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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

मोटीवेशन : अंर्तकथा

‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहता, तीस तारीख तक मुझे हर ब्‍लाक से एक केस चाहिए ।‘ रौबदार आवाज में युवा जिलाधीश नें विकास विभाग के बैठक में आये कर्मचारियों एवं स्‍वयंसेवकों को अपना अंतिम शव्‍द कहा और उठ कर चले गये । देर तक मीटिंग हाल में खमोशी छाई रही, फिर मर्यादित शांति पुन: भंग हुई । ‘चार दिन बचा है तीस तारीख को कैसे हो पायेगा ?’ विकास विभाग के निचले स्‍तर के अधिकारी नें टेबल में लगे माईक के बटन को पुश करते हुए कहा । अब मीटिंग का जिम्‍मा उप जिलाधीश स्‍तर के अधिकारी के पाले में था उसने बात को अनसुना करना चाहा पर दूसरे अन्‍य अधिकारियों नें भी इसपर असहमति जताई, सो उन्‍हें उसी मुद्दे पर फिर आना पडा ।


‘क्‍यों नहीं हो पायेगा ? .... दस लाख के रोलर के लिये उन्‍हें अस्‍सी प्रतिशत अनुदान हम दे रहे हैं यानी आठ लाख रूपये......... बाकी की राशि बैंक ऋण के रूप में दे रही है । रोलर को ग्रामीण सडक योजनाओं में काम पर लगाकर बरसात के पहले ही इस काम के बदले लगभग दो लाख के भुगतान का मौखिक आश्‍वासन कलेक्‍टर साहब ने दे ही दिया है उसके बाद का इनकम समूह का है आप लोगों को कनविंस करें । बार बार मुझे यह बात कहना न पडे आप सभी लोगों को पहले भी बतलाया जा चुका है ।‘ छोटे साहब के शव्‍दों में भी वही आदेशात्‍मक पुट था । बैठक में शामिल सरकारी कर्मचारी व अधिकारी अपने सरकारी चितपरिचित व्‍यक्तित्‍व और स्‍वभाव के साथ अनमने से अपने छोटे छोटे से बैग थामें बैठे थे जबकि वहां संपूर्ण जिले के विकास से संबंधित आवश्‍यक मीटिंग चल रही थी ।


मीटिंग तीस तारीख को पुन: मिलने के आदेश के साथ समाप्‍त हो गई । मीटिंग हाल के सामने विकास विभाग के ग्रामीण स्‍तर के अधिकारी इस आदेश के विरोध में एक दूसरे से बतियाते रहे पर खुल कर विरोध प्रदर्शित करने का साहस किसी में नहीं था सो सब अपनी अपनी गरीबी का स्‍वांग भरते पुरानी मोटर साईकिलों को स्‍टार्ट कर अपने घर की ओर चले गये ।


दूसरे दिन मैं भी सुबह से अपने नगर के लिये निकला, रास्‍ते में लगभग एक दो किलोमीटर सडक खराब था, वहां उसका संधारण कार्य चल रहा था, निर्माण में मजदूर, रोलर व ट्रक लगे थे । मैं उत्‍सुकतावश गाडी खडी कर सुस्‍ताते मजदूरों के पास चला गया । नाम गांव एवं कार्य के विभाग के संबंध में पूछते हुए मैनें ठेकेदार व रोलर ट्रक मालिकों के संबंध में भी पूछा । मजदूरों में से डामर लगे लांग बूट पहने एक तेज ग्रामीण मजदूर नें मेरी उत्‍सुकता को देखकर बतलाने लगा कि दस लाख का यह रोलर है और यह पिछले साल लिया गया था, अब तक इस रोलर के सहारे ठेकेदार नें पांच लाख कमा लिया है । मैनें मजाक में ही उस रोलर के मालिक का नाम पूछा । उसने इस रोलर और काम में लगे दो ट्रकों के मालिक का नाम बताया । नाम सुनकर मैं चकरा गया, ये उसी व्‍यक्ति के थे जिसने अपने व्‍यक्तित्‍व में सारे जहां की गरीबी लादे कलेक्‍टर मीटिंग में कहा था कि कैसे हो पायेगा ।


मैं उन मजदूरों से आत्‍मीयता बढा कुछ और प्रश्‍न पूछता रहा और उनको उत्‍साहित करते हुए कहा कि तुम लोग स्‍वयं ऐसे रोलर के मालिक क्‍यों नहीं हो सकते ? उन लोगों नें मेरी बात हंसी में उडा दी । मेरे जोर देने पर दूर में बैठी एक महिला पास आकर बोली ‘जानते हैं बाबू, सरकार इसके लिये मुफत में आठ लाख रूपिया देगी पर........ इसे पाने के लिये फारम भरना होगा .... और फारम भरने का साहब एक लाख रूपिया मांग रहे हैं ........ हम गरीब लोग कहां से पायेंगें साहेब इतना रूपिया ? साहब कहते हैं कि फोकट में तुमको आठ लाख दिलवाउंगा तो मुझे भी तो कुछ मिलना चहिए !’ मैनें उन्‍हें समझाया कि पैसे सरकार दे रही है बिना घूस दिये खुद खोज रही है तुम लोगों को । ‘...... पर कागज तो वही साहेब बनायेगा ना ?’ उस महिला मजदूर नें कहा । ‘हॉं वही बनायेगा लेकिन एक लाख तो क्‍या एक रूपया भी नहीं देना होगा ।‘ मैनें कहा । ‘......... जाओ बाबू ऐसे कहने वाले कितने आये कितने गये, मुझे इस रोलर के चक्‍के में पानी डालते मजूरी करते बरसों गुजर गए, हम ऐसे ही ठीक हैं ।‘ उस महिला नें कहा ।



तीस तारीख, मीटिंग हाल में सभी लोग सिर झुकाये बैठे थे, युवा जिलाधीश नें झटके के साथ दरवाजा खोलकर हाल में प्रवेश किया । सीट पर बैठते ही उन्‍होंने पूछा ‘कितने केस आये ?’ सभी चुप थे । उन्‍होंनें फिर अधिकारियों का नाम ले लेकर पूछा, सभी अपनी अपनी समस्‍यायें गिनाते रहे कि वे कैसे दिन रात एक कर दिये पर लोग ‘मोटीवेट’ हुए ही नहीं । ‘अब कैसे करेंगें ? पंद्रह तारीख को सीएम साहब का कार्यक्रम है उसमें हमें चार रोलर की चाबी सीएम साहब के हाथों दिलवाना है ?’ सभी के सिर झुके ही थे सब नें अपने अपने चेहरों पर पूरी निष्‍ठा से कार्य करने के बाद भी कार्य नहीं बन पाने के विषाद को चिपकाया हुआ था ।

युवा जिलाधीश नें गहरी सांस ली और घंटी बजाई । मैं चार ग्रामीण महिलाओं के साथ मीटिंग हाल में आया । ‘नमस्‍ते साहेब !’ चार में से एक महिला नें विकास विभाग के उस अधिकारी और अपने तथाकथित मालिक को पहचान कर सकुचाते हुए बोली और चारो कोने में खडे हो गये मैं गोलमेज के एक सीट पर जाकर बैठ गया । वह कर्मचारी कुछ सकुचा गया किन्तु उस महिला को नहीं पहचानता ऐसी मुद्रा में बैठा रहा ।


‘ये चारो केस जीवित आप लोगों के सामने हैं, पता नहीं क्‍यूं आप लोगों के अथक प्रयास के बावजूद भी ये कैसे ‘मोटीवेट’ नहीं हो पाये, जबकि ये तो बरसों से अपनी गरीबी से संघर्ष कर रहे हैं । मुझे शर्म आती है आप लोगों को अपना मातहत कहते हुए ........ जानते हो मैं आप लोगों को सस्‍पेंड कर सकता हूं ...... पर तुम क्‍या जानों सस्‍पेंड होने की सजा क्‍या है और दुख क्‍या .......’ जिलाधीश तैश में बहुत कुछ बोलते रहे जैसे ही उनकी वाणी नें विराम लिया । कोने में खडी एक महिला नें पैर के अंगूठे से टाईल्‍स के फर्श को कुरेदने का प्रयास करते हुए कहा ‘गरीब के पईसा ल खाहू त कीरा पर के मरहू !


पूरा हाल हंसी से गूंज गया, महिलायें सहम गयीं । जिलाधीश नें अपनी मुस्‍कुराहट को मर्यादाओं में समेटते हुए दो ट्रक और रोलर मालिक उस सरकारी अधिकारी की ओर देखा । वह मुह खोलकर अट्टहास लगा रहा था ।

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. बहुत कलई खुलती है विकास और गरीबों के प्रति सहानुभूति की। भाई, यह तो करारा व्यंग है सड़ल्ली कार्यपालिका पर!

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  2. आपने चार लोग खोजे इतना जानकर ही खुशी हुई आप सिर्फ़ लिखते नही लिखने के पिछे छिपी संवेदना और जिम्मेदारी से आप भलीभांती परिचीत है ॥

    ऐसा ही वाकया आदिवासी ट्रेक्टर योजना का भी है

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  3. क्षमा कीजियेगा, इस कथा में कई जगह केस के स्थान पर केश लिखा गया है, जो मेरी वर्तनी की त्रुटी है और मेरे बेहतर प्रस्तुति के प्रयास के बावजूद मुझसे यह गलती हो गई ।

    इस संबंध में मेरा ध्यानाकर्षण आवारा बंजारा संजीत त्रिपाठी जी नें किया, उन्हें मेरा बहुत बहुत धन्यवाद ।

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  4. रोलर के मालिक बने उस सरकारी अधिकारी को तो कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए थी वो बैठा अठ्ठाहस कैसे लगा रहा था।क्या जानता था कुछ नहीं होने का उसके खिलाफ़,,वैसे ऐसे किस्से और प्र्काश में लाते रहिए, बहुत जरुरी है

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  5. आपके अच्छे कामो के सिलसिलो मे यह एक और नया क्रम जोरता है.............बहुत अच्छे...........अच्छी पोल खोली है.

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  6. बहुत सार्थक और उम्दा व्यंग्य. ऐसे ही जागरुक प्रयासों की आवश्यक्ता है. बधाई.

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