सतारा महाराष्ट्र के पास मसूर गांव में जन्मे किरोलीकर के पिताजी राजकुमार कॉलेज रायपुर में शिक्षक थे। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रायपुर और कॉलेज की शिक्षा नागपुर फिर इलाहाबाद से प्राप्त की। कानून की डिग्री प्राप्त कर इन्होंने दुर्ग न्यायालय में सन 1920 से एक अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस करना आरंभ किया था। दुर्ग में निवास करते हुए वे स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता के बाद सन 1951-52 के पहले आम चुनाव में वे दुर्ग लोकसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े और कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार गंगाप्रसाद चौबे को नब्बे हजार से भी अधिक मतों के अंतर से हराया और दुर्ग के पहले सांसद के रूप में अपना नाम दर्ज किया। हम आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि दुर्ग लोकसभा में उस समय तीन सांसद के पद थे जिसमें दुर्ग से किरोलीकर एवं संयुक्त क्षेत्र दुर्ग बिलासपुर से गुरु अगम दास एवं दुर्ग बस्तर संयुक्त क्षेत्र से पंडित भगवती चरण शुक्ला विजित हुए थे। दिलचस्प बात यह है कि इस चुनाव में सांसद बनने के लिए किरोलीकर ने मात्र 3000 रुपये खर्च किए थे। 1952 में भी बूथ में गड़बड़ी की शिकायत आई थी और साजा क्षेत्र के कुछ बूथों पर दुबारा मतदान हुआ था।
दूसरे सांसद मोहनलाल बाकलीवाल
मोहनलाल बाकलीवाल दुर्ग की राजनीति में पहले से ही सक्रिय थे। वे दुर्ग नगर विधानसभा सीट के मध्यवधि चुनाव में जीत कर विधायक थे। दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें दुर्ग से टिकट दिया और वे जीते। बाकलीवाल जी तीसरे लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की टिकिट से खड़े हुए और जीते। 1962 के इस चुनाव में दुर्ग के कद्दावर नेता और वकील विश्वनाथ यादव तामस्कर प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से खड़े थे वहीं राम राज्य परिषद की टिकिट पर नंदलाल शर्मा लड़ रहे थे।
विश्वनाथ यादव तामस्कर का कांग्रेस प्रवेश और बने तीसरे सांसद
हमने पहले बताया है कि स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस के झंडे के तले काम करने वाले तामस्कर ने 1962 में प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से दुर्ग लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गए थे। इसके बाद के घटनाक्रम में मध्यप्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। सन 1963 में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन औंरी भुवनेश्वर में हुआ था। कांग्रेस ने इस अधिवेशन में समाज वादियों को मुख्य धारा में लाने और कांग्रेस के समाजवादी सिद्धांत पर संकल्प पारित किया था। 1962 के चुनाव के बाद की स्थिति में समाजवादी पार्टी का अस्तित्व लगभग लगभग समाप्त की कगार पर था और समाजवादी नेता कांग्रेस ज्वाइन कर रहे थे। इधर मध्यप्रदेश के तत्कालीन तेजतर्रार मुख्यमंत्री पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र, तामस्कर जी के बहुत अच्छे मित्र थे। लोग बताते हैं कि एक बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पं. डीपी मिश्र किसी उद्घाटन कार्यक्रम के सिलसिले में दुर्ग आये। कार्यक्रम निपटाने के बाद रात वे सर्किट हाउस में ठहरे। शाम को मुख्यमंत्री ने दुर्ग कलेक्टर के माध्यम से तामस्कर जी को संदेश भेजकर उन्हें सर्किट हाउस बुलाया।
तामस्कर जी तक यह संदेश दुर्ग के तत्कालीन कलेक्टर ने स्वयं आकर दिया। कलेक्टर, उन्हें साथ लेकर जाना चाहते थे पर तामस्कर जी ने जाने से इंकार कर दिया। उन्होंने कलेक्टर से कहा कि आप अपने मुख्यमंत्री से कहिए यदि वे मुझसे मिलना चाहते हैं तो मेरे घर में आएं। कलेक्टर ठगा सा वापस पं.डीपी मिश्र जी के पास सर्किट हाउस आया और वह सब बता दिया।
सुबह मुख्यमंत्री तामस्कर जी के बंगले के द्वार पर पहुंच गए। तामस्कर जी दरवाजे पर उनका स्वागत करने के लिए पहुंचे और कहा अंदर चलिए। डीपी मिश्र ने कहा कि मैं आपके घर ऐसे ही नहीं जाऊंगा। ब्राह्मण हूं, याचक हूँ, दक्षिणा लूंगा फिर जाऊंगा। तामस्कर जी ने कहा कि महाराज ब्राम्हण तो मैं भी हूं। एक ब्राम्हण दूसरे ब्राह्मण को दक्षिणा कैसे दे सकता है। डीपी मिश्र ने कहा कि अभी मैं आपका मेहमान हूं आपके द्वार पर खड़ा हूं, इंकार न कीजियेगा।
तामस्कर जी ने कहा मांगिये जो मांगना है। डीपी मिश्र ने कहा कांग्रेस ज्वाइन कर लो। तामस्कर जी ने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया। और इस प्रकार से बड़े तामस्कर छत्तीसगढ़ कांग्रेस के भी बड़े नेता स्वीकार लिए गए। दुर्ग की स्थानीय राजनीति में बाकलीवाल जी सांसद थे और दुर्ग नगर निगम कमेटी के अध्यक्ष थे। कांग्रेस में दो गुट हो गए एक बाकलीवाल गुट और एक तामस्कर गुट। उनके बीच राजनैतिक टकराव लगातार बढ़ती रही और जब 1963 में लोकसभा के लिए कांग्रेस से टिकट देने की बारी आई तब डी पी मिश्र ने दोस्ती का मान रखते हुए तामस्कर को कांग्रेस का टिकट दे दिया।
बाकलीवाल को पटकनी
बाकलीवाल जी टिकट के प्रबल दावेदार थे एवं विगत 10 वर्षों दुर्ग के सांसद थे। उन्होंने तामस्कर के विरुद्ध निर्दलीय फार्म भर दिया। स्थिति विकट हो गई, भितरघात की संभावनाएं बढ़ गई। ऐसी स्थिति में डीपी मिश्र और तामस्कर के मित्रों ने बाकलीवाल के प्रभाव को कम करने के लिए राजनैतिक जुगत लगाई। दुर्ग में जब बाकलीवाल नगर निगम कमेटी के अध्यक्ष थे तब कमेटी के सदस्य धनराज देशलहरा के साथ उनका मतभेद रहा। उस समय धनराज देशलहरा ने तामस्कर जी को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया। लोगों का कहना है कि दुर्ग लोकसभा में भिलाई स्टील प्लांट क्षेत्र के मतदाताओं की संख्या प्रभावी थी और बाकलीवाल की उन पर पकड़ थी। चुनाव परिणाम में उन वोटों का बहुत प्रभाव पड़ने वाला था। ऐसी स्थिति में धनराज देशलहरा ने भिलाई स्टील प्लांट के कामरेड एम देशपांडे को निर्दलीय फार्म भरवा दिया। बाकलीवाल जी को पड़ने वाले वोट बंट गए। इस चुनाव में तामस्कर को 1,08,498 वोट मिले, बाकलीवाल को 74,180 वोट मिले वहीं एम देशपांडे को 43,090 वोट मिले। यदि देशपांडे जी का वोट बाकलीवाल जी को मिल जाता तो वे जीत जाते। देशपांडे जी अभी पद्मनाभपुर में रहते हैं।
हम आपको बता दें कि इस चुनाव के रणनीतिकारों में से प्रमुख धनराज देशलहरा, नगर के प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे दुर्ग जिले में लोक परिवहन के आदि पुरुष माने जाते हैं। इन्होंने रायपुर के आनंद रोडवेज के साथ मिलकर पहले ग्रामीण क्षेत्रों में बसे चलवाई। फिर मोतीलाल वोरा, तुलजाराम फतनानी, मोहन लाल व्यास आदि के साथ जनता ट्रांसपोर्ट दुर्ग की स्थापना की। फिर बाद में दुर्ग रोडवेज के रूप में उसे स्थापित किया। कहते हैं कि दुर्ग में देशलहरा की छवि अत्यंत प्रभावशाली थी। वे नगर सेठ थे और राजनीति एवं प्रशासनिक अधिकारियों से उनके मधुर संबंध थे, दुर्ग में उनकी बात कटती नहीं थी।
- संजीव तिवारी
इस आलेख के आधार पर दुर्ग पत्रिका नें समाचार प्रकाशित किया है।
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एक मित्र की गुमनाम टिप्पणी ..
जवाब देंहटाएंसुख की बात है कि उपरोक्त श्री बाकलीवाल जी के नाम पर नेहरू नगर चौक पर बने सेतु का नामकरण किया गया है ऐसा वर्तमान मुख्यमंत्री के मुख से मैंने सुना था वरना कुछ दिनों से या लंबे समय से परिपाटी चली आ रही थी व नए नए नाम सुनने की।
मुझे विशेष तौर पर दुख: हुआ था, जब छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नामकरण कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर किया गया बाद में मैंने जानने का प्रयास किया तो श्री कुशाभाऊ ठाकरे का दूर-दूर तक पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं ढूंढ पाया, मेरी राय से छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम माधव राव सप्रे के नाम पर किया जा सकता था।
चलिए आपने उपरोक्त नाम दर्शाया जिससे हम सब भिग्य हुये. यदि इनके नाम पर हमारे धरोहरों का नामकरण किया जाता है तो हम छत्तीसगढ़िया के लिए सौभाग्य की बात होगी.