छत्तीसगढ़ के किसी भी गांव में चले जाईये वहां आपको सरकारी जमीन में "अवैध कब्जा" नजर आयेगा। गांव की सरकारी जमीन जिसे आम बोलचाल की भाषा में 'घास जमीन' कहा जाता है उसके अधिकांश हिस्से को गांव के लोगों ने कब्जा किया है। वे उस पर "मालिकाना हक" की तरह कृषि कार्य कर रहे हैं, गांव में "निस्तार भूमि" की कमी हो गई है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। गांव की सहज संरचना और पर्यावरणीय संतुलन इन सार्वजनिक/सरकारी भूमियों पर टिकी हुई थी जो अब समाप्त हो रही है।
छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता में गांवों के समुचित निस्तार के लिए "दखल रहित भूमि" को, "निस्तार पत्रक" में अभिलिखित किए जाने का उल्लेख है। गांव में मनुष्य की निस्तारी के लिए भूमि की प्रतिशतता भी निश्चित की गई है कि कितने जमीन पर चारागाह होगा, कितने जमीन पर गौठान, कितने में मरघट आदि सार्वजनिक उपयोग के लिए खाली स्थान होगा। यह भी प्रावधान है कि जब गांव में इस निस्तारी की भूमि अधिक हो और गांव के भूमिहीन कृषकों को इसकी आवश्यकता हो, तो राजस्व अधिनियम के तहत विकास खंड अधिकारी के द्वारा उन निस्तार भूमियों को 'काबिल काश्त' घोषित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया ग्राम पंचायत के सामान्य सभा में अनुमोदन के बाद तय किया जाता है कि सरकारी भूमि में जो व्यक्ति काबिज हैं उन्हें काश्तकार घोषित कर दिया जाए, "काबिल कास्त" शब्द का भावार्थ भी यही है।
मुस्लिम शासकों के द्वारा राजस्व भूमियों के प्रबंधन के लिए बनाए गए कानूनों का पालन आज तक हो रहा है। पूरे देश की राजस्व संहिता मुस्लिम शासकों के द्वारा बनाए गए नियम और पद्धतियों पर आधारित है। आप राजस्व अधिनियम में ज्यादातर उर्दू और फारसी के शब्द प्रयोग को स्पष्ट देख सकते हैं। नक्शा, खसरा, खतौनी, काबिल कास्त जैसे शब्द उर्दू और फारसी से ही आए हैं। गांव की भूमि के बेहतर प्रबंधन के लिए जो रजिस्टर संधारित किए जाते हैं वह भी मुस्लिम शासकों के समय से संधारित किए जा रहे हैं। ऐसा ही एक रजिस्टर है जिसे "वाजिब-उल-अर्ज" कहा जाता है, इसमें उन भूमियों की प्रविष्टि होती है जो गांव के निस्तारी के लिए आवश्यक होते हैं और जिनका मालिकाना हक राज्य शासन पर निहित होता है। इसमें दर्ज भूमि पर यदि किसी व्यक्ति के द्वारा अवैध कब्जा भी किया जाता है तो उसकी प्रवृष्टि की जाती है एवं उसे बेदखल किया जाता है।
जन हित में, ऐसे अवैध कब्जाधारियों को समय-समय पर मालिकाना हक प्रदान किए जाने का प्रावधान भी है। राज्य में जनसंख्या की वृद्धि पर आवास की आवश्यकता एवं जनता को जीवन जीने के लिए रोजगार के साधन मुहैया कराने के उद्देश्य से कृषि भूमि उपलब्ध किए जाते रहे हैं। वनाच्छादित क्षेत्रों में भी वनभूमियों के पट्टे अवैध कब्जा धारियों को समय समय पर मालिकाना हक प्रदान किया जाता है। ऐसे राजस्व भूमि, दखल रहित भूमि (विशेष उपबन्ध) अधिनियम 1970, छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता 1959 के सरकारी पट्टा संबंधी धारा 181 और कुछ अन्य नियम/अधिनियमो के तहत व्यक्तियों को दी जाती है। यह परंपरा बाद में चारागान भूमि के रूप में भी विकसित हुआ।
बीच के वर्षों में ऐसी भूमि जो गांव की निस्तारी भूमि है और वाजिब-उल-अर्ज में दर्ज है ऐसी भूमि यदि प्रतिशतता के आधार पर अधिक है तब गांव में ग्राम पंचायत की सहमति से जितनी भूमि अधिक है उस भूमि को गांव के ही कुछ भूमिहीन व्यक्तियों के द्वारा संयुक्त रुप से अपने नाम पर चढ़ाने का अनुरोध पंचायत से किया जाता था एवं पंचायत के द्वारा ऐसे व्यक्तियों या समूहों के नाम उक्त अतिरिक्त भूमि को प्रदान किये जाने की अनुशंषा की जाती थी फलस्वरूप उन्हें यह भूमि, भूमि स्वामी हक के रूप में प्राप्त हो जाता था। वे उसमें सामूहिक काश्तकारी या गांव के पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था करते थे, ऐसी भूमियों को चारागान/चारागाह भूमि कहा जाने लगा।
राजस्व अधिनियम के तहत ऐसे भूमि स्वामियों को भी भूमि स्वामी माना गया। बीच के वर्षों में ऐसे सामूहिक हित के लिए आरक्षित की गई भूमि को उन तथाकथित भूमि स्वामियों के द्वारा, जो वास्तव में उक्त भूमि के ट्रस्टी थे ना कि मालिक, उसे बेचा जाने लगा। ऐसा ही एक मामला रायपुर के महादेव घाट में बने हनुमान मंदिर का भी है। ऐसे वाकयों की अधिकता होने से सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया और अपने आदेशों में यह स्पष्ट किया कि गांव में पशुओं के लिए आरक्षित इन चारागान भूमियों का व्ययन नहीं किया जा सकता। इसके लिए सभी जिला कलेक्टरों को निर्देशित भी किया गया कि इस भूमि में का विक्रय न किया जाने एवं इस भूमि का उपयोग इसके मूल उद्देश्य पशुओं के हित संबंधी ही किया जाए।
वर्तमान पर्यावरणीय संकट के कारण सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सराहनीय है किंतु इसके बाद भी चारागाह भूमियों पर किसानों का कब्जा लगातार बना रहा। इस संबंध में गांव में कहा जाता है कि जहां भी लोगों को पता चलता कि फलां गांव में सरकारी भूमि है तो वहां 'लाल झंडा' गड़ जाता है। इस लाल झंडे का मतलब यह कि, उस भूमि के लिए लोग मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं। कुछ उदाहरणों में तो यह भी देखने में आता है कि, सरकारी भूमि में कब्जा करने के लिए लोग अपने निजी भूमि भी बेच कर सरकारी भूमि की ओर आकर्षित हो जाते हैं। कई लोगों के द्वारा अपनी जीवन भर की कमाई पूंजी बेचकर सरकारी भूमि पर कब्जा किया जाता है। ऐसी स्थिति में यदि सरकार उनको वहां से बेदखल करती है तो उनके सामने जीने मरने की समस्या आन पड़ती है। यद्यपि यह वैधानिक प्रक्रिया है किंतु जनता के प्रति राज्य का दायित्व है कि वह उसके आवास एवं जीवन यापन का बेहतर अवसर मुहैया कराए।
वर्तमान में छत्तीसगढ़ के प्रत्येक गांव में दो-चार प्रतिशत ही सरकारी भूमि बच्ची होगी बाकी सब निजी कब्जे में है। राजस्व अभिलेखों में इस अवैध कब्जे का उल्लेख नहीं है, क्योंकि पटवारी बेवजह के झंझट मोल ना लेने के कारण अपने दस्तावेजों में ऐसे अवैध कब्जाधारी किसानों के नाम का उल्लेख नहीं करते फलत: राजस्व अभिलेखों में सरकारी भूमि खाली या पड़त नजर आती है। जबकि इसके उलट पूरे छत्तीसगढ़ में गांव की निस्तारी भूमि पर अवैध कब्जे हैं। इसके लिए सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए, पटवारी और राजस्व निरीक्षकों को कड़े निर्देश देना चाहिए कि, सरकारी भूमि, सार्वजनिक चारागाह या निस्तार की भूमि पर किसका कब्जा है इसका वाजिब दस्तावेज बनाया जाए।
-संजीव तिवारी
bahut accha prakash dala hai apne
जवाब देंहटाएंइसकी पूर्ण जानकारी शायद सरकार को नही है , अगर है तो सहयोग कर रही है।।
जवाब देंहटाएंकुल मिलके केहे जाए तव ये बात ल मैं अउ आप नइ जान पायेन लेकिन गांव वाले मन जान डरिन के...... 'जो जमीन सरकारी है वह हमारी है'
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से सहमत होते बात को दोहराना चाहूंगा कि मैं जहां बसा हूं वो जमीन सिर्फ मेरी है। निस्तारी के लिये जमीन कब्जा करना सरकार के नजर में गुनाह है तो तुलना करें राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री—मुख्यमंत्री आवास सहित तमाम मंत्रियों और बड़े औद्योगिक घराने के लोगो से जो गरीब के झोपड़ों से बड़ा बाथरूम बनाते है।
एक बड़े लेखक ने कहा है कि — 'संसाधनों पर स्वामित्व में विषम जटिलता' ही हालात के जिम्मेदार है।
बहुत—बहुत अच्छा जानकारी भइया, माफी देहू काबर के मैं थोकिन विषय से अलग टिप्पणी कर परे हवं। सादर प्रणाम...