बस्तर में नक्सलवाद को लेकर 'छत्तीसगढ़’ और 'इतवारी अखबार’ के सुपरिचित लेखक तथा प्रदेश के सीनियर एडवोकेट कनक तिवारी के अपने निजी विचार और तर्क रहे हैं। उनके कई लेख 'छत्तीसगढ़’ में प्रकाशित होकर बहुचर्चित हुए हैं। कनक तिवारी की दृष्टि बस्तर में नक्सलवाद को लेकर शासकीय नीतियों और कार्यक्रमों में आदिवासी कल्याण की अनदेखी करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान की समर्थक नहीं है। उहोंने संविधान के आदेशात्मक और वैकल्पिक प्रावधानों को अमल में नहीं लाने के कारण राज्यपाल पद के विवेकाधिकारों की भी समीक्षा की है।
कनक तिवारी का मानना है कि नक्सलवाद मूलत: एक हिंसात्मक विचारधारा है जो पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी क्षेत्र में बड़े किसानों और जमींदारों के गरीब किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों के कारण पहले तो एक विद्रोह के रूप में पैदा हुई और बाद में उस पर धीरे-धीरे माओवाद का मुलम्मा चढ़ाया गया। गांधीवादी दृष्टि के कट्टर समर्थक होने के कारण कनक तिवारी माओवाद या तथाकथित नक्सकलवाद के जरिए राजनीतिक परिवर्तन लाने के किसी भी हिंसक संकल्प का पुरजोर विरोध करते हैं। उनका लेकिन साथ-साथ यह भी मानना है कि वैश्वीकरण, बाजारवाद और पूंजीवाद के भारत जैसे विकासशील देशों पर हमले के कारण जंगलों, आदिवासियों और गरीब किसानों को उनकी भूमियां छीनकर नवधनाढ्य भारतीय उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हिन्दुस्तान की जनता की छाती पर लादा जा रहा है और उसे विकास की संज्ञा दी जाती है, जबकि वह विनाश ही नहीं अंतत: सर्वनाश है।
अंग्रेजी न्यायिक परंपरा की वंशधर भारतीय न्यायपालिका को लेकर भी कनक तिवारी बहुत अधिक उत्साहित नहीं हैं। उनका मानना है कि भारतीय संविधान में अव्वल तो क्रांतिकारी संशोधनों को लाए जाने की जरूरत है लेकिन फिर भी जो कुछ प्रावधान उपलब्ध हैं उनके अनुसार ही आदिवासी क्षेत्रों में राज्यपालों और सरकारों द्वारा जो कुछ किया जा सकता है वह भी नहीं किया गया है। इसके कारण ही नक्सीलवाद को अपने पैर पसारने का अवसर मिला है। लेखक का यह भी मानना है कि मौजूदा नक्सकलवाद किसी तरह का राजनीतिक विकल्प नहीं देता है। उसके आधार पर जनक्रातियों की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन वह एक आतंकवादी संगठन के रूप में अपनी पहचान मानता हुआ जनजीवन को परेशान जरूर करता रहेगा। उनकी राय में नक्स लवाद का उन्मूलन होना जरूरी तो है लेकिन उसे पुलिस या सेना की हिंसा के द्वारा खत्म करने की बात सोचना बेमानी होगा क्योंकि जब तक स्वस्थ राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं होती आदिवासियों में जनअसंतोष तो बना ही रहेगा। कनक तिवारी की पुस्तक 'बस्तर: लाल क्रांति बनाम ग्रीन हण्ट’ शीघ्र ही प्रकाशित होकर आ रही है। उसका एक अंश यहां 'इतवारी अखबार’ में प्रकाशित हैं।
(यह आलेख इतवारी अखबार से साभार लिया गया है)
तिवारी जी,
जवाब देंहटाएंयह पुस्तक महत्वपूर्ण होनी चाहिए।
पुस्तक का ईंतजार है। संजीव भाई बधाई
जवाब देंहटाएंविकास का नाम लेकर ही तो नक्सलवादी आदिवासियों का दोहन कर रहे हैं और इनकी असलियत तो अब जग जाहिर है . नक्सलवाद सिर्फ एक मोटी कमाई का धन्दा बन गया है और आदिवासी पिस रहा है. सरकारें तो हमेशा से सुरक्षा प्रदान करने में असफल रही हैं क्योंकि उन्हे अपनी सुरक्षा की चिंता ज्यादा है .
जवाब देंहटाएंक्रांति या बदलाब को हिंसा से जोड कर देखना एक त्रुटिपूर्ण विचार है पर सच ये भी कि अनादि काल से हिंसा एक साधन रही है.
जवाब देंहटाएंमेरा भी मानना है की हमारे संविधान में परिवर्तन की आवश्यकता है .......... अँग्रेज़ों का क़ानून बदलाव के कगार पर खड़ा है ........ पुस्तक अच्छी होगी ..........
जवाब देंहटाएंपुस्तक निसंदेह अच्छी होनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंकनक तिवारी की बात सौ फीसदी सच है मगर अब नक्सलवाद को और उसके पैदा होने की वज़ह को भी समझना पड़ेगा........यह एक कानून व्यवस्था से ऊपर की एक सामाजिक समस्या है ...जो हमारे समाज कि सामाजिक आर्थिक विषंगति को बेनकाब करती है....
जवाब देंहटाएंकनक तिवारी जी के पुस्तक के विषय की जानकारी मिली . निश्चय ही विचारपूर्ण पुस्तक होगी .
जवाब देंहटाएंनक्सलवाद के खिलाफ कोई भी औजार हो, प्रयोग होना चाहिये। गांधीवाद भी।
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