संदर्भ: भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष

लोकप्रियता की अजब पहेली राजेश खन्ना
कुछ अनछुए आत्मीय प्रसंग
विनोद साव

साल 1969 से 1974 तकरीबन पॉंच सालों का यह एक ऐसा दौर था जिसमें हमारे हिस्से में राजेश खन्ना आए। हम हाई स्कूल के छात्र फिल्मी दर्शक के रुप में राजेश खन्ना बैच के छात्र थे, जबकि वे हम स्कूल के लड़कों से दस-बारह साल बड़े रहे होंगे लेकिन हमारे वे एक ऐसे प्रिय पात्र हो गए थे कि वे हम सबको अपने साथ पढ़ने वाले किसी मित्र की तरह लगा करते थे। हम पर राजेश खन्ना का प्रभाव कितना गहरा था इसका एहसास तब हुआ जब हमें स्कूल की लड़कियॉं शर्मिला टैगोर और मुमताज की तरह दिखने लगी थीं। हमें ऐसा लगता कि हमारी सूरत किसी ऐसे हीरो से मिल रही है जिसे हमने ‘आराधना या ‘कटी पतंग’ में देखा हो। हमारे सिर के बालों के बीच थोड़ी बाॅयीं ओर मांग अपने आप निकलने लग गई थी। अपनी मुचमुची मुस्कान के साथ हम आॅखें झपका कर बातें करने में मशगूल हो जाते थे। हमने डबल सिलाई वाले शर्ट पहने। धोती और पाजामा के साथ नहीं बल्कि पेंट के उपर कुरता पहनने का नया शौक चर्राने लगा था, जिसे गुरु शर्ट कहा जाता था। उनके पहने कोट में पहली बार फ़र वाले कॉलर दीखने लगे थे। जिस लड़के के चेहरे पर खुरदुरी बरहट होती वह तो और भी राजेश खन्ना की तरह रुमानी लगा करता। हमारी आवाज में वही आत्मीयता और अपनापन आने लगा था जो उन दिनों सिनेमाहालों में गूंजा करती थी। यात्रा के समय हम ट्रेन में खिड़की के पास बैठते तब हमारे भीतर ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ के बोल गूंजने लगते। तब राजेश नाम जो कि कचरे के अम्बार की तरह फैला हुआ नाम था अकस्मात ही चमकदार हो उठा और हर राजेश नामधारी इन्सान को हम राजेश खन्ना समझकर देखा करते थे। देश के हर लड़के के उपर राजेश खन्ना का भूत सवार था और हर लड़की के सपने में राजेश खन्ना।

‘अमरप्रेम’ का वह दृश्य याद आ रहा है जिसमें शर्मिला टैगोर से मिलने के लिए राजेश खन्ना पत्तल में समोसे और चटनी लेकर आया करते थे। वह बारह बजे का मैटिनी-शो था। इंटरवल करीब डेढ़ बजे के आसपास होना था। हम काॅलेज के मित्र फिल्म देख रहे थे। इस दृश्य का ऐसा असर पड़ा कि इंटरवल में हम तीन मित्र मिलकर दर्जन भर समोसे खा गए। हमने समोसे खाना भी राजेश खन्ना से सीखा।

राजेश खन्ना एक बार हमारे शहर दुर्ग आ गए थे कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने। उनकी चुनावी आम सभा हमारे घर के पास पद्मनाभपुर स्थित मैदान में थी। शहर में यह पता चला कि वे लड़कियाॅ जो सोलह बरस की उमर में अपने जिस लवर बॉय राजेश खन्ना की दीवानी थीं, वे सभी उनके आगमन के समय चालीस-ब्यालीस बरस की हो गई थीं, लेकिन अपने प्रिय नायक के अपने शहर में आने की खबर ने उनमें झुरझुरी पैदा कर दी। उन्हें सहसा विश्वास नहीं हो पाया कि उनके दौर के रुपहले परदे का एक महानायक उनके शहर के किसी मैदान में अपनी आशिक अदाओं में बोलेगा। वे उस कालखंड में विचरण करते हुए कब उस चुनावी आम सभा के सामने आकर खड़ी हो गईं उन्हें खुद ही होश नहीं रहा था। ऐसी भारी भीड़ उन प्रौढ़ महिलाओं की दिखी थी जो अपनी किशोरावस्था में इस सम्मोहक नायक के लिए सिनेमाहालों की ओर भागा करती थीं। आज भागकर वे इस मैदान में पहुंच गई थीं। सुपर स्टार उस दिन सफेद कुरते और पाजामे में थे। अभिनेता के नहीं एक नेता के लिबास में। उन्होंने अपना भाषण देने के बाद जोर से आवाज लगाई ‘भाइयो...आप लोग अपना बहुमूल्य वोट साहू साहब को दें।’

‘कौन सा साहू... यहॉं तो सभी साहू हैं।’ उस समय दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस, भाजपा और बसपा तीनों प्रमुख दलों के उम्मीदवार साहू थे। तब उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी जागेश्वर साहू का हाथ उठाकर कहा ‘इन्हें अपना वोट दें ...यही है असली साहू...।’

मैं शाम को अपने कार्यालय से घर आया। तब मेरे छोटे बेटे अमिय ने पुलकते हुए बताया था कि ‘पापा हम तो आज राजेश खन्ना से मिले हैं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा।’ उसने सारा वृतांत कह सुनाया। वह चुनावी आमसभा के पास वाले स्कूल में छठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। स्कूल से छुट्टी होने के बाद वह चुनावी मंच की ओर दौड़ गया था और मंच के सामने जाकर खड़ा हो गया। अपना भाषण देने के बाद राजेश खन्ना जब मंच की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे तब पास खड़े एक मिडिल स्कूल के बच्चे को स्कूल यूनिफार्म में देखकर वे प्रफुल्लित हो गए और स्नेह से अपना हाथ उसके सिर पर रखते हुए आगे बढ़ गए थे।


कभी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘धर्मयुग’ के बाल-जगत स्तंभ में बच्चों के लिए साक्षात्कार देते हुए उन्होंने बताया था कि ‘एक बार एक नाटक में उन्हें दरबान की भूमिका दी गई थी जिसमें एक छोटा सा डॉयलाग बोलने में उन्हें पसीना छूट गया था।’ आगे चलकर यही वो कलाकार है जिसकी प्यार से लबरेज आवाज को सुनने के लिए दर्शक हमेशा तरसते थे। तब उनकी फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ ने बच्चों का मन मोह लिया था। उनकी ज्यादातर फिल्में पारिवारिक और भावना प्रधान होती थीं। किसी भी किरदार में वे अपने दोस्ताना अंदाज में छा जाते थे। वे आज के नायकों की तरह अंडरवर्ड में स्टेनगन लेकर दौड़ने वाले हीरो नहीं थे। अपने समय के उम्दा निर्देंशकों ऋषिकेश मुखर्जी, वासु भट्टाचार्य, असित सेन, शक्ति सामन्त, दुलाल गुहा और यश चोपड़ा के वे चहेते नायक थे। वे सदाबहार देव आनंद की शैली के कलाकार थे। चाल-ढाल, पहनाव-ओढ़ाव, रुप सौन्दर्य और अन्दाज में रुमानी पन, संवाद अदायगी का अपना अलग ढंग - ये कुछ ऐसी समानताएँ थीं जो इन दोनों में एक जैसी थीं। दोनों की लबों पर किशोर कुमार की आवाज खूब फबती थी। देव साहब ने संगीतकार एस.डी.बर्मन को स्थापित किया तो राजेश खन्ना ने आर.डी.बर्मन को।

कुछ दिनों पहले भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर शाहरुख खान ने एक सम्मान समारोह का आयोजन करवाया था और उसमें राजेश खन्ना के साथ दिलीपकुमार और कई मशहूर कलाकारों को बुलाया गया था। बूढ़े हो चुके, मंच पर शांतचित्त बैठे राजेश खन्ना को जब बोलने के लिए आमंत्रित किया गया तब वहॉं उनके खड़े होते ही हर्ष और उल्लास की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने अपनी फिल्म ‘दाग’ की वह भावपूर्ण कविता सुनायी ‘आज मैं हूँ जहॉं कल कोई और था, यह भी इक दौर है और वह भी इक दौर था... मेरे दोस्त मैं तो कुछ भी नहीं।’ यह यश चोपड़ा निर्देशित ‘दाग’ के एक दृश्य की लम्बी कविता का अंश है जिसमें नगर निगम में मेयर के चुनाव जीतने के बाद जब उनके सम्मान में कार्यक्रम रखा जाता है वहॉं यह कविता नायक द्वारा सुनाई जाती है। उसी कविता को जब आज वे अपने सम्मान में सुना रहे थे तब समारोह स्थल तालियों और सीटियों से गूँज उठा था। यह दिखा कि आज भी उनके चाहने वालों में एक अतृप्ति और छटपटाहट बाकी है, वह प्यास बाकी है जो उनके समय में थी। आज भी चैनलों में और आर्केस्ट्रा पार्टियों में सबसे ज्यादा उनके सिने गीतों को देखे सुने जाने की उद्दाम लालसा भरी है। दिल अभी पूरी तरह भरा नहीं है।

आज उनके प्रशंसक भी साठ बरस के आसपास हैं और राजेश खन्ना सत्तर के करीब। पिछले बरस मुम्बई गया था। जब टूरिस्ट बस में घूम रहे थे तब बस अचानक राजेश खन्ना के मकान के सामने रुक गई थी। गाइड ने बताया कि ‘काका कभी कभी काला चश्मा पहने यहॉं अपनी छत पर बैठकर अखबार पढ़ते रहते हैं।’ उनके मकान का नाम ‘आशीर्वाद’ है। इस मकान को उन्होंने राजेन्द्र कुमार से खरीदा था तब इस मकान का नाम ‘डिम्पल’ था। सिनेमा की नायिका डिम्पल नहीं राजेन्द्र कुमार की बेटी का नाम भी डिम्पल था। कुँआरे राजेश खन्ना ने जब इस मकान को खरीदा तब मकान का नाम बदलकर ‘डिम्पल’ से ‘आशीर्वाद’ कर दिया। तब उन्हें मालूम नहीं था कि उनके जीवन में कोई डिम्पल नाम की नायिका आवेगी और उनके साथ ब्याही जावेगी।


हमारी टूरिस्ट बस उस मकान ‘आशीर्वाद’ के सामने खड़ी थी। हम बस की खिड़कियों से झांककर देख रहे थे। सामने अरब सागर में अठखेलियॉं करती उसकी लहरें और समुद्र के सामने एक उजड़ा हुआ-सा मकान। फिल्म ‘दाग’ में गाई गई उनकी कविता की तरह। शिखर पर पहुंचना आसान होता है पर वहॉं टिके रहना कितना कठिन। राजेश खन्ना ने अपने एक छोटे संस्मरण में यह लिखा था कि ‘मुझे यह भय सताने लगा था कि आज जिस शिखर पर मैं हूँ और कल कहीं उस शिखर से उतार दिया जाउँ तब मेरे लिए जीना कितना भयावह होगा। इस भय से मैं अँधेरी रात में अपने घर के सामने समुद्र में घुस गया था, उसमें डूब जाना चाहता था। पर मरना भी मेरे हाथों में नहीं था।’

उनके मकान के सामने एक छोटी लॉन है। मकान का मुख्य प्रवेश द्वार खुला हुआ था और भीतर सुपर-स्टार की एक बड़ी पोट्रेट लगी हुई थी जो बाहर से भी साफ दिखलाई दे रही थी। पोट्रेट में वे अपनी उसी मुस्कान पर थे जिस पर उनके लाखों चाहने वाले फिदा थे। इस चित्र में वे अपना गुरु कुरता पहने हुए हैं। पेंट के उपर इस कुरते को पहनने का चलन उन्हीं से हुआ था। यह चित्र उनकी सबसे सार्थक फिल्म ‘आनंद’ से लिया गया है ‘जिंदगी कैसी है पहेली’ वाला गीत गाते हुए दृश्य। हिन्‍दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार, हर दिल अजीज अभिनेता जिसने लोकप्रियता की एक इतिहास बदल देने वाली उंचाई को प्राप्त किया था, उस राजेश खन्ना की दगी में आज ये कैसी पहेली छाई हुई है इसे कोई नहीं बूझ पा रहा है।


विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग, छत्तीसगढ
मो. 9407984014


20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं। आरंभ में विनोद जी के आलेखों की सूची यहॉं है।
संपर्क मो. 9407984014, निवास - मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
ई मेल -vinod.sao1955@gmail.com

दाने-दाने को मोहताज लोकगायिका : पत्रिका में प्रकाशित शेखर झा की रपट

रायपुर। लोककला व लोक कलाकारों के संरक्षण के लिए करोड़ों रूपए खर्च करने वाले छत्तीसगढ़ में लोक कलाकारों के सामने खाने के लाले पड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ी लोकसंस्कृति को देशभर में प्रसिद्घि दिलाने वाली 68 वर्षीय लोक गायिका किस्मतबाई देवार की किस्मत क्या रूठी, सरकार भी इस कलाकार से रूठी हुई है।

"चौरा मा गोंदा रसिया" लोक गीत से प्रसिद्ध किस्मत की मारी किस्मतबाई लकवा से पीडित हैं और इस वजह से बोल और चल नहीं पातीं। लिहाजा, उनकी बड़ी बेटी दुर्ग के रेलवे स्टेशन पर भीख मांगकर मां का भरण-पोषण और इलाज करा रही है। प्रदेश के लोक कलाकारों ने मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को किस्मतबाई की इस स्थिति से अवगत कराया था। उनकी खस्ता हालत को देखते हुए मुख्यमंत्री ने फरवरी-2012 में उन्हें 40 हजार रूपए की सहायता राशि मंजूर की। साथ ही संस्कृति विभाग ने भी प्रतिमाह डेढ़ हजार रूपए पेंशन देने की घोषणा की। लेकिन आज चार माह बाद भी किस्मतबाई को न तो सहायता राशि मिली और न ही पेंशन। किस्मतबाई देवार ने लोकगायिकी के माध्यम से देशभर में छत्तीसगढ़ को पहचान दी।

उन्होंने विश्वविख्यात रंगनिदेशक स्व. हबीब तनवीर के साथ कई नाटकों में लोकगायन किया व प्रस्तुतियां दीं। वही किस्मतबाई इन दिनों दुर्ग की देवार बस्ती में दुर्दिन काट रही है। उनकी चार बेटियां जतन, रतन, कीर्तन और सबसे छोटी विर्तन है। बड़ी बेटी जतनबाई देवार बस्ती व रेलवे स्टेशन पर भीख मांगकर अपनी मां का पेट भरती है।

संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बनाई पार्टी : छत्तीसगढ़ी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए किस्मतबाई ने 70 के दशक में "आदर्श देवार पार्टी" की शुरूआत की। पार्टी के माध्यम से रायपुर, रायगढ़, बिलासपुर, कांकेर के अलावा कई विभिन्न प्रांतों में प्रस्तुति देती थी। पार्टी के शुरूआती दिनों में गिने-चुने कलाकार हुआ करते थे, लेकिन कुछ महीनों बाद पार्टी में कलाकारों का आना शुरू हो गया। हालत खराब होने के बाद संस्था बंद हो गई।

सरकार क्यों करती है घोषणा? : किस्मतबाई की पेंशन के सम्बंध में संस्कृति विभाग के अधिकारियों से कलाकार बात करने के लिए जाते हैं, तो विभागीय अधिकारी बात करने से कतराते हैं। लोकगायिका रमादत्त जोशी का कहना है कि घोषणा के बाद भी सरकार पैसा नहीं दे पाती, तो घोषण ही क्यों करती है? किस्मतबाई ने अपना पूरा जीवन लोककला व लोकसंस्कृति के लिए समर्पित कर दिया, लेकिन आज जब किस्मतबाई को लोगों की जरूरत है, तो कोई भी साथ चलने को तैयार नहीं है।


ये गाने हैं चर्चित-
चौरा मा गोंदा रसिया, मोर बारी मा पताल रे...
चल संगी जुर मिल कमाबो रे...
करमा सुने ला चले आवे गा, करमा तहूं ला मिला लेबो...
मैना बोले सुवाना के संग
रे मैना बोले...


किस्तमबाई प्रसिद्ध लोकगायिका हैं। उनकी ओर से आवेदन आता है, तो जरूर मदद की जाएगी। बात पेंशन की करें, तो विभाग की ओर से कलाकारों को हर महीने 1500 रूपए पेंशन दी जाती है। आवेदन आने पर किस्मतबाई को मुख्यमंत्री सहायता कोष या अन्य किसी मद से सहायता राशि दी जाएगी।
बृजमोहन अग्रवाल,
संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ़


पेट भरने के लिए मांगती हूं भीख-
किस्मतबाई की बड़ी बेटी जतनबाई ने बताया कि घर में न राशन है और न ही मां के इलाज कराने के लिए रूपए। सरकार ने पैसा देने की घोषणा तो की थी, लेकिन चार माह बीतने के बाद भी हाथ में कुछ नहीं आया है। रेलवे स्टेशन व देवार बस्ती में भीख मांगने के बाद बड़ी मुश्किल से सिर्फ एक समय का पेट भरता है।


शेखर झा

पूर्व प्रकाशन —

लोक गायिका 'किस्मत बाई देवार' इलाज को मोहताज
(6 जुलाई 2011 को देशबंधु में प्रकाशित रपट)

रायपुर । सिकोलाभाठा दुर्ग निवासी छत्तीसगढ़ की जानी-मानी लोकगायिका व देवार डेरा की प्रमुख कलाकार किस्मतबाई देवार इन दिनों गंभीर रूप से बीमार से बीमार चल रही हैं। पक्षाघात से पीड़ित इस लोकगायिका के पास कला की पूंजी तो है पर इलाज के लिए मोहताज है। न उन्हें संस्कृति विभाग से पेंशन मिलती है, न किसी की तरह की मदद। आर्थिक विपन्नता में जैसे-तैसे दिन गुजार रही इस कलाकार की हालत देख अंचल की लोकगायिका रमादत्त जोशी ने लोककलाकारों की ओर से संस्कृति विभाग के आयुक्त नरेन्द्र शुक्ला को इस बाबत् 28 जून को एक पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई है। गंभीर रूप से पीड़ित मां की हालत देख उनकी बेटी जियारानी ने कोरबा में अपने पास सहारा दिया है। 68 वर्षीय किस्मतबाई देवार को चलने-फिरने में काफी दिक्कत हो रही है। बोलने में तकलीफ के बाद भी वो हिम्मत नहीं हारी हैं। देवार दादरा, ठुमरी, भजन, गीत, लोकगीत गाने में सिद्धहस्त किस्मत बाई देवार का नाम पहली पंक्ति के कलाकारों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। आठ वर्ष की उम्र से गीत-संगीत और कलाकारी से नाता जोड़ने वाली किस्मतबाई की गुरू बरतनीन बाई रहीं। उनके सानिध्य में रहकर काफी कुछ सीखने का मौका मिला। बाद में उन्होंने आदर्श देवार पार्टी नाम से मंडली बनाकार कार्यक्रम देना शुरू किया। तब मंचीय प्रस्तुति के दौरान रात-रात भर लोग उनके गाये गीतों का आनंद उठाते। आदर्श देवार पार्टी के माध्यम से किस्मतबाई देवार ने रायगढ़, बिलासपुर, कांकेर, संबलपुर, समेत प्रदेश के लगभग सभी स्थानों पर कार्यक्रम प्रस्तुत किया। जानकारों का कहना है कि न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि उत्तरप्रदेश, बनारस में भी उनकी गायिकी को लोगों ने काफी सराहा। 1971 में दाऊ रामचंद देशमुख ने चंदैनी गोंदा में किस्मत बाई की कला को प्रोत्साहित करने का मन बनाया। उस समय चंदैनी गोंदा सांस्कृतिक जागरण के उद्देश्य को लेकर लोकप्रिय था। जानकारों का कहना है कि अपने जमाने में किस्मत बाई एक बेहतरीन नर्तकी रहीं। गायन को पुश्तैनी पेशा मानने वाली अंचल की वरिष्ठ लोकगायिका के गाये गीत काफी लोकप्रिय हुए। आकाशवाणी रायपुर से उनके गीतों का प्रसारण सुनने श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग उत्साहित रहता।

उनके गाये गीत 'चौरा में गोंदा रसिया मोर बारी मा पताल रे चौरा मा गोंदा' को लोग आज भी नहीं भूले। इसके अलावा 'चल संगी जुर मिल कमाबो रे '... और 'करमा सुने ला चले आबे गा करमा तहूं ला मिला लेबो', मैना बोले सुवाना के साथ रे मैना बोले... काफी पसंद किया गया।

कलाकारों की प्रतिक्रिया-
दुर्ग निवासी वरिष्ठ लोककलाकार कृष्ण कुमार चौबे कहते हैं कि जीवन भर कला के प्रति समर्पिमत कलाकारों को विषम परिस्थितियों में मदद मिलना चाहिए। न सिर्फ संस्कृति विभाग वरन् सामाजिक संगठनों की भी जिम्मेदारी बनती है कि मुसीबत के समय कलाकार को आर्थिक व मानसिक रूप से संबल देने पहल करें। यही नहीं प्रदेश की तथाकथित म्युजिक कंपनियां जो लोककलाकारों के हित में बातें करती हैं, उन्हें भी किस्मत बाई देवार जैसे और भी जरूरतमंद कलाकारों को मदद करनी होगी। हमारे यहां संस्कृति विभाग में भी बड़ा घालमेल नजर आता है, खासकर ऐसे कलाकारों को पेंशन मिल जाता है जो आर्थरिक दृष्टि से सक्षम हैं और बड़े मजे से कार्यक्रम भी कर रहे हैं। पर अशक्त कलाकारों को मदद करने जब बात आती है तो कई तरह के बहाने ढूंढे जाते हैं। अच्छा तो ये हो कि जमीनी स्तर पर काम होना चाहिए।

लोकमंचों पर एक लंबे अरसे से जुड़े रहने वाले लोककलाकार, अभिनेता विजय मिश्रा की राय में किसी भी क्षेत्र के कलाकार के मदद के लिए सरकारी पहल ही पर्याप्त नहीं है। दूसरे सक्षम कलाकारों को भी इस दिशा में आगे आना होगा। मीडिया भी इन जरूरतमंद कलाकारों की खबर प्रमुखता से प्रकाशित करे, क्योंकि हमने देखा है कि अभी कुछ समय पहले नाचा के वरिष्ठ कलाकार पद्मश्री गोविंद निर्मलकर की हालत जब बिगड़ी तो इस खबर को सबसे पहले मीडिया ने ही लोगों के सामने लाया। बाद में संस्कृति विभाग ने मदद की पहल की। वही बात अंचल के मशहूर लोकगायक शेख हुसैन के समय दुहराई गई, जो कि गरीबी के चलते अपना इलाज करा पाने में असमर्थ थे। ऐसे और भी जरूरतमंद कलाकार दूर-दराज के ग्रामीण अंचलों में रहते हैं, जिन तक न तो विभाग के अधिकारी पहुंच पाते हैं और न कोई मददगार। इसलिए बहुत गंभीरता से इस दिशा में मिलजुलकर प्रयास करना होगा।

महानदी लोककला मंच के संचालक व अंचल के वरिष्ठ लोककलाकार श्रीधर वराडे की राय में किस्मतबाई देवार जैसे कलाकार बिरले ही मिलेंगे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कला के प्रति समर्पित कर दिया। ऐसे कलाकारों को यदि इलाज के लिए मदद मांगनी पड़े, इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है। नया थियेटर में गायिका के रूप में उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई। प्रदेश की इस ख्यातिनाम लोकगायिका को 20 अगस्त 2008 को राजीव स्मृति सम्मान से नवाजा गया। स्वर्गीय महासिंग सम्मान भी इन्हें मिला है। ऐसे कलाकार के लिए हमें आगे आना होगा।

अंचल के रंगकर्मी व वरिष्ठ कलाकार सुदामा शर्मा किस्मतबाई देवार की गायन शैली से खासे प्रभावित हैं। उनके गाए गीत की तारीफ करते हुए उनके आज भी इन गीतों को श्रोता भाव-विभोर होकर सुनते हैं। उनके स्वस्थ होने की कामना करते हैं।

वरिष्ठ लोककलाकार हेमलाल कौशल ने कहा है कि नई पीढ़ी के कलाकारों को प्रेरणा देने वाली अंचल की ख्यातिनाम लोकगायिका किस्मतबाई देवार ने परम्परागत शैली में करमा, ददरिया, झूमर को बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। यही नहीं हबीब तनवीर के साथ मिट्टी की गाड़ी, चरनदास चोर, मोर नाव दमांद गांव के नाम ससुराल, में भी काम किया। सोनहा बिहान में भी 6 वर्षों तक कार्यक्रम देते रहीं। गीत संगीत और कलाकारी ही जिनके जीवन का ध्येय रहा है, ऐसे कलाकार को इलाज के लिए जितना संभव हो मदद जरूर करें।

उपजाऊ माटी में उद्योग और इमारत


अन्न उत्पादन के क्षेत्र में भारत शुरू से ही अग्रणी रहा है देश के लगभग सभी प्रांत फसल विशेष का उत्पादन करने में अपनी-अपनी पहचान बनायी हुई हैं। छत्तीसगढ़ में धान, गेहूं, चना सहित दलहनी फसलों के उत्पादन तथा पंजाब में गेहूं, मक्का, ज्वार, सरसो के अलावा तिलहन भी अधिक मात्रा में लिया जाता है। हरियाणा में धान, गेहूं, सब्जीयाँ इसी तरह पूवोंत्तर राज्यों में भी फल, अनाज के अलावा कपास और गन्ने की खेती भी बहुतायात में किया जाता है। यहां की उत्पादन तकनिक और प्रणाली किसानों द्वारा स्वंम का ईजात किया हुआ था तब भी और अब जबकि नई तकनिक और उन्नत पद्धति द्वारा उत्पादन लिया जा रहा है, फसलों के पैदावार में कोई क्रातिकारी बदलाव नहीं आया। कारण किसानों द्वारा कम फसल लगाना या सिंचाई, खाद की समस्या नहीं बल्कि खेती का रकबा कम होना है। फसल उत्पादन के लिए सिर्फ जमीन की नहीं उपजाऊ माटी की जरूरत होती है।

सरकार और कुछ निजी उपक्रमों द्वारा अब उपजाऊ भूमि को भी अधिग्रहित किया जा रहा है, एक तरफ सरकार अपनी बरसों पुरानी भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर किसानों का जमीन हथिया रहा है वही दूसरी तरफ औद्योगिक इकाईयां रूपियों के दम पर कृषि भूमि में फैक्ट्रीयां बो रही है। भूमि अधिग्रहण कानून,1894 के अनुसार 'सार्वजनिक उद्देश्य के तहत किसी भी जमीन को बगैर बाजार मूल्य के मुआवजा चुकाए सरकार को अधिग्रहण करने का अधिकार है। सरकार यदि सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण करता है तो उनके उचित मुआवजा निर्धारण पर दिमाक खपाने के बजाय अधिग्रहित की जाने वाली उस भूमि की उपयोगिता के बारे में भी गहराई से विचार करना चाहिए। क्या किसान सिर्फ अपने लिए अनाजों का उत्पादन कर रहा ? किसानों की सच्चाई बयाँ किया जाए तो अनाज बोने वाले किसान ही किसी दिन आधा पेट तो किसी दिन भूखे ही गुजारा करते हंै। फिर भी चीन, इंगलैड, जापान और अमेरीका जैसे विकसित देशों के अलावा खाड़ी देशों में अनाज निर्यात होना एक सौभाग्य की बात है, पर अपने ही देश के में गरीबी और भूखमरी हमारा दुर्भाग्य है। अब अगर भूमि अधिग्रहण कानून के नजरिये से देखा जाए तो क्या खेती करना भी सार्वजनिक उद्देश्य नहीं है, क्या किसान जन हीत के लिए कार्य नही करते? इस सवाल पर गंभीर विशलेषण होना चाहिए। संकुचित सोच के दायरे से बाहर निकलकर भूमि की मुख्य उपयोगिता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। मिट्टी में पसीना सिंच कर बालू में भी अंकूर लाने का दम रखने वाले किसानों के जमीन पर आखिर कब तक कांक्रीट के जंगल उगते रहेंगे।

पिलपिले कानून के कारण ही देश के किसानों को हल और बैल छोड़कर इन्कलाबी होना पड़ा। जमीन बचाने के लिए शासन और औद्योगिक समूहो से दो चार होना पड़ा। सिंगुर का हिंसक आंदोलन जिसमें टाटा को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। नंदीग्राम में सलेम समूह द्वारा केमिकल परियोजना लगाए जाने के विरोध में किसानों द्वारा आंदोलन, हरियाणा के फतेहाबाद गोरखपुर कुम्हारिया गांव के किसानों ने हजार एकड़ से अधिक जगह में बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध किया, दादरी में रिलायंस के पावर प्लांट के खिलाफ किसानों का आंदोलन। इसी तरह देश में कई जगह किसानों ने अपनी अधिग्रहीत की गई जमीन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ देश के बड़े भूभाग पर किसानों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है।
भूमि अधिग्रहण को लेकर प्रदेश में भी अनेक आंदोलन हुए हंै, किसान खेती का काम छोड़ खेत बचाव आंदोलन में कूदने को मजबूर हो रहे हैं। आज भी उनके खेती योग्य उपजाऊ भूमि में बहुमंजिला इमारत और उद्योग उपज रहे हैं। जहां धान, गेंहू, मक्के और सरसो लहलहाते थे वहां अब कालोनी और बड़े-बड़े कारखाने बनने लगे हैं। सरकार की भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को एक बार मान भी ले की सरकार को जन हीत में उस भूमि की जरूरत पड़ी पर निजी औद्योगिक इकाई कृषि भूमि पर ही क्यो अपनी नजरे गड़ाये हुये हैं। उद्योग और रिहायसी कालोनाइजर भी लहलहाते खेत पर ही अपना आशियाना बना रहे हंै। जबकि देश में कृषि भूमि से जादा बंजर भूभाटक है जहां फसल नहीं उगाई जा सकती ऐसे जगहों का चयन उद्योग लगाने के किया जाना चाहिए। कृषि भूमि पर उद्योग लगाना एक सोची समझी साजिस भी हो सकती है, कि कृषि भूमि खत्म होने के बाद खेतों में काम करने वाले मजदूर बेकार हो जायेगे और पेट की आग बुझाने के लिए उनके ही उद्योग और कारखानों में मजूदरी करेंगे। शायद कृषि भूमि पर उद्योग न लगाते तो उन्हे मजदूर नहीं मिलते। इस तरह उद्योगों को जमीन भी मिला और मजदूर भी। 
कृषि योग्य भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग करने के दुष्परिणाम खाद्य संकट और भी गहरा सकता है। जिस तरह से खेती के रकबे में कमी आयी उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक दिन भारत को भी अनाज बाहर के देशों से आयात करने की स्थिति निर्मित हो सकती है। सरकार भले ही अपने उत्पादन दरों के आंकड़ों में लगातार वृद्धि दर्ज कर रही है, यह सोचने का विषय है कि खेती कम होने के बावजूद उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि कैसे हो सकती है। चलो मान भी लें कि आपके उन्नत तकनिक में दम है कि आप उस कमी की भरपाई कर सकते है पर क्या उस कृषि भूमि की भरपाई हो सकती है। 
जी तोड़ मेहनत के कर किसान जमीन को खेत बनाता है खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाता और उसी के भरोसे पीढ़ी दर पीढ़ी खेती करके अपना परिवार चलाता है। यहां लगभग 85 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो इसी तरह खेती से ही अपना जीवन यापन करते हैं, कृषि ही उनका आर्थिक रीढ़ है। और यही हमारे देश की अर्थव्यस्था का आधार स्तंभ है। अब यह स्तंभ डोलने लगा है, प्रतिशत का आंकड़ा भी घटकर 65 हो चुका है। बाहर देशों के पूंजी निवेशक यहां आकर जमीन में पूंजी लगाकर हमारी अर्थव्यस्था की जड़े उखाडऩे लगे हैं। जमीनों में पंूजी निवेश करने वाले निवेशक भूमि तो बड़े चाव से खरीद लेते हंै पर ये उनमें खेती करने बजाय कृषि भूमि को आवसीय में परिवर्तित करा के लहलहाती अन्नदात्री के आंचल में कंाक्रीटों के दीवार उगा देते हैं। 
देश के अनेक राज्यों में कुछ ही सालों के अंतराल में भूमि हल्ला बोल के अनेक प्रक्ररण सामने आये हैं जिनमें उत्तर प्रदेश के आगरा, अलीगढ़, चंदौली, गौतमबुद्ध नगर में 1,76,336 एकड़ जमीन। छत्तीसगढ़ के बस्तर, रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा में 42,763 एकड़। महाराष्ट्र के नागपुर, रायगढ़, रत्नागिरी, पुणे में 45,600 एकड़। उड़ीसा के जगतसिंहपुर, जाजपुर, कालाहांडी, गंजाम में 41,800 एकड़। गुजरात के भावनगर, कच्छ में 6,529 एकड़। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, किन्नौर, श्रीमौर, चंबा में 2,817। बिहार के औरंगाबाद, मुजफ्फरपुर में 1,744। आंध्र प्रदेश के ईस्ट गोदावरी, महबूबनगर, श्रीकाकुलम, नेल्लोर, विशाखापत्तनम में 21,739 एकड़। हरियाणा के फतेहाबाद में 1,500। पंजाब के मोहाली में 770। तमिलनाडु के मदुरई, तिरुवल्लुर, तूतीकोरिन में 5,000। चंडीगढ़ में 167। मेघालय में 111एकड़। केरल के कोच्चि में 100। कर्नाटक में 1800 एकड़। देश भर में लगभग इतने आंकड़ों में कृषि भूमि को गैर कृषि कार्यों में बदल दिया गया।
भविष्य में कहीं अब राष्ट्रिय धरोहर के रूप में संग्रहित करने की बारी उपजाऊ माटी की तो नहीं? क्योकि जिनकी भी संख्या घटि है शासन ने उसे बचाने के लिए राष्ट्रिय धरोहर घोषित कर विशेष संरक्षण दिया है। अब तक तो जिनका प्राकृतिक क्षरण हुआ या स्वमेव विलुप्ति के कगार में हो उसे ही बचाने हेतु धरोहर के रूप में सहेजा गया है। यदि उपजाऊ माटी की बारी आती है तो यह पहला प्रक्ररण होगा जिसका पहले दोहन किया गया फिर बचाने के लिए धरोहर घोषित किया जायेगा।

जयंत साहू
रायपुर

जयंत साहू जी छत्तीसगढी भाषा के युवा पीढी के स्थापित साहित्यकार हैं, कविता, कहानी एवं व्यंग्य के साथ ही वे समसामयिक विषयों पर भी निरंतर लिखते रहते हैं. जयंत जी का ब्लॉग है चारी चुगली.

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...