डॉ. नथमल झँवर की पांच कवितायें



डॉ. नथमल झँवर जी मेरे गृह नगर सिमगा में निवास करते हैं किन्‍तु उनकी रचनायें संपूर्ण हिन्‍दी विश्‍व में लगातार छपती है। झँवर जी मूलत: कवि हैं किन्‍तु वे कहानियॉं एवं व्‍यंग्‍य भी लिखते हैं। उनकी कहानियॉं विभिन्‍न राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। उनकी दो कवितायें इस ब्‍लॉग में यहॉं प्रकाशित हैं, उनके कविताओं का एक संग्रह 'एक गीत तुम्‍हारे नाम' ब्‍लॉग प्‍लेटफार्म में यहॉं संग्रहित है। प्रस्‍तुत है उनकी पॉंच कवितायें -

1.जाने क्यों डरते हैं

कैसी दुनिया है मनुष्य होने का दम भरते हैं
बेटी के पैदा होने से, जाने क्यों डरते हैं
बेटी के होने पर क्यों है शोक मनाया जाता
नव कन्या को देख, बाप का चेहरा क्यों मुरझाता
बेटी की किलकारी सुन, क्यों दुखी हुआ जाता है
बेटी औ’ बेटे में अन्तर, समझ नहीं आता है
कैसी दुनिया है ये कैसा भेद किया करते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है
बेटे को अपना, बेटी को कहें पराया धन है
समझ नही आता मानव का कैसा ये चिन्तन है
उसी कोख में बेटा - बेटी दोनों को पाला है
बेटी के पैदा होते मुख में लगता ताला है
नन्ही गुड़िया देख, हमारे आँसू क्यों झरते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते हैं
अरे । आज वह जन्मी है, कल लेगी वही बिदाई
बेटे के रहने से, अब तक कौन हुआ सुखदाई
बेटे अपने माता के आँचल में जब सोती है
लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि तब उसी समय होती है
स्वर्ग तभी बन जाता घर, औ’ सारे दुख हरते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यो डरते हैं
देख दुखी माँ - बाप, कलेजा उसका मुँह आता है
जीवनभर रखती है केवल, बेटी ही नाता है
बेटा तो पत्नि को ले, अब अपना किया बसेरा
वही पराया आज हुआ, जिसको समझा था मेरा
तन्हाई में मात-पिताके, आँसू जब झरते हैं
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है
इसे फरेब कहें या कह दें दुनिया की सच्चाई
देख समझकर भी जाने क्यों समझ नही है आई
बेटी की महिमा को अबतक समझ नही हम पाए
जिस सपूत को जाया, हो जाते हैं वही पराए
फिर भी बेटा- बेटा कह, उस पर ही हम मरते है
बेटा के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते हैं
जहाँ झूलती बेटी पलना, वह घर वृन्दावन है
जिस घर में बेटी पलती, जाने नंदन कानन है
बेटी ही राधा, कान्हा को आना ही पड़ता है
उस घर में ही प्राण समझ लें, बाकी सब जड़ता है
उस निवास में केशव हरदम वास किया करते है
बेटी के पैदा होने पर, जाने क्यों डरते है

2.कर्तव्य बोध

ओ माँ !
याद है मुझे
आज भी वह दिन
जब तुम मुझे
हाथ पकड़कर
ले जाती थीं घुमाने
नींद नहीं आने पर
देती थी थपकियाँ
सुनाती थीं
राजा और रानी की
कहानियाँ
ओ माँ !
याद है मुझे
आज भी वह बचपन
जब तुम मुझे
बिठा लेती थीं
अपने कंधो पर
खेलती थीं
मेरे साथ
आँख - मिचौनी
हर पल
हर क्षण
केवल मेरा ही
ध्यान रखती थीं
अब, जब -
मुझे ध्यान रखने का
वक्त आया
तब तुम
विदा हो गई
इस संसार से
हमेशा - हमेशा के लिये
ओ माँ !
कैसे उऋण कर पाऊँगा
अपने आपको
कैसे समझा पाऊँगा
अपनी आत्मा को
कुछ तो बता दो
ओ माँ !

3.चाह

माँगने से
क्या कभी मिला है ?
चाहने से
क्या कभी हुआ है?
क्यों माँगने हो किसी से सहयोग
क्यों पसारते हो किसी के आगे हाथ
इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं
जो निःस्वार्थ किसी को सहयोग करे
बिना कारण
कोई तक करे
इस बात को गाँठ बाँध लो
तुम्हें चलना है -
एकाकी
अकेले
तुम अपने आप में सक्षम हो !
मानते हैं
चाह मनुष्य का स्वभाव है
लेकिन वह भी मर्यादित हो
लक्ष्मण रेखा है
उसकी भी
क्यों पालते हो ऐसी चाह?
जिसकी पूर्ति हो न सके
चाहो
लेकिन अपने आपको
तौलकर !

4.व्यथा बीज की

लहलहाता हुआ धान का बीज
सोचता है मन ही मन
कुछ दिनों बाद मैं पक जाऊंगा
बालियां ऊग आयेंगी मुझमें
और तब
बेच दिया जाऊंगा, किसी
मंडी में या मिल में
वहाँ बदल जायेगा
मेरा स्वरूप
नहीं पहचान पायेगा कोई
और फिर
बिछुड़ भी तो जाऊँगा
उन हाथों से
निहारा रात - दिन
बिछोह का दुःख
सता रहा था उस बीज को
दुनिया की यही तो रीति है
जिनने समर्पित कर दिया
अपना सारा जीवन
निःसवार्थ भाव से
हमारी, सिर्फ हमारी खातिर
उन्हें ही
अलग कर देते है
छोड़ देते है हम उन्हें -
उनके भाग्य पर,
कितने निष्ठुर हैं हम
कभी झाँककर देखा है हमने
अपने अंदर ?
सहा है हमने कभी
किसी पीड़ा को ?
विलग होने की पीड़ा ?
बंधुवर !
विछोह का दुःख
उस त्यागी आत्मा को होती है
हम को नहीं
काश!
हमें भी उसकी
अनुभूति हो पाती
लेकिन ऐसा नहीं होता
नहीं होता ऐसा
कितने स्वार्थी हैं हम
निर्मोही ! निर्मम !!
तब फिर
कहाँ शेष हैं हममें मानवता
आदर्श, बडप्पन ?
कहाँ शेष है ? कहाँ शेष है ??

5. डूबता कोई सितारा

अब अमावस रात जैसा
हो गया है मन हमारा
क्षितिज के उस पार
जैसे डूबता कोई सितारा
नयन कोरों से छिले हैं
आँसुओं के पाँव जैसे
और पलाकों में न जाने
आ गया ठहराव कैसे

जिंदगी की नाव को
मिलता नहीं कोई किनारा
छिप गया है आज कोई
बादलों में चाँद जैसे
नयन से ओझल हुए हैं
तब करूं फरियाद कैसे
शुष्‍क है वह मन
जहा पर थी अलौकिक प्रेम धारा

दिवस सूना रात सुनी
हो गई है भार जैसे
खुशनुमा यह जिंदगी अब
हो गई उधार जैसे
सोचता हूँ आज तक
यह जिंगदी कैसे गुजारा

डॉ नथमल झँवर सिमगा
09479107245

2 टिप्‍पणियां:

  1. खुशनुमा जिन्दगी का उधार हो जाना , बहुत खूब लिखा है । झवँर जी आपकी कविता मन को कुछ सोचने पर
    विवश क्र देती है । भाव और भाषा , मणि कांचन संयोग है ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी कवितायेँ.

    जवाब देंहटाएं

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