हुसैन: अभिव्यक्ति और नागरिकता

शीर्ष कलाकार मकबूल फिदा हुसैन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में फिर विवाद और सुर्खियों के घेरे में हैं। उन्हे कतर जैसे छोटे से देश ने नागरिकता देने का प्रस्ताव दिया है। संविधान के अनुसार यदि हुसैन वह नागरिकता कुबूल करते हैं तो वे भारत के नागरिक नहीं रह जाएंगे। हुसैन पिछले कुछ वर्षों से उग्र हिन्दुत्व के हमलों से परेशान होकर विदेशों मे ही रह रहे हैं लेकिन अपनी कला साधना से विरत नहीं हैं। यह भी कहा जा रहा है कि नागरिकता का यह शिगूफा इसलिए विवादग्रस्त हो जाएगा क्योकि समझा तो यही जाएगा कि हुसैन उन पर हुए पिछले हमलों को देखते हुए भारत में अपनी जान को जोखिम में नहीं डाल सकते। यह भी चखचख बाजार में है कि भारत सरकार को चाहिए कि वह ऐलान करे कि वह हुसैन की रक्षा करेगी और उन्हे घबराने की जरूरत नहीं है।

हुसैन और देश के सामने फिलहाल शाहरुख खान का ताजा मामला है। उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत सरकार या राज्यों की सरकारें पूरी तौर पर हुसैन को संभावित हमलों से बचा ही लेंगी। यदि माहौल में तनाव भी रहा तो एक 95 वर्षीय वृद्ध व्यक्ति पर हमला ही तो होगा। लेकिन इसके बावजूद यह हुसैन को भी सोचना होगा कि कतर की नागरिकता स्वीकार कर लेने से क्या वे गैर भारतीय बनना पसंद करेंगे। कट्टर हिंदुत्व या इस्लाम से अभिव्यक्तिकार सरकारों की मदद से सुरक्षित कहां हैं। सलमान रश्दी, तस्लीमा नसरीन, असगर अली इंजीनियर वगैरह भी पूरी तौर पर हमलों से कहां मुक्त रह पाए।

हुसैन की कुछ ताजा पेंटिंग्स विवाद का कारण बनी हैं। कलात्मकता और अभिव्यक्ति के मानदंडों के बावजूद कला का यदि देश के जीवन से कोई संबंध है तो उस पर प्रयोजनीय बहस की जानी चाहिए। लोकतंत्र शासन का वह तरीका है जहां खोपडिय़ां गिनी जाती हैं तोड़ी नहीं। दरअसल ताजा झंझटों के भी पहले से हुसैन के चित्र विवाद का कारण रहे हैं। उस पर एक नजर डालना जरूरी होगा। सबसे बुनियादी और बहुचर्चित मामला मकबूल फिदा हुसैन का है , जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लगातार हमारी व्यापक चिंता और सरोकार का केन्द्र रहा है।

हुसैन को लेकर एक विवाद तब हुआ, जब भोपाल से प्रकाशित 'विचार मीमांसा’ नाम की पत्रिका ने उनके द्वारा बनाई गई कलाकृतियों के कुछ चित्र ओम नागपाल के लेख ‘ यह चित्रकार है या कसाई ‘ शीर्षक से छापे। महाराष्ट्र के तत्कालीन शिव सेनाई संस्कृति मंत्री प्रमोद नवलकर ने वह लेख पढ़कर मुम्बई के पुलिस कमिश्नर को जो लिखित शिकायत भेजी, उसे पुलिस ने आनन-फानन में भारतीय दण्ड विधान की धारा 153(क) और 295 (क) के अंतर्गत पंजीबद्ध कर लिया। ऐसे अपराध विभिन्न धार्मिक समूहों में जान बूझकर धार्मिक उन्माद भड़काने के लिए वर्णित हैं। इस घटना को लेकर हुसैन के समर्थन में देश भर में बुद्धिजीवी अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर बनकर खड़े हुए। हुसैन के विरुद्ध आरोप यह था कि उन्होने सीता और शिव-पार्वती सहित अन्य हिन्दू देवी-देवताओं को लगभग नग्न अथवा अर्द्धनग्न चित्रित किया, जो धर्म और हिन्दुत्व की भावना के प्रतिकूल है। तर्क यह भी था कि एक मुसलमान को हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रण की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। भाजपा के विचारक और उपाध्यक्ष के.आर. मल्कानी यहां तक पूछते हैं कि हुसैन ने आज तक वास्तविक अर्थों में एक भी कलाकृति बनाई है? उनके आलोचक कुछ बुनियादी बातें जानबूझकर भूल जाते हैं।

भारतीय अथवा हिन्दू स्थापत्य और चित्रकला के इतिहास में देवी देवताओं को नग्न अथवा अर्द्धनग्न रूप में चित्रित करने की परम्परा रही है। अजंता, कोणार्क, दिलवाड़ा और खजुराहो की कलाएं विकृति के उदाहरण नहीं हैं। कर्नाटक में हेलेबिड में होयसला कालखंड की बारहवीं सदी की विश्व प्रसिद्ध सरस्वती प्रतिमा एक और उदाहरण है। कुषाण काल की लज्जागौरी नामक प्रजनन की देवी को उनके सर्वांगों में चित्रित किया गया है। तीसरी सदी की यह प्रतिमा नगराल (कर्नाटक) में आज भी सुरक्षित है। इस तरह के उदाहरण देश भर में मिलेंगे। असल में देवी- देवताओं को वस्त्राभूषणो में चित्रित करने की अंतिम और पृथक परम्परा उन्नीसवीं सदी में राजा रवि वर्मा ने इंलैंड के विक्टोरिया काल की नैतिकता के मुहावरों से प्रभावित होकर डाली। भारतीय देवियां औपनिवेशिक पोशाकों में लकदक दिखाई देने लगीं जो कि पारम्परिक भारतीय मूर्तिकला से अलगाव का रास्ता था। कलात्मक सौन्दर्यबोध से सम्बद्ध नग्नता से परहेज करना भारतीय दृष्टिकोण नहीं रहा है। वह सीधे सीधे पश्चिम से आयातित विचार है।

अब यह उनके हाथों में है जो भारतीय तालिबान बने हुए हैं। उन्हे अपनी संस्कृति की वैसी ही समझ है। मशहूर चित्रकार अर्पिता सिंह , मनजीत बावा और जोगेन्द्र चौधरी ने दुर्गा, कृष्ण और गणेश के ऐसे तमाम चित्र बनाए हैं, जिनमें नए और साहसिक कलात्मक प्रयोग किए गए हैं। लेकिन वे मुसलमान नहीं हैं। बंगाल में नक्काशी करने वाले हिन्दू-मुसलमान कलाकारों ने सत्यनारायण और मसनद अली पीर को एक देह एक आत्मा बताते हुए सत्यपीर के नाम से मूर्तियां बनाई हैं। वे उसी श्रद्धा का परिणाम हैं जो हरिहर और अर्द्धनारीश्वर की छवियों में दिखाई पड़ती है। यह अलग लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू की बात है कि मुस्लिम कठमुल्ले ऐसे नक्काशीकारों और कलाकारों को मस्जिदों से हकाल रहे हैं क्योकि वे हिन्दू देवताओं को चित्रित करते हैं। हुसैन को विद्या की देवी सरस्वती के जिस कथित नग्न रेखांकन के लिए प्रताडि़त किया गया, वह उन्होने उद्योगपति ओ.पी. जिन्दल के लिए 1976 में किया था। यह भी एक विचित्र संयोग है कि अपने अपूर्ण सरस्वती रेखांकन को बाद में हुसैन ने उन्हे खुद ही कपड़े पहना भी दिए थे, वह भी विवाद के कई वर्ष पहले।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के पूर्व अध्यक्ष , प्रख्यात कला समीक्षक एस.सेथार दो टूक कहते हैं कि “कोई मुझे बताए कि देश में सरस्वती की एक भी पारम्परिक प्रतिमा अपने धड़ में कपड़ों से लदी- फंदी हो।“ कला समीक्षक सुमीत चोपड़ा के अनुसार हमारे पारम्परिक सौंदर्यशास्त्र में शरीर में ऐसा कुछ नहीं है कि उसे दिखाने से परहेज किया जाए या छिपाकर उसे महत्वपूर्ण बनाया जाए। उनके अनुसार आधुनिक भारतीय चित्रकला में हुसैन भी ऐसे हस्ताक्षर हैं जो हमारी लोक संस्कृति की छवियों को आधुनिक माध्यम और आकार देते हैं। इन कलाकारों ने जो अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि हासिल की, वह एक तरह से भारत के लोक कलाकारों , कारीगरों, नक्काशीकारों और मूर्तिकारों की दृष्टि का विस्तार है। मशहूर चित्रकार अकबर पदमसी को भी शिव और पार्वती की कथित नग्न मूर्तियां चित्रित करने के लिए आपराधिक मामले में फंसाया गया था लेकिन बाद में न्यायालय ने उन्हे विशेषज्ञ राय लेने के बाद छोड़ दिया। कलात्मक दृष्टि का दावा करने के बाद हुसैन के आक्रमणकारी यह भी फरमा सकते हैं कि शिव और पार्वती के नग्न चित्रो को देखकर उन्हे वह गुस्सा नहीं आता जो हुसैन द्वारा किए गए सीता के चित्रण से हुआ है क्योकि शिव और पार्वती को इन रूपों में देखने की उनकी सांस्कृतिक आदत हो गई है!

हुसैन ने इंदौर और धार में भी कलात्मक शिक्षण पाया। 1996 में धार में ग्यारहवीं सदी की निर्मित भोजशाला पर बजरंग दल ने राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद की अनुकृति में जबरिया कब्जा करना चाहा। राजा भोज के इस विश्वविद्यालय में एक हिन्दू मंदिर और एक मस्जिद दोनों हैं। स्थापत्य कला के इस संग्रहालय में सरस्वती की एक बेजोड़ प्रतिमा रखी है। उसके लंदन में होने के कारण हुसैन ने शायद उसे वहीं देखा हो। इस दुर्लभ प्रतिमा का चित्र ए.एल. बासम की पुस्तक ‘ द वन्डर दैट वाज इंडिया ‘ में प्रकाशित है। संभवत: हुसैन को इस कलाकृति से भी प्रेरणा मिली हो। इस कलाकृति में भी उतनी ही नग्नता है जितनी हुसैन के चित्रांकन में। संघ परिवार ने यह मांग की है कि लंदन से इस कलाकृति को वापस बुलाकर उसे भोजशाला में स्थापित किया जाए ताकि उसका सीता मंदिर के रूप में उपयोग हो सके।

खतरा केवल अभिव्यक्ति की कलात्मकता के विवाद का नहीं है। सच्चाई के मुंह पर तालाबंदी जैसा काम ताला उद्योग के वे लोग कर रहे हैं जो अपने गढ़ के अली हैं। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे यह कहते हैं कि यदि हुसैन हिन्दुत्व में घुस सकते हैं तो हम उनके घर में क्यो नहीं घुस सकते। अहमदाबाद की प्रसिद्ध हरविट्स गुफा गैलरी में हुसैन और वी.पी. जोशी द्वारा संयुक्त रूप से संचालित कला-केन्द्र पर हमला किया गया और लगभग डेढ़ करोड़ रुपयों की पेंटिंग्स को नष्ट कर दिया गया। इनमें से कई पेंटिंग गणेश- हनुमान , शिव , बुद्ध आदि की भी थीं। 1998 में हुसैन की दिल्ली में लगी प्रदर्शनी पर हमला किया गया और सुप्रसिद्ध चित्रकार जतिन दास को भाजपा के एक पूर्व सांसद ने मारा। सीता को हनुमान द्वारा छुड़ाए जाने सम्बन्धी एक चित्र को लेकर संघ परिवार की बदमिजाजी की पुनरावृत्ति की गई। इस सीरीज के तमाम चित्र लोहिया के समाजवादी शिष्यों के आग्रह पर हुसैन ने 1984 में बनाकर दिए थे। बद्रीविशाल पित्ति के अनुसार हुसैन की इस चित्र-रामायण का संदेश नास्तिकता , साम्यवाद और नेहरूवादी आधुनिकता से अलग हटकर भारतीय सांस्कृतिक सत्ता को कलात्मक आधुनिकता से लबरेज कर देना था।

असल में इस तरह मुंह में कपड़ा ठूसने की हरकतों का इतिहास नया नहीं है। यह जानकर आश्चर्य और दुख होता है कि इस विचारधारा के एक अधिक प्रचारित बौद्धिक और महत्वपूर्ण व्यक्ति वी.डी. सावरकर ने शिवाजी के बारे में यह तक कह दिया था कि उन्हे हिन्दू महिलाओं के शीलहरण का बदला मुसलमान शत्रुओं की महिलाओं के बलात्कार से लेना था। यही हाल हुसैन का है। उन पर अपने लेख में ओम नागपाल ने निम्नलिखित आरोप भी लगाए हैं , जो कलात्मक अभिव्यक्ति से अलग हटकर उनकी मानसिकता और प्रतिष्ठा का प्रश्न हैं। आरोपों का उत्तर दिए बिना भी उन्हे जान लेने मे कोई हानि नहीं होगी। कलकत्ता में जब उसके चित्रो की पहली प्रदर्शनी लगी थी तो महान कला समीक्षक ओ.सी. गांगुली ने उसे जैमिनी राय के साथ गतारी बताया था। एक दूसरा दृष्टांत देते हुए नागपाल कहते हैं - अभी कुछ ही वर्ष पूर्व दिल्ली में आधुनिक भारतीय चित्रकला के पितामह राजा रवि वर्मा की जन्मशती के अवसर पर उनके चित्रो की एक प्रदर्शनी लगी थी। चित्रकला की इस गौरवपूर्ण एवं वैभवशाली परम्परा पर गर्व करने के बजाय एहसान फरामोश हुसैन ने मांग की कि दिल्ली से रवि वर्मा के चित्रो की प्रदर्शनी हटा ली जाए।

इन आरोपों की सत्यता की पड़ताल के बाद या तो इन्हे अफवाह कहा जाना चाहिए या अफवाहों के पुष्ट होने पर हुसैन के विरुद्ध एक फतवा, जिससे उबर पाना उनके लिए सरल नहीं होगा। सरस्वती, सीता, हनुमान बल्कि दुर्गा तक के चित्रो की कलात्मक नग्नता को सौंदर्यशास्त्र का हिस्सा समझकर हुसैन को कदाचित बरी कर दिया जाए लेकिन जब हमारी पीढ़ी के एक बहुत महत्वपूर्ण लेखक उदय प्रकाश ख्वाजा नसरुतीन की कथा कहते कहते अपनी राय व्यक्त करते हैं, जिसमें वे हुसैन पर व्यंग्य करते हैं तब ऐसी स्थिति में उदय प्रकाश को सरसरी तौर पर खारिज भी नहीं किया जा सकता - उनकी प्रसिद्धि स्कैंडल्स के चलते नहीं थी। इसके लिए वे किसी फाइव-स्टार होटल में लुंगी लपेटकर नंगे पांव घुसकर रिसेप्शनिस्ट और सिक्योरिटी गार्ड से झगड़ा करके अखबारवालों के पास नहीं गए थे। उन्हे किसी मॉडल की नंगी देह पर घोड़ों के चित्र बनाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। इस प्रसिद्धि की खातिर उन्होने न तो किसी मशहूर हीरोइन को बलशाली बैल के साथ संभोगरत चित्रित किया था, न किसी शक्तिशाली तानाशाह को देवी या दुर्गा का अवतार घोषित किया था। अपनी प्रसिद्धि के लिए ख्वाजा नसरुतीन को किसी अन्य धार्मिक समुदाय की किसी पूज्य और पवित्र देवी के कपड़े उतार कर उसे किसी कला-प्रदर्शनी में खड़ा करने या सूदबी द्वारा अंतरराष्ट्रीय कला-बाजार में नीलामी लगाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। उनकी ख्याति के पीछे कोई स्कैंडल नहीं था।

कनक तिवारी

सम्बन्धित कडी - एक युवा का आक्रोशउत्तमा दीक्षित की कामायनी
और यौन कुंठित कट्टरपंथी हैं हुसैन

मन मतंग मानय नहीं जब लगि धका न खाय ...........

फागुनी बयारों में कबीर के दोहों के साथ वाचिक परम्परा के सुमधुर फाग गीत गांव-गांव में गाये जा रहे हैं. नगाडे और मादर की थाप पर समूह में गाये जा रहे पुरूष स्वर रात को कस्बो-गांवों से गुजरजे हुए दूर तक कानों में मिश्री घोल रहे हैं और हम हिन्दी ब्लागजगत से दूर कार्यालयीन कार्यों से यहां-वहां भटक रहे हैं, फाग और डंडा गीतों को गुनगुनाते हुए.

इस बीच दो चार पोस्टो पर ही नजर पड पाई है उसमें पिछले रात को राजकुमार सोनी भईया के बिगुल के पोस्ट 'ढाई हजार मौतें ...' नें झकझोर सा दिया, मौतों पर होते खेलों के बीच 'छत्तीसगढिया' और 'बिहारी' के सत्य नें तो हृदय में और करारा वार किया, इस 'ढाई हजार मौतें ...' पर शरद कोकाश भईया नें कहा कि '.....दुष्यंत याद आ रहे हैं .. गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं / पेट भर कर गालियाँ दो आह भरकर बद्दुआ'  हालांकि उन्होनें अपनी टिप्पणी में बद्दुआ देने से भी मना किया पर इसके सिवा और कोई चारा बचता ही नहीं, यही आत्मसंतुष्टि है. हम जानते हैं कि बद्दुआ देने से लोगों के मानस में बैठा शैतान मर नहीं जायेगा फिर भी ...., जैसे हम स्वांत: सुखाय ब्लॉग लिख रहे हैं यह सोंचकर कि दुनियां बदल डालेंगें.
इन दो-तीन दिनों में ब्लॉग जगत में संगठनों के संबंध में कुछ पोस्टें भी आई और उन पोस्टों की सूचना मुझे उर्जावान ब्लागर भाई अविनाश वाचस्पति से मेल के द्वारा प्राप्त होती गई. मैंनें इन पोस्टों को बोगस और समयखपाउ पोस्ट समझते हुए क्लिक भी नहीं किया, पर आज भाई अजय झा जी नें भी कुछ इसी अंदाज में एक पोस्ट लिखी 'गुटबाजी, संगठन , घेटो ... सही समय पर एक गलत पोस्ट !'. तो लगा कि मुझे भी कुछ लिखना चाहिए क्योंकि इस पोस्ट और यह कहें कि इस पूरे कैम्पैनिंग दुष्प्रचार में 'छत्तीसगढ हिन्दी ब्लॉगर्स एसोसियेशन' भी कहीं ना कही जुड रहा है. मैं इस संबंध में कुछ बातें स्पष्ट करना चाहता हूं.

'छत्तीसगढ हिन्दी ब्लॉगर्स एसोसियेशन' बनाने की परिकल्पना विशुद्ध रूप से हमारे मन की बात थी क्योंकि हम सोंचते थे कि ऐसा करके हम छत्तीसगढ में हिन्दी ब्लागर्स और पाठकों की संख्या बढा सकते हैं साथ ही आपसी भेंट-मिलन के द्वारा तकनीकि समस्याओं का हल ढूंढ सकते हैं. इसके बाद जो विचार मन में थे उसे मैंनें समिति के बायलाज में बतौर उद्देश्य समाहित किया था. हमारी बातों का समर्थन उस समय उपस्थित सभी नें किया था इसलिये यह परिकल्पना साकार होने के लिये अगली प्रक्रिया के रूप में बढी थी. इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं. दूसरी बात यह कि हमें हमारे सम्भावित संगठन के सम्बध में फलॉं नें अपने पोस्ट में यह लिख दिया, फलॉं नें उसके पोस्ट पर यह टिप्पणी कर दी से व्यक्तिगत रूप से 'मुझे' कोई लेना देना नहीं है. मैं 'हाथी चले बजार, कूकूर भूंकय हजार' वाले मेरे प्रादेशिक कहावत पर विश्वास रखता हूं. और भी बहुत सारी कहावतें, उक्तियां और शव्द हैं मेरे पास जो मैं "घेटो" के विरूद्ध उपयोग कर सकता हूं, पर वही बात होगी जो अनिल पुसदकर भईया नें हमे रायपुर मे कही कि मुहल्ले का कुत्ता हांफते हुए निढाल सा होकर सोंचता है कि मैंनें पडोसी मुहल्ले के कुत्ते को दूर तक भगा दिया अब उस मुहल्ले मे भी मेरी सत्ता है, और निढाल होते हुए भी अपना सीना तानता है. मुझे इस प्रकार बेवजह उर्जा नष्ट करना और सीना तानना भी पसंद नहीं. कुत्ता बनना और बनाना दोनों उचित भी नहीं.

तो मित्रो मुझसे उम्मीद ना करना कि मै इन फागुनी फाग मे किसबिन की ओर उंगली उठा कर 'आमा के डारा लहस गे रे ........................' का धुलेडी गाउंगा. हॉं मै

अरे हॉं .... रे ढेकुना काहे बिराजे, खटियन में,
होले संग करव रे बिनास,  काहे बिराजे खटियन में .....

जरूर गाउंगा.  ब्लॉगजगत में आ गए  खटमली विचारों को होली के आग में विनाश करने के लिए और पूरे विश्वास के साथ यह भी गाउंगा ...

अरे हॉं .... रे केकई, राम पठोये बन, का होही
नइ होवय भरत के राज रे केकई, राम पठोये बन का होही ......

क्योंकि  यदि मेरे प्रयासों में, मेरे ब्लॉग की विषय सामाग्री में, पठनीयता होगी तो किसी मठाधीश के किसी ब्लॉगर को हासिये में लाने के प्रयासों से भी कुछ नहीं होने वाला है. होली के इस माहौल में आनंद को अपना संगी बना मस्त रहें व्यस्त रहें. हम तो फागों में व्यस्त होने की जुगत लगा रहे है, देखे कब समय मिलता है और हम फागो मे कब रम पाते है. छत्तीसगढ के फाग के संबंध में हम पहले भी लिख चुके हैं, इन दिनों हमारी व्यक्तिगत व्यस्तता के कारण फाग पर कोई अतिरिक्त जानकारी नहीं दे पा रहे हैं. छत्तीसगढ के फाग गीतों से परिचय के लिए आप मेरे इन पोस्टो का अवलोकन कर सकते है -

मेरी माँ ने मुझे प्रेमचन्द का भक्त बनाया : गजानन माधव मुक्तिबोध

एक छाया-चित्र है । प्रेमचन्द और प्रसाद दोनों खड़े हैं । प्रसाद गम्भीर सस्मित । प्रेमचन्द के होंठों पर अस्फुट हास्य । विभिन्न विचित्र प्रकृति के दो धुरन्धर हिन्दी कलाकारों के उस चित्र पर नजर ठहरने का एक और कारण भी है । प्रेमचन्द का जूता कैनवैस का है, और वह अँगुलियों की ओर से फटा हुआ है । जूते की कैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मजे से मैदान की हवा खा रही है । फोटो खिंचवाते वक्त प्रेमचन्द अपने विन्यास से बेखबर हैं । उन्हें तो इस बात की खुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं ।

इस फोटो का मेरे जीवन में काफी महत्व रहा है । मैने उसे अपनी माँ को दिखाया था । प्रेमचन्द की सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई । वह प्रेमचन्द को एक कहानीकार के रूप में बहुत-बहुत चाहती थी । उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्व रखने वाले, सिर्फ दो ही कादम्बरीकार (उपन्यास लेखक) हुए हैं - एक हरिनारायण आप्टे, दूसरे प्रेमचन्द । आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, "उनके लेखे, पण लक्षान्त कोण देती है", जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करूण कथा कही गयी है । वह क्रान्तिकारी करूणा है । उस करूणा ने महाराष्ट्रीय परिवारों को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया । मेरी माँ जब प्रेमचन्द की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आँसू छल छलाते से मालूम होते । और तब-उन दिनों मैं साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र मैट्रिक का एक छोकरा था - प्रेमचन्द की कहानियों का दर्द भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती । प्रेमचन्द के पात्रों को देख, तदनुसारी-तदनरूप चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोज-खोजकर निकालती । इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचन्द का "नमक का दारोगा"  आलमारी में से खोजकर निकाला था । प्रेमचन्द पढ़ते वक्त माँ को खूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किये बगैर मुझे प्रेमचन्द कथा प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती ।

प्रेमचन्द के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय मेरी माँ को ही है । मैं अपनी भावना में प्रेमचन्द को माँ से अलग नहीं कर सकता । मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़नों के विरूद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी । यद्यपि वह आचरण में परम्परावादी थी, किन्तु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी । वह स्वयं उत्पीड़ित थी । और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचन्द के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी । मेरी ताई (माँ) अब बूढ़ी हो गयी है । उसने वस्तुत: भावना और सम्भावना के आधार पर मुझे प्रेमचन्द पढ़ाया । इस बात को वह नहीं जानती है कि प्रेमचन्द के पात्रों के मर्म का वर्णन-विवेचन करके वह अपने पुत्र के ह्रदय में किस बात का बीज बो रही है । पिताजी देवता हैं, माँ मेरी गुरू है । सामाजिक दम्भ, स्वाँग, ऊँच-नीच की भावना, अन्याय और उत्पीड़नों से कभी भी समझौता न करते हुए घृणा करना उसी ने मुझे सिखाया ।

लेकिन मेरी प्यारी श्रद्धास्पदा माँ यह कभी न जान सकी कि वह किशोर-ह्रदय में किस भीषण क्रान्ति का बीज बो रही है, कि वह भावात्मक क्रान्ति अपने पुत्र को किस उचित-अनुचित मार्ग पर ले जायेगी, कि वह किस प्रकार अवसरवादी दुनिया के गणित से पुत्र को वंचित रखकर, उसके परिस्थिति-सामंजस्य को असम्भव बना देगी ।

आज जब मैं इन बातों पर सोचता हूँ तो लगता है कि यदि मैं, माँ और प्रेमचन्द की केवल वेदना ही ग्रहण न कर, उनके चारित्रिक गुण भी सीखता, उनकी दृढ़ता, आत्म-संयम और अटलता को प्राप्त करता, आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति नष्ट कर देता, और उन्हीं के मनोजगत् की विशेषताओं को आत्मसात करता, तो शायद, शायद मैं अधिक योग्य पात्र होता । माँ मेरी गुरू भी अवश्य, किन्तु, मैं उनका शायद योग्य शिष्य ना था । अगर होता तो कदाचित् अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक होता, केवल प्रयोगवादी कवि बनकर न रह जाता ।

मतलब यह कि जब कभी भी प्रेमचन्द के बारे में सोचता हूँ, मुझे अपने जीवन का ख्याल आ जाता है । मुझे महान चरित्रों से साक्षात्कार होता है, और मैं आत्म-विश्लेषण में डूब जाता हूँ । आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति बहुत बुरी चीज है ।

जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तो मेरे कुछ लेखक-मित्रों के पास प्रेमचन्दजी के पत्र आये । मैं उन मित्रों के प्रति ईर्ष्यालु हो उठा । उन दिनों मैं उन लोगों को जीनियस समझता था, और प्रेमचन्द को देवर्षि । अब सोचता हूँ कि दोनों बातें गलत है । मेरे लेखक-मित्र जीनियस थे ही नहीं, बहुत प्रसिद्ध अवश्य थे और अभी भी है । किन्तु वे प्रेमचन्द के लायक न तब थे, न अब हैं । और यहाँ हम हिन्दी साहित्य के इतिहास के एक मनोरंजक और महत्वपूर्ण मोड़ तक पहुँच जाते है । प्रेमचन्द जी भारतीय सामाजिक क्रान्ति के एक पक्ष का चित्रण करते थे । वे उस क्रान्ति के एक अंग थे । किन्तु अन्य साहित्यिक उस क्रान्ति का एक अंग होते हुए भी उसके सामाजिक पक्ष की संवेदना के प्रति उन्मुख नहीं थे । वह क्रान्ति हिन्दी साहित्य में छायावादी व्यक्तिवाद के रूप में विकसित हो चुकी थी । जिस फोटो का मैंने शुरू में जिक्र किया, उसमें के प्रसादजी इस व्यक्तिवादी भाव-धारा के प्रमुख प्रवर्तक थे ।

यह व्यक्तिवाद एक वेदना के रूप में सामाजिक गर्भितार्थों को लिये हुए भी, प्रत्यक्षत: किसी प्रत्यक्ष सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित नहीं था । जैनेन्द्र में तो फिर भी मुक्तिकामी सामाजिक ध्वन्यर्थ थे, किन्तु आगे चलकर अज्ञेय में वे भी लुप्त हो गये । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्रान्ति के प्रथम और अन्तिम महान कलाकार थे । प्रेमचन्द की भाव-धारा वस्तुत: अग्रसर होती रही, किन्तु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया । यह सम्भव भी नहीं था, क्योंकि इस क्रान्ति का नेतृत्व पढ़े-लिखे मध्यम-वर्ग के हाथ में था, और वह शहरों में रहता था । बाद में वह वर्ग अधिक आत्म-केन्द्रित और अधिक बुद्धि-छन्दी हो गया तथा उसने काव्य में प्रयोगवाद को जन्म दिया ।

किन्तु, क्या यह वर्ग कम उत्पीड़ित है ? आज तो सामाजिक विषमताएँ और भी बढ़ गयी हैं । प्रेमचन्द का महत्व पहले से भी अधिक बढ़ गया है । उनकी लोकप्रियता अब हिन्दी तक ही सीमित नहीं रह गयी है । अन्य भाषाओं में उनके अनुवादकर्ताओं के बीच होड़ लगी रहती है । प्रेमचन्द द्वारा सूचित सामाजिक सन्देश अभी भी अपूर्ण है । किन्तु हम जो हिन्दी के साहित्यिक है, उसकी तरफ विशेष ध्यान नहीं दे पाते । एक तरह से यह यथार्थ से भागना हुआ । उदाहरणत: आज का कथा-साहित्य पढ़कर पात्रों की प्रतिच्छाया देखने के लिए हमारी आँखे आस-पास के लोगों की तरफ नहीं खिंचतीं । कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे पात्रों की छाया ही नहीं गिरती, कि वे लगभग देहहीन है । लगता है कि हमारे यहाँ प्रेमचन्द के बाद एक भी ऐसे चरित्र का चित्रण नहीं हुआ, जिसे हम भारतीय विवेक-चेतना का प्रतीक कह सकें । शायद, अज्ञान के कारण मेरी ऐसी धारणा होगी । कोई मुझे प्रकाश-दान दें ।

किन्तु, कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रेमचन्द की जरूरत आज पहले से भी ज्यादा बढ़ी हुई है । प्रेमचन्द के पात्र आज भी हमारे समाज में जीवित हैं। किन्तु वे अब भिन्न स्थिति में रह रहे हैं । किसी के चरित्र का कदाचित् अध:पतन हो गया है । किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है । बहुतेरे पात्र अपने सृजनकर्त्ता लेखक की खोज में भटक रहे है । उन्हें अवश्य ऐसा कोई-न-कोई लेखक शीघ्र ही प्राप्त होगा ।

प्रेमचन्द की विशाल छाया में बैठकर आत्म-विश्लेषण की मन:स्थिति मुझे अजीब ख्यालों में डूबो देती है । माना कि आज व्यक्ति पहले जैसा ही जीवन-संघर्ष में तत्पर है, किन्तु अब वह अधिक आत्म केन्द्रित और आत्म-ग्रस्त हो गया है, माना कि इन दिनों वह समाज-परिवर्तन की, समाजवाद की, वैज्ञानिक विकास की, योजनाबद्ध कार्य की, अधिक बात करता है । किन्तु एक चरित्र के रूप में, एक पात्र के रूप में, वह सघन और निबिड़ आत्म-केन्द्रित होता जा रहा है । माना कि आज वह अधिक सुशिक्षित-प्रशिक्षित है, और अनेक पुराणपंथी विचारों को त्याग चुका है, तथा जीवन जगत से अधिक सचेत और सचेष्ट है किन्तु मानो ये सब बातें, ये सारी योग्यताएँ, ये सारी स्पृहणीय विशेषताएँ, उसे अधिकाधिक स्वयं-ग्रस्त बनाती गयी हैं । कदाचित् मेरा यह मन्तव्य अतिशयोक्तिपूर्ण है, किन्तु यह भी सही है कि वह एक तथ्य की ही अतिशयोक्ति है ।

आश्चर्य मुझे इस बात का होता है कि आखिर आदमी को हो क्या गया है । उसकी अन्तरात्मा, एक जमाने में समाजोन्मुख सेवाभावी थी, आज आदर्शवाद की बात करते हुए भी इतनी अजीब क्यों हो गयी ? एक बार बातचीत के सिलसिले में, एक सम्मानीय पुरूष ने मुझे कहा कि व्यक्ति जितना सुशिक्षित-प्रशिक्षित होता जायेगा, उतना ही बौद्धिक होता जायेगा, और उसी अनुपात में उसकी आत्मकेन्द्रिता बढ़ती जायेगी, उतने ही उसके मानवोचित गुण  कम होते जायेंगे, जैसे करूणा, क्षमा, दया, शील, उदारता आदि । मेरे ख्याल से उसने जो कहा है, गलत है । किन्तु यह मैं निश्चय नहीं कर पाता कि उसका मन्तव्य निराधार है । शायद, मैं गलती कर रहा हूँगा । जीवन के सिर्फ एक पक्ष को (अधूरे ढ़ंग से और अपर्याप्त निरीक्षण द्वारा) आंकलित कर मैं इस निराशात्मक मन्तव्य की ओर आकर्षित हूँ ।

किन्तु, कभी-कभी निराशा भी आवश्यक होती है । विशेषकर प्रेमचन्द की छाया में बैठे, आज के अपने आस-पास के जीवन के दृश्य देख, वह कुछ तो स्वाभाविक ही है । सारांश यह, कि प्रेमचन्दजी की कथा-साहित्य पढ़कर आज हम एक उदार और उदात्त नैतिकता की तलाश करने लगते है, चाहने लगते हैं कि प्रेमचन्दजी के पात्रों के मानवीय गुण हममें समा जायें, हम उतने ही मानवीय हो जायें जितना कि प्रेमचन्द चाहते हैं । प्रेमचन्दजी का कथा-साहित्य हम पर एक बहुत बड़ा नैतिक प्रभाव डालता है । उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट उँचे पात्रों द्वारा हमारे अन्त:करण में विकसित की गयी भावधाराएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती है, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती है । और अब प्रेमचन्द हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं । प्रेमचन्द समाज के चित्रणकर्त्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी है ।

माना कि हमारे साहित्य का टेकनीक बढ़ता चला जायेगा, माना कि हम अधिकाधिक सचेत और अधिकाधिक सूक्ष्म-बुद्धि होते जायेंगे, माना कि हमारा बुद्धिगत ज्ञान संवेदनाओं और भावनाओं को न केवल एक विशेष दिशा में मोड़ देगा, वरन् उनका अनुशासन-प्रशासन भी करेगा । किन्तु क्या यह सच नहीं है कि मानवीय सत्यों और तथ्यों को देखने की सहज भोली और निर्मल दृष्टि, ह्रदय का सहज सुकुमार आदर्शवाद, दिल को भीतर से हिला देने वाली कर्त्तव्योन्मुख प्रेरणा भी हमारे लिए उतनी ही कठिन और दुष्प्राप्त होती जायेगी ?

ओह ! काश, हम भी भोली कली से खिल सकते ! पराये दु:ख में रोकर उसे दूर करने की भोली सक्रियता पा सकते ! शायद मैं विशेष मन:स्थिति में ही यह सब कह रहा हूँ । फिर भी मेरी यह कहने की इच्छा होती है कि समाज का विकास अनिवार्यत: मानवोचित नैतिक-हार्दिक विकास के साथ चलता जाता है, यह आवश्यक नहीं है । सभ्यता का विकास नैतिक विकास भी करता है, यह जरूरी नहीं है ।
 
यह समस्या प्रस्तुत लेख के विषय से सम्बन्धित होते हुए भी उसके बाहर है । मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि प्रेमचन्द का कथा-साहित्य पढ़कर हमारे मन पर जो प्रभाव होते हैं, वे धीरे-धीरे हमारी चिन्तना को इस सभ्यता-समस्या तक ले आते हैं । क्या यह हमें प्रेमचन्द की ही देन नहीं है ?

गजानन माधव मुक्तिबोध
राष्ट्रभारती (१९५३-५७ के बीच) में प्रकाशित
युगांतरकारी साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध के जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा छत्तीसगढ़ के शहर राजनांदगांव में बीता । छत्तीसगढ़ में प्रगतिशील जनवादी चिंतन परंपरा से जुड़कर लिखने वालों की एक पूरी पीढ़ी को उनके करीब रहने का सुअवसर मिला । इसीलिए यह परंपरा अंचल में लगातार समृद्ध हुई ।

पंडवानी की पुरखिन दाई श्रीमती लक्ष्मी बाई


छत्तीसगढ़ की मंचीय कला के विविध रूपों से आज हम सब खूब परिचित है। भरथरी की विख्यात गायिका सुरूजबाई खांडे, पंथी के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कलाकार देवदास बंजारे तथा पंडवानी के चमकते सितारों में पद्मभूषण तीजनबाई, श्रीमती ऋतु वर्मा ने खूब यश प्राप्त किया है। इनसे छत्तीसगढ़ की कीर्ति बढ़ी है। पंडवानी विधा के कलाकार दुर्ग जिले में विशेष रूप से पनपे। पंथी के शीर्ष कलाकार देवदास बंजारे भी इसी जिले के धनोरा ग्राम के निवासी है। लेकिन पंडवानी के प्रथम यशस्वी पुरूष कलाकार स्व. झाडूराम देवांगन और प्रथम चर्चित पंडवानी गायिका श्रीमती लक्ष्मीबाई ने इस जिले का गौरव पहले पहल बढ़ाया।

झाडूराम देवांगन की प्रस्तुति देखकर पूनाराम निषाद आगे बढ़े। ठीक उसी तरह 60 वर्षीय लक्ष्मीबाई का प्रभाव महिला कलाकारों पर रहा। जब लक्ष्मीबाई कीर्ति के शिखर पर थीं तब तीजनबाई मात्र आठ नौ वर्ष की रही होगी। अपने कई साक्षात्कार में पद्मभूषण तीजनबाई ने इस तथ्य को स्वीकारा है कि लक्ष्मीबाई से उन्हे भी प्रेरणा मिली। लेकिन लक्ष्मीबाई मंच की पहली पंडवानी गायिका नहीं है। उनसे पहले सुखियाबाई पंडवानी गाती थी। रायपुर के पास स्थित 'मुनगी’ गांव की सुखियाबाई मर्दों के वेश में मंच पर आती थी। तब पंडवानी के विख्यात कलाकार रावनझीपन वाले मामा-भांजे ही चर्चा में आये थे। सुखियाबाई को लगा होगा कि यह महाभारत की लड़ाई का किस्सा है इसलिए यह मर्दाना विधा है। इसीलिए वे मर्दों के वेश में मंच पर आती थीं। श्रीमती लक्ष्मीबाई पहली ऐसी साधिका हैं जिहोंने स्त्री के रूप में ही महासंग्राम की कथा का गायन मंच पर किया।

श्रीमती लक्ष्मी का बंजारे के गुरू उनके कलावंत पिता दयाराम बंजारे ही थे। एक अप्रैल 1944 को ग्राम कातुलबोड़ में जन्मी लक्ष्मीबाई का जन्म लक्ष्मी पूजा के दिन हुआ इसलिए उनका नाम लक्ष्मी रखा गया। जीवन भर लक्ष्मी के अभाव में साधनों के लिए संघर्ष करती हुई लक्ष्मीबाई आज अब 60 पार कर चुकी हैं। उन्हे दस वर्ष पहले गले का कैंसर भी हो गया था। लेकिन जीवट की गायिका लक्ष्मीबाई अब कैंसर को पछाड़कर पुन: पूर्ण स्वस्थ हो मंचों पर आ गई है। दयाराम बंजारे के 11 बेटे और दो बेटियों में मात्र लक्ष्मीबाई ही बच पाई। शेष सब सत्यलोकगामी हो गये। मां फुलकुंवर ने इकलौती बेटी को खूब दुलार दिया। लक्ष्मीबाई ही इस दंपत्ति के लिए बेटी थी और वही बेटा भी। इसीलिए लक्ष्मीबाई के पति 'राजीव नयन’ घरजियां अर्थात घरज भाई हैं। 'राजीव नयन’ दाढ़ीधारी पत्नीभक्त, कलावंत पति है। लक्ष्मीबाई के दल में वे शामिल रहते हैं। उन्हे अपनी प्रतिभा संपन्न पत्नी की सेवा करने में गर्व का अनुभव होता है। मैंने उनकी भक्ति पर टिप्पणी करते हुए जब कहा...

'मंगनी के बइला, घरजियां दमान्द,
मरे ते बांचय, जोते से काम।

तो वे दाढ़ी लहराकर खूब हंसे। बच्चो की तरह नि:श्छल राजीवनयन जी झुमका, मजीरा बजाते हैं। कलाकारों के दलों में दाढ़ीधारी सदस्य प्राय: होते हैं। ऋतु वर्मा के पिता की दाढ़ी है तो लक्ष्मीबाई के पति की। पद्मभूषण तीजनबाई के पूर्व हरमुनिया मास्टर तुलसीराम की भी युवकोचित दाढ़ी थी। राजीवनयन 'दढिय़ारा’ भी जब मंच पर लक्ष्मीबाई के साथ बैठते हैं तो शोभा देखते ही बनती है।

लक्ष्मीबाई ने लगभग पंद्रह वर्ष की उम्र में गायन प्रारंभ किया। मशाल नाच के प्रख्यात कलाकार अपने पिता दयाराम बंजारे से उन्होने गायन सीखा। विगत 45 वर्षों से वे गायन कर रही है। खड़े साज में चिकारा बजाने वाले पिता दयाराम से उन्होने भरथरी गायन, गोपीचंदा कथा गायन तथा पंडवानी गायन की कला को प्राप्त किया। खड़े होकर पंडवानी गायन करने की कला कापालिक शैली कहलाती है। भिन्न- भिन्न मुद्रा में कलाकार मंच पर नाच गाकर गायन करते हैं। लेकिन बैठकर गायन की शैली की साधिका है। लक्ष्मीबाई के बाद श्रीमती रितु वर्मा ने ही वेदमती शैली का अनुगमन किया है। शैली कोई भी हो, कला की सिद्धि किसी कलाकार को यश देती है, यह इन भिन्न-भिन्न शैलियों की साधिकाओं की कीर्ति से सिद्ध हुआ है। टोने-टोटके, लटके-झटके और पहुंच पहचान की अपनी सीमायें हैं। प्रतिभा की शक्ति सारी सीमाओं का लंखन कर कलाकार अपने दम पर ही आगे बढ़ता है। लक्ष्मीबाई को भी अपनी साधना के दम पर मंजिल मिली। वे आकाशवाणी की प्रथम पंडवानी गायिका है। 1972 से वे आकाशवाणी पर पंडवानी प्रस्तुत कर रही है। श्रीमती लक्ष्मीबाई ने मोतीबाग, महाराष्ट्र मंडल, आदिवासी लोक कला परिषद के द्वारा प्रदत्त मंच तथा उदयाचल के आयोजनों में शामिल होकर पंडवानी गायन से श्रोताओं को मंत्रमुद्ध किया है।

चौथी कक्षा उत्तीर्ण लक्ष्मीबाई महाभारत ग्रंथ का पारायण किया और कथा के मूल सूत्रो को पकड़ा। वे 18 दिन तक पंडवानी गाती है। तभी पर्वों का उन्हे भरपूर ज्ञान है। वे महिला कलाकारों में वरिष्ठतम ही नहीं है, प्रथम साक्षर महिला कलाकार भी है। रामायण गायन की कला में भी वे सिद्ध है। प्रसिद्ध गायक झाडूराम का गांव बासिंग श्रीमती लक्ष्मीबाई का ननिहाल है। झाडूराम जी को वे मामा मानती थी। इसलिए जब तक बासिंग जाकर मामा झाडूराम से भी पंडवानी पर खूब चर्चा करने की सुविधा उन्हे मिली। गिरौदपुरी धाम में इस प्रख्यात कलाकार को स्वर्ण-पदक से सम्मानित किया गया। श्रीमती लक्ष्मीबाई अपनी इन दिनों हो रही उपेक्षा पर हंस कर टिप्पणी करती है। 'रंगरूप म राजा मोहे, चटक-मटक दारी, भाव भजन म साधू मोहे, पंडित करौ बिचारी।’ उन्हे अपनी उपेक्षा स्वाभाविक लगती है। वे कहती है कि सबका अपना युग होता है। काम रह जाता है। काम की कीमत सदा होती है। प्रचार से कुछ हलचल तो मचाई जा सकती है लेकिन सच्चा सम्मान नहीं प्राप्त किया जा सकता...

'सोना तो बाजय नहीं, कांच पीतल झन्नाय,
साधू तो बोलय नहीं, मूरख रहे चिल्लाय।’
'धरे हंव ध्यान तुम्हारा मैं रघुबर

यह गीत तन्मय होकर गाती है लक्ष्मीबाई तो न केवल वे रो पड़ती है बल्कि श्रोता भी विलाप कर उठते हैं। हबीब तनवीर के दल के साथ लक्ष्मीबाई को भी विदेश जाना था। लेकिन उन्ही दिनों इन्हे कैंसर ने घेर लिया। जबलपुर रायपुर आदि में लगातार इलाज करवा कर अपनी अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर वे पुन: स्वस्थ हो सकी है। चार वर्ष पहले छत्तीसगढ़ लोक कला महोत्सव के विराट मंच पर गुरू परंपरा के लोक कलाकारों का सम्मान हुआ। पंडवानी विधा में गुरू के रूप में पूजित श्रीमती लक्ष्मीबाई का सम्मान हुआ। वे अपने अवदान और बदले में मिले सम्मान से पूर्ण संतुष्ट है। उन्हे कलाकार पंडवानी कला की पुरखिन दाई कहकर जब प्रणाम करते हैं तो लक्ष्मीबाई को लगता है जैसे भारत रत्न मिल गया हो। छत्तीसगढ़ की पहचान कलाकारों के कारण कुछ अलग ढंग की बनी है। श्रीमती लक्ष्मीबाई परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कलाकारों को जी भर आशीष देकर कहती है...

'आया है सो जायेगा, राजा रंक फकीर,
एक सिंहासन चढि़ चले, एक बंधे जंजीर।

डॉ. परदेशीराम वर्मा
एल.आई.जी.18 हुडको, भिलाई (छ.ग.) मोबा. नं. 9827993494

ब्लॉगर्स सम्मेलन और भाषा साहित्य सम्मेलन

"एक समय था जब हिन्दी साहित्य सम्मेलन भारत में आयोजित होता था तब सम्मेलन के पूर्व रैली निकाली जाती थी जिसमें भारी संख्या में हिन्दी प्रेमी ढोल बैंड बाजों के साथ आगे चलते थे और राजनीति से जुडे लोग उनका समर्थन करते हुए पीछे चलते थे. प्रशासन व जनता दोनो, उत्साह के साथ हिन्दी सम्मेलनों में अपनी व्यक्तिगत रूचि से सम्मिलित होते थे. जिसमें हिन्दी पाठकों का लेखकों के प्रति सम्मान देखते बनता था. आज के समय में यह सम्मान खो गया है. ....... "   केंद्रीय ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि, अशोक वाजपेयी नें पिछले दिनो यह कहा. वे पं. रविशंकर शुक्ल व्याख्यानमाला के अंतर्गत बुधवार को कल्याण महाविद्यालय भिलाई के सभागार में आयोजित व्याख्यान "आज का समय" पर बोल रहे थे.

प्रमुख वक्ता के रूप में विचार व्यक्त करते उन्होने असम के क्षेत्रीय भाषा के एक ऐसे सम्मेलन के संबंध में बतलाया जिसमें वे असमिया के प्रसिद्ध साहित्यकारों के साथ मंच में उपस्थित थे. "गुवहाटी से 35 किलोमीटर दूर हाजो शहर में मुझे साहित्य सभा के सम्मेलन उध्दाटन करने आमंत्रित किया गया, वहां मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा पंडाल देखा. जहां डेढ़ लाख लोग मौजूद थे, उस स्थान पर मुझे काफी अचरज हुआ कि असम जैसे छोटे व अहिंदी भाषी प्रांत में माताएं बच्चों को लेकर साहित्य सम्मेलन में पहुंची थी. पूछने पर पता चला कि वहां की माताएं बच्चों को लेकर साहित्यिक आयोजन में इसलिए आती हैं ताकि वे अपने बच्चों को लेखकों से परिचय करा सकें. हमारे यहां यह बात नजर नहीं आती. यह भी कटु सत्य है कि असम में किसी बच्चे का संस्कार तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक वो अपने प्रारंभिक जीवन में अपने प्रदेश के किसी साहित्यिक अधिवेशन का हिस्सा न बनें"

वहां उन्होने प्रत्यक्ष देखा कि सम्मेलन में आई युवा महिलायें अपने बच्चों के साथ समय मिलते ही स्टेज के पास से गुजरती थी और अतिथियों की ओर उंगली से इशारे करते हुए असमिया में अपने बच्चों को कुछ बतलाती थी. लगातार हो रहे इस क्रम के कारण उन्होनें असमिया साहित्यकार से पूछा कि यह महिलायें क्या कर रही है. तो उस असमिया साहित्यकार नें बतलाया कि युवा महिलायें अपने बच्चों को स्टेज के पास ला-ला कर असमिया साहित्यकारों का पहचान करा रही हैं. क्योकि वे असमिया भाषा के साहित्य और साहित्यकारों का सम्मान करती हैं और अगली पीढी को भी इस परंपरा का संस्कार डाल रही हैं. "अहिन्दी भाषी राज्य में साहित्यकारों के प्रति इतना सम्मान हमारे हिन्दी भाषी राज्यों में कहां मिलेगा. असम जैसे अशांत राज्य में जहां कि हिंसा ज्यादा हो रही है, भाषा के प्रति अनुराग काबिले तारीफ है."

बहरहाल हिन्दी ब्लॉगरी से जुडा होने के कारण मै आशांवित हूँ कि भविष्य मे हिन्दी ब्लॉगर्स सम्मेलनो के सम्बन्ध मे भी साहित्यकारो द्वारा कुछ ना कुछ 'एतिहासिक' कहा जायेगा. इसलिये सम्मेलनो का महत्व समझते हुए जहां भी ब्लॉगर्स सम्मेलन हो भारी से भारी संख्या मे उपस्थित होकर अपने आप को हिन्दी को समृद्ध बनाये.

इस कार्यक्रम के कुछ चित्र  पिछले पोस्ट में उपलब्ध है. 

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया ......

भिलाई में इन दिनों नगर पालिक निगम द्वारा अवैध कब्‍जा हटाओ अभियान चलाया जा रहा है. इस अभियान में पूरी की पूरी बस्‍ती को उजाड कर करोडो की जमीन अवैध कब्‍जों से छुडाई जा रही है. लोगों से पूछो तो ज्‍यादातर का कहना है कि निगम द्वारा व्‍यवस्‍थापन कर इन्‍हें दूसरा मकान दे दिया गया है पर ये निगम द्वारा दिये गये मकान को उंची कीमत में बेंचकर यहां कब्‍जा जमाए हुए है. यह सच भी है कि भिलाई में कई ऐसे झुग्‍गी झोपडी में रहने वाले करोडपति हैं. और इन्‍हें अवैध कब्‍जा करने के जहां भी मौके मिलते हैं जमीन कब्‍जा कर लेते हैं और पहले कब्‍जा की गई जमीन को उंची दाम में बेच देते हैं. अब सही कुछ भी हो, घर से बेघर होने के कुछ चित्र मेरे मोबाईल कैमरे की नजर से ---- 

अपने टूटते घर को देखकर बिलखती एक बालिका
बेधरबार हुए एक वृद्ध महिला से टीवी वाले ने लिया साक्षात्‍कार
झपटता रहा तोडक मशीन
नगर निगम के डंडा छाप सुरक्षा कर्मचारियों के साथ
अपने अंतिम समय में वसीयत में अब क्‍या लिखवायें
पुलिस तो है प्रशासन का मौसेरा भाई
नेताओं नें भी इससे अपनी राजनीति चमकाई
और मुहल्‍ले का अंतिम घर भी टूटा
साहब का आदेश पूरा हुआ : नगर निगम के अधिकारी
अब यही होटल कम माल बनेगा यहां

लघु भारत भिलाई का आभार

मैंनें छत्तीसगढ के असुरों के संबंध में एक लंबे आलेख में भारत और छ्त्तीसगढ  के लोहे के विश्वव्यापी उपयोग के इतिहास के सम्बन्ध मे लिखा है जो आज के संदर्भ में आवशयक है इसलिये इसे यहां सन्दर्भित कर रहा हूं. भिलाई स्टील प्लांट  के  पूर्व के इतिहास को खंघालने से हमे पता चलता है कि सन् 1930 में सर दाराबजी टाटा को नागपुर पुरातत्व संग्राहालय में एक पुराना भौगौलिक नक्शा मिला और उससे उन्हें ज्ञात हुआ कि नागपुर के उत्तर पूर्वी क्षेत्र छत्तीसगढ के तरफ भारी मात्रा में लौह अयस्क भंडार है. 
इसके चलते वे छत्तीसगढ के दुर्ग नगर तक आये और इसके डौंडी तहसील के लौह अयस्क भंडार को देखकर आश्चर्यचकित हो गए. उन्होंनें प्रारंभिक तौर पर ठाना कि यहां वृहद स्टील प्लांट का निर्माण किया जाए किन्तु मौजूदा लौह भंडार के अनुपात में जल व कोयले की पर्याप्त मात्रा नजदीक में नहीं होने की वजह से उन्होंनें यहां वृहद स्टील प्लांट के निर्माण का इरादा बदल दिया और वे बिहार के जमशेदपुर में तद्समय के वृहद स्टील प्लांट का निर्माण कर टाटानगर बसा दिया. 
यहां छत्तीसगढ में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की दूरदृष्टि से भिलाई में सोवियत रूस के सहयोग से भिलाई स्टील प्लांट का निर्माण हुआ जो विश्व के सर्वाधिक उत्पादन का कीर्तिमान पर कीर्तिमान स्थापित करता रहा. इस वर्ष भी यह शिखर पर रहा. इसे 8 वी और 9 वी बार प्रधानमंत्री ट्राफी प्रदान किया गया.  इस अवसर पर हम हमारे ब्लागर साथी बी एस पाबला जी, विनोद साव जी, अशोक सिंघई जी सहित भिलाई स्टील प्लांट के सभी अधिकारियो/कर्मचारियो का हृदय से अभिनन्दन करते है.
संजीव तिवारी

सरकारी फाइलों का सूअरबाड़ा और इतिहास का कूड़ादान

लेखन और संस्कृति की बेहाली
जो लोग सरकारी फाइलों में अपना बायोडाटा गोपनीय तरीके से चुस्त-दुरुस्त करने में जुटे हुए हैं, उन्हें अगले पद्म पुरस्कार जरूर मिल सकते हैं। पद्म पुरस्कार प्राप्त लोग यदि खुद अपने हाथ में मिठाई के डिब्बे लिए बार-बार घूम रहे हों तो उससे पद्म पुरस्कारों की विश्वसनीयता बढ़ती है। साधुवाद देना चाहिए शीर्ष लेखिका कृष्णा सोबती और श्रेष्ठ नाटककार बादल सरकार को जिन्होने पद्म पुरस्कार लेने से इंकार कर सरकारों के मुंह पर तमाचा मारा है। हाथ तमाचा मारने के लिए भी बनाए गए हैं - उन्हें खुशामदखारों की तरह जोडऩे के लिए नहीं-यह इन बुजुर्ग लेखकों ने अपनी रीढ़ की हड्डी पर सीधे खड़े होने का सबक भी तो सिखाया है।
राजनीति यदि नर्क है तो साहित्य रौरव नर्क- ऐसा एक लेखिका का कहना है। इधर कोरिया की सेमगंग कंपनी देश में टैगोर पुरस्कारों की स्थापना कर रही है। विष्णु खरे और मंगलेश डबराल जैसे बहुत से लेखक उसका विरोध कर रहे हैं और संभवत: शंभुनाथ जैसे लेखक विरोध का विरोध। कमला प्रसाद की पत्रिका 'वसुधा’ को यदि कहीं से विदेशी संस्थान से संबंधित सहायता मिली तो ज्ञानरंजन जैसे लेखक ने उसकी आलोचना की। ज्ञानरंजन के विरुद्ध भी 'पहल’ सम्मान को लेकर इसी तरह के अवांछित धन को पाने के आरोप लगाए गए। धर्मवीर भारती जैसे महत्वपूर्ण लेखक ने भी शराब लॉबी के मोहनलाल केडिया पुरस्कार को जब स्वीकार किया था तब देश के शीर्ष लेखकों ने हस्ताक्षरित विरोध किया था। विनोद कुमार शुक्ल को भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार बहुत बाद में मिला। प्रमोद वर्मा को प्रदेश का शिखर सम्मान तो मिला ही नहीं। इन दोनों बड़े लेखकों को जानबूझकर कई बार निर्णायक मंडल मे नामजद किया जाता रहा जिससे ये पुरस्कार की दौड़ से बाहर हो जाएं। इसके बरक्स बहुत से लेखक अपने संपर्क सुत्रों से प्रायोजित सरकारी और दरबारी कार्यक्रमों में खुद को पुरस्कार प्राप्त करते दिखाई पड़ते हैं। ये पुरस्कार मैथिलीशरण गुप्त, निराला और मुक्तिबोध वगैरह की स्मृति में राष्ट्रीय पुरस्कारों की तरह प्रचारित किए जाते हैं। देने वाले भावनाहीन होकर देते हैं य्योंकि वह तो उनका मैनेजमेंट फंडा है। लेने वाले अभियुक्त भाव से लेते हैं लेकिन चेहरे पर उपलब्धि की चाशनी चढ़ा लेते हैं। यहां तक होता है कि शॉल श्रीफल खुद खरीद कर ले जाते हैं। 
जो लोग 'भोले बाबा की कृपा हो’ जैसा होर्डिंग लगाते हैं, वे बाल और राज ठाकरे के निशाने पर रहने वाले तत्व भैस के बाड़े से उठकर पद्म श्री पुरस्कारों के औचित्य को समझने का दावा करते हैं। पहले तो पुरस्कार पीछे-पीछे दौड़ते थे और लेने वाला बचता हुआ नजर आता था। अब तो पुरस्कार तो पुरस्कार, संस्कृति मंत्रालय तो यह फरमान जारी करता है कि 'हे लेखक, हे नागरिक तुम्हारा वी.आई.पी. कार्ड मंत्रालय के चपरासी के पास पड़ा है उसे आकर ले जाओ और वी.आई.पी. होना महसूस करो।’
राज्य का संरक्षण लेखकों की गरिमा के लिए आवश्यक नहीं है, लेकिन एक स्वतंत्र लोकतंत्र में लेखकों और संस्कृति कर्मियों की अपनी अहमियत होती है। राजभवनों के निमंत्रण उद्योगपतियों और विवादास्पद लोगों को तो बाकायदा भेजे जाते हैं लेकिन उनमें साहित्य संस्कृति के कितने हस्ताक्षर शामिल किए जाते हैं। कोई लाख अशोक वाजपेयी की बुराई करे, उन्होने साहित्यिक समारोहों में मंत्रियों को मंच से नीचे बिठाकर साहित्य को तो प्रतिष्ठित किया था। यह क्यो जरूरी है कि साहित्यिक कार्यक्रमों में राजनेताओं को नियमत: आमंत्रित किया जाए। कुछ साहित्यकारो के वंशज अपने पूर्वजों की स्मृति में राज्य के सहयोग से महत्वपूर्ण आयोजन करते हैं। मसलन रायगढ़ के हरकिशोर दास अपने स्वनामधन्य बहुभाषी विद्वान पिता चिरंजीव दास की स्मृति में फकत स्मृति आयोजन नहीं करते। उनका प्रत्येक आयोजन स्मृति में सुरक्षित होता जा रहा है। ठाकुर विजय सिंह का 'सुत्र सम्मान’ युवा लेखन को प्रेरणा देने वाला एक अच्छा आयोजन होता है। 
पंडित बृजलाल द्विवेदी की स्मृति में उनके पौत्र संजय द्विवेदी द्वारा किया जाने वाला आयोजन भी उल्लेखनीय है। लेकिन डर यही है कि ऐसे आयोजनों में कहीं राज्य सत्ता की धमक अनुगूंजित होने का प्रयास नहीं करे। इसके बरक्स कुछ आयोजन और भी होते हैं। ये उनकी स्मृति में होते हैं जिनका साहित्य से कुछ लेना देना नहीं रहा लेकिन उनके वंशज समाज में महत्वपूर्ण हो गए हैं। ऐसे आयोजनों की संख्या पूरे देश में बढ़ती जा रही है। पूरे आयोजन का जिम्मा काला धन ले लेता है जबकि सरस्वती का वाहन तो सफेद रंग का बताया जाता है। कागज उजला होता है और स्याही काली।
राज्य सत्ता नक्सलवाद के विरुद्ध लिखने के लिए लेखकों को उकसाती है बल्कि कटाक्ष करती है। यदि कोई लेखक नक्सल समस्या पर राज्य शासन से संवाद करना चाहता है तो उसकी ओर से मुंह फेर लिया जाता है। लेखक समूह इस पूरी समस्या के संदर्भ में राज्य द्वारा संसूचित विवरणो और सांख्यिकी से तो परिचित है। उसे उन अन्य जानकारियों से क्यो नहीं लबरेज किया जाता जिसके आधार पर वह एक समन्वित दृष्टि का विकास करके अपनी मानवीय संवेदनाएं मुखर करता रहे। राज्य, पुलिस, नक्सलवादी और विदेशी धन से पोषित स्वैक्छिक संगठन इस महाभारत में पक्षधर हैं। साहित्य इन सबके ऊपर कालनिरपेक्ष निर्णय करने की हैसियत रखता है। महाभारत के नायक भले ही कृष्ण रहे हों, उसके रचयिता तो वेद व्यास ही कहे जाएंगे। रामायण के नायक भले ही राम रहे हों लेकिन रामायण तो कविता है। वह एक ऐसे डाकू के मन से फूटी थी जिसने एक पक्षी मिथुन के निर्मम वध को देखकर खुद को कवि होने में तब्दील कर लिया था। कविता किसी भी अवतार से बड़ी होती है। साहित्य, सरकार, नक्सलवाद और समसामयिक घटनाओं से परे होकर शाश्वत होता है। राज्य उसे हाशिए पर डालकर अथवा अपना अनुयायी बनाकर बीरबल क्यो बनाना चाहता है जबकि साहित्यकार तो तुलसीदास होने के प्रारब्ध के साथ हैं।
जिस तरह जिंदा रहना और जीवन जीना अलग अलग बानगियां हैं, उसी तरह लिखना और लेखक होना जुदा जुदा स्थितियां हैं। देश इस समय मीडियाक्रिटी के उत्कर्ष के स्वर्ण- युग में है। सरकारी दफ्तरों में घुसे हुए बाबू, राजनीतिक दलाल और अनुकूल मीडियाकर्मी देश का इतिहास लिख रहे हैं। बड़ी राजनीतिक पार्टियों के नेता विपरीत राजनीतिक विचारधारा के लोगों से रोटी, बेटी और व्यापार का रिश्ता कायम किए हुए हैं। मधु लिमये, हीरेन मुखर्जी, नाथ पई और हेम बरुआ जैसे सांसदों का घर फूहड़ और अश्लील भाषा वीरों के हत्थे चढ़ गया है। जो अपने अपने राज्य में अपनी पार्टी की लुटिया डुबो चुके। अपने वंशजों को हरवाने की हैट्रिक संपन्न कर चुके। वे राष्ट्रीय पार्टियों के विचारक बने हुए हैं। अपनी और दूसरे कवियों की रचनाओं का मंचों पर पाठ करने वाले विचार विश्वविद्यालय बन गए हैं। एक बड़ी पार्टी में तो मिडिल फेल की बहार है। चिकनी चुपड़ी अदाकाराएं इत्र, फुलेल महकातीं जनसेविकाएं बनी हुई हैं। जेल के सींखचों में बंद अपराधी तत्व लोकतंत्र की पायदान चढ़ते मंत्रिपरिषद में ठुंस रहे हैं और वह भी जनमत के आधार पर। सैकड़ों करोड़ रुपयों की मिल्कियत बनाना राजनेताओं और नौकरशाहों के लिए स्टैटस सिंबल है। बड़े न्यायाधीश घूस खाने के लिए दलाल पाल रहे हैं और सरकारों तथा गरीबों की जमीनों पर अवैध कब्जे कर रहे हैं। ऐसे में मुट्ठी भर लेखक यदि अंगरेजी भाषा में लिखने की कोशिश करते भी हैं, तो भारतीय वांग्मय के लेखकों का कर्तव्य कई गुना बढ़ जाता है।
पाकिस्तान की तमाम नफरत उपजाने की कोशिशों के बावजूद लोहिया जैसे लोगों ने भारत-पाक-महासंघ और भारत पाक संयुक्त क्रिकेट टीम बनाने की पैरवी की थी। शाहरुख खान ने तो उसका शतांश किया है। य्या लेखक बाल ठाकरे को आईना नहीं दिखाना चाहेंगे? कभी कांग्रेस के सांसद रहे, कभी समाजवादी पार्टी से संलग्न रहे और अब गुजरात के पर्यटन एंबेसडर बने अमिताभ बच्चन केवल अपने कवि पिता की स्मृतियों को बेचने के काम में लगे हुए हैं। बच्चन इतिहास की मुख्य धारा में प्रयाग के महान लेखकों महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला’ , रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती वगैरह-वगैरह के साथ कहीं हैं, लेकिन शीर्ष स्थान पर नहीं हैं। जिस तरह गांधी के वंशज अपने कालजयी पूर्वज की परंपरा को अनुकूल नहीं कर सके, ऐसा ही हाल बहुत बड़े कई लेखकों के वंशजों का भी है। अमिताभ लेकिन अपवाद हैं। वे गुजरात जैसे हिंसक बनाए गए प्रदेश की सरकार को भी अपनी पैतृक बौद्धिक संपदा बेचने से गुरेज नहीं करेंगे। साहित्य की चिंता का यह भी एक विषय है।
सरकारी फाइलों का अंबार तो एक सूअरबाड़ा है। वहां न तो कोई समझ है, न ज्ञान, न विवके, न करुणा और न कालधर्मिता-जो अन्यथा साहित्य की शिराएं हैं। एक रुक्का निकलता है। पद्म पुरस्कार देने हैं या साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं में नामजदगी करनी है। वह गोपनीय सांप केन्द्र से लेकर राज्यो की सरकारी फाइलों के बिल में घुसकर दूध पीता है और फुफकारता है। फिर वह गुपचुप कुछ नामों को लेकर दिल्ली वापस सरक जाता है। और वे रातों रात पद्म पुरस्कारों से नवाजे जाते हैं। पुरस्कृत व्यक्ति को पहले से मालूम होता है क्योकि वही तो फाइलों को यहां से वहां की टेबल तक सरकाता है। यदि किसी सरकारी कर्मचारी को उसके गृह जिले में पदस्थ नहीं किया जाता। यदि निर्णायक मंडल या चयन समितियों में रिश्तेदारों को नहीं रखा जाता, तो सरकारी कार्यालयों और पार्टी कार्यालयों में कार्य करने वालों को पुरस्कार प्राप्त करने के अयोग्य क्यो नहीं करार दिया जा सकता। यह तो वह सरकार है जो पूरी दुनिया में अकेले राज्य के सबसे अच्छे वकील का पुरस्कार देती है जो कि एक निजी व्यवसायी होता है। राज्य के सबसे बड़े डॉक्टर, राइस मिलर, स्टॉक एक्सचेंज कार्यकर्ता, परिवहनकर्ता, शराब विक्रयकर्ता वगैरह के पुरस्कार कब शुरू किए जाएंगे? गांधीजी ने तो वकील को व्यवस्था का दलाल या कबरबिज्जु कहा था इस तरह राज्य का सबसे अच्छा अधिवक्ता सबसे बड़ा व्यवस्था का दलाल ही तो हुआ। वह भी राज्य शासन तय करेगा य्योंकि मुकदमों में तो वही सबसे बड़ा पक्षकार है। क्या यह लेखकीय सरोकार का विषय नहीं बनता है?
पूर्वज वचन समकालीन होकर ही सार्थक होते हैं। जिन प्रमुख छत्तीसगढिय़ों के प्रशस्ति गायन हो रहे हैं, उन्होने खुद समकालीन होकर लिखा। केवल अपने पूर्वजों का गौरव वाचन नहीं किया। बख्शी जी की दृष्टि में पूरा विश्व साहित्य था। उन्होने 'कथा निबंध’ की विधा का आविष्कार भी किया। मुक्तिबोध में तो भविष्य दृष्टि थी। उन्होंने वह भयावह सपना देखा था जिसे हम भोग रहे हैं। मुकुटधर पांडेय ने तो 'छायावाद’ का उद्घाटन किया। रामदयाल तिवारी ने गांधीवाद की मीमांसा कर डाली। बलदेव प्रसाद मिश्र के लेखन में राष्ट्रीयता का आह्वान है। माधवराव सप्रे ने तो साहित्तिक पत्रकारिता की आधारशिला रखी। कोई 100 बरस से अधिक पहले पैदा हुए इन महान कलमवीरों ने राष्ट्रभाषा हिन्दी को राष्ट्रीय संचेतना का वाहक बनाया य्योंकि हिन्दी ही देश को आत्मसात करने का माध्यम है। अंगरेजी के बरक्स हिन्दी की वरीयता देश की अस्मिता है। आज कुछ अखबार और लेखक हिन्दी शब्द उपलब्ध होने पर भी एक तरह की हिंगलिश लिख रहे हैं। प्रभु जोशी जैसे पत्रकार ने इस पर गंभीर आपत्ति दर्ज की है। कहीं कहीं यह भी हो रहा है कि प्रादेशिक भाषा को हिन्दी के मुकाबले आक्रमणकारी के रूप में उपयोग किया जा रहा है। नौकरी और पेट की रोटी की आड़ में ठाकरे परिवार हिन्दी भाषा पर ही तो अंतत: हमला करने की साजिश में खड़ा है। साहित्य और पत्रकारिता की कोई नस्ल, जाति, रंग या यौन नहीं होता। वह कालपराश्रित नहीं कालजयी है। स्मृतियां, परंपराएं बल्कि रूढिय़ां भी खून की तरह हममें प्रवाहित हैं। लेकिन खून रोज रोज ताजा बनता है। वह दूषित होने पर अलग किया जाता है। ज्यादा होने और जरूरत होने पर दूसरों को दिया जाता है। कम होने पर दूसरों से लिया जाता है। उसमें लाल रक्त कण और सफेद रक्त कण कम ज्यादा होते रहते हैं। उसके कई समूह भी होते हैं। कभी कभी खून और खून मिलकर संतति का उत्पादन तक नहीं कर पाते। कभी कभी अलग जाति और धर्म के लिए भी खून बहा दिया जाता है। खून का यही लक्षण है। यही चरित्र है। लेखक की स्याही खून की समानार्थी है। वह मां के आंसू और मेहनतकश के पसीने की समानार्थी है। मुझे लगता है कि लाक्षणिक और फौरी मजबूरी के कारणों को यदि छोड़ दिया जाए तो अपनी अंतत: अभिव्यक्ति में सभी लेखकों का एक मकसद होता है कि वे जनसेवा और जनकल्याण करें। इससे अभिभूत होकर फ्रांस के एक महान लेखक ने कहा भी है कि साहित्यकारों का पूरे विश्व में एक ही गोत्र होता है और वह है सरस्वती गोत्र।
कनक तिवारी
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यह पोस्ट कनक तिवारी जी के लम्बे आलेख का एक अंश है. आज भिलाई के कल्याण महाविद्यालय में देश के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार अशोक वाजपेयी जी का उद्बोधन रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित किया गया उस अवसर पर कुछ मित्रों ने कनक तिवारी जी से इस आलेख को पढने की इच्छा जाहिर की तो कनक तिवारी जी ने उनसे कहा कि संजीव से लेकर पढ लेना. इसलिये इस आलेख को यहॉं प्रस्तुत कर रहा हूँ साहित्यकार अशोक वाजपेयी जी का जन्म हमारे नगर दुर्ग के कलेक्टर बंगले मे ही हुआ था तब उनके दादा जी दुर्ग के जिलाधीश थे. इस बात की चिकोटी काटते हुए साहित्यकार दानेश्वर शर्मा जी ने अशोक जी से छत्तीसगढी मे कहा कि "तोर नेरुआ तो इन्हे गडे हे गा, इन्हा आये ले मत ढेरियाये कर" (आपका जनम नाल यही दुर्ग मे गडा है इस कारण आपका इस नगरी से प्रेम का नाता है, यहां आने के लिये सदैव उत्सुक रहा करिये) तब सभी लोग हस पडे थे. कार्यक्रम के सम्बन्ध मे रिपोर्टिंग बडे भाई शरद कोकाश जी अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत करेंगे. हम अभी अशोक वाजपेयी जी वाले कार्यक्रम के कुछ चित्रों को प्रस्तुत कर रहे है -
अशोक वाजपेयी जी का उद्बोधन
अशोक वाजपेयी जी व कनक तिवारी जी
अशोक वाजपेयी और रविवि के कुलपति पाण्‍डेय जी
अशोक वाजपेयी और शरद कोकाश जी
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1411 बाघो के संरक्षण व संवर्धन के लिये क्या कर सकते है हम ?

CG Blog

इन दिनो टीवी से गम्भीर आवाज मे बाघो के संरक्षण व संवर्धन के लिये प्रतिदिन अंतरालो के बाद सन्देश प्रसारित हो रहा है. जिसमे बाघो के संरक्षण व संवर्धन के लिये ब्लाग लिखने के लिये भी प्रेरित किया जाता है. हम प्रत्यक्षत:  बाघो के संरक्षण व संवर्धन के किसी कार्यक्रम से जुडे नही है इस कारण इस पर कुछ लिख नही पा रहे है. जो चीज हमारे बस मे है वह  यह है कि हम इस सन्देश को आगे बढाये. इसी हेतु से हमने ब्लाग मे लगाने के लिये एक टिकट इमेज बनाया है.  नीचे दिये गये कोड को कापी कर अपने ब्लाग के एचटीएमएल गैजेट मे पेस्ट कर के अपने ब्‍लाग मे लगा सकते है और भारतीय बाघो के संरक्षण व संवर्धन मे भावनात्मक रूप से अपना सहयोग बना सकते है.

प्रख्यात पंडवानी गायिका रितु वर्मा छुटपन में कीर्तिमान

10 जून 1979 को भिलाई की श्रमिक रूआबांधा में जन्मी कु. रितु वर्मा ने अगस्त 1989 में विदेशी मंच पर अपना पहला कार्यक्रम दिया। मात्र दस वर्ष की उम्र में जापान में अपना कार्यक्रम देकर रितु ने वह गौरव हासिल किया जो बिरले कलाकारों को मिलता है। रितु छतीसगढ़ की पहली ऐसी प्रतिभा संपन्न कलाकार है जिसने इतनी छोटी उम्र में ऐसा विलक्षण प्रदर्शन दिया। घुटनों के बल बैठकर और एक हाथ में तंमूरा लेकर रितु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कार्यक्रम दिया। कार्यक्रम में आये जापानी दर्शक गोरी चिट्टी छुई हुई सी लगने वाली इस पंडवानी विधा की गुडिय़ा के प्रदर्शन पर देर तक तालियां बजाते रहे। संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली द्वारा महोत्सव के लिए जापान प्रवास का यह सुअवसर रितु को लगा। तब से वह लगातार विदेश जा रही है। 1991 में आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल ने उसे जर्मनी एवं इंग्लैंड भेजा। तब तक रितु की कला और निखर चुकी थी। वहां उसे खूब वाहवाही मिली।
1995 में जुलाई माह में रितु को पुन: परिषद की पहल पर इंग़्लैंड जाने का अवसर लगा। अक्टुबर 1996 में वह बंगलौर एशिया सोसायटी की ओर से 50वीं स्वर्ण जयंती समारोह में अमरीका गई। जुलाई 2003 में वह पुन: एक माह के लिए इंग़्लैंड गई। पंडवानी विधा में दो शैलियां प्रचलित है। एक मंच पर बैठकर गाने की शैली। इसे वेदमती शैली कहते हैं। इस शैली में ही पंडवानी के पुरोधा दुलारसिंह साव मदराजी सम्मान प्राप्त स्व. झाडूराम देवांगन से लेकर तमाम पुरूष कलाकार गायन करते हैं। पुनाराम निषाद, चेतन देवांगन आदि इसी विधा के कलाकार है। महिलाओं में पंडवानी की सबसे वरिष्ठ कलाकार श्रीमती लक्ष्मीबाई - कातुलबोर्ड वाली इस विधा की साधिका रहीं। लक्ष्मीबाई ने ही पहले पहल पुरुष पोषित पंडवानी विधा में धमाकेदार प्रदर्शन किया। वे आज सत्तर की उम्र में भी प्रदर्शन देती है। कैंसर से लडक़र जीत जाने वाली इस जीवट कलाकार के बाद रितु ने ही वेदमती शैली में गायन का अभ्यास किया। शेष चर्चित पंडवानी गायिकाओं में विश्वविख्यात पद्मभूषण डॉ. तीजनबाई सहित श्रीमती शांतिबाई चेलक, श्रीमती मीना साहू, श्रीमती प्रतिमा, श्रीमती उषा बारले, श्रीमती सोमेशात्री, श्रीमती टोमिनबाई निषाद सबने कापालिक शैली को साधा। कापालिक शैली में कलाकार खड़े होकर अभिनय सहित मंच पर कला का जौहर दिखाता है। यह शैली महिलाओं के लिए अनुकूल और प्रभावशाली सिद्ध हुई। रितु ने छुटपन से एक पांव के घुटने पर बल देकर पंडवानी कहने की कला को साधा। आज रितु श्रीमती रितु नोमुलवार हो गई है। उसका एक बेटा भी है। समय- समय पर उससे भी खड़े होकर कापालिक शैली में गायन करने का आग्रह किया गया लेकिन रितु ने अपना ढंग नहीं बदला। अपनी शर्तों पर जीने वाली रितु ने इस शैली की साधना से विश्व में नाम किया। वह उत्तरोत्तर यश के शिखरों का स्पर्श कर रही है। अंधेरी बस्ती में स्वर का उजास पाटन क्षेत्र के गांव सोरम से एक श्रमिक परिवार आज से तीस वर्ष पहले भिलाई आया। उसे रूआबांधा में आसरा मिला। सोरम गांव के श्री लखनलाल वर्मा अच्छे बढ़ई थे। यहां अपनी दक्षता का लोहा मनवाने में लखनलाल को अधिक समय नहीं लगा। उनका काम चल निकला। यहीं 10 जून 1979 को रितु का जन्म हुआ। रितु जब पांच वर्ष की थी तब उसे खेलने के लिए एक तंबूरानुमा खिलौना पिता ने दे दिया। इस बीच कुछ पंडवानी के कार्यक्रमों में भी देखने-सुनने के लिए रितु पिता की गोद में बैठकर आती जाती रही। वहां से लौटकर वह कुछ गुनगुनाने का प्रयत्न करती। कभी खिलौने को टूनटुनाती। उसके इस प्रयास को रूआबांधा के गुलाबदास मानिकुरी ने देखा। उन्हे पंडवानी गायन की थोड़ी सिद्धि थी। वे भी श्रमिक थे। पिता लखनलाल ने भी प्रोत्साहित किया। कुछ दिनों के बाद एक छोटा ढंग का तंबूरा भी लखनलाल ने बना दिया और रितु का अभ्यास शुरू हो गया। शाम को अपने घर के आगे बोरे में बैठकर रितु पंडवानी गाती। काम से थके रूआबांधा बस्ती के बूढ़े जवान वहां आ जुटते। लालटेन और चिमनी की रोशनी में रितु का गायन होता।
'जैता म पण्डो मन जनम लीन भैया’ प्राय: पंडवानी गायन की शुरुवात में यही वाक्य कलाकार उमचाता है। जयता पाण्डवों की नगरी और हसना कौरवों का नगर। पारंपरिक पंडवानी में कौरव पाण्डवों को पशुपालक के रूप में र्वणित किया जाता था। बजनी वन, उसमें चरती आठ लाख गायें, बकरियां, हाथी, सब साथ में विचरते। इस तरह की ग्रामीण कथायें प्राय: भिन्न-भिन्न जातीय संस्कारों से जुड़े कलाकार गाते हैं। लेकिन मानक के तौर पर सबलसिंह चौहान लिखित कथा को साधा। उन्होने तुलसी के दोहों, संस्कृत के श्लोकों और कबीर के वचनों का भी प्रभावी प्रयोग किया। वे पहले गायक थे जिन्होने लिखित कथा को हृदयंगम कर उसे छत्तीसगढ़ी रूप दिया।
रितु के मन पर झाडूराम देवांगन का गहरा प्रभाव पड़ा। पिता लखनलाल भी पोथी उठा लाये। वे कथा रटाते और गुलाबदास कथा को सुर में ढालने का गुर सिखाते। इस तरह रितु ने पहला पाठ अपने इन दो गुरुओं से सीखा। रितु पारंपरिक शैली की साधिका है। वही अकेली महिला गायिका है जो पंडवानी की वेदमती शैली में शुरू की उठानवाली पंक्तियों को यथावत गाती हैं...
'रामे रामे रामे रामे गा रामे भइया जी,
रामे रामे रामे रामे ग रामे भाई,
राजा जनमेजय पूछन लागे भैया,
बइसमपायेन कहन लागे भाई।‘
रितु इस तरह कथा की शुरुवात करती है। अन्य महिला, कलाकार कका ममा जैसे संबोधनों के सहारे आगे बढ़ती है लेकिन रितु की ठेही 'भइया’ है। छोटी सी रितु ने जब थोड़ा सा अभ्यास कर लिया तब रूआबांधा के बबला यादव के घर के सामने उसका पहला कार्यक्रम हुआ। पहले कार्यक्रम में ही रितु की प्रतिभा का लोहा बस्ती वालों ने स्वीकार कर लिया। फिर उसे प्रोत्साहन के लिए कुछ कार्यक्रम और मिले। धीरे-धीरे गांवों में उसकी धूम मचने लगी। लखनलाल जी ने कुछ साजिंदों को जोडक़र एक दल बना लिया। 'रितु वर्मा पंडवानी दल’ चल निकला। रूआबांधा बस्ती का नाम भी चमक उठा। फिर पहला बड़ा ब्रेक रितु को भिलाई इस्पात संयंत्र के लोकरंगी आयोजन में मिला। प्रदर्शन देखकर बीस हजार दर्शक ठगे से रह गये। एक आठ बरस की दुबली पतली लडक़ी ने जिस आत्मविश्वास के साथ पंडवानी कथा का गायन किया उसे देखकर आयोजक भी दंग रह गए। यहां से रितु के प्रभामंडल का विस्तार होने लगा। और दस बरस की रितु उड़ चली, गुडिय़ों के देश जापान की ओर। कैसा अजब संयोग था कि हिरोशिमा और नागासाकी का प्रलंयकारी विभीषिका से थर्राये हुए जापान में भारत की इस नन्ही सी कलाकार बेटी को महासंग्राम की कथा की प्रस्तुति के लिए बुलाया गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी कृष्ण जैसे जगतगुरू से लड़ाई टाली न जा सकी और अंधे धृतराष्ट्र तथा आंखों पर पट्टी बांधकर जीने को प्रतिबद्ध माता गांधारी के सभी बेटे उसके सामने युद्धक्षेत्र में खेत रहे।
जापान में एक भीषण लड़ाई और उसके दुष्परिणाम की कथा रितु कह आई। उसे जापान में बेहद .यार मिला। तब उसके पिता उसे सहारा देकर हवाई जहाज की सीट पर बिठाते थे, आज पिता जीवन की संध्‍या में थके थके से दिखते हैं। रितु उन्हे सहारा देकर उल्लास से भरा जीवन जीने की प्रेरणा दे रही है। स्वयंवर का आदर्श रितु ने रूआबांधा बस्ती के हमजोली युवक मंगेश नोमुलवार से प्रेम विवाह किया। 20 दिसंबर 2000 को हुई यह शादी। छत्तीसगढ़ राज्य बनते ही रितु ने शादी कर ली। छत्तीसगढ़ी कलाकारों मे रितु ने यह भी यादगार कीर्तिमान रच दिया। यह बेहद धमाकेदार शादी थी। पिता लखनलाल आपे से बाहर हो गये। वे श्री बदरूद्दीन कुरैशी राज्य मंत्री से गुहार भी कर आये। मेरा भी उस परिवार से घरोबा है। मैं स्वयं चलकर लखनलाल जी के पास गया। वे व्यथित थे और लगभग टूट से गये थे। लंबी दाढ़ी और झूलते लंबे लटों से लखनलाल सहसा विराग साधक बाबा की तरह लगते हैं। वे गेरुवा वस्त्र ही धारण करते हैं और गले में लगभग दस तरह की छोटी बड़ी मालायें लटकाते हैं। उन्हे गुस्से में देखकर मुझे माखनलाल चतुर्वेदी की पंक्ति याद हो आई... 'अगम नगाधिराज मत रोको, बिटिया अब ससुराल चली।‘ प्रगट में मैंने कहा कि लखनलाल जी रितु पंडवानी की साधिका है। विश्व में कई देशों में धूम आई है। अपने मन के वर का वरण करना उसका अधिकार है। सुभद्रा, रूकमणी की प्रणय कथाओं के सुखद अंत की कथा कहती हुई वह जवान हुई है। आप आशीष भर दीजिये। कुछ दिनों में सब यथावत हो जायेगा। और वाकई तात्कालिक धमाके शीघ्र ही शांत भी हो गये। लखनलाल जी पुन: बिटिया के दल के साथ आ जा रहे हैं। मंगेश उनका होनहार दामाद है और रितु यश देनेवाली प्रिय बिटिया। अक्षर की रोशनी आज भी पंडवानी के सिवाय रितु का दूसरा कोई शगल नहीं है। उसे अपनी जन्म तारीख भी याद नहीं रहता।
मंगेश ही सब कुछ सम्हालते हैं। कार्यक्रम की तिथियों से लेकर सिंगार की सभी सामग्री, सुंडरा, ककनी, पुतरी से लेकर टिकली फुंदरी तक की सार सम्हाल करते हैं मंगेश। रितु अब पांचवीं की परीक्षा दे चुकी है। वह अब केवल हस्ताक्षर ही नहीं करती, बाकायदा अखबार बांच लेती है। रितु ने साक्षरता अभियान के तहत अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। भिलाई नगर परियोजना की कक्षायें रूआबांधा में भी चलीं। रूआबांधा के अक्षर सैनिकों ने उसे पढऩा लिखना सिखाया।

डॉ.परदेशीराम वर्मा
संपर्क: एल.आई.जी. 18, आमदीनगर,
हुडको, भिलाई नगर 490009 छत्तीसगढ़

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥

प्रेम दिवस पर जन्मी भारतीय सिनेमा जगत की अद्वितीय अभिनेत्री मधुबाला जीवन भर प्यार के लिए तरसती रही. उन्हें जब सच्चा प्यार किशोर कुमार के रूप में तब मिला तब तक वह मौत के काफी करीब आ चुकी थी और अपने जन्मदिन के महज कुछ ही दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। उनका मूल नाम मुमताज बेगम देहलवी था उनका जन्म दिल्ली के एक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। उनके पिता अताउल्लाह खान दिल्ली में रिक्शा चलाते थे। अताउल्लाह खान को जब एक भविष्यवक्ता ने बताया की कि मधुबाला का भविष्य उज्ज्वल है और वह बड़ी होकर बहुत शोहरत पाएगी। तब वह मधुबाला को लेकर मुंबई आये। और संघर्षों के बाद वर्ष 1942 में फिल्म बसंत में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार बेबी मुमताज के नाम से काम करने का मौका मिला। तद्समय की अभिनेत्री देविका रानी बेबी मुमताज के सौंदर्य को देखकर काफी मुग्ध हुई और उन्होंने उनका नाम मधुबाला रख दिया था। जिन्दगी भर प्रेम को तरसती मधुबाला के लिये आज प्रेम दिवस पर प्रेम के बहुविद आयामो को सामान्य जन तक पहुंचाने वाले कबीर के कुछ प्रेम दोहों के साथ हमारी श्रद्धांजली-
साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।
चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥
प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥
आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥

साहेब बंदगी ...... पतिया ले भोजली  तोर अगोरा हे गोंदा फूल धरे तरिया के पार मा तोला अगोरत हंव आजा टिपिया ले-

कब तक ? कब तक होता रहेगा यह प्रयोग .. ?

चलती है बुलडोजर
कांपती है जिन्दगी
बिखरती है सासें
और ... बिरजू की रोटी
पिस जाती है धूल मे धूल.
नाक में गिर आये एनक को
फिर से अपने जगह में स्थापित करने के लिए मैं
अपनी उंगली बढाता हूं.
कंपनी का बुलडोजर
फिर मंगत की रोटी की ओर झपटता है.
रूकती है एक कंटेसा मुस्कुराता हूं मैं
अपनी टोपी उतार
सलाम करता हूं उसे, वह ...
मशीनी शक्ति से समतल हुए टूटती सासों को देखता है
उसे उपलब्धियॉं नजर आती है
बहुमंजिला नायाब इमारत के रूप में
वह आयाति‍त हम पर हावी भाषा में
मुझे बधाई देता है
और कंटेसा सूखे जुबान वालों की
भीड को चीरती हुई निकल जाती है .
मैं धूल से भर आये अपने बालों को झाडता हूं ...
मनहूस धूल.
आंखों में उड/पड आये कंकड को
रूमाल के कोने से
निकालने का भरसक प्रयत्नं करते हुए
फिर बुलडोजर चालक को इतनी सहजता से आदेश देता हूं
जैसे मैनें बुधारो के बढे पेट और
संतू के कटे हांथ को देखा ही नहीं है
जैसे मैं उस कंटेसा वाले का भाई हूँ/बेटा हूं
कब तक ? कब तक होता रहेगा यह प्रयोग .. ?
मेरे शक्ति का/मेरे साहस का
मेरे मानस का .. ?
कब तक सोता रहेगा मेरा मन
इन झूठे मायावी अइयासी के आवरणों को ओढ
आखिर कब तक जो कभी जागता था
भगत सुभाष आजाद बन कर .. ?

संजीव तिवारी

कमाई नहीं धन का एकतरफा प्रवाह है यह

पिछले दिनों छत्तीसगढ के एक आईएएस के घर आयकर विभाग को मिली अनुपातहीन सम्पत्ति  और भोपाल के आईएएस दम्पत्ति के घर के कोने कोने से मिले करोडो के नोटों को देखकर, सुनकर, पढकर मन कुछ अशांत रहा है इसी बीच आज अनिल पुसदकर जी के पोस्ट नें मन में एक जोरदार भूचाल उठा दिया है बडे भाई अनिल पुसदकर जी नें अपने पोस्ट में एक लडकी का उल्लेख किया है जिसके पिता की सडक दुर्घटना में चार दिन पहले ही मृत्यु हो चुकी है और उसके भाई का दोनों गुरदा खराब है, वह लडकी सुबह लोगों के लिये टिफिन बनाकर अपनी पढाई कर रही है. बीमार भाई का इलाज पिता के निजी संस्थान में हाड-तोड नौकरी के बूते हो रही थी और जब पिता की मृत्यु दुर्घटना से हुई तब भी वे अपने बेटे के लिए दवाई लेने जा रहे थे. .................. अनिल भाई नें अपने पोस्ट पर अनेकों अनसुलझे सवाल प्रस्तुत किये हैं.

धन का एकतरफा प्रवाह बार बार हमें बेचैन करता है एक तरफ ऐसे आईएएस है जिनके पास नोटों का अंबार है, बिस्तर मे नोट, किचन के डिब्बो मे नोट, कचरा पेटी मे नोट, नोट ही नोट.  दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो दाने दाने को मोहताज हैं. यै ईश्वर तेरा कैसा न्याय है जिसके पास धन है उसे और .. और..  और धनिक बना रहा है. मेहनत करने वाले जी तोड मेहनत करने के बाद भी किस्मत के अस्तित्व को बरबस स्वीकार रहे हैं. मन में उमडते इन विचारों के बीच मुझे मेरी एक पुरानी कविता याद हो आई, उसे आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं. शायद आपको पसंद आये और मेरे मन को सुकून - 

कमाई

पूरे पांच साल बाद
वो भव्य माल के
उद्धाटन समारोह में आये
मुस्काये
फिर मुझे देख
चकराये
अरे तुम अभी तक !
मैंने दिग्विजय की तरह
स्वीकृति मुस्कान बिखेरी

उसने अपने बढते औकाती ग्राफ का
वाकया सुनाया
अदद पांच साल में मेरा पेट
तीस से सौ हो गया
चार बार इनकम टैक्स का छापा पडा है
अभी चांवल घोटले में पैरोल से हूं
सीबीआई की भी नजरों में हूं
अब आगे भगवान जाने क्या होता है
उसने बडी मासूमी से
प्रायमरी वाली दोस्ती की सहजता से कहा
देश, प्रदेश आदि के बाद
बात इमारत व मुझ तक पहुंची
उसने भव्य माल को निहारते हुए कहा
’पच्चीस करोड में कितना कमाये
क्या बनाये, कितना दबाये‘

'एक अदद बीबी एक बच्चा
बीबी के घर, गहनों की लिप्सा
मध्यम वर्गीय भूख,
बच्चे के महगे खिलौनों की मांग
के बीच भी
औकात से कम वेतन में
हम कर्मठता के साथ मालिक का
यह भवन बनाये
मजे से जी रहे हैं मित्र
आज नहीं तो कल
हमारे भी दिन आबाद होंगें
इसी संतोष का स्वप्न सजाये'

मैंने अपने पिचके गाल
धंसे आंखों वाले मुख मंडल में
चमक बरकरार रखते हुए कहा .

संजीव तिवारी

लोहिया पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं

राम मनोहर लोहिया जी पर आधरित मेरे पिछले पोस्ट पर भाई अनुनाद सिंह जी ने टिप्पणी की, कि लोहिया जी की इस कडी का लिंक  हिन्दी विकि के "राम मनोहर लोहिया" वाले लेख पर दे रहा हूं. और बडे भाई गिरीश पंकज जी ने भी बतलाया कि यह वर्ष लोहिया जी का जन्म शताब्दी वर्ष है(23 मार्च 1910), तो हमे लगा इस पर और सामग्री अपने ब्लाग पर प्रस्तुत की जाये. इसी क्रम मे लोहिया जी पर  सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि बैरागी व अन्य सात की कालजयी कविताएं हम यहा प्रस्तुत कर रहे है -
   
1. शेष जो था
बालकृष्ण राव

कुछ भी न कहा,
जब तक सह सका
बिन बोले सहा-
और जब सहा न गया,
कहना तब चाहा
पर कहा न गया।
जो जितना जान सका
उतना ही बखान सका-
कौन भला नीचे जा,
चेतना के निम्नतम छोर से
कर सका पीड़ा का तल स्पर्श
भाषा की अधबटी डोर से?
माना गया वही जो जान गया,
कहा गया वही जो सहा गया,
शेष जो था
अनदेखा सपना था
किन्तु वही
पूरी तरह अपना था।

1. लोहिया 
नरेश सक्सेना
(मृत्यु से लगभग एक वर्ष पूर्व लिखी गई)

एक अकेला आदमी
गाता है कोरस
खुद ही कभी सिकन्दर बनता है
कभी पोरस
(युद्घ से पहले या उसके
बाद या उसके दौरान)
जिरह-बख्तर पहन कर घूमता है अकेला
और बोलता है योद्घाओं की बोलियाँ
खाता है गोलियाँ
भाँग की या इस्पात की?
देश भर में होती है चर्चा
(अपनी ही जेब से चलाता है देश भर का खर्चा)
एक पेड़ का जंगल
शिकायत करता है वहाँ जंगलियों के न होने की।

3.
उमाकान्त मालवीय

कोई चाहे जितना बड़ा हो,
उसका अनुकरण
उसका अनुसरण
तुम्हारी गैरत को गवारा नहीं,
तुम्हारा अनुकरण
तुम्हारा अनुसरण
कोई करे ऐसी हविस भी नहीं।
अनुकरण
अनुसरण
की बैसाखियाँ तुम्हें मंजूर नहीं
इसलिये,
जब तुम्हें मिले सन्देश
उस पार दूर गाँव के।
तुम चल दिये छोड कर आग पर
निशान पाँव के।

4. किताब का एक पृष्ठ 
प्रदीप कुमार तिवारी

एक पृष्ठ कम है
उस किताब का
जिसके कि-
हम, आप सब
एक अलग अलग पृष्ठ हैं,
उस किताब से
वह पृष्ठ तो निकल गया
किन्तु-
निकलते निकलते छोड़ गया
अपने दर्शन की
अपने विचारों की
अपनी शैली की
एक अमिट, रुपहली छाप
उन सभी पृष्ठों पर
जो हम और आप सबके
रूप में वर्तमान हैं।

5. लोहिया के न रहने पर
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह कविता आदरणीय अफलातून जी के ब्लाग यही है वह जगह मे प्रकाशित है, पाठक इसे यहां से पढ सकते है.

6. हमारी धमनियों के तुम मसीहा थे
बालकवि बैरागी

ओ बगावत की प्रबल उद्दीप्त पीढ़ी के जनक!
हम तुम्हें कितना जियेंगे कह नहीं सकता!
न जाने क्या समझ कर आँख मूँदे चल दिये तुम
हलाहल जो बचा है हम उसे कितना पियेंगे कह नहीं सकता।
तुम्हें देखा, तुम्हें परखा तुम्हें भुगता, सुना,
समझा तुम्हें हर रोज पढ़ते हैं तुम्हारा ढंग
अपना कर कभी हम बात करते हैं
तो वे मूरख समझते हैं कि लड़ते हैं-
मुबारक हो उन्हे उनकी समझ।
नयी भाषा, नई शैली नये रोमांच के सर्जक!
तुम्हारी हर अदा भरसक सहेजेंगे,
अमानत है शिराओं में तुम्हारे स्वप्न
ऐसे छलछलाते हैं कि हर बेजान गुम्बज को
हमारे स्वप्न से गहरी शिकायत है
मुबारक हो उन्हे उनकी शिकायत।
तुम्हारा 'वाद' क्या समझू
तुम्हारी जिद, तुम्हारा ढंग प्यार है
शुरू तुम कर गये मेरी जवानी के भरोसे पर
मुझे वो जंग प्यारा है।
यकीं रखो कि अंतिम फैसला होगा वही जो तुमने चाहा था
तुम्हारा हौसला झूठा नहीं होगा, भले ही टूट जाऊँ मैं, मेरी काया,
मेरी रग रग मगर संकल्प जो तुमने दिया टूटा नहीं होगा।
जवानी आज समझी है कि तुम क्या थे तुम्हें जो दर्द था वो हाय!
किसका था तुम्हारा अक्खड़ी लहजा तुम्हारी
फक्कड़ी बातें तुम्हारी खुश्क सी रातें
न समझो इस लहू ने टाल दी,
या कि सदियाँ भूल जायेंगी न अपना 'प्राप्य तुमको
दे सके हम सब मगर उसको तुम्हारी धूल पायेगी।
करोड़ों उठ गये वारिस तुम्हारी एक हिचकी पर
कहीं विप्लव कुँआरा या कि ला औलाद मरता है?
हमारी धमनियों के तुम मसीहा थे, मसीहा हो सुनो!
तुमको बगावत का हर एक क्षण याद करता है।

7. लोग करते हैं बहस
ओंकार शरद

'लोहिया चरित मानस' का कर्म पक्ष शेष हुआ।
आज दिल्ली का एक घर खाली है,
और कॉफी हाउस की एक मेज सूनी है;
बगल की दूसरी मेज पर लोग करते हैं बहस-
लोहिया को स्वर्ग मिला, या मिला नरक!
जिसने जीवन के तमाम दिन बिताए भीड़ों और जुलूसों में,
और रातें, रेल के डिब्बो में, अनेकानेक वर्ष काटे कारागारों में,
जो जूझता ही रहा हर क्षण दुश्मनों और दोस्तों से;
जिसका कोई गाँव नहीं, घर नहीं,
वंश नहीं, घाट नहीं, श्राद्घ नहीं;
पंडों की बही में जिसका कहीं नाम नहीं;
जिसने की नहीं किसी के नाम कोई वसीयत,
उसके लिए भला क्या दोजख, और क्या जन्नत!
मुझे तो उसके नाम के पहले 'स्वर्गीय' लिखने में झिझक होती है;
उसे 'मरहूम' कलम करने में सचमुच हिचक होती है!

साभार इतवारी अखबार

" बने करे राम मोला अन्धरा बनाये " यह गीत छत्तीसगढ से ट्रेन से गुजरते हुए आपने भी सुना होगा

कल के मेरे पोस्ट पर शरद कोकाश भैया की टिप्पणी प्राप्त हुई कि रामेश्वर जी से सम्पर्क करो और उनकी कविता " बने करे राम मोला अन्धरा बनाय " की रचना की प्रष्ठ्भूमि सहित प्रस्तुत करो .. उनसे पूछना ज़ोरदार किस्सा सुनयेंगे । तो हम रामेश्वर वैष्णव जी की वही कविता आडियो सहित यहॉं प्रस्तुत कर रहे है -
भूमिका इस प्रकार है कि एक बार रामेश्वर वैष्णव जी रेल में रायपुर से बिलासपुर की ओर यात्रा कर रहे थे तो रेल में एक अंधा भिखारी उन्हे गीत गाते भीख मांगते हुए मिला. वह अंधा भिखारी रामेश्वर वैष्णव जी द्वारा लिखित 'कोन जनी काय पाप करे रेहेन' गीत गा रहा था; रामेश्वर वैष्णव जी को आश्चर्य हुआ और उन्होनें उस अंधे भिखारी को अपने पास बुलाकर बतलाया कि जिस गीत को तुम गा रहे हो उसे मैनें लिखा है यह मेरा साहित्तिक गीत है इसे गाकर तुम भीख मत मांगो भईया. पहले तो अंधे भिखारी को खुशी हुई कि तुम ही रामेश्वर वैष्णव हो. फिर भिखारी नें कहा कि इस गीत को गाते हुए बहुत दिन हो गए है और वैसे भी अब इस गीत से ज्यादा पैसे नहीं मिलते इसलिए आप मेरे लिए कोई दूसरा गीत लिख दीजिये.
अंधे भिखारी नें गीत में चार आवश्यक तत्वो को समावेश करने का भी अनुरोध किया. पहला - गीत में हास्य व्यंग्य होना चाहिए यानि हमारे देश का भिखारी भी हास्य व्यंग्य समझता है. दूसरा - देश दुनिया में जो हो रहा है उसे लिखें. तीसरा - गाना ऐसा लिखें कि सुनने वाला फटाक से पैसा निकाल कर मुझे धरा दें यानी करूणा होनी चाहिए. चौंथा - मेरा नाम बाबूलाल है उसे जोडियेगा. रामेश्वर वैष्णव जी छत्तीसगढी गीतों के लिए जाने माने नाम हैं ऐसे में उन्होनें उस भिखारी के अनुरोध को स्वीकार किया और गीत मुखरित हुई जिसे आप लोग भी सुने. हो सकता है कि छत्तीसगढ से ट्रेन से गुजरते हुए रायपुर से बिलासपुर की यात्रा के दौरान आपने भी इस अन्धे भिखारी को देखा होगा और यह गीत सुना होगा. यह गीत सरल छत्तीसगढी भाषा में है इसकी अनुवाद करने की आवश्यकता नहीं है, इसे आप सुने गीत आपको समझ में भी आयेगी और व्यवस्था पर चोट करती रामेश्वर वैष्णव जी की बानगी आपको गुदगुदायेगी.


संजीव तिवारी

रामेश्वर वैष्णव की अनुवादित हास्य कविता मूल आडियो सहित

रामेश्वर वैष्णव जी  छत्तीसगढ के जानेमाने गीत कवि है, इन्होने हिन्दी एव छत्तीसगढी मे कई लोकप्रिय गीत लिखे है. कवि सम्मेलनों मे मधुर स्वर मे वैष्णव जी के गीतो को सुनने में अपूर्व आनन्द आता है. वैष्णव जी का जन्म 1 फरवरी 1946 को खरसिया मे हुआ था. इन्होने अंग्रेजी मे एम.ए. किया है और डाक तार विभाग से सेवानिवृत है. इनकी प्रकाशित कृतियो मे पत्थर की बस्तिया, अस्पताल बीमार है, जंगल मे मंत्री, गिरगिट के रिश्तेदार, शहर का शेर, बाल्टी भर आंसू, खुशी की नदी, नोनी बेन्दरी, छत्तीसगढी महतारी महिमा, छत्तीसगढी गीत आदि है. 
मयारु भौजी, झन भूलो मा बाप ला, सच होवत सपना, गजब दिन भइ गे सहित कई छत्तीसगढी फिल्मो का इन्होने लेखन किया है. वैष्णव जी छत्तीसगढ के कई सांसकृतिक संस्थाओ से भी सम्बध है. इनकी छत्तीसगढी हास्य कविताओं के लगभग 20 कैसेट्स रिलीज हो चुके है . आज भी रामेश्वर वैष्णव जी निरंतर लेखन कर रहे है.  इन्हे मध्यप्रदेश लोकनाट्य पुरस्कार, मुस्तफ़ा हुसैन अवार्ड 2001, श्रेष्ठ गीतकार अवार्ड और अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके है. 
वैष्णव जी की एक छत्तीसगढी हास्य कविता का आडियो अनुवाद सहित हम यहा प्रस्तुत कर रहे है, मूल गीत गुरतुर गोठ में उपलब्‍ध है. भविष्य मे हम इनकी हिन्दी कविताओ को भी प्रस्तुत करेंगे -
पैरोडी - तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्‍या निभाओगे (अलताफ़ राजा)

बस मे मैं कब से खडा हूँ मुझे बैठने की जगह दे दो
ले दे के घुस पाया हूँ मुझे निकलने के लिये जगह दे दो
भीड मे मै दबा हूँ सास लेने के लिये तो जगह दो
मै तो सास लेने का प्रयाश कर रहा हूँ
तुम कितना धक्का दे रहो हो
मै भीड मे दबा हूँ सास लेने के लिये तो जगह दे दो
भेड बकरियो की तरह आदमियो को बस मे भर डाले हो
ये समधी जात भाई मेरी लडकी के लिये 
लडका भले तुम ना दो पर मुझे सीट तो दे दो 
बस मे खडा यह लडका मिर्च का भजिया खाया है, 
इसका पेट खराब है, इसका कोई भरोसा नही है, 
दौड कर जावो, जल्दी इसे दवा तो दे दो

रामेश्वर वैष्णव

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