आज पेट कुछ ख़राब था, रायपुर जाने के लिए सहयात्रियों का ख्याल रखते हुए, एसी सिटीबस के बजाय सामान्य सिटीबस में चढ़ा।
सामान्य सिटी बस दुर्ग से सीधे रायपुर के लिए नहीं है। दुर्ग वाली बस कुम्हारी तक जाती है, कुम्हारी में लगी गाड़ी रायपुर रेलवे स्टेशन के लिए मिल जाती है।
कुम्हारी से उतर कर, कवि सम्मेलनों में रामेश्वर वैष्णव जी की लोकप्रिय पैरोडी 'बस में कबके ठाढ़े हँव, बइठे बर जघा देदे..' गुनगुनाते हुये जब दूसरी सिटी बस में चढ़ा तो उसमे डबल सीट में एक सीट खाली था। मैं वहां जाकर बैठ गया। सीट में जगह कुछ कम लगी, क्योंकि बाजू सीट वाले यात्री ने खिड़की की ओर सीट में अपना बैग रख कर बैठा था। बाजू सीट में जो सहयात्री बैठे थे वे लगातार नान एंड्राइड फोन से किसी 'सर' से बात कर रहे थे।
मैंने ऊँगली के इशारे से उन्हें उस आफिस बैग को गोद में लेने को कहा। उन्होंने बैग सीट से नहीं हटाया, उल्टा थोड़ा और पसर कर बैठ गया अब लगभग आठ इंच की जगह मुझे मिल पाई। मुझे बैठने में दिक्कत होने लगी, मैंने कंडक्टर को बोला, कंडक्टर ने उनसे अनुरोध किया। वो मोबाईल पर बात करते हुए मुझे व मेरे कपडे को इस तरह देखा मानो मुझे तौल रहे हों (?)। बस जब स्पीड पकड़ती या ब्रेक मारती तब मैं सीट से नीचे गिरने को होता। मेरा मन हो रहा था कि, उसके मोबाईल को छीनकर बस के फर्श पर पटक दूँ और दो-चार झापड़ उसे दूँ। कुम्हारी से टाटीबंद तक सहता रहा, भारत माता स्कूल के सामने के स्पीड ब्रेकर में क्रोध अपान वायु के रूप में निकल गया। सहयात्री कसमसाया, खिड़की का शीशा-उसा चेक किया। अनजाने में हुए मिसफायर का असर देख कर मैंने दो-चार फायर और किया। अब सहयात्री ने फोन रख दिया, बैग अपने गोद में ले लिया और मुस्कुराते हुए कहा मुझे उतरना है। मैंने लजाने का भाव मुख पर लाते हुए, उसे निकलने दिया और खिड़की की ओर जाकर इत्मीनान से बैठ गया।
वह दरवाजे के पास जाकर खड़ा हो गया, स्टापेज आते गए वह नहीं उतरा। मैं घडी चौक में उतरा, वह दरवाजे के पास खड़ा बेहद सभ्रांत और कुलीन नज़र आ रहा था। .. और मैं जाहिल, गंवार ..?
-तमंचा रायपुरी
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