पिरामिडो, ममियो, अजायबघरों व मिथकों के अतिरिक्त काहिरा सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

पिरामिडो, ममियो, अजायबघरों व मिथकों के अतिरिक्त काहिरा

महफूज रेस्तरॉं से निकलते हुए हमने वहां के मैनैजमैंट से पूछा कि इतने अच्छे और मशहूर रेस्तरॉं का नाम किसी साहित्यकार के नाम से कैसे कर दिया गया क्योंकि हमारे देश में तो साहित्यकारों के नाम से सार्वजनिक व सरकारी इमारतें होती है जिसकी पूछ परख साल में दो बार जयंती और पुण्यतिथि पर होती है. इसी बहाने सरकारी विभाग या चंद संजीदा लोग उस इमारत के बहाने उस साहित्यकार को याद कर लेते हैं. कट्टरपंथी स्लामिक राजनैतिक पार्टी मुस्लिम ब्रदरहुड के दमदार विपक्ष के बावजूद अरब में लिखने पढने वाले के नाम से रेस्तरॉं का खुलना अरब के साहित्य के प्रति लगाव की एक अलग छवि प्रस्तुत कर रहा था. प्रबंधन से जानकारी प्राप्त हुई कि यह रेस्तरॉं भारत के ओबेरॉय ग्रुप की है तो और भी खुशी हुई चलो हमारे देश में नोबेल पुरस्कार विजेता रविन्द्र नाथ के नाम पर कोई होटल या रेस्तरॉं हो कि ना हो यहां मिश्र में नोबेल विजेता के नाम पर ओबेरॉय ग्रुप नें कुछ उल्लेखनीय किया तो. साथ चल रहे मित्र नें बतलाया कि काहिरा के मुख्य सडक तलाल हर्ब स्ट्रीट में उसने एक स्थान सूचक पट्टी देखा था जिसमें मैमार अलशाय अल हिन्दी अर्थात हिन्दी टी हाउस लिखा था. यद्धपि वर्तमान में तलाल हर्ब स्ट्रीट में मैमार अलशाय अल हिन्दी जैसी कोई टी हाउस नहीं है. समय के गर्द में यह पट्टिका हमारे देश की याद दिलाते काहिरा के सडकों में टंगी है और इस स्थान पर भारतीय विदेश मंत्रालय का मौलाना आजाद सांस्कृतिक केन्द खोल दिया गया है, इस बात का हमें सूकून है.

कॉफी पीकर बाहर निकलने पर रास्ते के दुकानों में बिक रहे तिल्दा के चांवल नें पुनः ध्यान खींच लिया जो डेढ सौ रूपये किलो में बिक रहा था. छत्तीसगढ के रायपुर जिले का तिल्दा ब्लाक चांवल मिलों के लिए प्रसिद्ध है, हमारे ब्लॉगर साथी नवीन प्रकाश जी इसी नगर के समीप खरोरा से हैं और मैं भी इस नगर के लगभग तेरह किलोमीटर के फासले पर स्थित एक गांव का हूं. बचपन से तिल्दा के सासाहोली मिशन अस्पताल और चांवल मिलों के संबंध में सुनते आया हूं. सासाहोली मिशन अस्पताल के संबंध में तो पुरानी जानकारी पिछले दिनों तिल्दा में ही एक प्रांसीसी नागरिक से बातचीत करने और क्षेत्रीय दस्तावेजों को खंगालने से मिल गया था कि अंग्रेजों नें जब छत्तीसगढ में अपनी जडे जमानी शुरू की थी तो रायपुर से बिलासपुर सडक मार्ग से सिमगा के पास बैतलपुर फिर विश्रामपुर में चर्च की स्थापना कर ब्रिटैन के पादरियों की नियुक्ति की थी. इसके बाद रेल लाईन में रायपुर से बिलासपुर के मध्य तिल्दा में मिशनरी चर्च की स्थापना हुई और प्रदेश का पहला कुष्ट अस्पताल विश्रामपुर में और चर्च बैतलपुर मे अंग्रेजों के द्वारा खोला गया. तिल्दा व बैतलपुर के अस्पताल आज भी संचालित हैं और इन तीनों चर्चों का छत्तीसगढी भाषा, संस्कृति व परंपरा के दस्तावेजीकरण में अहम स्थान रहा है जिसके संबंध में फिर कभी चर्चा करेंगें अभी तो तिल्दा के दूसरे पहलू चांवल पर दिमाग अटका हुआ है. तिल्दा का चावल लगभग इन्ही दिनो से विदेशो मे महकता रहा है. छत्तीसगढ में इस पंचवर्षीय चुनाव में डॉ. रमन सिंह के जीत को जनता नें चांउर वाले बाबा की जीत कहा क्योंकि रमन सिंह नें धान का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में गरीबों को तीन रूपये व एक रूपये किलों में चांवल मुहैया कराया. रमन के इस चमत्कार नें कांग्रेस के सभी रणनीतियों पर पानी फेर दिया और चांउर वाले बाबा नें चांउर का जलवा दिखा दिया. आज काहिरा में डेढ सौ रूपये  किलो तिल्दा के चांउर को बिकते देखकर तीन रूपये वाले चांउर बाबा बहुत याद आ रहे थे.

रास्ते में मित्र से जब हमने भारत और मिश्र के रिश्तों  की और निशानियों के संबंध में पूछा तो उन्होंने बतलाया कि काहिरा में डॉ.जाकिर हुसैन के नाम से भी एक महत्वपूर्ण स्ट्रीट है. अफ्रो एशियाई एकजुटता सम्मेलन के स्थानीय निवासी और भूगर्भशास्त्री डॉ.फंकरी लबीब नें अरूंधती रॉय के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘द गाड आफ स्माल थिंग‘ का अरबी में अनुवाद किया है इसके साथ ही अल आहर विश्वविद्यालय जहां मौलाना आजाद नें अपनी पढाई की है, में हिन्दी की पढाई होती है. इस विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ए.एम.अहमद नें दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की है और वे धाराप्रवाह हिन्दी बोलते हैं. हम लाख प्रयाशो के बाद भी प्रोफेसर साहब से नहीं मिल पाये. खैर ठीक है हम ना सहीं कोई और भारतीय सैलानी जब काहिरा आये तो इनसे जरूर मिलें.

पिरामिडो, ममियो, अजायबघरों व मिथकों के अतिरिक्त मिश्र के सफर में जीवंत यादों को फिर हम कभी आपसे बांटेंगें जिसमें तमार ए हिन्द, बेलादी खुब्ज का मजेदार स्वाद लेते, काहिरा पर्यटन पुलिस से रूबरू होते, काहिरा मैट्रो की सैर करते हुए उमडते हमारे विचारों से आपको अवगत करायेंगें. इस बीच समय मिलेगा तो कनाडा भी जायेंगें क्योंकि हमारे पिछले पोस्ट पर अदा जी नें हमें कनाडा आमंत्रित किया है. उनके स्नेहिल आमंत्रण के लिए धन्यवाद सहित.

संजीव तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. अब काहिरा मे नही होगा मंहगाई का कहर
    चांऊर वाले बाबा बसाएंगे वहां एक नया शहर
    दिया जाएगा उसे नाम धान का देश 36गढ
    छोटे बड़े जुनियर सि्नियर सबका होगा बसर,


    काहिरा यात्रा करवाने के लिए धन्यवाद,
    अदा जी का निमंत्रण है, अब कनाड़ा चलें तो
    कैसा रहेगा?

    जवाब देंहटाएं
  2. बढ़िया!

    लेकिन माजरा क्या है अपने भेजे से उपर निकल गया कि आप वहां गए बिना इतना जीवंत विवरण कैसे लिख रहे हैं, मुझे भी सिखाएं ;)

    जवाब देंहटाएं
  3. मज़ा आ गया आपकी आभासी यात्रा से!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. (टिप्पणियों के प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है.) -संजीव तिवारी, दुर्ग (छ.ग.)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भट्ट ब्राह्मण कैसे

यह आलेख प्रमोद ब्रम्‍हभट्ट जी नें इस ब्‍लॉग में प्रकाशित आलेख ' चारण भाटों की परम्परा और छत्तीसगढ़ के बसदेवा ' की टिप्‍पणी के रूप में लिखा है। इस आलेख में वे विभिन्‍न भ्रांतियों को सप्रमाण एवं तथ्‍यात्‍मक रूप से दूर किया है। सुधी पाठकों के लिए प्रस्‍तुत है टिप्‍पणी के रूप में प्रमोद जी का यह आलेख - लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है। पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजव

क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है?

8 . हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक, कितने अन्ध-विश्वास? - पंकज अवधिया प्रस्तावना यहाँ पढे इस सप्ताह का विषय क्या सफेद फूलो वाले कंटकारी (भटकटैया) के नीचे गडा खजाना होता है? बैगनी फूलो वाले कंटकारी या भटकटैया को हम सभी अपने घरो के आस-पास या बेकार जमीन मे उगते देखते है पर सफेद फूलो वाले भटकटैया को हम सबने कभी ही देखा हो। मै अपने छात्र जीवन से इस दुर्लभ वनस्पति के विषय मे तरह-तरह की बात सुनता आ रहा हूँ। बाद मे वनस्पतियो पर शोध आरम्भ करने पर मैने पहले इसके अस्तित्व की पुष्टि के लिये पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। यह पता चला कि ऐसी वनस्पति है पर बहुत मुश्किल से मिलती है। तंत्र क्रियाओ से सम्बन्धित साहित्यो मे भी इसके विषय मे पढा। सभी जगह इसे बहुत महत्व का बताया गया है। सबसे रोचक बात यह लगी कि बहुत से लोग इसके नीचे खजाना गडे होने की बात पर यकीन करते है। आमतौर पर भटकटैया को खरपतवार का दर्जा दिया जाता है पर प्राचीन ग्रंथो मे इसके सभी भागो मे औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। आधुनिक विज्ञ

दे दे बुलउवा राधे को : छत्तीसगढ में फाग 1

दे दे बुलउवा राधे को : छत्‍तीसगढ में फाग संजीव तिवारी छत्तीसगढ में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा लोक मानस के कंठ कठ में तरंगित है । यहां के लोकगीतों में फाग का विशेष महत्व है । भोजली, गौरा व जस गीत जैसे त्यौहारों पर गाये जाने लोक गीतों का अपना अपना महत्व है । समयानुसार यहां की वार्षिक दिनचर्या की झलक इन लोकगीतों में मुखरित होती है जिससे यहां की सामाजिक जीवन को परखा व समझा जा सकता है । वाचिक परंपरा के रूप में सदियों से यहां के किसान-मजदूर फागुन में फाग गीतों को गाते आ रहे हैं जिसमें प्यार है, चुहलबाजी है, शिक्षा है और समसामयिक जीवन का प्रतिबिम्ब भी । उत्साह और उमंग का प्रतीक नगाडा फाग का मुख्य वाद्य है इसके साथ मांदर, टिमकी व मंजीरे का ताल फाग को मादक बनाता है । ऋतुराज बसंत के आते ही छत्‍तीसगढ के गली गली में नगाडे की थाप के साथ राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुह से बरबस फूटने लगते हैं । बसंत पंचमी को गांव के बईगा द्वारा होलवार में कुकरी के अंडें को पूज कर कुंआरी बंबूल की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ स्फुटित होता है - गनपति को म