विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों
पंकज अवधिया जी (दर्द हिन्दुस्तानी) के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं जिससे पाठक एवं ब्लागजगत वाकिफ ही है अभी सांध्य दैनिक छत्तीसगढ में 22 नवम्बर को उपरोक्त लेख जब प्रकाशित हुआ था तो हम अपने आप को रोक नहीं पाये और इसे यहां आप लोगों के लिए प्रस्तुत कर दिया ।
Mud Puddling - वाह, बड़ी रोचक जानकारी दी संजीव!
जवाब देंहटाएंवाकई एक रोचक जानकारी!!
जवाब देंहटाएंपंकज अवधिया जी के उपयोगी जानकारी से भरे लेख व समाचार स्थानीय अखबारों में खासतौर से नवभारत मे आए दिन छपते रहते हैं, आशा है आमजन इन लेखो-समाचारों से फ़ायदा उठाते होंगे!!
शुक्रिया पंकज जी को व आरंभ को भी!!
नवीन व रोचक जानकारी।
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