संतोष झांझी की कहानी : अमानत सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

संतोष झांझी की कहानी : अमानत

मोहनलाल चाय पीते हुए चुपचाप शरद की ओर देख रहे थे, जो पेपर पढऩे में मगन था। डाइनिंग टेबल के पास खड़ी नीलू ऋचा के स्कूल का टिफिन पैक करते हुए देख रही थी कि पापा शरद से कुछ बात करना चाहते हैं। नीलू वहीं से बोली।
-‘कोई बात करनी है पापा, तो कर लीजिये न इतना सोच क्यों रहे हैं?’
मोहनलाल ने खाली कप सामने टेबल पर रख दिया। शरद ने पेपर चेहरे के सामने से हटाकर पापा की ओर देखा- ‘सुबह-सुबह गुरुदयाल सिंह चाचाजी आए थे। कोई खास बात थी?’
-‘हां... वह लाहौर नणकाणा साहब जा रहा है... वही... वही बताने आया था। सिक्खों का पूरा जत्था जा रहा है।’ मोहनलाल कुछ सोचते हुए बोले।
-‘आप भी जाना चाहते हैं? पर आपकी तबीयत तो ठीक नहीं रहती पापा।’
-‘नहीं नहीं.... मैं चाहता था, एक आखिरी कोशिश करके देख लूं। चालीस साल हो गए, अभी तक मैं नाकामयाब रहा।’ तुम्हें भी परेशान कर रखा है मैंने। हमेशा इतने खर्च का बोझ तुम पर डाल देता हूं।
-‘आप ऐसी बातें क्यों करते हैं। मैं भी वही चाहता हूं जा आप चाहते हैं।’
-‘मेरे दिमाग में एक नई योजना आई है।’
-‘बताइये क्या करना है।’
-‘गुरुदयाल लाहौर जा रहा है। मैं चाहता हूं हम कुछ पर्चे छपवाकर उसे दे दें। कुछ तो वह वहां पर बांट देगा और कुछ वहां दीवारों पर लगवा देगा। पता नहीं, मेरा यार साबिर अब तक जिन्दा भी है या नहीं।
-‘पापा, उनका एक बेटा भी था न जाकिर? मेरा उम्र...’
-‘अच्छी याद दिलाई। इश्तहार में उसका नाम भी अवश्य लिखना।’
-‘क्या लिखना है बताइए...’ शरद ने पूछा।
-‘शाम को आफिस से लौटकर लिख लेना। अभी तुम्हें देर हो जाएगी।’
-‘परसों ही जा रहे हैं न चाचाजी?’
-‘हां परसों सुबह-सुबह...’
-‘मैं आज छुट्टी कर लेता हूं। वर्ना इतनी जल्दी इश्तहार छप नहीं पाएगा।’ शरद पैड-और पेन लेकर आ गया-‘हां बताइए पापा क्या लिखना है?’
मोहनलाल लिखवाने लगे-‘साबिर मोहम्मद काजी, जाकिर मोहम्मद काजी, पुरानी गली, अनारकली बाग, लाहौर निवासी अब जहां कहीं भी रहते हों अपने पुराने हिन्दुस्तानी दोस्त मोहनलाल बख्शी से जो लाहौर में उनके पड़ोसी थे। उनसे नीचे लिखे पते पर मिलें या पत्र लिखें और मोहनलाल को उन्होंने जो अपनी अमानत सौंपी थी उसके बारे में जानकारी लेवें।’
-‘नीचे अपना पता लिख देना। गुरुदयाल अभी आएगा लो आ गया गुरुदयाल भी।’
-‘नमस्ते चाचाजी। मैं आज ही यह इश्तहार छपवा कर ले आता हूं। अपकी बहुत मेहरबानी होगी चाचा जी... इन इश्तहारों को वहां की दीवारों पर लगवा देना और बाकी वहां बंटवा देना। पांच हजार छपवा देता हूं।’
गुरुदयाल सिंह ने बैठते हुए कहा -‘ओ तू चिन्ता न कर पुत्तर। मैं एक बार खुद इस पते पर जाकर खोजबीन करके आऊंगा। शायद वहां कोई चालीस साल पुराना बन्दा मिल जावे।’
मोहनलाल ने गदगद होकर कहा-‘सच गुरुदयाल तेरा यह एहसान...’ बीच में ही गुरुदयाल ने टोक दिया-‘एहसान कहकर, शर्मिन्दा न कर यार। तेरे जैसे ईमानदार आदमी के लिए मेरी जान हाजिर है। मैं देख रहा हूं पिछले चालीस सालों से किसी की अमानत की हिफाजत आप जी जान से कर रहे हो। क्या मैं तुम्हारी इतनी छोटी सी मदद नहीं कर सकता?’
गुरुदयाल ने मोहनलाल की पीठ पर हाथ रख दिया। मोहनलाल की आंखें भर आईं-‘गुरुदयाल शायद तुम्हारी दिल से की गई मदद से मेरा दोस्त मुझे मिल ही जाए।’
-‘पता नहीं बख्शीजी वो अमानत इतनी कीमती है भी या नहीं, जिसके लिए तुम अब तक लाखों रुपए तो इश्तहार दे-देकर खर्च कर चुके हो।’
-‘अमानत तो अमानत ही होती है गुरुदयाल। उसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती।’
-‘हां यार बात तो सही है तुम्हारी। किसी भी चीज की कीमत हर पारखी अपने-अपने ढंग से लगाता है। बेटा शरद आज आफिस नहीं गए?’ शरद ने हाथों में पकड़ा कागज दिखाकर कहा-‘पहले यह इश्तहार छपने के लिए दे देता हूं।’
-‘यह मुझे दो मेरे दोस्त की प्रेस में मैं जल्दी छपवा दूंगा। तुम आफिस जाओ।’
शरद ने कागज गुरुदयाल को थमा दिया और खुद आफिस के लिए तैयार होने चला गया। जाते-जाते रास्ते में गुरुदयाल सोच रहा था। एक यह बख्शी है जो पिछले चालीस सालों से अपने मुसलमान दोस्त की अमानत संभाले बैठा है और उसे तलाश रहा है और एक हम लोग हैं जो अपने ही हिन्दू भाईयों की गर्दन काट रहे हैं। यह क्या हो रहा अपने देश में? जिन्होंने गुरुवाणी को नहीं समझा, वहीं चन्द नशाखोर, दौलत के भूखे लोग दिलों में जहर भर रहे हैं। कमान तो विदेशों में बैठे चन्द लोगों ने संभाल रखी है। देश और कौम से इतना प्यार था तो विदेशी जूठन खाने क्यों चले गए? उनका भी हाईकमान है, उनका आका अमेरिका। गुरुदयाल आजकल गुरुद्वारे इसीलिए नहीं जाते। घर में ही गुरुद्वारा बना लिया है। वहीं गुरुग्रंथ साहब का सुखमनी का पाठ करते हैं। मन ही मन उन्होंने कसम खा रखी है कि जब तक हिन्दू सिख फिर से एक नहीं हो जाते वो गुरुद्वारे नहीं जाएंगे। सरदारनी की जिद और रोना-धोना देखकर ही वो नणकाणा साहिब जाने को तैयार हुए हैं। अब उन्हें लग रहा है उन्होंने जाने का फैसला करके अच्छा ही किया। सरदारनी भी खुश, दर्शन लाभ भी होगा और अगर बख्शी के दोस्त की तलाश कर पाया तो यह बहुत बड़े सबब का काम होगा।
रात दूध का गिलास थामे नीलू कमरे में आई तो शरद आफिस की फाइलें लेकर एक तरफ रख दी-‘ अब बस दूध पी लो।’ फिर कुछ सोचते हुए बोली-‘आजकल पापा बहुत उदास रहते हैं न? भगवान करें उनका वो दोस्त उन्हें जल्दी मिल जाए।’
-‘कुछ निराश से हो गए हैं। चालीस साल से कोशिश करते-करते अब तक कोई नतीजा नहीं निकला।’
-‘पता नहीं पापा वो अमानत कहां संभालकर रखते होंगे? क्या तुमने भी कभी नहीं देखा?’
-‘क्या?’ शरद ने गिलास थमाते हुए कहा।
-‘उस अमानत को।’ नीलू ने शरद के चेहरे पर नजरें टिका दी।
-‘मैंने? हां-हां, नहीं-नहीं देखा।’ शरद लडख़ड़ाया।
-‘मम्मी’ को भी मरते दम तक उस अमानत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने कभी पापा से जिद नहीं की होगी। नहीं तो उन्हें बताना ही पड़ता। औरत की जिद के आगे किसी की नहीं चलती। नीलू ऐंठ से बोली। शरद हंस दिया। लेटते हुए बोला- ‘तो अब तुम पता कर लो।’
-‘पापा से कैसे जिद करूं? हां, अगर तुम्हें पता होता तो जरूर उगलवा लेती।’ शरद हंसता रहा।
-‘हंस क्या रहे हो? सच कह रही हूं।’
-‘हां-हां आप सच ही कह रही हंै।’ शरद बोला।
सुबह-सुबह भोला टेलिग्राम थामे आया।
-‘बाबूजी, जरा पढि़ए तो हमारे नाम से ये तार आया है।’ मोहनलाल ने तत्परता से भोला से टेलिग्राम ले लिया। चश्मा ठीक करते वे जरा घबराए हुए थे। पढक़र हंसते हुए बोले-‘भोला घबरा मत, खुशखबरी है। तेरी बेटी का गौना है। गांव बुलाया है।’ नीलू ने सुना तो चिन्ता से बोली-
-‘दोनों बच्चों के एग्जाम हैं। कैसे चलेगा।’ शायद बोला
-‘बच्चों के एग्जॉम हैं तो क्या भोला को बेटी को गौना रोक देना चाहिए? क्या बात करती हो नीलू तुम भी।’
-‘ठीक है भोला तुम उतने दिन के लिए कोई आदमी तलाश कर दो। यहां तो तुम्हारे गांव के बहुत लोग काम करते हैं। जात वात देख लेना। ऊंची जात का आदमी रखवाना।’ नीलू बोली।
-‘वो तो हम जानते हैं। पहले जात पूछ लूंगा। बाद में काम की बात होगी।’
शरद तीखी नजरों से नीलू को घूरता रहा।
-‘यह इस जमाने में कैसी बात करती हो तुम? तुम्हें कुछ विचित्र नहीं लगता?’ नीलू ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। ऋचा को डांटने लगी।
-‘दोस्ती अलग बात है। जिस दिन मुझे पता चला तुमने नसरीन के साथ लंच लिया है। उस दिन तुम्हारी खैर नहीं, समझी।’ नीलू अंदर चली गई। ऋचा ने शरद की तरफ देखा-‘देखा पापा, कैसी बातें करती हैं मम्मी? कितनी प्यारी है नसरीन, कितनी हैल्पिंग। कैसे छोड़ दूं मैं उसे?’
शरद ने ऋचा को प्यार से थपथपाया-‘मैं समझाऊंगा। तुम स्कूल जाओ।’
-‘कुछ नहीं हो सकता उनका... कोई फायदा नहीं पापा।’ ऋचा बड़बड़ाती स्कूल चली गई।
शरद कमरे में पहुंचा तो नीलू कमरा ठीक कर रही थी-‘यह सुबह-सुबह ऋचा का मूड क्यों खराब कर दिया? मैं तो यह सब सह लेता हूं पर बच्चे... उन्हें भी समझना चाहिए। धीरे-धीरे समझ जाएंगे।’
-‘यह क्या बेवकूफी भरी बातें हैं। आफिस से आता हू तो गंगाजल छिडक़ने लगती हो मेरे ऊपर। बच्चे बाहर से खेलकर आएं या स्कूल से फिर वही गंगाजल। आखिर प्राब्लम क्या है तुम्हारी?’
-‘देखिए आफिस में आप जात-कुजात के लोगों के बीच रहते हैं। वैसे ही बच्चे भी पता नहीं किस-किस से टकराते हैं दिन भर। क्या गलत करती हूं गंगाजल छिडक़कर।’
शरद ने हाथ जोड़े-‘बस-बस प्रवचन बंद, आफिस भी जाना है मुझे।’ सर झटककर नीलू जाने लगी तो शरद ने बांह पकड़ ली-‘नीलू कभी तुम्हें मेरी जाति पर तो शंका नहीं होती?’
-‘आपकी जाति पर कैसी शंका? मुझे पता है आप मेरे पापा के स्वर्गीय दोस्त के बेटे हैं जो उच्च कुल के ब्राह्मण थे। जब पाकिस्तान बना उनके सारे परिवार का कत्ल हो गया। तब पापा आपको अपने साथ हिन्दुस्तान ले आये। पढ़ाया-लिखाया और आपको अपना दामाद बना लिया। और क्या कहना है? नीलू ने रूठे अंदाज में पूछा।’
-‘वो मैं कह रहा था अभी तो मैं आफिस नहीं गया। जाने वाला हंू।’
-‘तो?’ नीलू ने हैरानी से शरद को देखा।
-‘अभी मैं बिल्कुल शुद्ध... हूं न? मौका भी है। शरद नीलू की ओर बढ़ा।’
-‘अच्छा तो ये बात है, पर माहौल बिल्कुल नहीं है जनाब।’ हंसते हुए हाथ छुड़ाकर नीलू चली गई। शरद बड़बड़ाया।
-‘कभी माहौल नहीं, कभी मौका नहीं और कभी हम शुद्ध नहीं। हम तो इसी में बर्बाद हैं।’
पाकिस्तान से साबिर मियां का खत आया तो मोहनलाल के पांव खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। बार-बार आंखें डबडबा रही थीं। घर में खुशी का माहौल था।
-‘पापा अमानत के नाम पर कोई धोखा तो नहीं होगा?’ नीलू की शंका भी सही थी।
-‘बेटा इश्तहार में हमने अमानत कैसी है क्या है यह तो कहीं लिखा नहीं था। जो आएगा पहले अमानत का नाम बताएगा। तब हम उसे गले लगायेंगे। वैसे भी मैं अपने यार के दस्तखत पहचानता हूं। जब वो आएगा उसे भी पहचान लूंगा।’
-‘अभी कागजी कार्रवाई पूरी होते-होते एक महीना लग जाएगा।’ शरद बोला।
-‘साथ में उनका बेटा जाकिर या पोता रशीद आएगा।’ -‘पापा पर हम उन्हें ठहरायेंगे कहां? घर तो हमारा छोटा है।’ शरद समझ रहा था उसकी जाति पांति की बीमारी।
-‘अरे अपना यार, यहीं ठहरेगा हमारे साथ। इस ड्राइंग रूप में हम चारों सो जाया करेंगे।’ साबिर को तुम्हारी मां के हाथ के आलू के परांठे बहुत पसंद थे। तुम उन्हें वैसे ही परांठे बनाकर खिलाना।’
- ‘जरूर पापा, पर इतनी कम जगह में इतने लोग... उनकी सेवा में कोई कमी न रह जाए।’ कहकर नीलू शरद की ओर देखने लगी।
-‘बड़ा खुशदिल है अपना यार। अब उनके वो पहले जैसे दिन नहीं रहे। बंटवारे के दंगों में उनका सब कुछ लूट गया। इसी गम ने बेचारे को बीमार कर दिया है। छोटे से गांव में रहते हैं आजकल। वह तो अच्छा हुआ जाकिर बेटा शहर पढऩे गया था उसे वह इश्तहार मिल गया। यही दस-पांच दिन रहकर नई-पुरानी यादें ताजा करेंगे बस।’
एकांत मिलते ही शरद ने नीलू को समझाने की कोशिश की-‘देखो, नीलू पापा को यह खुशी बड़े इंतजार के बाद मिली है तुम जरा...’
नीलू ने झट बात काट दी- ‘जनाब, यह मत भूलिए कि वह मेरे पापा हैं। मुझे उनका तुमसे अधिक ख्याल है पर तुम उन लोगों के साथ बैठकर खाना मत खाना।’
-‘तुम्हारी यह बात मैं नहीं मान सकता। बच्चों को भी मना मत करना।’ नीलू के माथे पर चिन्ता से बल पड़ गए।
आखिर वह खुशी का दिन आ ही गया। दोनों दोस्त गले लगकर बड़ी देर तक आंसू बहाते रहे।
- ‘अल्ला मेहरबान था जो तुम सबसे मुलाकात हो गई। वरना उम्र और यह रोगी शरीर अधिक दिन चलने वाला नहीं। मेहरू आखिरी वक्त तक अपनी बच्ची को ही याद करती रही।’ मोहनलाल ने साबिर मियां को तसल्ली देते हुए कहा-‘तुम्हारी भाभी भी आज होतीं तो बहुत खुश होतीं।’
-‘जाकिर की एक बेटी तो एकदम हमारी निलोफर की जैसी है। उसकी पैदाइश के बखत बहू का वही हाल हो गया जो शरद की पैदाइश के बखत भाभीजान का हुआ था। एकदम मरते-मरते बचीं थीं।’
नीलू चाय लेकर आई तो उसने साबिर मियां की बात सुन ली-‘चचाजान लगता है आप कुछ भूल रहे हैं। शरद की पैदाइश के बखत नहीं, मेरी पैदाइश के समय मम्मी मरते-मरते बची होंगी।’
शरद और मोहनलाल ने एक-दूसरे की तरफ देखा पर दोनों चुप रहे। साबिर मियां ही बोले-‘नहीं बेटा, शरद के बखत भाभी की हालत इतनी खराब हो गई थी कि बेटा होने की खुशी भी मोहनलाल छ: महीने के बाद ही मना सका था।’
बात और आगे बढ़ती उसके पहले ही मोहनलाल साबिर मियां को लेकर टहलने निकल गए। उनके जाते ही नीलू ने भोला के साथ मिलकर पूरे घर में गंगाजल का छिडक़ाव करना शुरु कर दिया।
-‘भोला, जरा सावधानी से इन बर्तनों को अलग ही रखना।’
-‘बर्तन अलग रखे से का होगा? बड़ा और छोटा बाबू तो उनका साथ ही भोजन कर रहे हैं न?’
-‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं? मेरे गले से तो खाना नहीं उतर रहा।’
-‘मालकिन ऊ साबिर मियां बतात रहे, अपने छोटा बाबू को जाकिर के अम्मी बहुत दिन तक अपना दूध पिलाय रहे। बड़ी इनके जनम के बखत बहुत ही बीमार रहीं।’
नीलू ने जो आधी बात सुनी थी उससे वह परेशान थी। वह दिन भर गुमसुम सी रही। रात को जब शरद बेडरूम में पहुंचे उससे पहले ही वह सोने का बहाना बनाकर पड़ी रही।
सुबह-सुबह साबिर मियां बोले- ‘यार मोहनलाल, हमारे सब्र का का अब और इम्तहान मत लो। हम कल से बेचैन हैं। अब हमारी अमानत से हमें मिला दो।’ अमानत की बात से नीलू के कान खड़े हो गए। वह भी उत्सुक थी कि आखिर वह अमानत है क्या?
-‘तुम अभी तक अपनी अमानत को देख नहीं पाए साबिर?’
-‘नहीं भई, अब दिखा भी दो...।’
तभी नीलू तूफान के तरह अंदर आ गई।
- ‘पापा अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। मुझे क्यों ऐसा लग रहा है जैसे मुझसे कुछ छुपा रहे हैं आप लोग। चचाजान का कहना है शरद आपका बेटा है पर मैं तो बचपन से यही सुन रही हूं कि वह आपके किसी स्वर्गीय दोस्त का बेटा है।
’ साबिर हंसे- ‘दोस्त का बेटा? अरे नहीं बहू, शरद मोहनलाल का ही बेटा है। मैंने झूठ नहीं कहा।’
-‘ठीक है, तो पापा अगर शरद आपके बेटे हैं तो मैं आपकी बेटी कैसे हो सकती हूं।’
शरद बोला -‘मैं बताता हूं।’ मोहनलाल ने हाथ उठाकर शरद को रोक दिया।
-‘ठहरो बेटा, जल्दीबाजी ठीक नहीं। साबिर मियां मैं तो केवल इसलिए जिंदा हूं कि एक बार तुमसे पूछ सकूं कि कहीं मैंने अमानत में खयानत तो नहीं कर दी। नीलू बेटा, तुम सच बात जानकर खुद को अकेली और पराई न समझो, इसीलिए हम हमेशा तुम्हें अपनी बेटी बताते रहे और अपने ही बेटे को दोस्त का बेटा? साबिर, यह नीलू ही तुम्हारी बेटी निलोफर है। तुम्हारी अमानत, मैंने उसे शरद के बराबर ही तालीम दिलवाई है।’ साबिर और जाकिर खुशी से उछल पड़े।
-‘साबिर जब निलोफर जवान हुई और मैं तुम्हें तलाश नहीं पाया तो उसे सुखी और सुरक्षित रखने के लिए मैंने उसे अपनी बहू बना लिया। कहीं मैंने कुछ गलत तो नहीं किया साबिर...’
साबिर की आंखें खुशी से छलक रही थीं। नीलू का चेहरा सफेद पड़ गया। साबिर और जाकिर नीलू के पास आ गए-‘मेरी बच्ची, निलोफर...।’
-‘नहीं... मैं आपकी बेटी नहीं... किस अधिकार से? मुझे दूसरों को सौंप दिया। क्यों? अब देखिए मेरी हालत... मेरे पति हिन्दू और मैं? संस्कार मेरे हिन्दू और मेरा शरीर, खून...मुस्लिम? क्यों किया आप लोगों ने मेरे साथ ऐसा?’
- ‘पहले हमारी पूरी बात सुन लो तब नाराज होना।’ नीलू रोती रही...‘क्या सुनूं? अब सुनने को बचा ही क्या है?’
साबिर मियां ने नीलू के सर पर हाथ फेरा।
-‘बेटी हमने तुम्हें जानबूझ कर मोहनलाल को नहीं सौंपा। हम गुजरावाला में पड़ोसी थे। दोनों घरों में बेटी की कमी थी। जब तू पैदा हुई तो दोनों घरों में खुशियां छा गईं। जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुरु हुए, उस समय तू छ: महीने की थी। एक दिन तू मोहनलाल के घर खेल रही थी। तेरी किलकारियां हमें अपने घर तक सुनाई दे रही थीं। तभी अल्ला हो अकबर और हर-हर महादेव के नारे गूंजने लगे। खून-खराबा, चीख-पुकार के बीच मिलिट्री की गाडिय़ों का शोर। हिन्दुओं को वहां से निकालकर हिन्दुस्तान पहुंचाया जा रहा था।’ साबिर की सिसकियां बंध गईं। मोहनलाल ने उन्हें थाम रखा था। जब साबिर का गला रुंध गया, तब मोहनलाल ने बात का छोर पकड़ लिया-‘मैंने झरोखे से आवाज लगाई साबिर निलोफर को संभालो हम जा रहे हैं। तुम्हें साबिर के घर तक पहुंचाना खतरे से खाली नहीं था।’ आखिर साबिर की तड़पती आवाज आई-‘इसे अपने साथ ले जाओ मोहनलाल... मेरी अमानत समझ कर ले जाओ। सभी की जिंदगी खतरे में थी। नहीं तो कोई अपने जिगर के टुकड़े को इस तरह अपने से अलग नहीं करता।’ 
नीलू रोते-रोते साबिर और जाकिर के गले लग गई-‘एक ही जन्म में दो माता-पिता का प्यार भी किस्मत वालों को मिलता है पापा।’ शरद ने उसे संभालने के लिए हाथ बढ़ाया तो नीलू ने झटक दिया।
-‘हटो झूठे कहीं के... तुम्हें सब पता था, पर मुझसे ही छुपाते रहे।’ शरद ने उसे चिढ़ाया- ‘औरत की जिद के आगे किसी की नहीं चलती। यही कहा था न तुमने?’
स्कूल से आकर रजत और ऋचा सब देख-सुन कर दरवाजे में ही अटक गए थे। उन्होंने खुशी में ताली बजाई-‘आज तो मम्मी हार गईं।’ दोनों दौडक़र अपने मामा और नाना से लिपट गए।
(कहानी संग्रह आई लव यू दादी से)
संतोष झांझी


श्रीमती संतोष झांझी ने सबसे पहले अपनी पहचान कवि सम्मेलन के मंच से बनाई थी। पंजाबी मूल की कोलकाता में पली-बढ़ी संतोष झांझी विवाह के बाद भिलाई आईं और वह उनका घर बनना ही था। अपने शिष्ट शालीन गीतों व सुमधुर कंठ के चलते संतोष जी ने अच्छी खासी लोकप्रियता बटोरी। उन्होंने एक छत्तीसगढ़ फिल्म में अभिनय भी किया, लेकिन कालांतर में वे गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त हुई। उन्होंने बहुत प्यारे यात्रा-वृत्तांत लिखे, जिनमें एक सैलानी की सजग दृष्टि दिखाई देती है। उन्होंने इसके पहले दो उपन्यास लिखे और चार कहानी संग्रह जो उनकी गहन अंतर्दृष्टि व सामाजिक सरोकारों का परिचय देते हैं। - ललित सुरजन 

 संतोष झांझी की चर्चित कहानी : पराए घर का दरवाजा यहॉं संग्रहित है।

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टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-12-2016) को "तुम्हारी याद स्थगित है इन दिनों" (चर्चा अंक-2561) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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