वेदमती पंडवानी पहले कभी होती रही होगी

छत्तीसगढ़ की प्रदर्शनकारी लोककला "पंडवानी" के इतिहास पर इतना कहा जाता है कि यह "भजनहा" से आरंभ होकर नारायणलाल वर्मा, झाड़ूराम देवांगन, पद्मश्री पूनाराम निषाद और पद्मविभूषण तीजनबाई तक सफर करते हुए वर्तमान "पंडवानी" के रूप में स्थापित हुई।




सभी वरिष्ठ पंडवानी कलाकार सबल सिंह चौहान और वाचिक लोकाख्यान को अपने गायन का आधार बताते हैं। इस अवधि में कलाकारों की, प्रस्तुति की अपनी-अपनी शैली को निरंजन महावर ने नया शब्द गढ़ते हुए, वेदमती और कापालिक नाम दिया। इसे अर्थांवित करते हुए उन्होंने कहा कि जो वेद सम्मत गायन है, वह वेदमती है एवं जो लोक सम्मत गायन है वह कापालिक है। इसे उन्‍होंनें विस्‍तार से समझाया है। उनकी किताब और मध्‍यप्रदेश जनजातीय परिषद की पत्रिका 'चौमासा' में प्रकाशित आलेखों को संदर्भित करते हुए लोग धीरे-धीरे पंडवानी विशेषज्ञ बनते गए। छत्‍तीसगढ़ की धरती में इसकी खुशबू कैसे फूटी इसे गिने-चुने स्‍थानीय लोगों के अतिरिक्‍त किसी और ने नहीं किया।




किसी ने गपालिक के सूत्र को और आगे बढ़ाया कि जो अपने कपाल से कथा तैयार कर कथा गाता है वह कापालिक है यानी कल्पना प्रधान। किसी ने कहा कि जो खड़े होकर-नाट्य प्रदर्शन कर कथा गाता है वह कापालिक है, यह भी कहा गया कि, बैठकर जिसे गाया जाता है वह वेदमती। वैसे अधिकतम गायक/गायिका अपने आप को कापालिक गायक/गायिका कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं। पद्मविभूषण तीजनबाई स्वयं अपने आप को कापालिक गायिका कहती है। 




आप सभी जानते हैं कि पिछले सत्तर के दसक से प्रत्येक गायक/गायिका अपने साक्षात्‍कार में कहते हैं कि वे, सबल सिंह चौहान और लोक आख्यान के परस्पर मेल से पंडवानी प्रस्तुत करते हैं। इस तथ्य के साथ तथाकथित शैली की परिभाषा मुझे दिग्भ्रमित करती है। मेरे अनुसार से अब पंडवानी मात्र कापालिक है, वेदमती पंडवानी पहले कभी होती रही होगी।
इस पर अभी लिखना जारी है ... साथ बने रहें।
- संजीव तिवारी

दुर्ग में 1952 का पहला आम चुनाव और चुनावी चूरन

1952 के पहले आम चुनाव में दुर्ग विधानसभा में रोमांचक मुकाबला था। तब सीपी एंड बरार के स्पीकर घनश्याम सिंह गुप्त कांग्रेसी उम्मीदवार थे। जन संघ ने डॉक्टर डब्लू. डब्लू. पाटणकर को खड़ा किया था। अन्य प्रमुख उम्मीदवार डॉक्टर जमुना प्रसाद दीक्षित जो निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े थे। तीनों का चुनाव चिन्ह क्रमश: जुड़ा फंदा बैल, दिया और तराजू था। नगर और आसपास के क्षेत्रों में दोनों डॉक्टरों का अच्छा प्रभाव था। दोनों मृदुल स्वभाव के एवं हंसमुख व्यक्तित्व के थे। गरीबों और दीन दुखियों के इलाज करने के कारण लोग उन्हें भगवान जैसा पूजते थे।

घनश्याम सिंह गुप्त दुर्ग के सूबेदार के वंशज थे एवं सन 1937 से नागपुर के धारा सभा के लिए दुर्ग असेंबली का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनका प्रभाव कांग्रेस के बड़े नेता के रूप में स्थापित था। स्वतंत्रता के बाद जनता को पहली बार नेता चुनने एवं अपना मत देने का अवसर मिला था। जनता में भी चुनाव का उत्साह था। उस समय दुर्ग नगर के गांधी चौक में चुनावी सभा आयोजित होते थे। दाऊ घनश्याम सिंह गुप्ता छत्तीसगढ़ी भाषा में रोचक ढंग से लुभावने भाषण से जनता को प्रभावित करते थे। भाषण में कथा कहानी के साथ ही रोचक मुहावरों एवं लोकोक्तियों के माध्यम से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप होते थे। उपस्थित भीड़ हंसी ठिठोली कर मजा लेती थी। इस चुनाव में घनश्याम सिंह गुप्‍त के विरोधी वक्ताओं में दाउ निरंजन लाल गुप्ता, भंगूलाल श्रीवास्तव, कृष्णानंद सोक्‍ता और चुन्नी लाल वर्मा को सुनने भीड़ जमती थी।

उस समय घनश्याम सिंह गुप्त ने छत्तीसगढ़ी में चुनाव पंपलेट छपवा कर बटवाया था। तो डॉक्टर जमुना प्रसाद दीक्षित के पक्ष में दाऊ निरंजन लाल गुप्ता ने घनश्याम सिंह गुप्त के विरोध में रोचक दोहों में 'गुप्त मोदक' लिखकर बटवाया था। उसकी कुछ बानगी देखिए-


बसा नगर शंकर तथा, बसा द्वारिका धाम।
स्वर्ण धाम है गुप्त फिर, कैसे हो बदनाम।
पुरखौती हक मानकर, तजत न पद को मोह।
शुकुल मिसिर गोविंद अरू, गुप्त सुभक्त गिरोह।

कवि ने इस पदमें जिस गिरोह की बात की है वे तत्कालीन मध्य प्रदेश के पं. रविशंकर शुक्ल, पं. डी.पी. मिश्र, सेठ गोविंद दास एवं घनश्याम सिंह गुप्त हैं, जो लंबे समय तक सीपी एंड बरार, मध्य प्रांत और मध्य प्रदेश में मलाईदार पदों पर आसीन रहे।

इस चुनाव में घनश्याम सिंह गुप्त को दोनों डॉक्टरों ने तगड़ी टक्कर दी थी। गुप्तजी 1035 मतों से जीते थे। दूसरे क्रम में निर्दलीय डॉ. जमुना प्रसाद दीक्षित एवं किसान मजदूर प्रजा पार्टी के मोतीलाल तीसरे क्रम में रहे। सोशलिस्ट पार्टी के हरिप्रसाद चौथे एवं भारतीय जनसंघ के डॉ. डब्लू. डब्लू. पाटणकर पांचवें क्रम में आए थे।
-संजीव तिवारी
इस आलेख के आधार पर दुर्ग पत्रिका नें विधान सभा चुनाव के समय समाचार प्रकाशित किया था। क्रियेटिव कामन्‍न्‍स के तहत इसे यहां प्रकाशित कर रहा हूं क्‍योंकि इस सामाग्री को एकत्रित करने के लिए मैने मानसिक श्रम किया है।

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दुर्ग के सांसद किरोलीकर, बाकलीवाल और तामस्कर

दुर्ग के पहले सांसद वासुदेव श्रीधर किरोलीकर
सतारा महाराष्ट्र के पास मसूर गांव में जन्मे किरोलीकर के पिताजी राजकुमार कॉलेज रायपुर में शिक्षक थे। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रायपुर और कॉलेज की शिक्षा नागपुर फिर इलाहाबाद से प्राप्त की। कानून की डिग्री प्राप्त कर इन्होंने दुर्ग न्यायालय में सन 1920 से एक अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस करना आरंभ किया था। दुर्ग में निवास करते हुए वे स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता के बाद सन 1951-52 के पहले आम चुनाव में वे दुर्ग लोकसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े और कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार गंगाप्रसाद चौबे को नब्बे हजार से भी अधिक मतों के अंतर से हराया और दुर्ग के पहले सांसद के रूप में अपना नाम दर्ज किया। हम आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि दुर्ग लोकसभा में उस समय तीन सांसद के पद थे जिसमें दुर्ग से किरोलीकर एवं संयुक्त क्षेत्र दुर्ग बिलासपुर से गुरु अगम दास एवं दुर्ग बस्तर संयुक्त क्षेत्र से पंडित भगवती चरण शुक्ला विजित हुए थे। दिलचस्प बात यह है कि इस चुनाव में सांसद बनने के लिए किरोलीकर ने मात्र 3000 रुपये खर्च किए थे। 1952 में भी बूथ में गड़बड़ी की शिकायत आई थी और साजा क्षेत्र के कुछ बूथों पर दुबारा मतदान हुआ था।




दूसरे सांसद मोहनलाल बाकलीवाल
मोहनलाल बाकलीवाल दुर्ग की राजनीति में पहले से ही सक्रिय थे। वे दुर्ग नगर विधानसभा सीट के मध्यवधि चुनाव में जीत कर विधायक थे। दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें दुर्ग से टिकट दिया और वे जीते। बाकलीवाल जी तीसरे लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की टिकिट से खड़े हुए और जीते। 1962 के इस चुनाव में दुर्ग के कद्दावर नेता और वकील विश्वनाथ यादव तामस्कर प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से खड़े थे वहीं राम राज्य परिषद की टिकिट पर नंदलाल शर्मा लड़ रहे थे।




विश्वनाथ यादव तामस्कर का कांग्रेस प्रवेश और बने तीसरे सांसद
हमने पहले बताया है कि स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस के झंडे के तले काम करने वाले तामस्कर ने 1962 में प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से दुर्ग लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गए थे। इसके बाद के घटनाक्रम में मध्यप्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। सन 1963 में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन औंरी भुवनेश्वर में हुआ था। कांग्रेस ने इस अधिवेशन में समाज वादियों को मुख्य धारा में लाने और कांग्रेस के समाजवादी सिद्धांत पर संकल्प पारित किया था। 1962 के चुनाव के बाद की स्थिति में समाजवादी पार्टी का अस्तित्व लगभग लगभग समाप्त की कगार पर था और समाजवादी नेता कांग्रेस ज्वाइन कर रहे थे। इधर मध्यप्रदेश के तत्कालीन तेजतर्रार मुख्यमंत्री पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र, तामस्कर जी के बहुत अच्छे मित्र थे। लोग बताते हैं कि एक बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पं. डीपी मिश्र किसी उद्घाटन कार्यक्रम के सिलसिले में दुर्ग आये। कार्यक्रम निपटाने के बाद रात वे सर्किट हाउस में ठहरे। शाम को मुख्यमंत्री ने दुर्ग कलेक्टर के माध्यम से तामस्कर जी को संदेश भेजकर उन्हें सर्किट हाउस बुलाया।
तामस्कर जी तक यह संदेश दुर्ग के तत्कालीन कलेक्टर ने स्वयं आकर दिया। कलेक्टर, उन्हें साथ लेकर जाना चाहते थे पर तामस्कर जी ने जाने से इंकार कर दिया। उन्होंने कलेक्टर से कहा कि आप अपने मुख्यमंत्री से कहिए यदि वे मुझसे मिलना चाहते हैं तो मेरे घर में आएं। कलेक्टर ठगा सा वापस पं.डीपी मिश्र जी के पास सर्किट हाउस आया और वह सब बता दिया।

सुबह मुख्यमंत्री तामस्कर जी के बंगले के द्वार पर पहुंच गए। तामस्कर जी दरवाजे पर उनका स्वागत करने के लिए पहुंचे और कहा अंदर चलिए। डीपी मिश्र ने कहा कि मैं आपके घर ऐसे ही नहीं जाऊंगा। ब्राह्मण हूं, याचक हूँ, दक्षिणा लूंगा फिर जाऊंगा। तामस्कर जी ने कहा कि महाराज ब्राम्हण तो मैं भी हूं। एक ब्राम्हण दूसरे ब्राह्मण को दक्षिणा कैसे दे सकता है। डीपी मिश्र ने कहा कि अभी मैं आपका मेहमान हूं आपके द्वार पर खड़ा हूं, इंकार न कीजियेगा।
तामस्कर जी ने कहा मांगिये जो मांगना है। डीपी मिश्र ने कहा कांग्रेस ज्वाइन कर लो। तामस्कर जी ने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया। और इस प्रकार से बड़े तामस्कर छत्तीसगढ़ कांग्रेस के भी बड़े नेता स्वीकार लिए गए। दुर्ग की स्थानीय राजनीति में बाकलीवाल जी सांसद थे और दुर्ग नगर निगम कमेटी के अध्यक्ष थे। कांग्रेस में दो गुट हो गए एक बाकलीवाल गुट और एक तामस्कर गुट। उनके बीच राजनैतिक टकराव लगातार बढ़ती रही और जब 1963 में लोकसभा के लिए कांग्रेस से टिकट देने की बारी आई तब डी पी मिश्र ने दोस्ती का मान रखते हुए तामस्कर को कांग्रेस का टिकट दे दिया।




बाकलीवाल को पटकनी
बाकलीवाल जी टिकट के प्रबल दावेदार थे एवं विगत 10 वर्षों दुर्ग के सांसद थे। उन्होंने तामस्कर के विरुद्ध निर्दलीय फार्म भर दिया। स्थिति विकट हो गई, भितरघात की संभावनाएं बढ़ गई। ऐसी स्थिति में डीपी मिश्र और तामस्कर के मित्रों ने बाकलीवाल के प्रभाव को कम करने के लिए राजनैतिक जुगत लगाई। दुर्ग में जब बाकलीवाल नगर निगम कमेटी के अध्यक्ष थे तब कमेटी के सदस्य धनराज देशलहरा के साथ उनका मतभेद रहा। उस समय धनराज देशलहरा ने तामस्कर जी को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया। लोगों का कहना है कि दुर्ग लोकसभा में भिलाई स्टील प्लांट क्षेत्र के मतदाताओं की संख्या प्रभावी थी और बाकलीवाल की उन पर पकड़ थी। चुनाव परिणाम में उन वोटों का बहुत प्रभाव पड़ने वाला था। ऐसी स्थिति में धनराज देशलहरा ने भिलाई स्टील प्लांट के कामरेड एम देशपांडे को निर्दलीय फार्म भरवा दिया। बाकलीवाल जी को पड़ने वाले वोट बंट गए। इस चुनाव में तामस्कर को 1,08,498 वोट मिले, बाकलीवाल को 74,180 वोट मिले वहीं एम देशपांडे को 43,090 वोट मिले। यदि देशपांडे जी का वोट बाकलीवाल जी को मिल जाता तो वे जीत जाते। देशपांडे जी अभी पद्मनाभपुर में रहते हैं।

हम आपको बता दें कि इस चुनाव के रणनीतिकारों में से प्रमुख धनराज देशलहरा, नगर के प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे दुर्ग जिले में लोक परिवहन के आदि पुरुष माने जाते हैं। इन्होंने रायपुर के आनंद रोडवेज के साथ मिलकर पहले ग्रामीण क्षेत्रों में बसे चलवाई। फिर मोतीलाल वोरा, तुलजाराम फतनानी, मोहन लाल व्यास आदि के साथ जनता ट्रांसपोर्ट दुर्ग की स्थापना की। फिर बाद में दुर्ग रोडवेज के रूप में उसे स्थापित किया। कहते हैं कि दुर्ग में देशलहरा की छवि अत्यंत प्रभावशाली थी। वे नगर सेठ थे और राजनीति एवं प्रशासनिक अधिकारियों से उनके मधुर संबंध थे, दुर्ग में उनकी बात कटती नहीं थी।
- संजीव तिवारी

इस आलेख के आधार पर दुर्ग पत्रिका नें समाचार प्रकाशित किया है।
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