वनवासियों की असल चेतना


जलते बस्तर के दंतेवाडा से लगातार आ रहे समाचारों - विचारों की कडी में संपादक सुनील कुमार जी का विशेष संपादकीय कल छत्तीसगढ में पढने को मिला. देश की स्थिति परिस्थिति के संबंध में मीडिया जनता तक सच को लाती है, दिखाती है या पढाती है. इस संपादकीय से यह स्पष्ट हुआ कि यह मीडिया का नैतिक कर्तव्य ही नहीं आवश्यक कार्य (ड्यूटी) भी है. और सुनील कुमार जी नें इसे बखूबी निभाया है. लोगों को वास्तविक परिस्थिति से अवगत कराने की मीडिया की भूमिका को कायम रखते हुए सुनील कुमार जी नें समय समय पर अपने समाचार पत्र में व संपादकीय में छत्तीसगढ का स्पष्ट चित्र सदैव प्रस्तुत किया हैं. वर्तमान परिदृश्य में दंतेवाडा में गांधीवाद के नाम पर विश्व जन मानस को प्रभावित करने एवं अपने पक्ष में लेने के तथाकथित मानवाधिकार वादियों के प्रयासों की हकीकत ‘खादी की बंदूकें’ से उजागर हो गई है.
पिछले दिनों हिन्दी ब्लागों में भी बहुत हो हल्ला हुआ कि छत्तीसगढ के ब्लागर्स एवं पत्रकार कुछ विशेष आवश्यक और ज्वलंत मुद्दों में तथ्यात्महक एवं विचारपरक रपट प्रकाशित नहीं कर रहे हैं. ब्लाग जगत में सक्रिय रहने के कारण हम पर भी स्पष्ट‍त: ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हम पुलिस की बर्बरता और दमन पर चुप्पी साध लेते हैं. पुलिस या प्रशासन के विरूद्ध नक्सल मामलों में कुछ भी लिखने से हम कतराते हैं और उसमें तुर्रा यह कि छत्तीसगढ के ब्लागर्स नक्सली हिंसा पर मानवाधिकार वादियों की चुप्पी पर तगडा पोस्ट ‘ठेलते’ हैं. आखिर क्यों छत्तीसगढ की मानसिकता मानवाधिकार वादियों के विरोध में ही कलम चलाना चाहती है. क्योंकि वह सत्य को सिर्फ पढती नहीं है उसे महसूस करती है.
पिछले कई दिनों से इन तथाकथित मानवाधिकार वादियों के नाट्य प्रयोगों का साक्षी छत्तीसगढ रहा है. वर्तमान में इनका प्रायोजित रंगशिविर दंतेवाडा में चल रहा है जिसमें भाग ले रहे नाट्यकर्मी व दर्शक सभी छत्तीसगढ से बाहर के निवासी हैं. इन प्रस्तुतियों का तथाकथित उद्देश्य दिल्ली और विश्व पाठक समुदाय में प्रायोजकों के सत्य‍ को स्थापित करना है और प्रायोजकों को स्थानीय पत्रकारों पर भरोसा नहीं था इसलिए यहां पत्रकार बाहर से बुला लिये गये. गांधीवाद के इस संस्करण के विमोचन समारोह से समाचार यह आया हैं कि दंतेवाडा में जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे और नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटकर को आदिवासियों के तीव्र विरोध का सामना करना पडा है. दोनों के साथ धक्का-मुक्की की गयी और सन्दीप पांडे को मोटर साइकिल से गिरा कर उन पर पत्थर, सड़े हुए अंडे और टमाटर फेंके गए. यह घटना बस्तर के जनजातीय इतिहास में आदिवासियों की एकजुटता और अन्याय के विरूद्ध उठ खडे होने की प्रवृत्ति को दर्शाता है. उनका यह विरोध गांधीवाद के नाम पर खादी की बंदूकें बनाकर नक्सल मोर्चे पर नक्सलियों का साथ दे रहे लोगों का विरोध है.
संपादक जी ने ‘खादी की बंदूकें’ में सभी विचारणीय मुद्दों पर बेबाकी से अपना कलम चलाया है. आशा है मीडिया का महानगरीय और अंतरराष्ट्रीय तबका भी इस छद्म गांधीवादी सत्य को समझेगा और छत्तीसगढ के बहुसंख्यषक आदिवासियों के इस विरोध को स्वीकार करेगा. धीरे-धीरे वनवासियों की असल चेतना अब जागृत होने लगी है और क्लेम व ब्लेम के खेल की अंतिम पारी खेली जा रही है.
संजीव तिवारी

2 टिप्‍पणियां:

  1. थोड़ी सी जबान बदली है मेघा पाटकर की कि वह नक्सल समर्थक नहीं है . लेकिन छत्तीसगढ़ के बाहर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये सरकार के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे हैं और परोक्ष रूप से नक्सलवाद का समर्थन.
    एक बहुत बड़ा मीडिया गुट है इन पर आधारित .

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  2. बहुत खूब सुन्दर एवम ज्ञान वर्धक रचना
    बहुत बहुत आभार

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