(डाॅ. दादू लाल जोशी के शोध प्रब्रध की समीक्षा)
इस शोध प्रबंध की समीक्षा, समालोचना अथवा आलोचना में कुछ लिखने अथवा कहने से पहले हमें ध्यान देना होगा कि इस ग्रंथ की चौदह पृष्ठों की विस्तृत और विद्वतापूर्ण भूमिका के अलावा दोनों फ्लैफ में भी, दो अलग-अलग विद्वानों की अमृत वाणियाँ (मीठे वचन को संत कवियों ने अमृत के समान ही माना है।) दी गई हैं। इस तरह की सामग्रियाँ वस्तुतः प्रस्तुत कृति की समीक्षाएँ ही होती है। फिर भी मान्य समीक्षकों की समीक्षाएँ अलग महत्व रखती हैं और अधिक मूल्यवान होती हैं, अतः समीक्षाओं और आलोचनाओं की और भी निर्झरणियाँ विभिन्न स्रोतों से निकलनी चाहिए, निकलकर बहनी भी चाहिए, यह हमारी साहित्यिक परंपरा के अनुकूल भी है और आवश्यकता भी।
कहा गया है -
’’सूर, सूर, तुलसी शशि, उड़ुगण केशवदास।बांकी सब खद्योत सम, जँह-तँह करत प्रकाश।’’
सूर्य, चन्द्रमा और तारों की रोशनी के बाद कुछ अहमियत जुगनुओं की भी होती है, पर हमारे अर्थात् मेरे समान प्रकाशहीन और हैसियतहीन व्यक्ति की तो कुछ औकात ही नहीं बनती कि इस पर कुछ कह सकूँ। जो कुछ भी कहने का प्रयास मैंने किया है वह एक दृष्टिविपन्न पाठक की त्त्वरित और अनर्गल, पाठकीय प्रतिक्रिया के अलावा और कुछ भी नहीं है। दृष्टि में ही दोष हो तो ताजमहल में भी हजारों दोष दिख जायेंगे, परन्तु इससे न तो ताज की सुंदरता कम होती है और न ही उसकी अहमियत। इस ग्रंथ में मुझे यदि कोई दोष दिख भी जाये तो उसका संदर्भ इस स्वयं सिद्ध उक्ति से अधिक और कुछ भी नहीं होगा।
इस ग्रथ के कव्हर फ्लैफ के प्रथम पृष्ठ के (प्रथम फ्लैफ के) लेखक डाॅ.चंपा सिंह के अनुसार - ’’डाॅ. दादू लाल जोशी ने इनके (डाॅ. विनय कुमार पाठक के) स्त्री विमर्श के समग्र कार्यों की परिक्रमा करके विशेषतः ’स्त्री-विमर्श: पुरूष रचनाधर्मिता के संदर्भ में’ ग्रंथ की पड़ताल करके डाॅ. विनय कुमार पाठक के प्रदेय को शोध का विषय ही नहीं बनाया, स्त्री-विमर्श की समझ विकसित करके हिन्दी साहित्य को नई दृष्टि देने का उपक्रम भी निवेदित किया है।’’ अर्थात:-
(अ) इस शोध प्रबंध में शोधार्थी (डाॅ. दादू लाल जोशी) ने डाॅ. पाठक के समग्र कार्यों का अध्ययन तो किया है परन्तु मुख्य पड़ताल ’स्त्री-विमर्श: पुरूष रचनाधर्मिता के संदर्भ में’ ग्रंथ की हुई है। (जिस आत्म विश्वास के साथ उपरोक्त बातें कही गई है, जाहिर है, फ्लैफ लेखक ने स्वयं डाॅ. पाठक के समग्र कार्यों का अध्ययन किया होगा।)
(ब) इस शोध प्रबंध ने दो (महान्) लक्ष्य हासिल किया है -
1. इस शोध प्रबंध ने स्त्री-विमर्श की समझ विकसित किया है। हिन्दी साहित्य जगत में स्त्री-विमर्श से संबंधित सामग्रियों की बेहद कमी है, ऐसा कहना शायद उचित नहीं होगा; इसके बावजूद वर्तमान समाज में स्त्रियाँ चौतरफा प्रताड़ित और अपमानित हो रही हैं। जाहिर है, और सत्य है कि समाज में स्त्रियों के प्रति समझ का अभाव है। डाॅ. जोशी के इस शोध प्रबंध को पढ़कर यदि स्त्री-विमर्श के प्रति मूढ़मति समाज की समझ विकसित हो सके तो इसके लिए समाज डाॅ. जोशी का ऋणी होगा। परन्तु किताब की कीमत (छः सौ रूपये) और हिन्दी पाठकों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कैसे होगा और किस सीमा तक हो सकेगा, कहना बेहद मुश्किल है। बेहतर होगा, इस ग्रंथ को लोगों तक पहुँचाने में सरकार भी अपनी सहभागिता निभाये।
2. इस शोध प्रबंध ने हिन्दी साहित्य को नई दृष्टि देने का उपक्रम निवेदित किया है। समय के अनुसार दृष्टियाँ बदलनी ही चाहिए, इस लिहाज से यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दृष्टियाँ बदलने से ही परिदृश्य बदलती है, समाज बदलता है। सदियों से अंधदृष्टि भारतीय समाज की दृष्टि बदले चाहे न बदले, इस कृति को पढ़कर खुल ही जाये, तब भी यह डाॅ. जोशी द्वारा किया गया एक महान् कार्य ही माना जायेगा।
दूसरे फ्लैफ के लेखक डाॅ. जितेन्द्र कुमार सिंह ने कहा है, ’’इनके (डाॅ.विनय कुमार पाठक के)’स्त्री-विमर्श’ पर केन्द्रित कार्यों को शोध और समीक्षा का अधार बनाकर डाॅ. दादू लाल जोशी ने प्रस्तुत ग्रंथ के द्वारा नई स्थापना दी है, जिसका स्वागत न सिर्फ हिन्दी वरन् भारतीय भाषाओं में भी होगा, इसमें दो मत नहीं।’’ अर्थात:-
(अ) डाॅ. जोशी का यह ग्रंथ केवल शोध ग्रंथ ही नहीं है अपितु एक समीक्षा ग्रंथ भी है।
(ब) डाॅ. दादू लाल जोशी ने प्रस्तुत ग्रंथ के द्वारा एक नई स्थापना दी है।
उपर्युक्त दोनों कथनों की जांच तो आप तभी कर पायेंगे जब आप इस ग्रंथ के पन्नों को एक-एक कर पलटते और परखते जायेंगे। और अंत में फ्लैफ लेखक ने आशा व्यक्त किया है कि इसका स्वागत हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं में होगा। लेखक की तरह मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ और इसी तरह की कामना भी करता हूँ। संभव हो तो इसी तरह की कामना आप सबको भी करना चाहिए।
इस ग्रंथ की विस्तृत भूमिका डाॅ. सभापति मिश्र जी ने लिखा है। स्त्री-विमर्श को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं - ’’स्त्री विमर्श एक नारीवादी सिद्धांत है, जिसमें स्त्री-केन्द्रित ज्ञान की चर्चा-परिचर्चा होती है।’’(p-vii) और स्त्री-विमर्श अस्तित्व में कैसे आया, इसका करण स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि - ’’समकालीन सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियाँ साहित्य की सभी विधाओं में दृष्टिगोचर होती हैं। स्त्री-विमर्श उन्हीं विसंगतियों की देन है।’’(p-vii)
यदि व्याप्त विसंगतियों के समस्त आयामोें को टटोला जाय तो आगे भी लगभग सभी विद्वानों ने इसे ही स्त्री-विमर्श के अस्त्वि में आने का प्रमुख कारण माना है। भूमिका में इसके आगे जितनी बातें कही गई हैं लगभग सभी इसी ग्रन्थ से संदर्भित हैं, न सिर्फ संदर्भित हैं बल्कि उद्धृत हैं।
दो सौ अड़तालीस पृष्ठों की इस शोध ग्रन्थ को डाॅ. जोशी जी ने छः अध्यायों में समेकित किया है। प्रारंभ में उन्होंने प्रस्तावना तथा छठे अध्यााय के अंत में डाॅ. विनय कुमार पाठक के नारी-विषयक विचार विस्तार में तथा अन्य विद्वानों के विचार संक्षिप्त में दिया है। छठा अध्याय समाकलन (उपसंहार)का है। यहाँ डाॅ. जोशी जी लिखते हैं - ’’फिर भी 1975 के पहले तक ऐसे कोई विचार या सिद्धांत सजग, सचेत विमर्श की तरह लगभग न विकसित हुए, न लिखे गये जिसे स्त्री नितांत अपना विमर्श मान सके और और नेतृत्व में भागीदारी कर सके।’’(p- 229)
भारत में स्त्री-विमर्श की स्थिति, अवधारण, स्थापना और परंपरा पर अपनी स्थापना देते हुए डाॅ. जोशी जी आगे लिखते हैं कि - ’’सन् 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ भारत सरकार के अनुबंध के कारण सरकारी पहल पर एक ’सोशल इंजीनियरिंग’ का दौर शुरू हुआ। उसमें भी वैचारिक, सैद्धांतिक संदर्भ के लिए पश्चिमी विमर्श को ज्यों का त्यों अपना लिया गया। स्पष्ट है, अंग्रेजी में स्त्रीवादी आंदोलन और स्त्री-विमर्श को एक-दूसरे से अलग करके देखें तो दरअसल स्त्री-विमर्श का अगर सारा का सारा नहीं तो लगभग सारा कार्यकलाप अंग्रेजी में ही चलता है। जाहिर भी है कि वह अंग्रेजी पृष्ठभूमि वाले भारतीय स्त्री समाज के भी एक सीमित अंश के सिवाय भारतीय स्त्री के लिए जैसे का तैसा अपना विमर्श न हो सकता है, न है।
मुझे पूरा विश्वास है कि भारत व्याकुलता, अंध परंपरावाद, प्रतिक्रियावाद, बौद्धिक साम्प्रदायिकतावाद, संकुचित दृष्टकोण, संकीर्ण मानसिकता और शुद्ध ब्राह्मणी भाषा से ऊपर उठकर स्त्री-विमर्श पर विचार करेगा। डाॅ. विनय कुमार पाठक भारतीय परंपरा के विद्वान हैं इसलिए उनके लेखन व चिंतन में स्त्री-विमर्श, स्त्री के भरोसे भारतीय (जो भी उसका अर्थ हो) को बचाये रखने में भारतीयता के नाम पर स्त्री की स्वतंत्रता, समानता, भगिनीभाव, न्याय, धर्मनिरपेक्षता और आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए किया गया सार्थक प्रयास है।’’(p- 229-230)
स्पष्ट है कि डाॅ. विनय कुमार पाठक ही भारतीय परंपरा में समकालीन स्त्री-विमर्श के संस्थापक या जनक हैं। समकालीन स्त्री-विमर्श को यही डाॅ. विनय कुमार पाठक का सबसे बड़ा प्रदेय है। ़डाॅ. जोशी जी लिखते हैं -
’’डाॅ. विनय कुमार पाठक हिन्दी में पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने स्त्री-विमर्श के मानदण्ड का निर्धारण किया है और समीक्षा को भी रचनात्मकता प्रदान की है।’’(p-xxiv)
(’’सन् 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ भारत सरकार के अनुबंध’’ की बात पर मुझे The UN Convention on the Rights of the Child, 1989 (UN -CRC) का स्मरण हो आता है जिस पर भारत सरकार ने 11 दिसंबर 1992 को हस्ताक्षर किया था और जिसकी वजह से भारत में बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए*THE JUVENILE JUSTICE (CARE AND PROTECTION OF CHILDREN) ACT, 2000* संक्षेप में (JJ ACT, 2000) तथा बालकों के ऊपर होने वाले अत्याचारों और आपराधिक कृत्यों के प्रभावी रोकथाम के लिए *THE PROTECTION OF CHILDREN FROM SEXUAL OFFENCES ACT, 2012* संक्षेप में(POCSO ACT 2012) बनाये गए तथा ’बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ की स्थापनाएँ की गई।
भारत में, हिन्दी साहित्य में बाल-साहित्य की न्यूनता जग जाहिर है। भारतीय फिल्म उद्योग की भी यही स्थिति है। इसी के मद्देनजर मैं कहना चाहूँगा कि अब समय आ चुका है कि भारत में ’’बाल-विमर्श’’ की परंपरा की भी स्थापना किया जाय, जिससे कि बाल मनोविज्ञान तथा बाल-समस्याओं पर आधारित साहित्य की कमी को पूरा किया जा सके और इस विकट और बेहद महत्वपूर्ण समस्या की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट किया जा सके।)
डाॅ. दादू लाल जोशी ने अपनी उपर्युक्त स्थापनाओं में लगभग शब्द पर विशेष जोर दिया है। (’’अगर सारा का सारा नहीं तो लगभग सारा कार्यकलाप अंग्रेजी में ही चलता है।’’ तथा ’’लगभग न विकसित हुए, न लिखे गये।’’) इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि डाॅ. विनयकुमार पाठक द्वारा समकालीन स्त्री-विमर्श की परंपरा स्थापित करने के पूर्व और 1975 के पूर्व भी स्त्री विषयक विमर्श होते रहे हैं, चाहे वह ’संकीर्ण मानसिकता और शुद्ध ब्राह्मणी भाषा’ में ही क्यों न होती रही हो। स्त्री-विमर्श के संदर्भ में डाॅ. दादू लाल जोशी जी का यह कथन कि - ’वह अंग्रेजी पृष्ठभूमि वाले भारतीय स्त्री समाज’ तक ही सीमित होकर रह गई थी, भी उपरोक्त लगभग के दायरे में आकर अपर्याप्त लगता है।
प्रथम अध्याय में डाॅ. जोशी जी ने लिखा है - ’’समकालीन स्त्री-विमर्श पूर्ववर्ती स्त्री-विमर्श से अलग अपनी पहचान के बिन्दु रखता हैं। समकालीन स्त्री-विमर्श अपने पूर्ववर्ती स्त्री-विमर्श से जिस आधार पर अलग हुआ उसकी चर्चा विभिन्न विद्वानों द्वारा बड़े-बड़े दावों के साथ की गयी है, लेकिन इससे वस्तुस्थिति को समझने में विशेष सहायता नहीं मिली।’’(p-35)
डाॅ. दादू लाल जोशी अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं - ’’स्त्री-जीवन की समस्याओं को केन्द्र में रखकर कुछ शोध-प्रबंध लिखे गये हैं, लेकिन स्त्री-विमर्श के मानदण्ड व इतिहास पर प्रकाश नहीं डाला गया है।’’(p-xxiii)
स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श की परंपरा तो रही है, परंतु इसके मानदण्ड व इतिहास पर प्रकाश नहीं डाला गया है। डाॅ. दादू लाल जोशी जी लिखते हैं - ’’हिन्दी साहित्य में बदलाव की दिशा 1960 ई. के बाद ही दिखायी देने लगती है। 1965 ई. तक पहुँचते-पहुँचते स्त्री-विमर्श का यह बदला हुआ रूप पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। समकालीन स्त्री-विमर्श के प्रारंभिक वर्षों (1960-65) के बीच हमारे देश में व्यक्ति की जीवन-स्थितियाँ बहुत तेजी से बदलीं।’’(p-36) डाॅ. दादू लाल जोशी ने पूर्व में कहा है - ’1975 के पहले तक ऐसे कोई विचार या सिद्धांत सजग, सचेत विमर्श की तरह लगभग न विकसित हुए, न लिखे गये’ और अब वे कहते हैं - ’1965 ई. तक पहुँचते-पहुँचते स्त्री-विमर्श का यह बदला हुआ रूप पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।’ तिथियों में इस तरह की हेराफेरी से मेरे जैसे मूढ़मति पाठक की बुद्धि चकराने लगती है।
प्रथम अध्याय में ’समकालीन बोध’ को समझाने का प्रयास किया गया है। बहुत सारे विद्वानों के अभिमत दिये गये हैं। डाॅ. दादू लाल जोशी ने समकाीन बोध पर अपना मंतव्य तो पहले ही दे दिया है। डाॅ. दादू लाल जोशी के अनुसार - ’’जब हम समकालीन या समकालीनता की बात करते हैं, तो उसमें हम युग विशेष की प्रत्येक प्रकार की स्थितियों अर्थात् - समूचे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन का समावेश कर लेते हैं। इसी को ’युग-परिवेश’, ’युग-परिदृश्य’ या ’युग-परिप्रेक्ष्य’ भी कहते हैं।’’ इसी पृष्ठ पर वे आगे लिखते हैं - ’’यह मान्य है कि अपने समय की प्रवृत्तियों को पहचानने, व्यक्ति और समाज की विषम स्थितियों को समझने और गहरी संवेदनशीलता के साथ युग-चेतना से संपृक्त होने का पर्याय समकालीनता है।’’(p-xix)
समकालीन बोध पर प्रथम अध्याय में विभिन्न विद्वानों की कई तरह की और भी परिभाषाएँ दी गई हैं। किसी विषय पर अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग परिभाषाएँ स्वाभाविक हो सकती हैं परन्तु एक ही विषय को एक ही विद्वान के द्वारा अलग-अलग ढंग से परिभाषित करना, जैसा कि ऊपर उद्धृत किया गया है, क्या है, क्यों है, मुझे समझ में नहीं आया। डाॅ. दादू लाल जोशी करे भी तो क्या, साहित्य सहित राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और भी शास्त्रों की परंपरा ही यही है। किसी विषय पर हर व्यक्ति की समझ, सोच उनके विचार और दृष्टिकोण अलग-अलग हों तो या तो यह विषय की व्यापकता के कारण होता होगा या उस विषय में उलझाव, अस्पष्टता आदि कारणो से अथवा विद्वानों की अतिबौद्धिकता ज्ञापित करने की लालसा की वजह से। समकालीन बोध और समकालीनता पर इतनी सारी परिभाषाएँ पढ़कर भी मैं यह समझ नहीं पाया कि एक ही कवि की कुछ कविताएँ छायावादी और कुछ कविताएँ समकालीन कैसे हो जाती हैं और पिछले युग की एक ही समय के कवियों में किसी कवि की रचनाओं में समकालीन प्रवृत्तियाँ कहाँ से आ जाती हैं। यह भी समझ में नहीं आती कि समकालीन प्रवृत्तियाँ वर्तमान की सीमाओं का अतिक्रमण करके बाल्मीकि तक कैसे पहुँच
जाती हैं। फैराडे ने डायनमो का सिद्धांत दिया - ’जब कोई कुण्डली और चुम्बक एक दूसरे के सापेक्ष गति करते हैं तो कुण्डली में विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है।’ फैराडे के बाद अनेक वैज्ञानिक आते रहे हैं, परन्तु डायनमो के सिद्धांत की इससे भिन्न और कोई परिभाषा नहीं बन पाई।
डाॅ. दादू लाल जोशी ने स्त्री-विमर्श को परिभाषित करते हुए लिखा है - ’’समकालीन स्त्री-विमर्श अपने समय की जीवन्त समस्याओं की समझ और सक्रिय हिस्सेदारी का जागरूक विमर्श है, जो सामाजिक संरचना, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था के उस सांचे को तोड़ने का सार्थक प्रयत्न करता है, जिसमें जनतंत्र की दुहाई तो खूब दी जाती है, लेकिन सारी सुविधाएँ पुरूष वर्गोन्मुखी होती हैं। हम कह सकते हैं कि समकालीन स्त्री-विमर्श, यथास्थिति का विरोध करता हुआ असंगतियो के स्पष्ट उद्घाटन द्वारा, अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की जनतांत्रिक पद्धति को सही मायने में उभारने और सँवारने वाला विमर्श है। यह यथास्थिति का केवल भाण्डाफोड़ ही नहीं करता बल्कि उसे बदलने में सक्रिय साझेदारी भी निभाता है। जनमानस को बुनियादी हक की प्राप्ति के लिए प्रबुद्ध करता है और अपने तार्किक, ठोस विश्लेषणों द्वारा हमें झकझोरता है, ताकि हम सब वैषम्यमूलक, पुरूषवादी सभ्यता की शोषक व्यवस्था से जूझ सकें। इसे ही समीक्षकों ने समकालीन स्त्री-विमर्श की चेतना स्वीकार किया है।’’(p-xx)
डाॅ. दादू लाल जोशी की स्त्री-विमर्श पर दूसरी परिभाषा इस प्रकार है - ’’एक छोर पर अमूर्तन की तरह एक व्यापक अस्तित्व रखने के बावजूद अपने ठोस और वास्तविक अवतार में भारतीयता भी कोई एक भारतीयता नहीं है। इसी तरह अनेक पितृसत्ताएँ भी हैं और अनेक स्त्री-विमर्श भी। अन्य सभी विमर्शों की
तरह स्त्री-विमर्श भी इसी अर्थ में एक सिरे पर भिन्नताओं का समारोह है।’’(p-230)
प्रथम और तृतीय अध्याय में स्त्री-विमर्श की, अलग-अलग विद्वानों की और भी परिभाषाएँ दी गई हैं। इतनी सारी परिभाषाओं को पढ़कर मुझे तो कई बार बेहोशी आने लगी थी। प्रथम अध्याय में ही पृष्ठ 36 से लेकर पृष्ठ 47 तक स्त्री-विमर्श के मानदण्ड को भलीभांति और विस्तार से समझाया गया है। अध्याय 3, स्त्री-विमर्श: परिभाषा और परिव्याप्ति में स्त्री-विमर्श की और भी परिभाषाएँ दी गई हैं। इसी अध्याय के पृष्ठ 101 से 103 तक स्त्री-विमर्श की अठारह मूल प्रवृत्तियों का उल्लेख भी है। परंतु स्त्री-विमर्श के इतिहास को न तो स्पष्टता पूर्वक समझाया गया है और न ही इसका काल विभाजन किया गया है। इन्हीं पृष्ठों में (पृ. 45-46 में) शापेनहावर के स्त्री विषयक विचार अंग्रेजी में दिया गया है। अंग्रेजी भाषा में उद्धृत इस विचार का हिन्दी अनुवाद भी फुट नोट के रूप में दिया जाना आवश्यक था, क्योंकि शायद परंपरा इसी प्रकार की हैं।
डाॅ. जोशी के मतानुसार 1965 ई. अथवा 1975 ई. के बाद समकालीन स्त्री-विमर्श की परंपरा निर्मित होती है। परन्तु इसके पूर्व भी हिन्दी साहित्य में पौराणिक स्त्री पात्रों - यशोधरा, उर्मिला, ऊर्वशी पर काव्य लिखे गये; श्रद्धा और इड़ा; महाभारत में कुंती और द्रौपदी को लेकर स्त्रियों की समस्याओं पर चर्चा की गई हैं। रामायण में सीता हैं। रीतिकाल में तो स्त्रियाँ साहित्य के केन्द्र में ही रही हैं। वैदिक साहित्य में भी कहीं न कहीं स्त्रियाँ होंगी ही। नाच्यौ बहुत गोपाल भी है। इन कालखण्डों और इन विमर्शों को परिभाषित करना क्या आवश्यक नहीं था। डाॅ. दादू लाल जोशी ने अपने इस शोध ग्रन्थ में इनमें से कुछ को, अध्याय 3, स्त्री-विमर्श: परिभाषा और परिव्याप्ति के प्रारंभिक पृष्ठों में स्पर्श जरूर किया है, परन्तु स्त्री-विमर्श का इतिहास बताने का कोई स्पष्ट प्रयास नहीं किया है। 1965 ई. अथवा 1975 ई. के पहले यदि किसी प्रकार का स्त्री-विमर्श नहीं था तो इसकी स्पष्ट घोषण होनी चाहिए और यदि था तो उसका विधिवत उल्लेख और नामकरण।
इस शोध प्रबंध में दो बेहद मूल्यवान सामग्रियाँ हैं। इनमें पहला है - अध्याय दो में डाॅ. विनय कुमार पाठक का जीवन परिचय और रचनाधर्मिता। डाॅ. विनय कुमार पाठक मेरे आदर्श ही नहीं, प्रेरक, मार्गदर्शक और आशीर्वादक भी हैं; और हर व्यक्ति अपने आदर्श के विषय में जानना चाहता है। मेरे जैसे और भी होंगे जिन्हें यह अध्याय उपयोगी लगेगा। यहाँ पर डाॅ. दादू लाल जोशी ने बेहद पुण्य का काम किया है। उन्हें साधुवाद।
इस शोध प्रबंध में दूसरी बेहद मूल्यवान सामग्री हैं इस ग्रन्थ के विभिन्न पृष्ठों में बिखरी हुई विभिन्न कवियों की स्त्री विषयक कविताएँ। लेकिन खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि इन कविताओं के संदर्भों-भावार्थों को न तो उसके पूर्ववर्ती पँक्तियों के साथ जोड़ा गया है और न ही पश्चातवर्ती पँक्तियों के साथ। मेरा मानना है कि केवल इन्हीं कविताओं को लेकर समकालीन स्त्री-विमर्श की बेहद उपयोगी और सर्वथा मौलिक सामग्री दी जा सकती है। इस ग्रन्थ के विभिन्न पृष्ठों में बिखरी हुई विभिन्न कवयित्रियोें-कवियों की स्त्री विषयक ये कविताएँ निहायत ही संग्रहणीय हैं।
इस ग्रंथ के चैथे अध्याय: स्त्री-विमर्श और परिवेश, में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश की चर्चा की गई है। इस अध्याय में समकालीन स्त्री-विमर्श और डाॅ. विनय कुमार पाठक के प्रदेय, की न्यून उपस्थिति से यह अध्याय मुझे बेहद बोझिल लगा। यह अध्याय इन विषयों के विद्यार्थियों के लिए जरूर उपयोगी साबित हो सकता है।
ग्रंथ के पाँचवे अध्याय, ’समकालीन स्त्री-विमर्श: डाॅ. विनय कुमार पाठक का प्रदेय’, में आदरणीय डाॅ. पाठक के अवदानों को क्रमवार और तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस अध्याय से हमें डाॅ. पाठक के जीवन-उद्देश्यों और उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक सूक्ष्मता से समझने का अवसर मिलता है। यह अध्याय इस ग्रंथ की आत्मा की तरह है।
मुझे शोध और शोधकार्य की प्रक्रियाओं के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है। शोध ग्रंथ भी नहीं पढ़ा हूँ। बहुत पहले मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी प्राध्यापक का मुक्तिबोध पर आधारित शोध ग्रंथ पढ़ा था। प्रो. (डाॅ.)जगदीश चन्द्र झा की ’आधुनिक यूरोप’ भी पढ़ा हूँ। अभी-अभी डाॅ. यशेश्वरी ध्रुव की ’छत्तीसगढ़ी कहानियों में सांस्कृतिक चेतना’ पढ़ा है और अब डाॅ. जोशी जी की यह कृति। अंतिम दो कृतियों में समाहित सामग्रियों में मैंने संदर्शित ग्रंथों से उद्धृत वाक्यों को गिनने का प्रयास किया जो मात्रा में 60 प्रतिशत से भी अधिक लगीं। इस विषय पर मैंने कुछ विद्वानों से चर्चा किया। पता चला कि शोध कार्य की यही मान्य प्रक्रिया है, ऐसा नहीं करने से शोध ग्रंथ मान्य नहीं होते हैं।
डाॅ. जोशी जी के इस ग्रंथ के कुछ ही पृष्ठों में प्रूफ की गलतियाँ रह गई हैं जो नगण्य हैं। फिलहाल व्याकरण और भाषा के निकशों को ध्यान में रखते हुए इन वाक्यों पर गौर किया जा सकता है -
’’जब हम समकालीन या समकालीनता की बात करते हैं, तो उसमें हम युग विशेष की प्रत्येक प्रकार की स्थितियों अर्थात् - समूचे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन का समावेश कर लेते हैं। इसी को ’युग-परिवेश’, ’युग-परिदृश्य’ या ’युग-परिप्रेक्ष्य’ भी कहते हैं।’’(p-xix) तथा -
’’....युग विशेष की प्रत्येक प्रकार की स्थितियों अर्थात् - सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक के समावेश की बात कही गयी है।’’(p- xxv)
धन्यवाद।
कुबेर
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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)