मॉं : एक कविता



मॉं तुम्‍हारी गोद, तुम्‍हारा ऑंचल
कितना सुकून देता था
मेरा जिद, रोना, वह दुलार, वह क्रोध
वह निश्‍छल प्रेम, तुम पर वह सर्वस्‍व अधिकार,
मेरा फूट फूट कर तेरे आंचल को पकडकर रोना ।


आज जब मैं भी एक पिता हूँ
तुम्‍हारी अंतिम सत्‍य का सामना करते हुए
मेरे मानस में वही
दायित्‍वहीन बचपन कौंध रहे हैं
जब तुम मुझे छोडकर चली गई थी
और मैं पहली बार तुम्‍हें न पाके
फूट फूट कर रोया था
आज वही आंसु फूट पडते हैं
रूकते ही नहीं क्‍यों चली गई मां
मुझे छोडकर
तेरे न होने का अर्थ दु:सह है ।



मैं जीना चाहता हूँ उसी तरह
जिस तरह से मेरा बचपन था
तुम थी और तुम्‍हारा प्रेम था
सबसे सुरक्षित स्‍थान
तेरी गोद ।



तेरी बातें, वो लोरी
वो कहानी सुनाते हुए मुझे सुलाना
सब मुझे याद आ रहे हैं
तेरी नश्‍वर काया के साथ साथ
पंडित के उच्‍चारित गीता की पंक्तियां
मुझे लोरी सी लग रही है
सो जाना चाहता हूँ मॉं
तुम्‍हारी गोद में
अनंत के आगोश में ।


संजीव तिवारी
(13.12.2001)

हममें होकर गुजरता है वक्त, बेवक्त : यादें सुब्रत बसु

अशोक सिंघई जी द्वारा सुब्रत दा को अर्पित श्रद्धासुमन

अखबार ज़िन्दगी की बड़ी जरूरी और गैरजरूरी ज़रूरत है। खबरें अच्छी हों या बुरी, एक ही पन्ने पर सजकर आती हैं। अखबार से ही जाना कि जाने में आना हो या न हो पर आने पर जाना ही होता है। अमूमन मुझे सुबह अच्छी नहीं लगती। वह सुबह, शायद २८ सितम्बर की, तो खास तौर पर नाकाबिले-बरदाश्त लग रही थी। सूरज भी आँखें चुरा था। मुझे क्या पता था कि यह सुबह एक सूरज के अस्त होने की खबर से शुरू हो रही है। गरम चाय कब ठंडी हो गई, भनक ही नहीं लगी। सुबह की ताज़ी हवा, चिड़ियों की चहचहाहट, काम पर जाने की तिश्नगी - सब का स्वाद जाता रहा। अखबारों ने बताया कि सुब्रत बोस ज़िन्दगी के रंगमंच को अलविदा कह गये हैं और मैं सोचता रहा अब क्या गुनगुनायेंगे कि, 'बम्बई से आया मेरा दोस्त.........।`


आठवें दशक में भारत के नये तीर्थ भिलाई में दाना-पानी के लिये यह पंछी भी हज़ारों की तरह जोशखऱोश से बलबलाता उतरा। छत्तीसगढ़ के त्रिवेणी संगम, राजिम की संस्कृति साथ थी, साहित्य और संस्कृति के आकर्षण में पहले ही मुब्तिला था। वैसे ही साथियों को ढूँढती आँखों को एक बड़ी बिरादरी नज़र आई। साहित्य के दरीचों से संगीत की लहरों के साथ रंगमंच की भव्यता से साक्षात्कार हुआ। कई कद्दावर व्यक्तित्व भिलाई की सांस्कृतिक सक्रियता के सूत्रधार नज़र आये। सुकवि केशव पाण्डे, दानेश्वर शर्मा, विमल पाठक, मोहन भारतीय, रवि श्रीवास्तव, प्रसन्न जैन, परदेशीराम वर्मा, मुकुन्द कौसल मोहन सिंह चन्देल, विमलेन्दु सिंह, संतोष झांझी और भी न जाने कितने, गिनती ही खत्म नहीं होती। इस हुजूम में हम जैसे कुछ ऐसे नौजवान भी थे, जिनके खुशनुमा चेहरों की मसें भींग रहीं थीं, तो ऐसे भी लोग थे, जो उम्र का एक पड़ाव पार कर रहे थे, जिनके चेहरों पर समय के थपेड़ों और अनुभवों ने गंभीरता की तहें रखनी शुरू कर दी थी।


कवि-गोष्ठियों की लहरों पर सवार नये-नये साहित्यानुरागी को सितारों से जगमगाता एक नया ही आकाश मिला। नेहरू सांस्कृतिक सदन में नाटकों की गतिविधियों की अलग ही दस्तकें थीं। एक लम्बा-चौड़ा, साँवला सा शख्स प्रसन्न जैन के साथ वैसे ही दिखता था जैसे सिक्के का दूसरा पहलु। सिक्केबंद दमदार आवाज़। ग्रीक-नायकों जैसे तीखे नाक-नक्श। स्वाभिमान से दमकता व्यक्तित्व। बौद्धिकता के तेज से दमकती बड़ी-बड़ी आँखें। वह एक अशांत सागर था, किसी किनारों में न बँधने और अँटने को व्याकुल। वह शख्स था सुब्रत बोस। इतनी अधिक मुलाकातें हुईं कि पहली बार कब, कहाँ मिले, याद ही नहीं। अब लगता है कि कितनी कम बार मिले, साथ-साथ बैठे। सागर रीत गया और रह गई सिर्फ अपार रेत। यादों के बवण्डर से मन की आँखों में किरकिराती रेत। मरीचिका सा विभ्रम, न कुछ दिखता है साफ-साफ और न ही कुछ देखने देता है साफ-साफ, समय की धुँध में। कुछ भूले-बिसरे चित्र उभरते हैं, दिल की अँगुलियों से टटोलता हूँ उन्हें, आँखों में तो उतर गया है, वह अशांत सागर।


सेक्टर-६ के 'ए` मार्केट की चाय की गुमटीनुमा दुकान, सेक्टर-६ के 'बी` मार्केट का तिवारी पान का ठेला जहाँ खड़े-बैठे गुजरती रहती थी रात, बहस-मुबाहसों से गर्म, कविताओं के पोस्टमार्टम, गोष्ठियों की विवेचनायें, छींटाकसी, और इन सबके बीच प्रसन्न जैन का अधैर्यता से लम्बे-लम्बे कश लगाना, एक खत्म हुई नहीं कि दूसरी सिगरेट का सुलग जाना। प्रसन्न की तमतमाहट और सुब्रत की खिलखिलाहट - अँधेरे में जैसे कौंधती बिजली दिख जाती है, वैसे ही कुछ-कुछ साफ-साफ सा दिखने लगता है, मानों कल की ही बात हो। सुब्रत का नाटक हो, और प्रसन्न की कविता, गीत न हो, कैसे हो सकता है कि हॉफ चाय हो और सामूहिक कशों से धुँकती चारमीनार न हो। सुब्रत भाई बड़े ही फक्र से बताते थे कि, कोक ओवन्स में हैं हम दोनों, वो भी कोल-केमिकल्स में। प्रेम साईमन भी जिक्र में हुआ करते थे। देश में तब रंगकर्म की जो भी गत रही हो, पर भिलाई में तो इस विधा की धूम थी। रंगकर्म के अखाड़े में एक से एक पहलवान तब भी थे और आज भी हैं। इस लिहाज़ से सुब्रत की नस्ल कमजोर नहीं हुई। फिर भी उन दिनों संयंत्र पर उनका स्टील बैले एक अनूठा और न दोहराया गया प्रयोग साबित हुआ। पारम्परिक और अधुनातन नाट्य प्रयोगधर्मिता के उस दौर में लोकनाट्य भी नये कलेवर में सांस्कृतिक रंगमंच पर तूफान ढा रहा था।


सुब्रत बोस एक जुऩूनी व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी क्रियेटिव्हिटी का उफ़ान उनको अशांत और असंतुष्ट बनाये रखता था। वे कुछ खा़स कर गुजरना चाहते थे। अपने किये-धरे पर उन्हें रत्ती भर भी संतोष नहीं था। उनके कलाकार-पाखी को यह आसमान जाना-पहचाना, टटोला हुआ और छोटा लगने लगा था, उसका दम घुटने लगा था। शायद उन्हें इस तथ्य का भास हो गया था कि यदि अविस्मरणीय बनना है तो शान्ति नहीं मिलेगी और यदि अमर होना है, तो इसी जीवन में कई-कई बार मरना होगा। शायद इसीलिये रंगकर्म के बाद जिसे वे सबसे ज्यादह चाहते थे, भिलाई और अपने परिवार, यार-दोस्त, नौकरी - सब कुछ छोड़कर, मायानगरी चले गये। यह सब कुछ अनायास ही नहीं घटा। बहुत सोच-समझकर उन्होंने यह फैसला लिया था। यह सिद्धार्थ का पलायन नहीं था। पत्नी, श्रीमती दीपशिखा बोस को सब कुछ पूर्व-ज्ञात था। उनके समर्थन और सहयोग के बिना सुब्रत शून्य थे। सुब्रत की शून्यता को अर्थवान बनाने के लिये पीछे-पीछे वे भी बम्बई चली गईं। परिवार के आर्थिक आधार और सुब्रत को मानसिक आधार देने के लिये दीपशिखा ने अपना स्थानान्तरण बीएसपी के बम्बई ऑफिस करवा लिया था। दीपशिखा उनकी प्रिया थीं, फिर पत्नी हुईं और फिर शक्ति। दोनों रंगकर्मियों की जीवन भर की तपस्या का फल सामने आया अनुराग बासु के रूप में। अनुराग की सफलताओं में सुब्रत का ब्रत पूरा हुआ।

सुब्रत फिर-फिर भिलाई आते रहे। बम्बई की सारी व्यस्तताओं के बावजूद। वे सबसे जतन कर मिलते और गर्व से अपने संघर्षों, अपनी टुकड़े-टुकड़े सफलताओं की दास्तानें सुनाते। मेरे अनुरोध पर उन्होंने इस्पातनगरी के दर्शकों के लिये संयंत्र की वीडियो समाचार पत्रिका 'भिलाई रेफ्क्लेशन्स्` के लिये इंटरव्यू देना स्वीकार किया था। यह इंटरव्यू उनके प्रिय यश ओबेरॉए के घर में रिकार्ड किया गया था। यश के साथ एकबार वे मेरे घर भी आये और एक लम्बी अड्डेबाज़ी हुई। उनका उत्साह, उनका जोश, उनकी योजनायें देख-सुनकर लगता था कि सुब्रत ने उम्र को पछाड़ दिया है। उनके मन और सोच का युवापन उनके दिमाग में मानों ठहर गया था। मुझे उनसे मिलकर एक नई ऊर्जा का अहसास होता था।


उन्हें भिलाई से बेइंतहा प्यार था। 'हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते; मगर जी नहीं सकते, तुम्हारे बिना।` कुछ यही अफ़साना है उनका। सुब्रत बम्बई तो गये, पर शायद अपनी आत्मा इस इस्पातनगरी में छोड़ गये थे जहाँ धड़कते हुये उनके कई दिल थे, कई यादें थीं, कई खट्टे-मीठे अनुभव थे। हमारी ज़ानिब, 'एक मुद्दत से तेरी याद भी न आई हमें, और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं।` वे सच्चे मायनों में यारबाश थे। मुझे नहीं लगता कि वे पूरी तरह कहीं बहुत दूर, पकड़ से बाहर चले गये हैं। उनकी आत्मा यहीं कहीं होगी, नेहरू हाउस के ईद-गिर्द। सितारा बनने गये सुब्रत बोस अब चोला छोड़कर आकाश का सितारा बन गये हैं। मुझे लगता है कि मानों अपनी उसी सिक्केबंद खनकदार आवाज में वे ज़नाब अहमद नदीम कासिम का यह शेर गुनगुना रहे हों,

''कौन कहता है, मौत आयेगी तो मर जाऊँगा,
मैं तो दरया हूँ, समंदर में उतर जाऊँगा।
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा,
घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा।``

बस अब तमन्ना यही है कि हममें घेरने की और गंध को समेटने की कूबत बनी रहे! आमीन!!

दुर्लभ दर्शन और मौन सम्वाद : अशोक सिंघई की दो कवितायें


दुर्लभ दर्शन

दिखता नहीं अब
चाँद पूरा साफ-साफ
आँखें हो चलीं बूढ़ीं

अपने मन से बह रही हो
हवा ऐसी दिखती नहीं अब
खुश़बू हो गई लापता
बातें हो चलीं झूठीं

कहाँ है अब कोई जो चल रहा हो
कारवाँ ऐसा दिखता नहीं अब
मंज़िल हो गये किस्से तिलस्मी
रातें हो चलीं जूठीं

सदी की सदी / सरक रही है
व्यग्रता ऐसी
प्रयासों की दिखती नहीं अब
साक्षात्कार सूरज का कहाँ नसीब
साँसें लग रहीं रूठीं

मौन सम्वाद

तुमने कहा मुझसे
मत टोको मुझे, मत रोको मुझे
कह-कह कर ऐसा
की अपनी मनमानी
मेरे हिस्से आया मौन
कल तक बँधी थी पट्टी आँखों पर
अब ताला है मुँह पर

कुछ सुन लेतीं मेरी भी
नहीं, कुछ खास नहीं है कहने को
तुमको ही टाल नहीं पाता कभी
तुम्हारा कहना जरा सा
बड़ा भारी लगता है
जैसे हो बारिश सीने पर दिसम्बर के
कम भासती है लू, मई के महीने में
मत कहो, कम से कम
तुम तो मत ही कहो

अँगुली उठाती हो
हवा की इस थिरकन से
मैं लगता हूँ समाने धरा की कोख में
गिर जाता हूँ उस नज़र से
देखता हूँ खुद को जिस नज़र से

प्रेम ने ही बाँधी थी कभी आँखों पर
सम्बन्धों में भी कुछ शर्त होती है
कितनी भी ठोस क्यों न हो जिन्दगी
सिद्धान्त, विचार, आदर्श और अनुभूतियाँ
सब में पर्त होती है

खुशी से दिन बीता
बीती शाम कहकहों में
सुबह नज़र आते ओस, कहते
रोना भी है जिन्दगी में
दृष्टि इतनी सबल है
ध्वनि को कष्ट मत दो
दो, मुझे मौन दो
जिन्दगी की कौंध दो
न हो ध्वनि तदुपरान्त

मुझे मौन से
प्रेम दो, मौन दो
मौन से

समीक्षा “संभाल कर रखना अपनी आकाश गंगा” (काव्य संग्रह) कवि- अशोक सिंघई


अपने समय का सच उलीचती कवितायें

एक बार रूस के महान कथाकार दोस्तोवस्की अपने भाई इवान के साथ ईश्‍वर पर बहस कर रहे थे । दोस्तोवस्की ने इवान को ईश्‍वर के अस्तित्व तथा उसके द्वारा रचित समस्त ब्राम्हाण्ड के सूर्य, पृथ्वी, सागर, चंद्रमा, आकाशगंगा तथा सभी ग्रहों की महत्ता समझाते हुए इसबात पर जोर दिया कि इवान ईश्‍वर पर विस्त्रास करने पर राज़ी हो गया लेकिन इवान ने दोस्तोवस्की को एक छोटी से घटना बताई -

दस वर्ष की उम्र का एक बालक पत्थरों से खेल रहा था । उसकी माँ धनाढ्य मालिक के यहाँ काम करती थी । दुर्घटनावश बच्चे का एक पत्थर मालिक के कुत्ते को जा लगा । मालिक ने बच्चे को नंगा कर दौड़ने को कहा और उस पर कुत्ता छोड़ दिया गया । माँ की आँखों के सामने बालक को कुत्ते ने मार डाला । इवान ने आगे कहा कि किसी बड़े व्यक्ति, जिसने बहुत से पाप अपने जीवन में किए हों, को यदि दण्ड मिले और तुम्हारा ईश्‍वर मौन रहे यह मेरी समझ में आ सकता है किंतु उस दस वर्ष के बच्चे ने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो तुम्हारा ईश्‍वर चुप रहा ? दोस्तोवस्की निरूत्तर हो गया ।

हमारे चारों ओर इसी प्रकार ऐसा बहुत कुछ फैला पड़ा है जिसका कोई उचित उत्तर हमारे पास नहीं है । समुचित उत्तर न होते हुए भी कुछ महापुरूष सदा ही मौलिक सत्य का अन्वेषण करते रहते हैं, भेले ही उनहें इसमें सफलता न मिले । वे ईश्‍वर से प्रकृति से, समाज से और यहां तक कि स्वयं से भी हमेशा सवाल पूछते रहते हैं यद्यपि वे जानते हैं कि इन प्रश्‍नों का समुचित उत्तर उन्हें नहीं मिलेगा ।

एक रचनाकार शून्य से कुछ निर्माण करता है । वह रचना करता है समाज के इतिहास से, जनता के चेतन-पूर्व मानस और लोक कथाओं से । वह मानव सभ्यता के मौलिक उपादानों की खोज भी करता है । ऐसी सारी कठिनाइयों के वावजूद भी वह रचना करता है । रचना की शक्ति जीवित हे, रचनाकार का लेखन जारी है । भेले ही उसे अपने सारे प्रश्‍नों के उत्तर न मिल रहे हों, उसे प्रश्‍न पूछते ही जाना है - ईश्‍वर से, समाज से, प्रकृति से तथा स्वयं अपने से ।

सबसे बड़ी चुनौती का सामना एक रचनाकार उस समय करता है जब अपने लेखन के विषय में वह अपने से ही यह पूछता है -क्या मुझे यह रचना करनी चाहिये ? मेरी रचना का उदृदेश्य क्या है ? क्या मेरी रचना उचित है ? मैं अपने रचनाकार होने के प्रति क्या न्याय कर रहा हूँ ? इस न्यायोचित् भाव के साथ बाँटना पड़ता है जिसका प्रभाव दीर्घ स्थायी होता है । यद्यपि वह अपने चारों ओर फैली सभी विसंगतियों को ठीक नहीं कर सकता फिर भी वह औरों को समाज में सचेत तो कर ही सकता है । क्योंकि रचनाकार स्वयं जानता है कि बहुत सारी ऐसी चीज़ें हैं, ऐसे प्रश्‍न है जिनका जवाब हम नहीं दे सकते ।

कविवर अशोक सिंघई का दूसरा प्रकाशित काव्य-संग्रह संभाकर रखना अपनी आकाशगंगा २४ नई कविताओं को अपने कमनीय कलेवर में समेट कर प्रयोगवादी लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए नये विषयों । नये क्षेत्रों के अन्वेषण में एक सार्थक भूमिका का निर्वाह करता प्रतीत होता हे जिसकी एक विशेष दिशा है । इस दिशा विशेष में रचनाकार की रचना प्राचीनता से नवीनता की ओर बढ़ती है । जहाँ वह परंपराओं से स्थापित सत्य से आगे चली जाती है यद्यपि इसका लक्ष्य परंपराओं का खंडन करना नहीं है प्रत्युत रचना में निर्जीव तत्वों के स्थान पर नये सजीव तत्वों का अन्वेषण करना है तथा अशक्त रूढ़ियों का खंडन करके अभिव्यक्ति के नये माध्यम अपनाना है ।

हिंदी साहित्य के इतिहास में पिछले पचास वर्षों से प्रयोगवादी काव्य-धारा प्रवाहित हो रही है जो नई कविता के नाम से अभिहित हुई है । नई कविता के प्रत्येक कवि ने नई परिस्थितियों, नई समस्याओं, नये सामाजिक तथा साहित्यिक मूल्यों को अपने चिंतन का लक्ष्य बनाया है । इसके साथ ही टेकनीक के क्षेत्र में भी नई भाषा, नई लय तथा नये विधि-विधान को अत्यधिक सशक्त रूप में प्रेषणीय बनाने का प्रयास किया है । नई कविता के प्रमुख हस्ताख्रों में अज्ञेय के साथ गिरिजा कुमार माथुर, मजानन माधव मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर, धर्मवीर भारती, सर्वेस्त्रर दयाल सक्सेना, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय तथा नरेश मेहता के नाम लिये जा सकते है।

गत् पचास वर्षों में नई कविता ने स्वयं अपनी राह खेज निकाली है । सप्तकों के प्रयोगवादी कवि नई राहों के अन्वेषी थे । नई कविता अथवा नव लेखन की साहित्य प्रतिष्ठा की दिशा में `प्रतीक` `पाटल` `कल्पना` `निकष` `संकेत` `नई कविता` `ज्ञानोदय` `कृति` `धर्मयुग` `लहर` `निष्ठा` `शताब्दी` तथा `कखग` जैसे अनेकश: पत्र-पत्रिकाओं का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा है ।

प्रयोगवादी काव्य-धारा (नई कविता) पर कुछ विद्वानों ने आरोप भी लगाये हैं, उस पर कुछ आक्षेप भी किये हैं ।

आचार्य नंददुलारे बाजपेयी लिखते हैं - ``प्रयोगवादी साहित्यकार से साधारणत: उस व्यक्ति का बोध होता है जिसकी रचना में कोई तात्विक अनुभूति, कोई स्वाभाविक क्रम विकास या कोई सुनिश्चित व्यक्तित्व न हो ।``

``एक तो प्रयोगवादी रचनायें पूरी तरह काव्य की चौहद्दी में नहीं आती, वे अतिरिक्त बुद्धिवाद से ग्रस्त हैं दूसरे वे वैचित्यप्रिय हैं । वृत्ति का सहज़ अभिनिवेश उनमें नहीं है और तीसरे वे वैयक्तिक अनुभूतियों के प्रति भी इमानदार नहीं हैं और सामाजिक उत्तरदायित्व को भी पूरा नहीं करती`` ।

डॉ० प्रेमनारायण शुक्‍ल ने लिखा है - ``वैचित़्र्य विधान के मोह में पड़कर प्रयोगवादी कलाकार कला की आत्मा की बड़ी निमर्म हत्या करके भी यह समझता है कि उसने आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए पुण्य-पथ का प्रदर्शन किया है `` ।

रचनाकार की रचना में शिल्प के प्रति अत्यधिक जागरूकता भी नई कविता के प्रति लगाये गये आक्षेपों का कारण है । उसके भाषा प्रयोगों में एक कृत्रिमता है । असामाजिक भावनाओं, मानसिक कुण्ठाओं एवं दमित यौवन वृत्तियों के उलझे हुये उपभनों एवं प्रतीकों के कारण नई कविता एक प्र वाचक चिन्ह के साथ देखी जाने लगी है ।

नई कविता की इसी उक्त पृष्ठ भूमि को यदि कसौटी मानकर समीक्ष्य कविता संग्रह का उचित आकलन किया जाये तो अधिक न्यायसंगत् होगा ।

अशोक सिंघई का यह काव्य संग्रह उनके मित्र स्व. प्रमोद वर्मा को समर्पित है जिसमें कवि का एकालाप कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है :-

`मृत्यु का उतना ही महत्व है । जीवन में । जितना संवाद में मौन का । गणित में शून्य का । जो जीता है, अपनेसमय में । वह फिर जन्‍मता है । जन्‍मती है उसकी यथ: काया ।

प्रमोद वर्मा को एक अज़नबी मित्र की संज्ञा देते हुए कवि उन्हें अपने शब्दों में परिभाषित करने का प्रयत्न करते हुए इस शब्द चित्र में उकेरता है -दिनकर की दीप्त कर आँखें । एक नि:स्तब्ध निशा में । कुछ गूँजते गीतों की । विस्मृत स्मृतियों में। मैंने देखा उसे । एक अज़नबी मित्र । इतना कोमल जैसे साँस । याद है वह नि:स्तब्ध निशा । बऱ्फ सा पिघलता । धूप सा बिरना । मैंने देखा है उसे । एक अजनबी मित्र । जीवन था जिसका एक प्रवास । अपने दिवंगत अजनबी मित्र की पुण्य स्मृति में कवि का समर्पण एक ऐतिहासिक यादगार है जिसके लिए वे बधाई के सुपात्र हैं ।

कवि अशोक सिंघई प्रखर संवेदनों के रचनाकार हैं । उनकी यह संवेदना बौद्धिकता द्वारा अनुशासित होती चलती है । संवेदना बौद्धिकता द्वारा अनुशासित होती चलती है । संवेदना और बौद्धिकता की यह सहयात्रा रूमानी परंपरा को तोड़कर नये सौंदर्य बोध से संपन्न स्वरूप काव्य को जन्म देती है । एक बानगी देखिये :-

``चहकती है चिड़िया हर नई सुबह । भारी पड़ती निचोवन पर । सरोद पर । रविशंकर के सितार पर । इस वास्तविक महाभारत में । सत्य की जीत का भी नहीं है कोई आग्रह । जनेगी एक दिन चिड़िया । कभी न कभी ऐसा अभिमन्यु । जो कर देगा विच्छिन्न सारे चक्रव्यूह । और जीवित लौट आयेगा घोंसले में । पंजों में उठा सारी धरा ।``

`नाखूनों` को काटने का सही सलीका` शीर्षक से रचित अशोक सिंघई की कविता को पढते हुये मुझे भी अपना बचपन याद आया जो ठेठ एक गाँव में बीता था । गाँव से शहर तक की यह जीवन यात्रा मनुष्य की विकासऱ्यात्रा को प्रमाणित करती है । कवि की इस वैचारिक विशिष्ठता को साधुवाद देना होगा । रामलाल नाई के/ घुटनों में दबाि मेरा सिर/ मशीन से उधेड़ता बाल/ और नहन्नी से छील देता था नाखूऩ उसकी कल्पना से आज रोंगटे खड़े हो जाते है । जैसे तब तन जाते थे/ सिर के बाल और ज़ोर-ज़ोर से । डर से काँपता था छोटा-सा सीना । कोई बचने का रास्ता/ नहीं था तब/ अब/ पंच सितारा होटलों में बड़ी नफ़ासत, बड़ी नज़ाकत और नखरों से / संवारे जाते हैं मेरे बाल/ मैं आँखें बंद कर सोचता/ कितना जीवंत स्पर्श था/ कितना अपनापन था/ इस व्यवसायिकता के प्रदूषण से कोसों दूर/ रामलाल नाई की गोद में ।

इन पंक्तियों से गुज़रते हुए मैं स्वयं अपनी विकासयात्रा से जुड़ रहा हूँ और यही एक सफल रचना को प्रमाणित करती है । हम यह जानते हैं कि मनुष्य को जीवन की गतिशीलता की विरासत काव्य से ही मिली है किंतु यह भी सत्य है कि नि को मथे कविता का अभ्युदय नहीं हो पाता । कविता में मन की संवेदनायें भी गुंथी होती हैं । इसका स्पश्ट प्रमाण अशोक सिंघई की उन कविताओं में मिलता है जिनमें रचनाकार ने प्रकृति के चित्रण को छायावादी प्रभाव से मुक्त रखते हुए अपने सच्चे युगबोध का परिचय देकर युगसत्य को भी चित्रित किया है । कवि की , वर्तमान सामाजिक स्थितियों में जीती चिंदगी के प्रति यह चिंता संवेदना स्तर पर मुखरित हुई है: -

``कितना रोमांचक होता है /अनुभूत करना/घास की नोक पर/ देख लेना/ एक इन्द्रधनुष/पैरों के पास/ बिल्कुल पास। फिर भी/पकड़ कहाँ पाऊँगा/आकाश में तना इन्द्रधनुष/आँखों में बना इन्द्रधनुष/सदियों की साध/हाथ मेरे छोटे/हर आदमी की तरह/

जीवन की भाँति कविता भी अपरिमेय होती हैं और एक कवि इसी अपरिमेयता को बिंबो, प्रतीकों, फंतासियों के माध्यम से रचता है । इस रचनात्व पर देश, काल और परंपरा का निश्चय ही प्रभाव पड़ता है परन्‍तु जिस उदात्त मानवीय दृष्टि से वे रचनायें उद्भूत होती हैं वे इतनी निर्बंध होती हैं कि सभी की मानवता उनसे संबोधित होती है । कवि हर परिसिस्थति में कविता को बचना चाहता है, उसमें समाहित जीवन मूल्यों की रक्षा करना चाहता है तभी तो कवि अशोक सिंघई इतना आशावान है आदमी और कविता दोनों के लिये-

``सम्माल कर रखेगा आदमी/अपनी आकाशगंगा को/ जैसे बच्चा संभालता है/ अपना हवा भरा गुब्बारा/
और
``जब तक/ बची रहेगी लोरी/जब तक/बची रहेगी धड़कर दिल की/ जब तक/ बची रहेगी ध्वनि/ जब तक/ बची रहेगी प्रार्थना/ बची रहेगी कविता/ तब तक/


इस प्रकार अशोक सिंघई का रचनाकार जहाँ नई परिस्थितियों, नई समस्याओं, नये सामाजिक संदर्भों को अपनी रचनाओं के चिंतन में लक्ष्य बनाकर चला है वहीं उसने साहित्यिक मूल्यों का संरक्षण एवं संवर्द्धन भी किया है किंतु प्रयोग के तौर पर कहीं भी नई ज़मीन तोड़ते नज़र नहीं आये । जहाँ तक रचनाओं की तकनीक का प्रश्‍न है उस क्षेत्र में भी रचनाओं का शिल्प और उसके प्रति रचनाकार की अत्यधिक जागरूकता उसको बुद्धिवाद की अतिरिक्तता तथा वैचित्र्यप्रियता से बचा नहीं पाई है । भाषा के प्रयोगों में भी नैसर्गिकता का अभाव खटकता है जो अंत्यंत बोझिल लगती है वैसे वास्तव में ही सामाजिक चेता के सही स्वरूप को कवि ने अपनी प्रखर काव्यधारा में अभिव्यंञ्ति किया है । उन्होंने अपने युगधर्मै, आत्मबोध, राष्ट्रीयता, मानवीयता एवं प्रगतिशीलता को अपनी रचनात्मक दृष्टि के साथ अपने कर्तव्यबोध को भी रचनाधर्मिता का लाक्ष्य बनाकर अपनी सभी रचनाओं में मुखरित किया है । मेरी शुभकामनाओं के बकुल पुड्ढ इस प्रगतिशील रचनाकार को अर्पित हैं । चाहता हूँ श्री अशोक सिंघई के रचनाकार तथा उसकी शब्द यात्रा की उम्र लंबी हो ।

हरिप्रकाश वत्स
`उमाँजलि`मैत्रीविहार,धमतरी (छग.)

बोलियों की दुनिया में छत्‍तीसगढी बोली


आलेख : रामहृदय तिवारी

प्रकृति बोलती है, कभी क्रोध से, कभी करूणा से, कभी दुत्कार से तो कभी दुलार सेभौंचक मनुष् समझ नहीं पाता, सिर्फ महसूस करता है प्रकृति की अनंत बोलियों कोमनीषी कहते हैं प्रकृति की सारी ध्वनियॉं अज्ञात अनंत सत्ता की सांकेतिक अभिव्यक्तियॉं हैतत् दर्शियों ने इन्हें अनहद नाद कहा, कभी अल्लाह कहा, कभी यहोवाह, कभी आमेन तो कभी ओमकहते हैं कि स्रष्टि की सारी ध्वनियों का, सारी बोलियों और भाषाओं का स्रोत यह उँ ही हैयह अनहद नाद समूचे ब्रम्हाण् में परिव्याप् हैमनुष् का शरीर भी इस नाद का केन्द्र बिन्दु है, जहां से नि:स्रत होती हैविभिन् घ्वनियांमनुष् ने इस घ्वनियों को शब्दों में ढालकर ग्राहा और संप्रेषणीय बना दिया हैसंसार की सारी बोलियां मनुष् के सतरंगी मनोभावों की उद्दाम परिणतियां हैंविश् की तमाम बोलियां हमारी उत्कट भावनाओं के प्रतिफलन और हमारी सामाजिकता की आधारशिलाएं हैंबोलियों को मनुष् ने कब बोलना सीखा, हम नहीं जानते, लेकिन क्यों और कैसे बोलना सीखा- इसका पर्याप् प्रमाण हैहमारे पास

लगभग तीन हजार भाषाओं वाले इस सभ् संसार में अनगिनत बोलियां हैउन सबकी अलग अलग अभिव्याक्तियां मानव जाति की अमूल् धरोहर हैबोलियां सांस्क्रतिक जगत की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में एक हैअलग- अलग तेवर, तर्ज और रंग होने के बावजूद सारी बोरियों की गंध एक ही है । - माटी की गंधमाटी चाहे वह किसी भी देश, प्रान् या अंचल की हो, उसकी आत्मा में बस एक ही तडप होती हैफूल बनकर लिखने की, हरियाली बनकर लहलहाने कीमनुष्यता के साथ जीने कीरंगो, नस्लों, कौमों, मजहबों और सरहदों के पास बोलियों की यही तडप उनकी सबसे बडी पहिचान है, सबसे बडी ताकत है

जैसा कि हम जानते हैं, दुनिया के नक्शे में एक जगमगाता हुआ देश है, हिन्दुस्तानहिन्दुस्तान के ह्रदय स्थल के रूप में सोलह जिलों को अपनी बाहों में समेटे, एक प्यारा अंचल है छत्तीसगढ, जो अब स्वयं नए राज् के रूप में आकार ले चुका हैधान का कटोरा नाम से सुविख्यात इस गमकते हुए छत्तीसगढ राज् की शस् श्यामला धरती में ऐसा बहुत कुछ है जिसकी मोहकता, मादकता और माधुर्य पर हम न्यौछावर हैंयहां बोली जाने वाली छत्तीसगढी बोली भी उन्हीं में से एक हैदक्षिणापथ, दक्षिण कौशल, महाकान्तार और दण्डकारण् जैसे प्राचीन संबोधनों से सुशोभित हमारा छत्तीसगढ, संस्क्रति, पर्व और परंपराओं का मानसरोवर हैजैसे लहरों के बिना सरोवर सूना और श्रीहीन है, वैसे ही बोलियों के बिना अंचलछत्तीसगढी केवल बोली ही नही, इस अंचल की धडकन हैछत्तीसगढी एक ऐसी बोली है, जिसके साथ समूचे छत्तीसगढ प्रान्तर की आत्मीयता, आवेग, आदर और स्वाभिमान की भावनाएं जुडी हुई हैंइसकी ध्वनियां सरगुजा की सरहदी पहाडियों से बस्तर के सघन वनों तक, बिलासपुर जिले के खंडहरों से राजनांदगांव की डोंगरियों तक अपने पूरे वैभव सामर्थ् और अर्थवत्ता के साथ प्रतिध्वनित होती हैउसकी आभा मैकल के आर-पार बिखरती हैछत्तीसगढी बोली इस अंचल की आंतरिक सुषमा और उसका बाह्य श्र्रंगार हैइसकी सरसता, सरलता, माधुर्य और लचीलापन मन को बरबस मोह लेता हैएक उदाहरण देखें :

धरम धाम भुइंया छत्तीसगढ,
महानदी के धार जेकर चरन पखारथे,
जिहां राजीव लोचन सौंहत बिराजथे,
माटी जिंहा सोन के लोंदा अउ मनखे जइसे चंदैनी गोंदा, रागी,
अब ओखर कतेक करौं मैं बन्दन,
धुर्रा फुदकी घलो जिंहा मलागर के चन्दन

छत्तीसगढी बोली के कोषागार में सरस लोक-गीत है, सम्रद्व लोकगाथाएं हैं, कथाएं हैं, पहेलियां, किंवदंतियां, कहावतें और मुहावरे हैंपंथी, पंडवानी, करमा, ददरिया जैसे लोकगीतों के साथ छत्तीसगढी लोकनाट्य नाचा तो अंचल में ही नहीं, विश् के मंचीय जगत में विख्यात हैनाचा, जीवन केन्द्रित एक ऐसी लोकनाट्य विधा है जिसमें मनोरंजन और लोक शिक्षण का दुर्लभ संयोग देखा जा सकता हैनाचा छत्तीसगढी बोली का सर्वाधिक स्पष्, मुखर और नयनाभिराम आईना हैपंडवानी महाभारत के अमर पात्रों की शौर्य गाथा का छत्तीसगढी संस्करण हैपंडवानी के नाम से किसी महाकाव् का लोक शैली में गायन छत्तीसगढी बोली की अन्यतम विशेषता हैपंडवानी छत्तीसगढ की लोकवाचिका परम्परा का श्रेष्ठतम उदाहरण हैददरिया छत्तीसगढी लोकगीतों की राजललना हैबिहारी के दोहों की भांति तीखापन और व्यापक अर्थवत्ता लिए ददरिया में ग्रामीण युवा ह्रदयों की सहज सुकुमार भावनाएं तरंगायित होती हैक्रषि प्रधान इस अंचल के लिए ददरिया, श्रमशक्ति संचार और श्रम परिहार का सहज सुलभ साधन हैसुवागीत में नारी-पंगों के मंडलाकार गतिचक्र और हथेलियों की समरस लयबद्वता के साथ-साथ छत्तीसगढी बोली के कल-कल निनादी प्रवाह का मोहक समन्वय हैआत्मा के प्रतीक सुवा को संबोधित सुवा गीत में नारी विरह वेदना ही आकुल अभिव्यक्ति ही नहीं, अंततोगत्वा इष् के एकाकार होने की चरमचाह और सर्वजन कल्याण की उदात् भावनाएं हैं

शोधकर्ताओं के अनुसार छत्तीसगढ के पूर्व में उत्तर दक्षिण उडीषा भाषा का विस्तार हैइस संक्रांति क्षेत्र की बोली लरिया के नाम से जानी जाती हैदक्षिण में मराठी के प्रभाव से छत्तीसगढी का जो रूप प्रचलित है उसे हल्बी की संज्ञा मिली हैउत्तर में भोजपुरी का प्रभाव हैबोधगम्यता और आंतरिक एकरूपता की द्रष्टि से छत्तीसगढ के सोलह जिलों की इस बोली को ही छत्तीसगढी बोली के नाम से पुकारा जाता हैअधिकाश विद्धान मानते हैं कि यह बोली अर्ध-मागधी की दुहिता और अवधी की सहोदरा हैछत्तीसगढ से प्राप् शिलालेखों में अवधीपन का स्पर्श और रामचरित मानस में छत्तीसगढी शब्दों का बाहुल् अवधि छत्तीसगढी की अंतरंगता को प्रमाणित करता हैऐसा माना जाता है कि आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व अर्धमागधी के गर्भ से छत्तीसगढी बोली का जन् हुआइन हजार वर्षो में इस बोली पर अन् भाषाओं की छाया पडती गईउत्तरोत्तर उसका स्वरूप परिवर्तित होता गयाआज यह बोली अपने सम्रद्ध लोक साहित् के कारण, बोली के स्तर से उठकर भाषा के सिंहासन पर आरूढ होने की स्थति में पहुंची है

छत्तीसगढी बोली की परिव्याप्ति का क्षेत्रफल 51,888 वर्गमील हैगणनानुसार छत्तीसगढी बोलने वालों की संख्या लगभग डेढ करोड से उपर आंकी गई हैप्रत्येक जिले की बोली में स्थानगत भेद स्पष् दिखाई देता हैइसके ग्राम् और नागर रूप में भी कुछ अंतर देखा जा सकता हैजैसे दसना दसा दे नागर रूप का ग्राम् रूप जठना जठा दे हैछत्तीसगढी बोली में विभिन् भाषाओं के शब्दों का पर्याप् प्रभाव और घुसपैठ अस्वाभाविक बात नहीं हैसंस्क्रत, प्राक्रत, अपभ्रंश तथा पूर्वी हिन्दी के शब्दों का पाया जाना तो स्वाभाविक है ही, क्योंकि उन्हीं स्तरों को पार करके छत्तीसगढी को यह रूप मिला है, इसमें मराठी, उडिया और नेपाली शब्दों के अतिरिक् बंगला, भोजपुरी, बुंदेलखंडी, ब्रजभाषा, गोंडी, संथाली, कोरकू, तुर्की, अरबी तथ फारसी के शब् छत्तीसगढी में नीर क्षीर की भांति घुले मिले हैंवैज्ञानिक अध्ययन की द्रष्टि से बोलियां, भाषाओं की अपेक्षा नि:संदेह अधिक महत् रखती हैंबोलियों की अक्रत्रिमता, ताजगी और प्राणवत्ता आत्मा को छूती हैउनके मुहावरों, कहावतों, कथाओं, एवं गीतों में लोक जीवन का अनगढ मगर सरल, सरस और उद्दाम सौंदर्य झलकता हैछत्तीसगढी कहावतों और पहेलियों में जीवन के गहरे अनुभव और शब् विन्यास की छटा सुनने तथ गुनने की चीज हैगंवई के चिन्हार अउ सहर के मितान, पर्रा भर लाईदेस भर बगराई, चार गोड के चिप्पो, तेमा बइठे मिप्पो, ओला लेगे निप्पो, बइठे चापक चिप्पोइस तरह अनगिनत उदाहरण है

जैसा कि सर्वविदित हैअंचल का चिर संचित स्वप् छत्तीसगढ राज् अब आकार ले चुका हैनए राज् के अल्हाद में लोक संस्क्रति का सागर अपने पूनम के चांद को छूने बेचैन हैपूनम जब अपने यौवन में सोलहवें श्र्रंगार के साथ मचलता है तब सागर भी पगला उठता है और लहरें गले मिलने आतुर हो दौड पडती हैअंचल का जनसागर अपनी छाती में क्या क्या दबाए अभिव्यक्ति के लिए आज मचल उठा हैअब छत्तीसगढी में साहित् स्रजन की प्रव्रत्तियां ऊफान पर हैछत्तीसगढियों का चरम आज अपना सम्पूर्ण ह्रदय खोलकर रख देने को आकुल है :

लहर लहर लहरावे खेती, चंवर डोलावे धान,
कोदो राहेर तिंवरा बटुरा, मा भर थे मुस्कान
हरियर हरियर जम्मो कोती, दिखथे सबो कछार,
दूध असन छलकत जावत हे, महानदी के धार

यह स्वीकृत सत् है कि अब तक विश् में जो भी अविष्क्रत बोलियां और भाषाएं हैं, वे मनुष् की अथाह अनुभूतियों को व्यक् करने में अभी भी पूर्ण सक्षम और समर्थ नहीं हो पायी हैंगूंगे के गुड की तरह हक अभी भी अपने भावोद् गारों को अभिव्यक् करने, परिभाषित करने छटपटाते हैंआवश्यकता है एक ऐसी विश् जमीन बोली की जहां हम पूरी तरह खुल सकें, मिल सकें, परस्पर प्रेम कर सकेंयही हर बोली की अभीप्सा है, अभिप्राय है :

पोथी पढ पढ जग मुआ, पंडित भया कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढे सो पंडित होय

आत्मीयता और प्रेम छत्तीसगढी बोली की मौलिक विशेषता हैक्रोध, कुत्सा, ईर्ष्या और घ्रणा जैसे मनोविकारों का शब्दिक पर्याय ही नहीं है इस बोली मेंसर्वत्र प्रेम है, स्नेह और आतिथ् परायण्ता के मनोभाव हैंदूसरों के लिए सर्वस् त्याग करने की उत्कट कामना हैसभी प्राणियों के लिए मंगल कामनाएं, जडचेतन के लिए नैष्ठिक अनुराग छत्तीसगढी बोली का अन्यतम आकर्षण है और इसी में अंतर्निहित है छत्तीसगढ की आत्मा, छत्तीसगढ राज् की गरिमा

उडत चिरइया रूम झूम ले
बहिनी उडत चिरइया रूम झूम ले
राम रमउवा ले ले
बहिनी, राम रमउवा ले ले
भइया राम रमउवा ले ले.

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

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