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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीतों का सामाजिक संदर्भ

(शेख हुसैन के गाए गीतों के विशेष संदर्भ में)


श्रम परिहार, आनंद उत्सवों और संस्कार के अवसर में लोक की अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से प्रस्तुत होती है। लोक में गीतों की परम्परा आदिम युग से विद्यमान है और इसकी यही पारंपरिकता इसे लोकगीत के रूप में स्थापित करती है। लोकगीतों का संवहन वाचिक रूप से भाषायी भौगोलिक क्षेत्र में पीढ़ी दर पीढ़ी होती है। इस प्रक्रिया में सामाजिक परिवेश और युगीन संदर्भ इसमें जुड़ते जाते हैं। लोक सहज रूप से इसके माध्यम से एक आदर्श समाज और संवेदनशील मानवीय मूल्यों के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता को स्थापित करता है। समयानुसार मानवीय अनुभूतियों का कलात्मक प्रकटीकरण इसमें और निखार लाता है। वाचिक प्रवाह इन सभी सामाजिक सरोकारों का लोकगीतों के रूप में दस्तावेजीकरण करते चलता है जिसमें सामाजिक संदर्भ समाए रहते हैं। यह विभिन्न भाषाई-क्षेत्रीय लोकगीतों के बीच अपने विशिष्ठ पहचान को स्वमेव प्रदर्शित कर देता है। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में भी सामाजिक संदर्भ गुंफित हैं, जो तत्कालीन समाज को प्रतिबिंबित करता है। हम इस आलेख में छत्तीसगढ़ी के लोक गायक शेख हुसैन के गाए सात लोकप्रिय लोकगीतों के सामाजिक संदर्भों पर चर्चा करेंगें।

आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित शुरूआती छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में शेख हुसैन के ये सात गीत आज भी लोगों के कंठ में तरंगित है। सन् 1944 में जन्में शेख हुसैन नें प्राथमिक तक शिक्षा प्राप्त की थी। बचपन से इनकी रूचि संगीत में थी, युवा अवस्था में आप संगम आर्केस्ट्रा के साथ जुड़ गए और निर्मला इंगले, मदन चौहान एवं हुकुमचंद शर्मा आदि के साथ गीत गाने लगे। आप हिन्दी गानों की प्रस्तुतियों के बीच में संत मसि दास, बद्रीविशाल परमानंद और सूरजबली शर्मा के लिखे छत्तीसगढ़ी गीत और वाचिक लोकगीत प्रस्तुत करते थे। 02 अक्टूबर 1963 को स्थापित रायपुर रेडियो स्टेशन में बरसाती भइया के प्रयासों से शेख हुसैन के गाए सात चुनिंदा गीतों की रिकार्डिंग की गई। ये गीत सन् 1970 के दशक में रेडियो में लगातार प्रसारित हुए जिसनें शेख हुसैन की आवाज को अमर कर दिया। ये लोकगीत हैं-   
1. चितावर में वो चिरई बोले, मन के कलप-ना ला नई खोले 
2. खोपा पारे पाटी मारे टुरी रंग-रेली, छुनुर छुनुर पैरी बाजे गली गली
3. गुलगुल भजिया खा-ले, मोर संग तैं हर ददरिया गा-ले 
4. गजब दिन भईगे राजा तोर संग मा, नई देखेंव खल्लारी मेला वो
5. मन के मन मोहनी, मोर दिल के तैं जोगनी वो, ठुमुक दान के
6. एक पईसा के भाजी ला, दू पईसा बेचे गोई गोंदली ला रखे जी मां डार के
7. बटकी में बासी, अउ चुटकी में नून में गावतथव ददरिया तें कान देके सुन
लोक गीतों के श्रेणीकरण की दृष्टि से ये सभी गीत ददरिया हैं। ददरिया छत्तीसगढ़ के प्रेमी-प्रेमिका के बीच गाए जाने वाला लोकगीत है जिसमें बहुधा प्रश्नोत्तर शैली में दो पद होते हैं जो कई कड़ियों और मुखड़ों के साथ गाया जाता है। प्रेमी-प्रेमिका इसमें अपने प्रेम का इजहार, अपनी संवेदना, दुख-सुख और परिस्थितियों का चित्रण प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से प्रकट करते हैं। शेख हुसैन के गाए इन ददरिया गीतों में हम सामाजिक संदर्भ को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं। ये गीत लगभग सन् 1970-72 में रिकार्ड किए गए हैं जिसके अनुसार इन लोकगीतों नें पिछले दसक की वाचिक यात्रा में सामाजिक संदर्भों को अपने आप में पिरोया होगा। 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद साठ और सत्तर का दसक नवनिर्माण का रहा है जिसका असर छत्तीसगढ़ में भी हुआ था। शहरों के विकास का उजाला गावों में आंखों और कानों से निहारा जा रहा था। पैदल और नदियों में नाव के सहारे यात्रा में अब मोटर और रेल की सुविधा आ गई थी। तब भी गांव में छत्तीसगढ़ जीवंत था, प्रेमिका अपने प्रेमी को रिफ्रेशमेंट में लांगड्राईव में जाने की मांग करती हुई सी कहती है कि बहुत दिन हो गए हैं तुम्हारे साथ मैं खल्लारी मेला नहीं गई हूं, चलो चलें। जैसे आज माल और मल्टीप्लैक्स प्रमी-प्रेमिकाओं के मिलना स्थल हैं वैसे ही उस समय मेला-मड़ई इनके मिलन स्थल थे। प्रेमिका के खल्लारी मेला ले जाने की जिद पर प्रेमी कहता है कि हां तुम्हें ले जाउंगा और घोड़े के चक्कर वाले झूले में बैठाकर झुलाउंगा साथ ही नदी में नाव की सैर भी कराउंगा। इस गीत में जो ’नइ छोंड़व जोड़ा’ शब्द का प्रयोग हुआ है उसकी आंतरिक बुनावट वही समझ सकेगा जो मेले के अपार भीड़ के धक्का-मुक्की के बीच किसी ग्रामीण युवा लड़के को बाला का हाथ पकड़ कर घूमते देखा हो। प्रेमिका को अनजान स्थान में अपने प्रेमी के साथ घूमते हुए लोक-लाज का डर नहीं है वह बिना स्कार्फ बांधे भीड़ में घूमना चाहती है उसे भय है संग छूट जाने का, गंवा जाने का। इसीलिए तो प्रेमी विश्वास दिलाते हुए कहता है ये हाथ नई छोड़ूंगा। 
इसी तरह इन लोकगीतों के पदों में सहज लगने वाले बाह्य बुनावट के अंदर के भाव और दर्शन खोपा पारे पाटी मारे टुरी रंग-रेली वाले गीत के एक पद में नजर आता है जिसमें प्रेमी कहता है कि ’पहिने ल लुगरा देखे ल दरपन, तोला खुल के बिराजे चांदी के करधन’। साठ और सत्तर के दसक में छत्तीसगढ़ी प्रेमिका के घर में कितना बड़ा दर्पण होता रहा होगा कल्पना करिए। ज्यादा से ज्यादा बित्तेभर का, इस बित्ते भर के दर्पण में गोरी को पहने हुए साड़ी और करधन कहां दिखेगा। वह दिखता है जीते जागते प्रेमी रूपी दर्पण में जो कहता है तुम्हें बहुत फब रहा है ये करधन। 
यह बुनावट ’गुल-गुल भजिया खाले’ के पदों में भी नजर आता है। मोटर जो तन का प्रतीक है वह स्टेशन में खड़ा है और रेल रूपी मन  तेल बेंचती तेलिन टूरी के पीछे भाग रहा है। आगे प्रेमिका को संबोधित करते हुए कहता है कि तुमने अपने दिल के बाड़ी में कुंदरू रूपी प्रेमी और पति रूपी करेले, दोनों को बों लिया है, अब पति लेने आया है तो सार्वजनिक रूप से रो ले।        
‘गजब दिन भईगे राजा‘ वाले गीत के अगले पद में प्रेमिका के सहेलियों के संग घिरे होने और उनके द्वारा उसे अकेले नहीं छोड़े जाने का उल्लेख आता है जो चोरी-चोरी प्रेम को प्रदर्शित करता है और प्रेमी हिन्दी गीतों के संक्रमण युक्त डायलाग बोलता है कि तुम पतंग बन के उड़ चलना। ’में बन जाहूं चकरी, तैं उड़बे पतंग’ का प्रतीक छत्तीसगढ़ी लोक का मूल प्रतीक नहीं है। यह बाद में नवनिर्माण और सिनेमा के प्रभाव से इसमें आया है। ऐसे एकाक उदाहरण के बावजूद छेड़खानी, चटभइंया बोली का निक लगना, बोली-ठोली का गुरतुर लगना, बेलबेल्हा टुरा का घटौन्दा के पास बैठ के सीटी बजाना आरूग है और तत्कालीन समाज के चित्र को प्रतिबिम्बित करता है। 
इसी तरह इन गीतों में प्रिय नास्ते के रूप में गुलगुल भजिया और भोजन के रूप में बासी का उल्लेख छत्तीसगढ़िया संतोष को प्रकट करता है। तत्कालीन समाज में प्रचलित स्त्री श्रृंगार का भी इन गीतों में उपयुक्त स्थानों पर सुन्दर चित्रण हुआ है जिसमें कमर तक लम्बा बाल, बालों का खोपा, खोपा में करौदे का और मोगरे का फुल, विजातीय फुंदरा का जुड़े में सेंध भी इनमें नजर आता है। हाथों में चूड़ी, उंगलियों में मुंदरी, कानों में खिनवा, आंखों में कजरा, पैरों में पैरी और मेंहदी, होठ लाल करने के लिए बंगला पान और सरकते सर का पल्लू अन्य श्रृंगार के रूप में प्रतिबिंम्बित है। स्त्री वस्त्रों में लुगरा और पुरूष वस्त्रों में पतोई और कुरथा का उल्लेख है।
व्यवसाय या जीवन यापन के संबंध में इन गीतों में जो फल-सब्जी बेंचने का उल्लेख ज्यादा आया है, धान की खेती, तेल बेंचना का संदर्भ एक-एक जगह है। मेरी समझ में इसका कारण साठ के दसक में छत्तीसगढ़ में आया लगातार अकाल है, उस समय धान के कटोरे में धान का उत्पादन चौपट हो गया था। अन्न की कमी नें भूख के सामने मनोभावों को दबा दिया था, टेंडे के सहारे सब्जियां बोने वालों के परिवार में कमोबेश यह समस्या कम थी, पेट में अन्न था और टेंडा टेंड़ते हुए, बाजार में भाजी बेंचते हुए प्रेम की लहरें उछाल मारती थीं। युवा मनोरंजन के साधनों में तरिया या कुंवा के पार में खड़े होकर लड़कियों के साथ छेड़खानी करना और फब्ती कसने जैसा ठोली-बोली करना प्रमुख था जो लड़कियों को प्रिय था।
नारी दुख और उसकी पीड़ा सभी काल और परिस्थितियों में एक समान रहा है। ‘चितावर में रे चिरई बोले‘ में इसे प्रतिबिम्बित किया गया है। वह अपने मैना-मंजूर प्रेमी को ढ़ूंढ रही है और कामना कर रही है कि उसे वह ‘तार‘ ले। यह उबार लेने का सहज भाव नहीं है वह कह रही है कि मुझे स्वीकार कर लेना। प्रेमी कहता है कि तुम्हें खोजते हुए मैं तुम्हारे घर गया तो तुम धान कूट रही थी यानी काम में व्यस्त थी। इसे देखकर मेरा मन पीपल के पत्ते के समान तरस गया। लड़की के काम की अधिकता और प्रेमी से ना मिलने का अवसर ना मिलना इस गीत में उसके दुख का कारण नजर आता है। 
शेख हुसैन के गाए गीतों में मुखड़े की बारंबारता ददरिया गीतों को देर तक गाए जाने के प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जिसमें अस्सी के दसक में बदलाव आ गया था। खेतों में काम करते हुए अनगढ़ लोक के मुह से शास्त्रीय पद-रागिनी नहीं टेक पे टेक ही तो निकलेगी। इनके एक गीत में तो सिर्फ दो पदों में एक गीत संपूर्ण हो गया है जिसे सुनते हुए आपको प्रतीत ही नहीं होगा कि कुछ कमी रह गई है कुछ और पद जोड़े जा सकते हैं। 
  उपरोक्त कुछ उदाहरणों के माध्यम से हमने प्रयास किया कि कुल जमा सात मुखड़े और कुछेक पदो के गीतों में समाहित सामाजिक संदर्भों से आपको जोड़ें। यह प्रयास अधूरा सा है, छत्तीसगढ़ के अन्यान्य लोकगीतों में तत्कालीन सामाजिक परिवेश और लोक की सांस्कृतिक यात्रा का प्रभाव आया है जो एक प्रकार से वाचिक इतिहास के विषद विष्लेशण के लिए हमें सदैव आमंत्रित करता है। इन गीतों में प्रयुक्त शब्दों का युगीन संदर्भ सर्वकालिक हैं हालांकि कुछ शब्द अब प्रचलन में नहीं है जैसे दोस्त या दोस का प्रयोग भाषाई सर्वेक्षण के तहत  100 साल पहले सन 1917 में रिकार्ड रायपुर के बृजलाल रावत के ददरिया गीत में प्रेमी के लिए दोस शब्द का प्रयोग हुआ है। शेख हुसैन के गीतों में भी यह कई बार आता है। रद्दा और के अर्थांवयन के लिए यहां जो वाक्य प्रयुक्त है वह उल्लेखनीय है। सामान्य बोलचाल में इन दोनों शब्दों को समानार्थी मान लिया जाता है किंतु यहां लोक विश्लेषित करता है कि रद्दा रेंगने(चलने) के लिए है और खोर डंहकने(पार करने) के लिए। कुछ अन्य पदों में 'कुँवा के पानी आबेच जी ला दोस बांध के' और 'मता डरे हंव बैरी, बिछल के मोर पैरी' में बांध के पानी का कुँवा तक आने और गईरी मताना ध्वनित होता है जबकि यह प्रेमिका को मन बांध कर कुँवा में पानी भरने आने का अनुरोध और प्रेम में मात कर सुदबुद्ध खोने का भाव है।
- संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. शेख हुसैन के ददरिया आधारित गीतों में तत्कालीन सामाजिक संदर्भों का सूक्ष्मता से विश्लेषण हुआ है। आपका सराहनीय प्रयास निस्संदेह लोक गीतों की गहराई में झाँकने को बाध्य कर रहा है अन्यथा श्रोता गण लोकगीतों में आनंद-रसानुभूति तक ही सिमट कर रह जाते हैं। इसे एक श्रृंखला के रूप में नियमित रखिये।

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  2. शेख हुसैन के ददरिया आधारित गीतों में तत्कालीन सामाजिक संदर्भों का सूक्ष्मता से विश्लेषण हुआ है। आपका सराहनीय प्रयास निस्संदेह लोक गीतों की गहराई में झाँकने को बाध्य कर रहा है अन्यथा श्रोता गण लोकगीतों में आनंद-रसानुभूति तक ही सिमट कर रह जाते हैं। इसे एक श्रृंखला के रूप में नियमित रखिये।

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