन्नत देशों में से हैं। इन सब उदाहरणो से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। किसी देश या प्रदेश की सम्पन्नता केवल इस पर निर्भर नहीं है की उसके पास कितनी खनिज सामग्री है, कितनी नैसर्गिक संम्पत्ति है, कैसी जलवायु है, कैसी भौगोलिक स्थिति है या कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक लाभ है या नहीं। सम्पन्नता सबसे ज्यादा इस बात पर निर्भर करती है कि शासन की नीतियाँ कैसी हैं, किसके भले के लिए बनती हैं और अगर जन हित का ख्याल है तो उन नीतियों को बदलने की या निष्पादित करने की क्षमता है या नहीं।
ऊंची जगहों पर ईमानदारी से कोई फर्क नहीं पड़ता
यह निगलना भले ही मुश्किल हो लेकिन सचाई की बात तो ये है कि मुख्यमंत्री, मुख्यसचिव और पुलिस महानिदेशक चाहे कितने भी ईमानदार क्यो न हों, आम जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात का पड़ता है कि क्या इन पदासिनों में काबलियत है कि निचले स्तर की बेलगाम नौकरशाही को नियंत्रण में रख कर शासन की नीतियों का पारदर्शक रूप से पालन हो। प्रताप सिंह कैरों जो पंजाब के मुख्यमंत्री थे कोई गुणो की खान नहीं थे किन्तु 11 वर्षों के भीतर उन्होने पंजाब में सिंचाई, उद्योग और शिक्षा की ऐसी आधारशिला रखी कि आने वाले समय में राज्य की लगातार प्रगति होती रही। कैरों के थोड़े आगे पीछे समकालीन मुख्यमंत्री रहे उत्तरप्रदेश में गोबिंद वल्लभ पंत, संपूर्णानंद और सुचेता कृपलानी तथा मध्यप्रदेश में रहे रविशंकर शुक्ल , मंडलोई और काटजू जैसे दिग्गज राष्ट्रीय स्तर के नेता। हालाँकि ये सब नेता सम्माननीय हैं और कैरों के मुकाबले ये सब महात्मा लगते हैं लेकिन ये सब अपने प्रदेशवासियों का जीवनस्तर उठाने में लगभग असफल रहे। 
भारत के बाहर भी यही अनुभव है कि सर्वोच्च स्तर पर ईमानदारी आर्थिक समृद्धि का आश्वासन नही है। 1995 के ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के अनुसार, चीन और इंडोनेशिया दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में गिने गए थे इसके बावजूद ये दोनों देश सबसे ज्यादा आर्थिक प्रगति भी कर रहे थे। इंडोनेशिया के जनरल सुहार्तो एक अत्यधिक भ्रष्ट शासक थे किन्तु उनके नेतृत्व में वह देश गरीबी को पीछे छोड़कर एक मध्यम आय वर्गी देश बन गया। उन्होने भ्रष्टाचार को रोका नहीं -उसका केन्द्रीकरण कर दिया और हर तबके के लिए रेट पक्का कर दिया। पर विकास के किसी भी काम में देरी बिलकुल बर्दाश्त नहीं की। इनसे बिलकुल अलग थे तंजानिया के राष्ट्रपति जुलिअस नयेरेरे जिनकी ईमानदारी और कटिबद्धता की ख्याति दूर-दूर तक फैली। मगर नयेरेरे के लंबे कार्यकाल ने देश का बेड़ागर्क कर डाला। उनके कार्यकाल की शुरुआत में तंजानिया कृषि क्षेत्र में अफ्रीका महाद्वीप के सबसे बड़े निर्यातक देशों में एक था परंतु उनके शासन के अंत तक सबसे बड़ा आयातक देश बन गया। समाजवाद की तलाश में उन्होने किसान और व्यापारी पर भरोसा न कर एक बड़ी नौकरशाही व्यवस्था बनाई, लंबे चौड़े नियम और कानून बनाए। कृषि और बाजार को नियंत्रित करने के लिए नौकरशाही को तमाम अधिकार दिए पर उसे लगाम न लगा पाए। परिणाम हुआ विकेन्द्रीकृत भ्रष्टाचार- हर नौकरशाह का जेब भरने का अपना तौर। कभी देरी, कभी अनिश्चितता। तंजानिया की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। खुद तो ईमानदार थे किन्तु नयेरेरे साहेब के नीचे की पूरी व्यवस्था न केवल भ्रष्ट थी बल्कि अक्षम और मनमानी करने वाली। जनरल सुहार्तो की व्यवस्था थी भ्रष्ट किन्तु सक्षम और सुनिश्चित। इंडोनेशिया में कुछ अंडों की चोरी हुई मगर तंजानिया में मुर्गी को अंडे निकालने की ही इजाज़त नहीं मिली। इंडोनेशिया की जनता मध्यमवर्गीय हो गई और तंजानिया की जनता का हाल बद से बदतर हो गया। दुनिया भर का अनुभव यह है कि सबसे ज्यादा हानिकारक भ्रष्टाचार उस तरह का होता है जो विकेन्द्रीकृत हो, पता नहीं कौन बाबू और कौन छोटे साहब कितना लेंगे, काम होगा की नहीं, होगा तो कब होगा।

वेंकटेश शुक्ल
इस आलेख की दूसरी कड़ी : छत्‍तीसगढ़ कैसे बने सोने की चिडि़या यहां पढ़ें.  
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