अपनी मातृभूमि के इतिहास को समझने की दृष्टि का विकास और अपनी भूमि के प्रति आसक्ति के आधार पर इस आलेख में छत्तीसगढ़ के प्राचीन काल से संबंधित इतिहास के बनते प्रसंगों का सृजनात्मक संदर्भो में रूपायन का प्रयास किया है। जिसमें महाभारत कालीन घटनाओं का सिलसिलेवार उल्लेख है। लेखक का मानना है कि इन घटनाओं के आधार पर दक्षिण कोशल यानि हमारे छत्तीसगढ़ का महाभारतकाल से गहरा नाता रहा है। छत्तीसगढ़ के अनेक नगरों एवं स्थानों का नाम जो आज भी प्रचलित है उनमें इस बात की पुष्टि भी होती है मसलन, गंडई पंडरिया (गाण्डीव पाण्डवरिया), भीम खोह (भीम खोज), अरजुन्दा, गाण्डीव देह (गुण्डरदेही), सहदेव पुर, भीम कन्हार, देवपाण्डप, पंच भैय्या, यादवों का गॉंव नंदगांव (राजनांदगांव), भील-आई (भिलाई) प्रमुख है। लेखक ने छत्तीसगढ़ अंचल के विभिन्न स्थानों के नाम के आधार पर उनका महाभारतकालीन साम्य ढूढऩे की कोशिश की है। यह सर्वविदित तथ्य है और पुराणें में इसका उल्लेख है कि त्रेतायुग में घटित भगवान श्री राम एवं रावण के मध्य युद्ध के पश्चात वानरों एवं भालुओं ने अपनी राजधानी किष्किंधा पर्वत के पम्पापुर नामक स्थान पर बनाई थी। उसके पश्चात हजारों वर्ष के बाद भालुओं ने अपनी राजधानी के लिए मध्य प्रांत में पिम्पलापुर नामक स्थान को चुना। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान में यह पिंपलापुर से अपभ्रंश में आते-आते पिपरिया हो गया है। यहां पर वह गुफाएं भी स्थित है जिसे हम पांडव गुफा के नाम से जानते हैं।
गुरू द्रोणचार्य द्वारा एकलव्य का तिरस्कार करने पर खिन्न होकर युवावस्था में एकलव्य ने इसी दक्षिण कोशल की भूमि को अपनी कर्मभूमि बनायी तथा इस क्षेत्र के वनान्चल प्रमुख भील राजा चिल्फराज की कन्या सुपायली से विवाह किया तथा इसके बाद उसने मध्य कोसल में अपनी राजधानी बनायी। उस समय यह सम्पूर्ण क्षेत्र रान्यपुरम के नाम से जाना जाता था। कालान्तर में आगे चलकर युग परिवर्तन के पश्चात यह क्षेत्र कलचुरी राजवंशों के अधिपत्य में आया तथा यहॉं के शासन राय ब्रम्हदेव राय के नाम से यह भाग आज रायपुर कहलाता है। महाबली भीम के बारे में यह कहा जाता है कि वह पर्वतों को मात्र एक डांग में पार करते थे। छत्तीसगढ़ में दो पैरों के मध्य को डांग कहा जाता है। सो हो सकता है कि डांग शब्द से ही आज के डोंगरगढ़ का साम्य हो। उस युग में माता जी का नाम कात्यायनी देवी था तत्पश्चात युग परिवर्तन होने के साथ- साथ क्रमश: माता जी का नाम कमायनी देवी, काम्यादेवी, कामादेवी, विमला विम्लेश्वरी, बगुलामुखी, वर्तमान में माता जी को बम्लेश्वरी देवी के नाम से जानते है। भगवान श्री कृष्ण की बातों को सुनकर भीमसेन ने जिस स्थान पर माता का आह्रवान किया उस स्थान को आज डोंगरगढ़ में भीमपांव के नाम से जाना जाता हैं तथा यादव ने इस स्थान पर पूर्व दिशा की ओर लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर समस्त गायों को विचरण हेतु जिस स्थान पर रखा था इस स्थान को पांडवों ने नन्दगांव की उपमा दी तथा यह स्थान आज राजनांदगांव कहलाता है । इसी से लगा हुआ यहां पर पाण्डादाह नामक स्थान है जो संभवत: पांडवों द्वारा स्थानीय निवासियों को गऊदान करने के कारण ही पांडादान कहलाता है। दाऊ शब्द का प्रचलन भी महाभारतकालनी गौपालकों की परंपरा का हिस्सा है।
इमली के बीज को छत्तीसगढ़ भाषा में चिचोल बीजा कहा जाता है। क्योंकि इमली के बीच में कैल्शियम, विटामिन सी तथा आयरन नामक तत्व होता है, जिसके खाने से गायों की मात्र उदरपूर्ति ही नहीं होती वरन उनका स्वास्थय भी उत्तम रहता है सो नंदगांव यानि राजनांदगांव के पास एक गांव चिचोला नाम से है। नन्दगांव के स्थापना के समय भगवान श्री कृष्ण ने इसी दिशा में यहां की भूमि को प्रणम किया तथा यहां की मिट्टी को अपने पीली कछौटी में लेकर यहां की धरती को स्पर्श किया फिर क्या था यहां की समस्त भू - भाग पीली मिट्टी में परिवर्तित हो गया तथा हाथों से छूने के कारण ही इस मिट्टी को छुई नाम किया गया। इस कारण यह स्थान आज छुई खदान कहलाता है। महाभारत काल में जंगलों में जटासुर नामक एक राक्षस का र्वणन मिलता है । वह मनुष्यों को मारकर उनके रक्त से जंगलों को सींचता था। इसी कारण यहां की वनस्पति लाल हुई और इस वनस्पति को खैरा कहा गया । खैर अर्थात् कत्था, कालांतर में आगे चलकर यह स्थान अपनी विशेषता के कारण खरपुर कहलाया बाद में कलियुग में इसे आज हम खैरागढ़ के नाम से जानते है। खैरागढ़ से आगे ही नगपुरा है, जहां का नाग से साम्य संभव है। यहीं पर एक स्थान है जिसे कोपेडीह कहा जाता है। कोप अर्थात् क्रोध और डीह अर्थात गृह। नाग की मणियो के चमकने से जिस स्थान को सोनमणि कहा गया होगा वह आगे चलकर अपभ्रंश रूप में आज सोमनी हो गया है। मणि के प्रकाश से जो स्थान प्रकाशमय होता है वह स्थान अंजोरा कहलाता है। नागों के ढेढे, मेढ़ चालों से ही ढेढे सर्प, मेढेसरा नाम स्थान का नाम आता है । जो आज मेढ़ेसरा के नाम से जाता है। मणि की रशिमयां फैलने की वजह से ही रिसामा गांव का नाम पड़ा होगा। नाग के फन में भगवान श्री कृष्ण के पद के निशान को छत्तीसगढ़ी भाषा में चन्द्रखुर कहा जाता है सो इस आधार पर चन्द्रखुरी गांव का नाम पड़ा होगा।
कृष्ण चन्दू अर्जुन के नाम से अनायास कचांदुर नाम याद आता है तथा मोहन चन्द्र अर्जुन के नाम से अनायास ही मचांदूर का नाम आता है। इनके पास ही अंडा गांव है, जिनका साम्य सांपो के अंडे देने से मिलता है। आज का आधुनिक भिलाई कहीं ना कहीं भीलों से संबंध रखता है। तभी भील आई ही अपभ्रंशित होकर भिलाई हो गया है। इससे लगे शहर दुर्ग ने दुर्गम वनांचल के कारण यह नाम पाया होगा। ऐसा माना जाता है कि भीम ने दक्षिण दिशा के प्रवेश द्वार में शिलाओं परकोटों का निर्माण किया था। चूंकि इनका निर्माण प्रस्तर खण्डों से हुआ था, इसलिये इस स्थान को प्रस्तर खण्ड बाद में बस्तर नाम दिया गया। आज दक्षिण क्षेत्र में स्थित इस जिले का नाम बस्तर नाम दिया गया । आज बस्तर क्षेत्र में महाबली भीमसेन द्वारा निर्मित विशाल परकोटों के कारण ही वह स्थान बस्तर कहलाया। यहां की दंतेश्वरी माता दरअसल दक्षिण से आई माता दन्तम्मा है। गोंड़ राजाओं ने इन्हें दंतेश्वरी नाम देकर कुलदेवी माना। चूंकि दन्तेश्वरी माता मां जगदम्बा का ही अवतार थी। आगे चल कर यह स्थान जगदम्बा के नाम पर जगदपुर कहलाने लगा।
माता कामधेनु की पुत्रियॉं नंदिनी एवं कपिला के नाम से एक क्षेत्र नंदनी नगर कहलाता है। नागों के बारे में माना जाता है कि यह सांप गायों के पैरो से लिपट कर उनका दूध पी लेते हैं लेते थे इन्हें अहि कहा जाता है और दूध के व्यवसाय से जुड़े समुदाय को अहीर बुलाया जाता है। संभव है अहिर शब्द से बने नागों के इस स्थान को अहिवारा नाम दिया गया। नाग को गाय का श्राप है कि वे भूमि के ऊपर स्वयं का निवास स्थान नही बना पायेंगे इसलिय नागों के निवास स्थान को भिम्भौरा कहा गया। अहिवारा के पास भिम्भौरी नाम स्थान है। इसी क्षेत्र में चूने की खदान होना भी यहां के धार्मिक व पौराणिक महत्व को दर्शाता है। दूध व चूना पानी के रंग में अद्भुत समानता होती है और दोनों में कैल्शियम की मात्रा होती है कैल्शियम अर्थात चूना, इसलिये यहीं कही पर चूने की खदान होना चाहिये वर्तमान में भिलाई इस्पात संयंत्र इसी स्थान से चूना पत्थर का खनन करता है। जिसे नंदिनी माइंस के नाम से जाना जाता है। प्राचीन सूर्यकुण्ड नामक सरोवर सूख गया आज वह स्थान सुरडुंग कहलाता है। आतंक फैलाने वाले हर युग में होते हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में इन्हें उतलेघा कहा जाता है। इसलिये इस शब्द से संबंधित उतई नामक स्थान का नाम पड़ा। पाटन नगरी का नाम पटनम शब्द से बना यही कारण है कि आज भी पाटन के पास बंदरगाह के निशानी देखी जा सकती है। वह स्थान है सोनपुर बंदरगाह से संबंधित गांव का नाम वर्तमान में पंदर कहलाता है। माना जाता है कि शिलापुरम (सिरपुर) नामक राज्य के संस्थापक राजा मोरध्वज की परीक्षा लेने श्री कृष्ण एक भिक्षुक व अर्जुन को भूखा सिंह (शेर) बना कर लाए थे। भिक्षुक ने राजा से कहा कि उसका भूखा सिंह केवल मानव मांस ही खाता है। यदि राजा और रानी अपने हाथों से काटकर मनुष्य मांस खिलाएंगे तो यह भोजन ग्रहण करेगा। तब राजा ने फैसला किया और अपने पुत्र ताम्रध्वज (जिसकी आयु मात्र 8 वर्ष की थी) को आरी से काट कर उसे शेर को परोस दिया। उसकी दानशीलता देख भगवान खुश हुए और अपनी माया को समाप्त करते हुये उसके पुत्र को फिर से जीवित कर दिया था। तब से यह स्थान आरंग कहलाया। कालान्तर से लेकर आज तक उस स्थान को आरंग कहते है। उस समय न तो वहा पर महानदी थी न ही शिवनाथ और न ही कोई अन्य नदी थी, उस क्षेत्र में कुलेश्वर मंदिर मात्र था, चारों ओर केवल जंगल ही जगल था।
राजा मोरध्वज ने भीम एवं अन्य शूरवीरों को अत्यन्त ही प्रसन्नतापूर्वक स्वागत किया तथा भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें विशेष रूप से आशीवाद दिया तथा राजा मोरध्वज से वर मांगने को कहा तब राजा ने उत्तर दिया हे माधव इस क्षेत्र में एक भी नदी नहीं है। पर्वत राज सिहावा पर भीम सेन ने अपने विशाल पद प्रहार से जो जल धारा का निर्माण किया वह एक नदी के रूप में बदल गई । पद प्रहार पर्वत की तली पर किया गया था जिससे धम्म की प्रतिध्वनि उत्पनन हुई थी, सो इसी क्षेत्र का नाम धम्मतली पड़ा जो कालान्तर में बिगड़ते - बिगड़ते धमतरी कहलाई। पैरों के प्रहार से जहां जल धारा निकली, उसे पैरी नदी कहा गया जिसकी धारा उत्पन्न ही मोटी धारा के साथ जो नदी निकली वही महानदी है। महर्षि .ाृंग लोमस ऋषि उनके शिष्य का नाम था महानंद इन्ही के नाम से ही इस नदी को महानदी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में अनेकों नदियां है किन्तु महानदी का पाट सबसे काफी चौड़ा है, इस नदी के प्रवाह से उस क्षेत्र में जो जलराशि जमा हुई वह महासमुद्र का रूप लिए हुए थी। कई वर्षो तक यह क्षेत्र पानी में डूबा रहा। इस नदी के किनारे स्थित इस नगर को महासमुन्द्र (अब महासमुंद) नाम दिया गया। पहिले दक्षिण कोसल की राजधानी रत्नपुर थी (जो वर्तमान में रतनपुर के नाम से जानी जाती है) यहां के राजा मोरध्वज ने आगे चलकर शिला-पुरम को अपनी राजधानी बनाई। कालांतर में यह स्थान श्रीपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसे हम वर्तमान में सिरपुर के नाम से जानते है।
भौगोलिक रूप से दक्षिण दिशा में कोशल राज्य से पाण्डव सर्वथा अपरिचित होने के कारण से उन्हें इस क्षेत्र में अनेकों विध्न, बाधाओं का सामना करना पड़ा। महासमुंद के पास भीमखोज नामक एक स्थान है जो इस तथ्य की प्रमाणिकता को सिद्ध करते है कि भीम ने इस स्थान को काफी कठिनाई से खोजा। महार्षि वेद व्यास लिखित महाभारत महाकाव्य में पाण्डवों द्वारा दक्षिण कौशल स्थित गंद्यमादन पर्वत यात्रा का र्वणन है इसी पर्वत पर महाबली भीम द्वारा कुबेर के साथ युद्ध का र्वणन आता है। युद्ध के पश्चात पाण्डवों को विपुल धनराशि की प्राप्ति हुई थी जैसे स्वर्ण, बहुमूल्य धातुएं, हीरे एवं अन्य बहुमूल्य पत्थर इत्यादि थे। जिसे महाबली भीम सेन के द्वारा स्थानीय निवासियों को भेंट स्वरूप प्रदान किया गया। इस पर भगवान श्री कृष्ण ने भीम सेन को कहा था कि यदि निर्धन व्यक्ति को अनायास ही बिना परिश्रम के धन मिल जाता है तो उसकी मति के भ्रष्ट होने में अधिक समय नही लगता। इसलिए इन हीरे एवं जवाहरातो को आने वाले युग युगांतर के लिये भूमि पर पाट दो इस कार्य के लिये स्थानीय कुंभकारों को नियुक्त किया गया। जिसके लिये विशाल गरिया का निर्माण किया गया। जिस स्थान पर गरिया को बंद किया गया। वर्तमान में यह स्थान गरियाबंद कहलाता है। देवभोग इलाके में हीरे की खदान की बातें अब की ही जा रही है। छत्तीसगढ़ी में भूमि खनन कार्य को कोडऩा कहा जाता है। वह स्थान कोडिय़ा कहलाता है तथा इसी भाषा में मानव नाम को मनखे भी कहा जाता है सो यही कही पर मैनपुर नामक स्थान होना चाहिये, प्राप्त स्वर्ण भंडारों को जिस स्थान पर पाटा गया वह स्थान स्वर्ण पाण्डव कहलाया वर्तमान में इसे सोनपाण्डर कहा जाता है जो कि विकास खण्ड तिरियाभाट, साजा विधान सभा क्षेत्र में है।
महाभारतकालीन एक अन्य प्रसंग में कृष्ण भीम से कहते हैं कि गांडीव धनुष लेकर अर्जुन के पृथ्वी पर सकुशल अवतरण के लिये हमें एक विराट अनुष्ठान करना होगा। इन्द्र ने यह र्निणय लिया कि गाण्डीव प्रत्यर्पण पृथ्वी एवं स्वर्ग के मध्य आकाश मार्ग पर ही किया जायेगा। तब वह क्षेत्र गाण्डीवदेही के नाम से प्रसिद्ध होगा। आखिर वह समय आता है जिसकी प्रतीक्षा पाण्डव एवं श्रीकृष्ण कर रहे थे। आकाश मार्ग पर भीषण ज्वालाओं के साथ अत्यंत ही तीव्र ध्वनि के साथ गर्जन करता हुआ प्रकाश वर्ष की गति से अर्जुन का यान भीम को आता दिखाई देता है। तब महाबली भीम अपने दोनों बाहुओं से उस यान को धारण करते है तथा उसमें व्याप्त अग्िन ज्लावाओं को आत्मसाल करते हुए धरा पर सकुशल उतारते है इस समय भीमसेन का संर्पूण शरीर जो लौह भीम का रूप था वह अत्यंत ही गर्म होकर लाल हो उठता है परंतु भीमसेन इसकी परवाह न करते हुए अर्जुन को भूमि पर कुशलता पूर्वक रखते है जिस स्थान पर अर्जुन का दाहिना पैर पहले पड़ता है उस स्थान को हम आज अर्जुन्दा के नाम से जानते है, इसी तरह गांडीवदेही का अपभ्रंश गुंडरदेही है। ग्राम अर्जुन्दा, गुण्डरदेही से कुछ की दूरी पर स्थित है। अर्जुन के दस नाम है। उनमें से एक फालगुन नाम भी है सो यही पास में ही फागुनदाह गांव है। जिस स्थान पर माता पार्वती एवं गंगा ने विलाप किया था वह स्थान अम्बागढ़ कहलाया तथा दोनों देवियों के आंसुओं से यहां पर एक नदी बन गयी थी जो शोक स्वरूप है। यहां पर गंगा ने शिव को नाथ कहा था, नाथ का मतलब नाथने वाला याने नियंत्रक, माता गंगा शिव के नियंत्रण में रहा करती थी। जहां माता गंगा के नेत्र शोक से झिलमिलाये। वह स्थान आज गंगा मैया झलमला कहलाता है तथा मां पार्वती के रुदन स्थान को अम्बागढ़ कहा गया। दोनों देवियों के आंसुओं से यह नदी बनी जो शिवनाथ नदी कहलाती है। सो यहीं पर भगवान शंकर को पुत्र हत्या कलंक लगता है। सो यहीं पर कलंकपुर नामक स्थान है। शोक एवं आंसुओं के कारण इस नदी के किनारे कोई आनंद उत्सव नहीं मनाया जाता था, सो इस स्थान को निकुंभ (निकुम) कहा गया। हमारे प्राचीन युग के अनेकों महाऋषियों ने वेदों व पुराणें जैसे धर्मग्रंथ में गुरूर ब्रम्हा, गुरुर विष्णु, गुरूर देवो महेश्वराय कहा गया है। इस सूक्ति को सार्थक करते हुए बालोद के पास गुरूर स्थित है।
महाभारत महाकाव्य में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि जब- जब भीमसेन किसी संकट में पडते थे तो सदैव माधव श्री कृष्ण ने सांकेतिक रूप से पाडवों की सहायता करते थे। तब भगवान श्री कृष्ण भीमसेन को एक विशेष दांडी प्रदान करते है। यह वही दांडी थी जो श्री कृष्ण ने यादव वंश की स्थापना के समय यहॉं के निवासियों को प्रदान की थी। यह दांडी को यदु वंशी लोग आज भी अत्यंत पवित्र मानते है। तब महाबली भीमसेन ने उसी दांडी से इस क्षेत्र से लौहहरण प्रारंभ किया तथा उन विशाल लौह पिंडो को कंदुक क्रीड़ा करते हुए सुदूर दक्षिणी क्षेत्र में फेंकना प्रारंभ किया। यह स्थान आज भीमकन्हार के नाम से जाना जाता है। कंदुक क्रीडा वाला स्थान कांदुल कहलाता है। लौह पिंड जहॉं गिरे वे बैलों के आकृति के थे सो यह क्षेत्र बैलाडीला कहलाया, और वह स्थान किरन्दुल के नाम से जाना जाता है। स्थानीय जिन राजाओं ने पाण्डवों को अपना समर्थन दिया उनके राज्य का हरण भीम ने किया, इसलिये इस स्थान को राजहरा के नाम से जाना जाता हैं। जिस क्षेत्र में दांडी से लौह हरण किया गया वह स्थान डौन्डी लोहारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह कार्य स्थानीय निवासियों सहस्त्रों के संख्या में महाबली भीम सेन को सहयोग किया यह स्थान वर्तमान में सहसपुर कहलाता है वृषभों सहयोग वाला स्थान खुरसुल कहलाता है। इसी बीच भीम अपने शरीर में व्याप्त भीषण ज्वालाओं को माता महामाया द्वारा दिए गए खप्पर में लेकर माता के आदेश अनुसार पूवोंतर दिशा की ओर करके भूगर्भ में डाल देते थे, यह स्थान खपपरवारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पृथ्वी के आंतरिक भू गर्भ मार्ग से होता हुआ यह भीषण अग्िन कोसल राज्य के सीमा पर एक भयंकर ध्वनि के साथ विस्फोट होता है। तब यहां की देवी माता अम्बिका को यह भयंकर स्वर गूंजने की प्रतिध्वनी सुनाई पड़ती है। कालानतर में यह स्थान सुरगुंजा कहलाया जिसे हम वर्तमान में सरगुजा के नाम से जानते है। यह क्षेत्र माता अम्बिका का है। सो आगे चलकर यह क्षेत्र अम्बिकापुर कहलाता है। भूगर्भ में व्याप्त भीषण ज्वालाओं से यहां की धरती आन्तरिक रुप से काली पड़ गयी थी। यही कारण है कि यह क्षेत्र कोयला से परिर्पूर्ण है तथा सीतावर्ती पड़ोसी राज्य बिहार के झरिया तब का इसका प्रभाव देखने में आता है। भाट निर्माण में भगवान श्री कृष्ण के वृषभ सेना ने विशेष सहयोग किया था तथा अपने विशाल खुरों से खूंदकर इस क्षेत्र को कृषि योग्य बनाया था। यही कारण है कि बालोद से लेकर रायगढ़ तक कोई पर्वत यहां पर नहीं है समस्त भाग मैदानी हैं इस क्षेत्र में आज भी बैलों द्वारा खूंदे जाने वाले भूमि को अत्यंत ही पवित्र माना जाता है जो शायद संभव हो कि कृषि कार्य में वृषभ का सहयोग लेने की प्रथा का चलन उसी युग से प्रारंभ हुआ हो।
यह बाते भले ही कपोल कल्पित लगती है, परंतु आज हम इस तथ्य से इंकार नही कर सकते कि हमारा देश जो एक कृषि प्रधान देश कहलाता है। इसी तरह अर्जुन द्वारा कमारों के नाम से जिस नगर का निर्माण किया गया वह कमार धाम, कुंवरधाम, फिर कालान्तर में कवर्धा कहलाता तथा पाण्डवों के साथ जो क्षत्रिय ब्रम्ह समाज के लोग थे, उनके प्रभाव से यहां पर्वतों के तराई वाले क्षेत्र को ब्रम्हतरा कहा गया उस युग में ब्राम्हण भी क्षत्रिायों के भांति युद्ध कौशल में पारंगत थे, शास्त्रों में भगवान परशुराम, गुरू, द्रोणाचार्य, अश्वस्थामा, कृपाचार्य जैसे अनेकों ब्रह्मवीरों का उदाहरण मिलता है अत: ब्रम्हतराई वाला क्षेत्र युग परिवर्तन होने के पश्चात वर्तमान में आज बेमेतरा कहलाता है। इस तरह छत्तीसगढ़ की वसुंधरा के विभिन्न स्थानों के नाम महाभारतकालीन घटनाओं के आधार पर होने के साम्य हमें मिलते हैं।
वीरेन्द्र कुमार सोनी
2 बी, स्ट्रीट 39, सेक्टर-8 भिलाई नगर-जिला दुर्ग (छ.ग.)
इस आलेख से हम अक्षरश: सहमत हैं या नही इस बात से परे हम इसके दस्तावेजीकरण के लिए इसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं. यह आलेख इतवारी अखबार से साभार लिया गया है.
इस आलेख से हम अक्षरश: सहमत हैं या नही इस बात से परे हम इसके दस्तावेजीकरण के लिए इसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं. यह आलेख इतवारी अखबार से साभार लिया गया है.
बहुत प्रभावित हुआ इस लेख से। बहुत धन्यवाद मित्र!
जवाब देंहटाएंthank you sir!!....dats type of research we needed to know our chhattisgarh more....thank you very much.
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