लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

 विजय वर्तमान

चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है......

Ramchandra Deshmukh Chaindaini Gonda

07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है।

कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों ने हिन्दी की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्रिकाओं जैसे ' धर्मयुग ' आदि में विस्तारपूर्वक लिख कर सम्पूर्ण भारत को चंदैनी-गोंदा की क्रांतिकारी चेतना से अवगत कराया। शिव यादव भैया ने अंग्रेज़ी अखबारों में लिखकर आत्ममुग्ध अंग्रेजीदाँ तबके को अपने सुरक्षित खोल से बाहर झाँकने हेतु आवाज़ दी।

अरुण निगम, प्रमोद यादव ( अन्य सभी लेखकों को आदरपूर्वक याद करते हुए ) जैसे लोगों ने तो उस विराट सर्जना की विभिन्न परतों को खोलने का जैसे बीड़ा ही उठाया हुआ है। किसी महत्वाकांक्षी योजना के क्रियान्वयन में आने वाली बाधाओं से कोई साधक और संकल्पवान व्यक्ति कैसे निपटता है, नेपथ्य की अयाचित दुश्वारियों का कैसे बुद्धिमत्ता और परिपक्वता पूर्वक समाधान करता है, यह सब धीरे-धीरे खुल रहे हैं।

किसी शानदार शाहकार का मंच जितना महत्वपूर्ण होता है, उसका नेपथ्य उससे कम महत्वपूर्ण नहीं होता।नेपथ्य में एक मुक़म्मल रचना संसार उच्च रक्तदाब के साथ सतत संघर्षरत रहता है। सृजन और अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत और सामूहिक बेचैनियाँ प्रचंड वेग के साथ प्रवाहित होती रहती हैं। मंच और नेपथ्य के अनुशासन के साथ तालमेल बिठाना कलाकारों के लिए शाश्वत चुनौती रही है, इसीलिए तो संस्थायें ज़्यादा दिनों तक टिकती नहीं हैं।सबका अपना कल्पना-संसार,   सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं। सबके अपने अहम और अस्वस्थ प्रतिस्पर्धायें। फ़िर व्यक्तिगत मानवीय दुर्बलताओं से उपजी स्थितियॉं और उनसे निपटने की सामूहिक चेतना नेपथ्य के मनोजगत को कभी शांत नहीं रहने देतीं। बाहर से शांत दिखने वाले नेपथ्य के भीतर अनेक वेगवान तूफ़ान सतत सक्रिय रहते हैं।

चंदैनी-गोंदा में अपनी-अपनी विधा के धुरंधर कलाकार मौजूद थे। तत्कालीन छत्तीसगढ़ के कला जगत में जो भी श्रेष्ठ था, वह चंदैनी-गोंदा के मंच पर था। यह सचमुच घोर आश्चर्य की बात है कि लगभग सत्तर कलाकारों वाला चंदैनी-गोंदा का दानवाकार नेपथ्य कभी किसी अप्रिय अथवा आपत्तिजनक स्थितियों का शिकार नहीं हुआ। किसी अवांछित के अंकुरण का आभास मिलते ही दाऊजी के अनुशासन की अदृश्य छड़ी लहरा उठती थी। ऊपर से सुरेश भैया की पैनी-चौकन्नी दृष्टि सब लोग अपनी पीठ पर महसूस करते थे। बेचारी नैसर्गिक दुर्बलताएँ जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ देती थीं। यह कोई मामूली नेपथ्य नहीं था। इसकी असाधारणता को दीर्घकाल तक साधे रखने के लिए कान्हा जैसे योगी की योग्यता की दरकार थी। दाऊजी का मूल्यांकन इस योग्यता की दृष्टि से भी होना चाहिए।

सन 2000 से ' रामचन्द्र देशमुख बहुमत सम्मान ' के आयोजक पत्रकार-साहित्यकार विनोद मिश्र ने चंदैनी-गोंदा की विचार यात्रा को कभी ख़त्म नहीं होने देने का संकल्प लिया हुआ है। हरि ठाकुर से लेकर दीपक-पूनम विराट तक अब तक अट्ठारह साहित्यकारों - कलाकारों को सम्मानित कर चुके वे दाऊजी की परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं। एक साहित्य संस्थान द्वारा संस्कृतिकर्मी दाऊजी को प्रतिवर्ष गर्मजोशी के साथ याद किया जाना दाऊजी के महत्व को सिद्ध करता है, साथ ही ' बहुमत ' के सरोकार को भी।

सन 2021में डॉ सुरेश देशमुख ने चंदैनी-गोंदा और दाऊ रामचन्द्र देशमुख पर केंद्रित बेहद महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक महत्व का ग्रन्थ सम्पादित करके जिज्ञासुओं और शोधार्थियों के लिए विपुल सामग्री की व्यवस्था कर दी।

मेनका वर्मा भी चंदैनी-गोंदा के कलाकारों का साक्षात्कार करके कलाकारों और चंदैनी-गोंदा को निरंतर चर्चा में रखते हुए उन्हें विस्मृत नहीं होने देने की ज़िद ठाने हुए है। आल्हा लेखक नारायण चन्द्राकर का जुनून एक अलग स्तर पर रहता ही है।

07 नवम्बर 1971 से 22 फरवरी 1983 तक तत्कालीन म प्र और बाहर के प्रान्तों में होने वाले निन्यानबे प्रदर्शनों में एक भी ऐसा नहीं था, जिसे देखने के बाद सुधी व्यक्तियों ने लिखा न हो। चंदैनी-गोंदा के बाद ' कारी ' के साथ भी यही हुआ। प्रत्येक प्रदर्शन पर विद्वानों की अनिवार्य प्रतिक्रियाएं दाऊजी के चिंतन की विलक्षणता और सामाजिक उपादेयता पर मुहर लगाती हैं।

आश्चर्य है कि इतनी विपुल बौद्धिक समीक्षाओं और आत्मीय प्रतिक्रियाओं में तीन बातों का ज़िक्र बहुत कम महत्व के साथ हुआ, जबकि ये तीन बातें मेरी दृष्टि में समीक्षकों का ध्यान आकर्षित करने हेतु उम्दा विचार-सामग्री हैं।ये तीनों बातें चंदैनी-गोंदा के अलावा भारत के किसी भी लोक अथवा भद्र मंच पर सम्भव नहीं हो पायीं।अपनी विलक्षणता और अद्वितीयता के कारण ये बातें जनता की चेतना पर असरकारी तो रहीं लेकिन विद्वानों ने उन्हें बहुत संक्षिप्त में ही निपटा दिया।

इन तीन बातों का उल्लेख करने से पहले यह स्पष्ट कर दूँ कि चंदैनी-गोंदा में संगीत, नृत्य, अभिनय और चिंतन पक्ष जितना प्रभावकारी था, उतना ही या उससे ज्यादा प्रभावकारी था उद्घोषणा पक्ष भी। बेहद सधी हुई परिपक्व आवाज़ में सटीक और अर्थवान शब्द-विन्यास के साथ प्रस्तुति की भूमिका जब विशाल जनसमूह के समक्ष आती थी तो दर्शक स्वमेव आंतरिक अनुशासन में व्यवस्थित होकर मंच का हिस्सा बन जाता था। दर्शक का मंच के साथ एकाकार हो जाना हमने चंदैनी-गोंदा में ही देखा। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मंच का आधा से ज़्यादा काम सूत्रधार के रूप में डॉ सुरेश देशमुख ही कर देते थे।साथ ही उन्होंने तत्कालीन रंगमंच को उद्घोषणा की सर्वथा नवीन और आडम्बरहीन शैली दी। यह चंदैनी-गोंदा का अतिरिक्त एवं अति महत्वपूर्ण उत्पाद था।

चलिए, अब आते हैं उन तीन बातों पर , जिनके कम चर्चित होने का ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। पहला है - विभिन्न भाषा-भाषी गीत।मूल कार्यक्रम प्रारंभ करने से पहले भारत वर्ष की विभिन्न भाषाओं के गीत प्रस्तुत करके चंदैनी-गोंदा ने यह संदेश दिया था कि यह मंच छत्तीसगढ़ी माध्यम में होते हुए भी सम्पूर्ण भारत के साथ वास्तविक सरोकार रखता है। मराठी, गुजराती, उ प्र की, बंगाली, उड़िया, हिंदी आदि के गीतों को पूरी आत्मीयता, शुद्धता और दक्षता के साथ प्रस्तुत करता हमारा संगीत -पक्ष प्रारंभ में ही अपनी श्रेष्ठता, संगीत की बहुमुखी समझ के साथ-साथ अपनी राष्ट्रीय चेतना को सिद्ध करता था। चंदैनी-गोंदा का यह उपक्रम मंच को यकायक अपनी राष्ट्रीय चिंताओं से जोड़ देता था, जो कि बेजोड़ था। यह काम फ़िर किसी अन्य मंच पर नहीं हुआ। सम्भवतः अन्य मंचों में इस स्तर के चिंतन का अभाव था।

दूसरी बात - चंदैनी-गोंदा में उसकी प्रारम्भिक उद्घोषणाओं में ही हमारे निर्णायक पुरखों का अनिवार्यतः उल्लेख होता था। पंडित सुंदर लाल शर्मा, डॉ खूबचन्द बघेल, माधव राव सप्रे, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, बैरिस्टर छेदी लाल, अनन्त राम बर्छिहा, हरि ठाकुर, घनश्याम सिंह गुप्त, ई राघवेन्द्र राव, अमरनाथ सहगल, ज्वालाप्रसाद मिश्र आदि अनेक नामों को बेहद सम्मान और आत्मीयता के साथ जनता की चेतना में स्थापित किया जाता था। उस समय के राष्ट्रीय साहित्याकाश में ख़ूब प्रकाशित तारे बलदेव प्रसाद मिश्र, गजानन माधव मुक्तिबोध, डॉ पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी, मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद पांडेय आदि को भी विभिन्न मंचों पर याद किया जाता था। ये सभी नाम समाजसेवा का अविश्वसनीय ज़ज्बा रखते हुए राजनीति की लगाम भी थामे हुए थे।इनके विराट व्यक्तित्वों ने तत्कालीन समाज को चिंतन के स्तर पर एक स्पष्ट दिशा देने का अभूतपूर्व कार्य किया था।एक कालखंड विशेष में समूचे अंचल को अनेक तरह से संस्कारित करने वाले ये नाम आज भी उतने ही पूजनीय और प्रासंगिक हैं। इनका उल्लेख इन सबके प्रति कृतज्ञता की घोषणा तो थी ही, साथ ही उस समय के सामान्य जन जो इनके विषय में अधिक नहीं जानते थे, उनमें जिज्ञासु होकर अधिक जानने की अभिलाषा का जन्म हो, यह अभिप्राय चंदैनी-गोंदा का था।

कृतज्ञता ज्ञापन वस्तुतः सभ्यता, संवेदनशीलता और मानवता की पहचान है। जो समाज अपने पुरखों को कृतज्ञतापूर्वक याद करता है, वह अपने लक्ष्यों से विचलित नहीं होता, यह स्पष्ट सन्देश चंदैनी-गोंदा का था। यह विनम्रता चंदैनी-गोंदा की चेतनसम्पन्नता को प्रमाणित करता है। यह सुखद, शिष्ट और सभ्य विनम्रता भी अन्य मंचों पर कभी नहीं देखी गयी।

तीसरी बात - चंदैनी-गोंदा के प्रत्येक मंच पर अनिवार्यतः किसी एक समादृत साहित्यकार को सम्मानित करना दाऊजी के दुःसाध्य संकल्प को उजागर करता है। बाद में ' कारी ' के मंचों पर भी यह विलक्षण परम्परा बदस्तूर निभायी गयी जहाँ उसके प्रत्येक मंच पर किसी स्त्री साहित्यकार अथवा किसी समादृत स्त्री कलाकार का सम्मान अनिवार्यतः हुआ। समाज में साहित्य और साहित्यकार के महत्व को स्वीकृत एवं स्थापित करने हेतु अपनाया गया यह उपक्रम न सिर्फ़ प्रणम्य है अपितु मंच जगत में निस्संदेह दीर्घकाल तक स्मरणीय है।

स्मरणीय है कि चंदैनी-गोंदा के किसी भी मंच पर किसी भी राजनेता के चरण कभी नहीं पड़ने दिए गए। ऐसा सायास दृढ़तापूर्वक सम्भव बनाया गया। राजनेता आमंत्रित ज़रूर होते थे किंतु सिर्फ़ दर्शक के रूप में। उनके लिए मंच के समक्ष बैठक-व्यवस्था भी कर दी जाती थी लेकिन मंच पर उनका आगमन कभी नहीं होने दिया गया जबकि तत्कालीन अनेक क़द्दावर और शीर्षस्थ राजनेता दाऊजी के मित्र अथवा सखा भी थे।

दाऊजी की यह मान्यता थी कि राजनेता के मंच पर आगमन से मंच की वैचारिक गरिमा खंडित होती है और एक भीतरी समझौते का अहसास होता है। यह सब रचनाधर्मिता को सूक्ष्म ढंग से प्रभावित करते हैं। मंच की तीक्ष्णता और बेबाक़ी कुंद होने लगती है।

विद्वानों की मान्यता है कि दाऊजी के इस अपराजेय संकल्प ने ही पद्म सम्मानों और राज्यसभा में नामांकन जैसी बातों को दाऊजी के हिस्से में आने से रोका जबकि वे इनके लिए सर्वाधिक सुपात्र थे।

मंच पर साहित्यकार का सम्मान कत्तई आसान काम नहीं होता। उन दिनों आवागमन के बेहद अपर्याप्त साधन थे । अधिकांश सड़कें कच्ची और सर्वथा अनगढ़ थीं। निजी टेलिफोन का होना लगभग अकल्पनीय था। ऐसे में सम्मान के लिए साहित्यकार का चयन करके उनकी स्वीकृति लेना, कार्यक्रम स्थल तक लाने-ले-जाने हेतु कार की व्यवस्था करना, उनके स्वास्थ्य और रुचि-अरुचि का एवं अन्य सुविधाओं का ध्यान रखना आदि-आदि कितना श्रमसाध्य था, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मूल कार्यक्रम को निर्विघ्न संचालित करने के तनाव के साथ साहित्यकार-सम्मान की बेहद नाज़ुक जिम्मेदारी को निभा ले जाना किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं है। साहित्य और साहित्यकार की जनस्वीकृति हेतु किया गया दाऊजी का यह काम सचमुच अनूठा था और उनकी बौद्धिक सम्पन्नता का प्रमाण भी। हम सभी जानते हैं कि किसी अन्य मंच द्वारा यह भी कभी सोचा न जा सका।

आप सोच रहे होंगे कि तीन बातों की चर्चा तो हो गई, अब क्यूँ लेख आगे बढ़ रहा है। साथियों, अभी तीन बातें और हैं, जिनकी आज तक किसी भी समीक्षक अथवा लेखक ने कभी चर्चा ही नहीं की है। वस्तुतः ये तीन कार्यक्रम हैं। सामान्य मुहावरे की भाषा में कहें तो चंदैनी-गोंदा के इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने लायक हैं। ये अचर्चित इसलिए रह गए कि समीक्षक अथवा पत्रकार इन कार्यक्रम - स्थलों पर मौजूद नहीं थे वरना इन पर एकाधिक लेख अवश्य ही डॉ सुरेश देशमुख द्वारा संपादित ग्रन्थ में महत्व के साथ होते। स्वयं सुरेश भैया भी इन कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पाए थे।

बाद के अन्य कार्यक्रमों में निरन्तर व्यस्त रहने के कारण हमारे बीच भी इन कार्यक्रमों की चर्चा इतनी कम हुई कि प्रमोद, अनुराग, शैलजा और मैं भी इन कार्यक्रमों की ठीक-ठीक तिथियाँ याद नहीं कर पा रहे हैं। प्रमोद की संग्रह वृत्ति ने एक प्रमाण अवश्य बचा कर रखा है जिसकी बदौलत उन कार्यक्रमों का सन और महीना दावे के साथ उल्लिखित किया जा सकता है। वह प्रणाम है - अशोका होटल के कार्यक्रम के लिए छपा आमंत्रण -पत्र और साथ ही चंदैनी-गोंदा का संक्षिप्त परिचय देने हेतु छपा फ़ोल्डर। जियो प्रमोद ! मेरे भाई, तुमने इस लेख को संदिग्ध होने से बचा लिया।

आइए, ज़ल्दी ही चर्चा प्रारंभ करते हैं । बात है सन 1977 के सितम्बर माह की। चंदैनी-गोंदा को दिल्ली दूरदर्शन द्वारा दिल्ली आने का आमंत्रण मिला। लोकरंग-मंच के लिये यह आमंत्रण एक ऐतिहासिक घटना थी। ऐतिहासिक इसलिए कि चंदैनी-गोंदा ही छ ग-म प्र की वह प्रथम संस्था थी, सम्भवतः एकमात्र भी, जिसे दिल्ली दूरदर्शन ने अपने स्टूडियो में बुलाया था। यह उस समय राष्ट्रीय सम्मान मिलने जैसा था। उस समय दिल्ली दूरदर्शन ही अकेला राष्ट्रीय चैनल था। श्वेत-श्याम का जमाना था।  उस समय दिल्ली हर दृष्टि से दूर मानी जाती थी। इस आमंत्रण से हम सचमुच उत्साहित और रोमांचित थे। दूरदर्शन ने हमें जो योजना दी थी, उसके अनुसार संगीत और नृत्य पक्ष के कलाकारों को ही जाना था।

हम लगभग बीस कलाकारों ने निज़ामुद्दीन स्टेशन को कृतार्थ किया और दाऊजी ने सीटी बजा कर राजधानी दिल्ली को हमारे आगमन की सूचना दे दी। दाऊजी की जीवन संगिनी श्रीमती राधा देवी भी इस बार स्नेहपूर्वक हम सबके साथ आयीं थीं। दार्शनिक संत श्री राजन शर्मा की उपस्थिति से हमारे दल को अतिरिक्त आभा और गरिमा मिल रही थी। दाऊजी का व्यक्तित्व तो सदा ही सौ सुनारों पर एक लुहार की भाँति भारी हुआ करता था।

प्रारंभ में दूरदर्शन का रेकॉर्डिंग स्टाफ़ हमें ज्यादा तवज्जो देता हुआ प्रतीत नहीं हुआ। उस समय छत्तीसगढ़ लगभग अनसुना, अनजाना, अचर्चित भूखंड था। औसतन एक वन्य-प्रांतर की छवि ही प्रमुख थी।फलतः कुछ अनगढ़ गीत-संगीत और नितांत सरल- सादे नृत्यों की कल्पना उन्होंने कर रखी थी। लेकिन जैसे ही खुमान, गिरिजा, सन्तोष, दास बाबू, महेश, गणेश का उस्तादी वादन और अनुराग, कविता, भैयालाल, लक्ष्मण जैसे सुरसाधकों का सिद्ध सुरीला गायन शुरू हुआ, कुछ देर के लिए सब जड़वत हमें देखते रह गए। किसी लोकमंच पर ऐसा संगीत उन्होंने पहली बार सुना था। यह अभ्यास सत्र था। अभी तो उन्हें एक तगड़ा झटका लगना बाक़ी था। जब शैलजा, बासंती और माया ने दीक्षित नर्तकियों की भांति सधे हुए क़दमों से पूरी भावाभिव्यक्ति के साथ नृत्य प्रारंभ किया तो जैसे उनके होश ही गुम हो गए। वे उबुक-चुबुक होते किसी नौसिखिए तैराक की भांति अपनी बदहवासी पर शर्मिंदा हो रहे थे। उन्हें कल्पना भी न थी कि एक अनजाने से भू-भाग में इतना मनभावन, चित्ताकर्षक संगीत और उसके अनुरूप नयनाभिराम नृत्य की निर्मल धारा प्रवाहित होती है। यकायक उनका व्यवहार मित्रवत हो गया, उनकी आँखों में हम सबके लिए सम्मान दिखने लगा।

मूलतः चार गीतों की रेकॉर्डिंग का प्रस्ताव था किंतु उन्होंने आग्रहपूर्वक चौदह गीत-नृत्य रेकॉर्ड कर लिए। पहले दिन कुछ रेकॉर्डिंग उनके इनडोर स्टूडियो में की गई। शेष रेकॉर्डिंग के लिए गानों का मूड देख-समझकर आउटडोर शूटिंग का निर्णय लिया गया। दूसरे दिन बाहर के विशाल लॉन में गाँव के दृश्य का सेट लगाया गया और थोड़ा-थोड़ा बदलाव करके कुछ नृत्य शूट किए गए। शेष गानों के लिए तीसरे दिन बगल में ही स्थित विख्यात विज्ञान भवन के प्रांगण में सेट लगाकर शूटिंग की गई। हमें सम्पूर्ण रेकॉर्डिंग दिखायी गयी और यह भी बताया गया कि इन्हें देश के विभिन्न दूरदर्शन केंद्रों से कब-कब दिखाया जाएगा। हम उनकी कार्यलयीन तैयारी से प्रभावित थे। वे हमारे परफॉर्मेंस से पूर्णतः सन्तुष्ट थे।

हमने दिल्ली जीत ली थी। एक विजयी सेना की भांति हमने दिल्ली दूरदर्शन को गले लगाया, जैसे राम ने विभीषण के साथ किया था। अगला मोर्चा फ़तह करने हम आगे कूच कर गए।

हमारा दिल्ली प्रवास लगभग सप्ताह भर का था। हमारे रहने - खाने की व्यवस्था तत्कालीन नागरिक उड्डयन मंत्री श्री पुरुषोत्तम लाल कौशिक जी के शासकीय आवास में थी। आपातकाल के बाद भारतीय राजनीति में ग़ैर कांग्रेसी सत्ता का पहला दौर था। जनता दल का शासन था। जयप्रकाश नारायण युवाओं के आदर्श थे। बिल्कुल साफ़-सुथरी, सकारात्मक और लोकहितकारी राजनीति की ख़ुशबू राजधानी की फ़िज़ाओं में घुली हुई थी।

हम राजनीति के एक अकल्पनीय आदर्श दृश्य से रूबरू हुए थे। माननीय मंत्री जी के घर रोज़ का राशन रोज़ बाज़ार से आता था। सम्भवतः उनके पास इतने संसाधन नहीं थे कि माह भर का राशन एक साथ जुटाया जा सके। कितना अच्छा लग रहा है, इस अनुभव को आप सबसे साझा करते हुए।

माननीय कौशिक जी से हमारी ज़्यादा मुलाक़ात नहीं होती थी।हमसे संवाद का सारा ज़िम्मा उनके पी ए श्री चन्द्राकर जी पर था। वे बेहद स्मार्ट, जहीन, तेज़तर्रार, उच्च शिक्षित, छत्तीसगढ़ी ज़ज्बे से लबरेज़ युवा थे। छरहरा बदन, साफ़ उजली त्वचा, सिर पर छोटा सा सुंदर चाँद यानी एक सुखद, सुदर्शन छवि। छत्तीसगढ़ी, हिन्दी और अंग्रेज़ी पर समान अधिकार और साथ ही आकर्षक अदायगी। उनके साथ हम बिल्कुल सहज थे।वे दूरदर्शन और अशोका होटल में हमारे साथ ही थे।

माननीय चन्दू लाल चन्द्राकर जी का निवास निकट ही था। उन्हें हमारे दिल्ली आगमन की ख़बर थी।वे दाऊजी के बहुत अच्छे मित्र थे। एक दिन सुबह लगभग सात बजे हम दाऊजी के साथ उनके घर की ओर पैदल ही निकल गये। बूंदा-बांदी हो रही थी। हमने देखा कि चन्द्राकर जी सफ़ेद खद्दर का सलूखा और हाफ पैंट पहने हाथों में टेनिस रैकेट थामें टेनिस कोर्ट जाने के लिए निकल रहे थे। उनका यह रूप ख़ूब मनोहर था। वे हमें देखकर रुके और ख़ूब गर्मजोशी के साथ हमारा स्वागत किया।

अविवाहित चन्द्राकर जी के निवास में हम बेरोकटोक विचरण कर सकते थे। चन्द्राकर जी सादगी के अप्रतिम मिसाल थे। उनके घर में कुछ भी अनावश्यक और अतिरिक्त नहीं था। सभी कक्षों में क़िताबों और पत्रिकाओं की भरमार थी। एक छत्तीसगढ़ी रसोइया था, वही खर-बावर्ची-भिश्ती-पीर सबकुछ था। उनकी रसोई हमारे लिए अजूबा थी। वहाँ कोई क्रोकरी नहीं थी। दो-तीन छोटी-छोटी बाँस की टोकरियाँ थीं। एक टोकरी में थोड़े से आलू, प्याज़, लहसुन थे। दूसरी टोकरी में ज़िमकन्द का एक छोटा सा टुकड़ा था। एक छोटी बरनी में छत्तीसगढ़ की बड़ियाँ थीं। पता चला कि वे घी भी नहीं खाते थे। वे सच्चे अर्थों में शाकाहारी थे। उन्हें भोजन में स्वाद से कोई मतलब न था। अकेले होने पर चावल - दाल - आलू - प्याज़ सबको एक साथ उबालकर खा लेते थे। नमक न होने का उन्हें पता भी न चलता था। वे हमें दूसरी दुनिया के प्राणी प्रतीत होते थे।

वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार और प्रथम श्रेणी के राजनेता थे। एक इंसान महान कैसे बनता है, इसकी एक झलक हमने पा ली थी। उन्हें छत्तीसगढ़ी, हिन्दी और अंग्रेज़ी में समान रूप से महारत हासिल थी। वे अनेक विदेशी भाषाएँ भी जानते थे। उनकी मुद्राओं में दुर्लभ सरलता थी। उनका आभामंडल ख़ूब बड़ा था।

उसी रात उन्होंने हम सभी कलाकारों को रात्रि भोज दिया था, जिसमें कौशिक जी भी शामिल हुए थे। हमारे लिए विविध व्यंजनों वाला मेन्यू तैयार करवाया गया था।

उसके दूसरे या तीसरे दिन यानी 12 सितम्बर 1977 को हमें एक ज़ोरदार सरप्राइज मिला। पी ए चन्द्राकर जी ने हमें बताया कि अशोका होटल में हमारा कार्यक्रम तय हो गया है। यह सचमुच एक धमाकेदार उपलब्धि थी। चन्द्राकर जी ने हमें बताया कि उस समय तक वहाँ के कंवेंशन हॉल में लता मंगेशकर के अलावा अन्य किसी भी कलाकार का कार्यक्रम नहीं हो पाया है। यह बेहद चौंकाने वाली और हमारे लिए छाती फुलाने वाली सूचना थी।

शासकीय पाँच सितारा अशोका होटल एक अंतरराष्ट्रीय स्थल है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वयं नेहरूजी ने इसके निर्माण में रूचि ली थी और हमारे चन्दू लाल चन्द्राकर जी उनके सहयोगी थे। वहाँ अनेक देशों के दूतावासों के कार्यालय थे।वहाँ प्रायः विदेशी अतिथियों की आमद-रफ्त होती थी। विभिन्न देशों के अलग-अलग डायनिंग कक्ष थे , जिनकी साज-सज्जा उनकी संस्कृति के अनुरूप थी। वहाँ के अधिकांश वेटर अंग्रेज़ी, फ्रेंच  स्पेनिश भाषाएँ बोल-समझ सकते थे। हमारे लिये इतनी सारी विलक्षण बातें, जिनका वर्णन इस लेख की प्रकृति के अनुकूल नहीं होगा।

चन्दू लाल जी को वहाँ के चप्पे-चप्पे की जानकारी थी। कार्यक्रम के बाद उन्होंने हमें हमारी मंच वाली छत्तीसगढ़ी ग्रामीण वेशभूषा में ही होटल के कुछ हिस्सों का भ्रमण करवाया था। कुछ देशों के डायनिंग कक्ष में इतने सारे अतिथियों की उपस्थिति के बावजूद वहाँ व्याप्त शान्ति और शालीनता से हम जैसे हल्लाबाज़ चकित थे। ख़ैर .......

जब हमने कार्यक्रम देने के लिए कन्वेंशनल हॉल में प्रवेश किया, तब जाना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के मंच और हॉल कैसे होते हैं। 1600 लोगों की क्षमता वाला हॉल दर्शकों की उपस्थिति के अनुसार छोटा-बड़ा किया जा सकता था। यह हमारी नज़र में ग़ैर मामूली बात थी।मंच पर ध्वनि और प्रकाश प्रभाव हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सरंजाम थे। 

हमने देखा कि हमारे सामने अधिकांश विदेशी अतिथि बैठे हुए थे। उनके साथ हमारे देश के शीर्षस्थ राजनेता और ब्यूरोक्रेट्स भी पधारे हुए थे। यानी सब के सब व्ही आई पी। हालांकि इस बात से हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ना था।

हमने कार्यक्रम प्रारंभ किया। सभी विदेशी अतिथियों के वीडियो कैमरे सक्रिय हो उठे। उस समय हमारे देश में वीडियो कैमरे आम नहीं हुए थे। हम रोमांचित थे कि हम आद्योपांत उनके कैमरों में क़ैद हो चुके थे। हमारा कार्यक्रम वहाँ बैठे देशी- विदेशी सभी के लिए सर्वथा नवीन और मौलिक था। हमारे संगीत-नृत्य का जादू उनके सर से उतर नहीं रहा था। हमें बधाई देने वालों में विदेशी अतिथियों की गर्मजोशी देखते ही बनती थी।

अशोका होटल का कार्यक्रम चंदैनी-गोंदा के लिए बिल्कुल नया अनुभव था। यह हमारा पारम्परिक मंच नहीं था। दिल्ली जीतने के बाद सम्भवतः हम विश्व-विजय की ओर अग्रसर हुए थे।

दूसरे दिन हमसे मिलने तीन मूल्यवान हस्तियाँ आईं। उस समय देश के सर्वाधिक सम्मानित पत्रकार और समादृत साहित्यकार श्री कन्हैयालाल नन्दन, राजेन्द्र अवस्थी और मनोहर श्याम जोशी का स्वतःस्फूर्त हमसे मिलने आना हमारे लिये बड़े गौरव की बात थी। लिखने - पढ़ने वालों के लिए ऐसा सुयोग मिलना खज़ाना मिलने के समान होता है। अनुराग और शैलजा ने हम सबकी तरफ़ से मेज़बानी की। उन्होंने चंदैनी-गोंदा के विषय में जाना और हमारे साथ तस्वीरें खिंचवायी। हम सब उनसे उम्र और ज्ञान में बहुत छोटे थे अतः तनिक संकुचित थे। लेकिन ऐसे विद्वतजनों का सान्निध्य पाकर हम चंदैनी-गोंदा की गुणवत्ता के प्रति आश्वस्त थे। उनसे मुलाक़ात का गौरव भाव हमारे दिल्ली प्रवास के खाते में दर्ज है।

दिल्ली हम पर मेहरबान थी और हमें हर दृष्टि से मालामाल कर रही थी। सच ही कहा है --' बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख '। लक्ष्मण मस्तुरिया के शब्दों में कहें तो -- ' मंगनी म मांगे मया नई मिलय '।

घर वापसी से पहले दाऊजी ने हम सबको दिल्ली के कुछ हिस्सों का भ्रमण कराया था। जंतर मंतर, बिड़ला भवन और गांधी स्मारक की याद मुझे ज़्यादा स्पष्ट है। गांधी स्मारक वस्तुतः गांधी जी का प्रार्थना स्थल है , जहाँ उन्हें गोली मारी गयी थी। उस स्मारक के साथ हम सबकी तस्वीरें भी प्रमोद भाई ने ली थी।

बेहद सुखद, रोमांचक उपलब्धियों से लबालब यात्रा थी हमारी दिल्ली की। वापसी में लक्ष्मण, प्रमोद, सुशील यदु और मैं रास्ते में ही उतर गये थे और आगरा का भ्रमण करते हुए सुशील भाई के सागर स्थित आवास में एक-दो दिन विश्राम करके फिर वापस दुर्ग लौटे थे। सुशील भाई तब सेंट्रल कस्टम एंड एक्साइज में इंस्पेक्टर थे और सागर में पदस्थ थे।

अब आते हैं तीसरे कार्यक्रम पर, जिसकी भी चर्चा विद्वानों के लेखों में न हो पायी। उ प्र में झांसी के पास मऊरानीपुर है। वह स्थान अखिल- भारतीय  - लोक - सांस्कृतिक - सम्मेलन के आयोजनों के लिए जाना जाता है। दाऊजी इस स्थान पर सन 1967 में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किये जा चुके थे। सन 1977 में चंदैनी- गोंदा के सांस्कृतिक दल ने वहाँ का मंच लूटने का मन बनाया। हम झाँसी की मर्दानी रानी लक्ष्मीबाई के क्षेत्र में कार्यक्रम देने जा रहे हैं, यह सोचकर ही बड़ा रोमांच महसूस कर रहे थे। हम झाँसी से होकर ही मऊरानीपुर पहुँचे थे। बस में बैठे हुए ही हमने रानी का क़िला देखा था।

आज की पीढ़ी के लिए यह जानना रोमांचक होगा कि उस अवधि में डाकुओं का बाक़ायदा अस्तित्व था। मऊरानीपुर का इलाका डाकू-प्रभावित था। हमें जिस रात्रि कार्यक्रम देना था,  उसके एक दिन पहले ही पास के गाँव में डाका पड़ा था। यह मुझे और प्रमोद को वहाँ के बाज़ार में विचरण करते समय पता चला था। इस जानकारी के बाद हम जिसे देखते, वही हमें डाकू या उसका भेदिया नज़र आने लगता। हम भयभीत तो नहीं थे, रोमांचित ज़रूर थे। हमारी उम्र गधा-पचीसी वाली थी। आसन्न खतरों के सामने भी बेफिक्री से जुगाली करने की उम्र।

हुआ यूँ था कि हमारी लड़कियों के मंचीय आभूषणों की गठरी बघेरा में ही छूट गयी थी। शाम को कार्यक्रम देना था। दाऊजी ने हम दोनों की ओर ऐसे देखा जैसे हम हवा में हाथ लहराकर आभूषणों की बरसात करा देंगे। जब हम ऐसा नहीं कर सके तो आदेश हुआ कि बाज़ार जाकर किसी भी तरह एक रात के लिए किराए पर नक़ली ज़ेवर लेकर आओ। इस नाज़ुक स्थिति में ना-नुकुर की गुंजाइश नहीं थी।

हम जय  -वीरू की तरह निकले, किसी सूरमा भोपाली की गर्दन दबोचने के इरादे से। अपनी अदाओं से हम फ़ौरन पहचान लिए गये कि हम बाहरी हैं। महोत्सव सप्ताह चल ही रहा था। शहर में बाहरी कलाकारों की मौजूदगी सामान्य बात थी।

नक़ली ज़ेवरों वाली गली हमारी उम्मीद से बहुत बड़ी थी। हमें उस समय के दुर्ग के शनीचरी बाज़ार वाले हार्डवेयर लेन जैसा अहसास हो रहा था। नक़ली चाँदी के नानाविध चमकदार आभूषण दुकानों के सामने फूलमालाओं की भाँति लटके हुए थे । दुकानदारों ने गर्मजोशी के साथ हमें पुकारा। हमें अहसास हुआ कि उनकी पुकार में व्यावसायिकता नहीं थी। हम एक दुकान पर रुके। वहाँ अन्य चार-पाँच दुकानदार और आ गये। उनके भाव मैत्रीपूर्ण थे। हम चकित थे, सशंकित भी। उन्होंने ज़ल्दी ही जान लिया कि हम छ ग - म प्र से आये हैं। हमने उन्हें अपना मकसद बताया। सबने कहा-- 'जिस दुकान से जो चाहिए, ले लो।'

अब हमारी समस्या यह थी कि वहाँ एक भी आभूषण छत्तीसगढ़ वाला नहीं था। सारे आभूषण भारी-भरकम थे और हमारी लड़कियों के नृत्य में बाधक ही बनने वाले थे। हमने कुछ हल्के-फुल्के कमरबन्द, बाजूबन्द, पायल, हार आदि उठा लिये। उन सबने अपनी अपनी दुकानों से अन्य आभूषण भी लाकर हमारी टोकरी में डाल दिये -- ' रख लो, काम नहीं आयेंगे तो वापस तो आ ही जायेंगे।'

हमने एडवांस देने के लिए अपनी ज़ेब की ओर हाथ बढ़ाया। उन्होंने कहा-- ' रहने दीजिए, कल जब वापस आएंगे, तब देख लेंगे।' हम एक-दूसरे का मुँह देखने लगे -- 'कहीं औक़ात से ज़्यादा देख लिये, तो बड़ी फ़जीहत हो जाएगी। ' हमें तो यह भी नहीं पता था कि किस दुकान से कितने ज़ेवर हमारी टोकरी में डाले गये हैं। जाने कौन कितना दावा करेगा। डाकुओं का इलाका है। बुरे फँसे भाई। मैंने बजरंग बली का नाम लिया, प्रमोद ने भोलेनाथ को याद किया और हम टोकरी लेकर उत्सव स्थल पर आ गए।  ज़ेवरों की चमक से लड़कियों के चेहरे दमक उठे लेकिन हम दोनों के चेहरे पीले पड़े हुए थे।

मंच पर हमें अपनी उम्मीद से ज़्यादा सफलता मिली। वहाँ की जनता ने ऐसा कर्णमधुर संगीत पहली बार सुना। शैलजा, बसंती, माया के बिंदास नर्तन ने सचमुच मंच लूट लिया। जब हमने अपनी अंतिम प्रस्तुति की घोषणा की, तो हल्ला मच गया। आयोजकों ने कुछ ' और ' के लिए निवेदन किया। हमें क्या था -- हम तो तैयार ही रहते थे , कोई कमी तो थी नहीं। दाऊजी के चेहरे पर परम्-सन्तोष ने हस्ताक्षर कर दिये थे। सफ़लता की दृष्टि से यह फ़िरसे एक यादगार कार्यक्रम था।

सबेरे हमने देखा कि स्थानीय समाचार पत्रों में एक पूरा पृष्ठ हमें मिला हुआ है। पत्रकार गण ख़ुद ही प्रतियाँ लेकर आये थे। रात्रि के कार्यक्रम की तस्वीरों के साथ रिपोर्टिंग छपी थी। दाऊजी और शैलजा, अनुराग के इंटरव्यू लिये जा रहे थे। सब के सब ख़ुशी से इतरा रहे थे। इधर हम मन ही मन हनुमान-चालीसा का जाप कर रहे थे।

चुपके से हम दोनों भाई ज़ेवरों की टोकरी लेकर एक-दूसरे को सहारा देते हुए बाज़ार पहुँचे। संकटकाल में हमारा बन्धुत्व मज़बूत हो गया था। उन्होंने हमें देखते ही घेर लिया। रात्रि में हमारा कार्यक्रम उन्होंने भी देखा था। सबने हमें शाबाशी दी। हमारी स्थिति बिल्लों के बीच मूषकों जैसी थी। हमें अगले पल की कोई ख़बर नहीं थी। सबने टोकरी से ख़ुद ही अपने-अपने ज़ेवर उठा लिये। हमने डरते हुए पूछा -- 'किराया कितना हुआ ' ? एक ने संकोच के साथ कहा -- ' पैंतीस रुपये दे दीजिए। ' हमने झटपट दे दिये और बेचैनी से अन्य की ओर देखा। उन्होंने कहा -- ' बस हो गया। आप हमारे मेहमान हैं। हमसे कुछ भूल हुई हो तो माफ़ कीजिएगा। अगले साल फ़िर आइएगा। ' 

हम आसमान से गिरे थे। ऐसे भी कोई दिल जीतता है क्या। यह तो इंसानियत की हद हो गयी यार। सचमुच यह इलाका डाकुओं का है। दिलों पर डाका डालने की कला में ये निष्णात हैं।

हमने तो मंच पर सिर्फ़ वाहवाही लूटी थी। मऊरानीपुर ने तो हमारा दिल ही लूट लिया।

ऐसे भी कोई बदला लेता है क्या भला .....

विजय वर्तमान

रचना तिथि : 04 - 02 - 2022

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