विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
छत्तीसगढ़ की प्रदर्शनकारी लोककला "पंडवानी" के इतिहास पर इतना कहा जाता है कि यह "भजनहा" से आरंभ होकर नारायणलाल वर्मा, झाड़ूराम देवांगन, पद्मश्री पूनाराम निषाद और पद्मविभूषण तीजनबाई तक सफर करते हुए वर्तमान " पंडवानी " के रूप में स्थापित हुई। सभी वरिष्ठ पंडवानी कलाकार सबल सिंह चौहान और वाचिक लोकाख्यान को अपने गायन का आधार बताते हैं। इस अवधि में कलाकारों की, प्रस्तुति की अपनी-अपनी शैली को निरंजन महावर ने नया शब्द गढ़ते हुए, वेदमती और कापालिक नाम दिया। इसे अर्थांवित करते हुए उन्होंने कहा कि जो वेद सम्मत गायन है, वह वेदमती है एवं जो लोक सम्मत गायन है वह कापालिक है। इसे उन्होंनें विस्तार से समझाया है। उनकी किताब और मध्यप्रदेश जनजातीय परिषद की पत्रिका 'चौमासा' में प्रकाशित आलेखों को संदर्भित करते हुए लोग धीरे-धीरे पंडवानी विशेषज्ञ बनते गए। छत्तीसगढ़ की धरती में इसकी खुशबू कैसे फूटी इसे गिने-चुने स्थानीय लोगों के अतिरिक्त किसी और ने नहीं किया। किसी ने गपालिक के सूत्र को और आगे बढ़ाया कि जो अपने कपाल से कथा तैयार कर कथा गाता है वह कापालिक है यानी