हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास ?

देश के अन्य राज्यो की तरह छत्तीसगढ मे भी नाना प्रकार के विश्वास, आस्थाए और परम्पराए अस्तित्व मे है। राज्य मे सोलह हजार से अधिक गाँव है। पीढीयो से समाज इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ को मानता आ रहा है। पर शहरो मे बैठे हमारे जैसे लोग बिना किसी देर इन्हे अन्ध-विश्वास घोषित करने मे नही चूकते है। हम यह भी चाहते है कि इस पर अंकुश लगे। पर क्या यह सही है? इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ का विकास एक दिन मे तो हुआ नही है। ये पीढीयो से चले आ रहे है और इसमे लोगो का गूढ अनुभव शामिल है।
क्या हमारे पूर्वज निरे गँवार थे और क्या हम सब कुछ जान चुके है? जरा सोचिये यदि यही सोच हमने आगामी पीढी को दी तो वे हमे भी ऐसा ही मानेंगे। मुझे लगता है कि इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ के विज्ञान को समझने और समझाने की जरूरत है।
क्या हमारे पूर्वज निरे गँवार थे और क्या हम सब कुछ जान चुके है? जरा सोचिये यदि यही सोच हमने आगामी पीढी को दी तो वे हमे भी ऐसा ही मानेंगे। मुझे लगता है कि इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ के विज्ञान को समझने और समझाने की जरूरत है। हो सकता है कि समय के साथ ये अपना मूल रूप खो बैठे हो और इनका विज्ञान हम तक न पहुँचा हो। संजीव तिवारी जी के लोकप्रिय ब्लाग आरम्भ मे हर सप्ताह इसी पर चर्चा करने का प्रयास मै करूंगा। मै भी आप ही की तरह सीखने की प्रक्रिया मे हूँ। आपके विचार मुझे प्रेरणा देंगे। हर बार एक विषय पर चर्चा कर उसका वैज्ञानिक पहलू सामने रखा जायेगा। मै संजीव जी का आभारी हूँ कि उन्होने मुझे इसकी इजाजत दी है।


इस सप्ताह का विषय

छत्तीसगढ मे ‘झगडहीन’ नामक वनस्पति पायी जाती है। इसके बारे मे कहा जाता है कि इसे घर मे लगाने से झगडा हो जाता है। यह विश्वास है या अन्ध-विश्वास?

मेरे विचार: झगडहीन नामक पौधा वैज्ञानिक जगत मे ग्लोरिओसा सुपरबा के नाम से जाना जाता है। इसका हिन्दी नाम कलिहारी है। यह अत्यंत विषैला पौधा है। इसके कन्दो का छोटा सा टुकडा भी मनुष्य की जान ले सकता है। आपने लिट्टे का नाम तो सुना ही होगा। बीबीसी मे बहुत पहले प्रकाशित रपट के अनुसार उनके लडाके गले मे आत्महत्या के लिये जो केप्सूल बाँधते है उसमे इसी कन्द का उपयोग होता है।
बीबीसी मे बहुत पहले प्रकाशित रपट के अनुसार उनके लडाके गले मे आत्महत्या के लिये जो केप्सूल बाँधते है उसमे इसी कन्द का उपयोग होता है।
आप इसकी विषाक्त्ता का अन्दाज सहज ही लगा सकते है। पर इसके फूल बडे ही आकर्षक होते है। इसके जहर से अंजान लोग फूलो के कारण इसे अपने बागीचो मे लगा देते है। यह पौधा बच्चो और पालतू पशुओ के लिये जानलेवा साबित हो सकता है। मुझे लगता है कि हमारे पूर्वज इसके इस गुण को जानते होंगे। अब ऐसे तो लोग मानने से रहे। इसीलिये शायद झगडे वाली बात जोडी गयी हो। इस बात का इतना असर है कि लोग पीढियो से इसके बारे मे जानते है पर घर मे नही लगाते है। पढे-लिखे लोग इसे अन्ध-विश्वास बता सकते है। पर यदि यह विश्वास आम लोगो की रक्षा कर रहा है तो इसे इसी रूप मे जारी रहने देने मे कोई बुराई भी तो नही है।

झगडहीन के चित्र की कडी
http://ecoport.org/ep?SearchType=pdb&PdbID=6653


पंकज अवधिया

अगले सप्ताह का विषय है पीलीया झाडना: कितना सही कितना गलत ?

डॉ. पंकज अवधिया जी का अतिथि पोस्‍ट आरंभ पर

आप सभी जानते ही है कि छत्‍तीसगढ सहित संपूर्ण भारत में कई तरह की मान्यताए और परम्पराए प्रचलित है। जैसे दौना का प्रयोग, अमली मे भूत, हरेली मे नीम का प्रयोग, पीलीया झाडना आदि-आदि। ये सब हमारे समाज मे रचे बसे है। इन्हे अन्ध विश्वास कहना सबसे आसान है पर छत्तीसगढिया सब ले बढिया है तो फिर उनके समाज मे फैली बातो का कुछ वैज्ञानिक आधार भी तो हो सकता है।


ख्‍यात वनस्‍पति व कृषि विज्ञानी डॉ. पंकज अवधिया नें इस आधार को सामने लाने का बीडा उठाया है। पंकज भाई प्रत्‍येक सोमवार को आरंभ पर अतिथि पोस्ट लिखेंगें । जिसमे हर बार एक मान्यता का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जायेगा ।


हम आभारी हैं पंकज जी के जो नियमित रूप से नेट पर अंग्रेजी में विभिन्‍न शोध क्रियाकलापों में एवं हिन्‍दी में मेरी कविता, किसानों के लिए, हमारा पारंपरिक चिकित्‍सा ज्ञान, मेरी प्रतिक्रिया एवं मधुमेह पर वैज्ञानिक रपट जैसे सफल ब्‍लाग लेखन के साथ ही श्री ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी के ब्‍लाग पर अतिथि पोस्‍ट भी लिख रहे हैं, पंकज जी देश के विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख लिखने का निरंतर कार्य कर रहे हैं । देश विदेश से आये कृषकों एवं वैज्ञानिकों को समय देने के अतिरिक्‍त इन्‍हें इन्‍हीं कार्यों से निरंतर भ्रमण भी करते रहना पडता है फिर भी उन्‍होंनें हमारे ब्‍लाग पर नियमित लिखने का जो आर्शिवाद दिया है उससे हम अभिभूत हैं ।


इंतजार करिये सोमवार से दर्द हिन्‍दुस्‍तानी - पंकज अवधिया जी का आलेख हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास ? सीरिज का पहला लेख कल 31 दिसम्‍बर को ।

संजीव

फिल्‍म “उन्‍नीस साल का लडका” का आज प्रसारण

इस वर्ष दूरदर्शन द्वारा देश के विभिन्‍न केन्‍द्रों से छ: कथाकारों की कहानियों को राष्‍ट्रीय प्रसारण के लिए चुना गया जिसमें रायपुर केन्‍द्र से शशांक द्वारा लिखित उम्र के अंतराल को लांघकर प्रेम की उपलब्धि तक पहुंचने की कहानी ‘उन्‍नीस साल का लडका’ का प्रसारण आज 29 दिसम्‍बर, संध्‍या 06.00 बजे दूरदर्शन में किया जायेगा ।

इस फिल्‍म के पटकथा व संवाद लेखक कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा हैं । छत्‍तीसगढ के परिवेश में रंगी यह कहानी स्‍थानीय सीमाओं को तोडती है । इस फिल्‍म का फिल्‍मांकन छत्‍तीसगढ के गरियाबंद व फिंगेश्‍वर क्षेत्र में किया गया है ।

फिल्‍म के कार्यकारी निर्माता बैकुण्‍ठ पाणिग्रही, निर्देशक डॉ.अजय सहाय हैं । प्रदीप पाठक द्वारा प्रस्‍तुत इस फिल्‍म के कलाकारों में प्रसिद्व कलाकार शिल्‍की गुहा भी हैं अन्‍य कलाकरों में मधु साहू, कुमार हर्ष, पूनम नकवी, महेश वर्मा व विनोद हैं कैमरा मैन यूसूफ खान हैं ।

रावघाट के योद्धा : अधिवक्‍ता विनोद चावडा

क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्राय: ``रावघाट के योद्धा`` के संबोधन से युक्‍त एक शख्‍श का नाम पिछले कई माह से हम पढ रहे हैं । हम दुर्ग-भिलाई में रहते हैं इस कारण लोहा एवं उससे जुडे मुद्दों पर यदा कदा चिंतन स्‍वमेव हो जाता है और लौह अयस्‍क के अकूत भंडार होने के कारण हमारी स्‍वाभाविक रूचि रावघाट एवं रावघाट से जुडे मुद्दों पर भी रही है । रावघाट के इस योद्धा नें लौह अयस्‍कों को निजी हाथों में सौंपे जाने के विरूद्ध जो लडाई लडी है वह छत्‍तीसगढ सहित संपूर्ण भारत के उपलब्‍ध खजाने को लूटने से बचाने की लडाई है ।

रावघाट के इस योद्धा का नाम है विनोद चावडा । सहज सरल किन्‍तु देश के खनिज संपदा के संबंध में संम्‍पूर्ण जानकारी अपनी सहज शैली में बसाए हुए खनिज मामलों के वकील । इनके संबंध में व्यापक जनहित पर आधारित विशिष्‍ट कार्यशैली पर बीबीसी के पूर्व संवाददाता श्री शुभ्राशु चौधरी अपने एक लेख पर कहते हैं –

“विनोद चावड़ा थोडे फक्कड़ किस्म के माइनिंग विषयों के वकील है। जब दुर्ग के एक मोहल्ले में मैं उनके गैराज नुमा दतर में पहुंचा वे दो जेबों वाली सफेद बण्डी पहने हुए थें। सबसे पहले उन्होंने मुझे उनकी काली कुर्सी पर बैठने को कहा उन्होंने बताया कि यह इस दफ्तर का रिवाज हैं कि कोई भी मेहमान जब यहां पहली बार आता हैं तो मैं उन्हें अपनी कुर्सी में बैठाता हूं और खुद मेहमान की कुर्सी पर बैठता हूं।“

“. . .अब विनोद चावड़ा जी ने अपने बारे में बताना शुरू किया । मेरे पिताजी ट्रक ड्राइवर थे और मैं भिलाई-दुर्ग में ही बड़ा हुआ, यही मेरी मातृभूमि कर्मभूमि हैं । मैंने शादी नहीं की है और पड़ोस में मेरे भाई का परिवार रहता है जिनके भरोसे मैं जिन्दा हूं यानि मेरे खाने पीने का इंतजाम उनके यहां होता है और अब आप सिर उठाकर ऊपर देखिए ।“

“विनोद चावड़ा की कुर्सी के ठीक ऊपर जहां अब भी मैं बैठा हुआ था एक बड़ा सा ओम लिखा हुआ हैं । उन्होंने बताया यह ओम मेरी रक्षा करता हैं ।“

इसी ओम के सहारे विनोद भाई नें छत्‍तीसगढ के रावघाट के गर्भ में छिपे 90 हजार करोड के लौह भंडार को केन्‍द्र और राज्‍य शासन के द्वारा निजी एवं विदेशी कम्‍पनियों को सौंपने के कुत्सित प्रयास के विरूद्ध आवाज उठाया । सरकारी तंत्रों से दस्‍तावेजी प्रमाणों व विधिक साक्ष्‍यों के साथ ही जन-मन आन्‍दोलनों के सहारे बिना किसी आर्थिक सहयोग के लडते रहे । विनोद जी के संबंध में शुभ्राशु जी आगे कहते हैं –

“उन्होंने आगे समझाया कि मध्यप्रदेश सरकार के एक नोटिफिकेशन के अनुसार रावघाट की तमाम माइंस को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित रखा गया हैं, पर देश के काफी नेताओं ने उस कानून को अनदेखा कर रावघाट की माइंग की लीज निजी कंपनियों को दे दी थी ।“

विनोद चावड़ा कहते है 'भाई साहब हम आज जो भी हैं भिलाई स्टील प्लांट की बदौलत हैं और अगर रावघाट निजी हाथों में चला जाता तो भिलाई स्टील प्लांट के अगले तीस सालों में बंद हो जाने की नौबत आ जाती ।`

विनोद चावड़ा ने अपने खर्चे और प्रयास से इस गैर कानूनी पहल के बारे में लोगों को जानकारी देना शुरू किया और अंतत: पिछले महीने मुख्य सचिव शिवराज सिंह ने रावघाट को निजी कंपनियों को देने की फाइल में अंतिम दस्तखत करके मामले को रफा दफा किया ।

विनोद जी का कार्य, लगन एवं कर्तव्‍यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सदैव अनुकरणीय रहा है । छत्‍तीसगढ के खनिज ज्ञान के संबंध में उन्‍हें चलता फिरता इन्‍साईक्‍लोपीडिया कहा जाता है । छत्‍तीसगढ के खनिज के सहारे देश और विदेश में कौन कौन सी कम्‍पनियों का अस्तित्‍व कायम है यह विनोद जी को पता है । न केवल बाक्‍साईड, लौह अयस्‍क और कोयला बल्कि छत्‍तीसगढ के हीरों की गहरी जानकारी विनोद जी के पास है । छत्‍तीसगढ के मुख्‍यमंत्री के कथन ‘ 2011 तक छत्‍तीसगढ में इतना ज्‍यादा हीरे का उत्‍पादन होने लग जायेगा जो न कि प्रदेश का हुलिया बदल देगा बल्कि छत्‍तीसगढ दुनिया में हीरे की इतनी बडी मंडी बन जाएगी कि वही हीरे की कीमत तय करेगी’ का उत्‍तर देते हुए विनोद जी कहते हैं –

“जैसा यूरोप के देशों ने एशिया और अफ्रीका को उपनिवेश बनाने के लिए आपस में बांट लिया था वैसे ही दुनिया की तीन बड़ी कंपनियों डी बीयर्स, रिओ टिण्टो और एंग्लो अमेरिकन ने पूरे छत्तीसगढ़ को आपस में बांट लिया है और उनको लीज हमारी सरकार ने दी है । यह बात सही है कि छत्तीसगढ़ में अकूत हीरे के होने की पूरी संभावना है पर मैं यहां की वास्तविकता जानता हूं और आपको यह लिखकर देता हूं कि २०२० में भी यदि पहला हीरा बाजार में आ गया तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ।“

“पर मैं सभी से हाथ जोड़कर अनुरोध करता हूं कि इस हीरे के उत्खनन को हमारी अगली पीढ़ी के लिए छोड़ दिया जाए । हमारे प्रदेश में लौह अयस्क, कोयला, बॉक्साइट और डोलोमाइट का इतना भंडार है कि यदि इनका उचित दोहन किया जाए और उस धन का उचित उपयोग हो तो वह हमारी कई पीढ़ियों के लिए पर्याप्त है । मेरा मानना है कि हीरे का खनन तब तक नहीं होना चाहिए जब तक हमारे बच्चों के पास हीरा उत्खनन की तमाम तकनीक न आ जाए और हमें किसी विदेशी रिओ टिण्टी या डी बीयर्स की जरूरत न रहे ।“

छत्तीसगढ़ की अकूत खनिज संपदा के कुपात्रों द्वारा विकृत दोहन किये जाने के कुत्सित प्रयासों में से एक मुख्य षड़यंत्र छ.ग. के मेरूदंड राष्‍ट्रीय गौरव भिलाई इस्पात संयंत्र की जीवनदायिनी परियोजना ‘रावघाट’ के लौह अयस्क भंडारों को राज्य एवं केन्द्र सरकारों द्वारा निजी हाथों में सौपे जाने के सरकारी प्रयासों को अधिवक्ता विनोद चावड़ा द्वारा विफल करवा देने के कारण ९० हजार करोड़ रूपए की सरकारी संपत्ति (रावघाट के लौह अयस्क भंडार) पुन: भिलाई इस्पात संयंत्र को वापस मिलने की संभावना बलवती हई। उनके इस प्रयास पर छत्‍तीसगढ के विभिन्‍न सामाजिक संगठनों एवं प्रतिष्ठित ब्‍यक्तियों के द्वारा उन्‍हें सम्‍मान प्रदान किया गया एवं उनकी सर्वत्र प्रसंशा की गई जिनमें से कुछ का उल्‍लेख हम यहां कर रहे हैं :-

1. छ.ग. की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ``अगासदिया`` द्वारा ``रावघाट के योद्धा`` की उपाधि से विभूषित करते हुए ``चंदूलाल चंद्राकर सम्मान-२००७`` प्रदान किया गया ।

2. राष्‍ट्रीय लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्‍ट्रीय अध्यक्ष एवं समाजवादी चिंतक श्री रघु ठाकुर द्वारा प्रदेश की खनिज संपदा की रक्षा के अभिनव सफलतम प्रयासों के लिए सार्वजनिक अभिनंदन करते हुए ``छत्तीसगढ़ गौरव`` की उपाधि से विभूषित किया।

3. राजभाषा छत्तीसगढ़ी मंच द्वारा ``छत्तीसगढ़ रत्न`` की उपाधि से सम्मानित किया गया।

4. कंगलामाझी सरकार द्वारा ``कंगलामाझी सम्मान-२००७`` से सम्मानित किया गया ।

5. संत कवि पवन दीवान द्वारा अभिनंदन ।

6. प्रख्यात चिंतक व सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिजम, मुम्बई के निर्देशक डॉ. असगर अली इंजीनियर द्वारा प्रशंसा ।

7. भिलाई इस्पात संयंत्र के वर्तमान प्रबंध निर्देशक श्री आर. रामाराजू द्वारा धन्यवाद दिया गया कि, विनोद चावड़ा ने भिलाई इस्पात संयंत्र का अधिवक्ता नहीं होने के बावजूद संयंत्र के लंबे जीवन के लिए आवश्यक रावघाट के लौह अयस्क भंडारों को वापस संयंत्र की झोली में डलवाने का अविस्मरणीय कार्य कर दिया है इसके लिए संयंत्र परिवार इनका अत्यंत आभारी है।

8. भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना में अविस्मरणीय योगदान प्रदान करने वाले म.प्र. के प्रथम मुख्यमंत्री स्व. पं. रविशंकर शुक्ल के पुत्र श्री विद्याचरण शुक्ल द्वारा रावघाट के लौह अयस्क भंडारों को बीएसपी के पक्ष में पुन: सुरक्षित किये जाने हेतु किये गये उनके प्रयासों की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए श्री चावड़ा को आर्शीवाद दिया ।

इस योद्वा का जीवन आदर्श है, देश को ऐसे कर्मवीरों की आवश्‍यकता है, शुभ्रांशु जी की पंक्ति देखिए –

"मुझे विख्यात अमेरिकी लेखक वाइस लिपमैन का १९३६ में दिया वह विख्यात भाषण भी याद आया जो उन्होंने अमेरिकी लोकतंत्र की सफलता का कारण समझाते हुए दिया था । उन्होंने बताया था कि न सिर्फ स्वतंत्र प्रेस और न्यायालय बल्कि इन सभी से स्वतंत्र उन व्यक्तियों का भी इस बचाने में अहम रोल रहा है जो चर्च, विश्वविद्यालय या किसी भी तरह की संस्था से अलग रहकर अपने दम पर इस पर नजर रखते हैं । अगर हम भारतीय लोकतंत्र को भी बचाना चाहते हैं तो हमें विनोद चावड़ा जैसे स्वतंत्र लोगों की जरूरत हैं ।"

(शुभ्रांशु चौधरी के आलेख एवं विनोद चोपडा जी से प्राप्‍त जानकारी के आधार पर)
संजीव तिवारी

महाकोशल में हैहयवंश की उपस्थिति एवं सोमवंश का अंत

छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में 2

त्रिपुरी के हैहयवंशी राजा के अट्ठारह पुत्र थे सभी वीर व शौर्यवान थे । इनके वंशज संपूर्ण भारत को अपनी वीरता से जीत लेने के लिए विभिन्‍न क्षेत्रों में अपने-अपने सामर्थ्‍य के अनुसार प्रयास करते रहे इन्‍हीं मे से शंकरण द्वितीय मुग्‍धतुंग, महाराज शिवगुप्‍त के पुत्र कोकल्‍ल प्रथम एवं रामायणकालीन राजा कीर्तिवीर्य सहत्रार्जुन का वंशज था ।

मुग्‍धतुंग नें कोसल के रत्‍नपुर में बारंबार आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्‍त कर लिया किन्‍तु सोमवंशी राजा जन्‍मेजय नें पुन: रत्‍नपुर को मुग्‍धतुंग से छीन लिया एवं सैन्‍य बल रत्‍नपुर में बढा दिया । यहीं से सोमवंशियों एवं कलचुरियों के बीच शत्रुता और संघर्ष बढता गया । सोमवंशी अपना राज्‍य बचाने के लिए एवं कलचुरी अपनी प्रतिष्‍ठा बढाने के लिए लडते रहे ।

इन्‍हीं दिनों मुग्‍धतुंग के पराजय और अपमान का बदला लेने का बीडा हैहयवंशी कुमार कलिंगराज नें उठाया । वह त्रिपुरी से अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर सोमवंशी सीमा रेखा को लांघते हुए कोसल के अंदर तक घुस आया और तुम्‍मान को अपना गढ बना लिया यहां कलिंगराज नें शक्ति संचय किया एवं भारी संख्‍या में नये सैनिकों की भर्ती कर उन्‍हें प्रशिक्षित भी किया ।

त्रिपुरी के अखण्‍ड राज्‍य से कलिंगराज को भरपूर सहायता प्राप्‍त हो ही रही थी । कलिंगराज नें पुन: पूर्ण जोश के साथ रत्‍नपुर में आक्रमण किया । घमासान युद्ध के बाद रत्‍नपुर के तत्‍कालीन सोमवंशी शासक का वध कर कलचुरी ध्‍वज को कलिंगराज नें रत्‍नपुर के किले में फहरा दिया ।

अब सोमवंश की आदि राजधानी श्रीपुर की ओर प्रस्‍थान का समय था, वीर कलिंगराज रत्‍नपुर से श्रीपुर की ओर बढ चला । विजय पथ पर पढने वाले कोसल के सभी राजाओं व गढपतियों नें सहर्ष कलचुरी अधीनता को स्‍वीकार किया ।

श्रीपुर में सोमवंशी राजा महाशिवगुप्‍त का पुत्र महाभवगुप्‍त प्रथम जन्‍मेजय उस काल में प्रतापी और वीर राजा था । तब संपूर्ण कोशल में सोमवंश की ही पताका फहराती थी और सोमवंशी तत्‍कालीन संस्‍कृति के लिए विश्‍वविख्‍यात राजधानी श्रीपुर में निवास करते थे । त्रिपुरी के कलचुरियों को रणभूमि में बार बार मात देने में जन्‍मेजय का कोई मुकाबला नहीं था । कलचुरियों का कोसल में राज करने के स्‍वप्‍न को उसने कई बार तोडा था, किन्‍तु निरंतर आक्रमण एवं भंज व नाग राजाओं के साथ नहीं देने की वजह से पहले ही रत्‍नपुर का राज्‍य छिन चुका था । फलत: जन्‍मेजय, कलिंगराज से संघर्ष में परास्‍त हो गया उसे सिहावा की ओर भागना पडा ।

कलचुरी नरेश कलिंगराज नें श्रीपुर में भी कब्‍जा कर लिया, अब कोसल क्षेत्र में उसके राज्‍य की सीमायें उत्‍तर में गंगा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में उज्‍जैन तथा पूर्व में समुद्र तट तक फैल गया । इस प्रकार से कलचुरी भारत के मध्‍य तथा दक्षिण-पूर्व के एक विस्‍तृत भू-भाग के अधिपति बन राज्‍य करने लगे ।

कलिंगराज के संबंध में कहा जाता है कि उसे इस विजय के लिए ‘कौशलेन्‍द्र’ की पदवी से विभूषित किया गया था । उसका शौर्य प्रभाव इतना था कि कौशलेन्‍द्र की सेना के राज्‍य प्रवेश की सूचना मात्र से शत्रु राजा के प्राण सूख जाते थे ।

सोमवंशी प्रतापी किन्‍तु वृद्ध हो चले राजा जन्‍मेजय के श्रीपुर में परास्‍त होने के साथ ही सोमवंशियों का महाकोसल से समूल विनाश हो गया और हैहयवंशी कलचुरियों का एक-छत्र राज्‍य स्‍थापित हो गया ।

इस वंश के राजाओं में जाजल्‍लदेव जैसे प्रसिद्ध राजा हुए जिनके निर्माण व स्‍थापत्‍यकला से आज भी छत्‍तीसगढ की धरती फूली नहीं समाती और इनके इन स्‍थापत्‍य हस्‍ताक्षरों की चर्चा देश ही नहीं विदेशों में भी होती हैं । छत्‍तीसगढ के इतिहास को सामान्‍य भाषा में प्रस्‍तुत करने का हमारा यह क्रम जारी रहेगा ... ।

(छत्‍तीसगढ एवं कोशल के विभिन्‍न इतिहासविषयक लेखों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों व किताबों के आधार पर लिखित इस आलेख में विचार और शव्‍द मेरे हैं । इसे विवादों से परे एक कथानक के रूप में पढें, यही हमारा अनुरोध है )

संजीव तिवारी

इस आलेख में प्रयोग किए गए स्‍थान के नाम संबंधी परिचय -
त्रिपुरी – मध्‍यप्रदेश के जबलपुर के निकट स्थित इतिहासकालीन स्‍थल
तुम्‍मान – छत्‍तीसगढ के बिलासपुर के निकट स्थित पुरातात्‍विक एवं ऐतिहासिक स्‍थल
रत्‍नपुर - छत्‍तीसगढ के बिलासपुर के निकट स्थित पुरातात्‍विक एवं ऐतिहासिक स्‍थल जो वर्तमान में रतनपुर कहलाता है एवं जहां प्रसिद्ध महामाया मंदिर स्थित है ।
श्रीपुर - छत्‍तीसगढ के रायपुर के निकट स्थित पुरातात्‍विक एवं ऐतिहासिक स्‍थल जो वर्तमान में सिरपुर कहलाता है एवं जहां खुदाई में नालंदा से भी वृहद विश्‍वविद्यालय के अस्तित्‍व का पता चला है ।
हैहयवंशी – इसे कलचुरीवंश भी कहा जाता है ।
सोमवंश – कहीं कहीं इसे पाण्‍डुवंश के नाम से संबोधित किया जाता है ।

छेर छेरा पुन्‍नी : छत्‍तीसगढी त्‍यौहार

छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में - 1

कोसल नरेश हैहयवंशी प्रजापाल‍क कल्‍याण साय मुगल सम्राट जहांगीर के सानिध्‍य में आठ वर्ष तक अपने राजनीतिज्ञान एवं युद्धकला को परिष्‍कृत करने के बाद सरयू क्षेत्र से ब्राह्मणों की टोली को साथ लेकर अपनी राजधानी रत्‍नपुर पहुंचे ।

कोसल की प्रजा आठ वर्ष उपरांत अपने राजा के आगमन से हर्षोल्‍लास में डूब गई । प्रजा राजा के आगमन की सूचना पाकर निजी संसाधनों से एवं पैदल ही रत्‍नपुर की ओर दौड पडी । सभी 36 गढ के नरेश भी राजा के स्‍वागत में रत्‍नपुर पहुच गए । सभी आंनंदातिरेक में झूम रहे थे, पारंपरिक नृत्‍य और वाद्यों के मधुर स्‍वर लहरियों के साथ नाचता जन समुह कल्‍याण साय का जय जयकार कर रहा था ।

महल के द्वार को प्रजा राजा के दर्शन की आश लिये ताकती रही मन में नजराने की आश भी थी । आठ वर्ष तक राजकाज सम्‍हालने वाली रानी को पति के प्रेम के समक्ष अपनी प्रजा के प्रति दायित्‍व का ख्‍याल किंचित देर से आया, रानी फुलकैना दौड पडी प्रजा की ओर और दोनो हांथ से सोने चांदी के सिक्‍के प्रजा पर लुटाने लगी ।




कोसल की उर्वरा धरती नें प्रत्‍येक वर्ष की भंति इस वर्ष भी धान की भरपूर पैदावार हई थी प्रजा के धरों के साथ ही राजखजाने छलक रहे थे । प्रजा को धन की लालसा नहीं थी, उनके लिए तो यह आनंदोत्‍सव था ।

राजा कल्‍याणसाय ने प्रजा के इस प्रेम को देखकर सभी 36 गढपतियों को परमान जारी किया कि आगामी वर्षों से पौष शुक्‍लपूर्णिमा के दिन, अपने राजा के घर वापसी को अक्षुण बनाए रखने के लिए संपूर्ण कोशल में त्‍यौहार के रूप में मनाया जायेगा ।

कालांतर में यही उत्‍सव छत्‍तीसगढ में छेरछेरा पुन्‍नी के रूप में मनाया जाने लगा एवं नजराना लुटाये जाने की परंपरा के प्रतीक स्‍वरूप घर के द्वार पर आये नाचते गाते समूह को धान का दान स्‍वेच्‍छा से दिया जाने लगा । समय के साथ ही इस परम्‍परा को बडों के बाद छोटे बच्‍चों नें सम्‍हाला ।

पौष शुक्‍ल पूर्णिमा के दिन धान की मिसाई से निवृत छत्‍तीसगढ के गांवों में बच्‍चों की टोली घर घर जाती है और -

छेर छेरा ! माई कोठी के धान ला हेर हेरा !

का संयुक्‍त स्‍वर में आवाज लगाती है, प्रत्‍येक घर से धान का दान दिया जाता है जिसे इकत्रित कर ये बच्‍चे गांव के सार्वजनिक स्‍थल पर इस धान को कूट-पीस कर छत्‍तीसगढ का प्रिय व्‍यंजन दुधफरा व फरा बनाते हैं और मिल जुल कर खाते हैं एवं नाचते गाते हैं –

चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुडी गुडी
धनी मोर पुन्‍नी म, फरा नाचे डुआ डुआ
तीर तीर मोटियारी, माझा म डुरी डुरी
चाउंर के फरा बनायेंव, थारी म गुडी गुडी !
000 000 000
तारा रे तारा लोहार घर तारा …….
लउहा लउहा बिदा करव, जाबो अपन पारा !
छेर छेरा ! छेर छेरा !
माई कोठी के धान ला हेर हेरा !

(कुछ इतिहासकार जहांगीर के स्‍थान पर अकबर का उल्‍लेख करते हैं)

संजीव तिवारी




राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला : डॉ. पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी


छत्‍तीसगढ के छोटे से कस्‍बे खैरागढ के रामबगस होटल और ददुआ पान ठेले में बैठे खडे बीडी का कश लेते तो कभी मुस्‍का नदी के तट पर शांत बैठे हुए एक सामान्‍य से दिखने वाले व्‍यक्ति की प्रतिभा का अनुमान लगाना मुश्किल था । उसके मानस में पल्वित विचारों का डंका तब भारत के हिन्‍दी साहित्‍य प्रेमी जन मन में व्‍यापक स्‍थान पा चुका था । यह व्‍यक्ति भारत के सर्वमान्‍य व प्रतिष्ठित साहित्‍यक पत्रिका ‘सरस्‍वती’ के संपादक पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी थे ।




तब ‘सरस्‍वती’ हिन्‍दी की एक मात्र ऐसी पत्रिका थी जो हिन्‍दी साहित्‍य की आमुख पत्रिका थी । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रारंभ इस पत्रिका के संबंध में सभी विज्ञ पाठक जानते हैं । सन् 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की संपादन क्षमता को नया आयाम देते हुए इन्‍हें ‘सरस्‍वती’ का सहा. संपादक नियुक्‍त किया । फिर 1921 में वे ‘सरस्‍वती’ के प्रधान संपादक बने यही वो समय था जब विषम परिस्थितियों में भी उन्‍होंनें हिन्‍दी के स्‍तरीय साहित्‍य को संकलित कर ‘सरस्‍वती’ का प्रकाशन प्रारंभ रखा ।

छत्‍तीसगढ के जिला राजनांदगांव के एक छोटे से कस्‍बे में 27 मई 1894 में जन्‍में पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की प्राथमिक शिक्षा म.प्र. के प्रथम मुख्‍यमंत्री पं. रविशंकर शुक्‍ल जैसे मनीषी गुरूओं के सानिध्‍य में विक्‍टोरिया हाई स्‍कूल, खैरागढ में हुई थी ।

प्रारंभ से ही प्रखर पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की प्रतिभा को खैरागढ के ही इतिहासकार लाल प्रद्युम्‍न सिंह जी ने समझा एवं बख्‍शी जी को साहित्‍य श्रृजन के लिए प्रोत्‍साहित किया और यहीं से साहित्‍य की अविरल धारा बह निकली ।

प्रतिभावान बख्‍शी जी ने बनारस हिन्‍दु कॉलेज से बी.ए. किया और एल.एल.बी. करने लगे किन्‍तु वे साहित्‍य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं समयाभाव के कारण एल.एल.बी. पूरा नहीं कर पाये, इस बीच में उनका विवाह मंडला निवासी एक सुपरिटेंडेंट की पुत्री से हो चुका था एवं पारिवारिक दायित्‍व बख्‍शी जी के साथ था । अत: बख्‍शी जी वापस छत्‍तीसगढ आकर सन् 1917 में राजनांदगांव के स्‍कूल में संस्‍कृत के शिक्षक नियुक्‍त हो गए ।

उनकी ‘प्‍लैट’ नामक अंग्रेजी कहानी की छाया अनुदित कहानी ‘तारिणी’ के जबलपुर के ‘हितकारिणी’ पत्रिका में प्रकाशन से तत्‍कालीन हिन्‍दी जगत इनकी लेखन क्षमता से अभिभूत हो गया था । विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में बख्‍शी जी की रचनायें प्रकाशित होने लगी थी जिनमें 1913 में ‘सरस्‍वती’ में ‘सोना निकालने वाली चीटियां’ एवं 1917 में ‘सरस्‍वती’ में ही इनकी मौलिक कहानी ‘झलमला’ ने इनके हिन्‍दी साहित्‍य जगत में दमदार उपस्थिति को सिद्ध कर दिया ।

बख्‍शी जी खैरागढ के विक्‍टोरिया हाई स्‍कूल में अंग्रेजी के शिक्षक भी रहे एवं इन्‍होंने खैरागढ की राजकुमारी उषा देवी और शारदा देवी को शिक्षा में पारंगत भी किया ।

साधारण जीवन जीने वाले स्‍वभावत: एकाकी एवं अल्‍पभाषी बख्‍शीजी का तकिया कलाम था ‘राम बाबू’ , स्‍वाभिमान इनमें कूट कूट कर भरा था । इनके संबंध में डॉ. रमाकांत श्रीवास्‍तव अपने एक लेख में कहते हैं -

कभी किसी समारोह के लिए उनसे एक मानपत्र लिखने के लिए कहा गया । जाने क्‍या बात हुई कि तत्‍कालीन नायब साहब नें आकर उनसे कहा कि उस मानपत्र को संशोधन के लिए रायपुर किसी के पास भेजा जायेगा । बख्‍शी जी नें उस मानपत्र को तुरंत फाड दिया – मेरा लिखा हुआ कोई दूसरा संशोधित करेगा, एसी से लिखा लो । विजयलाल जी बतलाते हैं कि उन्‍हें इतने गुस्‍से में कभी नहीं देखा था । मुझे लगता है कि उनका गुस्‍सा उचित ही था । ‘सरस्‍वती’ के संपादक के रूप में जिसने हिन्‍दी के कितने ही लेखकों की भाषा का परिष्‍कार किया, उस व्‍यक्ति की ऐसी प्रतिक्रिया स्‍वाभावित ही थी । यह तो एक लेखक के स्‍वाभिमान पर प्रश्‍न था ।




पिछले कुछ दिनों से उन्‍हें व उनके संबंध में पढते हुए मुझे लगा बख्‍शीजी मुझे कह रहे हों 'राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला !'

आज उनकी पुण्‍यतिथि है बख्‍शी जी को समस्‍त हिन्‍दी जगत 'सुरता' कर रहा है ।

संजीव तिवारी





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बख्‍शी जी के संबंध में उपलव्‍ध पत्र-पत्रिकाओं व पुस्‍तकों मित्रों से फोन के द्वारा जब हमने यह लिख डाला तब इंटरनेट में इस संबंध में सर्च किया तो ढेरों लिंक मिले, जहां इनकी कृतियों का भी उल्‍लेख है । आप भी देखें :-

स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित छत्तीसगढ़ का प्रथम आँचलिक उपन्यास 'धान के देश में' के लिये श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी नें भूमिका भी लिखा ।

कविता कोश में डॉ. पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी के जीवन परिचय में विस्‍तार से लिखा है । उनकी कविता क्रमश: मातृ मूर्ति , एक घनाक्षरी और दो चार भी कविता कोश में उपलब्‍ध हैं ।

कथा यात्रा में आदरणीय रमेश नैयर जी कहते हैं

छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के कथाकारों को हिंदी साहित्य जगत् में विशेष प्रतिनिधित्व श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा किए गए ‘सरस्वती’ के संपादन काल में मिला। राजनांदगाँव के श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्वयं भी अच्छे कहानीकार थे। उन्होंने सन् 1911 से कहानियाँ लिखना शुरू किया था। बख्शीजी को प्रेमचंद युग का महत्त्वपूर्ण कथाकार माना गया है। बातचीत के अंदाज में कहानी कह जाने की विशिष्ट शैली बख्शीजी ने विकसित की थी। बख्शीजी की मान्यता थी कि छत्तीसगढ़ की समवन्यवादी और परोपकारी संस्कृति की छाप यहाँ के कथाकारों के लेखन पर गहराई से पड़ी। छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि कथाकारों के एक संकलन का संपादन करते हुए बख्शीजी ने लिखा था, ‘छत्तीसगढ़ की अपनी संस्कृति है जो उसके जनजीवन में लक्षित होती है। छत्तीसगढ़ियों के जीवन में विश्वास की दृढ़ता, स्नेह की विशुद्धि सहिष्णुता और निश्छल व्यवहार की महत्ता है। ये स्वयं धोखा खाकर भी दूसरों को धोखा नहीं देते हैं। गंगाजल, महापरसाद और तुलसीदास के द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों में भी जो एक बंधुत्व स्थापित होता है, उसमें स्थायित्व रहता है। जाति-भेद रहने पर भी सभी लोगों में एक पारिवारिक भावना उत्पन्न हो जाती है।’
यहां झलमला भी देखें

मनु शर्मा अपनी कृति उस पार का सूरज में कहते हैं

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी किसी घटना, किसी एक रोचक प्रसंग या किसी एक बात से निबंधों की शुरुआत करते हैं। नाटकीयता और कथात्मकता इनके निबंधों को रोचक बनाती है। सहजता इनकी एक अन्य विशेषता है। सियाराम शरण गुप्त ने भी अपने अपने निबंधों में छोटी-छोटी बातों को कहीं संस्मरण और कहीं व्यंग्य के माध्यम से कहा है। यह व्यक्ति-चेतना है। हिंदी में व्यक्ति-व्यंजक निबंध लिखनेवालों की ये दो परंपराएँ हैं। इन्हें व्यक्ति-व्यंजक और ललित कहकर अलग करना उचित नहीं है। ये दोनों एक ही हैं। फिर भी अंग्रेजी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों से हिंदी के व्यक्ति-व्यंजक निबंधों की पहचान अलग है। अंग्रेजी के निबंधकारों की तरह अपने घर-परिवार, इष्ट-मित्र, पसंद-नापसंद का विवरण हिंदी के निबंधकार नहीं देते हैं। वे चुटकी लेते हैं, व्यंग्य करते हैं, किसी विश्वस्त और निकट व्यक्ति की तरह बात करते हैं।

(इंटरनेट के उद्धरण भारतीय साहित्‍य संग्रह एवं अन्‍य साईटों से लिए गये हैं)




संजीव तिवारी

शब्द नहीं ध्वनि हो तुम : अशोक सिंघई

आदरणीय अशोक सिंघई के सुन रही हो ना कविता संग्रह की पहली कविता -

शब्द नहीं
ध्वनि हो तुम मेरी कविता की
एक अनुगूँज
झंकृत करती उस कारा को
बंदी है जिसमें आत्मा मेरी

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रक्ताक्त हैं अँगुलियाँ खटखटाते द्वार अहर्निश
नहीं होते दर्शन
मैं चिर प्रतीक्षित
व्याकुलता हो गई तिरोहित
न कोई तृष्णा / न मरीचिका
न दौड़ता है मन
अंतरिक्ष के आर-पार
लगाती रहो टेर पर टेर
खुलेंगे एक दिन
इस पिंजर के द्वार
भला जी कर के भी
कौन सका है जी

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अन्तराल में
निहारता रहता हूँ छवि
मन है अतिशय उदार
दिखला देता है ध्वनि विरल को
एक नहीं / कई क्षण / कई बार
मत छुओ मन को
हो जाओ मन के पार
नहीं शेष कोई आग्रह
नहीं उठती हिलकोरे ले चाह
कभी नहीं ढूँढी मैंने
कभी नहीं देखी तेरी राह
भला कौन कर सका
आँखें न हों गीली

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मुटि्ठयों में कैसे हो बंद
शून्य का आलिंगन
अस्पर्श / अब नहीं बढ़ाता संताप
मौन / केवल मौन
अखण्ड चराचर में
निष्कम्प ज्योति सा यह सम्बन्ध
नहीं किसी ने अब तक परिभाषा दी

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शब्द नहीं
ध्वनि हो तुम मेरी कविता की

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अशोक सिंघई

रवि रतलामी का छत्‍तीसगढी आपरेटिंग सिस्‍टम : संभावनायें










रवि रतलामी जी के महत्‍वपूर्ण प्रयोग छत्‍तीसगढी आपरेटिंग सिस्‍टम के संबंध में भास्‍कर में प्रकाशित इस समाचार एवं इसके बाद संजीत त्रिपाठी जी के ब्‍लाग आवारा बंजारा में इसके प्रकाशन के बाद से छत्‍तीसगढ के भाषा पर लगाव रखने वाले, गांव व कस्‍बाई विद्यार्थियों एवं कम्‍प्‍यूटर प्रयोक्‍ताओं में एक खुशी की लहर दौड गई है ।
कुछ समय पूर्व यह समाचार के रूप में हरिभूमि में भी प्रकाशित हुआ था जिसके बाद से जयप्रकाश मानस जी नें इसे अपने ब्‍लाग पर विस्‍तृत आलेख के रूप में छत्‍तीसगढी में बोलेगा कम्‍प्‍यूटर के नाम से प्रकाशित किया था ।
यद्यपि उस समय छत्‍तीसगढी को राज्य‍भाषा का दर्जा नहीं मिला था किन्‍तु अभी परिस्थितिया अनुकूल हैं । उस लेख में मानस जी नें राजनैतिक इच्‍छाशक्ति के संबंध में लिख था जो इस कार्य के लिए सौ फीसदी सही बैठता है । रवि जी का यह भगीरथ प्रयास, संस्‍कृति मंत्री एवं मुख्‍य मंत्री की इच्‍छाशक्ति के द्वारा ही पूर्ण होगा । क्‍योंकि वित्‍तीय सहायता यदि शासन के द्वारा कर भी दिया जाता है तो इसे जन जन तक ले जाने एवं उसे लोकप्रिय बनाने में भी शासन का अहम योगदान रहेगा ।
छत्‍तीसगढ नें कम्‍प्‍यूटर शिक्षा एवं सरकारी कामकाजों में कम्‍प्‍यूटरीकरण के आधुनिक प्रयोगों को प्रारंभ से ही अंगीकार किया है जिसके कारण ही राजस्‍व अभिलेखों, न्‍यायालयीन प्रक्रियाओं, धांन खरीदी आदि का जनसुलभ किया जाना संभव हो पाया है । विडियो कांफ्रेसिंग के जरिये त्‍वरित समस्‍या निदान एवं आंखों के सम्‍मुख दोषी अधिकारियों को डांट खाते देख कर सूचना क्रांति के इस चमत्‍कार से ग्रामीण जन प्रसन्‍न हैं ।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे आईटीसी द्वारा छत्‍तीसगढ में कियोक्‍स खोलने हेतु प्रस्‍ताव प्राप्‍त हुआ था तब मैं इसे कपोल कल्‍पना कह कर इस पर ध्‍यान नहीं दिया था आज छत्‍तीसगढ में इसी ग्रामीण सूचना केन्‍द्र का विकास होने वाला हैं सभी ग्रामपंचायतों में इंटरनेट से युक्‍त कम्‍प्‍यूटर अगले एक साल में लग जायेंगे पर सरकार यदि इसे घोषणा मान कर पूरा करने में आमादा है तो यह व्‍यर्थ है क्‍योंकि गांवों में स्‍थापित किये जाने वाले इन कम्‍प्‍यूटरों में अंग्रेजी आपरेटिंग सिस्‍टम लगे होने के कारण मुश्किल से दस प्रतिशत ही सहीं सलामत चल पायेंगें ।
पर यदि रवि रतलामी जी का छत्‍तीसगढी आपरेटिंग सिस्‍टम को लोड कर के यदि इन कम्‍प्‍यूटरों को गांवों में भेजा जायेगा तो जन भाषा व जन सुलभता के कारण सौ प्रतिशत संभावना है कि ये सूचना केन्‍द्र ग्रामीण जन के काम आयेगें और सरकारी तंत्र को भी सूचनाओं का आदान प्रदान त्‍वरित हो पायेगा ।
छत्‍तीसगढ शासन नें आप्रवासी सम्‍मान वेंकटेश शुक्‍ला जी को प्रदान किया है वे सिलिकान वैली से हैं एवं कम्‍प्‍यूटर के क्षेत्र में ही कार्य कर रहे हैं उनका छत्‍तीसगढ में बैंगलोर जैसे साफटवेयर उद्योग लाने का प्रयास है एवं सूत्र बताते हैं कि मुख्‍य मंत्री से इस संबंध में गंभीर वार्तालाभ हो चुका है । यह बात भविष्‍य के लिए सुखद है कि छत्‍तीसगढ के सत्‍ताशीन राजनीतिज्ञों के मन में तकनीकि के विकास के लिए सोंच अभी विद्यमान है । यही सार्थक सोंच छत्‍तीसगढी आपरेटिंग सिस्‍टम के स्‍वप्‍न को पूरा अवश्‍य करेगा ।

घर पर ब्‍लाग मित्र का फोन और गांव की कुंठा

उस रात लगभग 11 बजे मेरे एक मित्र का फोन मेरे मोबाईल सेट पर घनघना उठा । मैं अपने मोबाईल को बैठक के टेबल में रखकर दूसरे कमरे में हिन्‍दी ब्‍लागों को पढने में मगन था । मोबाईल का वाईब्रेशन पुन: सक्रिय हो गया, इस समय मेरे पुत्र का ध्‍यान उस ओर गया, स्‍वाभविक रूप से उसने मोबाईल उठा कर देखा और फोन कर रहे मित्र का नाम बताते हुए वहीं से आवाज दिया ' फलां का फोन है ' मोबाईल वाईब्रेट होता रहा । मन तो कह रहा था लपक लूं मोबाईल और बात करूं, आखिर मित्र का फोन था । पर किसी पूर्वनिर्धारित साफ्टवेयर आदेश की तरह मेरे शरीर के हार्डवेयर नें उसे पालन करते हुए मोबाईल नहीं उठाया और वाईब्रेटर हार थक के बंद हो गया ।

सुबह मैं अपने कार्यालय पहुंचकर उस मित्र को फोन किया, उसे किसी लेख के संबंध में कुछ आवश्‍यक सहयोग चाहिए था । उसके अनमनेपन को मैं भांप गया, मैंनें झेंपते हुए अपना पक्ष रखा, उसने भावुक होकर कुछ सुझाव दिये ।

चिंतन की शुरूआत इसके बाद ही हुई । मैं 80 व 90 के दसकों में हिन्‍दी लेखन से कुछ कुछ जुडा हुआ था । 1995 तक स्‍थानीय पत्र-पत्रिकाओं में यदा कदा मेरी रचनायें प्रकाशित होती रही है । 1995 में मेरे विवाह के बाद मैंने अपने कलम को विराम दे दिया था ।

इससे संबंधित मेरे द्वारा पूछे गये प्रश्‍न के उत्‍तर में मेरी पत्‍नी ने बताया था कि उसे कविता, कहानी व लेख लिखने वाले कतई पसंद नहीं हैं इसका कारण यह है कि ये लोग हकीकत की धरातल में रह कर नहीं लिखते काल्‍पनिक भावनाओं में डूबते उतराते रहते हैं और ना ही इससे पेट भरता है और ना ही घर चलता है । उसके दूसरे दलील में दम था अत: हमने ज्ञानदत्‍त जी के परसुराम वाले पोस्‍ट की तरह समझौता कर लिया था एवं लेखन को बंद कर दिये थे क्‍योंकि तब हमारे उपर परिवार की शुरूआती आर्थिक जिम्‍मेदारी थी एवं वेतन न्‍यूनतम था, तो हमने अपना कलम अपने संस्‍था के व्‍यावसायिक साख को बढाने में ही लगाया और सेवा कार्य में अपना संपूर्ण समय तन्‍मयता से लगाया ।

पिछले वर्षों से हमारे कानूनी दांव पेंचों एवं बहसों के सहारे पत्‍नी महोदया नें ब्‍लाग लिखने की टेंम्‍परेरी आर्डर पास कर दिया था, सो हम आप लोगों को छत्‍तीसगढ से परिचित कराने में लगे थे । पर आज भी उसके मन में लेखन से जुडे व्‍यक्तियों के प्रति आदर के भाव को मैं स्‍थापित नहीं कर पाया हूं, उसे प्रत्‍येक लेखन धर्मी से कोई विशेष श्रद्धा नहीं है । यही वह कारण है कि वह किसी ब्‍लाग लेखन के क्षेत्र से जुडे व्‍यक्ति के साथ लम्‍बी वार्ता मुझे करते देखने पर विचलित हो जाती है । मैं परिवार में विचलित मानसिकता को पसंद नहीं करता ।

मित्र के सुझावों पर अमल करते हुए मैंने पत्‍नी को समझाया पर उसनें साफ शब्‍दों में कहा कि 'यह सब व्‍यावसायिक क्रियाकलाप है, लेखन यद्धपि स्‍वांत: सुखय कर रहे हों पर भविष्‍य में इससे किसी न किसी प्रकार से लाभ लेने की लालसा सभी के मन में है अत: व्‍यावसायिक बातें कार्यालयीन समय में ही हो, घर तक उसे ना लायें । व्‍यावसायिक मित्रता व शुभकामनायें, घर में शुभकामना संदेश पत्रों तक ही सीमित रखना मुझे पसंद है ।'

संबंधों में निरंतरता स्‍वमेव ही आदर या स्‍नेह के भाव को जगा देती है, जो मानव मन की सहज प्रवृत्ति है । श्रद्धा व प्रेम को दबावपूर्ण रूप से किसी के हृदय में उतारा नहीं जा सकता । जिस तरह से दस वर्षों के बाद मैनें अपनी पत्‍नी के मन में अपने लेखन प्रवृत्ति को स्‍वीकृत करवाया है वैसे ही मित्रों के लिए उसके मन में श्रद्धा को स्‍थापित होने में कुछ तो वक्‍त लगेगा ।

प्रारंभिक रहन सहन की अवस्‍थाओं का मनुष्‍य के मन में गहरा प्रभाव होता है, मेरी पत्‍नी छत्‍तीसगढ के एक बडे आबादी वाले भरे पूरे गांव से आई है । साल के 365 दिनों में से 300 दिन घर आये मेहमानों की खातिरदारी करने एवं बाकी के बचे 65 दिनो में हम पारिवारिक विवादों के तू तू मैं मैं में गुजार देते हैं । ऐसे में हिन्‍दी लेखन एवं आधुनिक परंपराओं से परिचित होने के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता । हां उसे पता रहता है कि फलां तारीख को फलां की पेशी है एवं फलां तारीख को फलां की बेटी की सगाई है और फलां फलां आने वाले हैं उनके लिए ये ये सामान लाना है, खाना बनाना है खिलाना है बस । और फलां के साथ शहर का लुफ्त उठाने के लिए मेहमानों की टीम मेरे घर एवं मेरी पत्‍नी के सेवा का आनंद उठाते हुए दो चार दिन ज्‍यादा सेवा का अवसर देकर हमें कृतार्थ करते रहते हैं, मेरी पत्‍नी कभी मायके तो कभी श्‍वसुराल से आये मेहमानों की सेवा करते हुए सुबह उठ कर ठाकुर जी के सामने अगरबत्‍ती जलाते हुए गाती है

ठाकुर इतना दीजिये जामें कुटुम्‍ब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाए ।।

तो इन साधुओं की भूख नें हमारी आर्थिक स्थिति के साथ ही पारिवारिक स्थिति को भी छिन्‍न भिन्‍न कर दिया है, गांव की महिलायें मेरे घर के मिठाईयों का स्‍वाद चखते हुए मेरी पत्‍नी को साहित्‍य पढने एवं आधुनिकताओं के दौड में बढने से रोकती हैं अत: हमारे ज्ञान बखान पर गोबर थोपा जाता है । हमारे विदेशी मेहमान गांव के दीवालों पर कंडा बनाने के लिए चिपकाये गये (थापे गए) गाय के गोबर को जिस प्रकार कूतूहल से देखते हैं कि गाय नें दीवाल में चढ कर कैसे गोबर किया होगा । वैसे ही कूतूहल बना रहता है कि मास्‍टर डिग्री तक पढी मेरी पत्‍नी क्‍या इतनी गैरआधुनिक हो सकती है कि मित्र से फोन पर हिन्‍दी लेखन के संबंध में लम्‍बे वार्तालाभ को सहज रूप से न स्‍वीकार कर पाये, पर यह सत्‍य है । यह आवश्‍यक नहीं है कि जिसके प्रति मेरे हृदय में सम्‍मान, प्रेम-स्‍नेह हो उसके प्रति किसी दूसरे के हृदय में भी वही भाव हो जो मेरे में है, यह एक नितांत निजी अनूभूति है ।

शिक्षा पर भारी पडती है पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियां । मेरी एक युवा भाभी ( अभी कुछ माह पूर्व ही उनका आकस्मिक निधन हो गया) भोपाल के एक कालेज में रसायन शास्‍त्र की विभागाध्‍यक्ष थी, भाई साहब राष्‍ट्रीयकृत बैंक के जोनल मैनेजर । नौकरी के पूर्व ही भाभी जी नें पी.एच.डी. कर लिया था तब छत्‍तीसगढ, मध्‍य प्रदेश से अलग नहीं हुआ था और राजधानी भोपाल ही थी । रिश्‍तेदारों का काम से भोपाल आना जाना होता था और मेरा नेता जी की सेवा में विधायक विश्राम गृह में बसेरा होता था । रिश्‍तेदारों के आने पर भाभी जी से मिलने जब भी कालेज जाता था तो भाभी जी कालेज परिसर में जहां भी मिलती थी, कृषकाय बुजुर्ग रिश्‍तेदार के धूलधूसरित पैरों को, सिर में पल्‍लू ढांक कर, पारंपरिक रूप से झुककर चरण स्‍पर्श करती थी । उनका यह सहज व्‍यवहार जहां एक ओर कालेज में विद्यार्थियों के हंसी ठिठोली का कारण बनता था वहीं दूसरी ओर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा के भाव अंतस तक उमड पडते थे । तो यह भाव है उसके संसकार के जो शिक्षा एवं पद के बावजूद उसमें सहज रूप से विद्यमान थे ।

मुझे उनका सलवार या गाउन पहनने के लिए भाई साहब के प्रोत्‍साहन के बावजूद 'घर में बडे बुजुर्ग आते रहते हैं' की बात कहकर गाउन पहनने को जीवन भर टालते रहने की बात भी याद हो आती है जबकि आज महिलाओं के लिए यह आम बात है । यही वो प्रवृत्ति है जिसे आधुनिक समाज असहज भले कहता हो पर ग्रामीण नारी के मन से अंदर तक पैठे इन भावों को निकाल फेंकना सहज नहीं है । जिस प्रकार से रूढियों के प्रतिकूल आधुनिक अच्‍छे परंपराओं नें नारी शिक्षा को आत्‍मसाध करना सिखाया है वैसे ही अन्‍य परंपराओं की पैठ शैन: शैन: समाज में होगी । इसमें कुछ वक्‍त तो जरूर लगेगा और तब तक मेरा मोबाईल घर में बजता रहेगा ।

डॉ.परदेशीराम वर्मा की पत्रिका 'अगासदिया-27' का संपूर्ण नेट संस्‍करण



- विशेष सामग्री -

छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्री राम की माता कौशल्या के मंदिर से गौरवान्वित

सौ तालाबों का गांव चंदखुरी और सांसद श्री रमेश बैस

धरसींवा विधानसभा क्षेत्र का यशस्वी गांव पथरी और जागृत विधायक श्री देवजी भाई पटेल


सहयोग राशि : सौ रुपये मात्र

मुद्रक : यूनिक, पंचमुखी हनुमान मंदिर के पीछे, मठपारा, दुर्ग (छ.ग.) ०७८८-२३२८६०५


मुख-पृष्ठ सज्जा सौजन्य - नेलशन कला गृह, सेक्टर-१, भिलाई

नेट ब्‍लाग वेब प्रकाशन : संजीव तिवारी
अनुक्रमणिका :-

१.
संपादकीय
२. संत पवन दीवान और जीवन संदेश
३. श्री रमेश बैस
४. श्री देवजी भाई पटेल
५. संत कवि पवन दीवान की पांच छत्तीसगढ़ी कविताएं
अ. राख
ब. जिवलेवा जाड़
स. सांझ
द. महानदी
ड. तोर धरती
५. दीवान जी के प्रवचन की क्षेपक कथाएं
अ. जनप्रिय संत पवन दीवान और प्रवचन की क्षेपक कथाएं
(माता पार्वती ने जलाई लंका)
ब. संत पवन दीवान के प्रवचन की रोचक कथाएं
६. संत कवि पवन दीवान का गद्य -
अ. भाषा की जीत सुनिश्चित है छत्तीसगढ़ी से बना छत्तीसगढ़ राज्य
- पवन दीवान
ब. मोरारजी, चरन, मधु, जार्ज साक्षात्कार : सुधीर सक्सेना
स. मेरे प्रिय लेखक डॉ. परदेशीराम वर्मा
द. छत्तीसगढ़ी संस्कृति का जन-जन तक प्रसार जरुरी-पवन दीवान
ड. हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर ठिकाने पायेंगे।
७. संत की दो हिन्दी कविताएं -
अ. शोषण की रोशनी
ब. जब तक हम जलते हैं
८. छत्तीसगढ़ की पहचान - संत कवि पवन दीवान
९. माता राजिम, सबरी, बिलासा और उनकी छत्तीसगढ़ी भाषा
१०. १२ अगस्त को हरि ठाकुर सम्मान २००७ से विभूषित होने के अवसर पर विशेष
११. याद - ए - दीवान
१२. महात्मा गांधी - जमुना प्रसाद कसार
१३. समीक्षा :-
अ. आवा मेरी दृष्टि में - दानेश्वर शर्मा
ब. छत्तीसगढ़ी अस्मिता - आशुतोष
स. औरत खेत नहीं - रवि श्रीवास्तव
१४. आयोजन :-
अ. डॉ. परदेशीराम वर्मा की षष्ठिपूर्ती संपन्न
ब. लिमतरा के सियान श्री तेजराम मढ़रिया को सम्मान
स. डॉ. खूबचंद बघेल अगासदिया सम्मान ०७ श्री कोदूराम वर्मा को प्रदत्त
१५. राजिम के देवालय (संत पवन दीवान की साधना स्थली)
१६. देश के नक्शे पर उभरता एक नया कुंभ स्थल राजिम
१७. संत कवि पवन दीवान को अत्यंत प्रिय नेलसन कलागृह में संत समागम
१८. अगासदिया यात्रा एवं उपलब्धि
१९. पत्र एक

शिवरीनारायण देवालय एवं परम्‍पराएं : प्रो. अश्विनी केशरवानी की संपूर्ण ग्रंथ



लेखक : प्रो. अश्विनी केशरवानी



प्रथम संस्‍करण : फरवरी 2007

मूल्‍य : 120 रूपये

प्रिंट प्रकाशक : बिलासा प्रकाशन, बिलासपुर


वेब ब्‍लाग प्रकाशन : संजीव तिवारी

अनुक्रमणिका

भूमिका

शिवरीनारायण : एक नजर

अ. देवालय
१. गुप्तधाम
शबरीनारायण और सहयोगी देवालय
अन्नपूर्णा मंदिर
महेश्‍वरनाथ
शबरी मंदिर
जनकपुर के हनुमान
खरौद के लखनेश्‍वर

ब. परम्पराएं

१. मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा
२. महानदी में अस्थि विसर्जन
३. महानदी के घाट
४. महानदी के हीरे
५. शिवरीनारायण की कहानी और उसी की जुबानी
६. मठ और महंत परंपरा
७. गादी चौरा पूजा
८. रोहिणी कुंड
९. मेला
१०. रथयात्रा
११. नाट्य परंपरा
१२. तांत्रिक परंपरा
१३. साहित्यिक तीर्थ
१४. शिवरीनारायण के भोगहा
१५. गुरू घासी बाबा
१६. रमरमिहा
१७. माखन वंशनुक्रम

बस्‍तर की देवी दंतेश्‍वरी

छत्‍तीसगढ के शक्तिपीठ – 1
बस्‍तर के राजा अन्‍नमदेव वारांगल, आंध्रप्रदेश से अपनी विजय पताका फहराते हुए बस्‍तर की ओर बढ रहे थे साथ में में मॉं दंतेश्‍वरी का आशिर्वाद था । गढों पर कब्‍जा करते हुए बढते अन्‍नमदेव को माता दंतेश्‍वरी नें वरदान दिया था जब तक तुम पीछे मुड कर नहीं देखोगे, मैं तुम्‍हारे साथ रहूंगी । राजा अन्‍नमदेव बढते रहे, माता के पैरों की नूपूर की ध्‍वनि पीछे से आती रही, राजा का उत्‍साह बढता रहा ।

शंखिनी-डंकिनी नदी के तट पर विजय पथ पर बढते राजा अन्‍नमदेव के कानों में नूपूर की ध्‍वनि आनी बंद हो गई । वारांगल से पूरे बस्‍तर में अपना राज्‍य स्‍थापित करने के समय तक महाप्रतापी राजा के कानों में गूंजती नूपूर ध्‍वनि के सहसा बंद हो जाने से राजा को वरदान की बात याद नही रही, राजा अन्‍नमदेव कौतूहलवश पीछे मुड कर देखने लगे ।

माता का पांव शंखिनी-डंकिनी के रेतों में किंचित फंस गया था । अन्‍नमदेव को माता नें साक्षात दर्शन दिये पर वह स्‍वप्‍न सा ही था । माता नों कहा 'अन्‍नमदेव तुमने पीछे मुड कर देखा है, अब मैं जाती हूं ।'

राजा अन्‍नमदेव के अनुनय विनय पर माता नें वहीं पर अपना अंश स्‍थापित किया और राजा नें वहीं अपने विजय यात्रा को विराम दिया ।

डंकिनी-शंखनी के तट पर परम दयालू माता सती के दंतपाल के गिरने के उक्‍त स्‍थान पर ही जागृत शक्तिपीठ, बस्‍तर के राजा अन्‍नमदेव की अधिष्‍ठात्री मॉं दंतेश्‍वरी का वास है ।

(कथा पारंपरिक किवदंतियों के अनुसार)

संजीव तिवारी

इस ब्‍लाग को फायरफाक्‍स से देखने में कोई समस्‍या आ रही हो तो कृपया अवगत करायें, ताकि मैं आवश्‍यक सुधार कर सकूं

अदालत में काले कोटों की बढती संख्‍या एवं घटती आमदनी

दो दिन पूर्व मैं जब अपने कार्यालय भिलाई जा रहा था तो रास्‍ते में देखा, जिला न्‍यायालय के एक परिचित वकील पैदल चलते हुए भिलाई से दुर्ग की ओर आ रहे थे, काला कोट उतार कर उन्‍होंनें अपने कंधे पर लटका रखा था । पैरों में जो जूते थे उसमें कई कई बार सिलाई किया गया था फिर भी वकील साहब की पैरों की एकाध उंगलियां जूते से बाहर झांकने को बेताब थी ।

मैं पिछले कई दिनों से उन्‍हें ऐसे ही रास्‍ते में देखता हूं, कभी अपनी खटखटिया लूना से तो कभी अपने शरीर को लहराते हुए पैदल चलते । रास्‍ते में और कई वकील भाई मिलते हैं जो अपनी सजीली चार चक्‍के और दो पहियों में न्‍यायालय की ओर जाते नजर आते हैं, पर जब भी मैं इस वकील को देखता हूँ मन में अजीब सी हूक जगती है । न्‍यायालय में इनसे मिल कर कई बार बात करने की कोशिस किया हूं पर व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा की वजह से अपनी खस्‍ताहाली के संबंध में ये कभी चर्चा नहीं किये हैं किन्‍तु परिस्थितियां चीख चीख कर कहती है कि वकील साहब काले कोट के सहारे अपना अस्तित्‍व बचाये रखने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं । भारतीय न्‍यायालयों में ऐसे कई वकील हैं जो इस जद्दोजहद में प्रतिदिन सुबह 11 से शाम 5 बजे तक न्‍यायालय के गलियारों, आसपास के कैंटीनों, पान ठेलों में अपना जूता घिसते हैं ।

पूरे दस साल जिला न्‍यायालय में हाजिरी बजाने के बावजूद वकील साहब के पास दहेज में मिले लूना के रिपेयरिंग के लिये पैसा नहीं रहने पर आप क्‍या सोंचते हैं, यह निर्विवाद सत्‍य है उस वकील के पास सचमुच में पैसा नहीं है ना लूना बनवाने के लिए ना ही टैम्‍पू - टैक्‍सी - रिक्‍शा के लिए । पर पैसे मिलने की संभावना तो जिला न्‍यायालय स्थित बार रूम का वही सीट है, आना ही पडता है सो पैदल ही सहीं महोदय पैदल ही चल पडे हैं ।

शाम को मैं न्‍यायालय से पुन: अपने कार्यालय वापस जा रहा था वही वकील साहब शाम के धुधलके में पैदल भिलाई की ओर जाते हुए मिल गए । अब हमसे नहीं रहा गया, हमने अपनी गाडी रोकी और महोदय को आग्रह कर के बिठा लिए कि हम भी उधर ही जा रहे हैं, आपको छोड देंगें । न्‍यायालय से उनके घर का फासला लगभग आठ किलोमीटर होगा । इस बीच में हमने उनसे उनके पैदल चलने का महात्‍म पूछा । वकील साहब आत्‍मीयता पा अपनी व्‍यथा बताने लगे । बिसंभर प्रसाद मिश्रा, अधिवक्‍ता के पिता बलिया बीहार से भिलाई में स्‍टील प्‍लांट में नौकरी करने आये थे जहां उन्‍हें नौकरी मिली हिन्‍दुस्‍तान स्‍टील कंस्‍ट्रक्‍शन कम्‍पनी लिमिटेड (भिलाई स्‍पात संयंत्र की निर्माता कम्‍पनी) वहां शुरूआती दौर में खूब वेतन व सुविधायें मिली उसके बाद कंपनी की हालत खस्‍ता हाल हो गई, अब हालात यह है कि कई कई वर्षों से वेतन नहीं मिल रहा है सो पूरे घर की जिम्‍मेदारी मिश्रा वकील साहब की वकीली कमाई पर आ गई है । मिश्रा जी ठहरे सीधे सरल व सज्‍जन व्‍यक्ति केसेस उनके पास आते नहीं और आये हुए केसेस वापस छिन जाते हैं बडी संकट में हैं । हमने रास्‍ते में उनके हां में हां मिलाते हुए उन्‍हें उनके घर के पास ड्राप किया और अपने कार्यालय आ गये ।

बडी कोफ्त होती है कोर्ट में क्‍लाइंट से ज्‍यादा काले कोट वालों की भीड को देखकर । अपने आप को प्रोफेशनल कहलवाकर खुद अपना कंधा थपथपा खुश होते आशावादी युवाओं के समूह में से पूरे महीने में ऐसे कई वकील हैं जिन्‍हें व्‍यावसायिक दक्षता की कमी के कारण मुश्किल से दो चार सौ की आमदनी ही हो पाती है । कुछ वकीलों की यही मेहनत और तप उन्‍हें सफलता की ओर ले जाती है तो कुछ इसी दो तीन सौ रूपये महीने की कमाई में जिंन्‍दगी गुजार देते हैं ।

जब नर तितलियां ले जाए प्रणय उपहार : डॉ. पंकज अवधिया जी की कलम से

पंकज अवधिया जी (दर्द हिन्‍दुस्‍तानी) के लेख विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं जिससे पाठक एवं ब्‍लागजगत वाकिफ ही है अभी सांध्‍य दैनिक छत्‍तीसगढ में 22 नवम्‍बर को उपरोक्‍त लेख जब प्रकाशित हुआ था तो हम अपने आप को रोक नहीं पाये और इसे यहां आप लोगों के लिए प्रस्‍तुत कर दिया ।

आज चाँद बहुत उदास है


छटते ही नहीं बादल
किरणों को देते नहीं रास्ता
उमड़ घुमड़ कर
गरज बरस कर
सोख लेते ध्वनि सारी

बजती ही नहीं पायल
स्मृति का देती नहीं वास्ता
सिसक झिझक कर
कसक तड़फ कर
रोक लेती चीख सारी

दिल ही नहीं कायल
खुशबू ऐसी फैली वातायन में
निरख परख कर
बहक महक कर
टोक देती रीत सारी

दिखता ही नहीं काजल
चाँदनी ऐसी बिखरी उपवन में
घूम घूम कर
चूम चूम कर
रो लेती नींद सारी

तुम नहीं हो पास
आज चाँद बहुत उदास है

- अशोक सिंघई -

अशोक सिंघई : काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी


अशोक सिंघई : डॉ. परदेशीराम वर्मा

जनवरी 2007 से राजभाषा प्रमुख, भिलाई स्‍पात संयंत्रसाहित्‍यकार एवं कवि अशोक सिंघई के संबंध में वरिष्‍ठ कहानीकार डॉ. परदेशीराम वर्मा नें अपने पुस्‍तक ‘काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी’ में रोचक प्रसंगों का उल्‍लेख किया है आप भी पढे अशोक सिंघई जी का परिचय :-
काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी छत्‍तीसगढ के ख्‍यातिलब्‍ध व्‍यक्तियों के संबंध में डॉ. परदेशीराम वर्मा जी द्वारा लिखित 'अपने लोग' श्रृंखला की किताब


एक

वरिष्‍ठ प्रबंधक, जन संपर्क के कार्यालय में विज्ञापन आदि के लिए पत्रकारगण मिलते ही हैं । कुछ बडे लोग फोन पर भी अपनी बात कहते हैं । एक दिन संयोगवश मेरी उपस्थिति में ही किसी बडे पत्रकार का फोन आया । बातचीत कुछ इस तरह होने लगी ।
पत्रकार : मैं अमुक पत्र से बोल रहा हूँ । सिंघई जी : कहिए । पत्रकार : मिला नहीं । सिंघई जी : देखिए, अब जो स्थिति है उसमें हमें निर्देशों के अनुरूप सीमा के भीतर ही रहकर अपने कर्तव्‍यों का निर्वाह करना है । इस्‍पात उद्योग की हालत तो आप भी बेहतर जानते हैं । पत्रकार : यह तो सामान्‍य जवाब है । सिंघई जी कुछ उखडते हुए : देखिए, अशोक सिंघई स्‍वयं सामान्‍य हैं इसीलिए सबको सामान्‍य जवाब ही देता है । मुझे क्षमा करें । मैं किसी को विशेष तो किसी को सामान्‍य ऐसा दोहरे स्‍तरों पर जवाब नहीं देता ।
पत्रकार : मैं उपर बात करूँगा ।
सिंघई जी : बडे शौक से । आप बडे, उपर वाले बडे । यही शोभा देता है । मुझे तो क्षमा ही करें ।

दो

बख्‍शी सृजन पीठ के अध्‍यक्ष श्री प्रमोद वर्मा से भिलाई के जिन साहित्‍यकारों की पटरी नहीं बैठी उनमें से एक मैं भी हूँ । लेकिन अशोक सिंघई डाक्‍टर वर्मा के अनन्‍य भक्‍त । प्रमोद जी के लिए कुछ भी करने को सदा तैयार । अशोक भाई प्राय: ऐसी भक्ति नहीं करते किसी किसी की । मुझे बडा अटपटा लगता । मैं अपने ही ढंग का नासमझ । इतने बडे व्‍यक्ति से निकटता नहीं बना सका । मुक्तिबोध के मित्र और भवभूति अलंकरण से सम्‍मानित वरिष्‍ठ साहित्‍यकार का आशीष लेना दीर्घायु होने के लिए जरूरी है, यह जानते हुए भी मैं अपने को सम्‍हालने में सफल न हो पाता ।

मुझे डगमगडैंया करते देख अशोक ने आदेशात्‍मक लहजे में कहा- देखो परदेशी भाई, तुम्‍हारी यही कमजोरी तुम्‍हें नुकसान पहूँचाती है । तुम मिलो, जाओ । भेंट करो । मैंने कहा : जिनसे मिलकर फिर-फिर मिलते रहने का उत्‍साह मुझे नहीं मिलता वहॉं में जबरदस्‍ती का कारोबार नहीं चलाता । अशोक सिंघई भांप गये कि अब सिर्फ ब्राम्‍हास्‍त्र ही अमोध सिद्ध होगा ।
उसने कहा : मुझे कुछ नहीं सुनना । भिलाई के साहित्यिक पर्यावरण के हित में तथा मेरे हित में हैं तुम भले आदमी की तरह सर से मिलो और संबंध बनाते चलो । बुजुर्ग लोग हैं । इस तरह तुनुकमिजाजी किस काम की । बच्‍चे की तरह बिदक जाते हो । मिलना पडेगा । और इस आदेश के बाद मैं न केवल मिला बल्कि साथ में कई कार्यक्रम भी कराने का असफल यत्‍न करने लगा ।

तीन

शैलजा और सागर की पहली किताब ‘मेरे लिए’ का विमोचन लिटररी क्‍लब के द्वारा आयोजित समारोह में होना तय हुआ । प्रसिद्ध निदेशक रामहृदय तिवारी बारबार आग्रह करने लगे कि चलकर लिटररी क्‍लब के अध्‍यक्ष श्री अशोक सिंघई के घर में एक बार उनसे मिल आये । मैं उन्‍हें शाम को ले जाना चाहता था मगर तिवारी जी सुबह मिलना चाहते थे । मैं बचना इसलिए चाहता था क्‍योंकि अशोक भाई का मूड सुबह सुबह खराब बहुत रहता है । तिवारी जी तथा महावीर अग्रवाल सहित मैं सुबह आठ बजे जा पहूंचा सिंघई जी के घर । वे उठकर सुबह की चाय ले रहे थे । हमें देखकर अरन-बरन बाहर आये और हमसे बिना कुछ बोले अपनी नई खरीदी कार को अपने बेटे के साथ साफ करने लगे । यह नापसंदगी जताने का उनका अपना तरीका जो है तिवारी जी कुछ देर धीरज दिखाते हुए बैठे रहे । फिर धीरे धीरे उनका धीरज छूटने लगा । वे चीरहरण से व्‍यथित द्रौपदी की तरह आर्तनाद करते हुए बोले- वर्माजी, अब चलें । बहुत हो गया । मैं सहज बना रहा । क्‍योंकि एक सुबह की हत्‍या के लिए वाजिब और तयशुदा दंड अशोक सिंघई दिये बगैर भला कहॉं मानते ।

चार

भाई रवि श्रीवास्‍तव की सुपुत्री अन्‍नू की निर्मम हत्‍या हो गई । हम सब स्‍तब्‍ध थे । शहर खामोश । लोगों की भीड रातदिन रवि भाई के यहां उन्‍हें सांत्‍वना देने के लिए उमडी पडती थी । अशोक भाई रात-रात जागकर सबको सम्‍हाले रहते । तीसरे दिन मैं दफतर में उनसे मिला । ऑंखे लाल । उदास उदास । गुस्‍सा और व्‍यथा का मिला-जुला भाव चेहरे पर आ जा रहा था ।बात चलाने की गरज से मैंने कहा, अशोक भाई पूरा शहर हमारे दुख में शरीक है । यह कम राहत की बात नहीं है ।
मैं शायद और कहता कि रूलाई के साथ अस्‍फुट शब्‍दों में मैं हत्‍प्रभ रह गया – परदेशी भाई यही तो हमारी कमाई है ।

यह भी अशोक सिंघई थे । सदैव कमान की तरह तनकर रहने वाले तेज तर्रार, संतुलित और विवेकी अशोक ।

पॉंच

पॉंच बरस पहले की बात है । भिलाई-तीन थाने के पास से गुजरती हुई सांसद की कार एक स्‍कूटर सवार नौजवान को देखकर खडी हो गई । दोनों मिले । अट्हास कर लेने के बाद सांसद ने नौजवान से कहा – मिलस नहीं । भुलागेस का । राजिम के मया ला । साहेग होगेस ।

नौजवान ने कहा- साहेब तो महाराज बहुत छोटी चीज है, आप तो दिल में बसते हैं । मगर हम जैसों के लिए आपके पास समय नहीं रहता इसलिए नहीं मिलता । आप तो संत से राजा हो गये । सांसद हतप्रभ । निरूत्‍तर । सांसद थे पवन दीवान और पटन्‍तर देने वाला युवक था अशोक सिंघई ।

छ:

ये कुछ अलग अलग प्रसंग है । इन प्रसंगों में एक व्‍यक्ति के कई रंग दिखते हैं । अशोक सिंघई के बारे में मैं स्‍वयं कुछ न लिखकर केवल कुछ रंग बिखेर देना चाहता था । मगर मैं कलावादी नहीं हूँ इसलिए स्‍थूल चित्रण के बगैर मेरा मन भरता नहीं । शायद आपका भी न भरे इसलिए थोडी सी सपाट सी लगती कुछ और कथायें भी जरूरी लगती है ।

अशोक सिंघई से मेरी भेंट प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम आयोजन में हुई । भिलाई इकाई का गठन हुआ । अशोक और मुझे एक साथ रवि भाई ने सहसचिव बना दिया । अशोक राजिम के हैं । भाई रवि राजिम के । इस तरह एक परिवार बना । हडबडी में जैसा बना वैसा रूप दिया गया संगठन को ।

काम चलने लगा । अशोक सिंघई तब केम्‍प एक के हाई स्‍कूल में रसायन शास्‍त्र के व्‍याख्‍याता थे । नंदिनी से यहां पहूँचे थे । यहॉं आने से पहले वे चंपारण के हाई स्‍कूल में शिक्षक रह चुके थे ।

राजिम अशोक भाई का गांव है । वहां उनके परिवार का अच्‍छा खासा कारोबार है । मगर वे स्‍वभाव से कारोबारी नहीं है । इसलिए अलग लीक पर चलने के लिए उन्‍होंने मास्‍टरी को चुना । रोज मोटर साइकिल से राजिम से चांपारण पढाने जाते थे । पिताजी को यह घाटे का सौदा लगता था । एक दिन उन्‍होंने कह ही दिया कि जितना कमाते हो उससे ज्‍यादा तो पेट्रोल में फूक देते हो ।

उस दिन से अशोक सिंघई साइ‍किल से यात्रा करने लगे । दादी का दुलरूआ अशोक सिंघई खटर-खटर साइकिल से चला जा रहा है । राजिम से धुरमारग का सुख उठाते चम्‍पारण । दादी बहुत व्‍यथित हुई । लेकिन अशोक अडिग । उसने फिर मोटर साइकिल को हाथ नहीं लगाया । आज उनके कवि हृदय पिता अशोक की नई कार में बैठकर सैर सपाटे के लिए भी निकलते हैं । माता पिता को कार में बिठाकर शायद पुरूषार्थी अशोक को वही सुख मिलता हो जो रावण को हिमालय सहित शिव पार्वती को उठाकर, चलने से मिलता रहा होगा । अशोक स्‍वाभिमानी और आत्‍मविश्‍वास से लबालब भरा हुआ कर्मठ व्‍यक्ति है ।

निज भुज बल मैं बयरू बढावा, दैहंव उतरू जो रिपु चढ आवा ।

यही अंदाजा रहता है अशोक का जब कोई उसे अपने शीशे में जबरदस्‍ती उतारने के लिए नाहक चेष्‍टा करने लगता है ।

सेल में नौजवान कर्मियों के लिए एम.टी.ए. की परीक्षा की जब पहली योजना बनी तो भिलाई से एक पूरी बस भरकर मित्रों की टोली गई भोपाल । परीक्षा दिलाने । अशोक भी उनमें से एक थे ।

परिणाम आया तो पूरी बस के यात्रियों में से मात्र यही अपने अशोक भाई लिखित परीक्षा की वैतरणी पार कर सके । साक्षात्‍कार का बुलावा आया । अशोक सिंघई को अपनी विशिष्‍टता का ज्ञान शुरू से रहा है । अशोक सिंघई ने लिट् ररी क्‍लब के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष श्री दानेश्‍वर शर्मा से प्रमाण पत्र लिया कि साहित्यिक रूचि और गति है ।

अपने साहित्यि स्‍टैंड के कारण अशोक सिंघई बाजी मार लाये । ट्रेनिंग के बाद वे जनसंपर्क में पदस्‍थ हुए । आज वहीं वरिष्‍ठ प्रबंधक है । और बेहद सफल वरिष्‍ठ प्रबंधक । निचले पादान से क्रमश: उभरते हुए उँचाइयों को छूना कोई अशोक सिंघई से सीखे । विकट परिस्थितियों में भी वे अधीर नहीं होते । स्‍वाभिमानी इतने कि अकडू लगे । योजना कुशल इतने कि जुगाडू दिखें । स्‍पष्‍टवादी इतने कि मुहफट कहायें । दृढ निश्‍चय इतने कि बेरहम कहलायें । और बौद्धिक ऐसे कि रसहीन माने जायें । लेकिन साहित्‍य और साहित्‍यकारों के संदर्भ में अपनी सारी कमियों और छवियों से अलग एक समर्पित और निष्‍ठावान कलमकार की सारी खूबियों के एकत्र रूप । उच्‍च पदों पर आसीन होने के बाद प्राय: व्‍यक्ति की कुछ रूचियां रूप ग्रहण करने लगती हैं । लेकिन पद उन्‍हें और उनकी रूचि को खा जाता है । इसके उलट जो लोग अपनी कलारूचियों एवं सिद्धियों के महत्‍व को समझते हैं और जीवन में भी सफल होते हैं ऐसे स्‍वाभाविक कलाकार, कवि, लेखक अपनी कला-बिरादरी को भरपुर संरक्षण, बल और आदर देते हैं ।

श्री अशोक सिंघई टूटही साइकिल में चलने वाले गुरूजी होने से पहले ही एक संभावनाशील कवि के रूप में पहचान बना चुके थे । वे छात्र कवि थे । अब तो खैर क्षत्रिय कवि हो गये हैं । मारक कविता लिखने में माहिर है ।

लोगों के बीच 1982-83 में अशोक सिंघई की कविता बचपन में बुलबुले बनाये थे बेहद चर्चित हुई । वे वैचारिक कविता में सिद्ध है । इधर आत्‍मीय संबंधों पर भी उन्‍होंने जमकर लिखा है ।

पत्‍नी पर लिखी उनकी कविताओं से सिद्ध कवियों की बहुचर्चित प्रेम कवितायें याद हो आती हैं ।

अशोक सिंघई का अभ्‍युदय भिलाई नगर में आयोजन कौशल का युग सिद्ध हुआ । विगत पॉंच वर्षो में देश के नामचीन विद्वान भिलाई में आये । स्‍तरीय कार्यक्रम हुए । साधनों के लिए हम अशोक सिंघई के रहते एकदम निश्चिंत रहते हैं । लेखकों की स्‍वतंत्र सत्‍ता हो जाय, ऐसे सत्‍ताधारी लेखक एकजुट हो जाऍं और उन्‍हें साधनों की सुविधा हो जाये तो क्‍या चमत्‍कार हो सकता है, इसे सबसे पहले अशोक सिंघई ने समझा ।

उनकी समझदारी से उत्‍पन्‍न प्रतिफल का लाभ हम सब उठा रहे हैं । कुशल वक्‍ता और चिंतक के रूप में अशोक सिंघई की धाक शुरू से रही । समीक्षा द्ष्टि और विश्‍लेषण बुद्धि के कारण वे हम सबके बीच सभा समितियों में लगभग आतंक की मानिंद उपस्थित रहते है । अशोक सिंघई कई कई दिनों की चल रही तैयारी को अपने तर्को से एक दूसरा ही रूप दे देते हैं । इसीलिए कार्यक्रम बनाने वाले बैठकों के शुरूवाती दौर में उन्‍हें पधारने के लिए न्‍यौता दे देते हैं ।

अशोक सिंघई अब साहित्‍य के ऐसे तेजस्‍वी देव हो गये हैं जिसे साहित्यिक यज्ञ में अगर ससम्‍मान भाग नहीं दिया जाय तो यज्ञ का विध्‍वंश लगभग तय हो जाता है ।

अशोक भाई कितने मित्रवत्‍सल हैं- कितने बॉंस भक्‍त हैं, कितने पितृसेवी हैं- कितने परंपरा विरोधी, किस किसके विरोधी है- किस किसके समर्थक या फिर कब विरोधी है और कब समर्थक, यह दावे से कोई भी कह नहीं सकता ।

अपने पुरूषार्थ की ताकत से मंजिल की ओर तेजी से बढने वाले व्‍यक्तियों में पाया जाने वाला आत्‍मविश्‍वास और अहं दोनों को अशोक सिंघई ने खूब पाला पोसा है ।

अशोक सिंघई के कवित्‍व और व्‍यक्तित्‍व को परवान चढते देखा है श्रीमती सरोज सिंघई ने । एम.ए., बी.एड. तक शिक्षित श्रीमती सरोज सिंघई 79 में बहु बनकर राजिम आई । वे वर्धा जिले के एक छोटे से नगर आरवी से यहां आई । संपन्‍न घर की बेटी और समर्थ घर की बहु सरोज जी ने सेक्‍टर-6 के टू-बी टाइप असुविधाजनक छोटे से क्‍वार्टर को अशोक का भरापूरा घर बना दिया । उस छोटे से घर में भी श्रीमती सरोज सिंघई उसी तत्‍परता और विनम्रता से अपने पढाकू पति के मित्रों का आवभगत करती थीं । तब भी अशोक सिंघई के घर में बडी-बडी जिल्‍दों वाली चमचमाती और मुझे डरावनी सी लगती गूढ ज्ञान से भरी किताबें अटी रहती । सरोज जी उन्‍हीं किताबों से बची जगहों में नाश्‍तें की प्‍लेटे रखा करतीं । आज सेक्‍टर-5 के बडे घर में पहूँच कर भी हालात बहुत नहीं बदले । रखने को तो अशोक सिंघई तब भी एक सवारी रखते थे । बाबा आदम के जमाने की एक साइकिल । लेकिन सरोज जी को तब भी कोई विशेष शिकायत नहीं रहती थी । न ही आज उन्‍हें कोई विशेष गर्व है, जबकि उनके टूटही साइकिल वाले पति आज नई मारूती कार में सर्राटे से भिलाई से राजिम ड्राइव करते हुए सुनहरे फ्रेम के चश्‍में से देखकर सामने वाले को नाप लेने की सिद्धि के लिए चर्चित हो चुके हैं ।
अशोक सिंघई की गाडी में सेल का चिन्‍ह अंकित है । श्री रवि श्रीवास्‍तव और बसंत देशमुख उस सेल चिन्‍हधारी गाडी के विशेष सवार हैं । दोनों बी.एस.पी. के बकायदा अधिकारी जलो ठहरे । रायपुर से राजनांदगांव तक यह गाडी खास साहित्यिक आयोजनों के अवसर पर सरसराती है । महासमुन्‍द, बिलासपुर, बालोद और धमतरी के साहित्‍यकार इस सफेद रंग की गाडी को पहचानते हैं ।

अंचल के साहित्यिक आयोजनों को लेकर जिस तरह की उत्‍तेजक संलग्‍नता अशोक सिंघई में रहती है वह अन्‍यत्र देखने को नहीं मिलती । समारोह में जाने के लिए कपडों की छंटाई से लेकर साथ चलने वाली सवारियों की सजधज तक सब पर उनकी नजर रहती है । केवल नजर ही नहीं रहती, नजारों का लुत्‍फ भी खूब उठाते हैं । समारोह से लौटने के बाद की कथा हफतों चलती है कि हम लोग उतरे । आयोजकों ने हाथों हाथ लिया । सामने ले जाकर बिठाया । रवि और मैं कोसे के कुरते में थे । सबसे अलग । बसंत भी जवाहर जाकिट में खूब सज रहे थे । सबका ध्‍यान भिलाई पर ठहर गया । मया आ गया ।

या फिर यह कि – सालों को खूब सुनाया कि भिलाई वालों को तो आप लोग कार्ड के काबिल भी नहीं समझते । पेपर पढकर हमलोग आ गये । क्षमा करें, हम तो गेट के बाहर खडे होकर सुनेंगे । भीतर बैठकर सुनने के योग्‍य तो हम है नहीं । खूब लानत-मलामत हुई । हाथ जोडने पर ही छोडा । फिर बैठे जाकर । उसके बाद तो हमीं हम रहे ।

मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि आयोजन को लेकर अशोक भाई इतने पागल क्‍यों हो जाते हैं । पागल तो खैर वे कविता के पीछे भी रहते हैं । विशेषकर विगत् पॉंच वर्षो से । कविता के किताब के लिए तैयारी तीन वर्ष से चल रही है ।

अशोक ही हम सबके बीच ऐसे लेखक हैं जिनकी आज तक कोई किताब नहीं छपी मगर वे कई-कई किताबधारी लेखकों के दिशा निर्देशक और साहित्यिक बॉस है ।

अशोक सिंघई का सारा खेल बहुत सोचा समझा हुआ रहता है । पाण्‍डुलिपि ही वे इस तरह से तैयार कर रहे हैं जिसे देखकर हम सबको अपनी पुस्‍तक फीकी लगती है । और संग्रहों के नाम को लेकर भी कम उँची उडान नहीं है । मुट्ठी पर धूप, शब्‍दश: शब्‍द धीरे-धीरे बहती है नदी, आदि आदि । जहॉं अधीर होना वहॉं अशोक बेहद अधीर पाये जाते हैं । और जहां संयम बरतना है वहां महाव्रती, अटल संकल्‍पवान । अडतालीस की उम्र तक आ गये, वरिष्‍ठ प्रबंधक हो गये, वरिष्‍ठ प्रबंधक हो गये, लिटररी क्‍लब के अध्‍यक्ष बन गये, अंचल के साहित्यिक गलियारे के शेर का दर्जा भी उन्‍हें मिल गया लेकिन संग्रह प्रकाशन के लिए अशोक भाई अधीर नहीं हुए । यही उनकी खूबी है ।
भिलाई में ऐसा कौन मित्र है जिसे अशोक ने बुरी तरह घुडका न हो और कौन ऐसा विरोधी है जिसे योजनापूर्वक उसने शीशे में उतार न लिया हो ।

अब तो दिन – दिन उनका यह कौशल और परवान चढेगा ।

भाई अशोक सिंघई समन्‍वय में माहिर हैं । भोपाली कवि का एकल काव्‍यपाठ भिलाई होटल के एपार्टमेंट में ठीक रहेगा और स्‍थानीय कवि का रचनापाठ लिटररी क्‍लब या बख्‍शी सृजन पीठ में ही जमेगा, यह वे मिनटों में तय कर देते हैं । ऐसी समस्‍याओं पर विद्वत्‍जन घंटों सर पीटते रहते हैं मगर अशोक भाई दर्जनों गेंदों को एक गेंद की तरह उछाल सकते हैं और एक गेंद को ही इस कौशल से उछालते हैं कि दर्जन भर गेंद होने का भ्रम खडा हो जाता है ।
भिलाई इस्‍पात संयंत्र पर वजन भी न पडे और साहित्‍यकार का वजन कम न हो वह दोनों चिंता वे बराबर करते हैं । कमाल यह है कि वे दोनों के बीच शानदार संतुलन बना ले जाते हैं ।

छोटे लिफाफे में भारी भरकम खत डालना और भारी से लिफाफे में शब्‍दश: शब्‍द भी न लिखना उन्‍हें सुहाता है । उनकी सारी सूचनायें चमकदार होती हैं । अभी वे विगत् वर्ष से एक लंबी कविता लिख रहे हैं ।

हिन्‍दी में मुक्तिबोध, निराला, नरेश मेहता, अज्ञेय जैसे कवियों की लंबी कवितायें चर्चित है । हमारे अशोक भाई पूरी योजना के साथ लगभग दो सौ पृष्‍ठों की लंबी कविता के साथ इस सदी की विदाई और नई सदी के स्‍वागत की योजना बना रहे हैं । उस लंबी कविता के अंशों को अंतरंग गोष्ठियों में हमने सुना है । बडी बात यह है कि बीसवीं सदी के अंतर्द्वन्‍द, को ही सिंघई इस लंबी कविता में प्रस्‍तुत करने का प्रयास कर रहे हैं । जय-पराजय, यश-अपयश, हानि-लाभ, के संदर्भ में सदी की पडताल कविता में देखते ही बनती है । प्रस्‍तुत है प्रकाशन के पहले ही चर्चा में आ चुकी सदी को समर्पित लम्‍बी कविता का एक अंश.....

क्‍या अर्थ था मेरे बगैर पृथ्‍वी का
एक निर्जीव दुनिया
विराट व्‍योम में पथ भूल चुकी
एक चपटी और झुर्रीदार गेंद
पृथ्‍वी ने मुझे जन्‍म दिया
चॉंद के आईने में/अपनी कुरूपता निहारती
अपनी उष्‍मा खोते हुए/वेदना के उत्‍ताप में
पृथ्‍वी ने मुझे जन्‍म दिया
पृथ्‍वी ने मेरी रचना की
और मैंने की पृथ्‍वी की पुनर्रचना
सुंदर से सुंदरतम बनाया उसे ।

पिछले दिनों श्रीनारायण लाल परमार जी को दुर्ग जिला साक्षरता समिति द्वारा प्रकाशित उनकी कृति भेंट करने हम धमतरी गये । परमार जी अस्‍वस्‍थ थे । हमने उन्‍हें अस्‍पताल में जाकर सविनय कृति भेंट की । फिर त्रिभुवन पाण्‍डे जी से भेंट हुई । पाण्‍डे जी ने एक जनवरी 99 को दीवान जी के जन्‍म दिवस पर प्रकाशित मेरे लेख के लिए कहा कि तुम्‍हारा अनसेन्‍सर्ड लेख बहुत अच्‍छा लगा । दीवान जी को पकडना है तो यह साहसिकता जरूरी है । हम लोग थोडा सकपकाकर पीछे हट आते हैं । साथ में गये श्री डी.एन. शर्मा एवं जी जमुना प्रसाद कसार को यह अनसेन्‍सर्ड लफज बहुत जमा । पाण्‍डे जी ने आगे कहा कि दीवान जी जैसे बीहड व्‍यक्तित्‍व पर ऐसा ही बेबाक लेखन होना जरूरी है । अब हम सब इस बीहड शब्‍द पर फिर खिलखिलाये ।

श्री त्रिभुवन पाण्‍डे शिल्‍पी हैं । उन्‍होंने बीहड व्‍यक्तित्‍व का दर्जा देकर दीवान जी की विचित्रता को ही रेखांकित किया । बीहड जहां डाकू भी छिप जाये और जहां संत भी समाधिरत होने के लिए जगह बना लें । जहां धसकर आदमी बागी कहलाये । जहां जाने के बाद व्‍यक्ति नये रूप में ढलता चला जाय । जहां आदमी पकडा न जा सके वह कहलाता है बीहड । दीवान जी के लिये प्रयुक्‍त यह लफज बीहड मौजू है । लेकिन मैं इसका विस्‍तार चाहता हूँ । महानदी के किनारे बसे राजिम के हर जोगी का व्‍यक्तित्‍व ऐसा ही है । बीहड व्‍यक्तित्‍व । साहित्‍य के जोगी अशोक सिंघई भी महानदी के किनारे बसे नवापारा के निवासी हैं । उस ओर सन्‍यासी का डेरा, इस ओर जोगी की बस्‍ती है मगर है दोनों बीहड व्‍यक्तित्‍व ।

अशोक सिंघई ने पैदा होने के लिए राजिम को नहीं नवापारा को चुना । उसे सब कहीं नवा पसंद है । पुरानी लीक पर कवि के आदेशानुसार अशोक सिंघई चल भी तो नहीं सकता । कवि ने यह जो कह दिया है...

लीक छॉंड तीनों चले, शायर, सिंह, सपूत ।

यहॉं मार तिहरी है । अशोक शायर भी है, सपूत भी ।
जिस तरह लक्ष्‍मी की कृपा उन पर अब हो रही है उसे देखते हुए और पुरूष सिंह मुपैति लक्ष्‍मी इस स्‍थापना पर विश्‍वास करते हुए अशोक सिंघई को सिंह भी मानना पडता है । सिंह इसलिए भी मानना पडता है क्‍योंकि जिस किसी ने भी उसकी पूंछ पर हाथ रखने की जुर्रत की उसे एक ही गप्‍पा में अशोक हुबक कर लील लिया । लेकिन बिहडता देखिए कि अहिंसा, प्रेम, भाईचारा, एकता, क्षमा, दया मया का भी कारोबार अशोक के यहॉं पर्याप्‍त मात्रा में मिलता है । बल्कि हम सबके बीच वे इन जीन्‍तों के होल-सेलर है । यह अशोक सिंघई के व्‍यक्तित्‍व को, ठीक पवन दीवान सी, विचित्रता है । जैसे दीवान जी की गहराई की थाह नहीं लगती उसी तरह अशोक सिंघई का अंदाजा नहीं लगता ।

एक अवसर पर किसी पहाड को लतियाते नजर आते हैं तो दूसरे मौके पर एक छोटी सी टिकरी के आगे हाथ बॉंधे खडे दिखते हैं । अराजक ऐसे कि मंत्रियों को बात सुना दें और अनुशासित ऐसे कि अपने बॉस और यहॉं तक मातहत कर्मचारियों के भी बाकायदा पीर, बावर्ची, भिस्‍ती, खर तक बन जाय । सचमुच रजिमहा लोग बीहड व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी हैं ।

अशोक सिंघई की कविताओं के अंशों से गुजरते हुए हमें इसका अहसास शिद्दत से होता है:

विक्रमादित्‍य का ही सिंहासन
मिला हमें विरासत में
हर पुतली गूंगी है अब
हर पाया जगह-जगह घुना है ।
नदियॉं लेटी हैं
जंगल अनमना है ।

xxx xxx xxx

दसों दिशाओं / चौदह भुवनों
और असीम समय की सीमा तक
फैली है / उँची है यह दीवार
अदृश्‍य होकर भी रोकती है
बॉंधती है समय के बंधनों में
संस्‍कारों की सांकलों में
कहानियों की कंदराओं में
हम खो नहीं सकते
जंगलों में / पहाडों में / कछारों में
तुम्‍हें देख नहीं सकते
ऑंखे बंद करके / खोल करके ।

xxx xxx xxx

कविता उग आती है
घास की तरह
इसके बीज कभी नहीं मरते
घास के बीजों की तरह ।

नथमल झंवर जी की दो कवितायें

जीवन का इतिहास यही है

जीवन की अनबूझ राहों में
चलते-चलते यह बनजारा
गाता जाये गीत विरह के
जीवन का इतिहास यही है

यौवन की ऑंखों से देखे
वे सारे स्‍वप्निल सपने थे
जिन-जिन से नाता जोडा था
वे भी तो सारे अपने थे

सबके सब हरजाई निकले
जीवन का परिहास यही है

पीडाओं की अमर कहानी
कोई विरही-मन लिख जाये
और व्‍यथा के सागर डूबा
कोई व्‍याकुल-तन दिख जाये

पीता है नित विष का प्‍याला
जीवन का संत्रास यही है

संघर्षो में बीता जीवन
कभी रात भर सो न पाया
जिसे कोख में पाला हमने
लगता है अब वही पराया

तोडो रिश्‍तों की जंजीरें
जीवन का सन्‍यास यही है

देखो सागर की ये लहरें
सदा कूल से मिलने जाती
दीप-शिखा को देखो प्रतिदिन
अंधकार से मिलकर आती

तुम प्रियतम से मिल सकते हो
जीवन का विश्‍वास यही है

अपने मंदिर की देहरी पर
आशाओं के दीप जलाओ
जीवन से जो हार चुके हैं
उन्‍हें विजय का घूंट पिलाओ

परमारथ तन अर्पित कर दो
जीवन का आकाश यही है

प्रथम रश्मि देखो सूरज की
जीवन में उल्‍लास जगाती
और चंद्र की चंचल किरणें
सबके तन-मन को हरषाती

पल-पल में अमृत रस भर दो
जीवन का मधुमास यही है

सूरज सा ढलना है

मंजिल है दूर बहुत, और अभी चलना है
जग को उजियारा कर, सूरज सा ढलना है

घुटनों के बल चलना
आँगन का वह पलना
बातों ही बातों में जाने कब बीत गया
चाबी की वह गुडिया
माटी की वह चिडिया
तरूणाई आई तो जाने कब रीत गया
यौवन के आने से
उमर बीत जाने से
दुनिया को देखा तो सिर्फ एक छलना है

पपीहा पी-पी बोले
कानों में रस घोले
परदेशी बालम की यादें तरसा गई
जंगल में मोर नचा
ऑंखों में प्रीत रचा
सूखे इन अधरों पर अमृत बरसा गई
हरजाई बालम है
कैसा यह सरगम है
बाती को दीपक सँग जलना ही जलना है

मन का संताप लिये
अधरों में प्‍यास लिये
कौन आज दूर कहीं विरह राग गा रहा
मन पंछी व्‍याकुल है
तन कितना व्‍याकुल है
कौन है जो विजन में भी गीत आज गा रहा
नीले आकाश तले
क्षण-क्षण यह उमर ढले
सॉंसों को हर पल बस मोम जैसा गलना है।

परिचय
नाम: डॉ. नथमल झँवर
पिता: स्‍व. नानकराम झँवर माता: स्‍व. गंगादेवी झँवर
पत्नि: श्रीमती शांति देवी जन्‍मतिथि: 22 नवम्‍बर 1944 ई.
शिक्षा: इन्‍टरमीडिएट, राष्‍ट्रभाषा रत्‍न,
साहित्‍य रत्‍न मानद् उपाधि-विद्यावाचस्‍पति (पी-एच.डी) विद्यावारिधि
प्रेरणाश्रोता: श्री जी.पी. तिवारी, श्री बबन प्रसाद जी मिश्र, डॉ. विनय कुमार पाठक
प्रकाशन: सरिता, मेरी सहेली, समरलोक, पालिका समाचार, नवभारत, दैनिक-भास्‍कर, नोंक झोंक, स्‍वर्णिम प्रकाश, देशबन्‍धु, हरिभूमि, प्रखर समाचार, हिन्‍दी जगत, छत्‍तीसगढ टुडे, विकास संस्‍कृति, सुमन सुधा, माहेश्‍वरी, माहेश्‍वरी सेवक, समाज प्रवाह, श्री माहेश्‍वरी टाइम्‍स, साहित्‍यांचल आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं में ।
संप्रति: संरक्षक- सृजन साहित्‍य परिषद् तिल्‍दा (नेवरा), अध्‍यक्ष- वर्षा साहित्‍य समिति, सिमगा, अध्‍यक्ष- माहेश्‍वरी सभा सिमगा, कार्यकारिणी सदस्‍य- छत्‍तीसगढ हिन्‍दी साहित्‍य परिषद (रायपुर), सचिव – शिवनाथ सृजन समिति सिमगा, आजीवन सदस्‍य – साहित्यिक सांस्‍कृतिक कला संगम अकादमी परियावां (उ.प्र.), सदस्‍य – विकल्‍प साहित्‍य परिषद तिल्‍दा, सदस्‍य – ‘वक्‍ता एवं लेखक पेनल’ माहेश्‍वरी महासभा, कार्यकारिणी सदस्‍य – छ.ग. प्रादेशिक माहेश्‍वरी सभा
सम्‍मान- विद्यावारिधि – साहित्यिक सांस्‍कृतिक कला संगम अकादमी परियावां (उ.प्र.) विद्या वाचस्‍पति (पी-एच्.डी.) – विक्रम शिला हिन्‍दी विद्यापीठ ईशीपुर भागलपुर (उ.प्र.) मैथिलीशरण गुप्‍त सम्‍मान- अखिल भारतीय साहित्‍यकार अभिनंदन समिति मथुरा (उ.प्र.) वर्ष 2000 बीसवीं शताब्‍दी रत्‍न सम्‍मान – जैमिनी अकादमी पानीपत वर्ष 2000 साहित्‍य श्री सम्‍मान – अरविन्‍द प्रकाशन केन्‍द्र सतना, वर्ष 2000 साहित्‍य सौरभ सम्‍मान- शिव संकल्‍प साहित्‍य परिषद नर्मदापुरम, वर्ष 2001 स्‍व. मुकीम अहमद पटेल ‘रासिख’ सम्‍मान इतिहास एवं पुरातत्‍व शोध संस्‍थान बालाघाट, वर्ष 2000 प्रयास प्रकाशन बिलासपुर, अभिनन्‍दन – वर्ष 2001 पं. राजाराम त्रिपाठी स्‍मृति सम्‍मान – साहित्यिक सांस्‍कृतिक कला संगम अकादमी, प्रतापगढ (उ.प्र.) वर्ष 2001 पद्म श्री डॉ. लक्ष्‍मीनारायण दुबे स्‍मृति सम्‍मान – जैमिनी अकादमी पानीपत, वर्ष 2001 काव्‍य सुमन सम्‍मान- पुष्‍पगंधा प्रकाशन कवर्धा, वर्ष 2006 दीपाक्षर सम्‍मान – दीपाक्षर साहित्‍य समिति भिलाई, वर्ष 2006 .ऋतंभरा अलंकरण-ऋतंभरा साहित्‍य मंच कुम्‍हारी (दुर्ग) वर्ष 2005 छत्‍तीसगढ लोककला उन्‍नयन मंच – भाटापारा द्वारा अभिनंदन वर्ष 2000
प्रसारण: आकाशवाणी रायपुर से प्रसारण (कविताओं का)
प्रकाशित कृति: एक गीत तुम्‍हारे नाम (काव्‍य संग्रह) वर्ष 2000 ई.
(विदेश मंत्रालय द्वारा आठवें विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन के लिए अनुशंसित)
सौ समुंदर पार से (गीत संग्रह) वर्ष 2003 ई. प्रकाशनाधीन: जीवन का इतिहास यही है (काव्‍य संग्रह) (प्रेस में)
यादों का सफर (कहानी संग्रह)
अप्रकाशित: नेता प्रशिक्षण केन्‍द्र (व्‍यंग)
संपर्क: झँवर निवास,
मेन रोड, सिमगा जिला रायपुर (छ.ग.) 493101
स्‍वर संपर्क: चल 94255-18635, 93292-49110
अचल: 07726-274245

.. श्री सूक्त ( ऋग्वेद) ..


.. श्री सूक्त ( ऋग्वेद) ..
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ।१।




तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ।२।
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ।३।
कांसोस्मि तां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।४।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ।५।
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तुमायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।६।
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेस्मिन्कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ।७।
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुदमे गृहात् ।८।
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।९।
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ।१०।
कर्दमेन प्रजाभूतामयि सम्भवकर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ।११।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीतवसमे गृहे ।
निचदेवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।१२।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ।१३।
आर्द्रां यःकरिणीं यष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् .
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह .. १४..
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् .
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावोदास्योश्वान्विन्देयं पुरुषानहम् .. १५..
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् .
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् .. १६..
पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे .
तन्मेभजसि पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् .. १७..
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने .
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे .. १८..
पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि .
विश्वप्रिये विश्वमनोनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि संनिधत्स्व .. १९..
पुत्रपौत्रं धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम् .
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे .. २०..




धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः .
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु ते .. २१..
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा .
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः .. २३..
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः . .
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत् .. २४..
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे .
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् .. २५..
विष्णुपत्नीं क्षमादेवीं माधवीं माधवप्रियाम् .
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् .. २६..
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि .तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् .. २७..
श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते .
धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः .. २८..
ऋणरोगादि दारिद्य पापंक्षुदपमृत्यवः .
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ..
श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु .
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सविता विदध्यून् ..
श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति .
सन्ततमृचावषट् कृत्यंसंधत्तं सधीयते प्रजया पशुभिः ..
ॐ महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि .
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ....





ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ..


आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ।



लेबल

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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को ...