अंग्रजों के जमाने में सीपी एण्ड बरार में सन् 1924 को हुए चुनाव में स्वराज्य पार्टी नें बहुमत प्राप्त किया था। दल के नेता के रूप में पं.रविशंकर शुक्ल का नाम सामने आया था किन्तु उस समय उनको दल का नेता नहीं चुना गया और डॉ.मुंजे को दल का नेता चुन लिया गया था। उस समय भौगोलिक क्षेत्रीयता के आधार पर भाषा संबंधी दबदबे की राजनीति भी साथ थी। पार्टी में कुछ आंतरिक कलह पं.शुक्ल को नेता नहीं चुने जाने के कारण से ही, आरंभ हो गया था। 2 अगस्त 1955 को प्रकाशित शुक्ल अभिनंद ग्रंथ में यह जानकारी दी गई है। हालांकि यह ग्रंथ इस बात को यहां स्पष्ट ना करते हुए अन्य दिशा की ओर मोड़ता है क्योंकि जाहिर तौर पर यह अभिनंदन ग्रंथ है। आगे कांग्रेस के केन्द्रीय पदाधिकारियों के निर्देश से दल नें कार्य आरंभ नहीं किया फलत: गर्वनर नें तदर्थ मंत्रीमंडल बनाया जो अविश्वास प्रस्ताव में गिर गया था। सन् 1936 में जब धारा सभा (लेजिस्लेटिव असेंम्बली) का निर्वाचन हुआ तब भी यह अंतर कलह विद्यमान रहा। 14 जुलाई 1937 को सभा के आयोजन में डॉ. नारायण भास्कर खरे को दल का नेता चुना गया। डॉ. खरे के नेतृत्व में मंत्रीमंडल का गणन किया गया जिसमें पं.रविशंकर शुक्ल, पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र, रामाराव देशमुख, पुरसोत्तम बलवंत गोलवकर, दुर्गाशंकर मेहता, बैरिस्टर मो. यूसूफ शरीफ आदि थे। 30 जुलाई 1937 को लेजिस्लेटिव असेम्बली का पहला अधिवेशन हुआ जिसमें धनश्याम सिंह गुप्ता स्पीकर चुने गए।
नवनिर्वाचित प्रीमियर डॉ. खरे के मंत्रीमंडल में शुरू से ही मतैक्य नहीं था, ग्रंथ के मुताबिक उसके मंत्रीमंडल में दो दल बन गये थे। मुख्यमंत्री (ग्रंथ में यह लिखा गया है कि यह उस समय प्रधानमंत्री कहलाता था जबकि 'द इंडियन एनुअल रजिस्टर 1938' में इसे प्रीमियर संबोधित किया गया है) डॉ. खरे मंत्रीमंडल के सहयोगियों की अपेक्षा बाहरी व्यक्तियो से घिरे रहते थे। मंत्रीमंडल के सदस्यों का आपसी मनमुटाव इतना अधिक बढा़ कि अन्त में कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड को हस्तक्षेप करने के लिये विवश होना पड़ा। 24 मई 1938 के दिन यह आपसी मनमुटाव दूर करने के लिये कांग्रेस धारा सभा दल के सदस्य पचमढी मे आमंत्रित किये गये। इस समस्या को सुलझाने के लिये कांग्रेस पार्लमेण्टरी बोर्ड के प्रधान सरदार पटेल एवं दूसरे प्रमुख नेता मौलाना आजाद तथा जमनालाल बजाज भी पचमढी पहुंच गये थे। कांग्रेस हाई कमान के नेताओं ने दोनों पक्षों की बात सुनकर एक समझौता दोनो पक्षों मे करवा दिया। ग्रंथ में उल्लिखित 'दोनों पक्षों' का उल्लेख एवं सरदार पटेल के चुनिंदा भाषणों की किताब 'लीडर बाई मेरिट' के तथ्यों को पढ़ते हुए यह बात स्पष्ट हो जाता है कि विवाद या कलह सत्ता के लिए था।
बाद में डॉ. खरे ने इस समझौते का पालन नही किया उल्टे बाबू राजेन्द्रप्रसाद के परामर्श को न मानते हुए उन्होंनें महाकोशल के तीन मंत्रियों - पं. शुक्ल, पं. मिश्र तथा श्री मेहता से त्यागपत्र मांगा, स्पष्ट तौर पर विवाद इन्हीं तीनों से था। इन तीनों नें कहा कि हम केन्द्रीय पार्लमेण्टरी बोर्ड की स्वीकृति के बिना त्याग-पत्र नहीं देगें। इस पर डॉ. खरे बहुत नाराज हुए और उसनें अपने दो साथियों के साथ 20 जुलाई 1938 को गवर्नर के पास जाकर प्याग-पत्र दे दिया। गवर्नर ने प्रीमियर का त्यागपत्र तो स्वीकार कर लिया किन्तु महाकोशल के उन तीनों मंत्रियों को डिसमिस कर दिया। गर्वनर नें कांग्रेस दल के नेता के रूप में डॉ. खरे को नए सिरे से पूरे मंत्रीमंडल गठन करने के लिए दूसरे दिन सदन में आमंत्रित कर दिया। डॉ. खरें ने दल के नता की हैसियत से महाकोशल के इन मंत्रियों के जगह पर तीन नये मंत्री नियुक्त कर दिया।
गवर्नर के सहयोग से पार्लमेण्टरी बोर्डे की उपेक्षा कर डॉ. खरे ने जो कार्य किया था उस पर केन्द्रीय कांग्रेस पार्लमेण्टरी बोर्ड ने डॉ. खरे पर अनुशासन-भंग का अभियोग लगा कर उन्हें पद-त्याग करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं इस गंभीर स्थिति पर विचार करने के लिये 21 से 23 जुलाई तक वर्धा में बाबू सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता मे कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक बुलाई गई। मौलाना आजाद, सरदार पटेल और बाबू राजेन्द्रप्रसाद ने घटना का विवरण प्राप्त कर कांग्रेस के दृष्टिकोण से डॉ.खरे को इसके लिए दोषी माना। ग्रंथ कहता है कि इस पर डॉ. खरे ने अपनी भूल स्वीकार की और पदग्रहण के तीन दिन के बाद उन्होने इस्तीफा देना स्वीकार कर लिया। डॉ. खरे ने टेलिफोन द्वारा गवर्नर को नए मंत्रीमंडल का त्यागपत्र दिया, इसे गवर्नर ने स्वीकार कर लिया।
डॉ.खरे के माफी मांग लेने, स्तीफा दे देनें के बाद भी कांग्रेस कार्यकारिणी ने डॉ. खरें को कांग्रेस से हटा दिया और निर्णय पारित कर दिया कि नागपुर के गवर्नर ने कांग्रेस में फूट डालने के लिए डॉ. खरे व उनके साथियों से षड़यंत्र करके कांग्रेस की प्रतिष्ठा को क्षति पहुचाने का प्रयत्न किया है जिसके लिए डॉ.खरे जिम्मेदार हैं और वे काग्रेस संस्था में रहने के पात्र नही हैं।
26 जुलाई को वर्धा में बाबू सुभाषचद्र बोस की अध्यक्षता में सीपी एण्ड बरार के घारा सभा के कांग्रेस दल की बैठक हुई जिसमें दल ने पं. रविशंकर शुक्ल को अपना नेता चुन लिया (इसके संबंध में मैं अपने पिछले फेसबुक पोस्ट में लिखा था -सन 1937 में 20 या 21 जुलाई को सी पी और बरार के प्रीमियर डॉ. खरे ने विधान सभा मे त्यागपत्र दिया था और इसके बाद असेम्बली पार्टी के नेता का चुनाव हुआ जिसमें जाजुजी, घनश्याम सिंह गुप्ता, पं रविशंकर शुक्ल, मेहता, खांडेकर और रामाराव देशमुख प्रस्तावित नाम थे। इनमे से जाजुजी से स्वीकृति प्राप्त नहीं की जा सकी थी और तीन लोगों ने अपना नाम वापस ले लिया। रामाराव देशमुख और पं रविशंकर शुक्ल के बीच हुए चुनाव में शुक्ल को 47 और देशमुख को 12 मत मिले, इस प्रकार शुक्ल जी नेता चुन लिए गए।
सरदार पटेल के चुनिंदा भाषणों की किताब और नागपुर स्टेट रिकार्ड में इस बात का उल्लेख है आगे डॉ खरे के द्वारा लेजिस्लेटिव असेम्बली में हंगामा किए जाने और कांग्रेस के बड़े नेताओं से शिकायत किये जाने का उल्लेख है जो पुरानी होने के कारण पढ़ते नहीं बन रहा है। आप लोगों में से कोई डॉ खरे और इस विवाद के संबंध में कोई जानकारी रखता हो तो कृपया बतावें।)। उक्त कांड के बाद डॉ. खरे नें 'माई टिफेन्स - मेरी सफाई' नाम से अपना एक स्पष्टीकरण और पार्टी नेताओं के विरूद्ध आरोप लगाते हुए प्रकाशित किया था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष व सुभाष बाबू ने डॉ. खरे की सफाई एवं आरोपों को को निराधार सिद्ध किया था।
-संजीव तिवारी
(शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ, द इंडियन इयर बुक व लीडर बाई मेरिट के आधार पर)
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