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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए : कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास ?

देश के अन्य राज्यो की तरह छत्तीसगढ मे भी नाना प्रकार के विश्वास, आस्थाए और परम्पराए अस्तित्व मे है। राज्य मे सोलह हजार से अधिक गाँव है। पीढीयो से समाज इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ को मानता आ रहा है। पर शहरो मे बैठे हमारे जैसे लोग बिना किसी देर इन्हे अन्ध-विश्वास घोषित करने मे नही चूकते है। हम यह भी चाहते है कि इस पर अंकुश लगे। पर क्या यह सही है? इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ का विकास एक दिन मे तो हुआ नही है। ये पीढीयो से चले आ रहे है और इसमे लोगो का गूढ अनुभव शामिल है। क्या हमारे पूर्वज निरे गँवार थे और क्या हम सब कुछ जान चुके है? जरा सोचिये यदि यही सोच हमने आगामी पीढी को दी तो वे हमे भी ऐसा ही मानेंगे। मुझे लगता है कि इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ के विज्ञान को समझने और समझाने की जरूरत है। क्या हमारे पूर्वज निरे गँवार थे और क्या हम सब कुछ जान चुके है? जरा सोचिये यदि यही सोच हमने आगामी पीढी को दी तो वे हमे भी ऐसा ही मानेंगे। मुझे लगता है कि इन विश्वासो, आस्थाओ और परम्पराओ के विज्ञान को समझने और समझाने की जरूरत है। हो सकता है कि समय के साथ ये अपना मूल रूप खो बैठे हो और इनका विज्ञ

डॉ. पंकज अवधिया जी का अतिथि पोस्‍ट आरंभ पर

आप सभी जानते ही है कि छत्‍तीसगढ सहित संपूर्ण भारत में कई तरह की मान्यताए और परम्पराए प्रचलित है। जैसे दौना का प्रयोग, अमली मे भूत, हरेली मे नीम का प्रयोग, पीलीया झाडना आदि-आदि। ये सब हमारे समाज मे रचे बसे है। इन्हे अन्ध विश्वास कहना सबसे आसान है पर छत्तीसगढिया सब ले बढिया है तो फिर उनके समाज मे फैली बातो का कुछ वैज्ञानिक आधार भी तो हो सकता है। ख्‍यात वनस्‍पति व कृषि विज्ञानी डॉ. पंकज अवधिया नें इस आधार को सामने लाने का बीडा उठाया है। पंकज भाई प्रत्‍येक सोमवार को आरंभ पर अतिथि पोस्ट लिखेंगें । जिसमे हर बार एक मान्यता का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जायेगा । हम आभारी हैं पंकज जी के जो नियमित रूप से नेट पर अंग्रेजी में विभिन्‍न शोध क्रियाकलापों में एवं हिन्‍दी में मेरी कविता , किसानों के लिए , हमारा पारंपरिक चिकित्‍सा ज्ञान , मेरी प्रतिक्रिया एवं मधुमेह पर वैज्ञानिक रपट जैसे सफल ब्‍लाग लेखन के साथ ही श्री ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय जी के ब्‍लाग पर अतिथि पोस्‍ट भी लिख रहे हैं, पंकज जी देश के विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख लिखने का निरंतर कार्य कर रहे हैं । देश विदेश से आये कृषकों एवं वैज्ञानिक

फिल्‍म “उन्‍नीस साल का लडका” का आज प्रसारण

इस वर्ष दूरदर्शन द्वारा देश के विभिन्‍न केन्‍द्रों से छ: कथाकारों की कहानियों को राष्‍ट्रीय प्रसारण के लिए चुना गया जिसमें रायपुर केन्‍द्र से शशांक द्वारा लिखित उम्र के अंतराल को लांघकर प्रेम की उपलब्धि तक पहुंचने की कहानी ‘उन्‍नीस साल का लडका’ का प्रसारण आज 29 दिसम्‍बर, संध्‍या 06.00 बजे दूरदर्शन में किया जायेगा । इस फिल्‍म के पटकथा व संवाद लेखक कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा हैं । छत्‍तीसगढ के परिवेश में रंगी यह कहानी स्‍थानीय सीमाओं को तोडती है । इस फिल्‍म का फिल्‍मांकन छत्‍तीसगढ के गरियाबंद व फिंगेश्‍वर क्षेत्र में किया गया है । फिल्‍म के कार्यकारी निर्माता बैकुण्‍ठ पाणिग्रही, निर्देशक डॉ.अजय सहाय हैं । प्रदीप पाठक द्वारा प्रस्‍तुत इस फिल्‍म के कलाकारों में प्रसिद्व कलाकार शिल्‍की गुहा भी हैं अन्‍य कलाकरों में मधु साहू, कुमार हर्ष, पूनम नकवी, महेश वर्मा व विनोद हैं कैमरा मैन यूसूफ खान हैं ।

रावघाट के योद्धा : अधिवक्‍ता विनोद चावडा

क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्राय: ``रावघाट के योद्धा`` के संबोधन से युक्‍त एक शख्‍श का नाम पिछले कई माह से हम पढ रहे हैं । हम दुर्ग-भिलाई में रहते हैं इस कारण लोहा एवं उससे जुडे मुद्दों पर यदा कदा चिंतन स्‍वमेव हो जाता है और लौह अयस्‍क के अकूत भंडार होने के कारण हमारी स्‍वाभाविक रूचि रावघाट एवं रावघाट से जुडे मुद्दों पर भी रही है । रावघाट के इस योद्धा नें लौह अयस्‍कों को निजी हाथों में सौंपे जाने के विरूद्ध जो लडाई लडी है वह छत्‍तीसगढ सहित संपूर्ण भारत के उपलब्‍ध खजाने को लूटने से बचाने की लडाई है । रावघाट के इस योद्धा का नाम है विनोद चावडा । सहज सरल किन्‍तु देश के खनिज संपदा के संबंध में संम्‍पूर्ण जानकारी अपनी सहज शैली में बसाए हुए खनिज मामलों के वकील । इनके संबंध में व्यापक जनहित पर आधारित विशिष्‍ट कार्यशैली पर बीबीसी के पूर्व संवाददाता श्री शुभ्राशु चौधरी अपने एक लेख पर कहते हैं – “विनोद चावड़ा थोडे फक्कड़ किस्म के माइनिंग विषयों के वकील है। जब दुर्ग के एक मोहल्ले में मैं उनके गैराज नुमा दतर में पहुंचा वे दो जेबों वाली सफेद बण्डी पहने हुए थें। सबसे पहले उन्होंने मुझे उनकी काली कु

महाकोशल में हैहयवंश की उपस्थिति एवं सोमवंश का अंत

छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में 2 त्रिपुरी के हैहयवंशी राजा के अट्ठारह पुत्र थे सभी वीर व शौर्यवान थे । इनके वंशज संपूर्ण भारत को अपनी वीरता से जीत लेने के लिए विभिन्‍न क्षेत्रों में अपने-अपने सामर्थ्‍य के अनुसार प्रयास करते रहे इन्‍हीं मे से शंकरण द्वितीय मुग्‍धतुंग, महाराज शिवगुप्‍त के पुत्र कोकल्‍ल प्रथम एवं रामायणकालीन राजा कीर्तिवीर्य सहत्रार्जुन का वंशज था । मुग्‍धतुंग नें कोसल के रत्‍नपुर में बारंबार आक्रमण कर उस पर विजय प्राप्‍त कर लिया किन्‍तु सोमवंशी राजा जन्‍मेजय नें पुन: रत्‍नपुर को मुग्‍धतुंग से छीन लिया एवं सैन्‍य बल रत्‍नपुर में बढा दिया । यहीं से सोमवंशियों एवं कलचुरियों के बीच शत्रुता और संघर्ष बढता गया । सोमवंशी अपना राज्‍य बचाने के लिए एवं कलचुरी अपनी प्रतिष्‍ठा बढाने के लिए लडते रहे । इन्‍हीं दिनों मुग्‍धतुंग के पराजय और अपमान का बदला लेने का बीडा हैहयवंशी कुमार कलिंगराज नें उठाया । वह त्रिपुरी से अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर सोमवंशी सीमा रेखा को लांघते हुए कोसल के अंदर तक घुस आया और तुम्‍मान को अपना गढ बना लिया यहां कलिंगराज नें शक्ति संचय किया एवं भारी संख्‍या में नये स

छेर छेरा पुन्‍नी : छत्‍तीसगढी त्‍यौहार

छत्‍तीसगढ इतिहास के आईने में - 1 कोसल नरेश हैहयवंशी प्रजापाल‍क कल्‍याण साय मुगल सम्राट जहांगीर के सानिध्‍य में आठ वर्ष तक अपने राजनीतिज्ञान एवं युद्धकला को परिष्‍कृत करने के बाद सरयू क्षेत्र से ब्राह्मणों की टोली को साथ लेकर अपनी राजधानी रत्‍नपुर पहुंचे । कोसल की प्रजा आठ वर्ष उपरांत अपने राजा के आगमन से हर्षोल्‍लास में डूब गई । प्रजा राजा के आगमन की सूचना पाकर निजी संसाधनों से एवं पैदल ही रत्‍नपुर की ओर दौड पडी । सभी 36 गढ के नरेश भी राजा के स्‍वागत में रत्‍नपुर पहुच गए । सभी आंनंदातिरेक में झूम रहे थे, पारंपरिक नृत्‍य और वाद्यों के मधुर स्‍वर लहरियों के साथ नाचता जन समुह कल्‍याण साय का जय जयकार कर रहा था । महल के द्वार को प्रजा राजा के दर्शन की आश लिये ताकती रही मन में नजराने की आश भी थी । आठ वर्ष तक राजकाज सम्‍हालने वाली रानी को पति के प्रेम के समक्ष अपनी प्रजा के प्रति दायित्‍व का ख्‍याल किंचित देर से आया, रानी फुलकैना दौड पडी प्रजा की ओर और दोनो हांथ से सोने चांदी के सिक्‍के प्रजा पर लुटाने लगी । कोसल की उर्वरा धरती नें प्रत्‍येक वर्ष की भंति इस वर्ष भी धान की भरपूर पैदा

राम बाबू तुमन सुरता करथौ रे मोला : डॉ. पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी

छत्‍तीसगढ के छोटे से कस्‍बे खैरागढ के रामबगस होटल और ददुआ पान ठेले में बैठे खडे बीडी का कश लेते तो कभी मुस्‍का नदी के तट पर शांत बैठे हुए एक सामान्‍य से दिखने वाले व्‍यक्ति की प्रतिभा का अनुमान लगाना मुश्किल था । उसके मानस में पल्वित विचारों का डंका तब भारत के हिन्‍दी साहित्‍य प्रेमी जन मन में व्‍यापक स्‍थान पा चुका था । यह व्‍यक्ति भारत के सर्वमान्‍य व प्रतिष्ठित साहित्‍यक पत्रिका ‘सरस्‍वती’ के संपादक पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी थे । तब ‘सरस्‍वती’ हिन्‍दी की एक मात्र ऐसी पत्रिका थी जो हिन्‍दी साहित्‍य की आमुख पत्रिका थी । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रारंभ इस पत्रिका के संबंध में सभी विज्ञ पाठक जानते हैं । सन् 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की संपादन क्षमता को नया आयाम देते हुए इन्‍हें ‘सरस्‍वती’ का सहा. संपादक नियुक्‍त किया । फिर 1921 में वे ‘सरस्‍वती’ के प्रधान संपादक बने यही वो समय था जब विषम परिस्थितियों में भी उन्‍होंनें हिन्‍दी के स्‍तरीय साहित्‍य को संकलित कर ‘सरस्‍वती’ का प्रकाशन प्रारंभ रखा । छत्‍तीसगढ के जिला राजनांदगांव के एक छोटे से

होता प्रेम अंधा : कविता

मॉं : एक कविता (श्रद्धांजली)

शब्द नहीं ध्वनि हो तुम : अशोक सिंघई

आदरणीय अशोक सिंघई के सुन रही हो ना कविता संग्रह की पहली कविता - शब्द नहीं ध्वनि हो तुम मेरी कविता की एक अनुगूँज झंकृत करती उस कारा को बंदी है जिसमें आत्मा मेरी 0 रक्ताक्त हैं अँगुलियाँ खटखटाते द्वार अहर्निश नहीं होते दर्शन मैं चिर प्रतीक्षित व्याकुलता हो गई तिरोहित न कोई तृष्णा / न मरीचिका न दौड़ता है मन अंतरिक्ष के आर-पार लगाती रहो टेर पर टेर खुलेंगे एक दिन इस पिंजर के द्वार भला जी कर के भी कौन सका है जी 0 अन्तराल में निहारता रहता हूँ छवि मन है अतिशय उदार दिखला देता है ध्वनि विरल को एक नहीं / कई क्षण / कई बार मत छुओ मन को हो जाओ मन के पार नहीं शेष कोई आग्रह नहीं उठती हिलकोरे ले चाह कभी नहीं ढूँढी मैंने कभी नहीं देखी तेरी राह भला कौन कर सका आँखें न हों गीली 0 मुटि्ठयों में कैसे हो बंद शून्य का आलिंगन अस्पर्श / अब नहीं बढ़ाता संताप मौन / केवल मौन अखण्ड चराचर में निष्कम्प ज्योति सा यह सम्बन्ध नहीं किसी ने अब तक परिभाषा दी 0 शब्द नहीं ध्वनि हो तुम मेरी कविता की 0 अशोक सिंघई

रवि रतलामी का छत्‍तीसगढी आपरेटिंग सिस्‍टम : संभावनायें

रवि रतलामी जी के महत्‍वपूर्ण प्रयोग छत्‍तीसगढी आपरेटिंग सिस्‍टम के संबंध में भास्‍कर में प्रकाशित इस समाचार एवं इसके बाद संजीत त्रिपाठी जी के ब्‍लाग आवारा बंजारा में इसके प्रकाशन के बाद से छत्‍तीसगढ के भाषा पर लगाव रखने वाले, गांव व कस्‍बाई विद्यार्थियों एवं कम्‍प्‍यूटर प्रयोक्‍ताओं में एक खुशी की लहर दौड गई है । कुछ समय पूर्व यह समाचार के रूप में हरिभूमि में भी प्रकाशित हुआ था जिसके बाद से जयप्रकाश मानस जी नें इसे अपने ब्‍लाग पर विस्‍तृत आलेख के रूप में छत्‍तीसगढी में बोलेगा कम्‍प्‍यूटर के नाम से प्रकाशित किया था । यद्यपि उस समय छत्‍तीसगढी को राज्य‍भाषा का दर्जा नहीं मिला था किन्‍तु अभी परिस्थितिया अनुकूल हैं । उस लेख में मानस जी नें राजनैतिक इच्‍छाशक्ति के संबंध में लिख था जो इस कार्य के लिए सौ फीसदी सही बैठता है । रवि जी का यह भगीरथ प्रयास, संस्‍कृति मंत्री एवं मुख्‍य मंत्री की इच्‍छाशक्ति के द्वारा ही पूर्ण होगा । क्‍योंकि वित्‍तीय सहायता यदि शासन के द्वारा कर भी दिया जाता है तो इसे जन जन तक ले जाने एवं उसे लोकप्रिय बनाने में भी शासन का अहम योगदान रहेगा । छत्‍तीसगढ नें कम्‍प्‍यूट

घर पर ब्‍लाग मित्र का फोन और गांव की कुंठा

उस रात लगभग 11 बजे मेरे एक मित्र का फोन मेरे मोबाईल सेट पर घनघना उठा । मैं अपने मोबाईल को बैठक के टेबल में रखकर दूसरे कमरे में हिन्‍दी ब्‍लागों को पढने में मगन था । मोबाईल का वाईब्रेशन पुन: सक्रिय हो गया, इस समय मेरे पुत्र का ध्‍यान उस ओर गया, स्‍वाभविक रूप से उसने मोबाईल उठा कर देखा और फोन कर रहे मित्र का नाम बताते हुए वहीं से आवाज दिया ' फलां का फोन है ' मोबाईल वाईब्रेट होता रहा । मन तो कह रहा था लपक लूं मोबाईल और बात करूं, आखिर मित्र का फोन था । पर किसी पूर्वनिर्धारित साफ्टवेयर आदेश की तरह मेरे शरीर के हार्डवेयर नें उसे पालन करते हुए मोबाईल नहीं उठाया और वाईब्रेटर हार थक के बंद हो गया । सुबह मैं अपने कार्यालय पहुंचकर उस मित्र को फोन किया, उसे किसी लेख के संबंध में कुछ आवश्‍यक सहयोग चाहिए था । उसके अनमनेपन को मैं भांप गया, मैंनें झेंपते हुए अपना पक्ष रखा, उसने भावुक होकर कुछ सुझाव दिये । चिंतन की शुरूआत इसके बाद ही हुई । मैं 80 व 90 के दसकों में हिन्‍दी लेखन से कुछ कुछ जुडा हुआ था । 1995 तक स्‍थानीय पत्र-पत्रिकाओं में यदा कदा मेरी रचनायें प्रकाशित होती रही है । 1995 में मेरे

डॉ.परदेशीराम वर्मा की पत्रिका 'अगासदिया-27' का संपूर्ण नेट संस्‍करण

अगासदिया-२७ संत कवि पवन दीवान पर एकाग्र - विशेष सामग्री - छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्री राम की माता कौशल्या के मंदिर से गौरवान्वित सौ तालाबों का गांव चंदखुरी और सांसद श्री रमेश बैस धरसींवा विधानसभा क्षेत्र का यशस्वी गांव पथरी और जागृत विधायक श्री देवजी भाई पटेल सहयोग राशि : सौ रुपये मात्र मुद्रक : यूनिक, पंचमुखी हनुमान मंदिर के पीछे, मठपारा, दुर्ग (छ.ग.) ०७८८-२३२८६०५ मुख-पृष्ठ सज्जा सौजन्य - नेलशन कला गृह, सेक्टर-१, भिलाई नेट ब्‍लाग वेब प्रकाशन : संजीव तिवारी अनुक्रमणिका :- १. संपादकीय २. संत पवन दीवान और जीवन संदेश ३. श्री रमेश बैस ४. श्री देवजी भाई पटेल ५. संत कवि पवन दीवान की पांच छत्तीसगढ़ी कविताएं अ. राख ब. जिवलेवा जाड़ स. सांझ द. महानदी ड. तोर धरती ५. दीवान जी के प्रवचन की क्षेपक कथाएं अ. जनप्रिय संत पवन दीवान और प्रवचन की क्षेपक कथाएं (माता पार्वती ने जलाई लंका) ब. संत पवन दीवान के प्रवचन की रोचक कथाएं ६. संत कवि पवन दीवान का गद्य - अ. भाषा की जीत सुनिश्चित है छत्तीसगढ़ी से बना छत्तीसगढ़ राज्य - पवन दीवान ब. मोरारजी, चरन, मधु, जार्ज साक्षात्कार : सुधीर सक्सेना स. मेरे प्रिय ले

शिवरीनारायण देवालय एवं परम्‍पराएं : प्रो. अश्विनी केशरवानी की संपूर्ण ग्रंथ

लेखक : प्रो. अश्विनी केशरवानी ashwinikesharwani@gmail.com प्रथम संस्‍करण : फरवरी 2007 मूल्‍य : 120 रूपये प्रिंट प्रकाशक : बिलासा प्रकाशन, बिलासपुर वेब ब्‍लाग प्रकाशन : संजीव तिवारी अनुक्रमणिका भूमिका शिवरीनारायण : एक नजर अ. देवालय १. गुप्तधाम २ शबरीनारायण और सहयोगी देवालय ३ अन्नपूर्णा मंदिर ४ महेश्‍वरनाथ ५ शबरी मंदिर ६ जनकपुर के हनुमान ७ खरौद के लखनेश्‍वर ब. परम्पराएं १. मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा २. महानदी में अस्थि विसर्जन ३. महानदी के घाट ४. महानदी के हीरे ५. शिवरीनारायण की कहानी और उसी की जुबानी ६. मठ और महंत परंपरा ७. गादी चौरा पूजा ८. रोहिणी कुंड ९. मेला १०. रथयात्रा ११. नाट्य परंपरा १२. तांत्रिक परंपरा १३. साहित्यिक तीर्थ १४. शिवरीनारायण के भोगहा १५. गुरू घासी बाबा १६. रमरमिहा १७. माखन वंशनुक्रम

बस्‍तर की देवी दंतेश्‍वरी

छत्‍तीसगढ के शक्तिपीठ – 1 बस्‍तर के राजा अन्‍नमदेव वारांगल, आंध्रप्रदेश से अपनी विजय पताका फहराते हुए बस्‍तर की ओर बढ रहे थे साथ में में मॉं दंतेश्‍वरी का आशिर्वाद था । गढों पर कब्‍जा करते हुए बढते अन्‍नमदेव को माता दंतेश्‍वरी नें वरदान दिया था जब तक तुम पीछे मुड कर नहीं देखोगे, मैं तुम्‍हारे साथ रहूंगी । राजा अन्‍नमदेव बढते रहे, माता के पैरों की नूपूर की ध्‍वनि पीछे से आती रही, राजा का उत्‍साह बढता रहा । शंखिनी-डंकिनी नदी के तट पर विजय पथ पर बढते राजा अन्‍नमदेव के कानों में नूपूर की ध्‍वनि आनी बंद हो गई । वारांगल से पूरे बस्‍तर में अपना राज्‍य स्‍थापित करने के समय तक महाप्रतापी राजा के कानों में गूंजती नूपूर ध्‍वनि के सहसा बंद हो जाने से राजा को वरदान की बात याद नही रही, राजा अन्‍नमदेव कौतूहलवश पीछे मुड कर देखने लगे । माता का पांव शंखिनी-डंकिनी के रेतों में किंचित फंस गया था । अन्‍नमदेव को माता नें साक्षात दर्शन दिये पर वह स्‍वप्‍न सा ही था । माता नों कहा 'अन्‍नमदेव तुमने पीछे मुड कर देखा है, अब मैं जाती हूं ।' राजा अन्‍नमदेव के अनुनय विनय पर माता नें वहीं पर अपना अंश स्‍था

अदालत में काले कोटों की बढती संख्‍या एवं घटती आमदनी

दो दिन पूर्व मैं जब अपने कार्यालय भिलाई जा रहा था तो रास्‍ते में देखा, जिला न्‍यायालय के एक परिचित वकील पैदल चलते हुए भिलाई से दुर्ग की ओर आ रहे थे, काला कोट उतार कर उन्‍होंनें अपने कंधे पर लटका रखा था । पैरों में जो जूते थे उसमें कई कई बार सिलाई किया गया था फिर भी वकील साहब की पैरों की एकाध उंगलियां जूते से बाहर झांकने को बेताब थी । मैं पिछले कई दिनों से उन्‍हें ऐसे ही रास्‍ते में देखता हूं, कभी अपनी खटखटिया लूना से तो कभी अपने शरीर को लहराते हुए पैदल चलते । रास्‍ते में और कई वकील भाई मिलते हैं जो अपनी सजीली चार चक्‍के और दो पहियों में न्‍यायालय की ओर जाते नजर आते हैं, पर जब भी मैं इस वकील को देखता हूँ मन में अजीब सी हूक जगती है । न्‍यायालय में इनसे मिल कर कई बार बात करने की कोशिस किया हूं पर व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा की वजह से अपनी खस्‍ताहाली के संबंध में ये कभी चर्चा नहीं किये हैं किन्‍तु परिस्थितियां चीख चीख कर कहती है कि वकील साहब काले कोट के सहारे अपना अस्तित्‍व बचाये रखने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं । भारतीय न्‍यायालयों में ऐसे कई वकील हैं जो इस जद्दोजहद में प्रतिदिन सुबह 11 से

जब नर तितलियां ले जाए प्रणय उपहार : डॉ. पंकज अवधिया जी की कलम से

पंकज अवधिया जी (दर्द हिन्‍दुस्‍तानी) के लेख विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं जिससे पाठक एवं ब्‍लागजगत वाकिफ ही है अभी सांध्‍य दैनिक छत्‍तीसगढ में 22 नवम्‍बर को उपरोक्‍त लेख जब प्रकाशित हुआ था तो हम अपने आप को रोक नहीं पाये और इसे यहां आप लोगों के लिए प्रस्‍तुत कर दिया ।

आज चाँद बहुत उदास है

छटते ही नहीं बादल किरणों को देते नहीं रास्ता उमड़ घुमड़ कर गरज बरस कर सोख लेते ध्वनि सारी बजती ही नहीं पायल स्मृति का देती नहीं वास्ता सिसक झिझक कर कसक तड़फ कर रोक लेती चीख सारी दिल ही नहीं कायल खुशबू ऐसी फैली वातायन में निरख परख कर बहक महक कर टोक देती रीत सारी दिखता ही नहीं काजल चाँदनी ऐसी बिखरी उपवन में घूम घूम कर चूम चूम कर रो लेती नींद सारी तुम नहीं हो पास आज चाँद बहुत उदास है - अशोक सिंघई -

अशोक सिंघई : काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी

अशोक सिंघई : डॉ. परदेशीराम वर्मा जनवरी 2007 से राजभाषा प्रमुख, भिलाई स्‍पात संयंत्रसाहित्‍यकार एवं कवि अशोक सिंघई के संबंध में वरिष्‍ठ कहानीकार डॉ. परदेशीराम वर्मा नें अपने पुस्‍तक ‘काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी’ में रोचक प्रसंगों का उल्‍लेख किया है आप भी पढे अशोक सिंघई जी का परिचय :- काहे रे नलिनी तू कुम्‍हलानी छत्‍तीसगढ के ख्‍यातिलब्‍ध व्‍यक्तियों के संबंध में डॉ. परदेशीराम वर्मा जी द्वारा लिखित 'अपने लोग' श्रृंखला की किताब एक वरिष्‍ठ प्रबंधक, जन संपर्क के कार्यालय में विज्ञापन आदि के लिए पत्रकारगण मिलते ही हैं । कुछ बडे लोग फोन पर भी अपनी बात कहते हैं । एक दिन संयोगवश मेरी उपस्थिति में ही किसी बडे पत्रकार का फोन आया । बातचीत कुछ इस तरह होने लगी । पत्रकार : मैं अमुक पत्र से बोल रहा हूँ । सिंघई जी : कहिए । पत्रकार : मिला नहीं । सिंघई जी : देखिए, अब जो स्थिति है उसमें हमें निर्देशों के अनुरूप सीमा के भीतर ही रहकर अपने कर्तव्‍यों का निर्वाह करना है । इस्‍पात उद्योग की हालत तो आप भी बेहतर जानते हैं । पत्रकार : यह तो सामान्‍य जवाब है । सिंघई जी कुछ उखडते हुए : देखिए, अशोक सिंघई स्‍

नथमल झंवर जी की दो कवितायें

जीवन का इतिहास यही है जीवन की अनबूझ राहों में चलते-चलते यह बनजारा गाता जाये गीत विरह के जीवन का इतिहास यही है यौवन की ऑंखों से देखे वे सारे स्‍वप्निल सपने थे जिन-जिन से नाता जोडा था वे भी तो सारे अपने थे सबके सब हरजाई निकले जीवन का परिहास यही है पीडाओं की अमर कहानी कोई विरही-मन लिख जाये और व्‍यथा के सागर डूबा कोई व्‍याकुल-तन दिख जाये पीता है नित विष का प्‍याला जीवन का संत्रास यही है संघर्षो में बीता जीवन कभी रात भर सो न पाया जिसे कोख में पाला हमने लगता है अब वही पराया तोडो रिश्‍तों की जंजीरें जीवन का सन्‍यास यही है देखो सागर की ये लहरें सदा कूल से मिलने जाती दीप-शिखा को देखो प्रतिदिन अंधकार से मिलकर आती तुम प्रियतम से मिल सकते हो जीवन का विश्‍वास यही है अपने मंदिर की देहरी पर आशाओं के दीप जलाओ जीवन से जो हार चुके हैं उन्‍हें विजय का घूंट पिलाओ परमारथ तन अर्पित कर दो जीवन का आकाश यही है प्रथम रश्मि देखो सूरज की जीवन में उल्‍लास जगाती और चंद्र की चंचल किरणें सबके तन-मन को हरषाती पल-पल में अमृत रस भर दो जीवन का मधुमास यही है सूरज सा ढलना है मंजिल है दूर बहुत, और अभी चलना है जग को उजियारा

.. श्री सूक्त ( ऋग्वेद) ..

.. श्री सूक्त ( ऋग्वेद) .. हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ।१। तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ।२। अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् । श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ।३। कांसोस्मि तां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।४। चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् । तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ।५। आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । तस्य फलानि तपसानुदन्तुमायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।६। उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेस्मिन्कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ।७। क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुदमे गृहात् ।८। गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।९। मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि । पशूनां