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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

सुकुवा - पहाती के

शनिवार 01 जुलाई 2017 को नेहरू सांस्कृतिक केन्द्र, भिलाई, सेक्टर-1 में भिलाई के कलाप्रेमी दर्शकों के अलावा छत्तीसगढ़ प्रदेशभर के लोककलाकारों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और जनप्रतिनिधियों की विपुल उपस्थिति में ’कला परंपरा’ संस्था द्वारा दुर्गा प्रसाद पारकर लिखित गीतनाट्य ’सुकुवा - पहाती के’ का मंचन किया गया।
’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ जैसे मुद्दों को नाटक के मूल उद्देश्य के रूप में प्रचारित किया गया था लेकिन कथानक में शासन की विभिन्न योजनाओं के प्रचार-प्रसार की सघन उपस्थिति ने इस उद्देश्य को धक्का मार-मारकर मंचच्युत् कर दिया। लोक परंपरा में शासन की चापलूसी और स्तुतिगान कभी भी, कहीं भी नहीं है। लोक परंपरा में लोक-प्रतिरोध के स्वर मिलते हैं, जिसे इस गीतनाट्य में नकारा गया है।
पूर्व प्रतिष्ठित लोककलामंचों की ही शैली में प्रस्तुत इस गीतनाट्य में नवीन कुछ भी नहीं है अपितु एकाधिक बार छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा और लोक संस्कृति की गलत छवियाँ अवश्य प्रस्तुत की गई हैं, यथा - यहाँ लाख प्रताड़ित होकर भी पत्नियाँ पति को ’’रोगहा, किरहा, तोर रोना परे,’ की गालियाँ नहीं देतीं। अपवादें जरूर होंगे, परंतु अपवादों से न तो परंपराएँ बनती है और न हीं संस्कृतियाँ। लेखक द्वारा इसे यदि नारी सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया होगा तो बात अलग है।
गौरा-गौरी की झाँकियों में अंतर होता है। गौरी की झाँकी अलंकृत और छाजनयुक्त बनाई जाती हैं (गौरी (पार्वती) राजकन्या है, महलों में रहनेवाली हैं।) गौरा की झाँकी खुली और प्राकृतिक होती है। (गौरा (शिव) के पास महल नहीं है, वे तो हिमालयवासी हैं।) लोक की यह समझ स्तुत्य है। परंतु लोककला मंचों के कलाकारों के पास यह समझ नहीं है, पता नहीं क्यों?
छत्तीसगढ़ ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी महिला और पुरुष टीमों के बीच किसी प्रकार की खेल प्रतियोगिताएँ नहीं होती। गीतनाट्य में ऐसा दिखाया गया है। ’महिला सशक्तिकरण’ और ’नारी अस्मिता’ के लिए इस प्रकार के आयोजनों की शुरुआत यदि छत्तीसगढ़ से होने की शुभ आकांक्षा के साथ यह दृश्य रख गया हो तो यह स्वागतेय है।
इन बातों की यदि उपेक्षा कर दिया जाय तो प्रस्तुति निसंदेह सफल मानी जायेगी।
कुबेर
कुबेर जी छत्‍तीसगढ़ के वरिष्‍ठ लेखक हैं, साहित्‍य के अन्‍यान्‍य विधाओं में लेखन करते हैं एवं संचार के नये तकनीकि से भी जुड़े हुए हैं। इंटरनेट पर इनका एक ब्‍लॉग भी है जहां से हमने इस आलेख को साभार यहां प्रस्‍तुत किया है। फेसबुक में सुकवा के कुछ पोस्‍ट-

टिप्पणियाँ

  1. कला और साहित्य के लिए समर्पित प्रयास के लिए बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. सफल आयोजन के लिए हार्दिक बधाई,,,
    कला परम्परा परिवार का अभिनव प्रयास
    बधाई,,,

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. भुवन वर्मा प्रबंध संपादक
      अस्मिता औऱ स्वाभिमान बिलासपुर

      हटाएं

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आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

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