छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोकगीतों का सामाजिक संदर्भ

(शेख हुसैन के गाए गीतों के विशेष संदर्भ में)


श्रम परिहार, आनंद उत्सवों और संस्कार के अवसर में लोक की अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से प्रस्तुत होती है। लोक में गीतों की परम्परा आदिम युग से विद्यमान है और इसकी यही पारंपरिकता इसे लोकगीत के रूप में स्थापित करती है। लोकगीतों का संवहन वाचिक रूप से भाषायी भौगोलिक क्षेत्र में पीढ़ी दर पीढ़ी होती है। इस प्रक्रिया में सामाजिक परिवेश और युगीन संदर्भ इसमें जुड़ते जाते हैं। लोक सहज रूप से इसके माध्यम से एक आदर्श समाज और संवेदनशील मानवीय मूल्यों के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता को स्थापित करता है। समयानुसार मानवीय अनुभूतियों का कलात्मक प्रकटीकरण इसमें और निखार लाता है। वाचिक प्रवाह इन सभी सामाजिक सरोकारों का लोकगीतों के रूप में दस्तावेजीकरण करते चलता है जिसमें सामाजिक संदर्भ समाए रहते हैं। यह विभिन्न भाषाई-क्षेत्रीय लोकगीतों के बीच अपने विशिष्ठ पहचान को स्वमेव प्रदर्शित कर देता है। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में भी सामाजिक संदर्भ गुंफित हैं, जो तत्कालीन समाज को प्रतिबिंबित करता है। हम इस आलेख में छत्तीसगढ़ी के लोक गायक शेख हुसैन के गाए सात लोकप्रिय लोकगीतों के सामाजिक संदर्भों पर चर्चा करेंगें।

आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित शुरूआती छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में शेख हुसैन के ये सात गीत आज भी लोगों के कंठ में तरंगित है। सन् 1944 में जन्में शेख हुसैन नें प्राथमिक तक शिक्षा प्राप्त की थी। बचपन से इनकी रूचि संगीत में थी, युवा अवस्था में आप संगम आर्केस्ट्रा के साथ जुड़ गए और निर्मला इंगले, मदन चौहान एवं हुकुमचंद शर्मा आदि के साथ गीत गाने लगे। आप हिन्दी गानों की प्रस्तुतियों के बीच में संत मसि दास, बद्रीविशाल परमानंद और सूरजबली शर्मा के लिखे छत्तीसगढ़ी गीत और वाचिक लोकगीत प्रस्तुत करते थे। 02 अक्टूबर 1963 को स्थापित रायपुर रेडियो स्टेशन में बरसाती भइया के प्रयासों से शेख हुसैन के गाए सात चुनिंदा गीतों की रिकार्डिंग की गई। ये गीत सन् 1970 के दशक में रेडियो में लगातार प्रसारित हुए जिसनें शेख हुसैन की आवाज को अमर कर दिया। ये लोकगीत हैं-   
1. चितावर में वो चिरई बोले, मन के कलप-ना ला नई खोले 
2. खोपा पारे पाटी मारे टुरी रंग-रेली, छुनुर छुनुर पैरी बाजे गली गली
3. गुलगुल भजिया खा-ले, मोर संग तैं हर ददरिया गा-ले 
4. गजब दिन भईगे राजा तोर संग मा, नई देखेंव खल्लारी मेला वो
5. मन के मन मोहनी, मोर दिल के तैं जोगनी वो, ठुमुक दान के
6. एक पईसा के भाजी ला, दू पईसा बेचे गोई गोंदली ला रखे जी मां डार के
7. बटकी में बासी, अउ चुटकी में नून में गावतथव ददरिया तें कान देके सुन
लोक गीतों के श्रेणीकरण की दृष्टि से ये सभी गीत ददरिया हैं। ददरिया छत्तीसगढ़ के प्रेमी-प्रेमिका के बीच गाए जाने वाला लोकगीत है जिसमें बहुधा प्रश्नोत्तर शैली में दो पद होते हैं जो कई कड़ियों और मुखड़ों के साथ गाया जाता है। प्रेमी-प्रेमिका इसमें अपने प्रेम का इजहार, अपनी संवेदना, दुख-सुख और परिस्थितियों का चित्रण प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से प्रकट करते हैं। शेख हुसैन के गाए इन ददरिया गीतों में हम सामाजिक संदर्भ को पकड़ने का प्रयत्न करते हैं। ये गीत लगभग सन् 1970-72 में रिकार्ड किए गए हैं जिसके अनुसार इन लोकगीतों नें पिछले दसक की वाचिक यात्रा में सामाजिक संदर्भों को अपने आप में पिरोया होगा। 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद साठ और सत्तर का दसक नवनिर्माण का रहा है जिसका असर छत्तीसगढ़ में भी हुआ था। शहरों के विकास का उजाला गावों में आंखों और कानों से निहारा जा रहा था। पैदल और नदियों में नाव के सहारे यात्रा में अब मोटर और रेल की सुविधा आ गई थी। तब भी गांव में छत्तीसगढ़ जीवंत था, प्रेमिका अपने प्रेमी को रिफ्रेशमेंट में लांगड्राईव में जाने की मांग करती हुई सी कहती है कि बहुत दिन हो गए हैं तुम्हारे साथ मैं खल्लारी मेला नहीं गई हूं, चलो चलें। जैसे आज माल और मल्टीप्लैक्स प्रमी-प्रेमिकाओं के मिलना स्थल हैं वैसे ही उस समय मेला-मड़ई इनके मिलन स्थल थे। प्रेमिका के खल्लारी मेला ले जाने की जिद पर प्रेमी कहता है कि हां तुम्हें ले जाउंगा और घोड़े के चक्कर वाले झूले में बैठाकर झुलाउंगा साथ ही नदी में नाव की सैर भी कराउंगा। इस गीत में जो ’नइ छोंड़व जोड़ा’ शब्द का प्रयोग हुआ है उसकी आंतरिक बुनावट वही समझ सकेगा जो मेले के अपार भीड़ के धक्का-मुक्की के बीच किसी ग्रामीण युवा लड़के को बाला का हाथ पकड़ कर घूमते देखा हो। प्रेमिका को अनजान स्थान में अपने प्रेमी के साथ घूमते हुए लोक-लाज का डर नहीं है वह बिना स्कार्फ बांधे भीड़ में घूमना चाहती है उसे भय है संग छूट जाने का, गंवा जाने का। इसीलिए तो प्रेमी विश्वास दिलाते हुए कहता है ये हाथ नई छोड़ूंगा। 
इसी तरह इन लोकगीतों के पदों में सहज लगने वाले बाह्य बुनावट के अंदर के भाव और दर्शन खोपा पारे पाटी मारे टुरी रंग-रेली वाले गीत के एक पद में नजर आता है जिसमें प्रेमी कहता है कि ’पहिने ल लुगरा देखे ल दरपन, तोला खुल के बिराजे चांदी के करधन’। साठ और सत्तर के दसक में छत्तीसगढ़ी प्रेमिका के घर में कितना बड़ा दर्पण होता रहा होगा कल्पना करिए। ज्यादा से ज्यादा बित्तेभर का, इस बित्ते भर के दर्पण में गोरी को पहने हुए साड़ी और करधन कहां दिखेगा। वह दिखता है जीते जागते प्रेमी रूपी दर्पण में जो कहता है तुम्हें बहुत फब रहा है ये करधन। 
यह बुनावट ’गुल-गुल भजिया खाले’ के पदों में भी नजर आता है। मोटर जो तन का प्रतीक है वह स्टेशन में खड़ा है और रेल रूपी मन  तेल बेंचती तेलिन टूरी के पीछे भाग रहा है। आगे प्रेमिका को संबोधित करते हुए कहता है कि तुमने अपने दिल के बाड़ी में कुंदरू रूपी प्रेमी और पति रूपी करेले, दोनों को बों लिया है, अब पति लेने आया है तो सार्वजनिक रूप से रो ले।        
‘गजब दिन भईगे राजा‘ वाले गीत के अगले पद में प्रेमिका के सहेलियों के संग घिरे होने और उनके द्वारा उसे अकेले नहीं छोड़े जाने का उल्लेख आता है जो चोरी-चोरी प्रेम को प्रदर्शित करता है और प्रेमी हिन्दी गीतों के संक्रमण युक्त डायलाग बोलता है कि तुम पतंग बन के उड़ चलना। ’में बन जाहूं चकरी, तैं उड़बे पतंग’ का प्रतीक छत्तीसगढ़ी लोक का मूल प्रतीक नहीं है। यह बाद में नवनिर्माण और सिनेमा के प्रभाव से इसमें आया है। ऐसे एकाक उदाहरण के बावजूद छेड़खानी, चटभइंया बोली का निक लगना, बोली-ठोली का गुरतुर लगना, बेलबेल्हा टुरा का घटौन्दा के पास बैठ के सीटी बजाना आरूग है और तत्कालीन समाज के चित्र को प्रतिबिम्बित करता है। 
इसी तरह इन गीतों में प्रिय नास्ते के रूप में गुलगुल भजिया और भोजन के रूप में बासी का उल्लेख छत्तीसगढ़िया संतोष को प्रकट करता है। तत्कालीन समाज में प्रचलित स्त्री श्रृंगार का भी इन गीतों में उपयुक्त स्थानों पर सुन्दर चित्रण हुआ है जिसमें कमर तक लम्बा बाल, बालों का खोपा, खोपा में करौदे का और मोगरे का फुल, विजातीय फुंदरा का जुड़े में सेंध भी इनमें नजर आता है। हाथों में चूड़ी, उंगलियों में मुंदरी, कानों में खिनवा, आंखों में कजरा, पैरों में पैरी और मेंहदी, होठ लाल करने के लिए बंगला पान और सरकते सर का पल्लू अन्य श्रृंगार के रूप में प्रतिबिंम्बित है। स्त्री वस्त्रों में लुगरा और पुरूष वस्त्रों में पतोई और कुरथा का उल्लेख है।
व्यवसाय या जीवन यापन के संबंध में इन गीतों में जो फल-सब्जी बेंचने का उल्लेख ज्यादा आया है, धान की खेती, तेल बेंचना का संदर्भ एक-एक जगह है। मेरी समझ में इसका कारण साठ के दसक में छत्तीसगढ़ में आया लगातार अकाल है, उस समय धान के कटोरे में धान का उत्पादन चौपट हो गया था। अन्न की कमी नें भूख के सामने मनोभावों को दबा दिया था, टेंडे के सहारे सब्जियां बोने वालों के परिवार में कमोबेश यह समस्या कम थी, पेट में अन्न था और टेंडा टेंड़ते हुए, बाजार में भाजी बेंचते हुए प्रेम की लहरें उछाल मारती थीं। युवा मनोरंजन के साधनों में तरिया या कुंवा के पार में खड़े होकर लड़कियों के साथ छेड़खानी करना और फब्ती कसने जैसा ठोली-बोली करना प्रमुख था जो लड़कियों को प्रिय था।
नारी दुख और उसकी पीड़ा सभी काल और परिस्थितियों में एक समान रहा है। ‘चितावर में रे चिरई बोले‘ में इसे प्रतिबिम्बित किया गया है। वह अपने मैना-मंजूर प्रेमी को ढ़ूंढ रही है और कामना कर रही है कि उसे वह ‘तार‘ ले। यह उबार लेने का सहज भाव नहीं है वह कह रही है कि मुझे स्वीकार कर लेना। प्रेमी कहता है कि तुम्हें खोजते हुए मैं तुम्हारे घर गया तो तुम धान कूट रही थी यानी काम में व्यस्त थी। इसे देखकर मेरा मन पीपल के पत्ते के समान तरस गया। लड़की के काम की अधिकता और प्रेमी से ना मिलने का अवसर ना मिलना इस गीत में उसके दुख का कारण नजर आता है। 
शेख हुसैन के गाए गीतों में मुखड़े की बारंबारता ददरिया गीतों को देर तक गाए जाने के प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जिसमें अस्सी के दसक में बदलाव आ गया था। खेतों में काम करते हुए अनगढ़ लोक के मुह से शास्त्रीय पद-रागिनी नहीं टेक पे टेक ही तो निकलेगी। इनके एक गीत में तो सिर्फ दो पदों में एक गीत संपूर्ण हो गया है जिसे सुनते हुए आपको प्रतीत ही नहीं होगा कि कुछ कमी रह गई है कुछ और पद जोड़े जा सकते हैं। 
  उपरोक्त कुछ उदाहरणों के माध्यम से हमने प्रयास किया कि कुल जमा सात मुखड़े और कुछेक पदो के गीतों में समाहित सामाजिक संदर्भों से आपको जोड़ें। यह प्रयास अधूरा सा है, छत्तीसगढ़ के अन्यान्य लोकगीतों में तत्कालीन सामाजिक परिवेश और लोक की सांस्कृतिक यात्रा का प्रभाव आया है जो एक प्रकार से वाचिक इतिहास के विषद विष्लेशण के लिए हमें सदैव आमंत्रित करता है। इन गीतों में प्रयुक्त शब्दों का युगीन संदर्भ सर्वकालिक हैं हालांकि कुछ शब्द अब प्रचलन में नहीं है जैसे दोस्त या दोस का प्रयोग भाषाई सर्वेक्षण के तहत  100 साल पहले सन 1917 में रिकार्ड रायपुर के बृजलाल रावत के ददरिया गीत में प्रेमी के लिए दोस शब्द का प्रयोग हुआ है। शेख हुसैन के गीतों में भी यह कई बार आता है। रद्दा और के अर्थांवयन के लिए यहां जो वाक्य प्रयुक्त है वह उल्लेखनीय है। सामान्य बोलचाल में इन दोनों शब्दों को समानार्थी मान लिया जाता है किंतु यहां लोक विश्लेषित करता है कि रद्दा रेंगने(चलने) के लिए है और खोर डंहकने(पार करने) के लिए। कुछ अन्य पदों में 'कुँवा के पानी आबेच जी ला दोस बांध के' और 'मता डरे हंव बैरी, बिछल के मोर पैरी' में बांध के पानी का कुँवा तक आने और गईरी मताना ध्वनित होता है जबकि यह प्रेमिका को मन बांध कर कुँवा में पानी भरने आने का अनुरोध और प्रेम में मात कर सुदबुद्ध खोने का भाव है।
- संजीव तिवारी

2 टिप्‍पणियां:

  1. शेख हुसैन के ददरिया आधारित गीतों में तत्कालीन सामाजिक संदर्भों का सूक्ष्मता से विश्लेषण हुआ है। आपका सराहनीय प्रयास निस्संदेह लोक गीतों की गहराई में झाँकने को बाध्य कर रहा है अन्यथा श्रोता गण लोकगीतों में आनंद-रसानुभूति तक ही सिमट कर रह जाते हैं। इसे एक श्रृंखला के रूप में नियमित रखिये।

    जवाब देंहटाएं
  2. शेख हुसैन के ददरिया आधारित गीतों में तत्कालीन सामाजिक संदर्भों का सूक्ष्मता से विश्लेषण हुआ है। आपका सराहनीय प्रयास निस्संदेह लोक गीतों की गहराई में झाँकने को बाध्य कर रहा है अन्यथा श्रोता गण लोकगीतों में आनंद-रसानुभूति तक ही सिमट कर रह जाते हैं। इसे एक श्रृंखला के रूप में नियमित रखिये।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

लेबल

संजीव तिवारी की कलम घसीटी समसामयिक लेख अतिथि कलम जीवन परिचय छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत - मेरी नजरों में पुस्तकें-पत्रिकायें छत्तीसगढ़ी शब्द Chhattisgarhi Phrase Chhattisgarhi Word विनोद साव कहानी पंकज अवधिया सुनील कुमार आस्‍था परम्‍परा विश्‍वास अंध विश्‍वास गीत-गजल-कविता Bastar Naxal समसामयिक अश्विनी केशरवानी नाचा परदेशीराम वर्मा विवेकराज सिंह अरूण कुमार निगम व्यंग कोदूराम दलित रामहृदय तिवारी अंर्तकथा कुबेर पंडवानी Chandaini Gonda पीसीलाल यादव भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष Ramchandra Deshmukh गजानन माधव मुक्तिबोध ग्रीन हण्‍ट छत्‍तीसगढ़ी छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म पीपली लाईव बस्‍तर ब्लाग तकनीक Android Chhattisgarhi Gazal ओंकार दास नत्‍था प्रेम साईमन ब्‍लॉगर मिलन रामेश्वर वैष्णव रायपुर साहित्य महोत्सव सरला शर्मा हबीब तनवीर Binayak Sen Dandi Yatra IPTA Love Latter Raypur Sahitya Mahotsav facebook venkatesh shukla अकलतरा अनुवाद अशोक तिवारी आभासी दुनिया आभासी यात्रा वृत्तांत कतरन कनक तिवारी कैलाश वानखेड़े खुमान लाल साव गुरतुर गोठ गूगल रीडर गोपाल मिश्र घनश्याम सिंह गुप्त चिंतलनार छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग छत्तीसगढ़ वंशी छत्‍तीसगढ़ का इतिहास छत्‍तीसगढ़ी उपन्‍यास जयप्रकाश जस गीत दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति धरोहर पं. सुन्‍दर लाल शर्मा प्रतिक्रिया प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट फाग बिनायक सेन ब्लॉग मीट मानवाधिकार रंगशिल्‍पी रमाकान्‍त श्रीवास्‍तव राजेश सिंह राममनोहर लोहिया विजय वर्तमान विश्वरंजन वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह वेंकटेश शुक्ल श्रीलाल शुक्‍ल संतोष झांझी सुशील भोले हिन्‍दी ब्‍लाग से कमाई Adsense Anup Ranjan Pandey Banjare Barle Bastar Band Bastar Painting CP & Berar Chhattisgarh Food Chhattisgarh Rajbhasha Aayog Chhattisgarhi Chhattisgarhi Film Daud Khan Deo Aanand Dev Baloda Dr. Narayan Bhaskar Khare Dr.Sudhir Pathak Dwarika Prasad Mishra Fida Bai Geet Ghar Dwar Google app Govind Ram Nirmalkar Hindi Input Jaiprakash Jhaduram Devangan Justice Yatindra Singh Khem Vaishnav Kondagaon Lal Kitab Latika Vaishnav Mayank verma Nai Kahani Narendra Dev Verma Pandwani Panthi Punaram Nishad R.V. Russell Rajesh Khanna Rajyageet Ravindra Ginnore Ravishankar Shukla Sabal Singh Chouhan Sarguja Sargujiha Boli Sirpur Teejan Bai Telangana Tijan Bai Vedmati Vidya Bhushan Mishra chhattisgarhi upanyas fb feedburner kapalik romancing with life sanskrit ssie अगरिया अजय तिवारी अधबीच अनिल पुसदकर अनुज शर्मा अमरेन्‍द्र नाथ त्रिपाठी अमिताभ अलबेला खत्री अली सैयद अशोक वाजपेयी अशोक सिंघई असम आईसीएस आशा शुक्‍ला ई—स्टाम्प उडि़या साहित्य उपन्‍यास एडसेंस एड्स एयरसेल कंगला मांझी कचना धुरवा कपिलनाथ कश्यप कबीर कार्टून किस्मत बाई देवार कृतिदेव कैलाश बनवासी कोयल गणेश शंकर विद्यार्थी गम्मत गांधीवाद गिरिजेश राव गिरीश पंकज गिरौदपुरी गुलशेर अहमद खॉं ‘शानी’ गोविन्‍द राम निर्मलकर घर द्वार चंदैनी गोंदा छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय छत्‍तीसगढ़ पर्यटन छत्‍तीसगढ़ राज्‍य अलंकरण छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंजन जतिन दास जन संस्‍कृति मंच जय गंगान जयंत साहू जया जादवानी जिंदल स्टील एण्ड पावर लिमिटेड जुन्‍नाडीह जे.के.लक्ष्मी सीमेंट जैत खांब टेंगनाही माता टेम्पलेट डिजाइनर ठेठरी-खुरमी ठोस अपशिष्ट् (प्रबंधन और हथालन) उप-विधियॉं डॉ. अतुल कुमार डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव डॉ. गोरेलाल चंदेल डॉ. निर्मल साहू डॉ. राजेन्‍द्र मिश्र डॉ. विनय कुमार पाठक डॉ. श्रद्धा चंद्राकर डॉ. संजय दानी डॉ. हंसा शुक्ला डॉ.ऋतु दुबे डॉ.पी.आर. कोसरिया डॉ.राजेन्‍द्र प्रसाद डॉ.संजय अलंग तमंचा रायपुरी दंतेवाडा दलित चेतना दाउद खॉंन दारा सिंह दिनकर दीपक शर्मा देसी दारू धनश्‍याम सिंह गुप्‍त नथमल झँवर नया थियेटर नवीन जिंदल नाम निदा फ़ाज़ली नोकिया 5233 पं. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार परिकल्‍पना सम्‍मान पवन दीवान पाबला वर्सेस अनूप पूनम प्रशांत भूषण प्रादेशिक सम्मलेन प्रेम दिवस बलौदा बसदेवा बस्‍तर बैंड बहादुर कलारिन बहुमत सम्मान बिलासा ब्लागरों की चिंतन बैठक भरथरी भिलाई स्टील प्लांट भुनेश्वर कश्यप भूमि अर्जन भेंट-मुलाकात मकबूल फिदा हुसैन मधुबाला महाभारत महावीर अग्रवाल महुदा माटी तिहार माननीय श्री न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह मीरा बाई मेधा पाटकर मोहम्मद हिदायतउल्ला योगेंद्र ठाकुर रघुवीर अग्रवाल 'पथिक' रवि श्रीवास्तव रश्मि सुन्‍दरानी राजकुमार सोनी राजमाता फुलवादेवी राजीव रंजन राजेश खन्ना राम पटवा रामधारी सिंह 'दिनकर’ राय बहादुर डॉ. हीरालाल रेखादेवी जलक्षत्री रेमिंगटन लक्ष्मण प्रसाद दुबे लाईनेक्स लाला जगदलपुरी लेह लोक साहित्‍य वामपंथ विद्याभूषण मिश्र विनोद डोंगरे वीरेन्द्र कुर्रे वीरेन्‍द्र कुमार सोनी वैरियर एल्विन शबरी शरद कोकाश शरद पुर्णिमा शहरोज़ शिरीष डामरे शिव मंदिर शुभदा मिश्र श्यामलाल चतुर्वेदी श्रद्धा थवाईत संजीत त्रिपाठी संजीव ठाकुर संतोष जैन संदीप पांडे संस्कृत संस्‍कृति संस्‍कृति विभाग सतनाम सतीश कुमार चौहान सत्‍येन्‍द्र समाजरत्न पतिराम साव सम्मान सरला दास साक्षात्‍कार सामूहिक ब्‍लॉग साहित्तिक हलचल सुभाष चंद्र बोस सुमित्रा नंदन पंत सूचक सूचना सृजन गाथा स्टाम्प शुल्क स्वच्छ भारत मिशन हंस हनुमंत नायडू हरिठाकुर हरिभूमि हास-परिहास हिन्‍दी टूल हिमांशु कुमार हिमांशु द्विवेदी हेमंत वैष्‍णव है बातों में दम

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...