सुरता चंदैनी गोंदा - 3 Surata Chaindaini Gonda सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सुरता चंदैनी गोंदा - 3 Surata Chaindaini Gonda

Hanumant Naidu
चंदैनी गोंदा की स्मारिका के मुख-पृष्ठ की हालत जर्जर हो गई है। स्मृतियां भी धीरे-धीरे धुंधली होती जा रही हैं। ऐसे में नई पीढ़ी तक चंदैनी गोंदा की जानकारी को स्थानांतरित करना आवश्यक हो गया है। आज की श्रृंखला में डॉ हनुमंत नायडू (हिन्दी के प्रोफेसर और प्रथम छत्तीसगढ़ी फ़िल्म "कहि देबे संदेश" के गीतकार) के आलेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं, जिन्हें पढ़कर नई पीढ़ी को कुछ और नई जानकारियां मिलेंगी। श्रृंखला-1 में कुछ पात्रों के नाम का उल्लेख किया गया था। उन पात्रों की भूमिका, इस आलेख को पढ़ने के बाद कुछ और अधिक स्पष्ट होगी। साथ ही यह भी ज्ञात होगा कि चंदैनी गोंदा के पात्र, महज पात्र नहीं बल्कि प्रतीक हैं। तो लीजिए! डॉ. हनुमंत नायडू के आलेख - "छत्तीसगढ़ी लोक मंच-एक नया सांस्कृतिक संदर्भ", "छत्तीसगढ़ी आंसुओं का विद्रोह-चंदैनी गोंदा", इस शीर्षक से स्मारिका में प्रकाशित आलेख के कुछ अंश -

"चंदैनी गोंदा"
चंदैनी गोंदा यथार्थ में एक विशेष प्रकार के नन्हे नन्हे गेंदे के फूलों का नाम है जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत पाए जाते हैं। चंदैनी गोंदा भी धरती की पूजा का फूल है। श्री देशमुख के ही शब्दों में चंदैनी गोंदा पूजा का फूल है। चंदैनी गोंदा छोटे-छोटे कलाकारों का संगम है। चंदैनी गोंदा, लोकगीतों पर एक नया प्रयोग है। दृश्यों, प्रतीकों और संवादों द्वारा गीतों को गद्द देकर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के माध्यम से एक संदेश पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण --- यही चंदैनी गोंदा है। जिन्होंने इसे नाटक, नौटंकी या नाचासमझकर देखा होगा वह अवश्य ही निराश हुए होंगे लेकिन जिन्होंने इसे लोकगीतों पर एक नए प्रयोग के रूप में देखा होगा वह अवश्य ही हर्षित हुए होंगे।

गेहूं के क्षेत्रों में तो हरित क्रांति हो चुकी है परंतु धान के क्षेत्रों में नहीं हो पाई। यही तथ्य चंदैनी गोंदा के प्रस्तुतीकरण की प्रेरणा का प्रमुख स्रोत रहा है। चंदैनी गोंदा का सर्वप्रथम प्रदर्शन बघेरा गांव के एक खलिहान में सन 1971 को हुआ था इसके बाद तो पैरी, भिलाई, राजनाँदगाँव, धमधा, नंदिनी, धमतरी, झोला, टेमरी, जंजगिरी आदि अनेक स्थानों में पचास-पचास हजार दर्शकों के समक्ष यह सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा चुका है। चंदैनी गोंदा में छत्तीसगढ़ी जीवन के जन्म से मरण तक के सभी सांस्कृतिक पक्षों को सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इन सब तथ्यों को गूँथने के लिए कथा का एक झीना-सा तन्तु लिया गया है।

प्रमुख पात्र दुखित और मरही किसान दंपत्ति, भारत के किसानों के प्रतीक हैं। गंगा, गांव की बेटी है जो गांव की पवित्रता को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करती है। शिव, गांव का बेटा है जो गांव की आस्था का प्रतीक है। चांद-बी, शोषित का प्रतीक ही नहीं भावनात्मक एकता की अभिव्यंजना भी है। बटोरन लाल, एक शोषक है जो छत्तीसगढ़ में ही नहीं, देश के किसी भी कोने में पैदा हो सकता है। "किसान ही भारत की आत्मा है" - इस तथ्य की व्यंजना, दुखित के इस संवाद से बड़े ही सशक्त ढंग से होती है - "मैं रोहूं तो मरही रो देही, मरही रो देही तो गांव रो देही गांव रो देही तो भारत रो देही। भारत माता ला मैं रोते नहीं देख सकंव। (मैं रो दूंगा तो मरही (पत्नी) रो देगी। मरही रो देगी तो गांव रो देगा और गांव रो देगा तो भारत रो देगा और भारत-माता को रोते मैं नहीं देख सकता)

शिव, युवक है अतः वह सब पहले भोपाल और दिल्ली में प्रजातांत्रिक ढंग से शोषितों की समस्या को हल करना चाहता है परंतु असफल होने पर तेलंगाना (साम्यवाद का प्रतीक) जाने की धमकी देता है परंतु छत्तीसगढ़ी धरती का प्रेम, त्याग और बलिदान उसके कदम सेना की ओर मोड़ देते हैं। वह देश की रक्षा करते हुए युद्ध में मारा जाता है। दुखित भी इस आघात को सहन नहीं पाता। शिव के रूप में गांव की आस्था मरती नहीं बल्कि देश के लिए बलिदान होकर अमर हो जाती है, परंतु हरित क्रांति और शोषकों पर किए गए तीखे व्यंग हृदय को चीरते चले जाते हैं। चंदैनी गोंदा की एक विशेषता यह है कि इसका प्रारंभ छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों के सम्मान से प्रारंभ होता है। इसके अनेक दृश्यों में "दौरी" ( बैलों से धान के सूखे पौधों को खुंदवा कर धान अलग करना) हरित-क्रांति, गोरा पूजा (पार्वती पूजन) गम्मत तथा फौज आदि प्रमुख हैं। अभिनेताओं में दुखित के रूप में श्री रामचंद्र देशमुख और शिव के रूप में छत्तीसगढ़ी फिल्मों और रंगमंच के कलाकार शिव कुमार एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। शिवकुमार के "हरित क्रांति" लमसेना (घर जवाई) जैसे बहु-प्रशंसित, एक पात्रीय लघु नाटकों को चंदैनी गोंदा में गूँथ दिया गया है। "रविशंकर शुक्ल" तथा "लक्ष्मण मस्तूरिया" आदि के गीत और खुमान साव का संगीत, चंदैनी गोंदा की एक प्रमुख विशेषता है -- उसमें मानो प्राण फूंक देते है।
("छत्तीसगढ़ की एक सांस्कृतिक यात्रा"स्मारिका से साभार)
प्रस्तुतकर्ता - अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (9907174334)

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