कहानी : नदी, मछली और वह (Kahani Vinod Sao)



विनोद साव

हम सबने कार से उतरकर जमीन पर पांव धरा तो पैरों को बड़ा सुकुन मिला और इसलिए मन को भी। लम्बी यात्रा के बाद जब कभी भी हम धरती पर पांव धरते हैं एकदम हल्के हो जाते हैं। सारी थकान मिट जाती है। जैसे खेल थककर आए बच्चे को मां की गोद मिल गई हो। मातृत्व का यह एहसास शायद उन्हें और अधिक होता है जिनकी मां असमय छिन गई होती हैं। मुझे हो रहा था।

`आइये.. जूते उतार लीजिए और पांव धो लीजिए पहले।` उस नारियल बेचने वाले युवक ने कहा था जैसे घर आए पहुने को कोई कहता हो।

`संगम किस तरफ है?` मैंने उतावलेपन से पूछा था।

`इस तरफ।` उसने अपनी बांयीं ओर ईशारा किया था।

`दूर है ?`

नहीं.. बस दो मिनट का रास्ता है?`

हम मंदिरों को छोड़कर नदी की ओर आ गए थे। मंदिर दर्शन की आस से कहीं ज्यादा नदी की प्यास थी। यह प्यास नदी के जल की नहीं थी बल्कि नदी के दर्शन की थी। ऐसा अक्सर लगता है कि इन मंदिरों का अस्तित्व तो नदियों के कारण है। अगर ये नदियां नहीं होतीं तो मंदिर भी नहीं होते। न कोई मेला यहां भरता न संस्कृति की कोई विरासत होती।

नदी के किनारे एक कतार में खड़े पेड़ों को देखकर लगा कि जैसे वे हमारी प्रतीक्षा में खड़े हों। वे अक्सर किसी साधक की मुद्रा में खड़े मिलते हैं। एक ही जगह खड़े होने की किसी दीर्घ साधना में लीन। जैसे उन्हें पहले से ही मालूम हो नदी से मिलने आने वालों की खबर। और केवल उन्हें ही मालूम रहता है कि किस नदी में कितना पानी बह चुका है।


हम झुरमुटों के बीच पगडंडी पर चल रहे थे। परिवार जब कभी घर से बाहर होता है तो भी अपने मुखिया से निर्देशित होता है। घर के भीतर का वरिष्ठता क्रम अक्सर बाहर भी बना होता है। सब मेरी ओर देखते रहते हैं कि मैं कब क्या निर्देश करता हूं जबकि मेरा ध्यान अपने जैविकीय परिवार से दूर नैसर्गिक परिवार की ओर है - जहां नदी, घाट, जंगल, पेड़, फूल और उनमें विचरण करने वाले जीव जन्तु हैं। मैं तेज कदम आगे बढ़ाता हूं।

`आपको तो हमेशा जल्दी रहती है।` यह चंदा की आवाज थी चिरपरिचित गृहणियों की तरह। उसके पीछे आभा थी और आभा के पीछे संतू था। आभा के पीछे संतू को ही होना था जिसने उसके पीछे फेरे लिए थे। विनी आगे दौड़ी जा रही थी किसी निर्मल और सुन्दर नदी की की तरह।

सदियों से खड़े पेड़ों की भुजंगाकार शाखाएं एक दूसरे से गहरे आलिंगन में आबद्ध थींं। उनके आलिंगन के बीच जो थोड़ी जगह बन गई थी वहां से आसमानी रंग झिलमिला रहा था। यह झिलमिलाहट नीचे थी। उपर सपाट आसमानी और नीचे झिलमिल।


हम पेड़ों के झुण्ड को पार कर किनारे पर आ गए थे। इस पार अपार जलराशि थी दो नदियों के संगम से। पेड़ों के बीच से जो झिलमिल आसमानी रंग दिख रहा था वह इस जलराशि का था। मैंने सूखी मिट्टी का हिस्सा जान अपना पैर एक किनारे पर रखा था जिसमें पैर जा धंसा था।

`आपको तो हड़बडी रहती है। बूढ़े हो गए हैं तब भी।` यह चंदा की दूसरी बार आवाज

थी जिसमें उसके चिरपरिचित चिंतामय वाक्य में एक और वाक्य जुड़ गया था।

नदी के उस पार डेरा था। मनुष्य और उसकी जिजीविषा का डेरा। नदी का वह पाट उंचा था किसी टीले के माफिक। टीले पर बसा डेरा था किसी पोट्रेट की तरह। जैसे किसी चित्रकार की कला के पात्र जीवन्त हो उठे हों और वे अपनी डोंगी में सवार होने के लिए जाल लेकर निकल पड़े हों ढलान की ओर।

`नाव तो किसी कागज की किश्ती की तरह दिख रही है।` यह विनी की भावभीनी आवाज थी। विनी ने उन दिनों को याद किया जब उसने आंगन के बरसाती पानी में कागज की नाव बनाकर छोड़ा था। नाव करीब आ रही थी किसी डिजीटल कैमरे पर क्रमश: इनलार्ज होते चित्र की तरह। नाव से आए कुछ लोगों ने जमीन पर पांव धरा तो लगा कि कैमरे में समाए हुए लोग बाहर आ गए हैंे।


`एक फोटो हो जाए।` संतू ने नाव देख कैमरा उठाकर आभा, चंदा और विनी से कहा `तुम लोगों के चित्र मैं अखबारों में छपवाउंगा। नदी, नाव और नारी के चित्रों की आजकल मीडिया में बहुत मांग है।`

`पता नहीं..नदी में ऐसा क्या है! कि इसे देखते हुए आंखें थकती नहीं। मन अघाता नहीं है।` मन भीतर ही भीतर बोल रहा था `बस देखते रहो जैसे एक बच्चा अपनी ममतामयी मां को देखता है। कोई नवजवान अपनी लावण्यमयी प्रेयसी को देखता है। कोई बूढ़ा इन्सान अपनी किलकारी भरती बेटी को देखता है। हर किसी को अपनी अलग छटा दिखाती है नदी.. एक सम्पूर्ण स्त्री की तरह। कभी स्त्री की तरह समर्पण..तो कभी स्त्री की तरह महामाया `शक्ति रुपेण संस्थिता:`

`बीच में कितना गहरा है?` विनी ने पूछा।

`तीन बांस।` नाव किनारे लगाते लड़के ने बताया।

एक सामुदायिक भवन की तख्ती पर लिखा था `नहाने धोने का काम घाट पर करें। खतरे से बचें।`

`घाट कहां है?` आभा ने पूछा।

`थोडा आगे।` नाव को वापस ले जाते लड़कों ने जवाब दिया। वे लौट रहे थे अपने डेरे की ओर।

`तुम्हारे डेरे का कुछ नाम है?` चन्दा ने पूछा जो अक्सर कम बोलती है। उन लड़कों को देखकर शायद उसे पिछले बरस खोए अपने बेटे की याद आई।


`हां.. मांझी डेरा। लखना गांव का।` लड़के ने चप्पू चलाकर किनारे को छोड़ते हुए कहा था।

वे दिन में कई बार आते हैं इस पार ताकि फिर लौट सकें अपने डेरे की ओर। उस पार डेरा और बीच में दो नदियों के संगम की अथाह जलराशि। जिसको पार करना उनके रोजमर्रा का काम है। और इन्हीं रोजमर्रा के कामों के बीच है उनके जीवन की आशा।

`बोलो दुर्गा मैया की.. जय!` दूर कोई कोलाहल सुनाई दिया था। डेरे के नीचे रहने वालों का समूह दिखा था। वह विसर्जन का दृश्य था। मैने कहा `चाहे कुछ भी हो प्रकृति की सुन्दरता तभी तक है जब तक उसके केन्द्र में मनुष्य है।`

`हां..मनुष्य के बिना इन सबों का क्या मोल?` यह संतू की धीमी आवाज थी, जो बहुत कम अपनी असहमति व्यक्त करता है।

`देखो मछलियां!` विनी ने चहकते हुए दिखलाया। घाट के नीचे उसके पांव पानी में थोड़े डूबे हुए थे `मछलियों से पानी में गुदगुदी हो रही है।` उसका कमसीन चेहरा विभोर हो उठा था। हम सबने उसकी ओर देखा मानों नदी, पानी, मछली और वह सब एक हो उठे हों।

विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ ४९१००१

मो. ९३०११४८६२६

4 टिप्‍पणियां:

  1. विनोद जी की कहानी पढ़ना अति आनन्द दायक रहा. इस प्रस्तुति के लिये आपका आभार.

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  2. बहुत ही अच्छी कहानी ।
    आगे भी ऐसी कहानियो का इंतजार रहेगा।

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  3. कुछ क्षणो के लिये लगा की ,मै महानदी के किनारे पहुंच गया हूँ !! बहूत अच्छा लगा पढ्कर""

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