विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
संयोगवश बाॅलीवुड के गुरूदत्त और संजीव कुमार का जन्मदिन की एक ही तारीख है 9 जुलाई। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृृष्ट कलाकार थे। संजीव कुमार का संवाद शैली, अभिनय, मुस्कुराहट दर्शकों के दिल में हमेशा रहेंगे और ये भी सच है कि गुरूदत्त के जाने के बाद कई फिल्मों के नायक के लिए संजीव कुमार ही उपयुक्त थे।
बाॅलीवुड और बस्तर दो अलग-अलग क्षेत्र है। एक कला जगत, तो दूसरा भारत का एक बड़ा भूभाग। दोनों ने अपने-अपने महाराजा को कालचक्र में खो दिया। गुरूदत्त के जीवन की शुरूआत से अंत तक एक और सर्वश्रेष्ठ नायक उनके साथ आए (जन्म-वर्ष 1925-29) और उनके साथ ही चले गए (मृत्यु 1964-66) वो हैं ‘बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव’। शायद उनका कहीं मुलाकात भी न हुआ हो, लेकिन आज जब एक नायक को देखते हैं तो दूसरा नायक खुद ब खुद परछाई की तरह दिख जाते हैं। दो अद्भुत सुंदर, आकर्षक व्यक्तित्व वाले, मनमोहक, दयालु, सज्जन, प्रतिभा के धनी व्यक्ति, कार्य के प्रति अथक लगन, श्रम और अंग्रेजी सहित अन्य भाषा के जानकार दोनों महाराजा-एक बड़े भूभाग बस्तर का महाराजा और दूसरा कला का महाराजा। दोनों का एक समान व्यक्तित्व, संघर्ष और कम उम्र में अन्त ये समानता असंख्य लोगों के दिल में आज भी राज करती है।
वर्ष 1947 आजादी का साल और ज्यों-ज्यों साल बढ़ते गए दो युवाओं का अपने-अपने क्षेत्र में संघर्ष की शुरूआत हुई। गुरूदत्त ने ‘प्यासा’ फिल्म की कहानी लिखी, वहीं प्रवीरचंद्र ने भारत गणराज्य में बस्तर के विलय के लिए विलय पत्र में हस्ताक्षर किए। इस विलय पत्र में हस्ताक्षर करके लौटने के बाद प्रवीरचंद्र को महसूस हुआ कि उन्होंने अच्छा नहीं किया, बस्तर को खो दिया और इस बात का जिक्र अपने एक अग्रेंज अधिकारी को किया (लेख, किताबों में जिक्र अनुसार)।
गुरूदत्त ने बाॅलीवुड में बाज, बाजी, सीआईडी, आर-पार, साहेब बीबी और गुलाम, कागज के फूल और प्यासा फिल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता की सफलता-विफलता की जिंदगी जी और सर्वश्रेष्ठ गीत, संगीत, भाषा-शैली, चित्रांकन से विश्व में भारतीय सिनेमा का का नाम रौशन किया।
वहीं प्रवीरचंद्र ने 1949 में जगदलपुर विधानसभा सीट जीता। सरकार के रवैये से खफा होकर उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया और अगले चुनाव में बस्तर से नौ सीट जीताया। आदिवासी, जल, जंगल और जमीन के प्रति उनके हक के लिए संघर्ष, अथाह प्रेम, रक्षात्मक कवच लिए उनका व्यक्तित्व। प्रवीरचंद्र पूर्व महाराजा थे, आदिवासियों का उनके प्रति अनन्य प्रेम था। आदिवासी समूह का महल में मुलाकात, रस्म आदि चल रहा था। भीड़ द्वारा एक पुलिस की हत्या होने पर प्रवीरचंद्र जी का अंत की शुरूआत हुई। पुलिस ने महल को चारो ओर से घेर लिया और महिला-बच्चों को समर्पण के लिए कहा। महिलाओं और बच्चों पर गोलियां चलने से प्रवीरचंद्र दौड़ते हुए बचाने आए लेकिन पुलिस फायरिंग में 25 गोलियां उनके शरीर में धंस गई और वो उठ नहीं पाए। कैसी विडंबना है कि अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्तियों का अंत एकाकी और अथाह प्रेम के कत्र्तव्य के भंवर में हो जाता है।
गुरूदत्त ने फिल्मों की माध्यम से अपनी योगदान को फिल्म के माध्यम से जीवित रखा है वहीं प्रवीरचंद्र ने आदिवासी, जल, जंगल और जमीन के हक के लिए जो योगदान दिए वह इतिहास में दर्ज है। प्रवीरचंद्र ने अपनी एक पुस्तक लिखी- आई प्रवीर, द आदिवासी गाॅड। यह संस्करण इंटरनेट और आनलाइन के के माध्यम से जन-जन को प्राप्त हो तो उनके दिल की बात और भी लोगों तक पहुंचेगी। आज भी बस्तर के लोगों में प्रवीरचंद्र का गहरा प्रभाव है, वे अमिट प्रेम को बनाए हुए मां दंतेश्वरी के चित्र के साथ प्रवीरचंद्र की तस्वीर रखते हैं।
पता नहीं क्यों आज हिन्दी सिनेमा का सम्राट गुरूदत्त और बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र ने जो लोगों के दिलों में जगह बनाई है। उनके मिटने के बाद भी उसकी भरपाई आज 50 वर्ष बाद भी किसी ने नहीं कर पाई।
- देवराम यादव
बाॅलीवुड और बस्तर दो अलग-अलग क्षेत्र है। एक कला जगत, तो दूसरा भारत का एक बड़ा भूभाग। दोनों ने अपने-अपने महाराजा को कालचक्र में खो दिया। गुरूदत्त के जीवन की शुरूआत से अंत तक एक और सर्वश्रेष्ठ नायक उनके साथ आए (जन्म-वर्ष 1925-29) और उनके साथ ही चले गए (मृत्यु 1964-66) वो हैं ‘बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव’। शायद उनका कहीं मुलाकात भी न हुआ हो, लेकिन आज जब एक नायक को देखते हैं तो दूसरा नायक खुद ब खुद परछाई की तरह दिख जाते हैं। दो अद्भुत सुंदर, आकर्षक व्यक्तित्व वाले, मनमोहक, दयालु, सज्जन, प्रतिभा के धनी व्यक्ति, कार्य के प्रति अथक लगन, श्रम और अंग्रेजी सहित अन्य भाषा के जानकार दोनों महाराजा-एक बड़े भूभाग बस्तर का महाराजा और दूसरा कला का महाराजा। दोनों का एक समान व्यक्तित्व, संघर्ष और कम उम्र में अन्त ये समानता असंख्य लोगों के दिल में आज भी राज करती है।
वर्ष 1947 आजादी का साल और ज्यों-ज्यों साल बढ़ते गए दो युवाओं का अपने-अपने क्षेत्र में संघर्ष की शुरूआत हुई। गुरूदत्त ने ‘प्यासा’ फिल्म की कहानी लिखी, वहीं प्रवीरचंद्र ने भारत गणराज्य में बस्तर के विलय के लिए विलय पत्र में हस्ताक्षर किए। इस विलय पत्र में हस्ताक्षर करके लौटने के बाद प्रवीरचंद्र को महसूस हुआ कि उन्होंने अच्छा नहीं किया, बस्तर को खो दिया और इस बात का जिक्र अपने एक अग्रेंज अधिकारी को किया (लेख, किताबों में जिक्र अनुसार)।
गुरूदत्त ने बाॅलीवुड में बाज, बाजी, सीआईडी, आर-पार, साहेब बीबी और गुलाम, कागज के फूल और प्यासा फिल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता की सफलता-विफलता की जिंदगी जी और सर्वश्रेष्ठ गीत, संगीत, भाषा-शैली, चित्रांकन से विश्व में भारतीय सिनेमा का का नाम रौशन किया।
वहीं प्रवीरचंद्र ने 1949 में जगदलपुर विधानसभा सीट जीता। सरकार के रवैये से खफा होकर उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया और अगले चुनाव में बस्तर से नौ सीट जीताया। आदिवासी, जल, जंगल और जमीन के प्रति उनके हक के लिए संघर्ष, अथाह प्रेम, रक्षात्मक कवच लिए उनका व्यक्तित्व। प्रवीरचंद्र पूर्व महाराजा थे, आदिवासियों का उनके प्रति अनन्य प्रेम था। आदिवासी समूह का महल में मुलाकात, रस्म आदि चल रहा था। भीड़ द्वारा एक पुलिस की हत्या होने पर प्रवीरचंद्र जी का अंत की शुरूआत हुई। पुलिस ने महल को चारो ओर से घेर लिया और महिला-बच्चों को समर्पण के लिए कहा। महिलाओं और बच्चों पर गोलियां चलने से प्रवीरचंद्र दौड़ते हुए बचाने आए लेकिन पुलिस फायरिंग में 25 गोलियां उनके शरीर में धंस गई और वो उठ नहीं पाए। कैसी विडंबना है कि अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्तियों का अंत एकाकी और अथाह प्रेम के कत्र्तव्य के भंवर में हो जाता है।
गुरूदत्त ने फिल्मों की माध्यम से अपनी योगदान को फिल्म के माध्यम से जीवित रखा है वहीं प्रवीरचंद्र ने आदिवासी, जल, जंगल और जमीन के हक के लिए जो योगदान दिए वह इतिहास में दर्ज है। प्रवीरचंद्र ने अपनी एक पुस्तक लिखी- आई प्रवीर, द आदिवासी गाॅड। यह संस्करण इंटरनेट और आनलाइन के के माध्यम से जन-जन को प्राप्त हो तो उनके दिल की बात और भी लोगों तक पहुंचेगी। आज भी बस्तर के लोगों में प्रवीरचंद्र का गहरा प्रभाव है, वे अमिट प्रेम को बनाए हुए मां दंतेश्वरी के चित्र के साथ प्रवीरचंद्र की तस्वीर रखते हैं।
पता नहीं क्यों आज हिन्दी सिनेमा का सम्राट गुरूदत्त और बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र ने जो लोगों के दिलों में जगह बनाई है। उनके मिटने के बाद भी उसकी भरपाई आज 50 वर्ष बाद भी किसी ने नहीं कर पाई।
- देवराम यादव
वाह
जवाब देंहटाएंमहान आत्मा मन ला सादर नमन
जवाब देंहटाएंअगर आप एप्पल के फोन को पसंद करते हैं, तो आपके लिए एक बुरी खबर है.दरअसल कंपनी ने अपने चार फोन्स को भारत में बंद कर दिया है.एप्पल के ऐसा करने से भारतीय यूजर्स के लिए थोड़ी परेशानी खड़ी होने वाली है.ऐसा इसलिए क्योंकि कंपनी के इस कदम के बाद अब भारतीय यूजर्स को आईफोन खरीदना महंगा पड़ने वाला है. https://hs.news/apple-stopped-its-iphone-sale-in-india/
जवाब देंहटाएंबाहुबली फेम प्रभास की अपकमिंग फिल्म साहो लेकर फैंस का क्रेज बढ़ता ही जा रहा है. लेकिन ताजा अपेडट्स के अनुसार फिल्म के लिए फैंस को थोड़ा और इंतजार करना पड़ सकता है. https://hs.news/saaho-release-date-changed/
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