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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

यशश्वी गीतकार संत की कृति मउँहा झरे

"26 जनवरी 2014 को राजपथ नई दिल्ली में आयोजित गणतंत्र दिवस के मुख्य समारोह में जब मउँहा झरे रे.. मउँहा झरे रे.. गीत की पंक्तियां गूंजी और इस छत्तीसगढ़ी लोकगीत पर जब असम के कलाकारों ने भाव नृत्य कर वहां उपस्थित हजारों दर्शकों की तालियां बटोरी तो नि:संदेह हर छत्तीसगढ़िया का सीना चौड़ा हो गया। लोगों के मन में जिज्ञासा थी कि इस गीत के रचनाकार कौन हैं?.. और जब लोगों को पता चला कि इस गीत के रचयिता संस्कारधानी राजनांदगांव के श्री हर्ष कुमार बिंदु है तो लोग चौंक उठे।" किताब के शुरुआती पन्नो में 'लोकगीतों का अविराम यात्री..' में इस किताब के सर्जक से हम सब का परिचय कराते हुए मउँहा झरे किताब के प्रेरक भाई वीरेंद्र बहादुर सिंह की कलम से ऐसा लिखा हुआ पढ़ा तो यकबक मुझे भी विश्वास नहीं हुआ। मैं अब तक इस गीत को पारंपरिक लोकगीत समझ रहा था और संग्रह मेरे हाथ मे होने के बावजूद शीर्षक को लोक प्रतीक के रूप में कवि के द्वारा उपयोग किया हुआ मान रहा था। हर्ष हुआ कि, हर्ष कुमार बिंदु जी की किताब मउँहा झरे मेरे हाथ में है। 
इस किताब में अपने परिवेश से पाठकों को परिचित कराते हुए अपने लेखकीय में स्वयं हर्ष कुमार बिंदु ने लिखा कि छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी राजनांदगांव कला, साहित्य और संगीत की त्रिवेणी है। वे उसी संस्कारधानी के निवासी हैं और उसी संस्कारधानी से यह किताब प्रकाशित हुई है। वे आगे लिखते हैं कि पारंपरिक देवी जस गीत का संस्कार इन्हें अपने पिता बंशीलाल गढ़वाल से प्राप्त हुआ। छत्तीसगढ़ी जस गीतों के वर्तमान स्वरूप और इसके विकास को भी इसमें इन्होंने चित्रित किया है। साथ ही अपनी रचना एवं संगीत यात्रा को भी इस में रेखांकित किया है। इन्होंने छत्तीसगढ़ी देवी जस गीत के प्रथम रचनाकार खैरागढ़ रियासत के राजा कमल नारायण सिंह को बताया है। 
बिंदु जी ने चंदैनी गोंदा, अनुराग धारा, स्वर धारा जैसे सुप्रसिद्ध कलामंचों के साथ भी काम किया है। इनके द्वारा लिखी गई माता पाताल भैरवी की आरती नित्यप्रति राजनांदगांव के पताल भैरवी मंदिर में गायी जाती है। इनके लिखे गीतों के कई कैसेट भी जारी हो चुके हैं। जिनमें मां पाताल भैरवी महिमा एवं नई माने काली कैसेट प्रमुख हैं। जिसे कविता वासनिक एवं लाली ठाकुर आदि ने स्वर दिया है। जस गीत के साथ ही इन्होंने छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोक गीतों का भी सृजन किया है जिसे ख्यात गायकों ने स्वर दिया स्वर दिया है। 
प्रस्तुत पुस्तक मउँहा झरे बिंदु जी की ऐसे ही रचनाओं का संकलन है। जो यत्र-तत्र बिखरी हुई थी किंतु प्रकाशित नहीं हुई थी। इन्हें संकलित कर प्रकाशित कराने के संबंध में उन्होंने सोचा भी नहीं था। बेहद संकोची एवं अल्पभाषी बिंदु जी ने इसके लिए सही मायनों में कोई प्रयास ही नहीं किया था। व्‍याख्‍याता एवं कलानाट्य धर्मी मुन्‍ना बाबू एवं सवेरा संकेत के वरिष्ठ सह-संपादक और लोक समीक्षक ठाकुर वीरेंद्र बहादुर सिंह की प्रेरणा से यह संकलन तैयार हो पाया। वीरेंद्र भाई और मुन्‍ना बाबू के उदीम से ही बिंदु जी के इन उत्कृष्ट गीतों से हमारा साक्षात्कार हो पाया। वीरेंद्र भाई ने इसी किताब में राजनांदगांव की सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख करते हुए लिखा भी कि 'संस्कारधानी के रचना कर्म करने वाली साहित्य एवं संगीत की नई पीढ़ी हमेशा अपना बेहतर ही देने का प्रयास करती है।' ..और उन्होंने इस बेहतर रचना को बेहतरीन ढंग से हमे दिया।
डॉ पीसी लाल यादव ने इस किताब की भूमिका में अनेक उदाहरणों के साथ, इस कृति का समीक्षात्मक विवेचन किया है। डॉ यादव इस कृति की उपयोगिता को बहुत सरल शब्दों में स्पष्ट करते हुए लिखते है कि "मउँहा झरे लोक जीवन के ऐना ये, लोक परंपरा के गुरतुर बैना ये। ये मा जिंदगी के मरम, दया-धरम, करमइता के पोठ करम सबो के सुघरई  समाये हे।" और यह भी "मोला भरपूर विश्वास हे जेन गीत जन-जन के कंठ म बसे हे ओ गीत मन ल पाठक किताब के रूप म पढ़ के अउ आनंदित होही।"
इस संग्रह में 110 गीत संग्रहित हैं, जो लोक छंद में छत्तीसगढ़ी के सांस्कृतिक पहलुओं को उद्घाटित करते हैं। इसमें छत्तीसगढ़ी फिल्म बीए फस्ट ईयर ईयर के गीत- आ जाना तै मोला झन तरसा ना रे, सब झन कहिथें तोला कतको हे तोरे सही,  नइ माने रे मन गोरिया, मोरे मन के सजनी तै, सन सनासन सनन सनन पवन चले, खनके रे कंगना, बेरा पहाति अंगना मा मोरे, छम छम पैजन बाजे, आदि के साथ ही अन्य गीत संग्रहित हैं। जिनमें जस गीतों की संख्‍या ज्‍यादा है। छत्‍तीसगढ़ में जस गीत गायन की परम्‍परा बहुत पुरानी है। जस गीत गीतों में लोक में प्रचलित आराध्य के आख्यानों का संदर्भ होता है जो हमें रोमांचित करता है। इसी रोमांच को पकड़ते हुए बिन्‍दु जी लोक भाषा में लोक के मन की बात कहते हुए प्रेम गीत, करमा, व्यंग गीत, खेल गीत, काया खंडी भजन, सुवा गीत, पंथी गीत,  होली गीत और जस गीत तक अपनी लेखनी को विस्तार देते हैं। जो अभिजात्य के बंधनों को तोड़कर नाचने को विवश करते हैं। शायद इसीलिए इन लोक गीतों के साहित्यिक स्‍थापना पर अपनी टिप्पणी देते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ जीवन यदु ने लिखा कि "मेरा मानना है कि बिंदु जी का उद्देश्य साहित्य सृजन ना होकर लोग रंजन का सृजन करना है। लोकरंजन भी बहुमूल्य है इसे हमें बिसराना नहीं चाहिए।" हर्ष कुमार बिंदु ऐसे ही लोकरंजनी रचनाओं के लोकप्रिय रचनाकार हैं। जिनके अनेक गीत ऑडियो कैसेट के माध्यम से लोककंठ में तरंगित हैं। आप सब जानते हैं कि इस किताब के शीर्षक गीत 'मउँहा झरे' को तो व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हुई है और यह गीत छत्तीसगढ़ के आंगन से देश विदेश में लोकप्रिय हो गया है। कवि को इससे बड़ा रिवार्ड और क्या चाहिए।

मउँहा झरे का विमोचन डॉ.रमन सिंह के द्वारा पिछले वर्ष किया गया था। इस किताब को बैगा ग्रुप राजनांदगांव नें प्रकाशित करवाया है। किताब का मूल्‍य 150 रू. है। इसकी प्रति के लिए आप श्री हर्ष कुमार बिन्‍दु मो. 9589039768, राजनांदगांव से संपर्क कर सकते हैं।
- संजीव तिवारी
#Mahuaa Jhare Re Mahuaa Jhare, #महुआ झरे रे महुआ झरे

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