२६ मार्च को पीथमपुर में शिव बारात के अवसर पर,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
छत्तीसगढ़ प्रांत में भी ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग सदृश्य काल कालेश्वर महादेव के मंदिर हैं जिनके दर्शन, पूजन और अभिशेक आदि करने से सब पापों का नाश हो जाता है। जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से ११ कि.मी. और दक्षिण पूर्वी मध्य रेल्वे के चांपा जंक्शन से मात्र ८ कि.मी. की दूरी पर हसदेव नदी के दक्षिणी तट पर स्थित पीथमपुर का काले वरनाथ भी एक है। जांजगीर के कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल ने ''शिवरीनारायण और सात देवालय'' में पीथमपुर को पौराणिक नगर माना है। प्रचलित किंवदंति को आधार मानकर उन्होंने लिखा है कि पौराणिक काल में धर्म वंश के राजा अंगराज के दुराचारी पुत्र राजा बेन प्रजा के उग्र संघर्श में भागते हुए यहां आये और अंत में मारे गए। चंूकि राजा अंगराज बहुत ही सहिश्णु, दयालु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे अत: उनके पवित्र वंश की रक्षा करने के लिए उनके दुराचारी पुत्र राजा बेन के मृत भारीर की ऋशि-मुनियों ने इसी स्थान पर मंथन किया। पहले उसकी जांघ से कुरूप बौने पुरूश का जन्म हुआ। बाद में भुजाओं के मंथन से नर-नारी का एक जोड़ा निकला जिन्हें पृथु और अर्चि नाम दिया गया। ऋशि-मुनियों ने पृथु और अर्चि को पति-पत्नी के रूप में मान्यता देकर विदा किया। इधर बौने कुरूप पुरूश महादेव की तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग की स्थापना और पूजा-अर्चना का विधान बताकर अंतर्ध्यान हो गये। बौने कुरूप पुरूश ने जिस काले वर पार्थिव लिग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करके मुक्ति पायी थी वह काल के गर्त में समाकर अदृ य हो गया था। वही कालान्तर में हीरासाय तेली को द र्शन देकर उन्हें न केवल पेट रोग से मुक्त किया बल्कि उसके वंशबेल को भी बढ़ाया। श्री तुलसीराम पटेल द्वारा सन १९५४ में प्रकाशित श्री कालेश्वर महात्म्य में हीरासाय के वंश का वर्णन हैं-
तेहिके पुत्र पांच हो भयऊ।
शिव सेवा में मन चित दियेऊ।।
प्रथम पुत्र टिकाराम पाये।
बोधसाय भागवत, सखाराम अरु बुद्धू कहाये।।
सो शिवसेवा में अति मन दिन्हा।
यात्रीगण को शिक्षा दिन्हा।।
यही विघि शिक्षा देते आवत।
सकल वंश शिवभक्त कहावत।।
कहना न होगा हीरासाय का पूरा वंश शिवभक्त हुआ और मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार पाया। श्री प्यारेलाल गुप्त ने भी 'प्राचीन छत्तीसगढ़' में हीरासाय को पीथमपुर के शिव मंदिर में पूजा-अर्चना कर पेट रोग से मुक्त होना बताया हैं। उन्होंने खरियार (उड़ीसा) के राजा को भी पेट रोग से मुक्त करने के लिए पीथमपुर यात्रा करना बताया हैं। बिलासपर वैभव और बिलासपुर जिला गजेटियर में भी इसका उल्लेख हैं। लेकिन जनश्रुति यह है कि पीथमपुर के कालेश्वरनाथ (अपभ्रंश कले वरनाथ) की फाल्गुन पूर्णिमा को पूजा-अर्चना और अभिशेक करने से वंश की अवश्य वृद़्धि होती है। खरियार (उड़ीसा) के जिस जमींदार को पेट रोग से मुक्ति पाने के लिए पीथमपुर की यात्रा करना बताया गया है वे वास्तव में अपने वंश की वृद्धि के लिए यहां आये थे। खरियार के युवराज और उड़ीसा के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे बताया कि उनके दादा राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने अपने वंश की वृद्धि के लिए पीथमपुर गए थे। समय आने पर काले वरनाथ की कृपा से उनके दो पुत्र क्रमश: आरतातनदेव और विजयभैरवदेव तथा दो पुत्री कनक मंजरी देवी और भाोभज्ञा मंजरी देवी का जन्म हुआ। वंश वृद्धि होने पर उन्होंने पीथमपुर में एक मंदिर का निर्माण कराया लेकिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना के पूर्व ३६ वर्श की अल्पायु में सन् १९१२ में उनका स्वर्गवास हो गया। बाद में मंदिर ट्रस्ट द्वारा उस मंदिर में गौरी (पार्वती) जी की मूर्ति स्थापित करायी गयी।
यहां एक किंवदंति और प्रचलित है जिसके अनुसार एक बार नागा साधु के आशीर्वाद से कुलीन परिवार की एक पुत्रवधू को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस घटना को जानकर अगले वर्श अनेक महिलाएं पुत्ररत्न की लालसा लिए यहां आई जिससे नागा साधुओं को बहुत परेशानी हुई और उनकी संख्या धीरे धीरे कम होने लगी। कदाचित् इसी कारण नागा साधुओं की संख्या कम हो गयी है। लेकिन यह सत्य है कि आज भी अनेक दंपत्ति पुत्र कामना लिए यहां आती हैं और मनोकामना पूरी होने पर अगले वर्श जमीन पर लोट मारते द र्शन करने यहां जाते हैं। पीथमपुर के काल काले वरनाथ की लीला अपरम्पार है। छत्तीसगढ़ के भारतेन्दु कालीन कवि श्री वरणत सिंह चौहान ने 'शिवरीनारायण महात्म्य और पंचकोसी यात्रा' नामक पुस्तक में पीथमपुर की महत्ता का बखान किया है :-
हसदो नदी के तीर में, कले वरनाथ भगवान।
दर्शन तिनको जो करे, पावही पद निर्वाण।।
फाल्गुन मास की पूर्णिमा, होवत तहं स्नान।
काशी समान फल पावही, गावत वेद पुराण।।
बारह मास के पूर्णिमा, जो कोई कर स्नान।
सो जैईहैं बैकुंठ को, कहे वरणत सिंह चौहान।।
पीथमपुर के कालेश्वरनाथ मंदिर की दीवार में लगे शिलालेख के अनुसार श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार कच्छ कुम्भारीआ ने इस मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदि २, संवत् १७५५ (सन् १६९८) को गोकुल धनजी मिस्त्री से कराया था। चांपा के पडित छविनाथ द्विवेदी ने सन् १८९७ में संस्कृत में ''कलि वर महात्म्य स्त्रोत्रम'' लिखकर प्रकाशित कराया था। इस ग्रंथ में उन्होंने काले वरनाथ का उद्भव चैत्र कृश्ण प्रतिपदा संवत् १९४० (अर्थात् सन् १८८३ ई.) को होना बताया है। मंदिर निर्माण संवत् १९४९ (सन् १८९२) में शुरू होकर संवत् १९५३ (सन् १८९६) में पूरा होने, इसी वर्श मूर्ति की प्रतिश्ठा हीरासाय तेली के हाथों कराये जाने तथा मेला लगने का उल्लेख है। इसी प्रकार पीथमपुर मठ के महंत स्वामी दयानंद भारती ने भी संस्कृत में ''पीथमपुर के श्री भांकर माहात्म्य'' लिखकर सन् १९५३ में प्रकाशित कराया था। ३६ भलोक में उन्होंने पीथमपुर के शिवजी को काल काले वर महादेव, पीथमपुर में चांपा के सनातन धर्म संस्कृत पाठशला की भाशखा खोले जाने, सन् १९५३ में ही तिलभांडे वर, काशी से चांदी के पंचमुखी शिवजी की मूर्ति बनवाकर लाने और उसी वर्श से पीथमपुर के मेले में शिवजी की शोभायात्रा निकलने की बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने पीथमपुर में मंदिर की व्यवस्था के लिए एक मठ की स्थापना तथा उसके ५० वर्शों में दस महंतों के नामों का उल्लेख इस माहात्म्य में किया है। इस माहात्म्य को लिखने की प्रेरणा उन्हें पंडित शिवशंकर रचित और सन् १९१४ में जबलपुर से प्रकाशित ''पीथमपुर माहात्म्य'' को पढ़कर मिली। जन आकांक्षाओं के अनुरूप उन्होंने महात्म्य को संस्कृत में लिखा। इसके १९ वें भलोक में उन्होंने लिखा है कि वि.सं. १९४५, फाल्गुन पूर्णमासी याने होली के दिन से इस भांकर देव स्थान पीथमपुर की ख्याति हुई। इसी प्रकार श्री तुलसीराम पटेल ने पीथमपुर : श्री कालेश्वर महात्म्य में लिखा है कि तीर्थ पुरोहित पंडित काशीप्रसाद पाठक पीथमपुर निवासी के प्रपिता पंडित रामनारायण पाठक ने संवत् १९४५ को हीरासाय तेली को शिवलिंग स्थापित कराया था।
तथ्य चाहे जो भी हो, मंदिर अति प्राचीन है और यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि जब श्री जगमाल गांगजी ठेकेदार ने संवत् १७५५ में मंदिर निर्माण कराया है तो अव य मूर्ति की स्थापना उसके पूर्व हो चुकी होगी। ...और किसी मंदिर को ध्वस्त होने के लिए १८५ वर्श का अंतराल पर्याप्त होता है। अत: यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं है कि १८५ वर्श बाद उसका पुन: उद्भव संवत् १९४० में हुआ हो और मंदिर का निर्माण कराया गया होगा जिसमें मंदिर के पूर्व में निर्माण कराने वाले शिलालेख को पुन: दीवार में जड़ दिया गया होगा।
पीथमपुर में काल काले वरनाथ मंदिर के निर्माण के साथ ही मेला लगना भाुरू हो गया था। प्रारंभ में यहां का मेला फाल्गुन पूर्णिमा से चैत्र पंचमी तक ही लगता था, आगे चलकर मेले का विस्तार हुआ और इंपीरियल गजेटियर के अनुसार १० दिन तक मेला लगने लगा। इस मेले में नागा साधु इलाहाबाद, बनारस, हरिद्वार, ऋशिकेश, नासिक, उज्जैन, अमरकंटक और नेपाल आदि अनेक स्थानों से आने लगे। उनकी उपस्थिति मेले को जीवंत बना देती थी। मेले में पंचमी के दिन काल काले वर महादेव के बारात की शोभायात्रा निकाली जाती थी। कदाचित् शिव बारात के इस भाोभायात्रा को देखकर ही तुलसी के जन्मांध कवि श्री नरसिंहदास ने उड़िया में शिवायन लिखा। शिवायन के अंत में छत्तीसगढ़ी में शिव बारात की कल्पना को साकार किया है।
आइगे बरात गांव तीर भोला बबा के,
देखे जाबे चला गियां संगी ल जगाव रे।
डारो टोपी मारो धोती पाय पायजामा कसि,
गल गलाबंद अंग कुरता लगाव रे।
हेरा पनही दौड़त बनही कहे नरसिंह दास,
एक बार हहा करि, सबे कहुं घिघियावा रे।
पहुंच गये सुक्खा भये देखि भूत प्रेत कहें,
नई बांचन दाई बबा प्रान ले भगावा रे।
कोऊ भूत चढ़े गदहा म, कोऊ कुकुर म चढ़े,
कोऊ कोलिहा म चढ़ि, चढ़ि आवत।
कोऊ बघुवा म चढ़ि, कोऊ बछुवा म चढ़ि,
कोऊ घुघुवा म चढ़ि, हांकत उड़ावत,
सर्र सर्र सांप करे, गर्र गर्र बाघ करे।
हांव हांव कुकुर करे, कोलिहा हुहुवावत,
कहे नरसिंहदास भांभू के बरात देखि।
इसी प्रकार पीथमपुर का मठ खरौद के समान भौव मठ था। खरौद के मठ के महंत गिरि गोस्वामी थे, उसी प्रकार पीथमपुर के इस भौव मठ के महंत भी गिरि गोस्वामी थे। पीथमपुर के आसपास खोखरा और धाराशिव आदि गांवों में गिरि गोस्वामियों का निवास था। खोखरा में गिरि गोस्वामी के शिव मंदिर के अवशेष हैं और धाराशिव उनकी मालगुजारी गांव है। इस मठ के पहले महंत श्री भांकर गिरि जी महाराज थे जो चार वर्ष तक इस मठ के महंत थे। उसके बाद श्री पुरूशोत्तम गिरि जी महाराज, श्री सोमवारपुरी जी महाराज, श्री लहरपुरी जी महाराज, श्री काशीपुरी जी महाराज, श्री शिवनारायण गिरि जी महाराज, श्री प्रागपुरि जी महाराज, स्वामी गिरिजानंद जी महाराज, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज, और स्वामी दयानंद जी महाराज इस मठ के महंत हुए। मठ के महंत तिलभांडे वर मठ काशी से संबंधित थे। स्वामी दयानंद भारती जी को पीथमपुर मठ की व्यवस्था के लिए तिलभांडे वर मठ काशी के महंत स्वामी अच्युतानंद जी महाराज ने २०.०२.१९५३ को भेजा था। स्वामी गिरिजानंदजी महाराज पीथमपुर मठ के आठवें महंत हुए। उन्होंने ही चांपा को मुख्यालय बनाकर चांपा में एक 'सनातन धर्म संस्कृत पाठशाला' की स्थापना सन् १९२३ में की थी। इस संस्कृत पाठशाला से अनेक विद्यार्थी पढ़कर उच्च शिक्षा के लिए काशी गये थे। आगे चलकर पीथमपुर में भी इस संस्कृत पाठशाला की एक भाशखा खोली गयी थी। हांलाकि पीथमपुर में संस्कृत पाठशाला अधिक वर्शो तक नहीं चल सकी; लेकिन उस काल में संस्कृत में बोलना, लिखना और पढ़ना गर्व की बात थी। उस समय रायगढ़ और शिवरीनारायण में भी संस्कृत पाठशाला थी। अफरीद के पंडित देवीधर दीवान ने संस्कृत भाशा में विषेश रूचि होने के कारण अफरीद में एक संस्कृत ग्रंथालय की स्थापना की थी। आज इस ग्रंथालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह है जिसके संरक्षण की आव यकता है। उल्लेखनीय है कि यहां के दीवान परिवार का पीथमपुर से गहरा संबंध रहा है।
सम्प्रति पीथमपुर का मंदिर अच्छी स्थिति में है। समय समय पर चांपा जमींदार द्वारा निर्माण कार्य कराये जाने का उल्लेख शिलालेख में है। रानी साहिबा उपमान कुंवरि द्वारा फ र्श में संगमरमर लगवाया गया है। पीथमपुर के आसपास के लोगों द्वारा और क्षेत्रीय समाजों के द्वारा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है। काले वरनाथ की महत्ता अपरम्पार है, तभी तो कवि तुलाराम गोपाल का मन गा उठता है :-
युगों युगों से चली आ रही यह पुनीत परिपाटी,
कलियुग में भी है प्रसिद्ध यह पीथमपुर की माटी।
जहां स्वप्न देकर भांकर जी पुर्नप्रकट हो आये,
यह मनुश्य का काम कि उससे पुरा लाभ उठाये।।
रचना, लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
संजीव जी बहुत अच्छी जानकारी दी है मगर बहुत बड़ा हो गया लेख...आप इसे दो भागों में कर सकते है ताकि पढ़ने में आसान हो जाये...साथ में दी तस्वीरें भी अच्छी लगी...
जवाब देंहटाएंलेख और तस्वीरें पसंद आई ।
जवाब देंहटाएंबस जरा लंबा लेख था। :)
मुझे शैशव काल से ही छत्तीसगढ़ की माटी से अति से असीम स्नेह हैं ,आपकी इस रचना ने उसमे
जवाब देंहटाएंवृद्धि कर दी है !! धन्यवाद
लंबा होने के बावजूद लेख और जानकारी पसंद आई, आभार.
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