पिछले दिनों ब्लॉग जगत में अदा जी के घर के चित्रों को ब्लॉग में प्रस्तुत करने के संबंध में प्रकाशित एक पोस्ट पर सबने दांतो तले उंगली दबा ली थी और जिस प्रकार पाबला जी ने कनाडा यात्रा की वैसी यात्रा करने के लिए अनेक ब्लॉगर उत्सुक थे. कल पाबला जी हमारे पास आये तो हमने भी बिना पासपोर्ट वीजा के कनाडा यात्रा के गुर के संबंध में पाबला जी से पूछा पर वे बाद में बतलाता हूं कह कर टाल गए. हमने अपनी जुगत और जुगाड लगाई. इन दिनो हिन्दी ब्लॉगजगत में आभासी दुनिया के भूगोल पर बडी-बडी विद्वतापूर्ण पोस्टें आ रही है सो हमने भी इस आभासी दुनिया का सहारा लिया और उड चले तूतनखामीन और पिरामिडो के देश मिश्र की ओर.
इंडियन एयरलाईन्स से काहिरा की ओर उडते हुए नील नदी, सहारा रेगिस्तान और पिरामिडो को हवाई नजरों से देखना सचमुच में अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी. शहर के लगभग मध्य स्थित काहिरा हवाईअड्डे से होटल की ओर जाते हुए हम सडकों के आजू बाजू बने भवनो के अलावा सडक के किनारे खोमचे लगाए भुट्टा भूनते, खजूर बेंचती काली लबादों में लिपटी बूढी हो चली महिलाओं को देखकर काहिरा की सम्पन्नता और विपन्नता से रुबरू होते रहे. टैक्सी से सामान उतारते ही होटल के वेटर नें हमें देखकर खुशी से चहकते हुए बोला ‘इंडियन!‘ हम जब मुस्कुराने लगे तो उसने फिर कहा ‘महाराजा!‘ अब हम चौंक के पीछे देखे , एक और गाडी में भारतीय सिख पगडी लगाए उतर रहे थे. हमें सिख और महाराजा वाली बात समझ में नहीं आई, हम चुपचाप स्वगत कक्ष की औपचारिकता निभाते हुए अपने कमरे में चले गए. वेटर नें कमरे में सामान रखा, टीवी चालू किया तो हमने कहा न्यूज चैनल लगाओ. उसने ‘अल जजीरा‘ चैनल लगाया. शायद यहां न्यूज चैनल का मतलब ‘अल जजीरा‘ होता हो. हमने रिमोट अपने हाथ में ले लिया कि देखें खाडी देशो जैसे यहां भी भारतीय चैनल आते हैं कि नहीं. किन्तु एक भी भारतीय चैनल नहीं. चैनलों के आवाजाही में हमें ‘महाराजा‘ का उत्तर मिल गया. अरबी व अंग्रेजी कई चैनलों में इंडियन एयरलाईन्स के विज्ञापन नजर आये इन्ही विज्ञापनों नें उस वेटर को पगडी पहने इंडियन को देखते ही तात्कालिक प्रतिक्रिया स्वरूप ‘महाराजा‘ कहलवाया होगा.
हम सिटी आफ स्फिंग काहिरा, सहारा व नील नदी के अतिरिक्त कुछ विशेष जगहों पर घूमना चाहते थे. हम मौलाना आजाद व जवाहर लाल नेहरू के मिश्र प्रेम एवं हमारी तीन हजार साल की मित्रता के पहलुओं को भी छूना चाहते थे सो निकल पडे काहिरा के सडकों पर. जमालिक के भारतीय दूतावास के राजदूत स्वामीनाथन महोदय के कार्यालय से कुछ जानकारी लेकर मौलाना आजाद भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र को निहारने जहां श्रीमति सुचित्रा दोराई निदेशक हैं. उनसे मुलाकात नहीं हो पाई अब तक एक और भारतीय हमारे जैसे भटकने को तैयार दिखे जो विगत कई दिनों से काहिरा में डेरा डाले हुए थे, हमने उसे कोई नायाब जगह ले जाने को कहा तो वह तुरत लगभग घसीटते हुए काहिरा के खान-अल-खलीली इलाके की ओर ले गया. रास्ते में पडते बाजारों में बिकते सामानों के बीच एक पैकेट पर मेरी दृष्टि ठहर गई, मित्र को बरबस रोकते हुए मैने एनक को नाक के उपर उठाते हुए उस दुकान के सामने रूककर पैकेट को पढने लगा उसमें लिखा था ‘तिल्दा का चांवल‘. मैंनें पैकैट मांगा, दुकानदार नें जो बतलाया उसी उत्तर की मुझे प्रतीक्षा थी, उसने अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में जो कहा उसका मतलब यह था कि यह चांवल भारत के छत्तीसगढ प्रांत के तिल्दा शहर का मशहूर चांवल है. मैं अभिभूत हुए पैकैट को पकडे खडा रहा. मित्र नें झकझोरते हुए मुझसे कहा कि चांवल लेकर क्या तुम्हें यहां खाना बनाना है, चलो आगे बढो. मैं आगे बढ गया पर मन छत्तीसगढ लौट आया. आगे एक रेस्तरां का नाम चमक रहा था ‘नज़ीब महफ़ूज़ कैफे एण्ड रेस्तरॉं‘.
छत्तीसगढ के प्रति आत्ममुग्धता से उबरने के बाद पिछले सालों से ब्लॉग के आभासी दुनियां में खोये रहने के कारण इस महफ़ूज़ नाम को पढते ही हमें मेरी रचनाऍं वाले महफ़ूज़ अली याद आ गए. उनके व्यक्तित्व और उनके पिछले पोस्टो को देखते हुए लगा कि हो सकता है कि यह रेस्तरॉं उनका स्वयं का हो, रेस्तरॉं में प्रवेश करते ही देखा एक बडा सा चित्र दीवाल में लगा है नीचे लिखा है ‘नज़ीब महफ़ूज़ ‘. ओह, तो ये हैं महफ़ूज़ जी, हमने आभासी खयालात को दूर झटका. चित्र के बाजू में पारदर्शी कांछ के रैक में कुछ किताबें सजी थी पास जाकर देखा. अंग्रेजी और अरबी भाषा की पुस्तकों के बीच ‘टैरो क्रायलाजी‘ देखकर मानस पीछे किन्हीं स्मृतियों की ओर चला गया. अरब क्षेत्र से एकमात्र नोबल पुरस्कार प्राप्त पुस्तक. हां यही तो है ‘टैरो क्रायलाजी‘. इस पुस्तक का कलेवर और नज़ीब महफ़ूज़ का चित्र याद आने लगा. पैलेस वॉक ( बैनुल-कसरैन), पैलेस ऑव डिज़ायर (कसरुस्शौक) तथा सुगर स्ट्रीट (अस्सुकरिय) 1959 में प्रकाशित पुस्तक औलादो हार्रतुना (चिल्ड्रेन ऑफ गेबेलावी) ‘मिडक एली’....... अभी कुछ माह पहले ही समकाल ब्लाग मे दो सभ्यताओं का दुलारा बेटा और रवि रतलामी जी के रचनाकार में इस संबंध में जानकारी हमने पढी भी थी.
मित्र नें टेबल में बैठ कर आर्डर दे दिया था, कॉफ़ी आ गई थी मैं टेबल में बैठकर रैक से निकाले किताब के पन्ने पलटने लगा. हमारे मानस के आभासी व स्थानीय भूगोल के इस केमिकल लोचे में तिल्दा का चांवल, ब्लॉगर महफ़ूज़ और नोबेल प्राप्त महफ़ूज़ का व्यक्तित्व व लेखन, हमारी आत्ममुग्धता, सैकडो किलोमीटर दूर भी जुगलबंदी करती रही. काहिरा की कडक कॉफ़ी हलक में उतरती रही.
अपना कैमरा हम भारत मे ही भूल गये थे, इसलिये फोटो नही चिपका पाये. आगामी पोस्टों में काहिरा के इस "आभासी यात्रा वृत्तांत" अंतरालों में जारी रहेगा. .....
इंडियन एयरलाईन्स से काहिरा की ओर उडते हुए नील नदी, सहारा रेगिस्तान और पिरामिडो को हवाई नजरों से देखना सचमुच में अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी. शहर के लगभग मध्य स्थित काहिरा हवाईअड्डे से होटल की ओर जाते हुए हम सडकों के आजू बाजू बने भवनो के अलावा सडक के किनारे खोमचे लगाए भुट्टा भूनते, खजूर बेंचती काली लबादों में लिपटी बूढी हो चली महिलाओं को देखकर काहिरा की सम्पन्नता और विपन्नता से रुबरू होते रहे. टैक्सी से सामान उतारते ही होटल के वेटर नें हमें देखकर खुशी से चहकते हुए बोला ‘इंडियन!‘ हम जब मुस्कुराने लगे तो उसने फिर कहा ‘महाराजा!‘ अब हम चौंक के पीछे देखे , एक और गाडी में भारतीय सिख पगडी लगाए उतर रहे थे. हमें सिख और महाराजा वाली बात समझ में नहीं आई, हम चुपचाप स्वगत कक्ष की औपचारिकता निभाते हुए अपने कमरे में चले गए. वेटर नें कमरे में सामान रखा, टीवी चालू किया तो हमने कहा न्यूज चैनल लगाओ. उसने ‘अल जजीरा‘ चैनल लगाया. शायद यहां न्यूज चैनल का मतलब ‘अल जजीरा‘ होता हो. हमने रिमोट अपने हाथ में ले लिया कि देखें खाडी देशो जैसे यहां भी भारतीय चैनल आते हैं कि नहीं. किन्तु एक भी भारतीय चैनल नहीं. चैनलों के आवाजाही में हमें ‘महाराजा‘ का उत्तर मिल गया. अरबी व अंग्रेजी कई चैनलों में इंडियन एयरलाईन्स के विज्ञापन नजर आये इन्ही विज्ञापनों नें उस वेटर को पगडी पहने इंडियन को देखते ही तात्कालिक प्रतिक्रिया स्वरूप ‘महाराजा‘ कहलवाया होगा.
हम सिटी आफ स्फिंग काहिरा, सहारा व नील नदी के अतिरिक्त कुछ विशेष जगहों पर घूमना चाहते थे. हम मौलाना आजाद व जवाहर लाल नेहरू के मिश्र प्रेम एवं हमारी तीन हजार साल की मित्रता के पहलुओं को भी छूना चाहते थे सो निकल पडे काहिरा के सडकों पर. जमालिक के भारतीय दूतावास के राजदूत स्वामीनाथन महोदय के कार्यालय से कुछ जानकारी लेकर मौलाना आजाद भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र को निहारने जहां श्रीमति सुचित्रा दोराई निदेशक हैं. उनसे मुलाकात नहीं हो पाई अब तक एक और भारतीय हमारे जैसे भटकने को तैयार दिखे जो विगत कई दिनों से काहिरा में डेरा डाले हुए थे, हमने उसे कोई नायाब जगह ले जाने को कहा तो वह तुरत लगभग घसीटते हुए काहिरा के खान-अल-खलीली इलाके की ओर ले गया. रास्ते में पडते बाजारों में बिकते सामानों के बीच एक पैकेट पर मेरी दृष्टि ठहर गई, मित्र को बरबस रोकते हुए मैने एनक को नाक के उपर उठाते हुए उस दुकान के सामने रूककर पैकेट को पढने लगा उसमें लिखा था ‘तिल्दा का चांवल‘. मैंनें पैकैट मांगा, दुकानदार नें जो बतलाया उसी उत्तर की मुझे प्रतीक्षा थी, उसने अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में जो कहा उसका मतलब यह था कि यह चांवल भारत के छत्तीसगढ प्रांत के तिल्दा शहर का मशहूर चांवल है. मैं अभिभूत हुए पैकैट को पकडे खडा रहा. मित्र नें झकझोरते हुए मुझसे कहा कि चांवल लेकर क्या तुम्हें यहां खाना बनाना है, चलो आगे बढो. मैं आगे बढ गया पर मन छत्तीसगढ लौट आया. आगे एक रेस्तरां का नाम चमक रहा था ‘नज़ीब महफ़ूज़ कैफे एण्ड रेस्तरॉं‘.
छत्तीसगढ के प्रति आत्ममुग्धता से उबरने के बाद पिछले सालों से ब्लॉग के आभासी दुनियां में खोये रहने के कारण इस महफ़ूज़ नाम को पढते ही हमें मेरी रचनाऍं वाले महफ़ूज़ अली याद आ गए. उनके व्यक्तित्व और उनके पिछले पोस्टो को देखते हुए लगा कि हो सकता है कि यह रेस्तरॉं उनका स्वयं का हो, रेस्तरॉं में प्रवेश करते ही देखा एक बडा सा चित्र दीवाल में लगा है नीचे लिखा है ‘नज़ीब महफ़ूज़ ‘. ओह, तो ये हैं महफ़ूज़ जी, हमने आभासी खयालात को दूर झटका. चित्र के बाजू में पारदर्शी कांछ के रैक में कुछ किताबें सजी थी पास जाकर देखा. अंग्रेजी और अरबी भाषा की पुस्तकों के बीच ‘टैरो क्रायलाजी‘ देखकर मानस पीछे किन्हीं स्मृतियों की ओर चला गया. अरब क्षेत्र से एकमात्र नोबल पुरस्कार प्राप्त पुस्तक. हां यही तो है ‘टैरो क्रायलाजी‘. इस पुस्तक का कलेवर और नज़ीब महफ़ूज़ का चित्र याद आने लगा. पैलेस वॉक ( बैनुल-कसरैन), पैलेस ऑव डिज़ायर (कसरुस्शौक) तथा सुगर स्ट्रीट (अस्सुकरिय) 1959 में प्रकाशित पुस्तक औलादो हार्रतुना (चिल्ड्रेन ऑफ गेबेलावी) ‘मिडक एली’....... अभी कुछ माह पहले ही समकाल ब्लाग मे दो सभ्यताओं का दुलारा बेटा और रवि रतलामी जी के रचनाकार में इस संबंध में जानकारी हमने पढी भी थी.
मित्र नें टेबल में बैठ कर आर्डर दे दिया था, कॉफ़ी आ गई थी मैं टेबल में बैठकर रैक से निकाले किताब के पन्ने पलटने लगा. हमारे मानस के आभासी व स्थानीय भूगोल के इस केमिकल लोचे में तिल्दा का चांवल, ब्लॉगर महफ़ूज़ और नोबेल प्राप्त महफ़ूज़ का व्यक्तित्व व लेखन, हमारी आत्ममुग्धता, सैकडो किलोमीटर दूर भी जुगलबंदी करती रही. काहिरा की कडक कॉफ़ी हलक में उतरती रही.
अपना कैमरा हम भारत मे ही भूल गये थे, इसलिये फोटो नही चिपका पाये. आगामी पोस्टों में काहिरा के इस "आभासी यात्रा वृत्तांत" अंतरालों में जारी रहेगा. .....
संजीव तिवारी
वाह!संजीव भाई जोरदार यात्रा रही।
जवाब देंहटाएंआज पता चला "महफ़ु्ज अली" भी "तिल्दा के चावल" हो गए है। मतलब ब्रांडनेम बन गए। आज कल ब्लाग जगत मे इनके ही चर्चे हैं
यात्रा संस्मरण के लिए बधाई
कभी हमे भी साथ ले चलना भाई।
अच्छी रही आपकी यात्रा। पढ़ कर आनन्द आ गया।
जवाब देंहटाएंसंजीव जी,
जवाब देंहटाएंक्या लिखते हैं आप..!!
बस यूँ लगा हम काहिरा कि सड़कों पर ही धामा-चौकड़ी कर रहे हैं ...
और वो कॉफ़ी....सुभानाल्लाह ..अब तक ज़बान उस जायके से तर है...:)
हाँ... अगर कभी कनाडा आयें तो उसी गरीबखाने में आपका स्वागत है...
आइये तो..!!
धन्यवाद ..
संजीव भाई ,
जवाब देंहटाएंआभासी दुनिया में असीम संभावनायें हैं बशर्ते आपका जिस्मानी जुगराफिया इसके लिए तैयार हो :)
बढ़िया आभाषी यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंये भी खूब रही... :)
जवाब देंहटाएंस्वप्निल संस्मरण बढ़िया रहा!
जवाब देंहटाएंSanjeev Bhai Pranam,
जवाब देंहटाएंNice Lekh Pad raha Hu series chalu rahe - aapka anuj sudhir pandey, kasdol
bhaiya ye kalaa mujhe bhi sikha do...
जवाब देंहटाएंmajaa aaya, aur pratiksha hai
वाह काहिरा! कभी इन्द्रलोक की भी सैर हो सकती है आभासी दुनियां में। :)
जवाब देंहटाएंतिल्दा के चावल का भाव भी लिख देते तो.......
जवाब देंहटाएंये भी खूब रही!
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