विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
लोटा लेके मारवाड़ के किसी बीहड़ गांव से आये नाई और बाम्हन, मॉर्निंग वाक करते हुए लड़ रहे हैं, पता नहीं क्यों? हालाँकि साथ चलने वालों का कहना है कि वे लड़ नहीं रहे हैं, मज़ाक कर रहे हैं। जो भी हो, सुबह-सुबह गन्दी गालियों का मंगलाचरण चल रहा है, स्वस्ति वाचन चारो तरफ बिखर रहा है। 'तमंचा' को आश्चर्य हो रहा है कि यह वही पंडित है जिसका पांव छू कर सेठ लोग हजार का नोट चढ़ाते हैं। 30-32 साल पहले दोनों छत्तीसगढ़ आये, बमुस्कल चौंथी कक्षा पढ़े इन दोनों में से, एक ने टपरे में सेलून खोला और दूसरे ने झुग्गी में रहते हुए पंडिताई शुरू की। दोनों ने आधा-आधा दर्जन बच्चे पैदा किये जो उनके धंधे में लग गए। मारवाड़ी भाषा को सीढ़ी बनाकर इन्होंने अपने प्रान्त के प्रति वफ़ादारी रखने वालों से सहयोग (?) प्राप्त किया। नाइ कैंची चलाते हुए अक्षर को भूल गया और बाम्हन ने उसे साधा। दोनों का धंधा परवान चढ़ा और वे गाड़ी-बंगला टिका के नगर के श्रेष्ठि कोटि के जीव बन गए। दोनों आये थे तब भी उनकी परिस्थिति एक थी आज भी एक है, .. किन्तु कल मुफलिसी की दोस्ती थी, आज रहीसी का रंज। -तमंचा रायपुरी