'पहुना संवाद' महानदी और बम्‍हपुत्र का मिलन

असम के छत्‍तीसगढ़ वंशियों नें आज 'पहुना संवाद' के दूसरे दिन सभा में अपना संस्‍मरण सुनाया और उद्गार व्‍यक्‍त किया। उन्‍होंनें कहा कि हम आपके अत्‍यंत आभारी हैं कि आपने अपने संस्कृति विभाग के माध्‍यम से हमसे संपर्क स्थापित करने का महत्वपूर्ण कदम उठाया। संस्कृति संचालनालय के बुलावे पर असम से यहां आने से हम सभी अभिभूत हुए हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज सैकड़ो बरस पहले इस धरती से कमाने खाने चले गए थे। इसके इतने दिनों बाद हमको याद किया गया है। हमारे पूर्वजों ने उन दिनों में जो संघर्ष किया है उसकी कहानी दुखद है। उन्‍होंनें कठिन परिश्रम किये, दुख भोगा, दाने-दाने को मोहताज हुए। छत्‍तीसगढ़ वापस आने की तमन्‍ना रहते हुए भी वे अंग्रेजों या चाय बागानों के मालिकों के द्वारा बंधक बना लिए जाने या फिर पैसे नहीं होने के कारण वापस अपनी धरती आ नहीं पाये। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी अपना जीवन जीया और हम सबको इस काबिल बनाया कि हम असम में अपने पैरों पर खड़े हो सकें। हम उनकी चौथी, पांचवी पीढ़ी हैं हमारे दिलों में आज भी छत्‍तीसगढ़ जीवित है।
इस माटी की सोंधी खुशबू जो हमारे पूर्वजों के हृदय में समयई हुई थी उसे उन्‍होंनें पीढि़यों के अंतराल के बाद भी हमारे दिलों में बसाये रखा। इस बीच पूरे देश की संस्कृति में बहुत बदलाव आए या विकृतियां आई किन्‍तु हमारे पूर्वजों की उस संस्‍कृति और परम्‍पराओं को हमने बनाए रखा। आज भी सैकड़ो साल बाद भी हम छत्‍तीसगढ़ के रीति-रिवाज और परम्‍पराओं को असम में जीवंत बनाये हुए हैं। आज बम्‍हपुत्र के किनारे रहते हुए भी हमारे हृदय में छत्‍तीसगढ़ की महानदी उफान मारती है। हमारा रोम-रोम छत्‍तीसगढ़ को याद करके रोमांचित हो उठता है। हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग भी विद्यमान हैं जो यह कहते हैं कि हमें कभी एक बार उस धरती को छूने का अवसर मिले और हमे वहां की एक मुट्ठी मिट्टी लाने का सौभाग्य मिले तो हमे शायद अपने जीवन का सबसे बङा सुख महसूस करेंगे। उद्बोधन देते हुए कई छत्‍तीसगढ़ वंशियों का गला भर आया और खुशी में उनके आंखों से आंसू बहने लगे। संवाद का यह अवसर बेहद भावनात्‍मक एवं आत्‍मीय संबंधों का एक इतिहास बनकर आज हमारे सामने आया।
इन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्री डॉ.रमन सिंह से अनुरोध किया है कि 150-200 साल बीत जाने के बावजूद हमने अपनी छत्‍तीसगढि़या संस्‍कृति को संजोए रखा है यह अपने आप में महत्वपूर्ण बात है किंतु संमय के साथ इसके मूल स्वरूप को खोने का भय भी हमारे मन में व्‍याप्‍त है। हम चाहते हैं यदि आप इस दिशा में प्रयास करें और हमारे लिए आपकी सरकार कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जिससे हम अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को सहेज कर रख सकें। उन्‍होंनें छत्‍तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्री डॉ.रमन सिंह को अपनों के बीच असम आने का न्‍यौता भी दिया। उन्‍होंनें कहा कि आप कृपया एक बार समय निकाल कर हमारे बीच असम आएं और हमारी जीवनशैली को देखें कि हम अभी भी किस तरह से अपनी भाषा और संस्कृति से जुडे हुए हैं। आपसे निवेदन है कि आप इसे बचाए रखने के लिए अपना सहयोग दें क्योंकि हम भी छत्तीसगढि़या ही हैं भले ही हम छत्तीसगढ़ से ढाई हजार किलोमीटर दूर रहते हों।
आज के संवाद में छत्‍तीसगढ़ से जी.आर.सोनी, जागेश्‍वर प्रसाद, आशीष ठाकुर, राम पटवा, छलिया राम साहनी और लक्ष्‍मण मस्‍तुरिया नें संबोधित किया। आज के कार्यक्रम में वरिष्‍ठ संगीतकार खुमान लाल साव, ब्‍लॉगर ललित शर्मा, संजीव तिवारी आदि उपस्थित थे। असम से आए छत्‍तीसगढ़ वंशियों नें छत्‍तीसगढ़ी में सुवा गीत, ददरिया, जस और पंथी गाया। असम के विभिन्‍न क्षेत्रों से आए प्रतिनिधिमंडल में चिंताराम साहू, गिरिजा सिंह, सुमाष चन्द्र कोंवर, जगेश्‍वर साहू, दीपचन्द्र सतनामी, धरमराज गोंड, दीपिका साहू, सुजित साहू, भुवन केंवट, गनपत साहू, मदन सतनामी, गुलाब किसान, जनक साहू, पिताम्‍बर लोधी, त्रिलोक कपूर सिंह, कमल तेली, दाताराम साहू, धीरपाल सतनामी, ललित कुमार साहू, दुर्गा साहू, शंकर चन्द्र साहू, पुर्णिमा साहू, तुलसी साहू, रमेश लोधी, अनिल पनिका, अजय पनिका, नितिश कुमार गोंड आदि हैं। 
असम से आए इन छत्‍तीसगढ़ वंशियों की भाषा और इनके द्वारा गाए जाने वाले गीतों पर मैं कल से ध्‍यान लगाए था। उनकी भाषा आज की हमारी भाषा से ज्‍यादा ठेठ है। असम एवं बंगाल का प्रभाव इनके उच्‍चारण में यद्धपि है फिर भी ये धारा प्रवाह रूप से छत्‍तीसगढ़ी बोलते हैं। मुझे लगता है कि बहुत सारे छत्‍तीसगढ़ी शब्‍दों को भी ये संजोए रखे हैं जिसे हम नंदा गया कह रहे हों। इनकी छत्‍तीसगढ़ी भाषा पर हमारे चिंतित साहित्‍यकारों का ध्‍यान जाना चाहिए।
इनके द्वारा गाए कुछ गीत मैनें रिकार्ड किए हैं जिसे आप लोगों के लिए हम यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं, गीतों में इनकी पीड़ा भी सुनिए-    
सुवा गीत ददरिया (लेजा लानि देबे नोनी छेना म आगी, ले जा लानि देबे)

बदलते हुए गॉंव की महागाथा : बिपत

वर्तमान छत्तीसगढ़ के गाँवों में कारपोरेट की धमक और तद्जन्य शोषण और संघर्ष की महागाथा है कामेश्वर का उपन्यास ‘बिपत‘। इसमें गावों में चिरकाल से व्याप्त समस्याओं, वहाँ के रहवासियों की परेशानियों एवं गाँवों से प्रतिवर्ष हो रहे पलायन की पीड़ा का जीवन्त चित्रण है। आधुनिक समय में भी जमींदारों के द्वारा गाँवों में कमजोरों पर किए जा रहे अत्याचार को भी इस उपन्यास में दर्शाया गया है। इस अत्याचार और शोषण के विरुद्ध उठ खड़े होने वाले पात्रों ने उपन्यास को गति दी है। विकास के नाम पर अंधाधुंध खनिज दोहन से बढ़ते पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह करता यह उपन्यास नव छत्तीसगढ़ के उत्स का संदेश लेकर आया है। 

नये-नवेले इस प्रदेश में जिस तेजी से औद्योगीकरण हुआ है और इस रत्नगर्भा धरती के दोहन के लिए नैतिक-अनैतिक प्रयास हुए हैं वह किसी से छुपा नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव छत्तीसगढ़ के गाँवों पर पड़ा है। किसानों की भूमि जबरिया अधिग्रहण के द्वारा छीनी जा रही है। बची-खुची धरती अंधाधुंध औद्योगीकरण और खनिजों के दोहन से निकले धूल और जहरीली गाद से पट चुकी है या प्रदूषित हो रही है। पर्यावरण का भयावह खतरा चारो तरफ मंडरा रहा है, किन्तु उसकी परवाह किए बिना षड्यंत्र के तहत गाँव खाली कराए जा रहे हैं, कृषि-भूमि पर उद्योग लगाए जा रहे हैं। उपन्यासकार ने इस उपन्यास में अन्य सामयिक समस्याओं के साथ ही पर्यावरण के इसी बढ़ते खतरे की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित कराया है।

उपन्यास की भाषा में देशज शब्द और मुहावरे इस तरह घुले-मिले हैं कि भाषा के एक नए आंचलिक रूप का सौंदर्य खिल उठता है। ठेठ शब्दों के अर्थ कोष्ठक में दिए गए हैं, लेकिन उनकी जरूरत नहीं पड़ती। उनके अर्थ अपने संदर्भों के साथ सघन रूप में खुल जाते हैं। कथ्य आज के छत्तीसगढ़ के बदलते गॉंवों के यथार्थ की प्रामाणिक पड़ताल करता है। प्रतीकों और घटनाक्रमों के माध्यम से यथार्थ को विश्लेषित करने का ढंग निराला है। उपन्यासकार ने प्रतीकों, बिम्बों और भाषा के माध्यम से सिद्धहस्त चित्रकार की तरह चित्र खींचा है। कुछ उदाहरण देखिए-‘...गंगाराम की मुर्गी अपने चूजों को लेकर घर से कोरकिर-कोरकिर निकली और उन्हें गली को छुआते फिर घर में जा घुसी। उसकी आँट में बैठा शेरू केतकी लोगों को देख कर गुर्राने के लिए मुँह बनाया, लेकिन फिर यह विचार उसने त्याग दिया और अपनी हँफनी पर चेत किया। उसे भी तो गरमी से पार पाना है।‘ यह मात्र कल्पना नहीं है, अनुभव का चित्रण है। इसी प्रकार ‘...औखर आभा-बोली उसके कानों में मछेव (मधुमक्खियॉं) की तरह भिनभिनाते रहते हैं।‘ यह वही लिख सकेगा जिसने मधुमक्खियों को भिनभिनाते सुना होगा। इसी प्रकार कोसा कीड़ा और केकती के जीवन पर भी उपन्यासकार ने बहुत मार्मिक व भावनात्मक स्थिति का चित्रण किया है, आदि। 

उपन्यासकार नें उपन्यास में चुटीले व्यंग्य का भी प्रयोग किया है जो कही गुदगुदाता है तो कही अंतस तक भेदता है, मनरेगा के संदर्भ में देखें ‘...मस्टर रोल में भूत-प्रेत तक के नाम चढ़ रहे हैं। सरकार का बाप भी नहीं पुरा कर सकता।‘ और ‘...लेकिन सरकार को बाबा गुरू घासीदास के जैत-खाम को कुतुब मीनार से ऊँचा आखिर बनवाना ही तो पड़ा, भले इसमें वोट का खोट हो, लेकिन है तो सही!‘ और ‘...बचपन में उस जंगल में सुरेन कभी गुम हो गया था तब सोचा ही नहीं था कि वह कटाकट जंगल ही एक दिन गुम हो जाएगा।‘

उपन्यास में खण्ड-खण्ड कहानियॉं आगे बढ़ती हैं और संवेदना का एक सम्मिलित रूप उभर कर सामने आता है। लगभग दो दर्जन पात्रों के साथ आगे बढ़ती कहानी में उपन्यासकार ने सभी पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत सहज व सरल रुप से प्रस्तुत किया है। संवादों के सहारे पात्रों के व्यक्तित्व को स्पष्ट भी किया है। उपन्यास में बड़े कका, सिउ परसाद, चुनिया, होरी, लहाराम, पैसहा आदि के चरित्रों का व्यक्तित्व स्वयं बोलता है। कथा में नाटकीयता, रोचकता, पात्रों की भावनाओं की अभिव्यक्ति चुटीले व प्रभावकारी संवाद उपन्यास को रोचक बनाते हैं। 

यह एक गाँव की महागाथा है। इसमें बड़े कका के नायकत्व में विभिन्न कहानियाँ उनके इर्द-गिर्द घूमती हैं। गाँव में पैसहा ठाकुर (बिसाल), उसके बेटे राजा, घनश्याम, बल्लू और छुट्टन का अत्याचार है। इसी बीच प्राइवेट कोयला कम्पनी गॉंव की जमीन पर अपना पांॅव पसारती है। संघर्ष शुरू हो जाता है जिसमें आज के गॉंव-समाज का प्रामाणिक चेहरा और चरित्र उभर आता है। समाज-आर्थिक रूप से बदलते गॉंव का यथार्थ स्वरूप उभर आता है।

उपन्यास का आरंभ पलायन कर गए मजदूर भगेला के गाँव आने के वाकये से होता है। भगेला और गाँव के मजदूर मुरादाबाद के इंर्ट भट्ठे में कमाने खाने जाते हैं और इंर्ट-भट्ठा का मालिक व उसके गुर्गे उन्हें बंधुवा बना लेते हैं। वहॉ से भगेला भाग कर गाँव आता है, बड़े कका और सिउ परसाद भगेला की मदद करते हैं और जॉजगीर के किसोर भाई की संस्था के स्वयंसेवक होरी के प्रयास से सभी मजदूर छूट कर गाँव के लिए रेल से निकल पड़ते हैं। उनके आने की खुशी में गाँव में रामायण का कार्यक्रम रखा जाता है जिसमें गाँव के सभी लोग भेद-भाव, जात-पॉंत भूलकर एक साथ भोजन करते हैं।

इन घटनाओं के बीच पैसहा ठाकुर की  बेटी की प्रेम गाथा भी आकार लेती है। केतकी गाँव के ही गरीब मजदूर कौशल से प्यार करती है, उसके प्यार के रास्ते में उसके भाई रोडे़ अटकाते हैं और कौशल को प्रताड़ित करते हैं। पैसहा परिवार के जुल्म से कौशल को गाँव छोड़र भागना पड़ता है और वह कमाने-खाने कश्मीर चला जाता है। वहाँ उसके प्रेम के डोर को पत्रों के माध्यम से केकती की सहेली सुकवारा कायम रखती है। सुकवारा गाँव की स्वयसिद्धा महिला है, वह दुर्गा महिला मण्डल की अध्यक्षा है और गाँव के कोसा पालन केन्द्र में मण्डल की महिलाओं के साथ काम करती है। सुकवारा के पति भी कौशल के साथ कश्मीर में काम करता है। उसी के सहारे कौशल की पाती केतकी तक पहुचती है।

उपन्यास में कथा-उपकथा रोचकता को बढ़ाती है और कथानक आगे बढ़ता है। बड़े कका के घर रह रही चुनिया बड़े कका के आदिवासी सेवक लहाराम की पुत्री है। चुनिया विधवा है। लहाराम उसके दुख को देखकर उसे ससुराल से अपने घर ले आता है किन्तु लहाराम की दूसरी चुरियाही पत्नी चुनिया को दुख देती है। गाँव में फैले पैसहा के बेटों का आतंक और चुनिया के दुख को देखते हुए लहाराम बड़े कका से अनुरोध करता है और बड़ी काकी चुनिया को अपने घर ले आती है। चुनिया अपने सारे दुखों को भूलकर वृद्ध कका-काकी की सेवा करती है। बड़े कका का परिवार चुनिया को सामाजिक सुरक्षा ही नहीं, वरन उसे अपने घर की बेटी बनाकर रखते हैं। उपन्यास में बंधुवा मजदूरों का मुक्तिदूत होरी भी विधूर है, चुनिया की आँखें उससे दो-चार होती हैं और उन दोनों की स्वीकृति से कथा के बीच में ही वे वैवाहिक जीवन में बॅंध जाते  हैं।  

बड़े कका का पुत्र सुरेन, जो शहर में नौकरी करता है, अपने मित्र संदीप भट्टाचार्य के साथ गाँव आता है। महानगर में पले-बढ़े संदीप को गाँव का यह माहौल अटपटा लगता है। वे दोनों गाँव के बदलते हालातों से दो-चार होते हैं। सदियों से चली आ रही परंपरा के अनुसार गाँव में बद्रीनाथ-केदारनाथ से बड़े कका के घर पातीराम पंडा व उसका भतीजा मन्नू भी आता है। गॉंव में कुछ दिन डेरा पड़ता है। वे सुबह-शाम संध्या-भजन और दिन भर आस-पास के गावों में घुम-घुम कर दान-दक्षिणा प्राप्त करते हैं। पातीराम के साथ आए मन्नू की कुदृष्टि का चुनिया बेखौफ जवाब देती है। पर एक और परित्यक्ता लड़की केंवरा फॅंस जाती है। बात आगे बढ़ती उससे पहले ही लड़की को भूत चढ़ने का वाकया होता है और मन्नू के मन में घर कर गए भय से लड़की बच जाती है।

मूल कथा क्रम में पैसहा गाँव में सदियों से निस्तार हेतु प्रयुक्त रास्ते को कॉंटे से घिरवा देता है, क्योंकि वह रास्ता राजस्व अभिलेख में उनके नाम पर होता है। यहीं से गाँव वालों का विरोध आकार लेता है। रास्ते को घिरवाना पैसहा व उसके चम्मचों की चाल होती है। पैसहा चाहता कि गाँव में डायमंड कोल वॉशरी खुले जिसके लिए गाँव वाले बावा डिपरा की जमीन कोल वॉशरी को स्वेच्छा से दे दें। पैसहा कोल वॉशरी में ठेका-दलाली कर के लाभ कमाने की सोच रहा है। उसे गाँव के किसानों या पर्यावरण से कोई लेना-देना नहीं है। वह कहता है कि गाँव वाले अपनी जमीन कोल वॉशरी को दे दें तो वह गाँव के निस्तारी रास्ते को खोल देगा। पैसहा के इस काम में सहयोग गाँव का सरपंच बजरंग, पॉंडे़ और कोल वॉशरी का मैनेजर चौहान साहब आदि करते हैं। रास्ता खोलने हेतु गाँव में पंचायत बुलाई जाती है। पैसहा अपनी शर्त रखता है, मकुंदा और गाँव के दूसरे लोग इसका विरोध करते हैं। खास कर वे जिनकी जमीन बावा डिपरा में है। पैसहा के बेटे प्रतिरोध को दबाना चाहते हैं। इसी क्रम में लालदास की पैसहा के बेटों से पंचायत के बीच में ही लड़ाई हो जाती है। राजा कट्टा निकाल लेता है और चलाने ही वाला होता है कि बरसों से दबे-कुचले दलित जाति के अपंग पंचराम के शरीर में अचानक बल का संचार होता है और वह राजा की कलाई में डंडे से भरपूर वार करता है। अनहोनी टल जाती है। पंचायत बिना फैसले के उठ जाती है।

लड़ाई की आग गाँव में धीरे-धीरे सुलगने लगती है। पैसहा की जिजीविषा और उसके बेटों के आतंक में कोई कमी नहीं आती। राजा के द्वारा गाँव की बहू-बेटियों के बलत्कार के कई किस्से हरफों में उभरते हैं और शोषितों की आवाज दमन के डंडों में दब जाती है। गाँव के बहू-बेटियों की टीस जुबान से बाहर निकलने को छटपटाती है, किन्तु लोक-लाज व दबंगई के कारण दबी रहती है।

राजा ना केवल गाँव की इज्जत से खेलता है, बल्कि अपने दुश्मनों को भी रास्ते से हटाने में गुरेज नहीं करता। पंचराम की हत्या करता है और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के बावजूद उस पर कोई ऑंच नहीं आती। ऐसी ही घटना का शिकार पूर्व में गोरे पंडित भी हो चुका होता है। दोनों की हत्या को आत्महत्या सिद्ध कर दिया जाता है।

ऐसे ही दिनों में जब राजा के हवस का शिकार हुई बेदिन के पति को दमन की पीड़ा सहन नहीं होती तो वह हिम्मत बांॅधकर पैसहा को ललकार उठता है। बढ़ते उम्र के कारण पैसहा क्रोध में उसे मारने दौड़ता है, किन्तु पॉंव में पत्थर लगने से गिर जाता है। ललकारने वालों के सर पर बेवजह संकट आ जाती है, किन्तु किसी तरह पैसहा को उसके घर पहंॅुचाया जाता है। वहांॅ से अस्पताल। लाखों खर्च करने पर भी पैसहा ठीक नहीं होता और असक्त होकर बिस्तर पर पड़ जाता है। बेटे मनमानी करने लगते हैं और गाँव को नियंत्रित न कर पाने का दुख पैसहा को सालता है। अंतिम समय में वह प्रायश्चित करने का जुगत करता है।

पैसहा के बेटे डायमण्ड कोल वॉशरी को अपने आतंक से विस्तार देते हैं। राजा की अय्यासी बढ़ती जाती है। एक दिन तालाब में अकेले नहाती बेदिन पर फिर उसकी नीयत डोल जाती है। वह बेदिन का पीछा करते उसके घर तक आ जाता है और उसे घर में अकेली पाकर उसका बलात्कार करने पर उतारु होता है। उसी समय संदेह के कारण उसका पीछा करता बेदिन का पति खेदू उसे मार डालता है। राजा को मारने के बाद वह निर्भय होकर गाँव में इसका ऐलान करता है व जुलूस के साथ थाने जाकर सरेंडर करता है।

बड़े कका और सिउ परसाद के संयुक्त प्रयास से गाँव धीरे-धीरे जागने लगता है। कोल वॉशरी के विस्तार एवं पैसहा के बेटों के दमन का विरोध करना गाँव वाले सीखने लगते हैं। किन्तु पैसहा-पॉंड़े जैसे लोगों की स्वार्थपरक कुटनीतिक चालों के कारण पुलिस-प्रशासन और कोयला कम्पनी का दंश गाँव वालों को झेलना पड़ता है। जनसुनवाई में जनता विरोध में सर उठाती है, किन्तु प्रशासन कोल वॉशरी खुलने को विकास मानते हुए जमीनों को लीलने में कम्पनी की पूरी मदद करता है।

बड़े कका और सिउ परसाद उपन्यास में कुरीतियों को सहजता से दूर करने की शिक्षा देते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। कुष्ठ रोग, जादू-टोना, भूत-प्रेत आदि के संबंध में व्याप्त अंधविश्वास की वे वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए जनता के मन से उसका भय दूर करते हैं। अपने प्रेमी की बाट जोहती केतकी सपने में देखती है कि उसका प्रेमी कौशल अनंतनाग में राजमिस्त्री का काम करते हुए ऊपर से गिर जाता है और मर जाता है। उसका स्वप्न वास्तव में सत्य होता है। अनंतनाग में कौशल आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाता है। प्रेमी की मौत की खबर से केकती पागल हो जाती है। कथा के अंत में ‘कौशल ने खाया पान‘ अध्याय में महागाथा की वेदना फूटती है। केतकी पान ठेले पर अपने प्रेमी के नुस्खे वाला पान  मांॅग कर लोगों को अचरज और करुणा से भर देती है। पान खाकर वह हँसती है। उसकी उन्मुक्त हँसी गॉंव में गूँजती रहती है।

बड़े कका के घर में बच्चों व पर्यावरण रक्षा का व्रत खम्हर छठ की पूजा का आयोजन हो रहा है, कथा कही जा रही है। पर्यावरण बचाने गॉंव वाले अब उठ खड़े होंगे इसी आशा में गाथा समाप्त होती है। उपन्यास में बंधुआ मजदूरी के समय एक बच्ची के बलात्कार की कहानी और उस अबोध बच्ची के गर्भवती होने की कहानी, होरी के बॅंधुआ मजदूरी से भागने का वाकया, भोजन भट्टों की कहानी, कुष्ठ होने पर समाज को बोकरा-भात देने की परंपरा का विरोध, भूत चढ़ने-उतरने का चित्रण, सॉंप काटने पर परिवहन की समस्या के कारण लोगों की मौत का वाकया, बेटा-बहू द्वारा दूध में बबूल के बीज पीस कर मिलाने और रोकने पर अपमानित हो जाने के कारण ग्वाले का वैरागी हो जाना आदि घटनाओं का संवेदनात्मक चित्रण उपन्यासकार ने किया है।

यह उपन्यास अपनी विधागत सम्पूर्णता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इसे पढ़ते हुए कथाओं की लयात्मकता और घटनाओं के प्रवाह से एक रागिनी-सी फूटती महसूस होती है। यही रागिनी इसे स्वयमेव महागाथा सिद्ध करती है। 

संजीव तिवारी 

आकाशवाणी रायपुर से चंदैनी गोंदा के छत्तीसगढ़ी गीतों का पहला प्रसारण

जैसा की आप सब जानते ही हैं कि चंदैनी गोंदा के गीत छत्तीसगढ़ में बहुत लोकप्रिय हो गए थे और पूरे छत्तीसगढ़ में इसे अपने-अपने ढंग से गाया-गुनगुनाया जाने लगा था। उस समय दाऊ रामचंद्र देशमुख चंदैनी गोंदा के गीतों को रिकॉर्ड करना नहीं चाहते थे। उनका मानना था कि चंदैनी गोंदा के गीतों को उसके लाइव कार्यक्रमों में आकर ही सुना जाय। समय में परिवर्तन आ रहा था और उस समय छत्तीसगढ़ी में तवा वाले रिकार्ड आने शुरू हो गए थे जिसमे रसिक परमार के द्वारा रिकार्ड कराये और केसरी बाजपेयी के द्वारा रिकार्ड कराये गीत, विवाह और अन्य समारोहों में बजने लगे थे। इसके बाद कैसेट का जमाना आया जिसमें कुछ छत्‍तीसगढ़ी गीत रिकार्ड कराए गए जो लाउडस्‍पीकरों में छट्ठी-छेवारी में बजने लगे।
ऐसे ही किसी समय पर खुमान लाल साव को निर्मला राय नें सुझाव दिया। राजनांदगांव में कन्‍या स्कूल की प्रिंसिपल निर्मला राय खुमान साव और चंदैनी गोंदा की लोकप्रियता से परिचित थीं। वे चाहती थीं की चंदैनी गोंदा के गीतों की रिकॉर्डिंग हो और वे सभी गीत आकाशवाणी से प्रसारित किए जांए। रायपुर आकाशवाणी  केंद्र के केंद्रनिदेशक रमेश राय जी उनके भाई थे। निर्मला नें रमेश चंद्र के नाम से एक पत्र लिखा कि खुमान साव जी के छत्तीसगढ़ी गीतों की रिकॉर्डिंग करें और इसका प्रसारण करें। एक प्रकार से एक अनुशंसा पत्र बना जिसे खुमान साव ने सम्‍मान से स्वीकारते हुए अपने जेब में रख लिया।
बात आई गई हो गई, इसी बीच राजनांदगांव में खुमान साव का नागरिक सम्मान हुआ। जिसमें रमेश राय को को मुख्य अतिथि बनाया गया था। उस कार्यक्रम में में रमेश राय से खुमान साव की पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात में निर्मला राय की लिखी हुई चिट्ठी जेब में थी किन्‍तु खुमान साव ने रमेश राय को यह बात नहीं बताई। दोनों के बीच वार्ता का क्रम शुरू हुआ, रमेश राय जी ने उन्हें रायपुर आकाशवाणी केन्‍द्र आने का न्‍यौता दिया। एक दिन ऐसे ही खुमान साव रायपुर रेडियो स्टेशन में रमेश राय जी से मिलने पहुंच गए।
राजनांदगांव में हुए मुलाकात मुलाकात के बहुत दिन बाद वे रमेश राय से मिलने गए थे। औपचारिक मुलाकात के बाद रमेश राय जी ने कहा कि कहिए खुमान जी कैसे आए हैं। तब खुमान साव ने कहा कि मैं आपसे झगड़ने आया हूं। रमेश राय जी आश्चर्यचकित हुए, मुस्कुराते हुए पूछा कि मुझसे क्यों झगड़ना चाहते हैं। तब खुमान साव ने कहा कि रायपुर रेडियो स्टेशन में विभिन्न प्रदेशों के क्षेत्रीय गीत बजते हैं, किंतु छत्तीसगढ़ के ही गीत नहीं बजते। बजते भी है तो बहुत कम, ऐसा क्यों। रमेश राय बात को स्वीकारा और अपनी गलती स्वीकारते हुए हुए लोक संगीत के तद समय के अधिकारी केशरी बाजपेई को बुलाया। जो बरसाती भइया के नाम से प्रसिद्ध थे।
रमेश राय ने बाजपेई जी से पूछा कि बाजपेई जी आप छत्तीसगढ़ी की गीत क्यों प्रसारित नहीं करते। तब बाजपेई जी ने कहा कि सार छत्तीसगढ़ी गीत में दम रहे तब ना, क्यों खुमान जी खुमान जी। खुमान नें कहा कि मुझसे क्यों हुंकारू भरवा रहे हैं बाजपेई साहब, ऐसा नहीं है छत्तीसगढ़ी गीतों में दम है। मैं अपने साथ 27 गीतों का कैसेट लेकर आए हूं। टेप मंगाओ मैं यहीं रमेंश साहब के सामने सुनाता हूं।
खुमान साव ने रिकॉर्ड किए हुए 27 गीतों में से कुछ वहां सुनवाए। कैसेट सुनकर बरसाती भइया ने कहा कि सर यह तो फिल्मों से प्रभावित लगते हैं। मैंने जो गीत रिकॉर्ड किए हैं वे मूल छत्तीसगढ़ी संस्कृति के हैं। उस समय वाजपेई ने कुछ तवा रिकॉडिंग थे। उन्होंने 4 गीत रिकॉर्डिंग करवाए थे जिसमें ‘झुमके बजाबे मांदर वाला रे’ और ‘बघवा रेगा ले धीरे-धीरे रे नरवा के तीरे-तीरे...’। खुमान साव ने कहा कि बाजपेई जी आप जिस गीत को रिकॉर्डिंग करवाएं हैं क्या वे फिल्मी संगीत से प्रभावित नहीं है। वाजपेई जी इस तरह जवाब से हक्का-बक्का हो गए।  खुमान साव ने आदर के साथ वाजपेई जी को कहा कि बाजपेई जी हमारे गीत तो तुम्हारे गीत से लाख गुना अच्छे है फिर भी आप लोगों की मर्जी। केंद्र निर्देशक नें दोनों के गीतों को सुनने के बाद अपना स्वयं का निर्णय दिया कि चंदैनी गोंदा के जो 27 रिकॉर्डेड गीत है उसका प्रसारण आकाशवाणी रायपुर से किया जाएगा।
खुमान साव बड़े दुखी मन से यह बात कहते हैं कि उस समय बरसाती भैया जैसे लोग जो छत्तीसगढ़ के संस्कृति और परंपरा के संवाहक के रूप में प्रतिष्ठित व्यक्ति ने भी चंदैनी गोंदा जैसे संस्‍था के विकास में किस प्रकार से रोड़े अटकाने का काम करते रहे और चंदैनी गोंदा के गीतों को जानबूझकर बजने नहीं दिया। जिस को तत्कालीन निर्देशक नें अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए बजाने की स्वीकृति दी। रमेश राय ने कहा कि गुरुवार सुबह 9:00 बजे जो लोक संगीत का कार्यक्रम होता है उसमें 3 गीत खुमान साव जी का रखो और दो अन्य गीत रखो। इस प्रकार से चंदैनी गोंदा के गीतों का आकाशवाणी के द्वारा प्रथम प्रसारण का समय तय हुआ। खुमान साव जी स्वीकृति के बाद कैसेट वहीं छोड़ कर राजनांदगांव आ गए।
1972 के किसी गुरुवार का दिन था वह राजनांदगांव के जयस्तंभ चौक में हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। खुमान साव ने यह बता दिया था कि आकाशवाणी से उनके गीतों का प्रसारण होने वाला है। अब यह नियमित रूप से प्रसारित होगा। राजनांदगांव के जयस्‍तंभ चौक के संगम होटल में रेडियो ठीक 9.00 बजना चालू हुआ, सामने हजारों की हुजूम खड़ी थी। खुमान साव के द्वारा संगीत बद्ध पहला गीत आकाशवाणी रायपुर से बजा ‘मोला मईके देखे के बड़ा साध....’ भीड़ झूम उठी। रेडियो के स्वर के साथ सब गुनगुनाने लगे और कुछ तो नाचने भी लगे। इसके साथ ही दूसरा गीत बजा ‘चल चल गा किसान असाढ़ आगे...’ तीसरे गीत के बारे में खुमान साव को अब याद नहीं है कि वह गीत कौन था। इसके साथ ही प्रत्येक गुरुवार को आकाशवाणी रायपुर से खुमान साव के संगीतबद्ध गीत प्रसारित होने लगे। जो आज तक अनवरत रायपुर आकाशवाणी से प्रसारित हो रहे हैं। बाजपेई जी के बारे में खुमान साव बताते हैं कि बाद में बाजपेई जी पूर्वाग्रह से बाहर आए और खुमान साव के भक्त बन गए।
(संजीव तिवारी के द्वारा लिखे जा रहे खुमान साव पर केन्द्रित किताब के असंपादित अंश)

छत्तीसगढ़ की संस्कृति के दो महत्वपूर्ण स्तम्भ : खुमान लाल साव और डॉ. पीसीलाल यादव


डॉ.पीसी लाल यादव छत्तीसगढ़ में साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में चित-परिचित नाम हैं। इन्होंने छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति और परंपराओं पर प्रचुर मात्रा में शोधपरक लेखन किया है। इन्होंने छत्तीसगढ़ की संस्कृति के सम्बन्ध में तथाकथित अध्येताओं के द्वारा स्थापित कर दिए गए भ्रामक जानकारियों का तथ्यपरक विश्लेषण (निवारण) भी प्रस्तुत किया है।
यादव जी न केवल लेखक हैं वरन सांस्कृतिक धरातल पर प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लोक मंच के संचालक हैं। जो छत्तीसगढ़ सहित देश के विभिन्न हिस्सों में छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की प्रस्तुति दे चुकी है। वे आज भी लगातार छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक प्रस्तुति मंचों पर देते रहते हैं जिसमें लगभग 20 लोक कलाकार शामिल हैं। रेडियो और टेलीविजन में उनके कार्यक्रम लगातार आते रहते हैं।

लेखन के क्षेत्र में यादव जी गद्य और पद्य के अन्यान्य विधाओं में, हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओँ में लिखते हैं। पंडवानी पर उनका विशद् शोध ग्रन्थ वैभव प्रकाशन से प्रकाशित है जो अब तक के प्रकाशित पंडवानी के किताबों में श्रेष्ठ है। छत्तीसगढ़ के लोक गाथाओं पर उनका महत्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के विभिन्न लोक गाथाओं को जो विलुप्ति के कगार पर थे उनका संग्रहण किया है। उनके पास बहुत सारी लोकगाथाओं का लिखित रूप उपलब्ध है।
गंडई-पंडरिया जिला राजनांदगांव निवासी डॉ. पीसी सी लाल यादव का नाम हम बचपन से रेडियो में सुनते आ रहे हैं। उनको मैंने थोडा-बहुत ही जाना है, उनके संबंध में मैंने यहां जो कुछ भी लिखा वह उनके असल अवदान के हिसाब से बहुत ही कम है, किंतु उनके सामान्य परिचय के लिए मैंने यह लिखा। 
डॉ.पीसी लाल यादव जी जितने सरल हैं उतने ही कठिन  उनके साथ बैठे दूसरे महान विभूती खुमान लाल साव जी हैं। उनके संबंध में आपको ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। इनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि इन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक संगीत को एक नया आयाम दिया, इनके संबंध में तो मेरे पास ऑडियो-वीडियो-टेक्स्ट का खजाना है, जो बेतरतिब है। समय मिलते ही कुछ खंडो में प्रकाशन के लिए तैयार करूँगा। 

© संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...