अंचल की पहिचान के पर्याय: रामचन्द्र देशमुख
आलेख : राम हृदय तिवारी (लोकरंग लेख संग्रह से साभार)
तेरह जनवरी 98 की आधी रात, क्रूर काल ने रामचन्द्र देशमुख को हमने छीन लिया । महासिंह जी चन्द्राकर के आकस्मिक निधन से सांस्कृतिक जगत का घाव अभी भरा भी नहीं था कि अंचल को यह दूसरा आघात झेलना पडा । सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस अग्रदूत के चले जाने से अंचल का सांस्कृतिक संसार मानों सूना हो गया ।
हम सब जानते हैं – हमारा छत्तीसगढ प्रान्त विपन्नता और विपुलता का अदभूत सम्मिश्रण् है । धूप- छांव भरे इस प्रान्तर की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्ति साहित्य से, मंच से, पत्र-पत्रिकाओं से, फिल्मों और अन्य माध्यमों से होती रही है । इन अभिव्यक्तियों में किसी ने केवल शोषण और आक्रोश को ही स्वर दिया । पर इस निराले अंचल की निराली और सटीक अभिव्यक्ति दाउ रामचन्द्र देशमुख की मंचीय प्रस्तुतियों से ही हुई । यही कारण है कि उनकी मनोमुग्धकारी लोकमंचीय प्रस्तुतियों की शान और पहचान की यादें आज तक कायम है ।
इस मासूम मगर जीवट अंचल की मानवीयता पर अगाध आस्था, रामचन्द्र देशमुख की तमाम प्रस्तुतियों की मूल घ्वनि थी । यही वह रहस्य है जिसने उन्हें अंचल की सांस्कृतिक-सृष्टि में कालजयी बना दिया । अंचल को लेकर उनके भीतर निरंतर मचता हाहाकार, लोकमंचों की प्रस्तुतियों में फूटता रहा । छत्तीसगढ की गरिमा और स्वाभिमान का स्वप्न उनके विविध क्रियाकलापों में झलकता रहा । उनके जीवन का एक सुनिश्चित लक्ष्य थ जिसमें वे अपनी आकांक्षित सीमा तक सफल रहे । साक्षी है- अंगडाई लेकर उठ खडी होती छत्तीसगढ की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना, जो हम अपने आस-पास देख और सुन रहे हैं । आज यह अंचल, अपनी चिरसाध-छत्तीसगढ राज्य के रूप में भारत के नक्शे में प्रतिष्ठापित हो चुका है ।
मुझे याद आता है – छत्तीसगढ राज्य बनने के बहुत पहले जब भी उनसे पूछा जाता, क्या आप छतीसगढ राज्य निर्माण के पक्षधर हैं । उनका जवाब होता था- जरूर, मगर सबसे पहले मैं साहसी और स्वाभिमानी छत्तीसगढ का पक्षधर हूँ । चंदैनी गोंदा, देवार डेरा, कारी सहित उनकी समूची मंचीय प्रस्तुतियॉं उनकी इसी पक्षधरता के साथी हैं । उनकी ये लोकमंचीय प्रस्तुतियाँ, अंचल की धरती पर स्थापित अमिट शिलालेख की तरह है । चंदैनी गोंदा तो सचमुच एक मिथक बन चुका है । नई पीढी शायद यकीन न कर पाए, मगर जिन्होंने देखा है वे जानते हैं कि उस विराट प्रस्तुति की चकाकौंध ने अपने जमाने को चकित और हतप्रभ कर दिया था । विद्वानों ने सांस्कृतिक गगन का धूमकेतु कहकर उसके अदम्य प्रभाव को एक स्वर से स्वीकारा था । भूतों न भविष्यति की टिप्पणी से विभूषित इस चन्दैनी गोंदा की स्मृतियॉं अमर है ।
कुछ नया करने की धुन, कुछ अनोखा करने का जुनून रामचन्द्र देशमुख के जेहन में सदा सवार रहता था । उम्र की सांध्यबेला में भी उनमें उत्साह, लगन और जिज्ञासाभाव देखकर मैं सचमुच चकित रहता था ।मित्र मंडली, परिवार और परिजनों को परेशान कर डालने की हद तक उनका सदाबहार मंचीय पागलपन विरल था । काफी हद तक यही दीवानगी मैंने संगीत साधक दाउ महासिंह चन्द्राकर में भी देखी थी । अपने-अपने ढंग के अनोखे ये दोनों, व्यक्तित्व, अंचल के सांस्कृतिक भूगोल के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव केन्द्र थे ।
रामचन्द्र देशमुख के बारे में लोग कहते थे – उन्होंने अंचल को दिया ही दिया है, लिया कुछ नहीं । यह अतिशयोक्ति नहीं है । साठ सालों की अपनी पराक्रमी सांस्कृतिक यात्रा में दाउ रामचन्द्र देशमुख ने अंचल को न केवल अभिभूत किया, वरन सार्थक दिशाएं दीं । वे जीवन भर तेज चलने में नहीं, दौडने में विश्वास करते थे । बल्कि ज्यादा सही यह है कि वे छलांग लगाते दौडने में भरोसा करते रहे । शायद इसीलिए वे अपने विविध कर्म क्षेत्रों में सदा अव्वल रहे । इस बहुआयामी व्यक्तितत्व ने हर क्षेत्र में अपना एक रिकार्ड बनाया और अपने ही बनाए रिकार्ड को स्वंय तोडा । दीर्घायु की दृष्टि से भी वे अपना रिकार्ड बनाते, इसके पहले ही काल ने अपने अटल रिकार्ड में उन्हें समेट लिया । तब वे अपनी उम्र के सार्थक और सफल इक्यासी वर्ष लांघ चुके थे ।
रामचन्द्र देशमुख के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत कुछ रहा और लिखा जा चुका है । उन्हें कलाजगत के भीष्म पितामह, लोकमंच का मसीहा, अंचल की आत्मा के कुशल शिल्पी जैसे अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है । लेकिन तमाम विशेषणों से उपर वे सच्चे मनुष्य थे । समृद्व और सामर्थ्यवान होने के बावजूद उन्होंने जीवन में कभी किसी का अहित नहीं किया । अपने संपर्क में आए लोगों के लिए उनके सुनिश्चित मानदंड थे । खरे नहीं उतरने वाले के लिए भी उन्होंने बुरा कभी नहीं सोचा । जो जितनी मात्रा में प्राप्तव्य का अधिकारी है, वह उसे मिलनी ही चाहिए – यह उनकी सोच थी और उसी के अनुरूप अदायगी के कायल थे । मगर अदा करने का उनका अपना ढंग और तौर तरीका थ । जो कइयों को नहीं सुहाता था । उनकी विचारधारा और कार्यशैली से असहमत लोग तो बहुत मिल सकते हैं मगर उनके शख्शियत को इनकार कर सकने वाला एक भी ढूंढना कठिन है ।
मैं स्वयं उनसे मौके- बेमौके लडने-झगडने और रूठने के बावजूद उनसे प्यार करता था । उनका बहुत आदर करता था । उनकी मनुष्यता का मैं कायल था । मेरा सौभाग्य है कि लम्बे समय से अंत तक उनका स्नेहिल सान्निध्य और मार्गदर्शन मुझे मिला और सचमुच गर्व है इस बात पर कि पूरी स्वतंत्रता के साथ ‘कारी’ का निर्देशन-भार उन्होंने मुझे सौंपा था । पूरे विश्वास के साथ । मैं यह मानता हूँ कि भाई लक्ष्मण चन्द्राकर ने लोरिक चंदा का निर्देशन भार देकर मेरे लिए लोक मंचीय जगत के द्वार खेले, वहीं दाउ रामचन्द्र देशमुख ने कारी के माध्यम से छत्तीसगढी लोकमंच की शक्ति से मुझे परिचित होने का अवसर दिया । कारी की लोकप्रियता और उमडती भीड – मेरे जैसे हिन्दी रंगमंच के उपासक के लिए रोमांचकारी अनुभूति थी, जो आज भी मुझे गिरफत में लिए हुए हैं । किसी भी कार्यक्रम को अप्रतिम उंचाइंया देने का गुरूमंत्र दाउ रामचन्द्र देशमुख से ही लिया जा सकता था ।
आज वे नहीं है । लगभग रोज शाम उनकी बैठकी में शामिल होने की मेरी आदत बन चुकी थी । दो चार दिन मेरे नहीं पहुंच पाने पर बेचैन होकर वे बुलावा भेजते । आज भी अक्सर शाम को मुझे उनकी बहुत याद आती है । उनकी यादें मुझे प्रेरणा और ताकत देती हैं । उस सच्चे मनुष्य की आत्मा को मैं अपना हार्दिक प्रेम और प्रणाम अर्पित करता हूँ ।
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जवाब देंहटाएं-------------------------
वे निश्चय ही ठोस व्यक्ति रहे होंगे। सतही आदमी ऐसा नहीं कहता/सोचता। नमन।
आभार-रामचन्द्र देशमुख के विषय में जानकारी देने के लिये.
जवाब देंहटाएंउनकी याद को हमारा नमन एवं हार्दिक श्रृद्धांजली.
इस महान व्यक्तित्व के बारे मे जानकारी के लिये आभार। जिन्होने उनके बारे मे लिखा और वे भी जिन्होने इस लेख को हम तक पहुँचाया, साधुवाद के पात्र है।
जवाब देंहटाएंदेशमुख जी के बारे मे सुनते और पढ़ते आएं है खासतौर से चंदैनी गोंदा के बारे मे।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
साधुवाद तिवारी जी और आरंभ का!
अच्छी जानकारी प्रस्तुत करने के लिए आपका प्रयास सराहनीय है . महान व्यक्तित्व को मेरा भी नमन.
जवाब देंहटाएं