माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय : असमय पका सीताफल

सुबह-सुबह बंदरों की आवाजों से नींद खुली, मेरी श्रीमती और पुत्र घर से लगे 'कोलाबारी' में बंदरों की टीम को भगाने की कोशिशों में लगे थे। बंदर घर के बाउंड्रीवाल में लाईन से बैठे थे, बाउंड्रीवाल के उस पार सड़क में कुत्‍ते उन्‍हें उतरने दे नही रहे थे और इस पार हमारी सेना उन्‍हें भगाने के लिए डटी थी पर ढीठ बंदर भाग ही नहीं रहे थे। मेरे बाहर आने और हांक लगाने पर ही वे दूसरे घर के छतों से होते हुए भागे। बंदरों की इस टोली में कोई बारह-पंद्रह बंदर होंगें जो पिछले दिसम्‍बर-जनवरी से हमारे कालोनी में सात-आठ दिनों के अंतराल से लगातार आ रहे हैं। हमारी कालोनी शहर से कुछ दूर है यहां हरियाली ज्‍यादा है और कालोनी से लगे खेत भी है इस कारण बंदरों की आवाजाही होती रहती है पर लगता है पिछले महीनों से इनकी दखल घरों में बढ़ती जा रही है, हम छतो में या खुले स्‍थान में खाने का सामान नहीं रख सकते, बड़ी, आम पापड़ आदि सुखाने में ये उसे चट कर जाते हैं। मेरे घर में आम व अमरूद एवं अन्‍य फलदार पेड़ हैं जो इन बंदरों को ज्‍यादा ललचाते हैं। मेरी श्रीमती व पुत्र अपनी मेहनत से उगाए फलों को लुटते देखकर इन बंदरों को भगाने के हर जुगत लगाते हैं पर ये जब भी आते हैं डंगाल तोड़कर व बीस-पच्‍चीस फलों का नुकसान कर चले जाते हैं।


मेरे घर में एक अमरूद का पेड़ है जो साल में दो बार फल देता है, आज जब बंदर चले गए तो पेड़ के नीचे दर्जनों कच्‍चे अमरूद गिरे हुए थे, हमने पेड़ में फले अमरूद को देखा तो कुछ अमरूद पके हुए नजर आये। पके अमरूदों को तोड़ते हुए मैंनें अमरूद के पास ही एक छोटा सीताफल के पेड़ में लगे दस-बारह फल पर भी सरसरी निगाह डाला। एक सीताफल फटा हुआ नजर आया, पास जाकर उसे छूते ही वह हाथ में गिर गया, यानी वह पक गया था। एक दूसरे बड़े सीताफल को उत्‍सुकता से हल्‍के से दबाया तो वह भी दबने लगा। इसे तोड़ते हुए सतीश जायसवाल जी का पोस्‍ट याद आने लगा जिसमें उन्‍होंनें सीताफल में असमय फूल पर एक पोस्‍ट लिखा है उन्‍होंनें पोस्‍ट के अंतिम में लिखा ''...असमय के ये फूल फलेंगे नहीं। सीताफल के फलों के लिये उसके अपने ऋतुचक्र के पूरा होने तक प्रतीक्षा करनी ही होगी।'' 
यहां तो सीताफल असमय पक भी गये ... माली सींचे सौ घड़ा ...... अब भूलना पड़ेगा।

छत्‍तीसगढ़ के कुछ और आरूग ब्‍लॉग

सुरेश अग्रहरि
छत्‍तीसगढ़ी भाषा भी अब धीरे-धीरे हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में अपने पाव पसार रही है। पिछले पोस्‍ट के बाद रविवार को पुन: छत्‍तीसगढि़या ब्‍लॉगों को टमड़ना चालू किया तो बिलासपुर के भाई प्रशांत शर्मा का एक हिन्‍दी ब्‍लॉग मिला जिसका नाम छत्‍तीसगढ़ी में है। उन्‍होंनें इसमें लिखा है कि इस ब्लाग में आप उन सभी बातों को पढ़ सकेंगे जो गुड़ी(चौपाल) में की जाती है। राजनीति से लेकर देश, दुनिया, खेल से लेकर लोगों के मेल की बातें, जीत हार की बातें, आपने आस-पास की बाते और भी बहुत कुछ...।  प्रशांत शर्मा जी के गुड़ी के गोठ में पहली पोस्‍ट 11 मई 2011 को लिखी गई है और 26 जून 2011 को पांचवी पोस्‍ट में वे भ्रष्टाचार के दशा-दिशा पर विमर्श प्रस्‍तुत कर रहे हैं। छत्‍तीसगढ़ी शीर्षक पहुना के नाम से राजनांदगांव के सुरेश अग्रहरि जी ने भी ब्‍लॉग बनाया है अभी चार लाईना कवितायें ही इसमें प्रस्‍तुत है। आशा है आगे इनके ब्‍लॉग में ब्‍लॉग शीर्षक के अनुसार अतिथि कलम की अच्‍छी रचनांए पढ़ने को मिलेंगी।

कमलेश साहू
रायपुर के कमलेश साहू जी पेशे से टेलीविजन प्रोड्यूसर हैं, विगत 11 वर्षों से मीडिया क्षेत्र में सक्रिय हैं एवं वर्तमान में ज़ी 24 घंटे छत्तीसगढ़ रायपुर में कार्यरत हैं। इनके ब्‍लॉग कही-अनकही में पहली पोस्‍ट 14 जून 2008 को लिखी गई है एवं कुल जमा तीन पोस्‍ट हैं, ताजा पोस्‍ट बाबूजी को कमलेश जी नें बड़ी संजीदगी से लिखा है, कमलेश भाई यदि ब्‍लॉग में सक्रिय रहते हैं तो हमें उनकी कही-अनकही बहुत सी बातें पढ़ने को मिलेंगीं।

स्‍मृति उपाध्‍याय

अपने आप को जानने समझने की कोशिश करती रायपुर की स्मृति उपाध्याय जी के ब्‍लॉग स्‍मृति में पहली पोस्‍ट 18 मार्च 2010 को लिखी गई है और 6 जनवरी 2011 को पब्लिश पोस्‍ट में वो लड़की शीर्षक से लम्‍बी कविता है। इसके बाद लगभग छ: माह से यह ब्‍लॉग अपडेट नहीं है किन्‍तु मार्च 2010 से दिसम्‍बर 2010 तक इसमें लगातार 19 पोस्‍ट पब्लिश किए गए है जिनमें किसी में भी टिप्‍पणियॉं नहीं है, जबकि स्‍मृति जी की लेखनी सशक्‍त है। मुझे लगता है कि इनका ब्‍लॉग किसी भी एग्रीगेटर की नजरों में आ नहीं पाया जिसके कारण इनके ब्‍लॉग में पाठकों की कमी नजर आ रही है। स्‍मृति जी यदि नियमित ब्‍लॉग लिखती है तो हमें उनकी संवेदनशील कवितायें नियमित पढ़ने को मिलेंगीं।
नवम्‍बर 2009 से हिन्‍दी ब्‍लॉग लिख रहे दंतेवाड़ा बस्‍तर से विशाल जी अपने प्रोफाईल में लिखते हैं 'मैनेजमेंट की पढाई तो की मैंने पर मेरे अंदर जो लेखक बसा हुआ था, उसे तो एक दिन बाहर आना ही था, मेरे आसपास जो भी गलत होता है मैं उसे सेहन करने में सक्षम नहीं हूँ, और समाज से अन्याय और बुराई को मिटाने के लिए मैंने पत्रकारिता शुरू की, मेरे इस ब्लॉग में आपका स्वागत है' जागो भारत जागो नाम से संचालित इस ब्‍लॉग में ताजी पोस्‍ट 5 जून को लिखी गई है। बंसल न्यूज में बतौर छत्तीसगढ़ ब्यूरो हेड कार्यरत प्रियंका जी के ब्‍लॉग से भी आज ही सामना हुआ, यद्धपि छत्‍तीसगढ़ चौपाल में इनके ब्‍लॉग को मैं पूर्व में ही जोड़ चुका हूं, किन्‍तु मैं इस ब्‍लॉग को नियमित पढ़ नहीं पा रहा था। प्रियंका जी जून 2008 से ब्‍लॉग लिख रही हैं। अपनी तेज-तर्रार पत्रकार छवि के लिए छत्‍तीसगढ़ में जानी जाने वाली प्रियंका को नियमित ब्‍लॉग में पढ़ना सुखद रहेगा। 'प्रियंका का खत' ब्‍लॉग समाचार के तह से निकलते अलग-अलग पहलुओं से हमें अवगत कराता रहेगा। दुर्ग के जिला पंचायत के प्रतिभावान सदस्‍य देवलाल ठाकुर जी भी अप्रैल 2008 से ब्‍लॉग लिख रहे हैं। वे लिखते हैं कि उनका ब्‍लॉग 'दुर्ग छत्‍तीसगढ़' दुर्ग शहर की खबरों, राजनीतिक आर्थिक धार्मिक गतिविधियों के समाचारों विचारो की पत्रिका के रूप में प्रस्‍तुत होगी। इस ब्‍लॉग में ताजा प्रवृष्टि 20 मई 2011 की है। यही बात कहने वाले देवरी बंगला, दुर्ग के पत्रकार केशव शर्मा जी भी वही कहते हैं जो देवलाल जी कहते हैं, केशव शर्मा - पत्रकार . दुर्ग, छत्तीसगढ़ नाम से ब्‍लॉग में अभी 11 मई 2011 तक तीन पोस्‍ट हैं। मेरी देहरी के नाम से ब्‍लॉग लिख रही रायपुर की ज्‍योति सिंह जी भी मई 2010 से लिख रही हैं। 15 अप्रैल 2011 को पब्लिश पोस्‍ट कायाकल्‍प में गहन चिंतन है, आगे इस ब्‍लॉग में अच्‍छे पोस्‍ट पढ़ने को मिलते रहेंगें।

यश ओबेरॉय
छत्‍तीसगढ़ के प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं बहुचर्चित नाटकों क्रमश: विरोध, तालों में बंद प्रजातंत्र, मुखालफत (पंजाबी), चीखती खोमोशी, गधे की बारात, ठाकुर का कुंवा, पेंशन, चार दिन, बेचारा भगवान, नाटक नहीं, फंदी, दशमत कैना (छत्तीसगढ़ी) सीरियल और टेली फिल्म - आस्था, तथागत, जरा बच के, मैं छत्तीसगढ़ हूँ, मीत, रूह, जैसे नाटकों में काम करने वाले यश ओबेरॉय जी की भी एक हिन्‍दी ब्‍लॉग यश ओबेरॉय नेट में उपलब्‍ध है जिसमें अक्‍टूबर 2010 में एक कविता पब्लिश की गई है। यश जी छत्‍तीसगढ़ के रंगकर्म व लोकनाट्यों के अच्‍छे जानकार हैं, यदि यह ब्‍लॉग नियमित रहे तो हमें छत्‍तीसगढ़ के थियेटर व लोक कलाओं पर अच्‍छी जानकारी मिल पायेगी।

प्रफुल्‍ल पारे
रायपुर छत्‍तीसगढ़ के पत्रकार प्रफुल्‍ल पारे जी अपने प्रोफाईल में लिखते हैं 'पढ़ाई की औपचारिकता पूरी करने के बाद समय मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल ले गया और वहां से 1993 से शुरू हुआ पत्रकारिता का सफर। दैनिक नईदुनिया, नवभारत में 7 साल बिताने के बाद जिंदगी गुलाबी शहर जयपुर ले गई। इस रेतीली जमीन पर कृषक जगत जैसे खेती पर आधारित अखबार की सफल लांचिंग की। तीन बरस बाद जयपुर भी छूट गया और ईटीवी का सेंटर इंचार्ज बन वापस रायपुर आ पहुंचा। लेकिन जिस रायपुर से गए थे वो जिला था लौटे तो राजधानी। तब से ईटीवी के बाद हरिभूमि फिर नईदुनिया इंदौर का ब्यूरो संभाला, उसके बाद आज की जनधारा का संपादन किया और अब अपना ड्रीम प्रोजेक्ट ग्रामीण संसार को बुलंदियों पर पहुंचाने का इरादा है।' वे विदेह नाम से ब्‍लॉग लिखते हैं। विदेह में अगस्‍त 2010 से जनवरी 2011 तक दो पोस्‍ट डले हैं किन्‍तु समाचारों को विश्‍लेषित करने की क्षमता इन दोनों पोस्‍टों में स्‍पष्‍ट नजर आ रही है। प्रफ़ुल्‍ल जी यदि इस ब्‍लॉग में नियमित रहते हैं तो हमें छत्‍तीसगढ़ की धड़कन स्‍पष्‍ट सुनाई देगी।

सुभाष मिश्र
रायपुर के सुभाष मिश्र जी छत्तीसगढ़ शासन के पाठ्यपुस्तक निगम में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से उनका जुड़ाव है। नाटकों में गहरी दिलचस्पी के कारण ही पिछले 13 वर्षों से मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का वे सफल संयोजन करते आ रहे हैं। इनकी तीन किताबें एक बटे ग्यारह (व्यंग्य संग्रह), दूषित होने की चिंता, मानवाधिकार का मानवीय चेहरा प्रकाशित हो चुकी हैं। सुभाष मिश्र जी का जिजीविषा के नाम से ब्‍लॉग है जिसमें जनवरी 2011 को एक पोस्‍ट पब्लिश है उसके बाद इसमें कोई पोस्‍ट नहीं है, थियेटर के गहरे जानकार मिश्र जी का यह ब्‍लॉग यदि जीवंत रहता है तो हमें उनके द्वारा लिखित नाट्य समीक्षा, रंग विमर्श व व्‍यंग्‍य पढ़ने को मिलता रहेगा।

देवेश तिवारी
बिलासपुर से एक जिज्ञासु प्रकृति का नवोदित पत्रकार देवेश तिवारी जी का ब्‍लॉग समय का सिपाही भी उल्‍लेखनीय है। ऍम ऍम सी जे की पढाई कर रहे देवेश भाई नवम्‍बर 2010 से ब्‍लॉग लिख रहे हैं उनके ब्‍लॉग में अप्रैल 2010 तक पोस्‍ट पब्लिश हैं। सामयिक विषयों पर और कविता लिखने वाले देवेश भाई की लेखनी धारदार है। हमें इनके नियमित रहने की प्रतीक्षा है।

अब इस पोस्‍ट के शीर्षक में प्रयुक्‍त शब्‍द 'आरूग' के संबंध में हम आपको बताते चलें। आरूग छत्‍तीसगढ़ी भाषा का शब्‍द है आरूग का अर्थ है ऐसा जो जूठा न हो, जिसका प्रयोग न हुआ हो, जिसे भगवान पर अर्पित किया जा सके। मेरे लिये ये ब्‍लॉग आरूग थे इसलिए मैंने इन ब्‍लॉगों को 'आरूग' लिखा। ऐसे ही कुछ विशेष व उल्‍लेखनीय ब्‍लॉगों को लेकर हम फिर उपस्थित होंगें।

संजीव तिवारी
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फेसबुकिया कविता : उनकी हर एक कविता मेरी है

कवितायें भी लिखते हो मित्र
मुझे हौले से उसने पूछा
कवितायें ही लिखता हूँ मित्र
मैने सहजता से कहा.

भाव प्रवाह को
गद्य की शक्‍ल में ना लिखकर
एक के नीचे एक लिखते हुए
इतनी लिखी है कि
दस-बीस संग्रह आ जाए.

डायरी के पन्‍नों में
कुढ़ते शब्‍दों नें
हजारों बार मुझे आतुर होकर
फड़फड़ाते हुए कहा है
अब तो पक्‍के रंगों में
सतरंगे कलेवर में
मुझे ले आवो बाहर
पर मैं हूँ कि सुनता नहीं
शब्‍दों की .

शायद इसलिए कि
बरसों पहले मैंनें
विनोद कुमार शुक्‍ल से
एक अदृश्‍य अनुबंध कर लिया था
कि आप वही लिखोगे
जो भाव मेरे मानस में होंगें
और उससे भी पहले
मुक्तिबोध को भी मैंने
मना लिया था
मेरी कविताओं को कलमबद्ध करने.

इन दोनों नें मेरी कविताओं को
नई उंचाईयां दी
मेरी डायरी में दफ्न शब्‍दों को
उन तक पहुचाया
जिनके लिये वो लिखी गई थी
उनकी हर एक कविता मेरी है
क्‍या आप भी मानते हैं कि
उनकी सारी रचनांए आपकी है.

संजीव

ब्‍लॉगिया कविता : नोबेल की राह पर

ब्‍लॉ.ललित शर्मा के नये ब्‍लॉग
एनएच 43 के शेयर इशू होते ही
मेरे मन में दबी छिपी आकांक्षा
फिर हिलोरे मारने लगी...
बहुत दिनों से इच्‍छा थी कि
एक नया ब्‍लॉग बनांउ
जिसमें स्‍वरचित कवितायें पोस्‍ट करूं.

हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत के टाप लिस्‍टों में
कविता ब्‍लॉगों की चढ़ती लोकप्रियता
मुझे बार-बार कविता लिखने को
प्रेरित करती रही है.
कविता ब्‍लॉगों के पोस्‍टों में पोस्टित
कवितायें मुझे मेरे सृजन को ललकारती हैं.
उनमें आये कमेंट मुझे चिढ़ाते हैं
और मेरा मन कहता है कि
तुम क्‍यों नहीं लिखते कवितायें ...

मेरा शाश्‍वत कहता है कि
मैं नहीं लिख पाउंगा कवितायें
क्‍योंकि पद्य गद्य की कसौटी है
जबकि मेरा मन कहता है कि क्‍यूं नहीं,
जो बात तुम लम्‍बे चौड़े गद्य में कहते हो
उसे थोड़ा छोटा करके चार-चार शब्‍दों में
एक के नीचे एक लिखते जाओ,
हो गई कविता.

'हो गई कविता ...'
पब्लिश करो उसे, पाठकों को पसंद आयेंगीं.
यकीं मानों, रविन्‍द्र नाथ, मुक्तिबोध सब
अब ब्‍लॉग से ही उदित होंगें
संपूर्ण विश्‍व की संवेदना ब्‍लॉग की कविताओं में 

समा जावेगी.

ब्‍लॉग पाठकों के पास समय कम होता है,
ब्‍लॉग पढ़ने के लिए
वे पढ़ते कम हैं
अपनी उपस्थिति ज्‍यादा दर्ज करवाते हैं
लम्‍बे-चौड़े गद्य के बजाए
कविताओं वाले पोस्‍टों में
एक नजर घुमाते ही
'सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति' दर्ज हो जाती है ...

तो कादम्बिनी फेम राजेन्‍द्र अवस्‍थी के चेले बनो
बंधन मुक्‍त समाज में 

लीव इन रिलेशन वाली 
नई कविता लिखो ...
टिप्‍पणिया पावो
और बड़े कवि बन जावो.


बारंबार मना रहा हूँ मन को
मुझे कवि मत बनाओ,
देखिये कब मानता है
मन और मानस के चलते द्वंद तक
कुछ राहत है
और मेरा एक अजन्‍मा ब्‍लाग 

आप लोगों के सामने आहत है.

ब्‍लॉग कवियों से क्षमा सहित - मानसून के आगमन पर - निर्मल हास्‍य फुहार

संजीव तिवारी

छत्‍तीसगढ़ में बिना हो हल्‍ला हिन्‍दी ब्‍लॉगों की बढ़ती संख्‍या

छत्‍तीसगढ़ के सक्रिय ब्‍लॉगों पर विचरण करते हुए पिछले  दिनों ब्‍लॉगर प्रोफाईलों के लोकेशन में छत्‍तीसगढ़ लिखे प्रोफाईलों की संख्‍या को देखकर हमें सुखद आश्‍चर्य हुआ। ऐसे प्रोफाईलों की संख्‍या  5317 नजर आई। वर्डप्रेस व अन्‍य ब्‍लॉग सेवाप्रदाओं के द्वारा बनाए गए ब्‍लॉगों के आकड़े हमें नहीं मिल पाये फिर भी ब्‍लॉगर में बनाए गये ब्‍लॉगों को देखते हुए यह माना जा सकता है कि लगभग इसके एक चौंथाई ब्‍लॉग तो निश्चित ही इनमें भी बनाए गए होंगें। इस प्रकार से वर्तमान में छत्‍तीसगढ़ में लगभग 6000 ब्‍लॉगर हैं। इन 6000 ब्‍लॉगर प्रोफाइलों में एक एक में कम से कम दो ब्‍लॉग तो बनाए ही गए हैं, कुछ ऐसे भी प्रोफाईल हैं जिनमें बारह-पंद्रह ब्‍लॉग हैं जो सामाग्री से भरपूर संचालित हैं। इस तरह से प्रदेश में लगभग 15-20 हजार ब्‍लॉग हैं।

ब्‍लॉगर प्रोफाईल से प्राप्‍त आंकड़ों को आनुपातिक रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है। एक, ऐसे ब्‍लॉगर के ब्‍लॉग जो शौकिया तौर पर बनाए गए हैं और उनमें हाय-हलो के अतिरिक्‍त कोई पोस्‍ट नहीं हैं। दसूरा, अंग्रेजी भाषा के ब्‍लॉग हैं जिनमें से अधिकतम में नियतिम या अंतरालों में पोस्‍ट लिखे जा रहे हैं। तीसरा भाग, हिन्‍दी ब्‍लॉगों का आता है जिनमें से अधिकतम में चार - पांच से अधिक पोस्‍ट हैं या वे अंतरालों से लगभग नियमित हैं। आकड़ों के अनुसार हिन्‍दी ब्‍लॉगों की संख्‍या 6000 से कम नहीं है और इनमें से लगभग 1000 ब्‍लॉगों में पांच से अधिक पोस्‍ट यूनिकोड हिन्‍दी में लिखे गए हैं।

कुछ ब्‍लॉग व्‍यावसायिक उद्देश्‍यों से भी बनाए गए हैं जो वेबसाईट की तरह संचालित किए जा रहे हैं तो कुछ ब्‍लॉग ज्‍योतिषियों, प्रमुख व्‍यक्तियों व लोक कलाकारों के प्रोफाईल की तरह भी बनाए गए हैं। व्‍यावसायिक व प्रोफाईल की तरह बनाए गए ब्‍लॉग किसी वेब/ब्‍लॉग तकनीक के जानकार के द्वारा बनाया गया लगता है। इनमें से अधिकतर ब्‍लॉगों का पंजीकरण फीड़ एग्रीगेटरों में नहीं किया गया है, देखने से यह प्रतीत होता है कि इन्‍हें फीड एग्रीगेटरों के संबंध में जानकारी नहीं है। इन ब्‍लॉगों के कमेंट में अब भी वर्ड वेरीफिकेशन लगा हुआ है और ब्‍लॉगिंग के आवश्‍यक विजेट नहीं लगे हैं जिससे यह आभास होता है कि इन्‍हें  'हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत' की जानकारी नहीं है। वे प्रिंट व नेट से आवश्‍यक जानकारी प्राप्‍त कर या स्‍वप्रेरणा से अपना ब्‍लॉग बनाकर  संतुष्‍ट हैं, उनके ब्‍लॉग में पाठक कैसे व कहां से आयेंगें इसकी जानकारी उन्‍हें नहीं है या चिंता भी उन्‍हें नहीं है।  इतनी बड़ी संख्‍या में उपस्थित ब्‍लॉगरों की फौज को ब्‍लॉग के आवश्‍यक पहलुओं से परिचित कराने की आवश्‍यकता है, इनमें से अधिकतम ब्‍लॉग जीमेल, आरकुट या ब्‍लॉगर  में उपस्थित रोमन टू हिन्‍दी सुविधा से  ही हिन्‍दी में संचालित हो रहे हैं। इन्‍हें हिन्‍दी के विभिन्‍न टूलों व आवश्‍यक ब्‍लॉग विजेटों व पुराने फोंटों से यूनिकोड में फोंट परिर्वतन की जानकारी नहीं है। इनमें से कुछ नियमित व मई व जून 2011 तक सक्रिय ब्‍लॉगों को मै पिछले दिनों हमारे जुगाड़ू फीड एग्रीगेटर छत्‍तीसगढ़ ब्‍लॉगर्स चौपाल में जोड़ा हूं । इस जुगाड़ू एग्रीगेटर में ब्‍लॉग हलचल देखने आने वाले पाठकों की संख्‍या भी दिनों दिन बढ़ रही है, अवसर मिलने पर कुछ और ब्‍लॉगों को इसमें जोडूंगा। 

ब्‍लॉगर साथी अपने पोस्‍टों की संख्‍या में वृद्धि व हिट में वृद्धि पर पोस्‍ट पर पोस्‍ट ठोंक कर अपनी मार्केटिंग करते हैं तो हमने भी सोंचा कि हमारे प्रदेश में बढ़ते ब्‍लॉग लेखकों  की संख्‍या से आपको अवगत कराता चलूं। इन आकड़ों से मुझे बेहद खुशी हो रही है, हमारे प्रदेश के लेखकों के विचारों को अब हम उनके ब्‍लॉगों के माध्‍यम से पढ़ पायेंगें । 


संजीव तिवारी

सरकारी दामांद अउ उपरी कमई : पीएमटी पेपर लीक (त्‍वरित टिप्‍पणी)

पहला पीएमटी पेपर लीक मामला अभी शांत नहीं हुआ था कि अब दूसरा मामला सामने आ गया। डाक्‍टर की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा के रूप में प्रदेश में आयोजित इस परीक्षा पर अब सामान्‍य जनता का विश्‍वास उठ गया है। पिछले दो दिनों में रायपुर व बिलासपुर क्राईम ब्रांच के द्वारा डीबी भास्‍कर के सहयोग से किए गए खुलाशे में दर्जनों मुन्‍ना भाई पकड़े गए हैं। पीएमटी के पेपर पांच से बारह लाख तक में बेंचे गए और योजना इतनी तगड़ी बनाई गई कि पेपर खरीदने वाले किसी अन्‍य को यह बात ना बतला सके इसलिए उन्‍हें तखतपुर में लगभग बंधक बनाकर रखा गया, उनके मोबाईल ले लिये गए और परीक्षार्थियों के मूल अंकसूची जमा करा कर  लीक पेपर देकर तैयारी करवाई जा रही थी। सभी समाचार-पत्रों नें इसे विस्‍तृत रूप से कवर करते हुए छापा है जिससे आप सब वाकिफ हैं इस कारण समाचार पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्‍यकता नहीं है। इस कांड के नेपथ्‍य से उठते विचारों पर चिंतन व विमर्श आवश्‍यक है।

पिछले दिनों किसानों की खस्‍ताहाली व छत्‍तीसगढ़ में घटते जोंत के रकबे में कमी होने पर कलम घसीटी करते हुए मुझे मेरे दिमाग में एक छत्‍तीसगढ़ी गीत पर ध्‍यान बार बार जा रहा था। 'मोर राजा दुलरवा बेटा तैं नगरिहा बन जाबे' छत्‍तीसगढ़ का लोक आदिकाल से अपने बेटों को किसान बनाने का स्‍वप्‍न देखता रहा है। लोक के इसी आकांक्षा ने अतिवृष्टि व अल्‍प वृष्टि और भीषण अकाल से जूझने के बावजूद छत्‍तीसगढ़ को धान का कटोरा बनाया था । समयानुसार धीरे धीरे लोक मानस में किसनहा बनने से ज्‍यादा सरकारी नौकरी करने की लालसा में वृद्धि होती गई। तनखा के अतिरिक्‍त 'उपरी कमई घलो हावय' की लालच नें गांव वालों को भी खेतों से दूर करना शुरू कर दिया। गांव से शहर आये और नौकरी करके बेहिसाब 'उपरी कमई' से अपने घर भरे अभिभावकों के मानस नें अपने बच्‍चों के लिए और सुनहले ख्‍वाब देखे। प्रतिभावन बच्‍चे अपनी क्षमता से बिना अभिभावकों के सहयोग से अपना रास्‍ता पा गए किन्‍तु औसत व कमजोर बच्‍चों के लिए अभिभावकों नें अपना दिमाक चलाना आरंभ कर दिया। अभिभावकों में पूत सपूत तो क्‍या धन संचय कहने वाले अभिभावक बिरले होते हैं, और ऐसे अभिभावकों के बच्‍चे भी अपना रास्‍ता स्‍वयं चुनते हैं। नौकरी करके पैसा कमाने वाले अधिकतर व्‍यक्ति अपने बच्‍चों के भविष्‍य के लिए अपनी तरह ही सरकारी नौकरी (सरकारी दांमांद) का रास्‍ता चुनता है, वह बैठे-बिठाए कमाई के अतिरिक्‍त व्‍यवसाय या कोई उद्यम कर पैसा कमाने की सीख अपने पुत्रों को दे ही नहीं सकता वह सरलतम रास्‍ता आपने बच्‍चों को पकड़ाता है। 

ऐसे में सरकारी नौकरी के लिए लाखो रूपयों के घूस की व्‍यवस्‍था करना और रोजगार की निश्चिंतता वाले क्षेत्र डाक्‍टर या इंजीनियर बनाने के लिए पैसे खर्च करना अभिभावकों का 'दायित्‍व' होता है। इस 'दायित्‍व' को अभिभवक कर्ज की तरह आवश्‍यक मानकर निभाते हैं, अपने कमजोर बच्‍चों को मैनेजमेंट कोटे से इंजीनियरिंग/मेडिकल कालेजों में भर्ती करवाते हैं और लाखों खर्च करते हैं। पीएमटी का वर्तमान कांड भी अभिभावकों के इसी मोह का परिणाम है। एक आम आदमी अपनी पूरी उम्र बारह लाख रूपये कमाने के लिए होम कर देता है और पीएमटी के एक पेपर के लिए लोग बारह लाख नगद यूं ही दे रहे थे। ऐसे एक दो नहीं सैकड़ों लोग है जो भावी पीढ़ी को भ्रष्‍टाचार रूपी गंदी नाली का रसास्‍वादन पहली ही सीढ़ी से करवा रहे थे। ऐसे बच्‍चे आगे चलकर क्‍या अन्‍ना हजारे का साथ दे पायेंगें। इस पीएमटी कांड के लिए मूलत: अभिभावकों का मोह ही जिम्‍मेदार हैं ऐसा भास्‍कर नें अपने त्‍वरित टिप्‍पणी में भी लिखा है। अभिभावकों के साथ ही सरकार भी इस मामले में कम दोषी नहीं है, पीएमटी परीक्षा पहले भी एक बार रद्द हो चुकी थी उसके बावजूद सरकार नें इसे गंभीरता से नहीं लिया और बच्‍चों के साथ खिलवाड़ कर दिया। 

समाचार पत्रों से ही यह ज्ञात हुआ कि इस परीक्षा की जिम्‍मेदारी जिस सचिव स्‍तर के अधिकारी की थी वे व्‍यापम के अध्‍यक्ष हैं। सरकार नें इन्‍हें विशेष अनुरोध के साथ आसाम कैडर से छत्‍तीसगढ़ बुलाया और महत्‍वपूर्ण विभाग सौंपे क्‍योंकि ये एक दबंग भाजपा नेत्री के दामांद थे यानी सरकारी दामांद जी ने एक बार पेपर लीक हो जाने के बावजूद कोई विशेष सतर्कता नहीं बरती बल्कि छुट्टियों में थे। उनके निचले स्‍तर के अधिकारियों कर्मचारियों के संबंध में इसे पढ़ने के बाद कुछ कहना शेष रह ही नहीं जाता। सरकार इस कांड के बाद भले परीक्षार्थियों को आने-जाने का खर्च व रूकने का खर्च दान कर दे किन्‍तु उसकी अक्षमता के दाग धुलने वाले नहीं हैं। समाचार पत्रों ने यहां तक लिखा कि तखतपुर में जिस धर्मशाला में फर्जीवाड़ा अंजाम दिया जा रहा था उसे भाजपा के नेता ने बुक कराया था। सरकार को, खासकर मुख्‍यमंत्री को अपने इस फजीहत पर गंभीरता से सोंचना चाहिए और पार्टी के नाम पर प्रदेश में हो रहे बाहरी घुसपैठ पर ध्‍यान देना चाहिए। हमारे पास जनसंपर्क विभाग के ऐसे आंकड़े भी उपलब्‍ध है जिनमें सरकार नें भाजपा शासित प्रदेश या भाजपा के नेताओं के अनुशंसित पत्र-पत्रिकाओं को लाखों रूपये चना-मुर्रा की तरह बांटे हैं और प्रदेश में संवेदनशीलता से प्रकाशित हो रहे पत्र-पत्रिकाओं को ढेला भी नहीं दिया है। इसे बतलाने का आशय यह है कि प्रदेश में भाजपा के नाम ऐसे काम हो रहे हैं जिससे जनता दुखी है। पीएमटी कांड के मास्‍टर मांइंड व अन्‍य मुख्‍य सदस्‍य पकड़े गए हैं और आगे उनसे पूछताछ होगी, नये खुलाशे होंगें। सरकार को गंभीरता से इस कांड से सीख लेनी चाहिए।

इस कांड के बाद बार बार परीक्षा आयोजित होने से परीक्षार्थियों नें अपने मनोबल व उत्‍साह में कमी की बात कही है जिससे मैं सहमत नहीं हूं, उनके लिए तो यह और अच्‍छी बात है। उन्‍हें बार-बार अभ्‍यास का मौका मिल रहा है। इस कांड में जो परीक्षार्थी तखतपुर में पकड़े गए हैं उन्‍हें ताउम्र व्‍यापम की परीक्षा से वंचित किया जाना चाहिए एवं उनके अभिभावकों को कानूनी दायरे में लाते हुए उन पर भी कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए। 

संजीव तिवारी

प्रो. अश्विनी केशरवानी की कृति बच्चों की हरकतें आनलाईन प्रस्‍तुत

सन् 1980 से 2000 के दो दशक में बच्चों की हरकतों पर भारतीय और विदेशी परिवेश में मनोवैज्ञानिकता के आधार पर प्रो. अश्विीनी केशरवानी जी नें  कई आलेख लिखें हैं। राष्‍ट्रीय पत्रिका धर्मयुग में प्रो. केशरवानी जी की बाल मनोवैज्ञानिक विषयक रचनाएं लगातार प्रकाशित होती रहीं हैं। इसके अलावा इनकी रचनाएं नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट और अणुव्रत में भी नियमित छपती रहीं। सर्वोदय प्रेस सर्विस और युवराज फीचर के माध्यम से बच्चों की हरकतों पर रचनाएं देश की छोटी बड़ी सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और रचनाओं के ऊपर अखबारों में संपादकीय लिखे गए। इस महत्‍वपूर्ण विषय पर प्रो. अश्विनी केशरवानी जी के आलेखों का संग्रह 'बच्‍चों की हरकतें' के नाम से पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ था।


'बच्‍चों की हरकतें' में संग्रहित सभी आलेखों की उपादेयता को देखते हुए हमनें अपने पाठकों के लिए एक ब्‍लॉग बनाकर उसमें पब्लिश कर दिया है। प्रो. केशरवानी जी से यह कार्य करने का बीड़ा हमने पिछले वर्ष ही लिया था किन्‍तु समयाभाव के कारण इसे समय पर पूर्ण नहीं कर पाये थे। कल देर रात और आज अलसुबह से लगातार कार्य करते हुए इसे अब आनलाईन प्रस्‍तुत कर रहे हैं।






प्रो. केशरवानी जी की इस कृति को ब्‍लॉग प्‍लेटफार्म देने का आग्रह मेरा था किन्‍तु मेरा अनुभव रहा कि ऐसे कार्यों के लिए अतिरिक्‍त समय की आवश्‍यकता होती है किन्‍तु निजी संस्‍थानों में सेवा देते हुए मेरे पास समय की उपलब्‍धता का ही संकट है। छत्‍तीसगढ़ में घोषित तौर पर मुफ्त में ब्‍लॉगिंग सर्विस देने की मेरी छवि को अब बदलने की आवश्‍यकता है, क्‍योंकि इस ब्‍लॉग सेवा के कारण मेरे बहुत से व्‍यवस्थित कार्य में बाधा पहुच रही है। शेष अगले पोस्‍ट में इस पर विस्‍तार से लिखूंगा ....


संजीव तिवारी

अफगानिस्तान - दिलेर लोगों की खूबसूरत जमीन

गूगल खोज से प्राप्‍त बुद्ध प्रतिमा का चित्र
मेरे बचपन के अच्छे मित्रों में कुछ पख्‍तून भी थे, जो एक ही परिवार से आते थे। उनमें से एक लड़की, जो कक्षा 6 से कक्षा 11 तक मेरे साथ पढ़ी और अब स्कूल टीचर है, ने मुझे काफी प्रभावित किया। यह परिवार अफगानिस्तान के जलालाबाद के आसपास से तिजारत के लिए छत्तीसगढ़ आया और यहीं का होकर रह गया, इन्हीं लोगों ने अफगानिस्तान और वहां की संस्कृति से मेरा परिचय कराया। स्कूल के इन्हीं दिनों में मैं दुनिया में होने वाली घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लायक हो रहा था। तब अफगानिस्तान में नजीबुल्ला की सरकार थी। समाचार पत्रों में काबुल की तस्वीरों में स्कर्ट व टॉप पहनी फैशनेबल महिलाओं की भरमार होती थी तथा बड़ी संख्‍या में ब्यूटी पार्लर व वीडियो पार्लर दिखाई पड़ते थे, जिनमें हिन्दी फिल्मों की कैसेटें भरी होती थी। कुल मिलाकर नजारा एक आधुनिक एशियाई देश का होता था। पर बाद के सालों में पूरा मंजर ही बदल गया। आज इस्लामिक आतंकवाद से लड़ने वाले अमेरिका ने ही ट्रेनिंग व हथियार देकर उन तालिबानियों को खड़ा किया जिन्होंने नजीबुल्ला को लैम्प पोस्ट में लटका दिया और पूरे अफगानिस्तान को सत्रहवीं सदी में धकेल दिया।

वैसे अफगानिस्तान का लिखित इतिहास सत्रहवीं शताब्दी से बहुत पहले, सिकंदर के समय से प्रारंभ हो जाता है, जिसने वहां बुकाफेला नामक एक उपनिवेशिक नगर बसाया था। आज भी अफगानिस्तान की बहुत सी नदियों व स्थानों के नाम यूनानी हैं। हेलमण्ड, बामयान इत्यादि अफगानिस्तान के कुछ कबीले भी अपने यूनानी मूल का दावा करते हैं और नृतत्‍वशास्‍त्रीय दृष्टि से उनका दावा ठीक भी लगता है। बाद में कनिष्क के समय जब रेशम मार्ग से तिजारत बढ़ी तो इसका फायदा अफगानिस्तान के साथ-साथ बौद्ध धर्म को भी हुआ। रेशम मार्ग से होने वाली तिजारत का ही पैसा था जिससे बामयान में विशाल बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण हुआ व जिससे कशागर का विशाल बौद्ध मठ सदियों तक चलता रहा। इसी मठ से होकर जाने वाले भारतीय भिक्षुओं ने बौद्ध धर्म को चीन, कोरिया व जापान तक पहुंचाया। कालान्तर में यह क्षेत्र हिन्दू शाहिया शासकों के पास तब तक रहा जब तक तुर्कों ने उन्हें हटाकर क्षेत्र में इस्लाम को न फैला दिया।
अफगानिस्तान को भौगोलिक ढ़ंग से देखें तो हिन्दूकुश पर्वतमाला न सिर्फ इसे दो बराबर भागों में बांटती है वरन्‌ यहां के कबीलाई इलाकों को भी तय करती है। हिन्दूकुश का दक्षिणी हिस्सा पख्‍तूनों का है जो न सिर्फ अफगानिस्तान बल्कि वर्तमान पाकिस्तान के नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर प्राविन्स तक फैले हुए हैं। जबकि हिन्दूकुश के उत्तर-पूर्व का क्षेत्र ताजिक लोगों का और उत्तर-पश्चिमी हिस्सा उजबेगों का है इनके अलावा हजारा कबीला भी है ये लोग शिया है व मूलतः व्यापारी है जो पूरे अफगानिस्तान में बसे हैं।

अफगानियों ने इस्लाम के नाम पर पहले भी लूटमार की है जिसके अपने भौगोलिक व आर्थिक कारण रहे है पर ये कभी भी कट्‌टर मुसलमान या फिर कहें इस्लामिक आतंकवादी कभी नहीं रहे पख्‍तून क्षेत्र में भारत की आजादी तक बहुत से कबीलों में इस्लाम, सिक्ख व हिन्दू धर्मों को मानने वाले व्यक्ति साथ-साथ रहते थे। ये लोग अपने क्षेत्र या कबीले के दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ भी शादी-ब्याह के रिश्ते कर लिया करते थे पर दूसरे कबीले के सामान धर्म के मानने वालों के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं होता था। स्थानीय कानूनों में हमेशा कबीला प्राथमिक व धर्म द्वितीयक इकाई रहा है। पख्‍तून क्षेत्र में धार्मिक कट्‌टरता फैलाने के जिम्मेदार, पाकिस्तानी फौज के पंजाबी जनरल हैं, जिन्होंने काश्मीर में तथा भारत के साथ युद्धों में पख्‍तूनों को धार्मिक आधार पर भड़काकर अपना उल्लू सीधा किया। इस बात को प्रसिद्ध पख्‍तून नेता खान अब्दुल गफ्फार खान ने बहुत पहले भांप लिया था पर पाकिस्तान बन जाने के बाद वो कुछ विशेष कर नहीं पाए। बाद में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया तो पाकिस्तानी फौज व आईएसआई की मदद से अमेरिका ने इस धार्मिक कट्‌टरपन को और हवा दी जिसका अंतिम परिणाम तालिबान, लादेन या कहें तो 9/11 के रूप में सामने आया। अफगानिस्तान के इस उथल-पुथल भरे दौर में जो एक नाम जेहन में आता है वह अहमदशाह मसूद का है। जो एक ताजिक कमांडर थे तथा जिन्होंने पंजशीर घाटी में सोवियत फौजों को नौ बार शिकस्त दी और घाटी पर अपना कब्जा बनाए रखा। बाद में जब तालिबानियों ने काबुल पर कब्जा कर लिया, तब भी तालिबानी अपने सबसे अच्छे दौर में भी बगराम हवाई अड्‌डे से आगे आने की सोच भी नहीं सकते थे, जो पंजशीर घाटी का मुहाना है।


समाज कल्‍याण में स्‍नातकोत्‍तर शिक्षा प्राप्‍त विवेकराज सिंह जी स्‍वांत: सुखाय लिखते हैं। अकलतरा में ही इनका माईनिंग का व्‍यवसाय है और इन्‍हें अपने व्‍यवसाय की व्‍यस्‍तता के बीच लेखन का बहुत कम अवसर मिलता है, इसके  वावजूद विवेक जी की यह लेखनी जब हमें व्‍हाया राहुल सिंह जी प्राप्‍त हुई है, तब लगा विवेक जी के इस आलेख को अपने पाठकों के लिए प्रस्‍तुत किया जाए। आपको भी अच्‍छा लगे तो विवेक जी के लिए कमेंटियाईये भी ....

अहमदशाह मसूद, आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति थे वे एक अच्छे प्रशासक भी थे। उन्होंने अफगानिस्तान के सबसे बुरे दिनों में भी अपने लोगों को खुशहाल रखने की पूरी कोशिश की। उन्होंने शिक्षा, खास कर महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। मसूद ने पश्चिमी देशों को अलकायदा व इस्लामिक आतंकवाद के दुनिया भर में बढ़ते खतरे के प्रति लगातार आगाह किया जिसे अनसुना कर दिया गया। पर इससे वे अलकायदा के निशाने पर आ गए और 9/11 से ठीक दो दिन पहले पंजशीर घाटी स्थित उनके मुख्‍यालय में बम धमाका कर उन्हें मार डाला गया।

9/11 के बाद अफगानिस्तान में क्या हुआ ये सभी जानते है पर लगातार चले इन युद्धों ने अफगानिस्तान को गर्त में पहुंचा दिया। थोपी गई धार्मिक कट्‌टरता ने एक खुशहाल देश को खंडहर और उसके खुद्दार लोगों को शरणार्थी बना दिया पर अब अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण किया जाना है। हांलाकि यह कठिन काम है पर कुछ उम्मीद की किरणें अभी बाकी हैं। इस देश में खेती योग्य जमीन कम है और जो है उसमें गैर-कानूनी ढंग से अफीम की खेती की जा रही है जिस पर देश की अर्थ व्यवस्था टिकी हुई है। इसे बदलना होगा और किसानों को खाद्यान्न उत्पादन व बागवानी में लगाना होगा। यहां खनिजों का भी अभाव है इसलिए अधिक औद्योगिकीकरण की संभावना नहीं है। पर पर्यटन उद्योग के लिए अच्छी संभावना है। अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति अच्छी है, खास कर तब जब कैस्पियन सागर के किनारे के क्षेत्रों में तेल व गैस के विशाल भण्डार मिल रहे हैं जिन्हें विश्व बाजार में पहुंचाने के लिए अफगानिस्तान से होकर जाने वाला रास्ता सबसे आसान व सस्ता होगा। यह रास्ता ही अफगानिस्तान को नव-निर्माण के लिए रकम उपलब्ध करा सकता है। पर इसके लिए जरूरी है कि यहां धार्मिक उफान शांत हो और क्षेत्र में स्थायित्व आए। अगर ऐसा हो सका तो न सिर्फ अफगानिस्तान, बल्कि विश्व में भी शांति व समृद्धि आयेगी।


- विवेकराज सिंह

अकलतरा

मो- 9827414145

वैवाहिक परम्‍पराओं में आनंदित मन और बैलगाड़ी की सवारी

अक्षय तृतिया के गुड्डा-गुड्डी
अक्षय तृतिया के दिन से गर्मी में बढ़त के साथ ही छत्तीसगढ़ में विवाह का मौसम छाया हुआ है। पिछले महीने लगातार सड़कों में आते-जाते हुए बजते बैंड और थिरकते टोली से दो-चार आप भी हुए होंगें। इन दिनों आप भी वैवाहिक कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए होंगें और अपनी भूली-बिसरी परम्पराओं को याद भी किए होगे। छत्तीसगढ़ में विवाह लड़का-लड़की देखने जाने से लेकर विदा कराने तक का मंगल गीतों से परिपूर्ण, कई दिनों तक चलने वाला आयोजन है। जिसमें गारी-हंसी-ठिठोली एवं करूणमय विवाह गीतों से लोक मानस के उत्साह को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। वैवाहिक मेहमान महीनों से विवाह वाले घरों में आकर जमे रहते हैं, बचपन में हम भी मामा गांव और अन्‍य रिश्‍तेदारों के घरों की शादी में महीनों 'सगाही' जाते रहे हैं।

जनगीतकार लक्ष्‍मण मस्‍तूरिहा की पुत्री शुभा का विवाह 12 मई 2011
छत्तीसगढ़ की पुरानी परम्परा में बाल-विवाह की परम्परा रही है, तब वर-वधु को 'पर्रा' में बैठाकर 'भांवर गिंजारा' जाता था और दोनों अबोध जनम-जनम के लिए एक-दूसरे के डोर में बंध जाते थे। सामाजिक मान्यता उस डोर के बंधन को सशक्त करती थी और वे इस अदृश्य बंधन के सहारे पूरी उम्र साथ-साथ काटते थे। शिक्षा के प्रसार के साथ ही कुछ बढ़ी उम्र में शादियां होने लगी किन्तु संवैधानिक उम्र के पूर्व ही। इतना अवश्य हुआ कि लड़के-लड़कियॉं विवाह का मतलब भले ना जाने किन्तु अपने पांवों से फेरे लेने लगे। लगभग इसी अवधि की बात बतलाते हुए हमारे पिता जी बतलाते थे कि हमारी मॉं को देखने और विवाह पक्का करने गांव के ठाकुर (नाई) और बरेठ (धोबी) गए थे। दादाजी एवं पिताजी नें मेरी मॉं को देखा नहीं था। मेरी मॉं बिलासपुर गनियारी के पास चोरभट्ठी में अपने भाई-बहनों के साथ उसी स्कूल में पढ़ रही थी जहॉं मेरे नाना प्रधान पाठक थे।
मेरे भांजें की शादी 
उन दिनों 'पउनी-पसारी' के द्वारा चयनित वर-वधु का विवाह अभिभावक सहर्ष तय कर स्वीकार करते थे। गावों में नाई, रावत और धोबी घर के कामों में इस तरह रमें होते हैं कि वे परिवार के एक अंग बन जाते हैं। वे अपने ठाकुर (मालिक) के बच्चों से एवं अपने ठाकुर की परिस्थितियों से भी परिचित होते हैं उन्हें पता होता है कि मालिक ठाकुर के कौन बच्चे के लिए कैसी लड़की या लड़का चाहिए। मालिक ठाकुर को भी अपने 'पौनी-पसारी' पर भरपूर भरोसा होता था, शायद इसी विश्वास के कारण यह परम्परा चल निकली होगी। 

डीजे के कर्कश संगीत में थिरकते युवा
योग्य वर या वधु के चयन के बाद 'लगिन धराने' के दिन अभिभावक वधु के घर जाता है। इस दिन अभिभावक और उसके पुरूष संबंधी वधु के घर में जाकर विधिवत पूजा के साथ विवाह का मुहुर्त तय करते हैं और लग्न पत्रिका का आदान प्रदान होता है। वधु के हाथ से 'जेवन' बनवाया जाता है और वर के अभिभावक और संबंधी को वधु के द्वारा ही परोसा जाता है। वर के अभिभावक और उसके पुरूष संबंधी वधु को 'जेवन' करने के बाद 'रूपिया धराते' हैं और वधु उनका चरण स्पर्श कर आर्शिवाद लेती है। आजकल यह परम्परा अब होटलों में निभाई जा रही है जहॉं वधु के पाक कला प्रवीणता की परीक्षा नहीं हो पाती। वैसे भी आधुनिक समाज में नारी का इस प्रकार परीक्षण परीक्षा उचित भी नहीं है। 
व्‍यंग्‍यकार विनोद साव की पुत्री शैली का विवाह 07 मई 2011
'लगिन धराने' के बाद दोनों पक्षों के घरों में मांगलिक कार्यक्रम आरंभ हो जाते हैं। अचार, बरी, बिजौरी बनने लगता है, जुन्ना धान 'कोठी-ढ़ाबा' से निकाल कर 'कुटवाने' 'धनकुट्टी' भेजा जाता है, गेहूं की पिसाई और अरहर की दराई में घर का 'जतवा घरर-घरर नरियाने' लगता है। सोन-चांदी और कपड़ों की खरीददारी में महिलायें 'बिपतिया' जाती हैं। विवाह और लगिन के बीच किसी दिन लड़के वाले के तरफ से एवं लड़की वाले के तरफ से एक दूसरे के श्रृंगार प्रसाधन, कपड़े व संबंधियों के कपड़े लिये व दिये जाते हैं। परम्परा में इसे 'फलदान' का नाम दिया गया है क्योंकि कपड़ों के साथ ही फलों की टोकरियॉं भी भेजी जाती है। छत्तीसगढ़ में फलदान वर या वधु के घर का स्टै‍टस बताने-जताने का तरीका है। फलदान आने के बाद उसे घर के आंगन या ओसारे में फैलाकर गांव वालों को दिखाया जाता है। इसके बाद विवाह के लिए 'मडवा' की तैयारी शुरू हो जाती है। 

विनोद साव जी
इसके आगे छत्तीसगढ़ी वैवाहिक परम्परा के संबंध में सीजी गीत संगी में राजेश चंद्राकर जी नें छत्तीसगढ़ के वैवाहिक गीतों के साथ इन्हें बहुत सुन्दर ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। उनके पोस्टों में यहॉं के वैवाहिक गीतों एवं परम्पराओं का आनंद लिया जा सकता है। पिछले माह लगातार 'बिहाव के लाडू झड़कते' हुए कुछ एैसे सगे - संबंधियों और मित्रों के पुत्र-पुत्रियों के विवाह में जाने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ जहॉं लेखन विधा से जुड़े लोगों से मेल-मुलाकात हुई। विवाह वर-वधु एवं उनके पारिवारिक संबंधियों के साथ-साथ समाज को आपस में मिलाता है। वैवाहिक कार्यक्रमों में शामिल होना मन को आनंदित करता है, हम आपस में बातचीत करते हैं खुशियां बांटते हैं और ऐसे कार्यक्रम में जहां डीजे और कर्कश संगीत ना हो वहां आप खुलकर बातें भी कर सकते हैं और दूसरों की बातें सुन भी सकते हैं। ऐसा ही एक वैवाहिक कार्यक्रम व्यंग्यकार, कथाकार, उपन्‍यासकार विनोद साव जी की पुत्री के विवाह में देखने को मिला। विनोद साव जी की बिटिया के भव्य वैवाहिक कार्यक्रम में डीजे और कर्कश संगीत गायब था। आजकल के ज्यादातर वैवाहिक कार्यक्रम में डीजे के तेज आवाज के कारण हम आपस में बात ही नहीं कर पाते, मुझे विनोद जी का यह प्रयोग बहुत अच्छा लगा। पिछले ही महीनें छत्तीसगढ़ के जनकवि लक्ष्मण मस्तूरिहा जी की पुत्री का भी विवाह था और हम यहॉं भी आमंत्रित थे।
बैलगाड़ी में कोट पहने अपनी श्रीमती जी के साथ घर की ओर जाती हमारी पारंपरिक सवारी 
बिहाव नेवता मानते हुए अपनी शादी के दिन की यादें भी साथ चलती हैं, अपने इन विशेष दिवस को कोई नहीं भूल सकता, इन शब्दों के बहाने और सही कहें तो 'पोस्‍ट ठेलने के लिए' हमने भी अपने बीते दिनों को याद किया। 'धरनहा' पेटी से फोटो एल्बम निकलवाया और घंटो बांचते रहे। हॉं जी देखना क्या बांचना ही तो है अपने विवाह के चित्रों को। इन्हीं मे से एक दो ऐतिहासिक चित्रों को आप लोगों के साथ बांट रहा हूँ।  कार में बारात जाने की परम्परा नई है, इस नई परम्परा का निर्वहन हमनें भी किया। विवाह के बाद अपनी पत्नी के साथ कच्चे रास्ते में धूल उडाते हुए पाल के एनई से धुर गांव के महामाई मंदिर में आये। गांव की परम्परा के अनुसार वर-वधु को पहले ग्राम देवी से आर्शिवाद लेना होता है फिर लगभग आधे किमी दूर घर जाना होता है। मंदिर में पूजा कर जब हम बाहर निकले तब तक मेरे साथ आई सभी गाडि़यों को मेरे पिताजी मेरे घर के पास पार्क करवा आये। हमारे स्वागत में बैल गाड़ी के साथ हमारा पुराना 'कमइया' हाथ जोड़े खड़ा मिला। मेरे गुस्साने पर वह मुझे समझाने लगा ‘बड़े दाउ के संउख ये संजू दाउ झन रिसा।’ पिता के मन की उपज थी यह, उनका किसान मन चाहता था कि अपनी बैलगाड़ी में बहु घर आये। मैं कुढ़ता रहा, और सामान के साथ हम बैल गाड़ी पर लद गए। इस चित्र का वाकया मेरे 14 वर्षीय पुत्र के लिए ‘अटपटा और मूर्खतापूर्ण’ है, किन्तु मेरे पिता के लिए यह आवश्यक था। छत्‍तीसगढ़ की वैवाहिक परम्‍परा पर पुन: कभी लिखूंगा, अभी तो ये चित्र देखिये -


लो आ गई सवारी घर तक
संजीव तिवारी

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...