फिल्मों को भेड़ चाल से बचाएं : रामेश्वर वैष्‍णव

धारदार व्‍यंग्‍य कविताओं और सरस गीतों से कवि सम्‍मेलन के मंचों पर छत्‍तीसगढ़ी भाषा में अपनी दमदार उपस्थिति सतत रूप से दर्ज कराने वाले एवं चंदैनी गोंदा, सोनहा विहान, दौनापान, अरण्य गाथा, गोड़ के धुर्रा, छत्तीसगढ़ी मेघदूत, मयारू भौजी, लेड़गा नं. 1, झन भूलौ मां बाप ला जैसे लोकप्रिय छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों में गीतों के जरिये अपनी अलग पहचान बनाने वाले गीतकार, कवि रामेश्वर वैष्णव का मानना है कि छालीवुड में सुलझे निर्देशकों की कमी है। भेड़ चाल से बन रही फिल्मों में ज्यादातर फिल्मों में न तो गीत में स्थायी भाव होते हैं न धुन का ठिकाना। चुटकुलेबाजी और जोड़तोड़ से की जा रही रचनाओं का असर श्रोताओं पर स्थायी रूप से नहीं पड़ता। एक छत्तीसगढ़ी फिल्म 'मया' क्या हिट हो गई। कई निर्माता निर्देशक फिल्म बनाने बिना किसी तैयारी के फिल्म निर्माण में जुटे हैं। जिनमें मसालेदार फिल्मों को छत्तीसगढ़ के दर्शकों में परोसने की तैयारी है। ऐसे लोग फिल्म निर्माता के रूप में उभरे हैं जिनका साहित्य, कला व संस्कृति से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है। उन्हें व्यवसाय करना है संगीत भले ही न जाने पर रिटर्न चाहते हैं। श्री वैष्णव ने 'देशबन्धु' के कला प्रतिनिधि से खास मुलाकात में ये बातें कहीं थी। हम अपने सुधी पाठकों के लिए उस कतरन की टाईप्‍ड कापी यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं - 

नये गीतकारों के बारे में आपकी राय दें?
सच कहूं तो गीतकार बनने और तुकबंदी करने की ख्वाइश रखने वाले कई मिल जायेंगे। पर गीत लिखना कठिन विधा है। इसमें धुन भी चाहिए, शिल्प, भाव का समावेश रचना में होना चाहिए। नये लोग मेहनत करने से कतराते हैं। एक अच्छा गीतकार वहीं होता है जो अपने संस्कृति की समझ रखता हो। मौलिक रचना को लोग पसंद करते हैं। गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिहा से मैं प्रभावित रहा। उनकी सोच से औरों को प्रेरणा लेना चाहिए। पहले जब लोग कविता लिख लेते थे तब मंच खोजते थे। आज का कवि मंच पहले खोजता है बाद में कविता खोजने की बारी आती है। सफलता का सूत्र है गंभीर रचनात्मक लेखन। इसके लिए खूब पढ़ें और लिखने का अभ्यास भी किया जाये।

छालीवुड में आपके हिसाब से सुलझे निर्देशक कौन है?
मैं सतीश जैन को ही सुलझे निर्देशक के रूप में पाता हूं। पर उनके साथ दिक्कत ये है कि वे सारा ध्यान सफलता पर देते हैं। छत्तीसगढ़ की भाषा, संस्कृति के प्रति वे सावधान नहीं है। जबकि मेरे विचार से ऐसा होना चाहिए।

आपने मंच पर कविताएं पढ़ी, व्यंग्य लेखन, फिल्मों के लिए गीत लिखे क्या फिल्म बनाने की इच्छा रखते हैं?
सवाल अच्छा है पर अभी तक किसी ने आफर नहीं दिया। बुध्दि है पर पैसा नहीं। मौका मिले तो जरूर छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाऊंगा।

आपने वर्तमान में कौन सी किताबें लिखी है? क्या छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए गीत लिखे हैं?
छत्तीसगढ़ी फिल्म भांवर के लिए मैंने चार गीत लिखे हैं। क्षमानिधि मिश्रा की ये फिल्म जल्द ही प्रदर्शित होगी। इसके अलावा मयारू भौजी, नयना, झन भूलौ मां बाप ला, लेड़गा नं. 1, गजब दिन भइगे, सीता फिल्म के लिए मैंने गीत तैयार किये हैं। 13 स्क्रिप्ट तैयार है। दस पुस्तकें पाठकों के बीच पहुंचने वाली है। इनमें नमन छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी में अमरनाथ मरगे हास्य व्यंग्य संग्रह, गजल संकलन 'भुइंया या अकारू' शामिल है। तथा सूर्य नगर की चांदनी, उत्ता धुर्रा, उबुक चुबुक, उजले गीतों की यात्रा, भीड़ की तन्हाई, सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया जल्द प्रकाशित होगी।
 मेरे फाईल से समाचार पत्र का पुराना कतरन ... देशबंधु से साभार सहित 

समीक्षाः बिलसपुरिहा बोली में पगी एक सुन्दर अभिव्यक्ति ‘गॉंव कहॉं सोरियावत हे’ - विनोद साव

संग्रह का नाम - गॉंव कहॉं सोरियावत हे
कवि - बुध राम यादव
प्रकाशक - छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति, बिलासपुर
मूल्य - रु. 100/-

समीक्षक - विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ 

मो. 9407984014


बुधराम यादव बड़े प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। वे छत्तीसगढ़ी और हिन्‍दी के एक समर्थ कवि और गीतकार हैं, बल्कि कहें तो वे गीतकार की कोटि में अधिक खरे उतरते हैं। उन्हें कविता के अन्धड़ से बचने के लिए गीत की गुफाओं में पनाह लेनी चाहिए। यहॉं बैठकर अपनी षष्ठपूर्ति के पांच बरस निकल जाने के बाद अपनी रचना यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डालते हुए आगे की सृजन योजना पर उन्हें विचार करना चाहिए।
बुधराम यादव न केवल अच्छे गीत लिख लेते हैं बल्कि अपने गीतों का मधुर गायन भी वे कर लेते हैं। कवि सम्मेलन के मंचों पर उन्हें गाते हुए लोगों ने सुना है। वे बहुत पहले अपने हिन्‍दी गीतों का भी गायन किया करते थे। हिन्‍दी और छत्तीसगढ़ी के गीतों का गायन करते हुए उनके स्वर में एक विरह वेदना होती है। उनमें क्षरित होते मानवीय सम्बंधों और पारम्परिक मूल्यों के लिए एक पछतावापूर्ण पीड़ा होती है। अपनी रचनाओं के जरिये अपने वर्तमान में उन मूल्यों को टटोलने की वे हमेशा कोशिश करते हैं जो कभी उन्हें संस्कार, संवेदना और प्रेरणा देते थे। उन मूल्यों और व्यवहारों को फिर से पाने और उन्हें आज के वातावरण में पुनः स्थापित करने की छटपटाहट उनमें साफ देखी जा सकती है।
कवि का स़द्यः प्रकाशित छत्तीसगढ़ी काव्य-संग्रह ‘गॉंव कहॉं सोरियावत हे’ उनकी ऐसी ही प्रेरणाओं की उपज है। इनमें कवि ने अपने समय में देखे गॉंव, ग्रामवासियों के आत्मीय व्यवहार, गॉंव के तीज-तिहार और गॉंव के प्राथमिक रिश्तों की खूब सुध ली है (उन्हें सोरियाया है):
ओ सुवा ददरिया करमा अउ, फागुन के फाग नंदावत हे
ओ चंदैनी ढोला मारु, भरथरी भजन बिसरावत हे
डोकरी दाई के जनउला, कहनी किस्सा आनी बानी
ओ सुखवंतिन के चौंरा अउ, आल्हा रम्मायन पंडवानी
तरिया नदिया कुवॉं बवली के पानी असन अटावत हें।
मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हें।
इसके साथ ही आज के समय में उस गुम हो चुके गॉंव को तलाशने की कोशिश है जो आज औद्योगिकीय और प्रौद्योगिकीय हमले का शिकार हो चुका है जो कम्पयूटर क्रान्ति और इन्टरनेटी अनुभूतियों में कहीं खो गया है। शहर के कांक्रीट विकास ने जिनकी सीमाओं का अतिक्रमण कर गॉंवों को किसी डम्प-स्टेशन या कचरा घर में तब्दील कर दिया हैः
जुन्ना दइहनही म जब ले, दारु भट्ठी होटल खुलगे
टूरा टनका मन बहकत हें, सब चाल चरित्तर ल भुलगें
मुख दरवाजा म लिक्खाये, हावय पंचयती राज जिहॉं
चतवारे खातिर चतुरा मन, नइ आवत हावंय बाज उहॉं
गुरतुर भाखा सपना हो गय, सब कॉंव कॉंव नरियावत हें।
मोर गॉंव कहॉं सोरियावत हे।
संग्रह की कविताओं की सर्जना में कवि की अभिव्यक्ति उनकी अपनी बिलसपुरिहा बोली और आंचलिकता से पगी हुई है। लोक के प्रति अनुराग और उसे संरक्षित रखने की चाह छत्तीसगढ़ के बिलसपुरिहा (बिलासपुर क्षेत्र के) कलाकारों और कलमकारों में अधिक है इसलिए भी इस अंचल में लोक जीवन तुलनात्मक रुप से कहीं अधिक उपस्थित और समृद्ध है। कवि का यह उपक्रम एक ‘नास्टेल्जिया’ है। कवि का अतीतजीवी होना या अपने अतीत से बहुत प्रेम होना, यह रचनाकार का ‘रिटर्न टू द रुट’ है यानी अपनी जड़ों की ओर लौटने की चाह। ऐसी स्थितियॉं बहुत से रचनाकारों को निरन्तर सृजन के लिए प्रेरित करती हैं। बुधराम यादव को भी लगातार प्रेरित कर रही हैं।
इस खण्‍ड काव्‍य को हम गुरतुर गोठ में क्रमश: प्रस्‍तुत करेंगें। भाई समीर यादव जी के ब्‍लॉग मनोरथ में इसे आज से क्रमिक रूप से प्रस्‍तुत किया जा रहा है।

कामरेड कमला प्रसाद : संगठन और लेखन के बीच खड़ा कलाकार - विनोद साव

कुशल संगठन कर्मी, प्रगतिशील लेखक संघ के मुखपत्र ‘वसुधा’ के संपादक, लेखक कामरेड कमला प्रसाद का विगत 25 मार्च 2011 को अवसान हो गया। दुर्ग भिलाई से उनकी अनेक स्मृतियॉं जुड़ी थी। उन्हें याद करते हुए विनोद साव जी का यह आलेख यहॉं प्रस्तुत है -
संगठन और लेखन के बीच खड़ा कलाकार
विनोद साव

ऐसे कई लोग जीवन में आते हैं जिनसे हमारी कोई विशेष अंतरंगता नहीं होती, कोई निकट परिचय नहीं होता पर वे फिर भी अच्छे लगते हैं। कोई अपने व्यक्तित्व से अच्छा लगता है तो कोई अपनी कार्य प्रणाली से। कमला प्रसादजी मेरे लिए ऐसे ही लोगों में से थे। मैं कह भी नहीं सकता कि एक लेखक के रुप में वे कितना मुझे जानते थे। उनसे मेरा कोई व्यक्तिगत सम्बंध नहीं था। न कोई पत्र-व्यवहार था। न ही उनकी पत्रिका ‘वसुधा’ में मेरी कोई रचना छपी थी। रचना छापे जाने के बाबत उनसे कोई बातचीत भी कभी नहीं हुई थी। पर बीते दिनों में उनका एक पत्र प्राप्त हुआ था जिसमें उन्होंने बंगाल पर लिखी गई मेरी रचना ‘शस्य श्यामला धरती’ को स्वीकृत करते हुए लिखा था ‘प्रिय विनोद, तुम्हारी रचना हम वसुधा के नये अंक के लिए ले रहे हैं, इसे अन्यत्र मत भेजना।’ मुझे बड़ी खुशी हुई क्योंकि ‘वसुधा’ में यह पहली बार छपने का अवसर आ रहा था। एक लम्बे अंतराल के बाद स्वीकृति मिलने के कारण यह रचना ‘अक्षरपर्व’ में पहले ही स्वीकृत हो चुकी थी, अतः ललित सुरजन जी को फोन किया कि ‘अक्षरपर्व के लिए मैं अंडमान-निकोबार पर लिखा गया दूसरा यात्रा वृत्तांत भेज रहा हॅू, कृपया बंगाल वाली रचना को न छापें, इसे वसुधा के लिए छोड़ दें।’ तब हमेशा मेरा उत्साहवर्द्धन करने वाले ललित भैया ने अपनी चिर-परिचित खनकती आवाज में हॅसते हुए कहा था ‘ठीक है।’ कमला प्रसाद का वह स्वीकृति पत्र मेरे लिए उनका पहला पत्र था और वही अंतिम भी रहा।
कमला प्रसादजी को पहली बार मैंने भोपाल में देखा था जब मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा भवभूति अलंकरण एवं वागीश्वरी सम्मान समारोह का आयोजन वर्ष 1998 में रखा गया था। उस वर्ष भवभूति अलंकरण प्रसिद्ध कथाकारा मालती जोशी को मिलना था। मेरे उपन्यास ‘चुनाव’ को वागीश्वरी पुरस्कार के लिए चुना गया था और मुझे आमंत्रित किया गया था। नाटक के लिए परितोष चक्रवर्ती चुने गए थे। पुरस्कार डाॅ. नामवरfसंह द्वारा दिया जाना था। तब आयोजकों से मेरा कोई परिचय नहीं था और मैं आशंकित मन से समारोह में उपस्थित हुआ था। विश्राम गृह में कुछ लोग बैठे हुए थे जिनमें रायपुर से वहॉं पहुंचे हुए प्रभाकर चौबेजी ने देखकर जैसे ही किलकती आवाज में मुझे पुकारा तब आयोजकों के समूह ने मुझे पहचाना था। उनमें कमला प्रसाद, शिव प्रसाद श्रीवास्तव और राजेन्द्र शर्मा थे। मुझे आश्चर्य हुआ था कि पुरस्कार समिति के निर्णायकगणों को तब न मैं अच्छे से जानता था और न वे मुझे जानते थे, इन सबके बावजूद भी मुझे पुरस्कार कैसे मिल गया था।
मैंने कमला प्रसाद जी से कहा कि ‘परसाई ग्रन्थावली का सम्पादन कर आपने बहुत महत्वपूर्ण काम किया है।’ अपने सामने बैठे एक युवक से इस तरह के प्रशंसा भरे शब्दों को सुनकर उन्होंने विनम्र व्यंग्य से कहा था कि ‘अब आप कह रहे हैं तो लग रहा है विनोदजी कुछ काम हुआ है अन्यथा ऐसे लगता है कि अब तक कुछ किया ही नहीं।’ कमला प्रसाद स्वयं एक अच्छे लेखक थे। उनके ललित निबन्धों का एक संग्रह आया था जिनमें कई जगह बड़ी व्यंग्योक्तियॉं उभरती हैं। पर वे व्यंग्य को जोर देकर ललित निबन्ध कहने के पक्षधर थे। कोई उन्हें अपने व्यंग्य संग्रह भेंट करता तब भी संग्रह को उलट पुलटकर देखते हुए वे तत्काल कह देते थे कि ‘अच्छा यह आपके ललित निबन्धों का संग्रह है!’
इसमें कोई शक नहीं कि कमला प्रसाद एक कुशल संगठन कर्मी थे। साहित्य जगत में दिल्ली के बाद साहित्य का दूसरा बड़ा गढ़ पिछले कुछ दशकों से भोपाल ही माना जाता रहा है... और भोपाल के आयोजनों के केन्द्र में कमला प्रसाद और उनके मित्र रहे हैंे। चाहे वे एक संगठन कर्मी के रुप में मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़े रहे हों या मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ से या मध्यप्रदेश कला एवं संगीत अकादमी के अध्यक्ष के रुप में रहे हों या प्रगतिशील लेखक संघ के मुखपत्र ‘वसुधा’ के सम्पादक के रुप में रहे हों। वे जहॉं भी रहे उन्होंने अपनी सक्रियता और प्रभाव से अपनी भरपूर उपस्थिति दर्ज की। वे दिखते अच्छे थे, बोलते अच्छे थे। कार्यक्रमों के कुशल संचालक थे। साहित्य और संगीत के बड़े समारोहों के आयोजन में उन्हें दक्षता हासिल थी और वे लोगों के बीच छा जाने वाले व्यक्तित्व हो गए थे।
मध्य भारत में परसाई की परम्परा के संवाहक लेखकों का एक अच्छा खासा ‘इंटलेक्चुअल इकूप’ (बौद्धिक समूह) तैयार हो गया था। इनमें प्रमोद वर्मा, कान्ति कुमार जैन, भगवत रावत, मलय, धनंजय वर्मा, कमला प्रसाद, रमाकांत श्रीवास्तव जैसे लोग थे। इन सब पर हरिशंकर परिसाई का गहरा प्रभाव रहा। परसाई जबलपुर में थे और ये सभी लोग जबलपुर को अपना केन्द्र माना करते थे। वहॉं अध्ययन-अध्यापन के सिलसिले में आया जाया करते थे। ये सब परसाई की प्रेरणा से गतिमान होते थे और अपने प्रतिबद्ध विचारों के लिए जाने जाते थे। एक ख़ास बात और थी की यह पूरी मंडली न केवल संगठन कर्म में जुटी रही बल्कि गाहे बगाहे इन लोगों ने आलोचना विधा पर काम किया। fहंदी आलोचना को समृद्ध किया। ये सभी व्यक्तित्व संपन्न थे। इनमें वाक् पटुता थी और व्यवहारवादी थे। इन्होंने मध्य प्रदेश में प्रगतिशील आन्दोलन को गति दी थी। बाद में भले ही परिवेश बदला और दूसरी स्थितियॉं बनीं पर इन सबने अपने तई कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। कमला प्रसाद ने ‘वसुधा’ का सम्पादन भार सम्हाला जिसके संस्थापक परसाईजी थे। इस पीढ़ी में सशक्त कहानीकार ज्ञानरंजन हुए थे जिन्होंने जबलपुर से ‘पहल’ निकाली थी। कुछ शहर होते हैं जो किसी कालखण्ड में हस्तियॉं पैदा करते हैं - एक समय में कलकत्ता ने अनेक समजासुधारक पैदा किए। इलाहाबाद हुआ जिन्होंने कई साहित्यकारों और विचारकों को मुखरित होने का अवसर दिया। वैसे ही जबलपुर था जहॉं लेखकों और संस्कृति कर्मियों का जमावड़ा हुआ।
ऐसे कई संगठन कर्मियों के बारे में यह मान्यता बनती है कि ‘वे संगठन में नहीं गए होते तो एक अच्छे लेखक हो सकते थे। संगठन के नाम पर उन्होंने अपने लेखन की बलि चढ़ा दी।’ ऐसा कमला प्रसाद और उनके कुछ मित्रों के बारे में भी कहा जा सकता है। उन्होंने जरुर कोशिश की होगी संगठन और लेखन के बीच खड़े होने की, संतुलन बनाने की।
ऐसे समय में जब सूचना और तकनीक माध्यमों के कारण संवेदना और विचार का संकट गहरा रहा है यह हल्ला हमारे बुद्धिजीवी कर रहे हैं। तब कमला प्रसाद द्वारा निरन्तर निकाली जाने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘वसुधा’ को आगे भी निकालने की कोशिश होनी चाहिए वरना फिर किसी सार्थक संवाद की पत्रिका के बन्द हो जाने का खतरा मंडरावेगा।

विनोद साव
मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
मो. 9407984014
20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जन्मे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में सहायक प्रबंधक हैं। मूलत: व्यंग्य लिखने वाले विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, ज्ञानोदय, अक्षरपर्व, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में भी छप रही हैं। उनके दो उपन्यास, चार व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी पुरस्कृत हुए हैं।

रंगकर्मी संतोष जैन से देशबन्धु के कला प्रतिनिधि की खास बातचीत

छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्माता व वरिष्ठ रंगकर्मी संतोष जैन का मानना है छत्तीसगढ़ी फिल्मों को प्रोत्साहित करने राज्य सरकार सब्सिडी दे। तथा महाराष्ट्र की तर्ज पर छत्तीसगढ़ में भी स्थानीय भाषा की फिल्मों को अनिवार्य रूप से प्रदर्शित करने छबिगृह संचालकों को निर्देशित किया जाये। जिस तरह महाराष्ट्र में मराठी फिल्मों को नहीं दिखाने पर टॉकीज के लायसेंस रद्द करने की कार्रवाई की जाती है। छत्तीसगढ़ में भी छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बढ़ावा देने अंचल के छबिगृहों में यह व्यवस्था लागू की जाये। श्री जैन ने 'देशबन्धु' के कला प्रतिनिधि से बातचीत में ये बातें कही। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि छालीवुड में बनने वाली फिल्मों का प्रदर्शन दिल्ली दूरदर्शन से किया जाये। क्योंकि छत्तीसगढ़ में सात-आठ जिले ही ऐसे हैं जहां छत्तीसगढ़ी फिल्मों को प्रदर्शित किया जाता है। पूरे भारत में छत्तीसगढ़ी में बनने वाली फिल्मों का प्रचार प्रसार हो इसके लिए दिल्ली दूरदर्शन से यहां की फिल्में प्रसारित हो ऐसा प्रयास किया जाये। इस मुद्दे को छत्तीसगढ़ सिने एवं टीवी एसोसिएशन द्वारा प्रमुखता से उठाया जायेगा।

- छालीवुड में ढर्रे पर बन रही फिल्मों में बदलाव लाने क्या गाइड लाइन बनाने की जरूरत है?
देखिए हमारे यहां छत्तीसगढ़ी फिल्मों का मार्केट छोटा है। इसलिए फिल्म निर्माता जोखिम उठाने से घबराते हैं। फिल्मों में लगा पैसा वापस हो पायेगा कि नहीं ये ज्वलंत प्रश् है। इसलिए ज्यादातर लोग एक ही तरह की फिल्म बनाने की सोचते हैं। पर जैसे-जैसे विस्तार होगा नये-नये विषयों पर छत्तीसगढ़ी फिल्में देखने को मिलेगी। वैसे छत्त्तीसगढ़ी फिल्मों में 'मया' के बाद एक बार फिर निर्माता उत्साहित हैं। कई नई फिल्में आने वाले समय में प्रदर्शित होगी। तीन वर्षों में 50 फिल्में छत्तीसगढ़ी में बनी जिनमें 46 फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने पास किया। हमारे छालीवुड में सुलझे हुए फिल्म निर्माताओं की कमी नहीं है। बस थोड़ा प्रोत्साहन चाहिए।

आपने कॅरियर की शुरूआत के बारे में बताएं? रंग कर्म में आपकी दिलचस्पी कब से हैं?
मैंने अपने कॅरियर की शुरूआत रंगकर्मी के रूप में की। नाटकों से लगाव रहा। मैंने 'मुर्गीवाला' नाटक तैयार किया। महाराष्ट्र मंडल में उन दिनों जब मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाटय समारोह का आयोजन होता तब हमारी टीम ने इस नाटक का मंचन किया। जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। भिलाई, दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर सहित अन्य स्थानों पर नाटक मंचन करने का मौका मिला। अब तक 25 से 30 नाटकों में हिस्सा ले चुका हूं। फिर दूरदर्शन से जुड़ा और इसके लिए छत्तीसगढ़ी में पहला धारावाहिक 'भोर के तारा' मैंने बनाया। दिल्ली दूरदर्शन से डीडी भारती पर 'पैजानिया' धारावाहिक शीघ्र ही प्रसारित होगा। छत्तीसगढी फ़िल्म 'बंधना' का निर्देशन मैंने किया है जो कि स्थानीय ग्रामीण परिवेश पर आधारित फिल्म है। जल्द ही इसे प्रदर्शित करने की तैयारी की जा रही है। ईरा फिल्म के बैनर तले 'जय बम्लेश्वरी मइया' छत्तीसगढ़ी फिल्म बनी थी। जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। कई वृत्त चित्र, टेलीफिल्म का निर्माण भी किया। कोशिश यही रहती है नयेपन के साथ संदेश परक फिल्में दर्शकों तक पहुंचाया जाये। जिसमें छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति समाहित हो तथा स्थानीय लोक कलाकारों की प्रतिभा का भरपूर दोहन हो।

- छत्तीसगढ़ में बेहतर फिल्म निर्माण के लिए किस तरह के प्रयास हो रहे हैं?
इसमें कोई दो मत नहीं है कि छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण की काफी संभावनाएं हैं। पहले भी फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों ने प्रयास किया कि हमारे यहां बेहतर फिल्मों का निर्माण हो। जोगी के शासनकाल में फिल्म विकास निगम का गठन किया गया। परेश बागबाहरा इसके अध्यक्ष रहे। संगठित होकर फिल्म निर्माण से जुड़े कई पहलुओं को जानने की कोशिश हुई। पर दो तीन साल बाद गतिविधियां थम सी गई। एक बार फिर हम संगठित हुए हैं। और ये बड़ी खुशी की बात है कि सिनेमा व टेलीविजन से जुड़े फिल्म निर्माता, कलाकार व तकनीकी सहयोगी, रंगकर्मियों ने मिलकर हाल ही में छत्तीसगढ़ सिने एवं टीवी एसोसिएशन का गठन किया। प्रेम चंद्राकर अध्यक्ष, मनोज वर्मा सचिव बनाये गये। छालीवुड से जुड़े फिल्म निर्माता सतीश जैन के अलावा हमारे एसोसियेशन में कई समर्पित कलाकार भी शामिल हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब एक बार फिर हम संगठित होकर अपनी बात शासन तक पहुंचायेंगे। तथा छालीवुड में बेहतर काम हो यह प्रयास होगा। मेरा ये भी मानना है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के साथ ही यहां के साहित्य और फिल्मों को भी पर्याप्त प्रोत्साहन देने की जरूरत है। अभी तक जो प्रोफेशनल काम नहीं हो पाया अब इस इंडस्ट्री में होने की उम्मीद है। हमारे यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं बस उन्हें मौका देने की जरूरत है।
मेरे फाईल से समाचार पत्र का पुराना कतरन ... देशबंधु से साभार सहित 

टेंगनाही माता को चढ़ाते हैं मछली : कचना धुरवा की परम्‍परा

आदिकाल से देवी-देवताओं में कई प्रकार के च़ढ़ावे व बलि देने की प्रथा चली आ रही है, बलि में भैंसें, बकरे और मुर्गीयों की बलि के संबंध में सुना होगा। छत्‍तीसगढ़ के छुरा क्षेत्र में देवी टेंगनाही माता का मंदिर है जो क्षेत्र में प्रसिद्ध है एवं आस्‍था के अनुसार इसे जागृत मंदिर माना जाता है। इस मंदिर में पारंपरिक बलि के अतिरिक्‍त देवी को मछली भेंट करने की परंपरा है। इस देवीस्थल पर प्रतिवर्ष चैत्र पूर्णिमा पर जातरा मेला का आयोजन किया जाता है एवं नवरात्रि में मनोकामना ज्योति जलाई जाती है। जहां मन्नत पूरी होने वाले फरियादी दूर-दराज से पहुँचते हैं और माता को प्रतीकात्‍मक टेंगना मछली चढ़ाते हैं एवं बकरों की बलि देते है।
माना जाता है कि इस क्षेत्र में जब राजा कचना धुरवा का राज्य स्थापित हुआ। तब राजा ने विजय पाने के लिए टेंगनाही माता से मन्नत माँगी। मंदिर के पुजारी पर सवार माता नें तीन सींग की बली देने का वचन राजा से लिया। राजा आशीर्वाद लेकर विजय पथ पर निकल पड़े। कचना धुरवा को आशातीत विजय हासिल हुई, विरोधी परास्‍त हुए। अब राजा ने तीन सींग वाला बकरा खोजा पर तीन सींग वाला बकरा नहीं मिला। माता को दिये वचन को पूरा करने के लिए राजा नें तीन सींग जैसी आकृति वाली टेंगना मछली की बलि माता को दिया। इसके बाद से ही इस पहा़ड़ी पर स्थित माता जी का नाम भी टेंगनाही के नाम से प्रचलित हुआ। तभी से श्रद्धालु मनोकामना के लिए सोना व चांदी का टेंगना मछली बनवाकर माता को च़ढ़ाते हैं। टेंगनाही के डोंगर पहा़ड़ी में पुरातनकालीन दृश्य, राजा आल्हा उद्दल का किला, डोंगेश्वरनाथ जटाधारी महादेव, दुर्गा मंदिर आदि आकर्षण के केंद्र हैं।

जैसा कि मेरे मित्र ऋषि कान्‍त तिवारी ने किसी समाचार पत्र की कतरन के हवाले से मुझे बतलाया।


इस आलेख पर श्री पंकज अवधिया जी नें मेल से टिप्‍पणी करते हुए टेंगना मछली का वीडियो लिंक भेजा है, जो इस पोस्‍ट के लिए आवश्‍यक है, पंकज भईया को आभार सहित  उनकी टिप्‍पणी व वीडियो लिंक हम यहॉं लगा रहे हैं -


ज्ञानवर्धन के लिए आभार| अक्सर यहाँ जाना होता है वानस्पतिक सर्वेक्षण के सिलसिले में| टेंगना पर एक यू ट्यूब लिंक दे रहा हूँ| इससे शायद पाठकों को तीन सिंग वाले बकरे के विकल्प का सही अंदाजा होगा| साथ में डोंगर की कुछ तस्वीरों के लिंक भी हैं|

http://www.youtube.com/watch?v=aO9C2u7IjPs

http://www.discoverlife.org/mp/20p?see=I_PAO10395&res=640

http://www.discoverlife.org/mp/20p?see=I_PAO10390&res=640

http://www.discoverlife.org/mp/20p?see=I_PAO10393&res=640

http://www.discoverlife.org/mp/20p?see=I_PAO10380&res=640
http://www.discoverlife.org/mp/20p?see=I_PAO10389&res=640 

एबलॉन छत्‍तीसगढ़ी सिने अवार्ड : अनुज हीरो नंबर वन

सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड टूरा रिक्शा वालाको
म्यूजिक, डांस और गीतों की रंगारंग प्रस्तुतियों के बीच 2010 में बनीं छत्तीसगढ़ी फिल्मों के बेस्ट परफार्मर सोमवार शाम सम्मानित हुए। बेस्ट एक्टर का अवार्ड महूं दीवाना, तहूं दीवानीके हीरो अनुज शर्मा ने हासिल किया और 2010 की बेस्ट फिल्म का खिताब टूरा रिक्शा वालाके नाम रहा। एक बार फिर मनमोहन ठाकुर सर्वश्रेष्ठ खलनायक के रूप में पुरस्कृत हुए, जबकि बेस्ट एक्टेÑस का अवार्ड शिखा चितांबरे को मिला, जिसने टूरा रिक्शा वालामें अभिनय किया है। इसी फिल्म का निर्देशन करने वाले सतीश जैन बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड से नवाजे गए।
लंबे अंतराल के बाद छत्तीसगढ़ में ऐसा कार्यक्रम हुआ, जिसे एबेलॉन इवेंट्स ने आयोजित किया। जिंदल इस्पात के जीएम प्रदीप टंडन, ‘हरिभूमिसमाचार पत्र समूह के प्रबंध संपादक डा. हिमांशु द्विवेदी, एनसीपी के कार्यकारी अध्यक्ष सतीश जग्गी, बीरगांव नगर पालिकाध्यक्ष ओमप्रकाश देवांगन, सुनील कालड़ा, विवेक सारडा, अरविंद अवस्थी, एबेलान के डायरेक्टर अजय दुबे आदि अतिथियों ने दीप प्रज्ज्वलित कर संगीत और सम्मान के इस कार्यक्रम का शुभारंभ किया। एबेलान की ओर से अतुल्य चौबे ने स्वागत उद्बोधन देते हुए कार्यक्रम के उद्देश्यों की जानकारी दी।
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड अनुज शर्मा ने डा. द्विवेदी के हाथों प्राप्त किया, जबकि श्री टंडन ने टूरा रिक्शा वालाके निर्माता और फिल्म की टीम को बेस्ट फिल्म का अवार्ड दिया। गायिका सीमा कौशिक के हाथों मनमोहन ठाकुर नवाजे गए। अवार्ड फंक्शन में 22 श्रेणी के अवार्ड दिए गए। हर तीन अवार्ड के बाद कलाकारों के स्टेज परफार्मेंस ने अवार्ड फंक्शन को दिलचस्प बना दिया। रात लगभग 8 बजे शुरू होकर साढ़े 11 बजे तक चले कार्यक्रम में छॉलीवुड की कई हस्तियां मौजूद थीं।
नाच उठे दर्शक - अवार्ड वितरण के पहले अनुज शर्मा ने अपनी टीम के साथ गीत और डांस पेश किए। मयाफिल्म का गाना कान मं बाली और गोरा-गोरा गाल...जब धमाकेदार म्यूजिक के साथ पेश हुआ, तो दर्शक झूम उठे। इसी तरह बईरी सजनके हीरो प्रदीप कौशिक ने भी अपने ग्रुप के साथ बेहतरीन डांस किया।
सीमा कौशिक के गाने टूरा नई जाने...पर जब प्रदीप और साथियों ने डांस किया, तो उठकर बाहर जा रहे दर्शक भी ठहर गए। ताली, सीटियां और चिल्लाने की आवाज शहीद स्मारक सभागार में गूंजने लगी।
इन्हें मिला अवार्ड -
सर्वश्रेष्ठ फिल्म                   टूरा रिक्शा वाला (निर्माता- रॉकी दासवानी)
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता               अनुज शर्मा (महूं दीवाना, तहूं दीवानी)
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री               शिखा चितांबरे(टूरा रिक्शा वाला)
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक                 सतीश जैन (टूरा रिक्शा वाला)
सर्वश्रेष्ठ संगीतकार             दुष्यंत हरमुख (मया दे दे मयारू)
सर्वश्रेष्ठ गीतकार                कुबेर गीतपरिहा (टूरा रिक्शा वाला, महूं दीवाना तहूं दीवानी)
सर्वश्रेष्ठ कहानी                  स्व. प्रेम साइमन (मया दे दे मयारू)
सर्वश्रेष्ठ संवाद                   पं. सुदामा शर्मा (गुंरावट, टूरी नंबर वन, हीरो नंबर वन)
सर्वश्रेष्ठ खलनायक              मनमोहन ठाकुर (टूरी नंबर वन, महूं दीवाना-तहूं दीवानी)
सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता          शशिमोहन सिंह (मया दे दे मयारू)
सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री          संजू साहू (महूं दीवाना-तहूं दीवानी)
सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार        हेमलाल कौशल (टूरा रिक्शा वाला)
सर्वश्रेष्ठ चरित्र अभिनेता       रजनीश झांझी (हीरो नंबर वन)
सर्वश्रेष्ठ चरित्र अभिनेत्री       उपासना वैष्णव (महूं दीवाना, तहूं दीवानी, हीरो नंबर वन)
सर्वश्रेष्ठ एक्शन                  एस.कुडूं तुरू बाबू ( टूरा रिक्शा वाला, महूं दीवाना तहूं दीवानी)
सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार         आदेश गुप्ता (टूरा रिक्शा वाला)
सर्वश्रेष्ठ गायक                   सुनील सोनी (मया दे दे मयारू, महूं दीवाना तहूं दीवानी)
सर्वश्रेष्ठ गायिका                 अलका चंद्राकर (महूं दीवाना तहूं दीवानी, टूरा रिक्शा वाला)
सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफर          तरुण निषाद (मया दे दे मयारू)
सर्वश्रेष्ठ संपादन                 शैलेंद्रधर दीवान (टूरा रिक्शा वाला)
सर्वश्रेष्ठ कैमरामैन               दिनेश ठक्कर (हीरो नंबर वन)
लाइफ टाइम अचीवमेंट        स्व. विजय कुमार पांडेय (घर-द्वार),
एवार्ड                             मनु नायक (कहि देबे संदेश) 
शूटिंग में व्यस्त रहे कुछ विजेता - बेस्ट डायरेक्टर सतीश जैन और हीरोइन शिखा चितांबरे शूटिंग के सिलसिले में विशाखापटनम में हैं, जो इस कार्यक्रम में नहीं पहुंच सकीं। श्री जैन का अवार्ड श्रीमती जैन ने प्राप्त किया, वहीं शिखा के भाई ने उनका अवार्ड लिया। घर द्वार के निर्माता स्व. विजय कुमार पांडेय के नाम का लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड उनकी धर्मपत्नी, भनपुरी की पूर्व पार्षद चंद्रकली पांडेय ने प्राप्त किया। संगीतकार दुष्यंत हरमुख, एक्शन मास्टर एस. कुंडूतुरू बाबू आदि भी नहीं पहुंच सके, जिनकी जगह यूनिट के दूसरे सदस्यों ने अवार्ड प्राप्त किया।
गुइंया रे गुइंया... - बईरी सजनने कोई भी अवार्ड भले न हासिल की हो, लेकिन पूरे फंक्शन में उसी फिल्म के गानों का जोर था। रानू खान ने इसी फिल्म के आइटम सांग में शानदार परफार्म किया, जबकि सीमा सिंह ने गुइंया रे, गुइंयागाने पर समूह नृत्य की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम में मौजूद सीमा कौशिक से गाने की फरमाइश करने वाले पूरे समय चीखते-चिल्लाते रहे।
बोरे बासी ल खाबो जी... - सुपरहिट फिल्म टूरा रिक्शा वालाके हीरो प्रकाश अवस्थी और बईरी सजन की हीरोइन सीमा सिंह विश्वकर्मा ने साइकिल रिक्शे को साथ लेकर उस फिल्म का गीत पेश किया, तो अवार्ड फंक्शन और दिलचस्प हो गया। गाने के अंत में कामेडीफूल अभिनय ने भी दर्शकों को खूब हंसाया।
भावुक हुए कलाकार - बेहतर काम करने वाले कलाकारों की ख्वाहिश रही है कि ऐसा फंक्शन हो, जिससे कलाकारों को प्रोत्साहन मिले और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का वातावरण निर्मित हो। यही कारण है कि अवार्ड लेने मंच पर पहुंचे कई कलाकार अपनी बातें कहते हुए बेहद भावुक हो गए। सर्वश्रेष्ठ चरित्र अभिनेत्री उपासना ने तो अपनी फिल्म की पूरी टीम को मंच पर बुलाकर अवार्ड सबके नाम कर दिया, जबकि सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता शशिमोहन सिंह ने अपने भीतर के कलाकार के जज्बातों का जिक्र करते हुए अवार्ड लिया। ठेठ छत्तीसगढ़िया पं. सुदामा शर्मा ने संवाद लेखन का अवार्ड लेते हुए कहा, यह उनके लिए बहुत बड़ा सम्मान है।
समाचार : हरिभूमि से साभार

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